Saturday 30 March 2024

अश्वत्थामा का श्रीमहादेवजी पर प्रहार, उसका प्रभाव और फिर आत्मसमर्पण करके उनसे खड्ग प्राप्त करना

संजय कहते हैं _महाराज ! कृपाचार्य जी से ऐसा कहकर द्रोणपुत्र अकेला ही अपने घोड़ों को जोतकर शत्रुओं पर चढ़ाई करने की तैयारी करने लगा। तब उससे कृपाचार्य और कृतवर्मा ने पूछा, 'तुम रथ किसलिये तैयार कर रहे हो, तुम्हारा क्या करने का विचार है ? हम भी तो तुम्हारे साथ ही हैं और सुख_दु:ख में तुम्हारे साथ ही रहेंगे।'यह सुनकर अश्वत्थामा ने जो कुछ वह करना चाहता था उन्हें साफ_साफ सुना दिया। वह बोला, 'धृष्टधुम्न ने मेरे पिताजी को उस स्थिति में मारा था, जब उन्होंने अपने शस्त्र रख दिये थे। अतः आज उस पापी पांचाल पुत्र को मैं भी उसी तरह पाप कर्म करके कवचहीन अवस्था में मारूंगा। मेरा यही विचार है कि उसे शस्त्रों द्वारा प्राप्त होने वाले लोक नहीं मिलने चाहिये। आप दोनों भी जल्दी ही कवच धारण कर लें, खड्ग तथा धनुष लेकर तैयार हो जायं और मेरे साथ रहकर अवसर की प्रतीक्षा करें।' ऐसा कहकर अश्वत्थामा रथ पर सवार हुआ और शत्रुओं की ओर चल दिया। उसके पीछे-पीछे कृपाचार्य और कृतवर्मा भी चले। वह रात्रि में ही, जबकि सब लोग सोये हुए थे, पाण्डवों के शिविर में पहुंचा और उसके द्वार पर जाकर खड़ा हो गया। वहां उसने चन्द्रमा और सूर्य के समान तेजस्वी एक विशालकाय पुरुष को दरवाजे पर खड़ा देखा। उस महापुरुष को देखकर शरीर में रोमांच हो जाता था। वह व्याघ्रचर्म धारण किये था, ऊपर से मृगचर्म ओढ़े था तथा सर्पों का यज्ञोपवीत पहने हुए था। उसकी विशाल भुजाओं  में तरह_तरह के शस्त्र सुशोभित थे, बाजूबंदों के स्थान में तरह_तरह के सर्प बंधे हुए थे तथा मुख से अग्नि की ज्वालाएं निकल रही थीं। उसके मुख, नाक, कान और हजारों नेत्रों से भी बड़ी_बड़ी लपटें निकल रही थीं। उसके तेज की किरणों से शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले सैकड़ों _हजारों विष्णु प्रकट हो जाते थे। समस्त लोकों को भयभीत करनेवाले उस अद्भुत पुरुष को देखकर भी अश्वत्थामा घबराया नहीं, बल्कि उसपर अनेकों दिव्य अस्त्रों की वर्षा_सी करने लगा। वह देव अश्वत्थामा के छोड़े हुए समस्त शस्त्रों को निगल गया। यह देखकर उसने एक अग्नि के समान देदीप्यमान रथशक्ति छोड़ी। परन्तु वह भी उससे टकराकर टूट गयी। तब अश्वत्थामा ने उसपर एक चमचमाती हुई तलवार चलायी। वह भी उसके शरीर में लीन हो गयी। इसपर उसने कुपित होकर एक गदा छोड़ी, किन्तु वह उसे भी लील गया। इस प्रकार जब अश्वत्थामा के सब शस्त्र समाप्त हो गये तो उसने इधर_उधर दृष्टि डाली। इस समय उसने देखा कि सारा आकाश वइष्णउओं से भरा हुआ है। शस्त्रहीन अश्वत्थामा यह अत्यंत अद्भुत दृश्य देखकर बड़ा ही दु:खी हुआ और आचार्य कृकप के वचन याद करके कहने लगा, जो पुरुष अप्रिय किन्तु हित की बात कहने वाले अपने सुहृदों की सीख नहीं सुनता, वह मेरी ही तरह आपत्ति में पड़कर शोक करता है । जो मूर्ख शास्त्र जाननेवालों