Sunday 25 December 2016

उद्योग-पर्व---दुर्योधन की कुमंत्रणा, भगवान् का विश्वरूपदर्शन और कौरवसभा से प्रस्थान

दुर्योधन की कुमंत्रणा, भगवान् का विश्वरूपदर्शन और कौरवसभा से प्रस्थान
माता के कहे हुए इन नीतियुक्त वाक्यों पर दुर्योधन ने कुछ भी ध्यान नहीं दिया और वह बड़े क्रोध से सभा को छोड़कर अपने दुष्टबुद्धि मंत्रियों के पास चला आया।फिर दुर्योधन, कर्ण, शकुनि और दुःशासन---इन चारों ने मिलकर यह सलाह की कि 'देखो, यह कृष्ण राजा धृतराष्ट्र और भीष्म के साथ मिलकर हमें कैद करना चाहता है; सो पहले हमींलोग इसे बलात् कैद कर लें। कृष्ण को कैद हुआ सुनकर पाण्डवों का सारा उत्साह ठण्डा पड़ जायगा और वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो जायेंगे। सात्यकि इशारों से ही दूसरों के मन की बात जान लेते थे। वे तुरंत ही उनका भाव ताड़ गये और सभा से बाहर आकर कृतवर्मा से बोले, 'शीघ्र ही सेना सजाओ और जबतक मैं इनके कुविचार की श्रीकृष्ण को सूचना दूँ, तुम स्वयं कवच धारण कर सेना को व्यूहरचना की रीति से खड़ी करके सभाभवन के द्वार पर आ जाओ।' फिर सिंह जैसे गुफा में जाता है, उसी प्रकार सभा में जाकर उन्होंने श्रीकृष्ण से उनका वह कुविचार कह दिया। फिर वे मुस्कुराकर राजा धृतराष्ट्र और विदुर से कहने लगे, 'सत्पुरुषों की दृष्टि में दूत को कैद करना धर्म, अर्थ और काम के सर्वथा विरुद्ध है; किन्तु ये मूर्ख यही करने का विचार कर रहे हैं। इनका यह मनोरथ किसी प्रकार पूरा नहीं हो सकता। ये बड़े ही क्षुद्रहृदय हैं; इन्हेंनहीं सूझता कि श्रीकृष्ण को कैद करना वैसा ही है, जैसे कोई बालक जलती हुई आग कोकपड़े में लपेटना चाहे।' सात्यकि की यह बात सुनकर दीर्घदर्शी विदुरजी ने धृतराष्ट्र से कहा---'राजन् ! मालूम होता है आपके सभी पुत्रों को मौत ने घेर रखा है; इसलिये वे न करने योग्य और अपयश की प्राप्ति करनेवाला काम करने पर कमर कसे हुए हैं। देखिये न, ये लोग आपस में मिलकर बलात् इन कमलनयन श्रीकृष्ण का तिरस्कार करके इन्हे कैद करने का विचार कर रहे हैं ! किन्तु ये नहीं जानते कि आग के पास जाे ही जैसे पतंगे नष्ट हो जाते हैं, उसी तरह श्रीकृष्ण के पास पहुँचते ही इनका खोज मिट जायगा।' इसके बाद श्रीकृष्ण ने धृतराष्ट्र से कहा---'राजन् !यदि ये क्रोध में भरकर मुझे कैद करने का साहस कर रहे हैं तो आप जरा आज्ञा दे दीजिये; फिर देखें ये मुझे कैद करते हैं या मैं इन्हें बाँध लेता हूँ। अच्छा, यदि मैं इसी समय इन्हें और इनके अनुयायियों को बाँधकर पाण्डवों को सौंप दूँ तो मेरा यह काम अनुचित तो नहीं होगा ? राजन् ! मैं आपके सब पुत्रों को आज्ञा देता हूँ; दुर्योधन की जैसी इच्छा है, वह वैसा कर देखे।' इस पर महाराज धृतराष्ट्र ने विदुर से कहा---तुम शीघ्र ही पापी दुर्योधन को ले आओ; संभव है, इस बार मैं उसके अनुयायियों सहित उसे ठीक रास्ते पर ला सकूँ।' विदुरजी ने दुर्योधन की इच्छा न होने पर भी उसे फिर सभा में ले आये। इस समय उसके भाई और राजालोग भी उसके साथ ही लगे हुए थे।तब राजा धृतराष्ट्र ने उससे कहा, 'क्या रे कुटिल दुर्योधन ! तू अपने पापी साथियों के साथ मिलकर एकदम पापकर्म करने पर ही उतारू हो गया है ?  याद रख, तुझ जैसा मूढ़ और कुलकलंक पुरुष जो कुछ करने का विचार करेगा, वह कभी पूरा नहीं होगा; उससे सत्पुरुष तेरी निंदा करेंगे। कहते हैं तू अपने पापी साथियों से मिलकर इन श्रीकृष्ण को कैद करना चाहता है ? सो इन्हें तो इन्द्र के सहित सब देवता भी अपने काबू में नहीं कर सकते। तेरा यह दुःसाहस तो ऐसा है, जैसे कोई बालक चन्द्रमा को पकड़ना चाहे। मालूम होता है तुझे श्रीकेशव के प्रभाव का कुछ भी पता नहीं है। अरे ! जैसे वायु को हाथ से नहीं पकड़ा जा सकता और पृथ्वी को सिरपर नहीं उठाया जा सकता, वैसे ही श्रीकृष्ण को कोई बल से नहीं बाँध सकता।' इसके बाद विदुरजी बोले---दुर्योधन ! तू मेरी बात सुनो। देखो, श्रीकृष्ण को कैद करने का विचार नरकासुर ने भी किया था; किन्तु सब दानवों के साथ मिलकर भी वह ऐसा नहीं कर सका। फिर तुम इन्हें अपने बल-बूते पर पकड़ने का साहस कैसे करते हो ? इन्होंने बाल्यावस्था में ही पूतना और बकासुर को मार डाला था, गोव्धन पर्वत को हाथ में उठा लिया था तथा अरिष्ठासुर, धेनुकासुर, चाणूर, केशी और कंस को भी धूल में मिला दिया था। इसके सिवा ये जरासन्ध दानव का, शिशुपाल, वाणासुर तथा और भी अनेकों राजाओं को नीचा दिखा चुके हैं। साक्षात् वरुण, अग्नि और राजाओं को नीचा दिखा चुके हैं। अपने अन्य अवतारों में ये मधु कैटभ और हयग्रीवादी अनेक दैत्यों को पछाड़ चुके हैं। ये संपूर्ण प्रवृतियों के प्रेरक हैं, किन्तु स्वयं किसी की भी प्रेरणा से कोई काम नहीं करते। ये ही सकल पुरुषार्थों के कारण हैं। ये जो कुछ करना चाहें वही काम अनायास कर सकते हैं। तुम्हें इनके प्रभाव का पता नहीं है। देखो, यदि तुम इनका तिरस्कार करने का साहस करोगे तो उसी प्रकार तुम्हारा नाम-निशान मिट जायगा, जैसे अग्नि में गिरकर पतंगा नष्ट हो जाता है। विदुरजी का वक्तव्य समाप्त होने पर भगवान् कृष्ण ने कहा---'दुर्योधन ! तुम तो अज्ञानवश यह समझते हो कि मैं अकेला हूँ और मुझे दबाकर कैद करना चाहते हो, सो याद रखो, समस्त पाण्डव और वृष्णि तथा अंधकवंशीय यादव भी यहीं हैं। वे ही नहीं, आदित्य, रुद्र, वसु और समस्त महर्षिगण भी यहीं मौजूद हैं।' ऐसा कहकर शत्रुदमन श्रीकृष्ण ने अट्टहास किया। बस, तुरन्त ही उनके सब अंगों में बिजली-सी कान्तिवाले अंगष्टाकार सब देवता दिखायी देने लगे। उनके ललाटदेश में ब्रह्मा, वक्षःस्थल में रुद्र, भुजाओं में लोकपाल और मुख में अग्निदेव थे। आदित्य, साध्य, वसु, अश्विनीकुमार, इन्द्र सहित मरुद्गण, यक्ष, गन्धर्व और राक्षस---ये सब उनके शरीर से अभिन्न जान पड़ते थे। उनकी दोनो भुजाओं से बलभद्र और अर्जुन प्रकट हुए। उनमें धनुर्धर अर्जुन दाहिनी ओर और हलधर बलराम बायीं ओर थे।भीम, युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव उनके पृष्ठभाग में थे तथा प्रद्युम्नादि अंधक और वृष्णिवंशी यादव अस्त्र-शस्त्र लिये उनके आगे दीख रहे थे। उस समय श्रीकृष्ण के अनेकों भुजाएँ दिखायी देती थीं। उनमें वे शंख, चक्र, गदा, शक्ति, धनुष, हल और नन्दक खड्ग लिये हुए थे। उनके नेत्र, नासिका और कर्णरन्ध्रों से बड़ी भीषण आग की लपटें तथा सूर्य की-सी किरणें निकल रही थीं। श्रीकृष्ण के इस भयंकर रूप को देखकर सब राजाओं ने भयभीत होकर नेत्र मूँद लिये। केवल द्रोणाचार्य, भीष्म, विदुर, संजय और ऋषिलोग ही उसका दर्शन कर सके; क्योंकि भगवान् ने उन्हे दिव्यदृष्टि दे दी थी। सभाभवन में भगवान् का यह अद्भुत कृत्य देखकर देवताओं की दुंदुभियों का शब्द होने लगा तथा आकाश से पुष्पों की झड़ी लग गयी। तब राजा धृतराष्ट्र ने कहा, 'कमलनयन ! सारे संसार के हितकर्ता आप ही हैं, अतः आप हमपर कृपा कीजिये। मेरी प्रार्थना है कि इस समय मुझे दिव्य नेत्र प्राप्त हों; मैं केवल आपही के दर्शन करना चाहता हूँ, फिर किसी दूसरे को देखने की मेरी इच्छा नहीं है।' इसपर भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा, 'कुरुनन्दन तुम्हारे अदृश्यरूप से दो नेत्र हो जायँ।' जब सभा में बैठे हुए राजा और ऋषियों ने देखा कि महाराज धृतराष्ट्र को नेत्र प्राप्त हो गये हैं तो उन्हें बड़ा ही आश्चर्यहुआ और वे श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगे।उस समय पृथ्वी डगमगाने लगी, समुद्र में खलबली पड़ गयी और सब राजा भौचक्के-से रह गये। फिर भगवान् ने उस स्वरूप को तथा अपनी दिव्य, अद्भुत और चित्र-विचित्र माया को समेट लिया। इसके पश्चात् वे ऋषियों से आज्ञा ले सात्यकि और कृतवर्मा का हाथ पकड़े सभाभवन से चल दिये। उनके चलते ही नारदा दि ऋषि भी अन्तर्धान हो गये। श्रीकृष्ण को जाते देख राजाओं के सहित सब कौरव भी उनके पीछे-पीछे चलने लगे। किन्तु श्रीकृष्ण ने उन राजाओं की ओर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। इतने में ही दारुक उनका दिव्य रथ सजाकर ले आया। भगवान् रथ पर सवार हुए। उनके साथ ही महारथी कृतवर्मा भी चढ़ता दिखायी दिया। इस प्रकार जब वे जाने लगे तो महाराज धृतराष्ट्र ने कहा, 'जनार्दन ! पुत्रों पर मेा बल कितना काम करता है---यह आपने प्रत्यक्ष ही देख लिया। मैं तो चाहता हूँ कि किसी प्रकार कौरव पाण्डवों में मेल हो जाय और इसके लिये प्रयत्न भी करता हूँ। किन्तु अब मेरी दशा देखकर आप मुझपर संदेह न करें।' इसपर भगवान् कृष्ण ने राजा धृतराष्ट्र, द्रोणाचार्य, भीष्म, विदुर, कृपाचार्य और बाह्लीक से कहा---'इस समय कौरवों की सभामें जो कुछ हुआ है, वह आपने प्रत्यक्ष देख लिया तथा यह बात भी आप सबके सामने ही की है कि मंदबुद्धि दुर्योधन किस प्रकार फुनककर सभा से चला गया था। महाराज धृतराष्ट्र भी इस विषय में अपने को असमर्थ बता रहे हैं। अतः अब मैं आपसे आज्ञा चाहता हूँ और राजा युधिष्ठिर के पास जाता हूँ।' इस प्रकार आज्ञा लेकर जब भगवान् रथ में चढ़कर चलने लगे तो भीष्म, द्रोण, कृप, विदुर, धृतराष्ट्र, बह्लीक, अश्त्थामा, विकर्ण और युयुत्सु आदि कौरववीर कुछ दूर उनके पीछे गये। इसके बाद उन सबके देखते-देखते भगवान् अपनी बुआ कुन्ती से मिलने गये।

Tuesday 20 December 2016

उद्योग-पर्व---दुर्योधन और श्रीकृष्ण का विवाद, दुर्योधन का सभा त्याग, धृतराष्ट्र का गान्धारी को बुलाना और उसका दुर्योधन को समझाना

दुर्योधन और श्रीकृष्ण का विवाद, दुर्योधन का सभा त्याग, धृतराष्ट्र का गान्धारी को बुलाना और उसका दुर्योधन को समझाना

