Sunday 13 June 2021

शल्य के सारथ्य में कर्ण का युद्धभूमि में प्रस्थान और दोनों का कटु संभाषण

संजय ने कहा_महाराज ! जब महान् धनुर्धर कर्ण युद्ध के लिये तैयार हो गया तो उसे देखकर समस्त कौरववीर हर्षध्वनि करने लगे।
कर्ण के प्रस्थान करते ही आपके पक्ष के सब वीरों ने मृत्यु का भय छोड़कर दुन्दुभि और भेरियों के शब्द के साथ युद्धभमि के लिये कूच किया। उस समय सारी पृथ्वी डगमगाने लगी तथा सबके घोड़े पृथ्वी पर गिर गये। कौरवों के विनाश की सूचना देनेवाले वहां ऐसे ही और भी अनेकों उत्पात हुए। किन्तु दैववश सबकी बुद्धि पर ऐसा मोहजाल छा गया कि उन्होंने उनकी कुछ भी परवाह नहीं की।
कर्ण के कूच करने पर सब राजाओं ने जयघोष किया। तब कर्ण ने राजा शल्य को सम्बोधन करके कहा, ‘इस समय मैं अस्त्र-शस्त्र धारण किये रथ में बैठा हूं, अब मुझे क्रोध में भरे हुए वज्रधर इन्द्र से भी भय नहीं है। इन भीष्मादि योद्धाओं को युद्ध में सोते हुए देखकर मेरा साहस बहुत बढ़ गया है। वास्तव में अर्जुन का मुकाबला रणभूमि में मेरे सिवा और कोई नहीं कर सकता। वह साक्षात् उग्ररूप मृत्यु के ही समान है। आचार्य द्रोण में शस्त्र संचालन की कुशलता, बल, धैर्य और विनय आदि सभी गुण थे, उनके पास बड़े_बड़े अस्त्र-शस्त्र भी थे, जब वे ही काल के गाल में चले गये तो सबको भी मैं और कमजोर समझता हूं। अस्त्र, बल, पराक्रम, क्रिया, नीति और बढ़िया_बढ़िया हथियार भी मनुष्य को सुख पहुंचाने में समर्थ नहीं है। देखो, गुरु द्रोणाचार्य इन सब बातों के रहते हुए भी शत्रुओं के हाथ से मारे गये। वे अग्नि  सूर्य के समान तेजस्वी, विष्णु और इन्द्र के समान पराक्रमी, वृहस्पति और इन्द्र के समान नितिकुशल और बड़े ही दु,:सह थे, तो भी अस्त्र-शस्त्र उनकी रक्षा नहीं कर सके। इस समय दुर्योधन का उत्साह ढ़ीला पड़ गया है; ऐसी स्थिति में मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह समझता हूं।  अब आप शत्रुओं के सेना ओर रथ बढ़ाइये। जहां सत्यप्रतिज्ञ राजा युधिष्ठिर मौजूद हैं, जहां भीमसेन, अर्जुन, श्रीकृष्ण, सात्यकि, सृंजयवीर और नकुल_सहदेव युद्ध के मैदान में डटे हुए हैं, वहां मेरे सिवा और कौन योद्धा इन सब वीरों से टक्कर ले सकता है ? इसलिेए मद्रराज ! आप शीघ्र ही रणभूमि में पांचाल, पाण्डव और सृंजयवीरों की ओर रथ ले चलिये। मैं उनके साथ चार हाथ करके या तो उन्हीं को मार डालूंगा या आचार्य द्रोण के मार्ग से स्वयं ही यमराज के पास चला जाऊंगा। धृतराष्ट्रनंदन दुर्योधन सर्वदा ही मेरे  के लिये प्रयत्न करते रहे हैं। उनके लिये मैं अपने प्रिय भोग और दुस्त्यज प्राणों को भी निछावर कर सकता हूं। मुझे यह श्रेष्ठ रथ भगवान् परशुरामजी ने दिया था; इसकी धूरी जरा भी शब्द नहीं करती। इसमें तरह_तरह के धनुष, ध्वजा, गदा, बाण, खड्ग और अनेकों बढ़िया_बढ़िया हथियार रखें हुए हैं। जिस समय यह चलता है, इससे वज्रपात के समान  भीषण घरघराहट होने लगती है। इसमें सफेद घोड़े जुते हुए हैं तथा अच्छे_अच्छे तरकस सुशोभित हैं। इस श्रेष्ठ रथ में बैठकर मैं अवश्य ही अर्जुन को मार डालूंगा। यदि स्वयं काल भी अर्जुन को बचाना चाहेगा तो मैं उसे भी नष्ट कर डालूंगा। अथवा भीष्म के समान स्वयं ही यमलोक चला जाऊंगा। अधिक क्या कहूं, यदि उसकी रक्षा के लिये यम, वरुण, कुबेर और इन्द्र भी अपने अनुयायियों सहित एक साथ मिलकर युद्धभूमि में आयेंगे तो मैं उसे उन सबके सहित परास्त कर दूंगा।