की बात का तिरस्कार करके युद्ध में प्रवृत होता है, वह धर्म मार्ग से भ्रष्ट होकर कुमार्ग में जाने से उल्टे मुंह की खाता है। मनुष्य को गौ, ब्राह्मण, राजा, स्त्री, मित्र, माता, गुरु, दुर्बल, मूर्ख, कन्धे, सोये हुए, डरे हुए, नींद से उठे हुए, मतवाले, उन्मत्त और असावधान पुरुषों पर हथियार नहीं चलाना चाहिये। गुरुजनों ने पहले ही से सब पुरुषों को ऐसी शिक्षा दे रखी है। किन्तु मैं उस शास्त्रीय सनातन मार्ग का उल्लंघन करके उल्टे रास्ते से चलने लगा था। इसी से इस घोर आपत्ति में पड़ गया हूं। जब मनुष्य किसी काम को आरम्भ करके भय के कारण उसे बीच में ही छोड़ देता है तो बुद्धिमान लोग इसे उसकी मूर्खता ही कहते हैं। इस समय इस काम को करते हुए मेरे आगे भी ऐसा ही भय उपस्थित हो गया है। यों तो द्रोणपुत्र किसी प्रकार युद्ध से पीछे हटने वाला नहीं है। परन्तु यह महआभूत तो मेरे आगे विधाता के दण्ड के समान आकर खड़ा हो गया है। मैं बहुत सोचने पर भी इसे कुछ समझ नहीं पाता हूं। निश्चय ही मेरी बुद्धि जो अधर्म से कलुषित हो गयी है, उसका दमन करने के लिये ही यह भयंकर परिणाम सामने आया है। नि:संदेह इस समय मुझे जो युद्ध से हटना पड़ रहा है वह दैव का ही विधान है। सचमुच दैव की अनुकूलता के बिना आरम्भ किया हुआ मनुष्य का कोई भी काम सफल नहीं हो सकता। अतः: अब मैं भगवान शंकर की शरण लेता हूं, जो जटाजूटधारी, देवताओं के भी वंदनीय, उमापति, सर्वपापापहारी और त्रिशूल धारण करनेवाले हैं, वे ही इस भयानक दैवी विघ्न को नष्ट करेंगे।' ऐसा सोचकर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा रथ से उतर पड़ा और देवाधिदेव श्रीमहादेवजी के शरणागत होकर इस प्रकार स्तुति करने लगा, 'आप उग्र हैं, अचल हैं, करुणामय है, रुद्र हैं, शर्व हैं, सकल विद्याओं के अधीश्वर हैं, परमेश्वर हैं, पर्वत पर शयन करनेवाले हैं, वरदायक हैं, देव हैं, संसार को उत्पन्न करनेवाले हैं, वरदायक हैं, देव हैं, संसार को उत्पन्न करनेवाले हैं, देव हैं, संसार को उत्पन्न करनेवाले हैं, जगदीश्वर हैं, नीलकंठ हैं, अजन्मा हैं, शुक्र हैं, दक्ष यज्ञ का विनाश करनेवाले हैं, सर्वसंहारक हैं, विश्वरूप हैं, भयानक नेत्रों वाले हैं, बहुरूप हैं, उमापति हैं, श्मशान में निवास करनेवाले हैं, गर्वीले हैं, महान् गणाध्यक्ष हैं, व्यापक हैं, खड्गवान् धारण करनेवाले हैं। आप रुद्र नाम से प्रसिद्ध हैं, आपके मस्तक पर जटा सुशोभित है, आप ब्रह्मचारी हैं और त्रिपुरासुर का वध करनेवाले हैं। मैं अत्यन्त शुद्ध हृदय से आत्मसमर्पण करके आपका यजन करता हूं। सभी ने आपकी स्तुति की है, सभी के आप स्तुत्य हैं और सभी आपकी स्तुति करते हैं। आप भक्तों के सभी संकल्पों को पूर्ण करनेवाले हैं, गजराज के चर्म से सुशोभित हैं, रक्तवर्ण हैं, नीलग्रीव हैं, असह्य हैं, शत्रुओं के लिये दुर्जय हैं, इन्द्र और ब्रह्मा की भी रचना करनेवाले हैं, साक्षात् परमब्रह्म हैं, व्रतधारी हैं, तपोनिष्ठ हैं, अनन्त है । तपस्वियों के आश्रय हैं, अनेक रूप हैं, गणपति हैं, त्रिनयन हैं, अपने पार्षदों के प्रिय हैं, धनेश्वर हैं, पृथ्वी के मुखस्वरूप हैं, पार्वती जी के प्राणेश्वर हैं, स्वामि कार्तिकेय के पिता है, पीत वर्ण हैं, वृषवाहना हैं, दिगम्बर हैं। आपका वेष बड़ा ही उग्र है; आप पार्वती जी को विभूषित करने में तत्पर हैं, ब्रह्मादि से श्रेष्ठ हैं, परात्पर हैं तथा आपसे श्रेष्ठ कोई नहीं हैं।