ये अप्रिय बातें सुनकर राजा दुर्योधन ने श्रीकृष्ण से कहा, 'केशव ! आपको अच्छी तरह सोच-समझकर बोलना चाहिये। आप तो पाण्डवों के प्रेम की दुहाई देकर उल्टी-सीधी बातें करते हुए बिशेषरूप से मुझे ही दोषी ठहरा रहे हैं। सो क्या आप बलाबल का विचार करके ही सर्वदा मेरी निंदा किया करते हैं? मैं देखता हूँ आप, विदुरजी, पिताजी, आचार्यजी और दादाजी अकेले मेर ही ऊपर सारे दोष लाद रहे हैं। मैने तो खूब विचारकर देख लिया, मुझे अपना कोई भी बड़े-से-बड़ा या छोटे-से-छोटा दोष दिखायी नहीं देता। पाण्डवलोग अपने ही शौक से जूआ खेलने में प्रवृत हुए थे; उसमें मामा शकुनि ने उनका राज्य जीत लिया, इसी से उन्हें वन जाना पड़ा। बताइये, इसमें मेरा क्या अपराध था, जो हमारे साथ वैर ठानकर वे विरोध कर रहे हैं ? हम जानते हैं पाण्डवों में हमारा सामना करने की शक्ति नहीं है, फिर भी बड़े उत्साह के साथ वे हमारे प्रति शत्रुओं का-सा वर्ताव क्यों कर रहे हैं ? हम उनके भयानक कर्मों को देखकर या आपलोगों की भीषण बातों को सुनकर डरनेवाले नहीं है। इस प्रकार तो हम इन्द्र के सामने भी नहीं झुक सकते। कृष्ण ! हमें तो ऐसा कोई भी क्षत्रिय दिखायी नहीं देता, जो युद्ध में हमें जीतने की हिम्मत रखता हो। भीष्म, द्रोण, कृप और कर्ण को तो देवतालोग भी युद्ध में नहीं जीत सकते; पाण्डवों की तो बात ही क्या है ? फिर स्वधर्म का पालन करते हुए हम यदि युद्ध में काम ही आ गये तो स्वर्ग प्राप्त करेंगे। यह तो क्षत्रियों का प्रधान धर्म है। इस प्रकार यदि हमें युद्ध में वीरगति प्राप्त हुई तो कोई पछतावा नहीं होगा; क्योंकि उद्योग करना ही पुरुष का धर्म है। ऐसा करते हुए मनुष्य चाहे नष्ट भले ही हो जाय, किन्तु उसे झुकना नहीं चाहिये। मुझ-जैसा वीर पुरुष तो धर्म रक्षा के लिये केवल ब्राह्मणों को नमस्कार करता है और किसी को कुछ भी नहीं समझता। यही क्षत्रिय का धर्म है और यही मेरा मत है। पिताजी मुझे पहले जो राज्य का भाग दे चुके हैं, उसे मेरे जीवित रहते कोई ले नहीं सकता। मेरी बाल्यावस्था में अज्ञान या भय के कारण ही पाण्डवों को राज्य मिल गया था। अब वह उन्हें फिर नहीं मिल सकता। केशव ! जबतक मैं जीवित हूँ, तबतक तो पाण्डवों को इतनी भूमि भी नहीं दे सकता जितनी कि एक बारीक सूई की नोक से छिद सकती है। दुर्योधन की ये बातें सुनकर श्रीकृष्ण की त्यौरी चढ़ गयी। फिर उन्होंने कुछ देर बिचारकर कहा---"दुर्योधन ! यदि तुम्हें वीरशय्या की इच्छा है तो कुछ दिन अपने मंत्रियों के सहित धैर्य धारण करो। तुम्हे अवश्य वही मिलेगी और तुम्हारी यह कामना पूर्ण होगी। पर याद रखो, बड़ा भारी जनसंहार होगा। और तुम जो ऐसा मानते हो कि पाण्डवों के साथ मेरा कोई दुर्व्यवहार नहीं हुआ, सो इस विषयमें यहाँ जो राजा लोग उपस्थित हैं वे ही विचार करें। देखो, पाण्डवों के वैभव से जल-भुनकर तुमने और शकुनि ने ही तो जूआ खेलने की खोटी सलाह की थी। जूआ तो भले आदमियों की बुद्धि को भ्रष्ट करनेवाला है ही। जो दुष्ट पुरुष इसमें प्रवृत होते हैं, उनमें कलह और क्लेश की ही वृद्धि होती है। और तुमने द्रौपदी को सभा में बुलाकर खुल्लमखुल्ला जैसी-जैसी अनुचित बातें कहीं थी, अपनी भाभी के साथ ऐसी कुचाल क्या कोई भी कर सकता है ? अपने सदाचारी, अलोलुप और सर्वदा धर्म का आचरण करनेवाले भाइयों के साथ कौन भला आदमी ऐसा दुर्व्यवहार कर सकता है ?  उस समय कर्ण, दुःशासन और तुमने क्रूर और नीच पुरुषों के समान अनेकों कटु शब्द कहे थे। तुमने वारणावत में बालक पाण्डवों को उनकी माता के सहित फूँक डालने का बड़ा भारी यत्न किया था। उस समय पाण्डवों को बहुत सा समय अपनी माता के सहित छिपे-छिपे एकचक्रा नगरी में बिताना पड़ा था। इसके सिवा विष देने आदि अनेकों उपायों से तुम पाण्डवों के मारने का यत्न करते रहे हो; परन्तु तुम्हारा कोई उद्योग सफल नहीं हुआ। इस प्रकार पाण्डवों के प्रति तुम्हारी सर्वदा खोटी बुद्धि और कपटमय आचरण रहा है। फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि महात्मा पाण्डवों के प्रति तुम्हारा कोई अपराध नहीं है। यदि तुम पाण्डवों को उनका पैतृक भाग नहीं दोगे तो पापात्मन् ! याद रखो, तुम्हे ऐश्वर्य से भ्रष्ट होकर और उनके हाथ से मरकर वह देना पड़ेगा। तुमने कुटिल पुरुषों के समान पाण्डवों के साथ अनेकों न करने योग्य काम किये हैं और आज भी तुम्हारी उल्टी चाल ही दिखायी दे रही है। तुम्हारे माता-पिता, पितामह, आचार्य और विदुरजी बार-बार कह रहे हैं कि तुम सन्धि कर लो; फिर भी तुम सन्धि करने को तैयार नहीं हो। अपने इन हितैषियों की बात को न मानकर तुम कभी सुख नहीं पा सकते। तुम जो काम करना चाहते हो, वह तो अधर्म और अपयश का ही कारण है।' जिस समय भगवान् कृष्ण यह सब बातें कह रहे थे, उस समय बीच ही में दुःशासन दुर्योधन से कहने लगा, राजन् ! आप यदि आप अपनी इच्छा से पाण्डवों के साथ सन्धि नहीं करेंगे तो मालूम होता है ये भीष्म, द्रोण और हमारे पिताजी आपको, मुझे और कर्ण को बाँधकर पाण्डवों के हाथ में बाँधकर पाण्डवों के हाथ में सौंप देंगे।'  भाई की यह बात सुनकर दुर्योधन का क्रोध और बढ़ गया और वह साँप की तरह फुँफकार मारता हुआ विदुर, धृतराष्ट्र, बाह्लीक, कृप, सोमदत्त, भीष्म, द्रोण और श्रीकृष्ण---इन सभी का तिरस्कार कर वहाँ से चलने को तैयार हो गया। उसे जाते देख उसके भाई, मंत्री और सब राजालोग भी सभा छोड़कर चल दिये। तब पितामह भीष्म ने कहा, 'राजकुमार दुर्योधन बड़ा दुष्टचित्त है। वह दूषित उपायों का ही आश्रय लेता है। इसे राज्य का झूठा अभिमान है तथा क्रोध और लोभ ने इसे दबा रखा है। श्रीकृष्ण ! मैं तो समझता हूँ इन सब क्षत्रियों का काल आ गया है। इसी से अपने मंत्रियों के सहित ये सब दुर्योधन का अनुसरण कर रहे हैं।' भीष्म की ये बातें सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा---'कौरवों में जो बयोवृद्ध हैं, उन सभी की यह बड़ी भूल है कि वे ऐश्वर्य के मद से उन्मत्त दुर्योधन को बलात् कैद नहीं कर लेते। इस विषय में मुझे जो बात मुझे स्पष्टतया हित की जान पड़ती है, वह मैं आपसे साफ-साफ कहे देता हूँ।  आपको यदि यह अनुकूल और रुचिकर जान पड़े तो कीजियेगा। देखिये, भोजराज उग्रसेन का पुत्र कंस बड़ा दुराचारी और दु्बुद्धि था।  उसने पिता के जीवित रहते उनका राज्य छीन लिया था। अन्त में उसे प्राणों से हाथ धोना पड़ा। अतः आपलोग भी दुर्योधन, कर्ण, शकुनि और दुःशासन---इन चारों को बाँधकर पाण्डवों को सौंप दीजिये। कुल की रक्षा लिये एक पुरुष को, ग्राम की रक्षा लिये कुल को , देश की रक्षा के लिये ग्राम को, और अपनी रक्षा के लिये सारी पृथ्वी को त्याग देना चाहिये। इसलिये आपलोग भी दुर्योधन को कैद करके पाण्डवों से सन्धि कर लीजिये। इससे आपके कारण इन सब क्षत्रियों का नाश तो न होगा।' श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर राजा धृतराष्ट्र ने विदुर से कहा---"भैया ! तुम परम बुद्धिमती गान्धारी के पास जाओ और उसे यहाँ लिवा लाओ। मैं उसके साथ दुरात्मा दुर्योधन को समझाऊँगा।' तब विदुरजी दीर्घदर्शिनी गान्धारी को सभा में ले आये। उससे धृतराष्ट्र ने कहा, 'गान्धारी ! तुम्हारा यह दुष्ट पुत्र मेरी बात नहीं मानता। इसने अशिष्ट पुरुषों के समान सब मर्यादा छोड़ दी है। देखो, वह हितैषियों की बात न मानकर इस समय अपने पापी और दुष्ट साथियों के सहित सभा से चला गया है।' पति की यह बात सुनकर गान्धारी ने कहा---राजन् ! आप पुत्र के मोह में फँसे हुए हैं, इसलिये इस विषय में आप ही अधिक दोषी हैं। आप यह जानकर भी कि दुर्योधन बड़ा पापी है, उसी की बुद्धि के पीछे चलते रहे हैं। दुर्योधन को भी तो काम, क्रोध और लोभ ने अपने चंगुल में फंसा रखा है। अब आप बलात् भी उसे इस मार्ग से नहीं हटा सकेंगे। आपने इस मूर्ख, दुरात्मा, कुसंगी और लोभी पुत्र को बिना कुछ सोचे-समझे राज्य की बागडोर सँभला दी; उसी का आप यह फल भोग रहे हैं। आप अपने घर में जो फूट पड़ रही है, उसकी उपेक्षा क्यों करते हैं ? इस तरह स्वजनों के फूटने पर तो शत्रुलोग आपकी हँसी करेंगे। देखिये, यदि साम या भेद से ही विपत्ति टल सकती है तो तो कोई भी बुद्धिमान् स्वजनों के दण्ड का प्रयोग क्यों करेगा ? इसके बाद राजा धृतराष्ट्र और गान्धारी के कहने से विदुरजी दुर्योधन को फिर सभा में लिवा लाये। दुर्योधन की आँखें क्रोध से लाल हो रहीं थी और वह सर्प के समान फुफकारें-सी भर रहा था। इस समय माता क्या कहती हैं---यह सुनने के लिये फिर राजसभा में आ गया। तब गान्धारी ने दुर्योधन को झिड़ककर संधि करने के लिये इस प्रकार कहा, 'बेटा दुर्योधन ! मेरी यह बात सुनो। इससे तुम्हारा और तुम्हारी संतान का हित होगा तथा भविष्य में भी तुम्हे सुख मिलेगा। तुमसे तुम्हारे पिता, भीष्मजी, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और विदुरजी ने जो बात कही है, उसे तुम स्वीकार कर लो। यदि तुम पाण्डवों से सन्धि कर लोगे तो, सच मानो, इससे पितामह भीष्म की, पिताजीकी, मेरी और द्रोणाचार्य आदि अपने हितैषियों की तुम्हारे द्वारा बड़ी सेवा होगी। भैया ! राज्य को पाना, बचाना और भोगना अपने वश की बात नहीं है। जो पुरुष जितेन्द्रिय होता है, वही राज्य की रक्षा कर सकता है। काम और क्रोध तो मनुष्य को अर्थ से च्युत कर देते हैं। हाँ, इन दोनो शत्रुओं को जीतकर तो राजा सारी पृथ्वी को जीत सकता है। जिस प्रकार उद्दण्ड घोड़े मार्ग ही में मूर्ख सारथि को मार डालते हैं, उसी प्रकार यदि इन्द्रियों को काबू में न रखा जाय तो वे मनुष्य का नाश करने के लिये भी पर्याप्त है। जो पुरुष पहले अपने मन को जीत लेता है, उसकी अपने मंत्रियों और शत्रुओं को जीतने की इच्छा भी व्यर्थ नहीं जाती। इस प्रकार इन्द्रियाँ जिसके वश में है,मंत्रियों पर जिसका अधिकार है, अपराधियों को जो दण्ड दे सकता है और जो सब काम सोच समझकर करता है, उसके पास चिरकाल तक लक्ष्मी बनी रहती है। तात ! भीष्मजी और द्रोणाचार्यजी ने जो कुछ कहा है, वह ठीक ही है। वास्तव में, श्रीकृष्ण और अर्जुन को कोई नहीं जीत सकता। इसलिये तुम श्रीकृष्ण की शरण लो। यदि ये प्रसन्न होंगे तो दोनो ही पक्षों का हित होगा। भैया ! युद्ध करने में कल्याण नहीं है। उसमें धर्म और अर्थ ही नहीं है, तो सुख कहाँ से होगा ? युद्ध में विजय मिल ही जायगी---ऐसा भी नहीं कहा जा सकता; इसलिये तुम युद्ध में मन मत लगाओ। यदि तुम अपने मंत्रियों सहित राज्य भोगना चाहते हो तो पाण्डवों का जो न्यायोचित भाग है, वह उन्हें दे दो। पाण्डवों को जो तेरह वर्ष तक घर से बाहर रखा गया, वह भी बड़ा अपराध हुआ है। अब सन्धि करके तुम इसका मार्जन कर दो। तुम जो पाण्डवों का भाग भी हड़पना चाहते हो वैसा करने की तुम्हारी शक्ति नहीं है और ये कर्ण तथा दुःशासन भी ऐसा कर नहीं सकेंगे। तुम्हारा जो ऐसा विचार है कि भीष्म, द्रोण और कृप आदि महारथी अपनी पूरी शक्ति से मेरी ओर से युद्ध करेंगे---यह भी सम्भव नहीं है; क्योंकि इन आत्मज्ञों की दृष्टि में तो तुम्हारा और पाण्डवों का समान स्थान है। इसलिये इनके लिये तुम दोनो का राज्य और प्रेम भी समान ही है तथा धर्म को को ये उससे अधिक मानते हैं। इस राज्य का अन्न खाने के कारण ये अपने प्राण भले ही त्याग दें, किन्त राजा युधिष्ठिर की ओर कभी टेढ़ी दृष्टि नहीं करेंगे। तात ! संसार में लोभ करने से किसी को सम्पत्ति नहीं मिलती। अतः तुम लोभ छोड़ दो और पाण्डवों से सन्धि कर लो।

Thursday 8 December 2016

उद्योग-पर्व---श्रीकृष्ण का दुर्योधन को समझाना तथा भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र के द्वारा उनका समर्थन

