Wednesday 29 June 2016

उद्योगपर्व---नहुष की इन्द्रपदप्राप्ति, उसका इन्द्राणी पर आसक्त होना और इन्द्राणीका अवधि माँगकर अश्वमेध यज्ञद्वारा इन्द्र को शुद्ध करना

नहुष की इन्द्रपदप्राप्ति, उसका इन्द्राणी पर आसक्त होना और इन्द्राणीका अवधि माँगकर अश्वमेध यज्ञद्वारा इन्द्र को शुद्ध करना
युधिष्ठिर ! जब सब देवता और ऋषियों ने कहा कि 'इस समय राजा नहुष बड़ा प्रतापी है, उसी को देवताओं के राजपद पर अभिषिक्त करो। वह बड़ा ही यशस्वी, तेजस्वी और धार्मिक है। ' यह सलाह करके उन सबने नहुष के पास जाकर कहा कि 'आप हमारे राजा हो जाइये।' तब नहुष ने कहा, 'मैं बहुत दुर्बल हूँ। आपलोगों की रक्षा करने योग्य मुझमें शक्ति नहीं है।' ऋषि और देवताओं ने कहा, 'राजन् ! देवता, दानव, यक्ष, ऋषि, राक्षस, पितृगण, गन्धर्व और भूत---ये सब आपकी दृष्टि के सामने खड़े रहेंगे। आप इन्हें देखकर ही इनका तेज लेकर बलवान् हो जायेंगे। आप धर्म को आगे रखते हुए संपूर्ण लोकों के स्वामी बन जाइये तथा स्वर्गलोक में रहकर ब्रह्मर्षि और देवताओं की रक्षा कीजिये।' ऐसा कहकर उन्होंने स्वर्गलोक में नहुष का राज्याभिषेक कर दिया। इस प्रकार वह संपूर्ण लोकों का स्वामी हो गया। किंतु इस दुर्लभ वर और स्वर्ग के राज्य को पाकर पहले निरंतर धर्मपरायण रहने पर भी वह भोगी हो गया। वह समस्त देवोद्यानों में, नन्दनवन में तथा कैलाश और हिमालय आदि पर्वतों के शिखरों पर तरह-तरह की क्रीड़ाएँ करने लगा। इससे उसका मन दूषित हो गया।एक दिन वह क्रीड़ा कर रहा था, उसी समय उसकी दृष्टि देवराज की भार्या साध्वी इन्द्राणी पर पड़ी। उसे देखकर वह दुष्ट अपने सभासदों से कहने लगा, 'मैं देवताओं का राजा और संपूर्ण लोकों का स्वामी हूँ। फिर इन्द्र की महिषी देवी इन्द्राणी मेरी सेवा के लिये क्यों नहीं आतीं ? आज तुरंत ही शची को मेरे महल में आना चाहिये। नहुष की बात सुनकर देवी इन्द्राणी के चित्त में चोट लगी और उसने बृहस्पतिजी से कहा, 'ब्रह्मन् ! मैं आपकी शरण हूँ, आप नहुष से मेरी रक्षा करें। आपने मुझे कई बार अखण्ड सौभाग्यवती, एक की पत्नी और पतिव्रता का वचन दिया है; अतः आप अपनी वह वाणी सत्य करें। तब बृहस्पतिजी ने भय से व्याकुल इन्द्राणी से कहा, 'देवी ! मैने जो-जो कहा है वह अवश्य सत्य होगा। तुम नहुष से मत डरो। मैं सत्य कहता हूँ, तुम्हे शीघ्र ही इन्द्र से मिला दूँगा। इधर जब नहुष को मालूम हुआ कि इन्द्राणी बृहस्पतिजी की शरण में गयी है तो उसे बड़ा क्रोध हुआ। उसे क्रोध में भरा देखकर देवता और ऋषियों ने कहा, 'देवराज ! क्रोध को त्यागिये, आप जैसे सत्पुरुष क्रोध नहीं किया करते। इन्द्राणी परस्त्री है अतः आप उसे क्षमा करें। आप अपने मन को परस्त्रीगमन-जैसे पाप से दूर रखें; आखिर आप देवराज हैं, अतः अपनी प्रजा का धर्मपूर्वक पालन करें। भगवान् आपका मंगल करे। ऋषियों ने नहुष को बहुत समझाया, किन्तु कामसक्त होने के कारण उसने उनकी एक न सुनी। तब वे बृहस्पतिजी के पास गये और उनसे बोले, 'देवर्षिश्रेष्ठ !  