आप उत्तम धनुष धारण करनेवाले हैं, संपूर्ण दिशाओं की अन्तिम सीमा हैं, सब देशों के रक्षक हैं, सउवर्णमय कवच धारण करनेवाले हैं, आपका स्वरूप दिव्य है तथा आप अपने मस्तक पर आभूषण के रूप में चन्द्रकला को धारण करनेवाले हैं, मैं अत्यन्त समाहित होकर आपकी शरण लेता हूं। यदि आज मैं इस दुस्तर आपत्ति के पार हो गया तो समस्त भूतों के संघआतरूप इस शरीर की बलि देकर आपका यजन करूंगा।' इस प्रकार अश्वत्थामा का दृढ़ निश्चय देखकर उसके सामने एक सुवर्णमय वेदी प्रकट हुई। उस वेदी में अग्नि प्रज्वलित हो गयी। उससे बहुत _से गुण प्रकट हुए। उनके मुख और नेत्र देदीप्यमान थे; वे अनेकों सिर पैर और हाथों वाले थे; उनकी भुजाओं में तरह_तरह के रत्न जटित आभूषण सुशोभित थे तथा वे ऊपर की ओर हाथ उठाये हुए थे। उनके शरीर द्वीप और पर्वतों के समान विशाल थे, वे सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह और नक्षत्रों के सहित संपूर्ण ध्यउलओक को धराशायी करने की शक्ति रखते थे तथा उनमें जरायुज, अंडज, स्वेदज और उद्भिज_चारों प्रकार के प्राणियों का संहार करने की शक्ति थी। उन्हें किसी प्रकार का भय नहीं था, वे इच्छानुसार आचरण करनेवाले थे तथा तीनों लोकों के ईश्वरों के भी ईश्वर थे। वे सर्वदा आनन्द मग्न रहते थे, वाणी के अधीश्वर थे मत्सरहीन थे तथा ऐश्वर्य पाकर भी उन्हें अभिमान नहीं था। उनके अद्भुत कर्मों से सर्वदा भगवान् शंकर भी चकित रहते थे तथा वे मन, वाणी और कर्मों द्वारा सर्वदा अपने पुत्रों के समान उनकी रक्षा करते थे। ये सब भूत बड़े ही भयंकर थे। इनको देखने से तीनों लोक भयभीत हो सकते थे। तथापि महाबली अश्वत्थामा इन्हें देखकर डरा नहीं। अब उसने स्वयं अपने आप को ही बलिरूप से समर्पित करना चाहा।
इस कर्म को सम्पन्न करने के लिये उसने धनुष को समिधा, बाणों को दर्भ और अपने शरीर को ही हवि बनाया। उसने सोमदेवता का मंत्र पढ़ कर अग्नि में अपनी आहुति देनी चाही। उस समय वह हाथ जोड़कर भगवान् रुद्र की इस प्रकार स्तुति करने लगा, 'विश्वात्मन् ! इस आपत्ति के समय आपके प्रति अत्यन्त भक्तिभाव से समाहित होकर यह भेंट समर्पण करता हूं। आप इसे स्वीकार कीजिये। समस्त भूत आपमें स्थित है, आप संपूर्ण भूतों में स्थित हैं तथा आपसी में मुख्य _मुख्य गुणों की एकता होती है। विभो ! आप समस्त भूतों के आश्रय हैं; यदि इन शत्रुओं का पराभव मेरे द्वारा नहीं हो सकता तो आप हविष्यरूप से अर्पण किये हुए इस शरीर को स्वीकार कीजिये।' द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ऐसा