Tuesday 6 October 2015

वनपर्व---भीमसेन के हाथ से यक्ष और राक्षसों का वध तथा कुबेर द्वारा शान्तिस्थापन

भीमसेन के हाथ से यक्ष और राक्षसों का वध तथा कुबेर द्वारा शान्तिस्थापन
एक दिन भीमसेन उस पर्वत पर आनंद से एकांत में बैठे थे। उस समय द्रौपदी ने उनसे कहा, 'महाबाहो ! यदि समस्त राक्षस आपके बाहुबल से पीड़ित होकर इस पर्वत को छोड़कर भाग जायँ तो कैसा रहे ? फिर तो आपके सुहृदों को इस पर्वत का विचित्र पुष्पावलिमण्डित मंगलमय शिखर सब प्रकार के भय और मोह से रहित दिखाई देगा। भीमसेन ! मेरे मन में बहुत दिनों से यह बात आ रही है।' द्रौपदी की बात सुनकर भीमसेन ने सुवर्ण की पीठवाला धनुष, तलवार और तरकस उठा लिये और वे हाथ में गदा लेकर बेखटके गन्धमादन पर आगे बढ़ने लगे। यह देखकर द्रौपदी का उल्लास उत्तरोत्तर बढ़ने लगा। पवनपुत्र भीमसेन पर ग्लानि, भय, कायरता और मत्सरता का प्रभाव तो किसी समय नहीं होता था। उस पर्वत की चोटी पर जाकर वे वहाँ से कुबेर के महल को देखने लगे। वह सुवर्ण और स्फटिक के भवनों से सुशोभित था। उसके चारों ओर सोने का परकोटा बना हुआ था। उसमें सब प्रकार के रत्न जगमगा रहे थे और तरह-तरह के उद्यान उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। इस प्रकार राक्षसराज कुबेर के रत्नजटित और पुष्पमालामण्डित प्रासाद को देखकर उन्होंने अपने शत्रुओं के रोंगटे खड़े कर देनेवाला शंख बजाया तथा अपने धनुष की प्रत्ंचा और तालियों का भीषण शब्द करके सबको मोहित कर दिया। उस शब्द से यक्ष, राक्षस और गन्धर्वों के रोंगटे खड़े हो गये और वे गदा, परिघ, तलवार, त्रिशूल, शक्ति और फरसा लेकर भीमसेन की ओर दौड़े। फिर तो उनके साथ भीमसेन का युद्ध होने लगा। भीसेन ने अपने प्रबल वेगवाले भाले से उनके चलाये हुए त्रिशूल, शक्ति और फरसे आदि सभी शस्त्रों को काट डाला। उनके हाथों से छूटे हुए आयुधों से कटे हुए यक्ष और राक्षसों के शरीर और सिर सब ओर दिखायी देने लगे। इस प्रकार अंग-भंग होने से यक्षलोग भीमसेन से बहुत डर गये, उनके हाथ से सारे अस्त्र-शस्त्र गिर गये और वे भयंकर चीत्कार करने लगे। अंत में प्रचंड धनुर्धर भीमसेन से डरकर वे अपने अस्त्र-शस्त्र फेंककर दक्षिण-दिशा की ओर भागे। उधर कुबेर का एक मित्र मणिमान् नाम का राक्षस रहता था। उसने यक्ष-राक्षसों को देखकर मुस्कराकर कहा, 'अरे ! तुम अनेकों को अकेले आदमी ने परास्त कर दिया ! अब तुम कुबेर के पास जाकर क्या कहोगे ? उन सबसे ऐसा कहकर वह राक्षस शक्ति, त्रिशूल और गदा लेकर भीमसेन पर टूट पड़ा। भीमसेन ने भी उसे अपनी ओर आते देखकर उसे अपने वत्सदन्त नामक तीन वाणों से उसकी पसलियों पर प्रहार किया। इससे मणिमान् अत्यंत क्रोध में भर गया और उसने अपनी भारी गदा उठाकर भीमसेनके ऊपर छोड़ी। परन्तु भीमसेन गदायुद्ध की चालों में खूब दक्ष थे, अतः उन्होंने उसके उस प्रहार को व्यर्थ कर दिया। इसी समय उस राक्षस ने सोने की मूठवाली एक फौलाद की शक्ति छोड़ी। यह भीषण शक्ति भीमसेन के दाहिने हाथ को घायल करके अग्नि की लपटें निकालती हुई पृथ्वी पर गिर गयीं। उस शक्ति के लगने से अतुलित पराक्रमी भीमसेन की आँखें क्रोध से घूमने लगीं और उन्होंने अपनी सुवर्ण के पत्र से मढ़ी हुई गदा उठा ली। वे आकाश में उछलकर उस गदा को घुमाते हुए उसकी ओर दौड़े और संग्रामभूमि में भयंकर गर्जना करते हुए उसे मणिमान् के ऊपर फेंका।  