Thursday 29 October 2015

वनपर्व---वैवस्वत मनु का चरित्र---महामत्स्य का उपाख्यान

वैवस्वत मनु का चरित्र---महामत्स्य का उपाख्यान
इसके बाद पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने मार्कण्डेयजी से कहा, 'अब आप हमें वैवस्वत मनु के चरित्र सुनाइये।' मार्कण्डेयजी बोले---राजन् ! विवस्वान् (सूर्य) के एक प्रतापी पुत्र था, जो प्रजापति के समान कान्तिमान् और महान् ऋषि था। उसने बदरीकाश्रम में जाकर एक पैर पर खड़े हो दोनो बाँहें ऊपर उठाकर दस हजार वर्ष तक बड़ा भारी तप किया। एक दिन की बात है, मनु चीरिणी नदी के तटपर तपस्या कर रहे थे।वहाँ उनके पास एक मत्स्य आकर बोला, महात्मन् ! मैं एक छोटी सी मछली हूँ; मुझे यहाँ अपने से बड़ी मछलियों से सदा भय बना रहता है, आप कृपा करके मेरी रक्षा करें।' वैवस्वत मनु को उस मत्स्य की बात सुनकर बड़ी दया आयी। उन्होंने उसे अपने हाथ पर उठा लिया और पानी से बाहर लाकर एक मटके में रख दिया। मनु का उस मत्स्य में पुत्रभाव हो गया था, उनकी अधिक देखभाल के कारण वह उस मटके में बढ़ने और पुष्ट होने लगा। कुछ ही सय में वह बढ़कर बहुत बड़ा हो गया। अतः मटके में उसका रहना कठिन हो गया।एक दिन उस मत्स्य ने मनु को देखकर कहा, 'भगवन् ! अब आप मुझे इससे अच्छा कोई दूसरा स्थान दीजिये।' तब मनु ने उसे मटके में से निकालकर एक बहुत बड़ी बावली में डाल दिया। वह बावली दो योजन लम्बी और एक योजन चौड़ी थी। वहाँ भी वह मत्स्य अनेकों वर्षों तक बढ़ता रहा और इतना बढ़ गया कि अब उसका विशाल शरीर उसमें भी नहीं अँट सका। एक दिन उसने फिर मनु से कहा---'भगवन् ! अब तो आप मुझे समुद्र की रानी गंगाजी के जल में डाल दें, वहाँ मैं आराम से रह सकूँगा; अथवा आप जहाँ ठीक समझें वहीं मुझे पहुँचा दें।मत्स्य के ऐसा कहने पर मनु ने उसे गंगाजी के जल में ले जाकर छोड़ दिया। कुछ काल तक वहाँ रहने के पश्चात् वह और भी बढ़ गया। फिर उसने मनु को देखकर कहा, 'भगवन् ! अब तो बहुत बड़ा हो जाने के कारण मैं गंगाजी में हिल-डुल नहीं सकता। आप मुझपर कृपा करके अब समुद्र में ले चलिये। तब मनु ने उसे गंगाजी के जलसे निकाला और समुद्र के जल में डाल दिया। समुद्र में डालने पर उस महामत्स्य ने मनु से हँसकर कहा, 'तुमने मेरी हर तरहसे रक्षा की है। अब इस अवसर पर जोकार्य उपस्थित है, उसे मैं बताता हूँ; सुनो।
थोड़े ही समय में इस चराचर जगत् का प्रलय होनेवाला है। समस्त विश्व के डूब जाने का समय आ गया है; अतः एक सुदृढ़ नाव तैयार कराओ, उसमें बटी हुई मजबूत रस्सी बाँध दो और सप्तर्षियों को साथ ले उसपर बैठ जाओ। सब प्रकार के अन्न और औषधियों के बीजों का अलग-अलग संग्रह करके उन्हें सुरक्षित रूप से नावपर रख लो और नाव पर बैठे-बैठे ही मेरी प्रतीक्षा करो। समय पर मैं सिंगवाले महामत्स्य के रूप में आऊँगा, इससे तुम मुझे पहचान लेना।