कह उस अग्नि से देदीप्यमान वेदी पर चढ़ गया और अपने प्राणों का मोह छोड़कर आगे के बीच में आसन लगाकर बैठ गया। उसे हवइरूप से ऊध्वर्बाहु होकर निष्चेष्ट बैठे देखकर भगवान् शंकर ने हंसकर कहा, 'श्रीकृष्ण ने सत्य, शौच, सरलता, त्याग, तपस्या, नियम, क्षमा, भक्ति, धैर्य, बुद्धि और वाणी के द्वारा मेरी यथोचित अराधना की है। इसलिये उनसे बढ़कर मुझे कोई भी प्रिय नहीं है। पांचालों की रक्षा करके भी मैंने उन्हीं का सम्मान किया है; किन्तु कारणवश अब ये निस्तेज हो गये हैं, अब इनका जीवन शेष नहीं है।' ऐसा कहकर भगवान् शंकर ने अश्वत्थामा को एक तेज तलवार दी और अपने_आप को उसी के शरीर में लीन कर दिया। इस प्रकार उनसे अवशिष्ट होकर अश्वत्थामा अत्यन्त तेजस्वी हो गया।

Tuesday 12 March 2024

कृपाचार्य और अश्वत्थामा का संवाद


तब कृपाचार्य ने कहा_महाबाहो ! तुमने जो बात कहीं, वह मैंने सुन ली; अब कुछ मेरी भी बात सुन लो। सभी मनुष्य दैव और पुरुषार्थ_दो प्रकार के कर्मों से बंधे हुए हैं। इन दो के सिवा और कुछ नहीं है। अकेले दैव या पुरुषार्थ से कार्यसिद्धि नहीं होती। सफलता के लिये दोनों का सहयोग आवश्यक है। इन दोनों में दैव ही फल का निश्चय करके स्वयं उसे देने के लिये प्रवृत होता है, तो भी बुद्धिमान लोग कुशलतापूर्वक पुरुषार्थ में लगे रहते हैं। मनुष्यों के संपूर्ण कार्य और प्रयोजन इन्हीं दोनों से सिद्ध हो जाते हैं।उनके किये हुए पुरुषार्थ की सिद्धि भी दैव के ही अधीन है और दैव की अनुकूलता से ही उन्हें फल की प्राप्ति होती है। कार्यकुशल मनुष्य दैव के अनुकूल न होने पर जो कार्य में हाथ लेते हैं, बहुत सावधानी से करने पर भी उसका कोई फल नहीं होता। इसके विपरीत जो लोग आलसी और अमनस्वी होते हैं, उन्हें तो किसी काम को आरम्भ करना ही अच्छा नहीं लगता। किन्तु बुद्धिमानों को यह बात नहीं रुचती; क्योंकि संसार में कोई भी कर्म प्रायः निष्फल नहीं देखा जाता, परंतु कर्म न करने पर तो दु:ख ही दिखायी देता है।जो प्रयत्न न करने पर भी दैव योग से ही सब प्रकार के फल प्राप्त कर लेते हैं अथवा जिन्हें चेष्टा करने पर भी कोई फल न मिलता_ऐसे लोग तो विरले ही होते हैं।तथापि तत्परता पूर्वक कार्य में लगे हुए मनुष्य आनंद से जीवन व्यतीत कर सकते हैं और आलसियों को कभी सुख नहीं मिलता। इस जीवनलोक में प्रायः तत्परता के साथ कर्म करनेवाले ही अपना हित साधन करते देखे जाते हैं।यदि उन्हें कार्य आरम्भ करने पर भी कोई फल नहीं मिलता तो उनकी किसी प्रकार से निंदा नहीं की जा सकती। परन्तु जो बिना कुछ किये ही फल पा लेता है, उसकी लोक में निंदा होती है और प्रायः लोग उससे द्वेष करने लगते हैं।इस प्रकार जो पुरुष दैव और पुरुषार्थ दोनों के सहयोग को न मानकर केवल दैव या पुरुषार्थ के भरोसे ही पड़ा रहता है, वह अपना अनर्थ ही करता है_यही बुद्धिमानों का निश्चय है।