श्रीकृष्ण का दुर्योधन को समझाना तथा भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र के द्वारा उनका समर्थन
भगवान् वेदव्यास, भीष्म और नारदजी ने भी दुर्योधन को अनेक प्रकार से समझाया। उस समय नारदजी ने जो बातें कहीं थी, वो इस प्रकार हैं---'उस समय नारदजी ने जो बातें कहीं थी, वो इस प्रकार हैं---'संसार में सहृदय श्रोता मिलना कठिन है और हित की बात करनेवाला सुहृद भी दुर्लभ है; क्योंकि जिस संकट में अपने सगे-संबंधी भी साथ छोड़ देते हैं, वहाँ भी सच्चा मित्र संग बना रहता है। अतः कुरुनन्दन तुम्हें अपने हितैषियों की बात पर अवश्य ध्यान देना चाहिये; इस तरह हठ करना ठीक नहीं है, क्योंकि हठ का परिणाम बड़ा ही दुखदायी होता है।' धृतराष्ट्र ने कहा---भगवन् ! आप जैसा कह रहे हैं, ठीक ही है। मैं भी यही चाहता हूँ, परन्तु ऐसा कर नहीं पाता। इसके बाद श्रीकृष्ण से कहने लगे---'केशव ! आपने जो कुछ कहा है वह सब प्रकार सुखप्रद, सद्गति देनेवाला, धर्मानुकूल और न्यायसंगत है; किन्तु मैं स्वाधीन नहीं हूँ। मन्दमति दुर्योधन मेरे मन के अनुकूल आचरण नहीं करता और न शास्त्र का ही अनुसरण करता है। आप किसी प्रकार उसे समझाने का प्रयत्न करें। वह गान्धारी, बुद्धिमान विदुरजी तथा भीष्मादि जो हमारे अन्य हितैषी हैं, उनकी शुभ शिक्षा पर भी कुछ ध्यान नहीं देता। अब स्वयं आप ही इस पापबुद्धि, क्रूर और दुरात्मा दुर्योधन को समझाइये। यदि इसने आपकी बात मान ली तो आपके हाथ से अपने सुहृदों का यह बड़ा भारी काम हो जायगा।' तब सब प्रकार के धर्म और अर्थ के रहस्य को जाननेवाले श्रीकृष्ण मधुर वाणी में दुर्योधन से कहने लगे---'कुरुनन्दन !  मेरी बात सुनो। इससे तुम्हारे परिवार को बड़ा सुख मिलेगा। तुमने बड़े बुद्धिमानों के कुल में जन्म लिया है, इसलिये तुम्हे यह शुभ काम कर डालना चाहिये। तुम जो कुछ करना चाहते हो, वैसा काम तो वे लोग करते हैं, जो नीच कुल में पैदा हुए हैं तथा दुष्टचित्त, क्रूर और निर्लज्ज हैं। इस विषय में तुम्हारी जो हठ है वह बड़ी भयंकर, अधर्मरूप और प्राणों की प्यासी है। उससे अनिष्ट ही होगा। उसका कोई प्रयोजन भी नही है और न वह सफल ही हो सकती है। इस अनर्थ को त्याग देने पर ही तुम अपना तथा अपने भाई, सेवक और मित्रों का हित कर सकोगे तथा तुम जो अधर्म और अपयश की प्राप्ति करनेवाला काम करना चाहते हो, उससे छूट जाओगे। देखो, पाण्डवलोग बड़े बुद्धिमान, शूरवीर, उत्साही, आत्मज्ञ और बहुश्रुत है; तुम उनके साथ सन्धि कर लो। इसी में तुम्हारा हित है और यही महाराज धृतराष्ट्र, पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य, विदुर, कृपाचार्य, सोमदत्त, बाह्लीक, अश्त्थामा, विकर्ण, संजय, विविंशति तथा तुम्हारे अधिकांश बन्धु-बान्धवों और मित्रों को प्रिय भी हैं। भाई ! सन्धि करने में ही सारे संसार की शान्ति है। तुममें लज्जा, शास्त्रज्ञान और अक्रूरता आदि गुण भी हैं। अतः तुम्हे अपने माता-पिता की आज्ञा में ही रहना चाहिये। पिता जो कुछ शिक्षा देते हैं, उसे सब लोग हितकारी मानते हैं। जब मनुष्य बड़ी भारी विपत्ति में पड़ जाता है, तब उसे अपने पिता की ही सीख याद आती है। तुम्हारे पिताजी को तो पाण्डवों से सन्धि करना अच्छा मालूम होता है। अतः तुम्हे और तुम्हारे मंत्रियों को भी यह प्रस्ताव अच्छा लगना चाहिये।जो पुरुष मोहवश हित की बात नहीं मानता, उस दीर्घसूत्री का कोई काम पूरा नहीं होता और कोरा पश्चाताप ही उसके पल्ले पड़ता है। किन्तु जो हित की बात सुनकर अपने मत को छोड़ पहले उसी का आचरण करता है, वह संसार में सुख और समृद्धि को प्राप्त करता है। जो पुरुष अपने मुख्य सलाहकारों को छोड़कर नीच प्रकृति के पुरुषों का संग करता है, वह बड़ी भारी विपत्ति में पड़ जाता है और फिर उसे उससे निकलने का रास्ता नहीं मिलता। 'तात ! तुमने जन्म से ही अपने भाइयों के साथ कपट का व्यवहार किया है; तो भी यशस्वी पाण्डवों ने तुम्हारे प्रति सद्भाव ही रखा है। तुम्हे भी उनके प्रति वर्ताव करना चाहिये। वे तुम्हारे खास भाई ही हैं, उनपर तुम्हे रोष नहीं रखना चाहिये। श्रेष्ठ पुरुष ऐसा काम करते हैं, जो अर्थ, धर्म और काम की प्राप्ति करानेवाला हो; और यदि उससे इन तीनों की सिद्धि होने की सम्भावना नहीं होती तो वे धर्म और अर्थ को ही सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। अर्थ, धर्म और काम---ये तीनों अलग-अलग हैं। बुद्धिमान पुरुष इनमें से धर्म के अनुकूल रहते हैं, मध्यम पुरुष अर्थ को प्रधान मानते हैं और मूर्ख कलह के हेतुभूत काम के गुलाम बने रहते हैं। किन्तु जो पुरुष इन्द्रियों के वशीभूत होकर लोभवश धर् को छोड़ देता है, वह दूषित उपायों से अर्थ और कामप्राप्ति की वासना में फँसकर नष्ट हो जाता है। अतः जो पुरुष अर्थ और काम के लिये उत्सुक हो, उसे पहले धर्म का ही आचरण करना चाहिये। विद्वान् लोग धर्म को ही त्रिवर्ग की प्राप्ति का एकमात्र कारण बताते हैं। जो पुरुष अपने से सद्व्यवहार करनेवाले लोगों से दुर्व्यवहार करता है, वह कुल्हाड़ी से वन के समान आप ही अपनी जड़ काटता है। मनुष्य को चाहिये कि जिसे नीचा दिखाने की इच्छा न हो, उसकी बुद्धि लोभ से भ्रष्ट न करे। इस प्रकार जिसकी बुद्धि लोभ से दूषित नहीं है, उसी का मन कल्याण साधन में लग सकता है। ऐसा शुद्धबुद्धिवाला पुरुष, पाण्वों का तो क्या, संसार में किन्हीं साधारण मनुष्यों का भी अनादर नहीं करता। किन्तु क्रोध के चंगुल में फँसा हुआ मनुष्य अपना हिताहित कुछ नहीं समझता। लोक और वेद में जो बड़े-बड़े प्रमाण प्रसिद्ध हैं, उनसे भी वह गिर जाता है। अतः दुर्जनों की अपेक्षा यदि तुम पाण्डवों का संग करोगे तो तुम्हारा ही कल्याण होगा। तुम जो पाण्डवों की ओर मुँह मोड़कर किसी दूसरे के भरोसे अपनी रक्षा करना चाहते हो तथा दुःशासन, कर्ण और शकुनि के हाथ में अपना ऐश्वर्य सौंपकर पृथ्वी को जीतने की आशा रखते हो; सो याद रखो---ये तुम्हे ज्ञान, धर्म और अर्थ की प्राप्ति नहीं करा सकते। पाण्डवों के मने इनका कुछ भी पराक्रम नहीं चल सकता। तुम्हें साथ रखकर भी ये सब राजा पाण्डवों की टक्कर से नहीं झेल सकते। तुम्हारे पास यह जितनी सेना इकट्ठी हुई है, वह क्रोधित भीमसेन के मुख की ओर तो आँख भी नहीं उठा सकती। ये भीष्म, द्रोण, कर्ण, कृप, भूरिश्रवा, अश्त्थामा और जयद्रथ मिलकर भी अर्जुनका मुकाबला नहीं कर सकते। अर्जुन को युद्ध में परास्त करना तो समस्त देवता, असुर, गन्धर्व और मनुष्यों के भी वश की बात नहीं है। इसलिये तुम युद्ध में अपना मन मत लगाओ।
अच्छा ! भला तुम इन सब राजाओं में कोई ऐसा वीर दिखाओ जो रणभूमि में अर्जुन का सामना करके फिर सकुशल लौट आ सकता हो। इसके लिये विराटनगर में अकेले अर्जुन की अनेकों महारथियों से युद्ध करने की जो अद्भुत बात सुनी जाती है, वही प्रमाण है। अजी ! जिसन संग्राम में साक्षात् श्रीशंकर को भी संतुष्ट कर दिया, उस अजेय और विजयी वीर अर्जुन को तुम जीतने की आशा रखते हो ? फिर जब मैं भी उसके साथ हूँ तब तो, साक्षात् इन्द्र ही क्यों न हो, ऐसा कौन है जो अपने मुकाबले में आये हुए अर्जुन को युद्ध के लिये ललकार सके।जो पुरुष अर्जुन को जीतने की शक्ति रखता है वह तो अपने हाथों से पृथ्वी को उठा सकता है, क्रोध से सारी प्रजा को भष्म कर सकता है और देवताओं को भी स्वर्ग से गिरा सकता है। तुम तनिक अपने पुत्र, भाई, बन्धु-बान्धव और सम्बन्धियों की ओर तो देखो। ये तुम्हारे लिये नष्ट न हों। देखो ! कौरवों का बीज बना रहने दो, इस वंश का पराभव मत करो; अपने को 'कुलघाती' मत कहलाओ और अपनी कीर्ति को कलंकित मत करो। महारथी पाण्डव तुम्हे ही युवराज बनायेंगे और इस साम्राज्य पर तुम्हारे पिता धृतराष्ट्र को ही स्थापित करेंगे। देखो, बड़े उत्साह से अपने पास आती हुई राजलक्ष्मी का तिरस्कार मत करो और पाण्डवों को आधा राज्य देकर यह महान् ऐश्वर्य प्राप्त कर लो। यदि तुम पाण्डवों से सन्धि कर लोगे और अपने हितैषियों का बात मानोगे तो चिरकाल तक अपने मित्रों के साथ आनन्दपूर्क सुख भोगोगे।' श्रीकृष्ण का यह भाषण सुनकर शान्तनुनन्दन भीष्म ने दुर्योधन से कहा---'तात ! अपने सुहृदों का हित चाहनेवाले श्रीकृष्ण ने तुम्हे समझाया है, इसका यही आशय है कि तुम अब भी मान जाओ और व्यर्थ की असहिष्णुता छोड़ दो। यदि तुम महामना श्रीकृष्ण की बात नहीं मानोगे तो तुम्हारा कभी हित नहीं हो सकता और न तुम सुख ही पा सकोगे। श्रीकेशव ने जो कुछ कहा है, वह धर्म और अर्थ के अनुकूल है। तुम उसे स्वीकार कर लो, व्यर्थ प्रजा का संहार मत कराओ। यदि तुम ऐसा नहीं करोगे तो तुम्हे तथा तुम्हारे मन्त्री, पुत्र और बन्धु-बान्धवों को अपने प्राणों से भी हाथ धोने पड़ेंगे। भरतनन्दन ! श्रीकृष्ण, धृतराष्ट्र और विदुर के नीतियुक्त का उल्लंघन कर तुम अपने को कुलघ्न, कुपुरुष, कुमति और कुमार्गगामी मत कहलाओ तथा अपने माता-पिता को शोकसागर में मत डुबाओ।'  इसके बाद द्रोणाचार्य ने कहा---'राजन् ! श्रीकृष्ण और भीष्मजी बड़े बुद्धिमान, मेधावी, जितेनद्रिय, अर्थनिष्ठ और बहुश्रुत हैं। उन्होंने तुम्हारे हित की ही बात कही है, तुम उसे मान लो और मोहवश श्रीकृष्ण का तिरस्कार मत करो। जो लोग तुम्हे युद्ध के लिये उत्साहित कर रहे हैं, उनसे तुम्हारा कुछ भी काम बन नहीं सकेगा; ये तो संग्राम में शत्रुओं के प्रति वैर-विरोध का घण्टा दूसरों के ही गले में ही बाँधेंगे। तुम अपनी प्रजा और पुत्र तथा बन्धु और बान्धवों के प्राणों को संकट में मत डालो। यह बात निश्चय मानो कि जिस पक्ष में श्रीकृष्ण और अर्जुन होंगे, उसे कोई भी जीत नहीं सकेगा। यदि तुम अपने हितैषियों की बात नहीं मानोगे तो पीछे तुम्हे पछतावा ही हाथ लगेगा। परशुरामजी ने अर्जुन के विषय में जो कुछ कहा है, वास्तव में वह उससे भी बढ़कर है, तथा देवकीनन्दन श्रीकृष्ण तो देवताओं के लिये भी दुःसह हैं। किन्तु राजन् ! तुम्हारे सुख और हित की बात कहने से बनता क्या है ? अस्तु, तुमसे सब बातें समझाकर कह दी गयीं; अब जो तुम्हारी इच्छा हो, वह करो। मैं तुमसे और अधिक कुछ नहीं कहना चाहता। इसी बीच में विदुरजी भी बोल उठे---'दुर्योधन ! तुम्हारे लिये तो मुझे कोई चिन्ता नहीं है; मुझे तो तुम्हारे इस बूढ़े माँ-बाप की ओर देखकर ही शोक होता है, जो तुम्हारे-जैसे दुष्टहृदय पुरुष के संरक्षण में होने से एक दिन अपने सब सलाहकार और सुहृदों के मार जाने पर कटे हुए पक्षियों के समान असहाय होकर भटकोगे।' अन्त में राजा धृतराष्ट्र कहने लगे---'दुर्योधन ! महात्मा कृष्ण ने जो बात कही है, वह सब प्रकार कल्याण करनेवाली हैं। तुम उसपर ध्यान दो और उसी के अनुसार आचरण करो। देखो, पुण्यकर्मा श्रीकृष्ण की सहायता से हम सब राजाओं से अपने अभीष्ट पदार्थ प्राप्त कर सकते हैं। तुम इनके साथ राजा युधिष्ठिर के पास जाओ और वह काम करो, जिससे सब भरतवंशियों का मंगल हो। मेरी समझ में तो यह संधि करने का ही समय है, तुम इसे हाथ से मत जाने दो। देखो, श्रीकृष्ण सन्धि के लिये प्रार्थना कर रहे है और तुम्हारे हित की बात कह रहे हैं। इस समय यदि तुम इनकी बात नहीं मानोगे तो तुम्हारा पतन किसी प्रकार नहीं रुक सकेगा।