अब मैं जा रहा हूँ।' उस मत्स्य के कथनानुसार मनु सब प्रकार के बीज लेकर नाव में बैठ गये और उुत्ताल तरंगों से लहराते हुए समुद्रमें तैरने लगे। उ्होंने उस महामत्स्य का स्मरण किया। उनको चिन्तित देखकर वह श्रृंगधारी मत्स्य नौका के पास आ गया। मनु ने उस रस्सी का फंदा उसके सिंग में डाल दिया। उससे बँधकर वह मत्स्य उस नाव को बड़े वेग से समुद्र में खींचने लगा और नाव के ऊपर बैठे लोगों को जल पर ही तैराता रहा। उस समय समुद्र में ऊँची-ऊँची लहरें उठ रही थीं, पानी के वेग से उसकी गर्जना हो रही थी, प्रलयकालीन वायु के झोंके से वह नाव डगमगा रही थी। उस समय न भूमि का पता चलता था न दिशाओं का। पृथ्वीलोक और आकाश---सब जलमय हो रहा था। केवल मनु, सप्तर्षि और मत्स्य---ये ही दिखाई पड़ते थे। इस प्रकार वहमहामत्स्य बहुत वर्षों तक महासागर में उस नाव को सावधानी से सब ओर खींचता रहा। इसके बाद वह उस नाव को खींचकर हिमालय की सबसे ऊँची चोटी पर ले गया और उसपर बैठे हुए ऋषियों से हँसकर बोला, 'हिमालय के इस शिखर में नाव को बाँध दो,देरी न करो।' आज भी हिमालय का वह शिखर 'नौकाबन्धन' क नाम से विख्यात है। इसके बाद महामत्स्य ने पुनः उनके हित की बात कही---'मैं भगवान् प्रजापति हूँ, मुझसे परे कोई दूसरी वस्तु उपलब्ध नहीं होती। मैन ही मत्स्यरूप धारण कर तुमलोगों को इस संकट से बचाया है। अब मनु को चाहिए कि देवता, असुर आदि समस्त प्रजा की, सब लोकों की और संपूर्ण चराचर की सृष्टि करें। इन्हें जगत् की सृष्टि करने की प्रतिभा तपस्या से प्राप्त होगी। और मेरी कृपा से प्रजा की सृष्टि करते समय इन्हें मोह नहीं होगा। यह कहकर महामत्स्य अनतर्धान हो गया। इसके बाद जब मनु को सृष्टि करने की इच्छा हुई तो उन्होंने बहुत बड़ी तपस्या करके शक्ति प्राप्त की, उसके बाद सृष्टि आरम्भ की। फिरतो वे पहले कल्प के समान ही परजा उत्पन्न करने लगे। युधिष्ठिर ! इस प्रकार तुमको यह मत्स्य का प्राचीन उपाख्यान सुनाया है।


वनपर्व---उत्तम ब्राह्मणों का महत्व

उत्तम ब्राह्मणों का महत्व
युधिष्ठिर के पूछने पर मार्कण्डेयजी बोले---हैहयवंशी क्षत्रियों का परपुरन्जय नामक एक राजकुमार, जो बड़ा ही सुन्दर और अपने वंश की मर्यादा बढ़ानेवाला था, एक दिन वन में शिकार खेलने के लिये गया।तृण और लताओं से भरे हुए उस वन में घूमते-घूमते उस राजकुमार की दृष्टि एक मुनि पर पड़ी। वे काला मृगचर्म ओढ़े थोड़ी ही दूर पर बैठे थे। कुमार ने उन्हें काला मृग ही समझा और अपने तीर का निशाना बना दिया। मुनि की हत्या हो गयी यह जानकर राजकुमार को बड़ा अनुताप हुआ, वह शोक से मूर्छित हो गया। फिर वह हैहयवंशी क्षत्रियं के पास गया और उनसे इस दुर्घटना का समाचार कहा। यह सुनकर वे भी बहुत दुःखी हुए और वे मुनि किसके पुत्र हैं, इसका पता लगाते हुए कश्यपनन्दन अरिष्टनेमी के आश्रम पर पहुँचे। मुनि उनका स्वागत करने लगे तो वे कहने लगे कि हम आपसे सत्कार पाने योग्य नहीं हैं, हमसे मुनि की हत्या हो गयी है। ब्रह्मर्षि अरिष्टनेमि ने कहा--'आपलोगों से हत्या कैसे हो गयी ? और वह मृत शरीर कहाँ है ?' उनके पूछने पर क्षत्रियों ने मुनि के वध का सारा समाचार ठीक-ठीक बता दिया और उन्हें साथ लेकर उस स्थान पर गये जहाँ मुनि की हत्या हुई थी। किन्तु वहाँ उन्हे मरे हुए मुनि की लाश नहीं मिली। तब मुनिवर अरिष्टनेमि ने उनसे कहा--इधर देखो, यही वह मुनि है जिसे