‘ जब युद्ध के जोश में भरे हुए कर्ण ने ऐसी बातें कहीं तो उन्हें सुनकर मद्रराज हंसे और उसका तिरस्कार कर बीच में ही रोककर कहने लगे, ‘कर्ण ! बस अब चुप रहो। 
तुम जोश में आकर बहुत बढ़ी_चढ़ी बातें कह गये हों। भला, कहां नरश्रेष्ठ अर्जुन और कहां नराधम तुम। यह तो बताओ, अर्जुन के सिवा और ऐसा कौन है जो साक्षात्  विष्णु भगवान से सुरक्षित यादवों के राजभवन को बलात् नीचा दिखाकर स्वयं पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण की छोटी बहिन का हरण कर सके तथा तीनों लोकों के अधीश्वरों के भी  ईश्वर भगवान् शंकर को युद्ध के लिये ललकार सके।  जब विराटनगर में गोहरण के समय पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन ने तुम्हें सारी सेना और द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा एवं भीष्म के सहित परास्त किया था, उस समय तुमने उन्हें क्यों नहीं जीत लिया ? अब आज तुम्हारे वध के लिये ही यह दूसरा युद्ध उपस्थित हुआ है। यदि तुम शत्रु के डर से भाग न डरें तो अवश्य ही मारे जाओगे।‘
मद्रराज के इस प्रकार कटु भाषण करने पर कौरवसेनापति कर्ण अत्यन्त क्रोध में भर गया और उनसे कहने लगा, ‘रहने दो, रहने दो, इस प्रकार क्यों बड़बड़ाते हो, अब तो मेरा और अर्जुन का युद्ध होनेवाला है। यदि वह संग्राम में मुझे परास्त कर दे तो तुम्हारी ही बात सच मानी जायेगी। इसपर मद्रराज ने ‘ऐसा ही हो’ इतना कहकर और कोई उत्तर नहीं दिया। तब कर्ण ने युद्ध के लिये उत्सुक होकर उनसे कहा ‘शल्य ! रथ बढ़ाओ !’ युद्ध के लिये कूच करके कर्ण ने अपनी सेना को उत्साहित करने के लिये पाण्डवों के एक_एक वीर से मिलने पर कहा, ‘आज तुममें से जो कोई मुझे श्वेतवाहन अर्जुन से मिलवायेगा उसे मैं यथेच्छ धन दूंगा। यदि उतने से भी उसकी तृप्ति न हुई तो उसे रत्नों से भरा हुआ एक छकड़ा और दूंगा। यदि इससे भी संतोष न हुआ तो उसे सौ हाथी, सौ गांव, सौ सुवर्णमय रथ, सौ सुशिक्षित और हृष्ट_पुष्ट घोड़े तथा  सुवर्ण से मढ़े हुए सींगों वाली चार सौ दुधारु गौएं दूंगा। यदि इन सब को पाकर भी वह प्रसन्न न हुआ तो जो चीज वह स्वयं लेना चाहेगा वहीं उसे दूंगा। मेरे पास पुत्र, स्त्री तथा दूसरे जो भी भोगों के साधन हैं वह सब तथा और भी जिस वस्तु की वह इच्छा करेगा वही उसे दूंगा। जो पुरुष मुझे श्रीकृष्ण और अर्जुन का पता बतावेगा, उन दोनों को मारकर उनका सारा धन मैं उसी को दे दूंगा।