बार बार उद्योग करने पर भी जो फल नहीं मिलता, उसमें पुरुषार्थ की न्यूनता और दैव_ये दो कारण हैं। परन्तु पुरुषार्थ न करने पर तो कोई कर्म सिद्ध हो ही नहीं सकता। अतः: जो पुरुष वृद्धों की सेवा करता है, उनसे अपने कल्याण का साधन पूछता है और उनके बताये हुए हितकारी वचनों का पालन करता है, उसका यह आचरण ठीक माना जाता है। कार्य का आरम्भ कर देने पर वृद्धजनों द्वारा सम्मानित पुरुषों से बार_बार सलाह लेनी चाहिये।कार्य की सफलता में वे परम कारण माने जाते हैं तथा सिद्धि उन्हीं के आश्रित कहीं जाती है। जो पुरुष वृद्धों की बात सुनकर कार्य आरम्भ करता है, उसे अपने कार्य का फल बहुत जल्द प्राप्त हो जाता है। किन्तु जो पुरुष राग, क्रोध, भय या लोभ से किसी कार्य में प्रवृत होता है वह उसमें सफलता पाने में असमर्थ रहता है और तुरंत ही ऐश्वर्य से भ्रष्ट हो जाता है। दुर्योधन भी लोभी और ओछी बुद्धि का पुरुष था। उसने असमर्थ होने पर भी मूर्खता के कारण बिना विचार किये अपने हितैषियों का अनादर करके दुष्टजनों की सलाह से यह कार्य आरम्भ किया था।पाण्डव_लोग गुणों में उससे बढ़े_चढ़े थे, तथापि बहुत रोकने पर भी उसने उससे वैर ठाना।वह पहले से भी बड़ा दुष्ट स्वभाव का था इसलिये धीरज धारण न कर सका और न उसने अपने मित्रों की ही बात सुनी। इसी से अपने प्रयास में विफल होकर उसे पश्चाताप करना पड़ा।हमलोगों ने उस पापी का पक्ष लिया था इसलिये हमें भी यह महान् अनर्थ भोगना पड़ा। मैं बहुत सोचता हूं, तथापि इस कष्ट से संतप्त होने के कारण मेरी बुद्धि को तो आज भी कोई हित की बात नहीं सूझती। मनुष्य स्वयं जब हिताहित का विचार करने में असमर्थ हो जाय तो अपने सुहृदों से सलाह लेनी चाहिये।वहीं इसे बुद्धि और विनय की प्राप्ति हो सकती है और वहीं इसे अपने हित का साधन भी मिल सकता है। पूछने पर वे लोग जैसी सलाह दें, वही इसे करना चाहिए।
अतः हमलोगों को राजा धृतराष्ट्र, गान्धारी और महामणि विदुर जी से मिलकर सलाह लें और हमारे पूछने पर जैसा वे कहें, वही हम करें_मेरी बुद्धि तो यही निश्चय करती है। यह बात तो निश्चित ही है कि कार्य आरम्भ किये बिना सफलता कभी नहीं मिलती तथा जिनका काम उद्योग करने पर भी सिद्ध नहीं होता, उनका तो प्रारब्ध ही खोटा समझना चाहिए।अतः हमलोगों को राजा धृतराष्ट्र, गान्धारी और महामणि विदुर जी से मिलकर सलाह लें और हमारे पूछने पर जैसा वे कहें, वही हम करें_मेरी बुद्धि तो यही निश्चय करती है। यह बात तो निश्चित ही है कि कार्य आरम्भ किये बिना सफलता कभी नहीं मिलती तथा जिनका काम उद्योग करने पर भी सिद्ध नहीं होता, उनका तो प्रारब्ध ही खोटा समझना चाहिए।
फिर उसने मन को कड़ा करके कृत और कृतवर्मा दोनों से कहा_प्रत्येक मनुष्य में जो बुद्धि होती है उसी से वे संतुष्ट रहते हैं। सब लोग अपने को ही विशेष बुद्धिमान समझते हैं।सबको अपनी ही समझ अच्छी जान पड़ती है। वे बार_बार दूसरों की बुद्धि की निंदा और अपनी बुद्धि की बड़ाई करते हैं।