तुमने मार डाला था। यह मेरा ही पुत्र है और तपोबल से युक्त है। उस मुनिकुमार को जीवित देख वे लोग बड़े आश्चर्य में पड़े और कहने लगे, 'यह बड़े आश्चर्य की बात है। यह मरा हुआ मुनि यहाँ कैसे आ गया ? इसे किस प्रकार जीवन मिला ? ब्रह्मर्षि ने उनसे कहा---राजाओं ! मृत्यु हमलोगों पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकती। इसका कारण यह है कि हम सदा सत्य ही बोलते हैं और सर्वथा अपने धर्म का पालन करते रहते हैं। इसलिये हमें मृत्यु का भय नहीं है।हम अतिथियों को  अन्न और जल से तृप्त करते हैं; हमपर जिनके पालन का भार है, उन्हें पूर्ण भोजन देते हैं और उनसे बचा हुआ अन्न स्वयं भोजन करते हैं। हम सदा शम, दम, क्षमा और दान में तत्पर रहनेवाले हैं; पवित्र देश में निवास करते हैं। इन सब कारणों से भी हमें मृत्यु का भय नहीं है। यह सुनकर उन हैहयवशी क्षत्रियों ने 'एवमस्तु' कहकर मुनिवर अरिष्टनेमि का सम्मान किया और प्रसन्न होकर अपने देश को चले गये।

Wednesday 28 October 2015

वनपर्व----काम्यक वन में पाण्डवों के पास श्रीकृष्ण और मार्कण्डेय मुनि का आना

काम्यक वन में पाण्डवों के पास श्रीकृष्ण और मार्कण्डेय मुनि का आना
जिन दिनों पाण्डवलोग सरस्वती के तट पर निवास करते थे, उसी समय वहाँ कार्तिक की पूर्णिमा का पर्व लगा। उस अवसर पर पाण्डवों ने बड़े-बड़े तपस्वियों के साथ सरस्वती तीर्थ पर पर्व के अनुसार पुण्यकर्म किये और कृष्णपक्ष का आरंभ होते हीवे धौम्य मुनि के साथ सारथि और आगे चलनेवाले सेवकों सहित काम्यक वन को चल दिये। वहाँ पहुँचने पर मुनियों ने उनका अतिथि सत्कार किया और वे द्रौपदी के सहित वहीं रहने लगे। एक दिन एक ब्राह्मण जो अर्जुन का प्रिय मित्र था, वह संदेश लेकर आया कि 'महाबाहु भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ जल्द ही पधारनेवाले हैं। भगवान् को यह मालूम हो चुका है कि आपलोग इस वन में आ गये है। वे सदा ही आपलोगों से मिलने को उत्सुक रहते हैं और आपके कल्याण की बातें सोचा करते हैं। दूसरा शुभ समाचार यह है कि स्वध्याय और तपस्या में लगे रहनेवाले महात्मा मार्कण्डेयजी भी शीघ्र आपलोगों से मिलेंगे। यह बातें हो ही रही थी कि देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण सत्यभामा के साथ रथ पर बैठकर वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने रथ से नीचे उतरकर बड़े हर्ष से धर्मराज युधिष्ठिर और महाबली भीम के चरणों में प्रणाम करके फिर धौम्य मुनि का पूजन किया। फिर नकुल और सहदेव ने उन्हें प्रणाम किया। उसके बाद भगवान् अर्जुन को हृदय से लगाकर मिलेऔर द्रौपदी को अपनी मीठी बातों से शान्त्वना दी। इसी प्रकार श्रीकृष्ण की रानी सत्यभामा भी द्रौपदी से गले लगकर मिलीं। इस प्रकार शिष्टाचार समाप्त होने पर सभी पाण्डवों ने अपनी पत्नी द्रौपदी और पुरोहित धौम्य मुनि के साथ श्रीकृष्ण का सत्कार किया और उन्हें सब ओर से घेरकर बैठ गये। तब भगवान् श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा---पाण्डवश्रेष्ठ ! धर्म का पालन राज्य की प्राप्ति से बढ़कर बताया गया