‘ युद्धक्षेत्र में खड़े हुए कर्ण ने ऐसी ही अनेकों बातें कहीं तथा अपना श्रेष्ठ शंख बजाया। इन्हें सुनकर दुर्योधन तथा उसके अनुयायी बड़े प्रसन्न हुए। सब ओर दुंदुभि तथा मृदंगों का शब्द होने लगा तथा योद्धालोग सिंह के समान गरजने लगे। तब मद्रराज शल्य हंसकर कहा, ‘सूतपुत्र ! तुम्हें हाथी के समान बलवान् छः बैलों से जुता हुआ सोने का रथ देने की आवश्यकता नहीं है; अर्जुन तुम्हें स्वयं ही दीख जायेगा। तुम मूर्खता से ही कुबेर की तरह धन लुटाना चाहते हो, आज अर्जुन को तो तुम बिना यत्न के ही देख लोगे। तुम जो बुद्धिहीन पुरुषों के समान अपना सारा धन देने को तैयार हुए हो, इससे मालूम होता है कि अपात्र को धन देने में जो दोष है उनका तुम्हें पता नहीं है। तुम जो अपार धन देना चाहते हो उससे तो यज्ञादि करो। तुम मोहवश वृथा ही कृष्ण और अर्जुन को मारने की इच्छा करते हो। हमने यह बात तो कभी नहीं सुनी कि किसी गीदड़ ने युद्ध में सिंह को मार दिया हो। तुम्हें करने योग्य और न करने योग्य काम के विषय में कुछ भी विवेक नहीं है। नि:संदेह तुम्हारा काल आ पहुंचा है। कोई भी जीवित रहने वाला पुरुष भला ऐसी उटपटांग बातें कैसे कर सकता है ? तुम जो काम करना चाहते हो वह ऐसा है जैसे कोई अपनी भुजाओं के बल से समुद्र को पार करना चाहे अथवा पहाड़ की चोटी से कूदना चाहे। जब सव्यसाची अर्जुन अपना दिव्य धनुष लेकर सेना को पीड़ित करता हुआ तुम्हे पैने बातों से पीड़ित करेगा उस समय तुम्हे पछताना ही पड़ेगा। जिस प्रकार कोई माता की गोद में सोया हुआ बालक चन्द्रमा को पकड़ना चाहे, उसी प्रकार तुम अज्ञान से ही रथ में चढ़े हुए अर्जुन को परास्त करने की बात सोचते हो।
जिस प्रकार कोई घर के भीतर बैठा हुआ कुत्ता वन में रहने वाले सिंह की ओर भूंके, उसी प्रकार तुम पुरुषसिंह अर्जुन के लिये बड़बड़ा रहे हो। कर्ण ! वन में खरगोशों के साथ रहनेवाला गीदड़ भी जबतक सिंह को नहीं देखता तबतक अपने को सिंह ही समझता रहता है। इसी प्रकार जबतक तुम रथ पर चढ़े हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन को नहीं देखते हो तभी तक अपने को सिंह समझ रहे हो। जिस समय तुम्हारी दृष्टि अर्जुन पर पड़ेगी, तुम तत्काल ही गीदड़ बन जाओगे। जिस तरह अपनी_अपनी योग्यता के अनुसार लोक में चूहा और बिल्ली, कुत्ता और बाघ, गीदड़ और सिंह, खरगोश और हाथी, मिथ्या और सत्य, तथा विष और अमृत प्रसिद्ध हैं उसी प्रकार सब लोग तुम्हें और अर्जुन को भी समझते हैं। शल्य के इस प्रकार तिरस्कार करने पर उनके शल्यसदृश वाक्यों पर विचार करके कर्ण ने अत्यन्त कुपित होकर कहा, ‘शल्य ! गुणवानों के गुणों को तो गुणी जन ही परख सकते हैं, गुणहीनों को उनका पता नहीं लग सकता। तुममें कोई गुण तो है नहीं; इसलिेए तुम्हें गुणागुण का ज्ञान क्या हो सकता है ? अजी ! अर्जुन के बड़े_बड़े अस्त्र, क्रोध, पराक्रम, धनुष, बाण और वीरता को जैसा मैं जानता हूं, वैसा तुम नहीं समझ सकते। मेरा यह भयंकर बाण मनुष्य, घोड़े और हाथियों का संहार करनेवाला, अत्यन्त भीषण और कवच एवं अस्थियों को भी फोड़ डालनेवाला है। मैं रोष में भरने पर इससे पर्वतराज मेरु को भी तोड़ सकता हूं। किन्तु अर्जुन और श्रीकृष्ण को छोड़कर मैं किसी अन्य पुरुष पर इसका प्रयोग कभी नहीं करूंगा; क्योंकि संपूर्ण वृष्णिवंशियों की लक्ष्मी श्रीकृष्ण के