यदि किसी कारणवश किन्हीं का विचार बहुत _से मनुष्यों से मिल जाता है तो वे एक_दूसरे से संतुष्ट रहते हैं और बार_बार एक_दूसरे का सम्मान करते हैं परन्तु समय के फेर से फिर उन्हीं मनुष्यों की बुद्धि विपरीत होकर एक_दूसरे से विरुद्ध हो जाती है।मनुष्यों के चित्त प्रायः भिन्न_भिन्न प्रकार के होते हैं। अतः उनके विभिन्न चित्तों के परिणामस्वरूप भिन्न-भिन्न प्रकार की बुद्धियां पैदा होती हैं। एक मनुष्य युवावस्था में एक प्रकार की बुद्धि से मुग्ध_सा हो जाता है, मध्यम अवस्था में दूसरे प्रकार की बुद्धि सवार होती है और वृद्धावस्था में उसे अन्य ही प्रकार की बुद्धि अच्छी लगने लगती है।मनुष्यों के चित्त प्रायः भिन्न_भिन्न प्रकार के होते हैं। अतः उनके विभिन्न चित्तों के परिणामस्वरूप भिन्न-भिन्न प्रकार की बुद्धियां पैदा होती हैं। एक मनुष्य युवावस्था में एक प्रकार की बुद्धि से मुग्ध_सा हो जाता है, मध्यम अवस्था में दूसरे प्रकार की बुद्धि सवार होती है और वृद्धावस्था में उसे अन्य ही प्रकार की बुद्धि अच्छी लगने लगती है।सब लोग अपनी ही बुद्धि एवं समझ का आश्रय लेकर तरह_तरह की चेष्टाएं करते हैं और उन्हीं में अपना हित मानते हैं।आज आपत्तियों में पड़कर मुझे जो बुद्धि पैदा हुई है, वह मैं आपको सुनाता हूं। इससे अवश्य ही मेरे शोक का नाश हो जायगा। प्रजापति प्रथाओं को उत्पन्न करने के लिये कर्म का विधान करता है और प्रत्येक वर्ण को एक_एक विशेष गुण देता है।वह ब्राह्मण को सर्वोत्तम वेद_विद्या, क्षत्रिय को उत्तम तेज, वैश्य को व्यापार_कौशल और शूद्र को समस्त वर्णों के अनुकूल रहने की योग्यता देता है। संयमहीन ब्राह्मण बुरा है, तेजोहीन क्षत्रिय निकम्मा है, अकुशल वैद्य निंदनीय है और अन्य वणों के प्रतिकूल आचरण करनेवाला शूद्र अधम है। मैं तो ब्राह्मणों के अत्यन्त पूजनीय उत्तम कुल में उत्पन्न हुआ हूं। मन्द भाग्य होने से ही इस क्षात्रधर्म का अनुष्ठान कर रहा हूं। यदि क्षारधर्म को जानकर भी मैं ब्राह्मणत्व की ओट लेकर इस महान् कर्म को न करूं तो मेरा आचरण सत्पुरुषों को अच्छा नहीं लगेगा।मैं रणक्षेत्र में दिव्य धनुष और दिव्य शस्र धारण करता हूं। ऐसी स्थिति में पिताजी को युद्ध में मारा गया देखकर अब मैं किस मुंह से सभा में बोलूंगा ? अतः आज मैं क्षात्रधर्म का आश्रय लेकर अपने पिता और राजा दुर्योधन के ही मार्ग का अनुसरण करूंगा।आज विजयश्री ने देदीप्यमान पांचाल-वीर बड़े हर्ष से कवच उतारकर बेखटके सो रहे होंगे। अतः उन सोते हुओं पर ही मैं धावा करूंगा और नींद में बेहोश पड़े उन शत्रुओं को शिविर के भीतर ही तहस_नहस कर डालूंगा।तभी मुझे चैन पड़ेगा। दुर्योधन, कर्ण और जयद्रथ ने जो दुर्गम मार्ग पकड़ा है उसी से आंच मैं पांचालों को भी भेजकर छोड़ूंगा।आज रात्रि में ही मैं पशु के समान बलात् पांचाल राज धृष्टद्युम्न का सिर कुचल डालूंगा। आज रात्रि में ही मैं अपनी तीखी तलवार से सोये हुए पांचाल और पांडव_वीरों के सिर उड़ा दूंगा और रात्रि में ही मैं सोती हुई पांचाल_सेना को नष्ट करके सुखी और सफल मनोरथ होऊंगा।