है, धर्म की हीप्राप्ति के लिये शास्त्र तप का उपदेश देते हैं। तुमने सत्यभाषण और सरल व्यवहार के द्वारा अपने धर्म का पालन करते हुए इहलोक और परलोक दोनो पर विजय प्राप्त कर ली है। तुम किसी कामना के लिये नहीं, नष्काम भाव से शुभ कर्मों का आचरण करते हो। धन के लोभ से भी स्वधर्म का त्याग नहीं करते। इसके ही प्रभाव से तुम धर्मराज कहलाते हो। तुममें दान, सत्य, तप, श्रद्धा, बुद्धि, क्षमा और धैर्य सबकुछ है। राज्य, धन और भोगों को पाकर भी तुमने इन सद्गुणों से सदा ही प्रेम रखा है। अतः इसमें कोई संदेह नहीं कि तुम्हारी सभी कामनाएँ पूर्ण होंगी। तत्पश्चात् भगवान् द्रौपदी से बोले---'याज्ञसेनि ! तुम्हारे पुत्र बड़े ही सुशील हैं, धनुर्वेद सीखने में उनका बड़ा ही अनुराग है। वे अपने मित्रों के साथ रहकर सदा ही सत्पुरुषों के आचार का पालन करते हैं। रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न जिस प्रकार अनिरुद्ध और अभिमन्यु को अस्त्रशिक्षा देता है, वैसे ही तुम्हारे प्रतिविन्ध्य आदि पुत्रों को भी सिखलाता है। इस प्रकार द्रौपदी को उनके पुत्रों का कुशल समाचार सुनाकर श्रीकृष्ण ने पुनः धर्मराज से कहा---'राजन् ! दशार्ह, कुकुर और अंधक वंशों के वीर सदा आपकी आज्ञा का पालन करेंगे और आप उन्हें जहाँ चाहेंगे, वहीं खड़े रहेंगे। आपकी प्रतिज्ञा का समय पूरा होते ही दशार्हवंशी योद्धा आपके शत्रुओं की सेना का संहार कर डालेंगे। फिर आप सदा के लिये शोकरहित हो अपना राज्य प्राप्त कर हस्तिनापुरमें प्रवेश करेंगे।युधिष्ठिर ने पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण के विचार अपने अनुकूल जानकर उनकी प्रशंसा की और उनकी ओर एकटक दृष्टि से देखते हुए हाथ जोड़कर कहा---'केशव ! इसमें तनिक भी सदेह नहीं कि पाण्डवों के केवल आप ही सहारे हैं, कुन्ती के पुत्र आपकी ही शरण में हैं। हमें विश्वास है, समय आने पर आप हमारे लिये, जो कुछ कह रहे हैं उससे भी बढ़कर कार्य करेंगे।हमलोगों ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार प्रायः बारह वर्षों का समय निर्जन वन में घूम-फिरकर व्यतीत कर दिया है। अब विधिपूर्वक अज्ञातवास की अवधि पूरी करके ये पाण्डव आपकी ही शरण लेंगे। इस प्रकार श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर जब बात कर रहे थे उसी समय हजारों वर्षों की आयुवाले तपोवृद्ध महात्मा मार्कण्डेयजी वहाँ दर्शन दिया।   मार्कण्डेयजी अजर-अमर हैं, वे रूप और उदारता आदि गुणों से युक्त हैं। वे देखने में ऐसे जान पड़ते हैं जैसे पच्चीस वर्ष का तरुण हो।वहाँ पधारने पर समस्त पाण्डवों तथा भगवान् श्रीकृृष्ण ने उनका स्वागत किया। इसी समय देवर्षि नारद भी वहाँ आ पहुँचे। पाण्डवों ने उनका भी यथायोग्य स्वागत किया। इसे बाद कथा का प्रसंग उपस्थित करने के लिये धर्मराज युधिष्ठिर ने मार्कण्डेयजी से इस प्रकार प्रश्न किया--"मुने ! आप सबसे प्राचीन हैं, देवता, दैत्य, ऋषि, महात्मा और राजर्षि---सबका चरित्र आपको विदित है। इसलिये मैं आपसे कुछ पूछना चाहता हूँ। धर्म का पालन करने पर भी जब मैं अपने को सुखों से वंचित पाता