आश्रित है और समस्त पाण्डवों की विजय का आधार अर्जुन है। मेरे सिवा और ऐसा कौन है जो इन दोनों से मुकाबला होने पर इन्हें संग्राम से पीछे हटा सके। अर्जुन के पास गाण्डीव धनुष है और श्रीकृष्ण के पास सुदर्शन चक्र। किन्तु ये भीरुपुरुषों को ही डराने वाली चीजें हैं, मुझे तो इनसे हर्ष ही होता है। तुम तो दुष्ट स्वभाव, मूर्ख और बड़ी_बड़ी लड़ाइयों से अनभिज्ञ हो। इस समय भय से पीड़ित हो और डर के कारण ही बहुत सी अनर्गल बातें बना रहे हो। अरे पापी देश में उत्पन्न हुए क्षत्रियकुलकलंक दुर्बुद्धि शल्य ! मैं इन दोनों को मारकर आज भाई_बन्धुओं के सहित तुम्हारा भी काम तमाम कर दूंगा। तुम हमारे शत्रु होकर भी सुहृद्_से बनकर मुझे श्रीकृष्ण और अर्जुन से डरा रहे हो, सो मैंने यह बात पहले ही सुन रखी है कि मद्रदेश का आदमी दुष्ट चित्त, असत्य भाषी और कुटिलचित्त होता है तथा उस देश के लोग मरते दम तक दुष्टता नहीं छोड़ते। यह असभ्यलोग मदिरापान करके हंसते और चिल्लाते रहते हैं, उटपटांग गीत गाते हैं, मनमाना आचरण करते हैं और आपस में अश्लील बातें किया करते हैं। उनमें भला धर्म कैसे रह सकता है ? ये लोग अपने घमंड और नीच कर्म के लिये प्रसिद्ध है। इसलिये इनके साथ वैर या मित्रता कभी नहीं करनी चाहिये। इनमें स्नेह नाम की कोई चीज है ही नहीं। जब किसी मनुष्य को बिच्छू काटता है तो गुणी लोग उसका विष उतारने के लिये यह मन्त्र पढ़ा करते हैं_’अरे बिच्छू ! जिस प्रकार मद्रदेश के लोगों से मित्रता नहीं हो सकती उसी प्रकार अब तेरा विष नष्ट हो गया है, क्योंकि मैंने अथर्ववेद के मंत्र से उसकी शान्ति कर दी है।‘ सो यह बात ठीक ही जान पड़ती है। मद्रदेश की स्त्रियां भी बड़ी स्वेच्छाचारिणी होती हैं। अतः उन्हीं के गर्भ से जन्म लेकर तुम धर्म की बात कैसे कह सकते हो ? ‘मैं मतिमान् दुर्योधन का प्रिय मित्र हूं। मेरे प्राण और सारी सम्पत्ति उन्हीं के लिये है। किन्तु मालूम होता है कि तुम्हे पाण्डवों ने अपनी ओर लिया है। इसी से तुम हमारे साथ सब प्रकार शत्रुका_सा बर्ताव कर रहे । पर याद रखो, जिस प्रकार नास्तिक लोग किसी धर्मज्ञ पुरुष को धर्मपथ से विचलित नहीं कर सकते, उसी प्रकार तुम जैसे सैकड़ों पुरुष भी मुझे संग्राम से विमुख नहीं कर सकते। गुरुवर परशुरामजी ने संग्राम में पीठ न दिखाकर देहत्याग करने वाले पुरुष सिंह की जो सद्गति होती है, वह मुझे बतलाई थी। उसका मुझे आज भी स्मरण है। मैं तो ऐसा समझता हूं कि तीनों लोकों में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो मुझे इस काम से हटा सके। इसलिये तुम चुप रहो। मैं तुम्हें मारकर मांसाहारी जीवों के हवाले कर देता; परंतु एक तो मुझे अपने मित्र दुर्योधन और राजा धृतराष्ट्र के काम का खयाल है, दूसरे तुम्हें मारने से निंदा होगी, तीसरे मैंने क्षमा करने का वचन दिया है_इन तीन कारणों से ही तुम अभी तक जीवित हो। किन्तु फिर यदि ऐसी बातें कहोगे तो मैं अपनी वज्रतुल्य गदा से तुम्हारा सिर पृथ्वी पर गिरा दूंगा। इसके बाद कर्ण फिर बेधड़क होकर कहा, ‘चलो, रथ बढ़ाओ।