हमने सुना है कि इन्द्राणी आपकी शरण में आयी है और आप ही के भवन में है तथा आपने उसे अभयदान दिया है। परन्तु हम देवता और ऋषिलोग आपसे प्रार्थना करते हैं कि आप उसे नहुष को दे दीजिये।' देवता और ऋषियों के इस प्रकार कहने पर देवी इन्द्राणी के नेत्रों में आँसू भर आये और वह दीनतापूर्वक रो-रोकर इस प्रकार कहने लगी, 'ब्रह्मण ! मैं नहुष को पतिरूप में स्वीकार करना नहीं चाहती; मैं आपकी शरण में हूँ, आप इस महान् भय से मेरी रक्षा करें।' बृहस्पतिजी ने कहा, 'इन्द्राणी ! मेरा यह निश्चय है कि मैं शरणागत का त्याग नहीं कर सकता। अनन्दिते ! तू धर्म को जाननेवाली और सत्यशीला है, इसलिये मैं तुझे नहीं त्यागूँगा।' फिर देवताओं से कहा, "मैं धर्मविधि को जानता हूँ, मैने धर्मशास्त्र का श्रवण किया है और सत्य में मेरी निष्ठा है, इसलिये मैं कोई न करने योग्य काम नहीं कर सकता। आपलोग जाइये, मैं ऐसा नहीं कर सकूँगा। इस विषय में ब्रहमाजी ने पूर्वकाल में कुछ वचन कहे हैं, उन्हें सुनिये---"जो भयभीत होकर शरण में आये हुए व्यक्ति को शत्रु के हाथ में दे देता है, उसका बोया हुआ बीज समय पर नहीं उगता, उसकी रक्षा की आवश्यकता होने पर भी कोई रक्षक नहीं मिलता। ऐसा दुर्बलचित्त मनुष्य जो अन्न प्राप्त करता है , वह व्यर्थ हो जाता है। उसकी चेतनाशक्ति नष्ट हो जाती है, वह स्वर्ग से गिर जाता है और देवतालोग उसके समर्पित हव्य को ग्रहण नहीं करते।' इस प्रकार ब्रह्माजी के कथनानुसार शरणागत के त्याग से होनेवाले अधर्म को जानते हुए मैं इन्द्राणी को नहुष के हाथ में नहीं दे सकता। आपलोग कोई ऐसा उपाय करें, जिससे इसका और मेरा दोनो का ही हित हो।" तब देवताओं ने इन्द्राणी से कहा---'देवी ! यह स्थावर-जंगम सारा जगत् एक तुम्हारे ही आधार से टिका हुआ है। तुम पतिव्रता एवं सत्यनिष्ठा हो। एक बार नहुष के पास चलो। तुम्हारी कामना करने से वह पापी शीघ्र ही नष्ट हो जायगा और देवराज शक्र भी अपना ऐश्वर्य प्राप्त करेंगे। अपनी कार्यसिद्धि के लिये ऐसा निश्चय करके इन्द्राणी अत्यन्त संकोचपूर्वक नहुष के पास गयी। उसे देखकर देवराज नहुष ने कहा, 'शुचिस्मिते ! मैं तीनों लोकों का स्वामी हूँ। इसलिये सुन्दरी ! तुम मुझे पतिरूप में वर लो।' नहुष के ऐसा कहने पर पतिव्रता इन्द्राणी भय से व्याकुल होकर काँपने लगी। उसने हाथ जोड़कर ब्रह्माजी को नमस्कार किया और  देवराज नहुष से कहा, 'सुरेश्वर ! मैं आपसे कुछ अवधि माँगती हूँ। अभी यह मालूम नहीं है कि देवराज शक्र कहाँ गये हैं और वे फिर लौटकर आवेंगे कि नहीं। इसकी ठीक-ठीक खोज करने पर यदि उनका पता न लगा तो मैं आपकी सेवा करने लगूँगी।' नहुष ने कहा, 'सुन्दरी ! तुम जैसा कहती हो वैसा ही सही। अच्छा शक्र का पता लगा लो। किन्तु देखो, अपने इन सत्य वचनों को याद रखना।' इसके पश्चात् नहुष से विदा होकर इन्द्राणी बृहस्पतिजी के घर आयी। इन्द्राणी की  बात सुनकर अग्नि आदि देवता इकट्ठे होकर इन्द्र के विषय में विचार करने लगे। फिर वे देवाधिदेव भगवान् विष्णु से मिले और उनसे व्याकुल होकर कहा, 'देवेश्वर ! आप जगत् के स्वामी तथा हमारे आश्रय और पूर्वज हैं ! आप समस्त प्राणियों के रक्षा के लिये ही विष्णुरूप में स्थित हुए हैं। भगवन् ! आपके तेज से वृतासुर का विनाश हो जाने पर इन्द्र को ब्रह्महत्या