वह गदा वायु के समान बड़े वेग से उस राक्षस का संहार करके पृथ्वी पर गिर गयी। मणिमान् को मरकर पृथ्वी पर गिरते देख जो राक्षस मरने से बचे थे, वे भयंकर आर्तनाद करके पूर्व की ओर भाग गये। इस समय पर्वत की गुफाओं को अनेक प्रकार के शब्दों से गूँजते देखकर अजातशत्रु युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव, धौम्य, द्रौपदी, विद्वान और सब सुहृदगण भीमसेन को न देखकर उदास हो गये। फिर द्रौपदी को अर्ष्टिषेण मुनि को सौंपकर वे सब वीर अस्त्र-शस्त्र लेकर एक साथ पर्वत पर चढ़ने लगे। पहाड़ की चोटी पर पहुँचकर उन्होंने इधर-उधर दृष्टि डाली तो देखा कि एक ओर भीमसेन खड़े हैं और वहीं उनके मारे हुए अनेकों विशालकय राक्षस पृथ्वी पर पड़े हैं। भीमसेन को देखकर सब भाई उनसे गले मिले और फिर वहीं बैठ गये। महाराज युधिष्ठिर ने कुबेर के महल और मरे हुए राक्षसों की ओर देखकर भीमसेन से कहा, 'भैया भीम ! तुमने यह पाप साहस या मोहवश ही किया है; तुम मुनियों का सा जीवन व्यतीत कर रहे हो, इस प्रकार व्यर्थ हत्या करना तुम्हे शोभा नहीं देता। देखो, यदि तुम मेरी प्रसन्नता करना चाहते हो तो फिर कभी ऐसा न करना। खड्ग और धनुष सुशोभित थे और वे कुबेर को देख रहे थे। कुबेरजी ने धर्मराज से कहा, 'आप समस्त प्राणियों का हितकरने में तत्पर रहते हैं---यह बात सब जीव जानते हैं। इसलिये आप भाइयों के सहित बेखटके इस पर्वत पर रहिये। देखिये, भीमसेन के ऊपर आप क्रोध न करें; क्योंकि राक्षस इधर भीमसेन के आक्रमण से बचे हुए कुछ राक्षस बड़ी तेजी से दौड़कर कुबेर के पास आये और चीख-चीखकर उनसे कहने लगे, 'यक्षराज ! आज संग्रामभूमि में एक अकेले मनुष्य ने क्रोधवश नाम के राक्षसों को मार डाला है। हम जैसे-तैसे उसके हाथ से बचकर आपके पास आये हैं। आपका सखा मणिमान् भी मारा जा चुका है। यह सब काण्ड एक मनुष्य ने ही कर डाला है। अब जो करना चाहे कीजिये।' समाचार पाकर समस्त यक्ष और राक्षसों के स्वामी कुबेरजी बड़े ही कुपित हुए, उनकी आँखें लाल हो गयीं और वे बोले, 'यह सब कैसे हुआ ?' फिर यह दूसरा अपराध भी भीमसेन का ही सुनकर उन्हें बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने आज्ञा दी कि हमारा पर्वतशिखर के समान ऊँचा रथ सजा लाओ। रथ तैयार हो जाने पर महाराज कुबेर उसपर चढ़कर चले। जब वे गन्धमादन पहुँचे तो यक्ष राक्षसों से घिरे हुए कुबेर को देखकर पाण्डवों को रोमांच हो आया। महाराज पाण्डु के धनुष-वाणधारी महारथी पुत्रों को देखकर कुबेरजी भी बड़े प्रसन्न हुए। वे उनसे देवताओं काएक कार्य कराना चाहते थे, इसलिये उन्हें देखकर वे हृदय में बहुत ही संतुष्ट ही हुए। कुबेरजी के जो सेवक पीछे रह गये थे, वे पक्षियों के समान सीधे ही उस पर्वत पर पहुँच गये तथा यक्षराज को पाण्डवों पर प्रसन्न देखकर उनका मन-मुटाव भी दूर हो गया। धर्म के रहस्य को जाननेवाले युधिष्ठिर, नकुल और सहदेव ने कुबेर को प्रणाम किया और अपन को उनका अपराधी सा माना। अतः वे सब यक्षराज को घेरकर हाथ जोड़कर खड़े हो गये। इस समय भीमसेन के हाथ में पाश तो अपने काल से ही मरे हैं, आपका भाई तो उसमें निमित्त-मात्र है। राजन् ! एक बार कुशस्थली नाम के स्थान में देवताओं की मंत्रणा