कृपाचार्य बोले_भैया ! तुम अपनी टेक से चलनेवाले नहीं हो। आज पाण्डवों से बदला लेने के लिये तुम्हारा ऐसा विचार हुआ है, सो ठीक ही है। कल सवेरा होने पर हमलोग भी तुम्हारे साथ चलेंगे।आज तुम बहुत देर तक जगते रहे, इसलिये आज की रात सो लो। इससे तुम्हें कुछ विश्राम मिल जायगा, तुम्हारी नींद पूरी हो जायेगी और तुम्हारा चित्त भी ठिकाने पर आ जायगा। इसके बाद यदि तुम शत्रुओं का सामना करोगे तो अवश्य ही उनका वध कर सकोगे।हमलोग भी रातभर सोकर नींद और थकान से छूट जायं। रात बीतने पर हम शत्रुओं का सामना करेंगे, उन्हें हम तीनों मिलकर मारेंगे। जब संग्रामभूमि में मेरा और तुम्हारा साथ होगा और कृतवर्मा भी तुम्हारा साथ होगा और कृतवर्मा भी तुम्हारी रक्षा करेगा तो साक्षात् इन्द्र भी हमारे पराक्रम को सहन नहीं कर सकेगा।आज तुम बहुत देर तक जगते रहे, इसलिये आज की रात सो लो। इससे तुम्हें कुछ विश्राम मिल जायगा, तुम्हारी नींद पूरी हो जायेगी और तुम्हारा चित्त भी ठिकाने पर आ जायगा। इसके बाद यदि तुम शत्रुओं का सामना करोगे तो अवश्य ही उनका वध कर सकोगे।हमलोग भी रातभर सोकर नींद और थकान से छूट जायं। रात बीतने पर हम शत्रुओं का सामना करेंगे, उन्हें हम तीनों मिलकर मारेंगे। जब संग्रामभूमि में मेरा और तुम्हारा साथ होगा और कृतवर्मा भी तुम्हारा साथ होगा और कृतवर्मा भी तुम्हारी रक्षा करेगा तो साक्षात् इन्द्र भी हमारे पराक्रम को सहन नहीं कर सकेगा।भैया ! तुम अपनी टेक से चलनेवाले नहीं हो। आज पाण्डवों से बदला लेने के लिये तुम्हारा ऐसा विचार हुआ है, सो ठीक ही है। कल सवेरा होने पर हम दोनों भी तुम्हारे साथ चलेंगे। आज तुम बहुत देर तक जगते रहे हो, इसलिए आज की रात तो सो लो।मामा कृपाचार्यजी के इस प्रकार हित की बात कहने पर अश्वत्थामा ने क्रोध से आंखें लाल करके कहा, 'जो पुरुष दु:खी है, क्रोध से भरा हुआ है, किसी अर्थ के चिंतन में लगा हुआ है अथवा किसी कार्यसिद्धि की उधेड़बुन में व्यस्त हैं, उसे नींद कैसे आ सकती है।आप विचार कीजिये, आज ये चारों बातें मुझे घेरे हुए हैं। मेरी नींद को तो क्रोध ने ही हराम कर दिया है। इन पापियों ने जिस प्रकार मेरे पिताजी का वध किया है, वह बात रात_दिन मेरे हृदय को जलाती रहती है।उसके कारण मुझे तनिक भी चैन नहीं है। आपने तो यह सब प्रत्यक्ष ही देखा था। उससे हर समय मेरे मर्म स्थान में पीड़ा होती रहती है। हाय ! मेरे जैसा व्यक्ति इस लोक में एक मुहूर्त भी किस प्रकार जी रहा है ?मैंने पांचालों के मुख से 'द्रोण मारे गये' यह शब्द सुना था। इसलिये आज मैं धृष्टद्युम्न को मारे बिना जीवित नहीं रह सकता। राजा दुर्योधन की जंघाएं टूट गयीं। उनकी ये दु:खभरी बातें सुनकर ऐसा कौन कठोरचित्त है, जिसकी आंखों से आंसू नहीं निकलेंगे।मेरे जीवित रहते मेरी मित्र मण्डली की ऐसी दुर्दशा हुई, इससे मेरा शोक बहुत ही बढ़ गया है। आजकल मेरा मन एकत्र होकर इसी उधेड़बुन में लगा रहता है। ऐसी स्थिति में मुझे नींद कैसे आ सकती है? और सुख भी कैसे मिल सकता है ?