ने घेर लिया है। आप उससे छूटने का उपाय बताइये।' देवताओं की यह बात सुनकर विष्णु भगवान् ने कहा, 'इन्द्र अश्वमेध यज्ञ द्वारा मेरा ही पूजन करे, मैं उसे ब्रह्महत्या से मुक्त कर दूँगा। इससे वह सब प्रकार के भय से छूटकर फिर देवताओं का राजा हो जायगा और दुष्टबुद्धि नहुष अपने कुकर्म से नष्ट हो जायगा।' भगवान् विष्णु की वह सत्य, शुभ और अमृतमयी वाणी सुनकर देवतालोग ऋषि और उपाध्यायों के सहित उस स्थान पर गये, जहाँ भय से व्याकुल इन्द्र छिपे हुए थे। वहाँ इन्द्र की शुद्धि के लिये अश्वमेध महायज्ञ आरम्भ हुआ। उन्होंने ब्रह्महत्या को विभक्त करके उसे वक्ष, नदी, पर्वत, पृथ्वी और स्त्रियों में बाँट दिया। इससे इन्द्र निष्पाप और निःशोक हो गये। किन्तु जब वे अपना स्थान ग्रहण करने के लिये आये तो उन्होंने देखा कि नहुष देवताओं के वर के प्रभाव से दुःसह हो रहा है तथा अपनी दृष्टि से ही वह समस्त प्राणियों के तेज को नष्ट कर देता है। यह देखकर वे भय से काँप उठे और वहाँ से फिर चले गये, तथा अनुकूल समय की प्रतीक्षा करते हुए सब जीवों से अदृश्य रहकर विचरने लगे।

Friday 24 June 2016

उद्योग-पर्व ---त्रिशिरा और वृत्रासुर के वध का वृतांत तथा इन्द्र का तिरस्कृत होकर जल में छिप जाना

त्रिशिरा और वृत्रासुर के वध का वृतांत तथा इन्द्र का तिरस्कृत होकर जल में छिप जाना
युधिष्ठिर ने पूछा---राजन् ! इन्द्र और इन्द्राणी को किस प्रकार अत्यन्त घोर दुःख उठाना पड़ा था, यह जानने की मुझे इच्छा है। शल्य ने कहा---भरतश्रेष्ठ ! सुनो, मैं तुम्हें यह प्राीन इतिहास सुनाता हूँ। देवश्रेष्ठ त्वष्ठा नाम के एक प्रजापति थे। इन्द्र से द्वेष हो जाने के कारण उन्होंने एक तीन सिरवाला पुत्र उत्पन्न किया। वह बालक अपने एक मुख से वेदपाठ करता था, दूसरे से सुधापान करता था और तीसरे से मानो सब दिशाओं को निगल जायगा, इस प्रकार देखता था। वह बड़ा ही तपस्वी, मृदु, जितेन्द्रिय तथा धर्म और तप में तत्पर था। उसका तप बड़ा ही तीव्र और दुष्कर था। उस अतुलित तेजस्वी बालक का तपोबल और सत्य देखकर देवराज इन्द्र को बड़ा खेद हुआ। उन्होंने सोचा कि 'यह इस तपस्या के प्रभाव से इन्द्र न हो जाय। अतः यह किस प्रकार इस भीषण तपस्या को छोड़कर भोगों में आसक्त हो ?' इसी प्रकार बहुत सोच-विचारकर उन्होंने उन्हें फँसाने के लिये अप्सराओं को आज्ञा दी। इन्द्र की आज्ञा पाकर अप्सराएँ त्रिशिरा के पास आयीं और उसे तरह-तरह के भावों से लुभाने लगीं। किन्तु त्रिशिरा अपनी इन्द्रियों को वश में करके पूर्वसमुद्र ( प्रशान्त महासागर ) के समान अविचल रहे। अन्त में बहुत प्रयत्न करके अप्सराएँ इन्द्र के पास लौट गयीं और उनसे हाथ जोड़कर कहने लगीं, 'महाराज ! त्रिशिरा बड़ा ही दुर्घर्ष है, उसे धैर्य से डिगाना संभव नहीं है। अब और कुछ करना चाहें, वह करें। इन्द्र ने अप्सराओं को तो सत्कारपूर्वक विदा कर दिया और स्वयं यह विचार किया कि 'आज मैं उसपर वज्र छोड़ूँगा, जिससे वह तुरत ही नष्ट हो जायगा।' ऐसा निश्चय करके उन्होंने क्रोध में भरकर त्रिशिरा पर अपने भीषण वज्र का प्रहार किया। उसके लगते ही वह विशाल पर्वतशिखर के मान मरकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। इससे इन्द्र निर्भय और प्रसन्न होकर स्वर्गलोक को चले गये। प्रजापति त्वष्टा को जब मालूम हुआ कि इन्द्र ने मेरे पुत्र को मार डाला है तो उनकी आँखें क्रोध से लाल हो गयीं और उन्होंने कहा, 'मेरा पुत्र सदा ही क्षमाशील और शम-दमसम्पन्न था। वह तपस्या कर रहा था। इन्द्र ने उसे बिना किसी अपराध के ही मार डाला है। इसलिये अब मैं इन्द्र का नाश करने के लिये वृत्रासुर को उत्पन्न करूँगा। लोग मेरे पराक्रम और तपोबल को देखें।' ऐसा विचारकर महान् यशस्वी और तपस्वी त्वष्टा ने क्रुद्ध होकर जल का आचमन किया और अग्नि में आहुति दे वृत्रासुर को उत्पन्न कर उससे कहा, 'इन्द्रशत्रो ! मेरे तप के प्रभाव से तुम बढ़ जाओ।' बस, सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी वृत्रासुर उसी सम बढ़कर आकाश को छूने लगा और बोला, ' कहिये मैं क्या करूँ ?' त्वष्टा ने कहा, 'इन्द्र को मार डालो।'तब वह स्वर्ग में गया। वहाँ इन्द्र और वृत्र का भीषण संग्राम हुआ। अन्त में वीरवर वृत्रासुर ने देवराज इन्द्र को पकड़कर निगल गया। तब देवताओं ने वृत्र का नाश करने के लिये जंभाई की रचना की और ज्योंही वृत्र ने जंभाई ली कि देवराज अंग सिकोड़कर उसके खुले हुए मुख से बाहर निकल आये। इन्द्र को बाहर आया देखकर देवता बड़े प्रसन्न हुए। इसके पश्चात् फिर इन्द्र और वृत्र का युद्ध होने लगा। तब त्वष्टा का तेज और बल पाकर वीर वृत्रासुर संग्राम में अत्यन्त प्रबल हो गया और इन्द्र मैदान छोड़कर भाग गये। इन्द्र के भाग जाने से देवताओं को बड़ा ही खेद हुआ और वे त्वष्टा के तेज से घबराकर इन्द्र और मुनियों के साथ सलाह करने लगे कि अब क्या करना चाहिये। इन्द्र ने कहा, 'देवताओं ! वृत्र ने तो इस सारे संसार को घेर लिया है। मेरे पास ऐसा कोई शस्त्र नहीं है, जो इसका नाश कर सके। अतः मेरा तो ऐसा विचार है कि हमलोग मिलकर हमलोग विष्णुभगवान् के धाम को चलें और उनसे सलाह करके इस दुष्ट के नाश का उपाय मालूम करें।' इन्द्र के इस प्रकार कहने पर सब देवता और ऋषिगण शरणागतवत्सल भगवान् विष्णु की शरण में गये और उनसे कहने लगे, 'पूर्वकाल में आपने अपने तीन डगों से तीनों लोकों को नाप लिया था। आप समस्त देवताओं के स्वामी हैं। यह सारा संसार आपमें व्याप्त है। आप देवेश्वर हैं। सब लोक आपको नमस्कार करते हैं। इस समय यह सारा जगत् वृत्रासुर से व्याप्त है; अतः हे असुरनिकंदन ! आप इन्द्र तथा संपूर्ण देवताओं को आश्रय दीजिये।' विष्णुभगवान् ने कहा, 'मुझे तुमोगों का हित अवश्य करना है; इसलिये मैं ऐसा उपाय बताता हूँ, जिससे इसका अन्त हो जायगा। तुम सब देवता, ऋषि और गन्धर्व विश्वरूपधारी वृत्रासुर के पास जाओ और उसके प्रति सामनीति का प्रयोग करो। इससे तुम उसे जीत लोगे। देवताओं ! इस प्रकार मेरे और इन्द्र के प्रभाव से तुम्हारी जीत होगी। मैं अदृश्यरूप से देवराज के आयुध वज्र में प्रवेश करूँगा।' विष्णुभगवान् के ऐसा कहने पर सब देवता एवं ऋषि इन्द्र को आगे करके वृत्रासुर के पास चले और उससे बोले, 'दुर्जय वीर ! यह सारा जगत् तुम्हारे तेज से व्याप्त है तो भी तुम