Wednesday 30 November 2016

उद्योग-पर्व---परशुरामजी और महर्षि कण्व का सन्धि के लिये अनुरोध तथा दुर्योधन की उपेक्षा

परशुरामजी और महर्षि कण्व का सन्धि के लिये अनुरोध तथा दुर्योधन की उपेक्षा
जब भगवान् कृष्ण ने ये सब बातें कहीं तो सभी सभासदों का रोमांच हो आया और वे चकित से हो गये। वे मन-ही-मन तरह-तरह से विचार करने लगे। उनके मुख से कोई भी उत्तर नहीं मिला। सब राजाओं को इस प्रकार मौन हुआ देख उस सभा में बैठे हुए महर्षि परशुरामजी कहने लगे, "राजन् ! तुम सब प्रकार का संदेह छोड़कर मेरी एक सत्य बात सुनो। वह तुम्हे अच्छी लगे तो उसके अनुसार आचरण करो। पहले दम्भोदव नाम का एक सार्वभौम राजा हो गया है। वह महारथी सम्राट नित्यप्रति प्रातःकाल उठकर ब्राह्मण और क्षत्रियों से पूछा करता था कि 'क्या ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों में कोई ऐसा शस्त्रधारी है, जो युद्ध में मेरे समान अथवा मुझसे बढ़कर हो ?' इस प्रकार कहते हुए वह राजाअत्यन्त गर्वोन्मत्त होकर इस सम्पूर्ण पृथ्वी पर विचरता था। राजा का ऐसा घमण्ड देखकर कुछ तपस्वी ब्राह्मणों ने उससे कहा, 'इस पृथ्वी पर ऐसे दो सत्पुरुष हैं, जिन्होंने संग्राम में अनेकों को परास्त किया है। उनकी बराबरी तुम कभी नहीं कर सकोगे।' इसपर उस राजा ने पूछा, 'वे वीर पुरुष कहाँ हैं ? उन्होंने कहाँ जन्म लिया है ? वे क्या काम करते हैं ? और वे कौन हैं ?' ब्राह्मणों ने कहा, 'वे नर और नारायण नाम के दो तपस्वी हैं, इस सम वे मनुष्यलोक से आये हुए हैं; तुम उनके साथ युद्ध करो। वे गन्धमादन पर्वत पर बड़ा ही घोर और अवर्णनीय तप कर रहे हैं।'  "राजा को यह बात सहन नहीं हुई। वह उसी समय बड़ी भारी सेना सजाकर उनके पास चल दिया और गन्धमादन पर जाकर उनकी खोज करने लगा। थोड़ी ही देर में उसे वे दोनो मुनि दिखायी दिये। उनके शरीर के शिराएँ तक दीखने लगीं थीं। शीत, घाम और वायु को सहन करने के कारण वे बहुत ही कृश हो गये थे। राजा उनके पास गया और चरण-स्पर्श कर उनसे कुशल पूछी। मुनियों ने भी फल, मूल, आसन और जल से राजा का सत्कार करके पूछा, 'कहिये हम आपका क्या काम करें ?' राजा ने उन्हें आरम्भ से ही सब बातें सुनाकर कहा कि 'इस समय मैं आपसे युद्ध करने के लिये आया हूँ। यह मेरी बहुत दिनों की अभिलाषा है, इसलिये इसे स्वीकार करके ही आप मेरा आतिथ्य कीजिये।' नर-नारायण ने कहा, 'राजन् ! इस आश्रम में क्रोध-लोभ आदि दोष नहीं रह सकते; यहाँ युद्ध की तो कोई बात ही नहीं है, फिर अस्त्र-शस्त्र और कुटिल प्रकृति के लोग कैसे सह सकते हैं ? पृथ्वी पर बहुत-से क्षत्रिय हैं, तुम किसी दूसरी जगह जाकर युद्ध के लिये प्रार्थना करो।' नर-नारायण के इसी प्रकार बार-बार समझाने पर भी दम्भोदव की युद्धलिप्सा शान्त न हुई और इसके लिये उनसे आग्रह करता ही रहा। "तब भगवान् नर ने एक मुट्ठी सींके लेकर कहा, 'अच्छा, तुम्हे युद्ध की बड़ी लालसा है तो अपने हथियार उठा लो और अपनी सेना को तैयार करो।' यह सुनकर दम्भोदव और उनके सैनिकों ने उनपर बड़े पैने बाणों की वर्षा करना आरम्भ कर दिया। भगवान् नर ने एक सींक को अमोघ अस्त्र के रूप में परिणत करके छोड़ा। इससे यह बड़े आश्चर्य की बात हुई कि मुनिवर नर ने उन सब वीरों के आँख, नाक और कानों को सींकों से भर दिया। इसी प्रकार सारे आकाश को सफेद सींकों से भर दिया। इसी प्रकार सारे आकाश को सफेद सीकों से भरा देखकर राजा दम्भोदव उनके चरणों में गिर पड़ा और 'मेरी रक्षा करो, मेरी रक्षा करो' इस प्रकार चिल्लाने लगा। तब शरणागतवत्सल नर ने शरणापन्न राजा से कहा, 'राजन् ! तुम ब्राह्मणों की सेवा करो और धर्म का आचरण करो; ऐसा काम फिर कभी मत करना। तुम बुद्धि का आश्रय लो और लोभ को छोड़ दो तथा अहंकारशून्य, जितेन्द्रिय, क्षमाशील, मृदुल और शान्त होकर प्रजा का पालन करो। अब भविष्य में तुम किसी का अपमान मत करना।" "इसके बाद राजा दम्भोदव उन मुनीश्वरों के चरणों में प्रणाम कर अपने नगर मे लौट आया और अच्छी तरह धर्मानुकूल व्यवहार करने लगा। इस प्रकार उस समय नर ने बड़ा भारी काम किया था। इस समय नर ही अर्जुन है। अतः जबतक वे अपने श्रेष्ठ धनुष गाण्डीव पर बाण न चढ़ावें, तभीतक तुम मान छोड़कर अर्जुन की शरण ले लो। जो संपूर्ण जगत् के निर्माता, सबके स्वामी और समस्त कर्मों के साक्षी हैं, वे नारायण अर्जुन के सखा हैं। इसलिय युद्ध में उनके पराक्रम को सहना तुम्हारे लिये कठिन होगा। अर्जुन में अगनित गुण हैं और श्रीकृष्ण तो उनसे भी बढ़कर हैं। कुन्तीपुत्र अर्जुन के गुणों का तो तुम्हें भी कई बार परिचय मिल चुका है। जो पहले नर और नारायण थे वे ही इस समय अर्जुन और श्रीकृष्ण हैं। उन दोनों को तुम समस्त पुरुषों में श्रेष्ठ और बड़े वीर समझो। यदि तुम्हे मेरी बात ठीक जान पड़ती हो और मेरे प्रति किसी प्रकार का संदेह न हो तो तुम सद्बुद्धि का आश्रय लेकर पाण्डवों के साथ सन्धि कर लो।" परशुरामजी का भाषण सुनकर महर्षि कण्व भी दुर्योधन से कहने लगे---लोकपितामह ब्रह्मा और नर-नारायण---ये अक्षय और अविनाशी है। अदिति के पुत्रों में केवल विष्णु ही सनातन, अजेय, अविनाशी, नित्य एवं सबके ईश्वर हैं। उनके सिवा चन्द्रमा, सूर्य, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, ग्रह और तारे----ये सभी विनाश का कारण उपस्थित होने पर भी नष्ट हो जाते हैं। जब संसार का प्रलय होता है तो ये सभी पदार्थ तीनों लोकों को त्यागकर नष्ट हो जाते हैं और सृष्टि का आरम्भ होने पर बार-बार आरम्भ होने पर बार-बार उत्पन्न होते रहते हैं। इन सब बातों पर विचार करके तुम्हें धर्मराज युधिष्ठिर के साथ सन्धि कर लेनी चाहिये, जिससे कौरव और पाण्डव मिलकर पृथ्वी का पालन करे। दुर्योधन ! तुम ऐसा मत समझो कि मैं बड़ा बली हूँ। संसार में बलवानों की अपेक्षा भी दूसरे बली पुरुष भी दिखायी देते हैं। सच्चे शूरवीरों के सामने सेना की शक्ति कुछ काम नहीं करती। पाण्डवलोग तो सभी देवताओं के समान शूरवीर और पराक्रमी हैं। वे स्वयं वायु, इन्द्र, धर्म और दोनो अश्विनीकुमार ही हैं। इन देवताओं की ओर तो तुम देख भी नहीं सकते। इसलिये इनसे विरोध छोड़कर सन्धि कर लो। तुम्हे इन तीर्थस्वरूप श्रीकृष्ण के द्वारा अपने कुल की रक्षा का प्रयत्न करना चाहिये। यहाँ महान् तपस्वी नारदजी विराजमान हैं। ये श्रीविष्णुभगवान् के महात्म्य को प्रत्यक्ष जानते हैं और वे चक्र-गदाधर श्रीविष्णु ही यहाँ श्रीकृष्णरूप में विद्यमान हैं। महर्षि कण्व की बात सुनकर दुर्योधन लम्बी-लम्बी साँस लेने लगा, उसकी त्योरी चढ़ गयी और वह कर्ण की तरफ देखकर जोर-जोर से हँसने लगा। उस दुष्ट ने कण्व के कथन पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया और ताल ठोककर इस प्रकार कहने लगा, 'महर्षे ! जो कुछ होनेवाला है और जैसी मेरी गति होनी है, उसी के अनुसार ईश्वर ने मुझे रचा है और वैसा ही मेरा आचरण है। उसमें आपके कथन से क्या होना है ?"

Sunday 27 November 2016

उद्योग-पर्व---श्रीकृष्ण का कौरवों की सभा में आना तथा सबको पाण्डवों का संदेश सुनाना