हुई थी। उसमें मुझे भी बुलाया गया था। तब मैं तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित अत्यंत भयंकर तीन सौ महापद्म यक्षों के साथ वहाँ गया था। मार्ग में मुझे मुनिवर अगस्त्यजी मिले। वे यमुनाजी के तट पर बड़ी कठोर तपस्या कर रहे थे। उस समय मेरा मित्र राक्षसराज मणिमान् मेरे साथ ही था। उसने मूर्खता, अज्ञान, गर्व और मोह के अधीन होकर ऊपर से उन महर्षि के ऊपर थूक दिया। तब मुनिवर ने कोप करके मुझसे कहा, 'कुबेर ! देखो, तुम्हारे इस सखा ने मुझे कुछ न समझकर मेरा तिरस्कार किया है; इसलिए यह अपनी सेना के सहित केवल एक ही मनुष्य के हाथ से मारा जायगा। तुम्हे भी अपने इन सेनानियों के कारण दुःखी होना पड़ेगा और फिर उस मनुष्य के दर्शन करने पर ही तुम्हारा दुःख दूर होगा।' इसप्रकार महर्षियों में श्रेष्ठ अगस्त्यजी ने मुझे यह शाप दिया था। उस शाप से आज आपके भाई ने हमें मुक्त किया है। राजन् ! लौकिक व्यवहार में धैर्य, कुशलता, देश-काल और पराक्रम--- इन पाँच साधनों की बड़ी आवश्यकता है। सतयुग में लोग धैर्यवान् अपने-अपने कर्मों में कुशल और पराक्रमी होते थे। जो धैर्यवान्, देशकाल का ज्ञान रखनेवाला और सब प्रकार की धर्मविधि में निपुण होता है, वह बहुत समय तक पृथ्वी का शासन करता है। जो क्रोध के आवेश में अपने पतन पर दृष्टि नहीं डालता और जिसके मन बुद्धि पाप में ही रच-बस रहे हैं, वह तो केवल पाप का ही अनुकरण करता है। तथा कर्मों का विभाग न जानने के कारण वह इस लोक और परलोक में नाश को प्राप्त होता है। यह भीमसेन भी धर्म को नहीं जानता, गर्वीला है; इसकी बुद्धि बालकों के समान है, सहन करना तो यह जानता ही नहीं और इसे किसी प्रकार का भय भी नहीं है। इसलिये आप फिर राजर्षि अर्ष्टिषेण के आश्रम में जाकर इसे समझाइये। यह कृष्णपक्ष आप उसी आश्रम में व्यतीत कीजिये। मेरी आज्ञा से अलकापुरी में रहनेवाले समस्त यक्ष, गन्धर्व किन्नर और पर्वतवासी आपकी देखभाल रखेंगे। भीमसेन साहस करके यहाँ आ गया है, सो आप समझाकर इसे ऐसा करने से रोक दीजिये। इससे छोटा आपका भाई अर्जुन तो व्यवहारविषय में निपुण है और सब प्रकार की धर्ममर्यादा को भी जानता है। इसी से लोक में जितनी भी स्वर्गीय विभूतियाँ हैं, वो सब उसे प्राप्त है। इसके सिवा उसमें दम, दान, बल, बुद्धि, लज्जा, धैर्य और तेज---ये सबगुण भी हैं ही। कुबेर के ये वचन सुनकर पाण्डव बड़े प्रसन्न हुए। भीमसेन ने भी शक्ति, गदा, खड्ग और धनुष को पीठ पर बाँधकर उन्हें प्रणाम किया। कुबेरजी ने भीमसेन से कहा, तुम शत्रुओं का मान भंग करनेवाले और सुहृदों की सुख की वृद्धि करनेवाले होओ।' फिर धर्मराज से बोले, 'अब अर्जुन अस्त्रविद्या में निपुण हो गया है, देवराज इन्द्र ने भी उसे घर जाने की आज्ञा दे दी है; इसलिये अब वह शीघ्र ही यहाँ आवेगा।' इस प्रकार उत्म कर्म करनेवाले धर्मराज युधिष्ठिर को उपदेश देकर वे अपने स्थान को चले गये। भीमसेन के हाथ से जो राक्षस  मारे गये थे, उनके शव कुबेरजी की आज्ञा से पहाड़ के नीचे लुढ़का दिये गये। इस प्रकार युद्ध में मरे जाने से उन्हें मतिमान् अगस्त्यजी का जो श्राप था, उसका भी अन्त हो गया। पाण्डवों ने वह रात बड़े आनन्द से कुबेरजी के महल में ही बितायी।

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