जिस समय दूतों ने मुझे मित्रों की पराजय और पाण्डवों की विजय का समाचार सुनाया था उसी समय मेरे हृदय में आग_सी लग गयी थी। इसलिये मैं तो आज ही सोये हुए शत्रुओं का संहार करके विश्राम लूंगा और तभी निश्चिंत होकर सोऊंगा।'कृपाचार्य ने कहा_अश्त्थामा ! मेरा विचार है कि जिस मनुष्य की बुद्धि ठीक नहीं है, वह धर्म और अर्थ को पूरी तरह से नहीं जान सकता। इसी प्रकार मेधावी होने पर भी जिसने विनय नहीं सीखी, वह भी धर्म और अर्थ का निर्णय कुछ समझ नहीं सकता। मूर्ख योद्धा बहुत समय तक पण्डितों की सेवा में रहने पर भी धर्म का रहस्य नहीं जान सकता, जिस प्रकार करती दाल का स्वाद नहीं चख सकती; किन्तु जैसे जीभ दाल का स्वाद तुरंत जान लेती है, उसी तरह बुद्धिमान पुरुष एक मुहूर्त भी पण्डितों के पास रहकर तत्काल धर्म को पहचान लेता हैं।जो पुरुष धर्मश्रवण की इच्छा वाला, बुद्धिमान संयंत्रइय होता है वह सब शास्त्रों को समझ लेता है।परंतु जो दुरात्मा और पापी मनुष्य बतलाये हुए अच्छे काम को छोड़कर दु:खरूप फल देने वाले कर्मों को किया करता है उसे किसी प्रकार उस कर्म से नहीं रोका जा सकता।जो सनाथ होता है उसको सउहऋदगण ऐसे कर्म करने से रोका करते हैं। पर उसके प्रारब्ध में यदि सुख मिलना होता है तो वह उस कर्म से रुक जाता है नहीं तो नहीं। जिस प्रकार विक्षिप्तचित्त पुरुष को भला_बुरा कहकर काबू में किया जाता है, उसी प्रकार सुहृदगण भी समझा_बुझाकर और डांट_डपटकर उसे वश में कर सकते हैं, नहीं तो वह वश में नहीं आ सकता और उसे दु:ख ही उठाना पड़ता है।तात ! तुम भी मन को काबू में करके उसे कल्याण साधन में लगाओ और मेरी बात मानो, जिससे तुम्हें पश्चाताप न करना पड़े। जो सोये हुए हों, जिन्होंने शस्त्र रख दिये हों, रथ और घोड़े खोल दिये हों, जो 'मैं आपका ही हूं' ऐसा कह रहे हों, जो शरणागत हों, जिनके बाल खुले हुए हों और जिनके वाहन नष्ट हो गये हों, लोक में उन लोगों का वध करना धर्मत: अच्छा नहीं समझा जाता।इस समय रात्रि में सब पांचाल वीर निश्चितता पूर्वक कवच उतारकर निद्रा में अचेत पड़े होंगे। जो पुरुष उनसे इस स्थिति में द्रोह करेगा, वह अवश्य ही बिना नौका के अगाध नरक में डूबे जायगा। लोक में तुम समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ कहे जाते हो। अभी तक संसार में तुम्हारा कोई छोटे_से_छोटा दोष भी देखने में नहीं आया। तुम सूर्य के समान तेजस्वी हो। अतः कल जब सूर्य उदित हो तो सब प्राणियों के सामने अपने शत्रुओं को संग्राम में परास्त करना।अश्वत्थामा बोला_ मामाजी ! आप जैसा कहते हैं, नि:संदेह वह ठीक ही है। परंतु इस धर्म मर्यादा के तो पाण्डवों ने पहले ही सैकड़ों टुकड़े कर डाले हैं। धृष्टद्युम्न ने प्रत्यक्ष ही आपके और समस्त राजाओं के सामने मेरे शस्त्रहीन पिताजी का वध किया था।रथियों में श्रेष्ठ कर्ण को जब उनका पहिया फंस गया था और वे बड़े संकट में पड़ गये थे, उसी समय अर्जुन ने मार डाला था। भीष्म पितामह को भी शइखण्डई की ओट लेकर अर्जुन ने उसी समय मारा था, जब उन्होंने शस्त्र डाल दिये थे और वे सर्वथा निरायुध हो गये थे।वीरवर भूरिश्रवा तो रणक्षेत्र में अनशन व्रत लेकर बैठ गये थे।; परन्तु सात्यकि ने सब राजाओं के चिल्लाते रहने पर भी इसी स्थिति में उन्हें मार डाला। महाराज दुर्योधन भी भीमसेन के साथ गदा युद्ध में भिड़कर सब राजाओं के सामने अधर्म पूर्वक ही गिराये गये हैं।इसलिये भले ही मुझे कीट_पतंगों की योनि में शंजाना पड़े, मैं भी अपने पिता का वध करनेवाले इन पांचालों को रात में सोते हुए ही मार डालूंगा। मैंने जो काम करने का विचार किया है, उसके लिये मुझे बड़ी उतावली हो रही है। इस जल्दबाजी में मुझे नींद कैसे आ सकती है और चैन भी कैसे पर सकता है? संसार में न तो कोई ऐसा पुरुष जन्मा है और न जन्मेगा ही, जो पांचालों के वध के लिये किये हुए मेरे इस विचार को बदल सके।