श्रीकृष्ण का कौरवों की सभा में आना तथा सबको पाण्डवों का संदेश सुनाना
प्रातःकाल उठकर श्रीकृष्ण ने स्नान, जप और अग्निहोत्र से निवृत हो उदित होते हुए सूर्य को उपस्थान किया और फिर वस्त्र और आभूषणादि धारण  किये। इसी समय राजा दुर्योधन और सबल के पुत्र शकुनि ने उसके पास आकर कहा---'महाराज धृतराष्ट्र तथा भीष्मादि सब कौरव महानुभाव सभा में आ गये हैं और आपकी बाट देख रहे हैं।'  तब श्रीकृष्णचन्द्र ने बड़ी मधुरवाणी से उन दोनो का अभिनन्दन किया। इसके बाद सारथि ने आकर श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम किया और उनका उत्तम घोड़ों से जुता हुआ शुभ्र रथ लाकर खड़ा कर लिया। श्रीयदुनाथ उस रथ पर सवार हुए। उस समय कौरव वीर उन्हें सब ओर से घेरकर चले। भगवान् के पीछे उन्हीं के रथ में समस्त धर्मों को जाननेवाले विदुरजी भी सवार हो गये तथा दुर्योधन और शकुनि एक दूसरे रथ में बैठकर उनके पीछे-पीछे चले। धीरे-धीरे भगवान् का रथ राजसभा के द्वार पर आ गया और उससे उतरकर भीतर सभा में गये।जिस समय श्रीकृष्ण विदुर और सात्यकि का हाथ पकड़कर सभाभवन पधारे, उस समय उनकी कान्ति से समस्त कौरवों  को निस्तेज सा कर दिया। उनके आगे-आगे दुर्योधन और कर्ण तथा पीछे कृतवर्मा और वृष्णिवंशी वीर चल रहे थे। सभा में पहुँचने पर उनका मान करने के लिये राजा धृतराष्ट्र तथा भीष्म, द्रोण आदि सभी लोग अपने आसनों से उठकर खड़े हो गये। श्रीकृष्ण के लिये राजसभा में महाराज धृतराष्ट्र की आज्ञा से सर्वतोभद्र नाम का सुवर्णमय सिंहासन रखा गया था। उसपर बैठकर श्रीश्यामसुन्दर मुस्कुराते हुए राजा धृतराष्ट्र, भीष्म, द्रोण तथा दूसरे राजाओं से बातचीत करने लगे तथा समस्त कौरव और राजाओं ने सभा में पधारे हुए राजाओं ने सभा में पधारे हुए श्रीकृष्ण का पूजन किया। इस समय श्रीकृष्ण ने सभा के भीतर ही अन्तरिक्ष में नारदादि ऋषियों को खड़े देखा। तब उन्होंने धीरे से शान्तनुनन्दन भीष्मजी से कहा, 'इस राजसभा को देखने के लिये ऋषिलोग आये हुए हैं। उनका आसनादि देकर बड़े सत्कार से आवाहन कीजिये। उनके बिना बैठे यहाँ कोई भी बैठ नहीं सकेगा। उन शुद्धचित्त मुनियों की शीघ्र ही पूजा कीजिये।' इतने ही में मुनियों को सभा के द्वार पर आया देख भीष्मजी ने बड़ी शीध्रता से सेवकों आसन लाने की आज्ञा दी। वे तुरन्त ही बहुत से आसन ले आये। जब ऋषियों ने आसन पर बैठकर अर्ध्र्धादि ग्रहण कर लिया तो श्रीकृष्ण तथा अन्य सब राजा भी अपने-अपने आसनों पर बैठ गये। महामति विदुरजी श्रीकृष्ण के सिंहासन से लगे हुए एक मणिमय आसनपर, जिसपर श्वेत रंग का मृगचर्म बिछा हुआ था, बैठे। राजाओं को श्रीकृष्ण का बहुत दिनों पर दर्शन हुआ था; अतः जैसे अमृत पीते-पीते कभी तृप्ति नहीं होती, उसी प्रकार वेउन्हें देखते-देखते अघाते नहीं थे। उस सभा में सभी का मन श्रीकृष्ण में लगा हुआ था, इसलिये किसी के मुख से कोई भी बात नहीं निकलती थी। जब सभा में सब राजा मौन होकर बैठ गये तो श्रीकृष्ण ने महाराज धृतराष्ट्र की ओर देखते हुए बड़ी गम्भीर वाणी में कहा---राजन् ! मेरा यहाँ आने का उद्देश्य यह है कि क्षत्रिय वीरों का संहार हुए बिना ही कौरव और पाण्डवों में सन्धि हो जाय। इस समय राजाओं में कुरुवंश ही सबसे श्रेष्ठ माना जाता है। इसमें शास्त्र और सदाचार का सभ्यक आदर है तथा और भी अनेकों शुभ गुण हैं। अन्य राज्यवंशों की अपेक्षा कुरुवंशियों में कृपा, दया, करुणा, मृदुता, सरलता, क्षमा और सत्य---ये विशेषरूप से पाये जाते हैं। इस प्रकार के गुणों से गौरवान्वित इस वंश में आपके कारण यदि कोई अनुचित बात हो तो यह उचित नहीं है। यदि कौरवों में गुप्त या प्रकटरूप से कोई असद्व्यवहार होता है तो उसे रोकना तो आपही का काम है। दुर्योधनादि आपके पुत्र धर्म और अर्थ की ओर से मुँह फेरकर क्रूर पुरुषों के से आचरण करते हैं। अपने खास भाइयों के साथ इनका अशिष्ट पुरुषों का-सा आचरण है तथा चित्त पर लोभ का भूत सवार हो जाने से इन्होंने धर्म की मर्यादा को एकदम छोड़ दिया है। ये सब बातें आपको मालूम ही हैं। यह भयंकर आपत्ति इस समय कौरवों पर आयी है और यदि इसकी उपेक्षा की गयी तो यह सारी पृथ्वी को चौपट कर देगी। यदि आप अपने कुल को नाश से बचाना चाहें तो अब भी इसका निवारण किया जा सकता है। मेरे विचार से इन दोनो पक्षों में सन्धि होनी बहुत कठिन नहीं है। इस समय शान्ति कराना आपके और मेरे ही हाथ में है। आप अपने पुत्रों को मर्यादा में रखिये और मैं पाण्डवों को नियम में रखूँगा। आपके पुत्रों को बाल-बच्चों सहित आपकी आज्ञा में रहना ही चाहिये। यदि ये आपकी आज्ञा में रहेंगे तो इनका बड़ा भारी हित हो सकता है। महाराज ! आप पाण्डवों की रक्षा में रहकर धर्म और अर्थ का अनुष्ठान कीजिये। आपको ऐसे रक्षक प्रयत्न करने पर भी नहीं मिल सकते। भरतश्रेष्ठ ! जिनके अंदर भीष्म, द्रोण, कृप, कर्ण, विविंशति, अश्त्थामा, विकर्ण, सोमदत्त, बाह्लीक, युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव, सात्यकि और युयुत्सु जैसे वीर हों उनसे युद्ध करने की किस बुद्धिहीन की हिम्मत हो सकती है। कौरव और पाण्डवो के मिल जाने से आप समस्त लोकों का आधिपत्य प्राप्त करेंगे था शत्रु आपका कुछ भी न बिगाड़ सकेंगे; तथा जो राजा आपके समकक्ष या आपसे बड़े हैं, वे भी आपके साथ सन्धि कर लेंगे। ऐसा होने से आप अपने पुत्र, पौत्र, पिता भाई और सुहृदों से सब प्रकार सुरक्षित रहकर सुख से जीवन व्यतीत कर सकेंगे। यदि आप पाण्डवों को ही आगे रखकर इनका पूर्ववत् आदर करेंगे तो इस सारी पृथ्वी का आनन्द से भोग कर सकेंगे। महाराज ! युद्ध करने में तो मुझे बड़ा भारी संहार दिखायी दे रहा है। इस प्रकार दोनो पक्षों का नाश कराने में आपको क्या धर्म दिखायी देता है। अतः आप इस लोक की रक्षा कीजिये और ऐसा कीजिये, जिसमें आपकी प्रजा का नाश न हो। यदि आप सत्वगुण को धारण कर लेंगे तो सबकी रक्षा ठीक हो जायगी। महाराज ! पाण्डवों ने आपको प्रणाम कहा है और आपकी प्रसन्नता चाहते हुए ह प्रार्थना की है कि 'हमने अपने साथियों के सहित आपकी आज्ञा से ही इतने दिनों तक दुःख भोगा है। हम बारह वर्ष तक वन में रहे हैं और फिर तेरहवाँ वर्ष जनसमूह में अज्ञातवासरूप से रहकर बिताया है। वनवास की शर्त होने के समय हमारा यही निश्चय था कि जब हम लौटेंगे तो आप हमारे ऊपर पिता की तरह रहेंगे। हमने उस शर्त का पूरी तरह पालन किया है; इसलिये अब आप भी जैसा ठहरा था, वैसा ही वर्ताव कीजिये। आप धर्म और अर्थ का स्वरूप जानते हैं, इसलिये आपको हमारी रक्षा करनी चाहिये। गुरु के प्रति शिष्य का जैसा गौरवयुक्त व्यवहार होना चाहिये, आपके साथ हमारा वैसा ही वर्ताव है। इसलिये आप हमारे प्रति गुरु का-सा आचरण कीजिये। हमलोग यदि मार्गभ्रष्ट हो रहे हैं तो आप हमें ठीक रास्ते पर लाइये और स्वयं भी सन्मार्ग पर स्थित होइये।' इसके सिवा आपके उन पुत्रों ने इन सभासदों से कहलाया है कि जहाँ धर्मज्ञ सभासद् हों, वहाँ कोई अनुचित बात नहीं होनी चाहिेये। यदि सभासदों को देखते हुए अधर्म से धर्म का और असत्य से सत्य का नाश हो तो उनका भी नाश हो जाता है। इस समय पाण्डवलोग धर्म पर दृष्टि लगाये चुपचाप बैठे हैं। उन्होंने धर्म के अनुसार सत्य और न्याययुक्त बात ही कही है। राजन् ! आप पाण्डवों को राज्य दे दीजिये---इसके सिवा आपसे और क्या कहा जा सकता है ?  इस सभा में जो राजालोग बैठे हैं, उन्हें कोई और बात कहनी हो तो कहें। यदि धर्म और अर्थ का विचार करके मैं सच्ची बात कहूँ तो यही कहना होगा कि इन क्षत्रियों को आप मृत्यु के फंदे से छुड़ा दीजिये।भरतश्रेष्ठ ! शान्ति धारण कीजिये, क्रोध के वश न होइये और पाण्डवों को उनका यथोचित पैतृक राज्य दे दीजिये। ऐसा करके आप अपने पुत्रों सहित आनन्द से भोग कीजिये। राजन् ! इस समय आप अपने अर्थ को अनर्थ मान रखा है। आपके पुत्रों पर लोभ ने अधिकार जमा रखा है, आप उन्हें जरा काबू में रखिये। पाण्डव तो आपकी सेवा के लिये भी तैयार हैं। इन दोनों आपको जो बात अधिक हितकर जान पड़े, उसी पर डट जाइये।

Tuesday 22 November 2016

उद्योग-पर्व---राजा दुर्योधन का निमंत्रण छोड़कर भगवान् का विदुरजी के यहाँ भोजन तथा उनसे बातचीत करना

राजा दुर्योधन का निमंत्रण छोड़कर भगवान् का विदुरजी के यहाँ भोजन तथा उनसे बातचीत करना
श्रीकृष्ण के पहुँचते ही दुर्योधन अपने मंत्रियों सहित आसन से खड़ा हो गया। भगवान् दुर्योधन और उसके मंत्रियों से मिलकर फिर वहाँ एकत्रित हुए सब राजाओं से उनकी आयु के अनुसार मिले। इसके पश्चात् वे एक अत्यन्त विशद सुवर्ण के पलंग पर बैठ गये। स्वागत सत्कार के अनन्तर राजा दुर्योधन ने भोजन के लिये प्रार्थना की, किन्तु श्रीकृष्ण ने उसे स्वीकार नहीं किया। तब दुर्योधन ने श्रीकृष्ण से आरम्भ में मधुर किन्तु परिणाम में शठता से भरे हुए शब्दों में कहा, 'जनार्दन ! हम आपको जो अच्छे-अच्छे खाद्य और पेय पदार्थ तथा वस्त्र और शय्याएँ भेंट कर रहे हैं, उन्हें आप स्वीकार क्यों नहीं करते ? आपने तो दोनो ही पक्षों को सहायता दी है और आप हित भी दोनो का ही करना चाहत हैं। इसके सिवा आप महाराज धृतराष्ट्र के सम्बन्धी और प्रिय भी हैं ! धर्म और अर्थ का रहस्य भी आप अच्छी तरह जानते ही हैं। अतः इसका क्या कारण है, यह मैं सुनना चाहता हूँ।' दुर्योधन के इस प्रकार पूछने पर महामना मधुसूदन ने अपनी विशाल भुजा उठाकर मेघ के समान गम्भीर वाणी से कहा 'राजन् ! ऐसा नियम है कि दूत अपना उद्देश्य पूर्ण होने पर ही भोजनादि ग्रहण करते हैं। अतः जब मेरा काम पूरा हो जाय, तब तुम भी मेरा और मेरे मंत्रियों का सत्कार करना। मैं काम, क्रोध, द्वेष,स्वार्थ, कपट अथवा लोभ में पड़कर धर्म को किसी प्रकार नहीं छोड़ सकता। भोजन या तो प्रेमवश किया जाता है या आपत्ति में पड़कर किया जाता है। सो तुम्हारा तो मेरे प्रति ्रेम नहीं है और मैं किसी आपत्ति में ग्रस्त नहीं हूँ। देखो, पाण्डव तो तुम्हारे भाई ही हैं; वे सदा अपने स्नेहियों के अनुकूल रहते हैं और उनमें सभी सद्गुण विद्यमान हैं। फिर भी तुम बिना कारण जन्म से ही उनसे द्वेष करते हो। उनके साथ द्वेष करना ठीक नहीं है। वे तो सर्वदा अपने धर्ममें ही स्थित रहते हैं। उनसे जो द्वेष करता है, वह मुझसे भी द्वेष करता है और जो उनके अनुकूल है, वह मेरे भी अनुकूल है। धर्मात्मा पाण्डवों के साथ तो तुम मुझे एकरूप हुआ ही समझो। जो पुरुष काम और क्रोध का गुलाम है तथा मूर्खतावश गुणवानों और विद्वानों से द्वेष करता है, उसी को अधम कहते हैं। तुम्हारे इस सारे अन्न का सम्बन्ध दुष्ट पुरुषों से है, इसलिये यह खानेयोग्य नहीं है। मेरा तो यही विचार है कि मुझे केवल विदुरजी का अन्न खाना चाहिये।'  दुर्योधन से ऐसा कहकर श्रीकृष्ण उसके महल से निकलकर विदुरजी के घर आ गये। विदुरजी के घर पर ही उनसे मिलने के लिये भीष्म, द्रोण, कृप, बाह्लीक तथा कुछ अन्य कुरुवंशी आये। उन्होंने कहा, 'वार्ष्णेय ! हम आपको उत्तम-उत्तम पदार्थों से पूर्ण अनेकों भवन समर्पित करते हैं, वहाँ चलकर आप विश्राम कीजिये।'  उनसे श्रीमधुसूदन ने कहा---'आप सब लोग पधारें, आप मेरा सब प्रकार सत्कार कर चुके।' उनसे श्रीमधुसूदन ने कहा---'आप सब लोग पधारें, आप मेरा सब प्रकार सत्कार कर चुके।' कौरवों के चले जाने पर विदुरजी ने बड़े उत्साह से श्रीकृष्ण का पूजन किया। फिर उन्होंने उन्हें अनेक प्रकार के उत्तम और पुणयुक्त भोज्य और पेय पदार्थ दिये। उन पदार्थों से श्रीकृष्ण ने पहले ब्राह्मणों को तृप्त किया और फिर अपने अनुयायियों के सहित बैठकर स्वयं भोजन किया। जब भोजन के पश्चात् भगवान् विश्राम करने लगे तो रात्रि के समय विदुरजी ने उनसे कहा---"केशव ! आप यहाँ आये, यह विचार आपने ठीक नहीं किया। मन्दमति दुर्योधन धर्म और अर्थ दोनो को ही छोड़ बैठा है। वह क्रोधी और गुरुजनों की आज्ञा का उल्लंघन करनेवाला है; धर्मशास्त्र को तो वह कुछ समझता ही नहीं, अपनी ही हठ रखता है। उसे किसी सन्मार्ग में ले जाना ही असंभव है। वह विषयों का कीड़ा, अपने को बड़ा बुद्धिमान माननेवाला, मित्रों से द्रोह करनेवाला, सभी  को शंका की दृष्टि से देखनेवाला, कृतध्न और बुद्धिहीन है। इसके सिवा उसमें और भी अनेकों दोष हैं। आप उससे हित की बात कहेंगे तो भी वह क्रोधवश कुछ सुनेगा नहीं। भीष्म, द्रोण, कृप, कर्ण, अश्त्थामा और जयद्रथ के कारण उसे इस राज्य को स्वयं ही हड़प जाने का पूरा भरोसा है। इसलिये उसे सन्धि करने का विचार ही नहीं होता। उसे तो पूरा विश्वास है कि अकेला कर्ण ही मेरे सारे शत्रुओं को जीत लेगा। इसलिये वह सन्धि नहीं करेगा।आप तो सन्धि का प्रयत्न कर रहे हैं; किन्तु धृतराष्ट्र के पुत्रों ने तो यह प्रतिज्ञा कर ली है कि 'पाण्डवोंको उनका भाग कभी नहीं देंगे।' जब उनका ऐसा विचार है तो उनसे कुछ भी कहना व्यर्थ ही होगा। "श्रीकृष्ण ! पहले जिन राजाओं ने आपके साथ वैर ठाना था, उन सबने अब आपके भय से दुर्योधन का आश्रय लिया है। वे सब योद्धा दुर्योधन के साथ मेल करके अपने प्राण तक निछावर करके पाण्डवों से लड़ने को तैयार हैं। अतः आप उन सबके बीच में जायँ---यह बात मुझे अच्छी नहीं लगती। यद्यपि देवतालोग भी आपके सामने नहीं टिक सकते और मैं आपके प्रभाव, बल और बुद्धि को अच्छी तरह जानता हूँ, तथापि आपके प्रति प्रेम और सौहार्द का भाव होने के कारण मैं ऐसा कह रहा हूँ। कमलनयन ! आपका दर्शन करके आज मुझे जैसी प्रसन्नता हो रही है, वह मैं आपसे क्या कहूँ ? आप तो सभी देहधारियों के अन्तरात्मा हैं, आपसे छिपा ही क्या है ?" श्रीकृष्ण ने कहा---विदुरजी ! एक महान् बुद्धिमान को जैसी बात कहनी चाहिये और मुझ जैसे प्रेमपात्र से आपको जो कुछ कहना चाहिये तथा आपके मुख से जैसा धर्म और अर्थ से युक्त वचन निकलना चाहिये, वैसी ही बात आपने माता-पिता के समान स्नेहवश कही है। मैं दुर्योधन की दुष्टता और क्षत्रियवीरों के वैरभाव आदि सब बातों को जानकर ही आज कौरवों के पास आया हूँ। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह धर्मतः प्राप्त कार्य को करे। यथाशक्ति प्रयत्न करने पर भी यदि वह उसे पूरा न कर सके तो भी उसे पुण्य तो अवश्य ही मिल जायगा---इसमें मुझे संदेह नहीं है। दुर्योधन और उसके मंत्रियों को भी मेरी शुभ, हितकारी एवं धर्म एवं अर्थ के अनुकूल बात माननी ही चाहिये। मैं तो निष्कपटभाव से कौरव, पाण्डव और पृथ्वीतल के समस्त क्षत्रियों के हित का प्रयत्न करूँगा। इस प्रकार हित का प्रयत्न करने पर भी यदि दुर्योधन मेरी बात में शंका करे तो भी मेरा चित्त तो प्रसन्न ही होगा और मैं अपने कर्तव्य से उऋण भी हो जाऊँगा।' श्रीकृष्ण सन्धि करा सकते थे तो भी उन्होंने क्रोध के आवेश में आये हुए कौरव-पाण्डवों को रोका नहीं'---यह बात मूढ़ अधर्मी न कहें, इसलिये मैं यहाँ सन्धि कराने के लिये आया हूँ। दुर्योधन ने यदि मेरी धर्म और अर्थ के अनुकूल हित की बात सुनकर भी उसपर ध्यान न दिया तो वह अपने किये का फल भोगेगा। इसके पश्चात् यदुकुलभूषण श्रीकृष्ण पलंग पर लेट गये। वह सारी रात महात्मा विदुर और श्रीकृष्ण के इसी प्रकार बात करते-करते बीत गयी।