इन्द्र को जीत नहीं सके हो। तुम दोनो को लड़ते हुए बहुत समय बीत गया है; इससे देवता, असुर और मनुष्य---सभी प्रजा को बड़ा कष्ट हो रहा है। अतः अब सदा के लिये तुम इन्द्र से मित्रता कर लो।' महर्षि की यह बात सुनकर परम तेजस्वी वृत ने कहा, 'आप तपस्वी लोग अवश्य ही मेरे माननीय हैं। किन्तु जो बात मैं कहता हूँ वह यदि पूरी की जायगी, तो आपलोग जैसा कह रहे हैं, वह सब मैं करने को तैयार हूँ। मुझे इन्द्र या देवतालोग किसी भी सूखे या गीली वस्तु से, पत्थर या लकड़ी से, शस्त्र या अस्त्र से, अथवा दिन में या रात में न मार सके ---इस शर्त पर मैं सदा के लिये इन्द्र के साथ सन्धि करना स्वीकार कर सकता हूँ।' तब ऋषियों ने उससे कहा, 'ठीक है, ऐसा ही होगा।' इस प्रकार सन्धि हो जाने से वृत्रासुर बड़ा प्रसन्न हुआ। देवराज भी मन में प्रसन्न हए, किन्तु वे सदा वृत्रासुर को मारने का अवसर ढ़ूँढ़ते रहते थे। एक दिन इन्द्र ने सायंकाल में वृत्रासुर को समुद्र के तट पर विचरते देखा। उस समय वे वृत्र के दिये हुए वर पर विार करने लगे---'यह सायंकाल है, इस समय न दिन है न रात; और मुझे अपने शत्रु वृत्र का वध अवश्य करना है। यदि आज मैं इस महान् असुर को धोखे से नहीं मारता हूँ तो मेरा हित नहीं हो सकता।' ऐसा विचारकर इन्द्र ने ज्यों ही विष्णुभगवान् का स्मरण किया कि उन्हें समुद्र पर पर्वत के समान फेन उठता दिखायी दिया। वे सोचने लगे---'यह न सूखा है न गीला, और न कोई शस्त्र ही है। अतःमैं इसे यदि वृत्रासुर पर फेंकूँ तो वह एक क्षण में ही नष्ट हो जायगा।' यह सोचकर उन्होंने तुरंत ही अपने वज्र के सहित वह फेन वृत्रासुरपर फेन में प्रवेश करके उसी समय वृत्रासुर को मार डाला। वृत्र के मरते ही सारी प्रजा प्रसन्न हो गयी तथा देवता, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, नाग और ऋषि---ये सब इन्द्र की स्तुति करने लगे। इन्द्र ने देवताओं के लिये भय का कारण बने हुए महाबली वृत्रासुर का वध तो किया, किन्तु पहले त्रिशिरा को मारने से लगी हुई ब्रह्महत्या के कारण और अब असत्य व्यवहार के कारण तिरस्कृत होने से मन-ही-मन बहुत दुःखी रहने लगे। इन पापों के कारण वे संज्ञाशून्य और अचेतन-से हो गये तथा संपूर्ण लोकों की सीमा पर जाकर जल में छिपकर रहने लगे।जब देवराज ब्रह्महत्या से पीड़ित होकर स्वर्ग छोड़कर ले गये तो सारी पृथ्वी वृक्षों के मारे जाने और वनों के सूख जाने पर ऊजड़ सी हो गयीं। नदियों की धाराएँ टूट गयीं और सरोवर जलहीन हो गये। अनावृष्टि के कारण सभी जीवों में खलबली मच गयी तथा देवता और महर्षियों को भी बड़ा त्रास होने लगा। कोई राजा न रहने से सारा जगत् उपद्रवों से पीड़ित रहने लगा। तब देवताओं को भी भय हुआ कि अब हमारा राजा कौन हो; क्योंकि देवताओं में से किसी का भी मन राज् का भार संभालने के लिये होता नहीं था।

उद्योग-पर्व ---शल्य का सत्कार तथा दुर्योधन और युधिष्ठिर दोनो को वचन देना

शल्य का सत्कार तथा दुर्योधन और युधिष्ठिर दोनो को वचन देना