हूँ और सदा दुराचार में ही लगे रहनेवाले दुर्योधन आदि को सर्वथा ऐश्वर्यशाली होे देखता हूँ तो मरे मन में प्रायः यह प्रश्न उठा करता है कि पुरुष जिन शुभ अथवा अशुभ कर्मों का आचरण करता है उनका फल किस तरह भोगता है और ईश्वर कर्मों का नियन्ता किस प्रकार होता है ? मनुष्य को सुख अथवा दुःख मिलने में क्या कारण है ?" मार्कण्डेयजी बोले---राजन् ! तुमने जो प्रश्न किया है वह बिलकुल ठीक है। मनुष्य इस लोक अथवा परलोक में कैसे-कैसे सुख का उपभोग करता है---इस विषय में मैं जो कुछ बताऊँ उसे ध्यान देकर सुनो। सर्वप्रथम प्रजापति ब्रह्माजी उत्पन्न हुए। उन्होंने जीवों के लिये निर्मल और विशुद्ध शरीर बनाये, साथ ही शुद्ध धर्म का ज्ञान कराने वाले उत्तम धर्मशास्त्रों को प्रकट किया। उस समय के सभी मनुष्य उत्तम धर्मों का पालन करनेवाले थे। उनका संकल्प कभी व्यर्थ नहीं जाता था। वे सदा ही सत्यभाषण किया करते थे। सब-के-सब मनुष्य ब्रह्भूत, पुण्यात्मा और दीर्घायु होते थे। सभी स्वच्छन्दतापूर्वक आकाशमार्ग से उड़कर दवताओं से मिलने जाते और स्वच्छन्दचारी होने के कारण जब इच्छा हुई पुनः लौट आते थे। वे अपनी इच्छा होने पर भी मरते और इच्छा के अनुसार ही जीवित रहते थे। उन्हें किसी प्रकार की बाधा नहीं सताती थी और न ही किसी परकार का भय ही होता था। वे उपद्रव से रहित, पूर्णकाम, सभी धर्मों को प्रत्यक्ष करनेवाले, जितेन्द्रिय और राग-द्वेष से रहित होते थे। उनकी आयु हजार वर्षों की होती थी और वे हजार-हजार संतान उत्पन्न करने की क्षमता रखते थे। इसके बाद कालान्तर में मनुष्यों की आकाश-गति बन्द हो गयी। लोग पृथ्वी पर विचरने लगे, उनपर काम, क्रोध का अधिकार हो गया। वे छल-कपट से जीविका चलाने लगे और लोभ तथा मोह के वशीभूत हो गये। इसलिये इस शरीर पर उनका अधिकार न रहा। वे बार-बार जन्म-मरण का क्लेश भोगने लगे। उनकी कामनाएँ, उनके संकल्प और उनका ज्ञान--सभी निष्फल हो गये। सभी सबपर संदेह करके एक-दूसरे को क्लेश देने लगे। इस प्रकार पापकर्मों में प्रवृत हुए पापियों की उनके कर्मानुसार आयु भी कम हो गयी। हे कुन्तीनन्दन ! इस संसार में मृत्यु के पश्चात् जीव की गति उसके कर्मों के अनुसार ही होती है। यमराज के नियत किये हुए पुण्य-पाप कर्मों के फल का उपभोग करनेवाला जीव प्राप्त हुए सुख-दुःख को दूर करने में समर्थ नहीं है। कोई प्राणी इस लोक में सुख पाता है और परलोक में दुःख। किसी को परलोक में सुख मिलता है और इस लोक में दुःख।किसी को दोनो ही लोकों में सुख मिलता है तो किसी को दोनो ही लोकों में दुःख उठाना पड़ता है। जिनके पास बहुत धन होता है, वे अपने शरीर को हर तरह से सजाकर नित्य आनन्द भोगते हैं। अपने देह के ही सुख में आसक्त हुए उन मनुष्यों को केवल इसी लोक में सुख मिलता है। परलोक में तो उनके लिये सुख का नाम भी नहीं है। जो पहले धर्म का आचरण करते हैं और धर्मपूर्वक ही धन का उपार्जन करके समय पर स्त्री से विवाह कर उसके साथ यज्ञ-यज्ञादि में उस धन का सदुपयोग करते हैं, उनके लिये यह लोक और परलोक दोनो ही सुख के स्थान हैं। परन्तु जो मूर्ख मनुष्य विद्या, तप और दान के लिये प्रयास न करके केवल विषय-सुख के लये ही प्रयत्न करते हैं उनके लिये न तो इस लोक में सुख है न परलोक में। राजा युधिष्ठिर ! तुुम सब लोग बड़े ही पराक्रमी और सत्यवादी हो। देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये ही तुम भाइयों का प्रादुर्भाव हुआ है।