Thursday 17 November 2016

उद्योग-पर्व---श्रीकृष्ण का हस्तिनापुर में प्रवेश तथा राजा धृतराष्ट्र, विदुर और कुन्ती के यहाँ जाना

श्रीकृष्ण का हस्तिनापुर में प्रवेश तथा राजा धृतराष्ट्र, विदुर और कुन्ती के यहाँ जाना
इधर श्रीकृष्ण के नगर के समीप पहुँचने पर दुर्योधन के सिवा और सब धृतराष्ट्रपुत्र तथा भीष्म, द्रोण और कृप आदि खूब बन-ठनकर उनकी आगवानी के लिये आये। उनके सिवा अनेकों नगर-वासी भी कृष्णदर्शन की लालसा से पैदल और तरह-तरह की सवारियों में बैठकर चले। रास्तें ही भी भीष्म, द्रोण और सब धृतराष्ट्रपुत्रों से भगवान से समागम हो गया और  उनसे घिरकर उन्होंने हस्तिनापुर में प्रवेश किया। श्रीकृष्ण के सम्मान के लिये सारा नगर खूब सजाया गया था।  राजमार्ग से तो अनेकों बहुमूल्य और दर्शनीय वस्तुएँ बड़े ढ़ंग से सजायी गयी थी। श्रीकृष्ण को देखने के लिये उत्कण्ठा के कारण उस दिन कोई भी स्त्री, बूढ़ा या बालक घर में नहीं टिका। सभी लोग राजमार्ग में आकर पृथ्वी पर झुक-झुककर श्रीकृष्ण की स्तुति कर रहे थे। श्रीकृष्णचन्द्र ने इस सारी भीड़ को पार करके महाराज धृतराष्ट्र के राजभवन में प्रवेश किया। यहमहल आसपास के अनेकों भवनों से सुशोभित था। इनमें तीन ड्योढ़ियाँ थीं। उन्हें लाँघकर श्रीकृष्ण राजा धृतराष्ट्र के पास पहुँच गये। श्रीरघुनाथजी के पहुँचते ही कुरुराज धृतराष्ट्र, भीष्म, द्रोण आदि सभी सभासदों के सहित खड़े हो गये। उस समय कृपाचार्य, सोमदत्त और बाह्लीक ने भी अपने आसनों से उठकर श्रीकृष्ण का सत्कार किया। श्रीकृष्ण ने राजा धृतराष्ट्र और पितामह भीष्म के पास जाकर वाणी द्वारा उनका सत्कार किया। इस प्रकार उनकी धर्मानुसार पूजा कर वे क्रमशः सभी राजाओं से मिले और आयु के अनुसार उनका यथायोग्य सम्मान किया।श्रीकृष्ण के लिये वहाँ एक सुन्दर सुवर्ण का सिंहासन रखा हुआ था। राजा धृतराष्ट्र की आज्ञा से वे उसपर विराज गये। महाराज धृतराष्ट्र ने भी उनका विधिवत् पूजन करके सत्कार किया। श्रीकृष्ण ने राजा धृतराष्ट्र और पितामह भीष्म के पास जाकर वाणी द्वारा उनका सत्कार किया। इस प्रकार उनकी धर्मानुसार पूजा कर वे क्रमशः सभी राजाओं से मिले और आयु के अनुसार उनका यथायोग्य सम्मान किया। श्रीकृष्ण के लिये वहाँ एक सुवर्ण का सिंहासन रखा हुआ था। राजा धृतराष्ट्र की आज्ञा से वे उसपर विराज गये। महाराज धृतराष्ट्र ने उनका विधिवत् पूजन करके सत्कार किया। इसके पश्चात् कुरुराज से आज्ञा लेकर वे विदुरजी के भव्य भवन में आये।विदुरजी ने सब प्रकार की मांगलिक वस्तुएँ लेकर उनकी आगवानी की और अपने घर लाकर पूजन किया। फिर वे कहने लगे---'कमलनयन ! आज आपके दर्शन करके मुझे जैसा आनन्द हो रहा है, वह मैं आपसे किस प्रकार कहूँ; आप तो समस्त देहधारियों के अन्तरात्मा ही हैं।' अतिथि-सत्कार हो जाने पर धर्मज्ञ विदुरजी ने भगवान् से पाण्डवों की कुशल पूछी। विदुरजी पाण्डवों के प्रेमी तथा धर्म और अर्थ में तत्पर रहनेवाले थे।क्रोध तो उन्हें स्पर्श भी नहीं करता था। अतः श्रीकृष्ण ने, पाण्डवलोग जो कुछ करना चाहते थे, वे सब बातें उन्हें विस्तार से सुना दी। इसके बाद दोपहरी बीतने पर भगवान् श्रीकृष्ण अपनी बुआ कुन्ती के पास गये। विदुरजी ने सब प्रकार की मांगलिक वस्तुएँ लेकर उनकी आगवानी की और अपने घर लाकर पूजन किया। फिर वे कहने लगे---'कमलनयन ! आज आपके दर्शन करके मुझे जैसा आनन्द हो रहा है, वह मैं किस प्रकार कहूँ; आप तो समस्त देहधारियों की अन्तरात्मा ही हैं। विदुरजी पाण्डवों के प्रेमी तथा धर्म और अर्थ में तत्पर रहनेवाले थे, क्रोध तो उन्हें स्पर्श भी नहीं करता था। अतः श्रीकृष्ण ने, पाण्डवलोग जो कुछ करना चाहते थे, वे सब बातें उन्हें विस्तार से सुना दीं। इसके बाद दोपहरी बीतने पर भगवान् श्रीकृष्ण अपनी बुआ कुन्ती के पास गये। श्रीकृष्ण को आये देख वह उनके गले से चिपट गयी और अपने पुत्रों को याद करके रोने लगी। आज पाण्डवों के सहचर श्रीकृष्ण को भी उसने बहुत दिनों पर देखा था। इसलिये उन्हें देखकर उसकी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गयी। तब अतिथिसत्कार हो जाने पर श्रीश्यामसुन्दर बैठ गये तो कुन्ती ने गद्गद्कण्ठ होकर कहा, 'माधव ! मेरे पुत्र बचपन से ही गुरुजनों की सेवा करनेवाले थे। उनका आपस में बड़ा स्नेह था, दूसरे लोग उनका आदर कपते थे और वे भी सबके प्रति समानभाव रखते थे। किन्तु  इन कौरवों ने कपटपूर्वक उन्हें राजच्युत कर दिया और अनेकों मनुष्यों के बीच में रहने योग्य होने पर भी वे निर्जन वन में भटकते रहे। वे हर्ष-शोक को वश में कर चुके थे और सर्वदा सत्य-भाषण करते थे। इसलिये उन्होंने उसी समय राज्य से और भोगों से मुँह मोड़ लिया और मुझे रोती छोड़कर वन को चल दिये। भैया ! जब वे वन को गये थे, मेरे हृदय को तो वे उसी समय साथ लेकर गये थे। मैं तो अब बिलकुल हृदयहीना हूँ। जो बड़ा ही लज्जावान्,  सत्य का भरोसा रखनेवाला, जितेन्द्रिय, प्राणियों पर दया करनेवाला, शील और सदाचार से सम्पन्न, धर्मज्ञ, सर्वगुणसम्पन्न और तीनों लोकों का राजा बनने योग्य है। समस्त कुरुवंशियों में श्रेष्ठ वह अजातशत्रु युधिष्ठिर इस समय कैसा है ? जिसमें दस हजार हाथियों का बल है, जो वायु के समान वेगवान् है, अपने भाइयों का नित्य प्रिय करने के कारण जो उन्हें बहुत प्यारा है, जिसने भाइयों के सहित कीचक तथा क्रोधवश, हिडिम्ब और बक आदि असुरों को बात-की-बात में मार डाला था, अतः जो पराक्रम में इन्द्र और क्रोध में साक्षात् शंकर के समान है, उस महाबली भीम का इस समय क्या हाल है ? जो तेज में सूर्य, मन के संयम में महर्षि, क्षमा में पृथ्वी और पराक्रम में इन्द्र के समान है तथा समस्त प्राणियों को जीतनेवाला और स्वयं किसी के काबू में आनेवाला नहीं है, वह तुम्हारा भाई और सखा अर्जुन इस समय कैसे हैं ?  सहदेव भी बड़ा ही दयालु, लजालु, अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञाता, मृदुलस्वभाव और धर्मज्ञ और मुझे अत्यन्त प्रिय हैं। वह धर्म और अर्थ में कुशल तथा अपने भाइयों की सेवा करने में तत्पर रहता है। उसके शुभ आचरण की सब भाई बड़ी प्रशंसा किया करते हैं। इस समय उसकी क्या दशा है ? नकुल भी बड़ा सुकुमार, शूरवीर और दर्शनीय युवा है। अपने भाइयों का तो वह बाह्य प्राण ही है। वह अनेक प्रकार के युद्ध के में कुशल है तथा बड़ा ही धनुर्धर और पराक्रमी है। कृष्ण ! इस समय वह कुशल से है न ? पुत्रवधू द्रौपदी तो सभी गुणों से सम्पन्न, परम रूपवती एवं अच्छे कुल की बेटी है।  मुझे वह अपने सब पुत्रों से भी अधिक प्रिय है। वह सत्यवादिनी अपने प्यारे पुत्रों को भी छोड़कर वनवासी की सेवा कर रही है। इस समय उसका क्या हाल है ? "कृष्ण ! मेरी दृष्टि में कौरव और पाण्डवों में कभी कोई भेद-भाव न रहा। उसी सत्य के प्रभाव से अब मैं शत्रुओं का नाश होने पर पाण्डवों सहित तुमको राज्यसुख भोगते देखूँगी। परंतप ! जिस समय अर्जुन का जन्म होने पर मैं सौरी में थी, उस रात्रि में मुझे जो आकाशवाणी हुई थी कि 'तेरा यह पुत्र सारी पृथ्वी को जीतेगा, इसका यश स्वर्ग तक फैल जायगा, यह महायुद्ध में कौरवों को मारकर उनका राज्य प्राप्त करेगा और फिर अपने भाइयों सहित तीन अश्वमेध यज्ञ करेगा' उसे मैं दोष नहीं देती; मैं तो सबसे महान् नारायण-स्वरूप धर्म को ही नमस्कार करती हूँ। वही सम्पूर्ण जगत् का विधाता है और वही संपूर्ण प्रजा को धारण करनेवाला है। यदि धर्म सच्चा है तो तुम भी वह सब काम पूरा कर लोगे, जो उस समय देववाणी ने कहा था। "माधव ! तुम धर्मप्राण युधिष्ठिर से कहना कि 'तुम्हारे धर्म की बड़ी हानि हो रही है; बेटा ! तुम उसे इस प्रकार व्यर्थ बरबाद मत होने दो।' कृष्ण ! जो स्त्री दूसरों की आश्रिता होने पर जीवननिर्वाह करे, उसे तो धिक्कार ही है। दीनता से प्राप्त हुई जीविका की अपेक्षा मर जाना ही अच्छा है। तुम अर्जुन और नित्य उद्योगशील भीमसेन से कहना कि 'क्षत्राणियाँ जिस काम के लिये पुत्र उत्पन्न करती हैं, उसे करने का समय आ गया है। ऐसा अवसर आने पर भी यदि तुम युद्ध नहीं करोगे तो इसे व्यर्थ ही खो दोगे। तुम सब लोकों में सम्मानित हो; ऐसे होकर भी यदि तुमने कोई निन्दनीय कर्म कर डाला तो फिर कभी तुम्हारा मुँह नहीं देखूँगी। अरे ! समय आ पड़े तो अपने प्राणों का भी लोभ मत करना।' माद्री के पुत्र नकुल तथा सहदेव सर्वदा क्षात्रधर्म पर डटे रहनेवाले हैं। उनसे कहना कि 'प्राणों की बाजी लगाकर भी अपने पराक्रम से प्राप्त हुए भोगों की इच्छा करना; क्योंकि जो मनुष्य क्षात्रधर्म के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करता है, उसके मन को पराक्रम से प्राप्त हुए भोग ही सुख पहुँचा सकते हैं।' "शत्रुओं ने राज्य छीन लिया---यह कोई दुःख की बात नहीं है; जुए में हारना भी दुःख का कारण नहीं है। मेरे पुत्रों को वन में रहना पड़ा---इसका भी मुझे दुःख नहीं है। किंतु इससे बढ़कर दुःख की और कौन बात हो सकती है कि मेरी युवती पुत्रवधू को, जो केवल एक ही वस्त्र पहने हुए थी, घसीटकर सभा में लाया गया और उसे उन पापियों के कठोर वचन सुनने पड़े। हाय ! उस समय वह मासिक-धर्म में थी। किन्तु अपने वीर पतियों की उपस्थिति में भी वह क्षत्राणी अनाथा-सी हो गयी। पुरुषोत्तम ! मैं पुत्रवती हूँ, इसके सिवा मुझे तुम्हारा, बलराम का और प्रद्मुम्न का भी पूरा-पूरा आश्रय है। फिर भी मैं ऐसे दुःख भोग रही हूँ। हाय ! दुर्धर्ष भीम और युद्ध से पीठ न फेरनेवाले अर्जुन के रहते मेरी यह दशा !" कुन्ती पुत्रों के दुःख से अत्यन्त व्याकुल थी। उसकी ऐसी बातें सुनकर श्रीकृष्ण कहने लगे---'बुआजी ! तुम्हारे समान सौभाग्यवती और कौन स्त्री होगी। तुम राजा शूरसेन की पुत्री हो और महाराज अजमीठ के वंश में विवाही गयी हो !  तुम सब प्रकार के शुभगुणों से सम्पन्न ह तथा अपने पतिदेव से भी तुमने बड़ा सम्मान पाया है। तुम वीरमाता और वीरपत्नी हो। तुम जैसी महिलाएँ ही सब प्रकार के सुख-दुःखों को सह सकती हैं। पाण्डवलोग निद्रा-तन्द्रा, क्रोध-हर्ष, क्षुधा-पिपासा, शीत-घाम---इन सब को जीतकर वीरोचित आनन्द का भोग करते हैं। उन्होंने और द्रौपदी ने  आपको प्रणाम कहलाया है और अपनी कुशल कहकर तुम्हारा कुशल समाचार पूछा है। तुम शीघ्र ही पाण्डवों को निरोग और सफल मनोरथ देखोगी। उनके सारे शत्रु मारे जायेंगे और वे संपूर्ण लोकों का आधिपत्य पाकर राज्यलक्ष्मी से सुशोभित होंगे। ' श्रीकृष्ण के इस प्रकार ढ़ाढ़स बँधाने पर कुन्ती ने अपने अज्ञानजनित मोह को दूर करके कहा---कृष्ण ! पाण्डवों के लिये जो-जो हित की बात हो और उसे जिस-जिस प्रकार तुम करना चाहो उसी-उसी प्रकार करना, जिससे कि धर्म का लोप न हो और कपट का आश्रय न लेना पड़े। मैं तुम्हारे सत्य और कुल के प्रभाव को अ्छी तरह जानती हूँ। अपने मित्रों का काम करने में तुम जिस बुद्धि और पराक्रम से काम लेते हो, वे भी मुझसे छिपे नहीं हैं। हमारे कुल में तुम मूर्तिमान् धर्म, सत्य और तप ही हो। तुम सबकी रक्षा करनेवाले हो, तुम्ही परम-ब्रह्म हो और तुममें ही सारा प्रपंच अधिष्ठित है। तुम जैसा कह रहे हो, तुम्हारे द्वारा वह बात उसी प्रकार सत्य होकर रहेगी। इसके पश्चात् महाबाहु श्रीकृष्ण कुन्ती से आज्ञा ले, उसकी प्रदक्षिणा करके दुर्योधन के महल की ओर गये।