दूतों के मुख से पाण्डवों का संदेश सुनकर राजा शल्य भारी सेना और अपने महारथी पुत्रों के सहित पाण्डवों की सहायता के लिये चले। उनके पास इतनी बड़ी सेना थी कि उसका पड़ाव दो कोस के बीच में पड़ता था। वे एक अक्षौहिणी सेना के स्वामी थे तथा उनकी सेना के स्वामी थे तथा उनकी सेना के सैकड़ों-हजारों वीर संचालक थे। इस विशाल सेना के सहित वे बीच-बीच में विश्राम करते धीरे-धीरे पाण्डवों के पास चले। दुर्योधन ने जब महारथी शल्य को पाण्डवों की सहायता के लिये आते सुना तो उसने स्वयं जाकर उनके सत्कार का प्रबंध किया। उने सत्कार के लिये उसने शिल्पियों द्वारा रास्ते के रमणीय प्रदेशों में सुन्दर-सुन्दर रत्नजटित सभाभवन बनवा दिये और उनमें तरह-तरह की क्रीड़ाओं की सामग्रियाँ रख दीं। जब शल्य उन सभाओं में पहुँचते तो दुर्यधन के मंत्री उनका देवताओं के समान सत्कार करते। एक के बाद वे दूसरी सभा में पहुँचे, वह भी देवभवन के समान कान्तिमयी थी। वहाँ उन्होंने अनेकों अलौकिक विषयों का सेवन किया। तब उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर सेवकों से पूछा, 'इन सभाओं को युधिष्ठिर के किन आदमियों ने तैयार किया है ? उन्हें मेरे सामने लाओ, उन्हें तो कुछ इनाम मिलना चाहिये। मैं उन्हें पारितोषिक दूँगा। युधिष्ठिर को भी इस बात में मेरा समर्थन करना चाहिये।' सेवकों ने चकित होकर यह सब समाचार दुर्योधन को सुनाया। दुर्योधन ने भी जब देखा कि इस समय शल्य अत्यन्त प्रसन्न हैं और अपने प्राण देने को भी तैयार हैं तो वह उनके सामने आ गया। मद्रराज ने दुर्योधन को देखकर और यह सारा प्रयत्न उसी का जानकर उसे प्रसन्नता से गले लगा लिया और कहा कि 'तुम्हारी जो इच्छा हो, वह माँग लो।' दुर्योधन ने कहा, 'महानुभाव ! आपका वाक्य सत्य हो। मेरी इच्छा है कि आप मेरी सम्पूर्ण सेना के नायक हों।' शल्य ने कहा, 'अच्छा, मैने तुम्हारी बात स्वीकार की। बताओ, तुम्हारा और क्या काम करूँ ?' तब दुर्योधन ने बार-बार यही कहा कि 'मेरा तो आपने सब काम पूरा कर दिया।' इसके पश्चात् शल्य ने कहा---दुर्योधन ! तुम अपनी राजधानी को जाओ, मुझे अभी युधिष्ठिर से मिलना है। उनसे मिलकर मैं शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊँगा।' दुर्योधन ने कहा, 'राजन् ! युधिष्ठिर से मिलकर शीघ्र ही आवें, हम तो अब आपके ही अधीन हैं; हमारे वरदान की बात याद रखें।' फिर शल्य और युधिष्ठिर परस्पर गले मिले। दुर्योधन शल्य की आज्ञा लेकर अपने नगर में चला आया और शल्य दुर्योधन की यह सब बात सुनाने के लिये युधिष्ठिर के पास आये। विराटनगर के उपपल्व्य प्रदेश में पहुँचकर वे पाण्डवों की छावनी में आये। वहाँ उन्होंने सभी पाण्डवों को देखा और उनके दिये हुए अर्ध्य-पाद्यादि को ग्रहण किया। फिर मद्रराज ने कुशल प्रश्न के पश्चात् युधिष्ठिर का आलिंगन किया तथा भीम, अर्जुन और अपनेभांजे नकुल और सहदेव को हृदय से लगाकर जब वे अपने आसन पर बैठ गये तो उन्होंने राजा युधिष्ठिर से कहा, 'कुरुश्रेष्ठ ! तुम कुशल से तो हो ? यह बड़े प्रसन्नता की बात है कि तुम वनवास के बन्धन से छूट गये। तुमने द्रौपदी और भाइयों के सहित निर्जन वन में रहकर सचमुच बड़ा दुष्कर कार्य किया है। उससे भी कठिन अज्ञातवास को भी तुमने अच्छा निभा दिया। सच है, राजच्युत होने पर तो दुःख ही भोगना पड़ता है; फिर सुख कहाँ ? राजन् ! क्षमा, दम, सत्य, अहिंसा और अद्भुत सद्गति---ये तुममें स्वभावतः विद्यमान हैं। तुम बड़े ही मृदुलस्वभाव, उदार, दानी और धर्मनिष्ठ हो। तुम्हें इस महान दुःख से मुक्त हुआ देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हो रही है।'  