Sunday 11 July 2021

राजा शल्य का कर्ण को एक हंस और कौए का उपाख्यान सुनाना

संजय ने कहा_राजन् ! कर्ण के ये वचन सुनकर राजा शल्य ने उसे एक दृष्टांत सुनाते हुए कहा_कुलकलंक कर्ण ! मैं तुम्हें एक दृष्टांत सुनाता हूं।
कहते हैं, समुद्र के तट पर किसी धर्म प्रधान राजा के राज्य में एक धन-धान्य संपन्न वैश्य रहता था। वह यज्ञ_यागादि करने वाला, दानी, क्षमाशील, अपने कर्मों में स्थित, पवित्रात्मा और समस्त जीवों पर दया करनेवाला था। उसके कई अल्पवयस्क पुत्र थे। वे एक कौए को अपना जूठा भात, दही, दूध और खीर आदि दे दिया करते थे। उस उच्छिष्ट को खा_खाकर वह खूब हृष्ट_पुष्ट हो गया और घमंड में भरकर अपने साथियों और अपने से श्रेष्ठ पक्षियों का अपमान करने लगा।
एक बार उस समुद्रतट पर गरुड़ के समान लंबी_लंबी उड़ानें भरनेवाले मानसरोवर वासी हंस आये। तब उस घमंडी कौए ने जो सबसे श्रेष्ठ जान पड़ता था उस हंस से कहा, ‘आओ, आज हमारी_तुम्हारी उड़ान हो जाय।‘ यह सुनकर वहां आते हुए सभी हंस हंस पड़े और उस बातूनी कौए से कहने लगे, ‘हम मानसरोवर में रहने वाले हंस हैं और इस सारी पृथ्वी पर उड़ते फिरा करते हैं। हमारी लम्बी उड़ान के कारण सभी पक्षी हमारा सम्मान करते हैं। भैया ! तुम तो एक कौआ ही हो न ? फिर किसी बलिष्ठ हंस को उड़ान के लिये क्यों चुनौती देते हो ? बताओ तो सही, तुम हमारे साथ कैसे उड़ सकोगे ?’ हंस की यह बात सुनकर कौए ने उसे बार_बार दुत्कारा और स्वयं क्षुद्र जाति का होने  के कारण अपनी  बड़ाई करते हुए कहने लगा, मैं एक सौ एक प्रकार की उड़ानें उड़ सकता हूं। उनमें से प्रत्येक उड़ान सौ_सौ योजन की होती है और वे सभी बड़ी अद्भुत और भांति_भांति की होती है। उनमें से कुछ उड़ानों के नाम इस प्रकार हैं_उड्डीन (  उड़ना ); अवडीन ( नीचा उड़ना ), प्रवीन ( चारों ओर उड़ना ),  ( साधारण उड़ना ), निडीन ( धीरे_धीरे उड़ना ), संडीन ( ललित गति से उड़ना ), तिर्यग्डीन ( तिरछा उड़ना ), विडीन ( दूसरों की चाल की नकल करते हुए उड़ना ),  परीडिन ( सब ओर उड़ना ),  पराडीन ( पीछे की ओर उड़ना ),
सुडीन ( स्वर्ग की ओर उड़ना ), अभिडीन ( सामने की ओर उड़ना ), महाडीन ( बहुत वेग से उड़ना ), निर्डीन (परों को हिलाते बिना ही उड़ना ), अतिडीन ( प्रचंडता से उड़ना ), संगीन डीन डीन ( सुन्दर गति से आरंभ करके फिर चक्कर काटकर नीचे की ओर उड़ना ), संडीनोड्डीनडीन ( सुन्दर गति से आरंभ करके फिर चक्कर काटकर नीचे की ओर उड़ना ), डीनविडीन ( एक प्रकार की उड़ान में दूसरी उड़ान दिखाना ), संपात ( क्षणभर सुन्दरता से उड़कर फिर पंख फड़फड़ाना ), समुदीष ( कभी ऊपर की ओर और कभी नीचे की ओर उड़ना ), व्यतिरिक्तक ( किसी लक्ष्य का संकल्प करके उड़ाना ), गतागत ( किसी लक्ष्य तक उड़कर फिर लौट आना )  और प्रतिगत ( पलटा खाना ) इत्यादि। मैं तुम्हारे सामने ये सब गतियां दिखाउंगा; तब तुम्हें मेरी शक्ति का पता लगेगा। इनमें से किसी भी गति से मैं आकाश में उड़ सकता हूं। तुम जैसा उचित समझो कहो  और बताओ कि मैं किस गति से उड़ू ?’ कौए के इस प्रकार कहने पर एक हंस ने हंसकर कहा, ‘काक ! तुम अवश्य एक सौ एक प्रकार की उड़ानें जानते होगे; और सब प्रकार के पक्षी तो एक प्रकार की उड़ान ही जानते हैं। मैं भी एक प्रकार की गति से ही उड़ूंगा। अन्य किसी गति का मुझे ज्ञान नहीं है। तुम्हें जो उड़ान पसंद हो उसी से उड़ो।‘ यह सुनकर वहां जो दूसरे कौए थे वे हंस पड़े और कहने लगे, ‘भला यह हंस एक ही उड़ान से सौ प्रकार की उड़ानों को कैसे जीत सकेगा ?’
अब वह कौआ और हंस होड़ लगाकर उड़े। कौआ सौ प्रकार की उड़ानों से दर्शकों को चकित करने लगा और हंस अपनी एक ही प्रकार की मृदुल गति से उड़ रहा था। कौए की अपेक्षा उसकी गति बहुत मंद थी। यह देखकर कौए हंसों का तिरस्कार करते हुए इस प्रकार कहने लगे, ‘यह हंस उड़ा तो सही, किन्तु कौए के सामने इसकी गति तो इतनी मंद है। यह सुनकर हंस ने उत्तरोत्तर वेग बढ़ाते हुए पश्चिम की ओर समुद्र के ऊपर उड़ान लगायी। इस यात्रा में कौआ उड़ ते_उड़ते थक गया। उसे विश्राम करने के लिये कोई टापू या वृक्ष दिखायी नहीं देता था। इससे उसे बड़ा भय हुआ और सोचने लगा कि ‘मैं थककर कहीं इस समुद्र में ही तो न गिर पड़ूंगा ?’
अन्त में वह अत्यंत श्रमित होकर हंस के पास आया। उसकी ऐसी गिरी अवस्था देखकर हंस ने सत्पुरुषों के व्रत का स्मरण करते हुए उसे बचा लेने के विचार से कहा, ‘क्योंजी ! तुमने अपनी अनेक प्रकार की उड़ानों का बखान किया, परंतु उसका वर्णन करते समय अपनी इस गुह्य गति का उल्लेख नहीं किया। भला इस समय तुम किस उड़ान से उड़ रहे हो, जो बार_बार तुम्हारी चोंच और डैने जल से लग जाते हैं।‘ कर्ण ! तब उस कौए ने हंस से कहा, ‘भाई हंस ! हम तो कौए हैं, व्यर्थ कांव_कांव किया करते हैं। मैं अपने प्राण तुम्हें सौंपता हूं, तुम मुझे किसी प्रकार इस जल के तीर तक ले चलो।‘ ऐसा कहकर वह अपनी चोंच और डैनों से जल को स्पर्श करते हुए समुद्र में गिर गया। यह देखकर हंस ने कहा, ‘काक ! तुम तो शेखी बघारते हुए कहा रहे थे कि मैं एक सौ एक प्रकार की उड़ानें जानता हूं। फिर इस समय इस प्रकार थककर क्यों गिर रहे हो ?’  इसपर कौए ने दु:ख से पीड़ित होकर कहा, ‘हंस ! मैं जूठन खा_खाकर ऐसा घमंडी हो गया था कि अपने को साक्षात् गरुड़ के समान समझने लगा था। इसी से मैंने अनेकों कौओं और दूसरे पक्षियों का भी बहुत अपमान किया था। किन्तु अब मैं तुम्हारी शरण हूं, तुम मुझे किसी टापू के तट पर पहुंचा दो। भैया ! यदि मैं जीता_जागता फिर अपने देश पहुंच गया तो किसी का निरादर नहीं करूंगा। अब किसी प्रकार तुम मुझे इस आपत्ति से उबार लो।’ इस प्रकार दीन वचन कहकर वह वह अचेत_सा होकर विलाप करने लगा। उसे कांव_कांव करते और समुद्र में डूबते देखकर हंस को दया आ गयी और उसने उसे पंजों से पकड़कर धीरे_से अपनी पीठ पर चढ़ा लिया। फिर वह उसी स्थान पर आ गया, जहां से कि शर्त लगाकर वे पहले उड़े थे। वहां पहुंच कर उसने कौए को नीचे उतारकर बहुत ढ़ाढ़स बंधाया और इच्छानुसार किसी दूसरे देश को चला गया। कर्ण ! इस प्रकार जूठन से पुष्ट हुआ वह कौआ अपने बल और वीर्य का घमण्ड भूलकर शान्त हुआ। जैसे पूर्वकाल में वह कौआ वैश्यों का जूठन खाता था, उसी प्रकार तुम्हें भी धृतराष्ट्र के पुत्रों ने अपनी जूठन खिला_खिलाकर पाला है, इसी से तुम अपने समकक्ष और अपनी अपेक्षा श्रेष्ठ पुरुषों का भी अपमान करते हो। विराट नगर में तो द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, भीष्म तथा और सब कौरव भी तुम्हारी रक्षा कर रहे थे; उस समय तुमने अकेले अर्जुन का काम तमाम क्यों नहीं कर डाला ? उस समय तुम्हारा पराक्रम कहां चला गया था ?
जब संग्राम भूमि ने अर्जुन ने तुम्हारे भाई का वध किया था उस समय समस्त कौरव योद्धाओं के सामने सबसे पहले तो तुम्ही भागे थे। इसी प्रकार द्वैतवन में गन्धर्वों के आक्रमण करने पर सारे कौरवों को छोड़कर पहले तुम्ही ने पीठ दिखाई थी। उस समय भी अर्जुन ने चित्रसेनादि गंधर्वों को युद्ध में परास्त करके दुर्योधन और उसकी रानियों को छुड़ाया था। परशुरामजी ने राजाओं की सभा में श्रीकृष्ण और अर्जुन का जो पुरातन प्रभाव कहा था वह तो तुमने सुना ही था। इसके सिवा भीष्म और द्रोण भी राजाओं के आगे इन दोनों की अवध्यता का वर्णन करते रहते थे। उनकी बातें तुम बार बार सुनते ही रहे हो। मैं तुम्हें ऐसी कौन कौन सी बातें बताऊं जिन्हें देखते हुए अर्जुन तुम्हारी अपेक्षा कहीं बढ़_चढ़कर है। अब तुम शीघ्र ही वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण और कुन्ती कुमार अर्जुन  को अपने श्रेष्ठ रथ में बैठकर आते देखो।
अतः जिस प्रकार कौए ने बुद्धिमानी से हंस की शरण ले ली थी उसी प्रकार तुम भी श्री कृष्ण और अर्जुन का आश्रय ले लो। जिस समय तुम एक ही रथ पर चढ़े हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन को युद्ध में पराक्रम दिखाते देखोगे, उस समय ऐसी बातें नहीं कह सकोगे।, जैसे जुगनू सूर्य और चन्द्रमा का तिरस्कार करें उसी प्रकार तुम मूर्खता से उनका अपमान मत करो। महात्मा श्रीकृष्ण और पुरुषों में श्रेष्ठ हैं, तुम उनका तिरस्कार न करो और इस प्रकार बढ़_चढ़कर बातें बनाना छोड़ दो।