Thursday 10 November 2016

उद्योगपर्व---हस्तिनापुर में श्रीकृष्ण के स्वागत की तैयारियाँ और कौरवों की सभा में परामर्श

हस्तिनापुर में श्रीकृष्ण के स्वागत की तैयारियाँ और कौरवों की सभा में परामर्श
इधर जब दूतों के द्वारा राजा धृतराष्ट्र को पता लगा कि श्रीकृष्ण आ रहे हैं तो उन्हें हर्ष से रोमांच हो आया और उन्होंने बड़े आदर से भीष्म, द्रोण, संजय, विदुर, दुर्योधन और उसके मंत्रियों से कहा, 'सुना है, पाण्डवों के काम से हमसे मिलने के लिये श्रीकृष्ण आ रहे हैं। वे सब प्रकार हमारे माननीय और पूज्य हैं। सारे लोकव्यवहार उन्हीं में अधिष्ठित हैं, क्योंकि वे समस्त प्राणियों के ईश्वर हैं; उनमें धैर्य, वीर्य, प्रज्ञा और ओज---सभी गुण हैं। वे सनातन धर्मरूप हैं, इसलिये सब प्रकार सम्मान के योग्य हैं। उनका सत्कार करने में ही सुख है, असत्कृत होने पर वे दुःख के निमित्त बन जाते हैं। यदि हमारे सत्कार से वे संतुष्ट हो गये तो समस् राजाओं के समान हमारे सभी अभीष्ट सिद्ध हो जायेंगे। दुर्योधन ! तुम उनके स्वागत सत्कार की आज ही से तैयारी करो और रास्ते में सब प्रकार की आवश्यक सामग्री से सम्पन्न विश्रामस्थान बनवाओ। तुम ऐसा उपाय कर, जिसे श्रीकृष्ण हमारे ऊपर प्रसन्न हो जायँ। भीष्मजी ! इस विषय में आपकी क्या सम्मति है ?'  तब भीष्मादि सभी सभासदों ने राजा धृतराष्ट्र के कथन की प्रशंसा की और कहा कि 'आपका विचार बहुत ठीक है।' उन सबकी अनुमति जानकर दुर्योधन ने जहाँ-तहाँ सुन्दर विश्रामस्थान बनवाने आरम्भ कर दिये। जब उसने देवताओं के स्वागत के योग्य सब प्रकार की तैयारी करा ली तो राजा धृतराषट्र को इसकी सूचना दे दी। किन्तु श्रीकृष्ण ने उन विश्रामस्थान और तरह-तरह के रत्नों की ओर दृष्टि भी नहीं डाली। दुर्योधन के सब तैयारी की सूचना पाकर राजा धृतराष्ट्र ने विदुरजी से कहा---विदुर ! श्रीकृष्ण उपल्व्य से इस ओर आ रहे हैं। आज उन्होंने वृकस्थल में विश्राम किया है। कल प्रातःकाल से यहाँ आ जायेंगे। वे बड़े ही उदारचित्त, पराक्रमी और महाबली हैं। यादवों का जो विस्तृत राज्य है, उसका पालन और रक्षण करनेवाले ये ही हैं। ये तो तीनों लोकों के पितामह और ब्रह्माजी के भी पिता हैं। इसलिये हमारी स्त्री, पुरुष, बालक, बृद्ध ---जितनी प्रजा है, उसे साक्षात् सूर्य के समान श्रीकृष्ण के दर्शन करने चाहिये। सब ओर बड़ी-बड़ी ध्वजा और पताकाएँ लगवा दो तथा उनके आने के मार्ग को झड़वा-बुहरवाकर उसपर जल छिड़कवा दो।देखो, दुःशासन का भवन दुर्योधन के महल से भी अच्छा है। उसे शीघ्र ही साफ कराकर अच्छी तरह से सुसज्जित करा दो।उस भवन में बड़े सुन्दर-सुन्दर कमरे और अट्टालिकाएँ हैं, उसमें सब प्रकार का आराम है और एक ही समय सब ऋतुओं का आनन्द मिल सकता है। मेरे और दुर्योधन के महलों में जो-जो बढ़िया चीजें हैं, वे सब उसी में सजा दो तथा उनमें से जो-जो पदार्थ श्रीकृष्ण के योग्य हों वे अवश्य उनकी भेंट कर दो। विदुरजी ने कहा---राजन् ! आप तीनों लोकों में बड़े सम्मानित हैं और इस लोक में बड़े प्रतिष्ठित तथा माननीय माने जाते हैं। इस समय आप जो बातें कह रहे हैं, वह शास्त्र या उत्तम युक्ति के आधार पर ही कही जान पड़ती है। इससे मालूम होता है कि आपकी बुद्धि स्थिर है। बयोबृद्ध तो आप हैं ही। किन्तु मैं आपको वास्तविक बात बताये देता हूँ। आप धन देकर या किसी दूसरे प्रयत्न द्वारा श्रीकृष्ण को अर्जुन से अलग नहीं कर सकेंगे।  मैं श्रीकृष्ण की महिमा जानता हूँ और पाण्डवों पर उनका जैसा सुदृढ़ अनुराग है, वह भी मुझसे छिपा नहीं है। अर्जुन तो उन्हें प्राणों के समान प्रिय हैं, उसे तो वे छोड़ ही नहीं सकते। वे जल से भरे हुए घड़े, पैर धोने के जल और कुशल-प्रश्न के सिवा आपकी और किसी चीज की ओर तो आँख उठाकर भी नहीं देखेंगे। हाँ, उन्हें अतिथि सत्कार प्रिय अवश्य है और वे सम्मान के योग्य हैं भी। इसलिये उनका सत्कार तो अवश्य कीजिये। इस समय श्रीकृष्ण दोनों पक्षों के हित की कामना से जिस काम के लिये आ रहे हैं, उसे आप पूरा करें। वे तो पाण्डवों के साथ आपकी और दुर्योधन की सन्धि कराना चाहते हैं। उनकी इस बात को आप मान लीजिये। महाराज ! आप पाण्डवों के पिता हैं, वे आपके पुत्र हैं; आप बृद्ध हैं, वे आपके सामने बालक हैं। वे आपके पुत्रों की तरह वर्ताव कर रहे हैं, आप भी उनके साथ पिता के तरह वर्ताव करें। दुर्योधन बोला---पिताजी ! विदुरजी ने जो कुछ कहा है, ठीक ही है। श्रीकृष्ण का पाण्डवों के प्रति बड़ा प्रेम है। उन्हें उधर से कोई तोड़ नहीं सकता। अतः आप उनके त्कार के लिये जो तरह-तरह की वस्तुएँ देना चाहते हैं, वे उन्हें कभी नहीं देनी चाहिये। दुर्योधन की यह बात सुनकर पितामह भीष्म ने कहा---श्रीकृष्ण ने अपने मन मे जो कुछ करने का निश्चय कर लिया होगा, उसे किसी भी प्रकार बदल नहीं सकेगा। इसलिये वे जो कुछ कहें, वही बात निःसंशय होकर करनी चाहिये। तुम श्रीकृष्णरूप सचिव के द्वारा पाण्डवों से शीघ्र ही सन्धि कर लो। धर्मप्राण श्रीकृष्ण अवश्य ऐसी ही बातें कहेंगे, जो धर्म के अर्थ के अनुकूल होंगी। अतः तुम्हे और तुम्हे सम्बन्धियों को उनके साथ प्रियभाषण करना चाहिये।' दुर्योधन ने कहा---पितामह ! मुझे यह बात मंजूर नहीं है कि जबक मेरे शरीर में प्राण हैं, तबतक मैं इस राजलक्ष्मी को पाण्डवों के साथ मिलकर भोगूँ। जिस महत्कार्य को करने का मैने विचार किया है, वह तो यह है कि मैं पाण्डवों के पक्षपाती कृष्ण को कैद कर लूँ। उन्हें कैद करते ही समस्त यादव, सारी पृथ्वी और पाण्डवलोग मेरे अधीन हो जायेंगे और वे प्रातःकाल यहाँ आ ही रहे हैं। अब आपलोग मुझे ऐसी सलाह दीजिये, जिससे इस बात का कृष्ण को पता न लगे और किसी प्रकार की हानि भी न हो।श्रीकृष्ण के विषय में यह भयंकर बात सुनकर राजा धृतराष्ट्र और उनके मंत्रियों को बड़ी चोट लगी और वे व्याकुल हो गये। फिर उन्होंने दुर्योधन से कहा---'बेटा ! तू अपने मुँह से ऐसी बात न निकाल। यह सनातन धर्म के विरुद्ध है। श्रीकृष्ण तो दूत बनकर आ रहे हैं। यों भी वे हमारे संबंधी और सुहृद हैं। उन्होंने कौरवों का कुछ बिगाड़ा भी नहीं है। फिर वे कैद किये जाने योग्य कैसे हो सकते हैं ?'  भीष्म ने कहा---धृतराष्ट्र ! मालूम होता है कि तुम्हारे इस मंदमति पुत्र को मौत ने घेर लिया है। इसके सुहृद और सम्बन्धी कोई हित की बात बताते हैं तो भी यह अनर्थ को ही गले लगाना चाहता है। यह पापी तो कुमार्ग में चलता ही है, इसके साथ तुम भी अपने हितैषियों की बात पर ध्यान न देकर इसी की लीक पर चलना चा हते हो। तुम नहीं जानते, यह दुर्बुद्धि यदि श्रीकृष्ण के मुकाबले खड़ा हो गया तो एक क्षण में अपने सब सलाहकारों के सहित नष्ट हो जायगा। इस पापी ने धर्म को तो एकदम तिलांजली दे दी है, इसका हृदय बड़ा ही कठोर है। मैं इसकी यह अनर्थपूर्ण बातें बिलकुल नहीं सुन सकता। ऐसा कहकर पितामह भीष्म अत्यन्त क्रोध में भरकर उसी समय सभा से उठकर चले गये।

Monday 31 October 2016

उद्योग-पर्व---भगवान् श्रीकृष्ण से द्रौपदी की बातचीत तथा उनका हस्तिनापुर के लिये प्रस्थान