इसके बाद राजा शल्य ने जिस प्रकार दुर्योधन के साथ उनका समागम हुआ था, वह सब और उनकी सेवा-सुश्रूषा तथा अपने वर देने की बात भी दुर्योधन को सुना दी। यह सुनकर राजा युधिष्ठिर ने कहा, 'महाराज ! आपने प्रसन्न होकर दुर्योधन को सहायता देने का वचन दे दिया, यह बहुत अच्छा किया। किन्तु एक काम मैं भी आपसे कराना चाहता हूँ। राजन् ! आप युद्ध में साक्षात् श्रीकृष्ण के समान पराक्रमी हैं। जिस समय कर्ण और अर्जुन रथों पर चढ़कर आपस में युद्ध करेंगे, उस समय आपको कर्ण का सारथि बनना होगा---इसमें संदेह नहीं है। यदि आप मेरा भला चाहते हैं तो उस समय अर्जुन की रक्षा करें और मेरी विजय के लिये कर्ण का उत्साह भंग करते रहें।' शल्य ने कहा--युधिष्ठिर ! सुनो, तुम्हारा मंगल हो। मैं संग्रामभूमि में कर्ण का सारथि अवश्य बनूँगा, क्योंकि वह मुझे सर्वदा श्रीकृष्ण के समान ही समझता है। उस समय मैं अवश्य उससे टेढ़े और अप्रिय वचन कहूँगा। इससे उसका गर्व और तेज नष्ट हो जायगा और फिर उसको मारना सहज हो जायगा। राजन् ! तुमने और द्रौपदी ने जूए के समय बड़ा दुःख सहन किया था। सूतपुत्र कर्ण ने तुम्हे बड़े कटु वचन सुनाये थे। सो तुम इसके लिये अपने चित्त में क्षोभ मत करो। दुःख तो बड़े-बड़े महापुरुषों को भी उठाने पड़ते हैं। देखो इन्द्राणी के सहित इन्द्र को भी महान् दुःख उठाना पड़ा था।

उद्योग-पर्व --श्रीकृष्ण को अर्जुन और दुर्योधन का निमंत्रण तथा उने द्वारा दोनो पक्षों की सहायता

श्रीकृष्ण को अर्जुन और दुर्योधन का निमंत्रण तथा उने द्वारा दोनो पक्षों की सहायता
हस्तिनापुर की ओर पुरोहित को भेजकर फिर पाण्डवों ने जहाँ-तहाँ राजाओं के पास दूत भेजे। इसके बाद श्रीकृष्णचन्द्र को निमंत्रित करने के लिये स्वयं कुन्तीनन्दन अर्जुन द्वारका को गये। दुर्योधन को भी अपने गुप्तचरों द्वारा पाण्डवों की सब चेष्टाओं का पता चल गया। उसे जब मालूम हुआ कि श्रीकृष्ण विराटनगर से द्वारका जा रहे हैं तो थोड़ी सी सेना के साथ वहाँ पहुँच गया। उसी दिन पाण्डुकुमार अर्जुन भी पहुँचे। वहाँ पहुँचकर उन दोनो वीरों ने श्रीकृष्ण को सोते पाया। तब दुर्योधन शयनागार में जाकर उनके सिरहाने की ओर एक उत्तम सिंहासन पर बैठ गया। उसके पीछे अर्जुन ने प्रवेश किया। वे बड़ी नम्रता से हाथ जोड़े हुए श्रीकृष्ण के चरणों की ओर खड़े रहे। जाने पर भगवान् की दृष्टि पहले अर्जुन पर पड़ी। फिर उन्होंने उन दोनो का ही स्वागत सत्कार कर उनसे आने का कारण पूछा। तब दुर्योधन ने हँसते हुए कहा, 'पाण्डवों के साथ हमारा जो युद्ध होनेवाला है, उसमें आपको हमारी सहायता करनी होगी। आपकी तो जैसी अर्जुन से मित्रता है, वैसी ही मुझसे भी है तथा हम दोनो से एक-सा ही संबंध भी है, और आज आया भी पहले मैं ही हूँ। सत्पुरुष उसी का साथ दिया करते हैं, जो पहले आता