तुम तपस्या, दम और सदाचार में सदा ही तत्पर रहनेवाले और शूरवीर हो। इस संसार में बड़े-बड़े महत्वपूर्ण कार् करके तुम देवता और ऋषियों को संतुष्ट करोगे और अन्त में उततम लोकों में जाओगे। अपने इस बर्तमान कष्ट को देखकर तुम मन में किसी भी प्रकार की शका न करो। यह दुःख तो तुम्हारे भावी सुख का ही कारण है।

Sunday 18 October 2015

वनपर्व---युधिष्ठिर और सर्प के प्रश्नोत्तर, नहुष के सर्पयोनि में आने का इतिहास, भीम की रक्षा एवं नहुष का स्वर्गगमन

युधिष्ठिर और सर्प के प्रश्नोत्तर, नहुष के सर्पयोनि में आने का इतिहास, भीम की रक्षा एवं नहुष का 

सर्प के प्रश्नों का उत्तर देने के पश्चात् युधिष्ठिर ने स्वयं उससे इस प्रकार प्रश्न किया---सर्पराज ! तुम सम्पूर्ण वेद-वेदांगों के ज्ञाता हो; बताओ, किन कर्मों के आचरण से सर्वोत्तम गति प्राप्त होती है ? सर्प ने कहा---भारत ! इस विषय में मेरा विचार तो यह है कि सत्पात्र को दान देने से, सत्य और प्रिय वचन बोलने से तथा अहिंसा धर्म में तत्पर रहने से मनुष्य को उत्तम गति प्राप्त होती है। युधिष्ठिर बोले---दान और सत्य में कौन बड़ा है ? अहिंसा और प्रियभाषण---इनमें किसका महत्व अधिक है और किसका कम ? सर्प ने कहा---राजन् ! दान, सत्य, अहिंसा और प्रियभाषण इनका गौरव लाघव कार्य की महत्ता के अनुसार देखा जाता है। किसी दान से तो सत्य का महत्व बढ़ जाता है और किसी सत्यभाषण से दान बढ़कर होता है। इसी प्रकार कहीं तो प्रिय बोलने की अपेक्षा अहिंसा का अधिक गौरव है और कहीं अहिंसा से बढ़कर प्रियभाषण का महत्व है। इस प्रकार इसके गौरव लाघव का विचार कार्य की अपेक्षा से ही है। युधिष्ठिर ने पूछा---मृत्युकाल में मनुष्य अपना शरीर तो यहीं त्याग देता है, फिर बिना देह के ही वह स्वर्ग कैसे जाता है और कर्मों के अवश्यम्भावी फल को कैसे भोगता है ? सर्प ने कहा---राजन् ! अपने-अपने कर्मों के अनुसार जीवों की तीन प्रकार की गति देखी गयी है---स्वर्गलोक की प्राप्ति, मनुष्य योनि में जन्म लेना और पशु-पक्षी आदि योनियों में उत्पन्न होना। बस यही तीन योनियाँ (उर्ध्वगति, मध्यगति और अधोगति) हैं। इनमें से जो जीव मनुष्य योनि में उत्पन्न होता है, वह यदि आलस्य और प्रमाद का त्याग करके अहिंसा का पालन करते हुए दान आदि शुभकर्म करता है तो उसे पुण्य की अधिकता के कारण स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है। इसके विपरीत कारण उपस्थित होने पर मनष्य योनि था पशु-पक्षी आदि योनि में जन्म लेना पड़ता है। युधिष्ठिर ने कहा--हे सर्प ! मुझे मन और बुद्धि का ठीक-ठीक लक्षण बताओ। सर्प बोला---राजन् ! बुद्धि को आत्मा के आश्रित समझना चाहिये। इसीलिये वह अपने अधिष्ठानभूत आत्मा की इच्छा कती रहती है; अन्यथा वह आधार के बिना टिक नहीं