भगवान् श्रीकृष्ण से द्रौपदी की बातचीत तथा उनका  हस्तिनापुर के लिये प्रस्थान
तब महाराज युधिष्ठिर के धर्म और अर्थयुक्त वचन सुनकर तथा भीमसेन को शान्त देखकर द्रुपदनन्दिनी कृष्णा, सहदेव और सात्यकि की प्रशंसा करती हुई रो-रोकर इस प्रकार कहने लगी, 'धर्मज्ञ मधुसूदन ! दुर्योधन ने जिस प्रकार क्रूरता का आश्रय लेकर पाण्डवों को राजसुख से वंचित किया था, वह तो आपको मालूम ही है तथा संजय को राजा धृतराष्ट्र ने एकान्त में एकान्त में अपना जो विचार सुनाया है, वह भी आपसे छिपा नहीं है। इसलिये यदि दुर्योधन हमारा राज्य का भाग दिये बिना ही सन्धि करना चाहे तो आप उसे किसी प्रकार स्वीकार न करें। इन  वीरों के साथ पाण्डवलोग दुर्योधन की रणोन्मत्त सेना से अच्छी तरह मुकाबला कर सकते हैं। साम या दान के द्वारा कौरवों से अपना प्रयोजन सिद्ध होने की कोई आशा नहीं है, इसलिये आप भी उनके प्रति कोई ढ़ील-ढ़ाल न करें; क्योंकि जिसे अपनी जीविका को बचाने की इच्छा हो, उसे साम या दान से काबू में न आनेवाले शत्रु के प्रति दण्ड का ही प्रयोग करना चाहिये।
अतः अच्युत ! आपको भी पाण्डवों और संजय वीरो के साथ लेकर उन्हें शीघ्र ही बड़ा दण्ड देना चाहिये। 'जनार्दन ! शास्त्र का मत है कि जो दोष अवध्य का वध करने में है, वही वध्य का वध न करने भी है। अतः आप भी पाण्डव, यादव और सृंजय वीरों के सहित ऐसा काम करें, जिससे आपको यह दोष स्पर्श न कर सके। भला, बताइये तो मेरे समन पृथ्वी पर कौन स्त्री है। मैं महाराज द्रुपद की वेदी से प्रकट हुई अयोनिजा पुत्री हूँ, धृष्टधुम्न की बहन हूँ, आपकी प्रिय सखी हूँ, महात्मा पाण्डु की पुत्रवधू हूँ और पाँच इन्द्रों के समान तेजस्वी पाण्डवों की पटरानी हूँ। इतनी सम्मानिता होने पर भी मुझे केश पकड़कर सभा में लाया गया और फिर वहीं पाण्डवों के सामने और आपके जीवित रहते मुझे अपमानित किया गया। हाय ! पाण्डव, यादव और पांचाल वीरों के दम-में-दम रहते मैं इन पापियों की सभा में दासी की दशा में पहुँच गयी।किन्तु मुझे ऐसी स्थिति में देखकर भी पाण्डवों को न तो क्रोध ही आया और न इन्होंने कोई चेष्टा ही की। इसलिये मैं तो यही कहती हूँ कि यदि दुर्योधन एक मुहूर्त भी जीवित रहता है तो अर्जुन की धनुर्धरता और भीमसेन की बलवत्ता को धिक्कार है। अतः आप यदि आप मुझे अपनी कृपापात्री समझते हैं और वास्तव में मेरे प्रति आपकी दयादृष्टि है तो आप धृतराष्ट्र के पुत्रों पर पूरा-पूरा कोप कीजिये। इसे पश्चात् द्रौपदी अपने काले-काले लम्बे केशों को बायें हाथ में लिये श्रीकृष्ण के पास आयी और नेत्रों में जल भरकर उनसे कहने लगी---।कमलनयन श्रीकृष्ण ! शत्रुओं से सन्धि करने की तो आपकी इच्छा है; किन्तु अपने इस सारे प्रयत्न में आप दुःशासन के हाथों से खींचे हुए इस केशपाश को याद रखें। यदि भीम और अर्जुन कायर होकर आज सन्धि के लिये ही उत्सुक हैं तो अपने महारथी पुत्रों के सहित मेरे वृद्ध पिता कौरवों से संग्राम करेंगे तथा अभिमन्यु-सहित मेरे पाँच महारथी पुत्र उनके साथ जूझेंगे। यदि मैने दुःशासन की साँवली भुजा को कटकर धूलधूसरित होते न देखा तो मेरी छाती कैसे ठण्ढ़ी होगी ? इस प्रज्जवलित अग्नि के समान प्रचण्ड क्रोध को हृदय में रखकर प्रतीक्षा करते हुए मुझे तेरह वर्ष बीत गये हैं। आज भीमसेन के वाग्वाण से बिंधकर मेरा कलेजा फटा जा रहा है। हाय ! अभी ये धर्म को ही देखना चाहते है !'  इतना कहकर विशालाक्षी द्रौपदी का कण्ठ भर आया, आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गयी, होंठ काँपने लगे और वह फूट-फूटकर रोने लगी। तब विशालबाहु श्रीकृष्ण ने उसे धैर्य बँधाते हुए कहा---'कृष्णे ! तुम शीघ्र ही कौरवों की स्त्रियों को रुदन करे देखोगी। आज जिनपर तुम्हारा कोप है, उन शत्रुओं के स्वजन, सुहृद और सेनादि के नष्ट हो जाने पर उनकी स्त्रियाँ भी इसी प्रकार रोवेंगी।  महाराज युधिष्ठिर की आज्ञा से भीम, अर्जुन और नकुल-सहदेव के सहित मैं भी ऐसा ही काम करूँगा। यदि काल के वश में पड़े हुए धृतराष्ट्रपुत्र मेरी बात नहीं सुनेंग तो युद्ध में मारे जाकर कुत्ते और गीदड़ों के भोजन बनेंगे। तुम निश्चय मानो--- हिमालय भले ही अपने स्थान से टल जाय, पृथ्वी के सैकड़ों टुकड़े जायँ, तारों से भरा हुआ आकाश टूट पड़े, किन्तु मेरी बात झूठी नहीं हो सकती। कृष्णे ! अपने आँसुओं को रोको, मैं सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि तुम शीघ्र ही शत्रओंके मारे जाने से अपने पतियों को श्रीसम्पन्न देखोगी। ' अर्जुन ने कहा---श्रीकृष्ण ! इस समय सभी कुरुवंशियों के आप ही सबसे बड़े सुहृद् हैं। आप दोनों ही पक्षों के सम्बन्धी और प्रिय हैं। इसलिये पाण्डवों के साथ कौरवों का मेल कराकर सन्धि भी करा सकते हैं। श्रीकृष्ण बोले---वहाँ जाकर मैं ऐसी ही बातें कहूँगा, जो धर्म के अनुकूल होंगी तथा जिनसे हमारा और कौरवों का हित होगा। अच्छा, अब मैं राजा धृतराष्ट्र से मिलने के लिये जाता हूँ। कृष्णचन्द्र ने शरद् ऋतु का अन्त होने पर हेमन्त का आरम्भ होने के समय कार्तिक मास में रेवती नक्षत्र और मैत्र मुहूर्त में यात्रा आरम्भ की। उस समय उन्होंने अपने पास बैठे हुए सात्यकि से कहा कि ' तुम मेरे रथ में शंख, चक्र, गदा, तरकस, शक्ति आदि सभी शस्त्र रख दो।' इस प्रकार उनका विार जानकर सेवकलोग रथ तैयार करने के लिये दौड़ पड़े। उन्होंने नहला-धुलाकर सैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक नाम के घोड़ों को रथ में जोता तथा उसकी ध्वजा पर पक्षिराज गरुड़ विराजमान हुए। इसके पश्चात् श्रीकृष्ण उसपर चढ़ गये तथा सात्यकि को भी अपने साथ बैठा लिया। फिर जब रथ चला तो उसकी घरघराहट से पृथ्वी और आकाश गूँज उठे। इस प्रकार उन्होंने हस्तिनापुर प्रस्थान किया। भगवान् के चलने पर कुन्तिपुत्र युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव, चेकितान, चेदिराज, धृष्टकेतू, द्रुपद, काशीराज, शिखण्डी, धृष्टधुम्न, पुत्रों के सहित राजा विराट और केकयराज भी उन्हें पहुँचाने को चले। इस समय महाराज युधिष्ठिर ने सर्वगुणसम्पन्न श्रीश्यामसुन्दर को हृदय से लगाकर कहा, 'गोविन्द !  हमारी जिस अबला माता ने हमें बालकपन से ही पाल-पोसकर बड़ा किया है, जो निरन्तर उपवास और तप में लगी रहकर हमारे कुशल-क्षेम का ही प्रयत्न करती रहती है तथा जिसका देवता और अतिथियों के सत्कार और गुरुजनों की सेवा में बड़ा अनुराग है, उससे आप कुशल पूछें। उसे हर समय हमारा शोक सालता रहता है।
आप हमारे नाम लेकर हमारी ओर से उसे प्रणाम कहें। शत्रुदमन श्रीकृष्ण ! क्या कभी वह समय आवेगा, जब इस दुःख से छूटकर हम अपनी दुःखिनी माता को कुछ सुख पहुँचा सकेंगे।इसके सिवा राजा धृतराष्ट्र और हमसे बयोबृद्ध राजाओं से तथा भीष्म, द्रोण, कृप, बाह्लीक, द्रोणपुत्र अश्त्थामा, सोमदत्त और अन्यान्य भरतवंशियों से हमारा यथायोग्य अभिवादन कहें एवं कौरवों के प्रधानमंत्री अगाधबुद्धि विदुरजी को मेरी ओर से आलिंगन करें।' इतना कहकर महाराज युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण की परिक्रमा की और उनसे आज्ञा लेकर लौट गये। फिर रास्ते में चलते-चलते अर्जुन ने कहा---'गोविन्द ! पहले मंत्रणा के समय हमलोगों को आधा राज्य देने की बात हुई थी---उसे सब राजालोग जानते हैं। अब दुर्योधन ऐसा करने के लिये तैयार हो, तब तो बड़ी अच्छी बात है; उसे भी बहुत बड़ी आपत्ति से छुट्टी मिल जायगी। और यदि ऐसा न किया तो मं अवश्य ही उसके पक्ष के समस्त क्षत्रिय वीरों का नाश कर दूँगा। ' अर्जुन की यह बात सुनकर भीमसेन भी बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने बड़े जोर से सिंहनाद किया। उससे भयभीत होकर बड़े-बड़े धनुर्धर भी काँपने लगे। इस प्रकार श्रीकृष्ण को अपना निश्चय सुनाकर, उनका आलिंगन कर अर्जुन भी लौट आये। इस तरह सभी राजाओं के लौट जाने पर श्रीकृष्ण बड़ी तेजी से हस्तिनापुर की ओर चल दिये। मार्ग में श्रीकृष्ण ने रास्ते के दोनो ओर खड़े हुए अनेकों महर्षि देखे। वे सब ब्रह्मतेज से देदिप्यमान थे। उन्हें देखते ही वे तुरन्त रथ से उतर पड़े और उन्हें प्रणाम कर बड़े आदरभाव से कहने लगे, 'कहिये, सब लोकों में कुशल है ? धर्म का ठीक-ठाक पालन हो रहा है ? आपलोग इस समय किधर जा रहे हैं ? मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?' तब परशुरामजी ने श्रीकृष्ण को गले लगाकर कहा---'यदुपते ! ये सब देवर्षि, ब्रह्मर्षि और राजर्षिलोग प्राचीनकाल के अनेकों देवता और असुरों को देख चुके हैं। इस समय ये हस्तिनापुर में एकत्रित हुए क्षत्रिय राजाओं को, सभासदों और आपको देखने के लिये जा रहे हैं। यह सब समारोह अवश्य ही बड़ा दर्शनीय होगा। वहाँ कौरवों की राजसभा में आप जो धर्म और अर्थ के अनुकूल भाषण करेंगे, उसे सुनने की हमारी इच्छा है। उस सभा में भीष्म, द्रोण और महामति विदुर-जैसे महापुरुष तथा आप भी मौजूद होंगे। उस समय हम आपके और उनके दिव्य वचन सुनना चाहते हैं। वे वचन अवश्य ही हितकर और यथार्थ होंगे। वीरवर ! आप पधारिये, हम सभा में ही आपके दर्शन करेंगे। देवकीनन्दन श्रीकृष्ण के हस्तिनापुर जाते समय दस महारथी, एक हजार पैदल, एक हजार घुड़सवार, बहुत सी भोजन-सामग्री और सैकड़ों सेवक भी उनके साथ थे। उनके चलते समय जो शकुन और अपशकुन हुए, उन्हें मैं सुनाता हूँ। उस समय बिना ही बादलों के बड़ी भीषण गर्जना और बिजली की कड़क हुई तथा वर्षा होने लगी। पूर्व दिशा की ओर बढ़ने वाली छः नदियाँ तथा समुद्र---ये उलटे बहने लगे। सब दिशाएँ ऐसी अनश्चित हो गयीं कि कुछ पता ही नहीं लगता था। किन्तु मार्ग में जहाँ-जहाँ श्रीकृष्ण चलते थे, वहाँ बड़ा सुखप्रद वायु चलता था और शकुन भी अच्छे ही होते थे। जहाँ-तहाँ सहस्त्रों ब्राह्मण उनकी स्तुति करते तथा मधुपर्क और अनेकों मांगलिक द्रव्यों से सत्कार करते थे। इस प्रकार मार्ग में अनेकों पशु और ग्रामों को देखते तथा अनेकों नगर और राष्ट्रों को लाँघते वे परम रमणीय शालियवन नामक स्थान में पहुँचे। वहाँ के निवासियों ने श्रीकृष्णचन्द्र का बड़ा आतिथ्य सत्कार किया।  इसके पश्चात् सायंकाल में, जब अस्त होते हुए सूर्य की किरणें सब ओर फैल रही थीं, वे वृकस्थल नाम के गाँव में पहुँचे। वहाँ उन्होंने रथ से उतरकर नियमानुसार शौचादि नित्यकर्म किया और रथ छोड़ने की आज्ञा देकर सन्ध्या-वन्दन किया। दारुक ने घोड़े छोड़ दिये। फिर भगवान् ने वहाँ के निवासियों से कहा कि 'हम राजा युधिष्ठिर के काम से जा रहे हैं और आज रात को वहीं ठहरेंगे।' उनका ऐसा विचार जानकर ग्रामवासियों ने ठहरने का प्रबंध कर दिया और एक क्षण में ही खान-पान की उत्तम सामग्री जुटा दी। फिर उस गाँव में जो प्रधान-प्रधान लोग थे, उन्होंने आकर आशीर्वाद और मांगलिक वचन कहते हुए उनका विधिवत् सत्कार किया। इसके पश्चात् भगवान् ने उन्हें सुस्वादु भोजन कराकर स्वयं भी भोजन किया और सब लोगों के साथ बड़े आनन्द से उस रात को वहीं रहे।