सकती। विषय और इन्द्रियों के संयोग से बुद्धि उत्पन्न होती है और मन तो पहले से ही उत्पन्न है। बुद्धि स्वयं वासनावाली नहीं है, वासनावाला तो मन ही माना गया है। तुम तो इस विषय के ज्ञाता हो। तुम्हारा इसमें क्या मत है ? युधिष्ठिर बोले---बुद्धिमानों में श्रेष्ठ ! तुम्हारी बुद्धि बड़ी उत्तम है। तुम जो जानना है जान चुके हो; फिर मुझसे क्यों पूछते हो ? तुम्हारी इस दुर्गति के विषय में मुझे बड़ा संदेह हो रहा है। तुमने बड़े-बड़े अद्भुत कर्म किये, स्वर्ग का निवास पाया और सर्वज्ञ तो तुम थे ही; भला तुम्हे कैसे मोह हुआ, जो विद्वानों का अपमान कर बैठे ? सर्प ने कहा---राजन् ! यह धन और सम्पत्ति बड़े-बड़े बुद्धिमान और शूरवीर मनुष्यों को भी मोह में डाल देते हैं। मेरा तो यह अनुभव है कि सुख और विलास का जीवन व्यतीत करनेवाले सभी मनुष्य मोहित हो जाते हैं। यही कारण है कि मैं भी ऐश्वर्य के मोह से मदोन्त्त हो गया था। इस मोह के कारण जब मेरा अधःपतन हो गया, तब चेत हुआ है; अब तुम्हें सचेत कर रहा हूँ। महाराज ! आज तुमने मेरा बहुत बड़ा कार्य किया, इस समय तुमसे वार्तालाप करने के कारण मेरा यह कष्टदायक शाप निवृत हो गया।  अब मैं अपने पतन का इतिहास तुम्हे बता रहा हूँ। पूर्वकाल में जब मैं स्वर्ग का राजा था, दिव्य विमान पर चढ़कर आकाश में विचरता रहता था। उस समय अहंकार के कारण मैं किसी को कुछ नहीं समझता था। ब्रह्मर्षि, देवता, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और नाग आदि जो भी इस त्रिलोकी में निवास करते थे, सभी मुझे कर दिया करते थे। राजन् ! उस समय मेरी दृष्टि में इतनी शक्ति थी कि जिसकी ओर आँख उठाकर देखता, उसी का तेज छीन लेता था। मेरा अन्याय यहाँ तक बढ़ गया कि एक हजार ब्रह्मर्षियों को मेरी पालकी ढ़ोनी पड़ती थी। इसी अत्याचार ने मुझे राज्यलक्ष्मी से भ्रष्ट कर दिया। मुनिवर अगस्त्य जब पालकी ढ़ो रहे थे, मैने उन्हें लात लगायी। तब वे क्रोध में भरकर बोले, 'अरे ओ सर्प ! तू नीचे गिर !' उनके इतना कहते ही मेरे सारे राजचिह्न लुप्त हो गये, मैं उस उत्तम विमान से नीचे गिरा। उस समय मुझे मालूम हुआ कि मैं सर्प होकर नीचे मुँह कये गिर रहा हूँ। तब मैने अगस्त्य मुनि से यह याचना की, 'भगवन् ! मैं प्रमादवश विवेकशून्य हो गया था, इसलिये यह घोर अपराध हुआ है, आप क्षमा करके ऐसी कृपा करें, जिससे इस शाप का अन्त हो जाय।' मुझे नीचे गिरते देख उनका हृदय दयाद्र हो गया और वे बोले---'राजन् ! धर्मराज युधिष्ठिर तुम्हें इस शाप से मु्क्त करेंगे। जब तुम्हारे पास अहंकार और घोर पाप का फल क्षीण हो जायगा, उस समय तुम्हें  फिर तुम्हारे पुण्यों का फल प्राप्त होगा।' तब मुझे उनकी तपस्या का महान् बल देखकर बड़ा ही आश्चर्य हुआ। महाराज ! लो, यह है तुम्हारा भाई महाबली भीमसेन। मैने इसकी हिंसा नहीं की। तुम्हारा कल्याण हो, अब मुझे विदा दो; मैं पुनः स्वर्गलोक को जाऊँगा। यह कहकर राजा नहुष ने अजगर का शरीर त्याग दिया और दिव्य देह धारण कर पुनः स्वर्ग में चले गये। धर्मात्मा युधिष्ठिर भी अपने भाई भीम और धौम्य मुनि को साथ ले आश्रम पर लौट आये।