है; अतः आप भी सत्पुरुषों के आचरण का ही अनुसरण करें। श्रीकृष्ण ने कहा---आप पहले आये हैं---इसमें तो संदेह नहीं, परन्तु मैने पहले देखा अर्जुन को है; अतः आप पहले आये हैं और अर्जुन को मैने पहले देखा है---इसलिये मैं दोनो ही की सहायता करूँगा। मेरे पास एक अरब गोप हैं, वे मेरे ही समान बलिष्ठ हैं और सभी संग्राम में जूझनेवाले हैं। उनका नाम नारायण है। एक ओर तो वे दुर्जय सैनिक रहेंगे और दूसरी ओर मैं स्वयं रहूँगा; किन्तु मैं न तो युद्ध करूँगा और न शस्त्र ही धारण करूँगा। अर्जुन ! धर्मानुसार पहले तुम्हें चुनने का अधिकार है, क्योंकि तुम छोटे हो, इसलिये दोनों में से तुम्हे जिसे लेना हो, उसे ले लो। श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर अर्जुन ने उन्हीं को लेने की इच्छा प्रकट की। जब अर्जुन ने स्वेच्छा से मनुष्यरूप में अवतीर्ण शत्रुदमन श्रीनारायण को लेना स्वीकार किया तो दुर्योधन ने उनकी सारी सेना ले ली। इसके पश्चात् वह महाबली बलरामजी के पास वह महाबली बलरामजी के पास गया और उन्हें अपने आने का सारा समाचार सुनाया। तब बलदेवजी ने कहा, 'पुरुषश्रेष्ठ ! मैं श्रीकृष्ण के बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता; अतः उनका यह रुख देखकर मैने निश्चय कर लिया है कि न तो मैं अर्जुन की सहायता करूँगा और न तुम्हारे साथ ही रहूँगा। बलरामजी के ऐसा कहने पर दुर्योधन ने उनका आलिंगन किया और यह समझकर कि नारायणी सेना लेकर मैने श्रीकृष्ण को ठग लिया है, उसने अपनी ही जीत पक्की समझी। इसके पश्चात् वह कृतवर्मा के पास आया। कृतवर्मा ने उसे एक अक्षौहिणी सेना दी। उस सारी सेना सहित दुर्योधन हर्ष से फूला नहीं समाया। इधर जब दुर्योधन श्रीकृष्ण के महल से चला गया तो भगवान् ने अर्जुन से पूछा, अर्जुन ! मैं तो लड़ूँगा नहीं, फिर तुमने क्या समझकर मुझे माँगा ? अर्जुन ने कहा, 'भगवन् ! मेरे मन में सदा से यह विचार रहता है कि आपको अपना सारथि बनाऊँ। इस विषय में मेरी कई रात्रियाँ निकल गयी हैं। आप इसे पूरा करने की कृपा करें।' श्रीकृष्ण ने कहा, 'अच्छा, तुम्हारी कामना पूर्ण हो, मैं तुम्हारा सारथ्य करूँगा।' यह सुनकर अर्जुन को बड़ी प्रसन्नता हुई और वे श्रीकृष्ण तथा अन्य दशार्हवंशीय प्रधान पुरुषों के साथ राजा युधिष्ठिर के पास लौट आये।

Saturday 18 June 2016

उद्योग-पर्व--विराटनगर में पाण्डवपक्ष के नेताओं का परामर्श, सैन्यसंग्रह का उद्योग तथा राजा द्रुपद का धृतराष्ट्र के पास दूत भेजना

उद्योग-पर्व
विराटनगर में पाण्डवपक्ष के नेताओं का परामर्श, सैन्यसंग्रह का उद्योग तथा राजा द्रुपद का धृतराष्ट्र के पास दूत भेजना
नारायणं नम्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्। देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्।।
अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण, उनके नित्य सखा नरस्वरूप नररत्न अर्जुन, उनकी लीला प्रकट करनेवाली भगवती सरस्वती और उसके वक्ता महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके आसुरी सम्पत्तियों पर विजय प्राप्तिपूर्वक अन्तःकरण को शुद्ध करनेवाले महाभारत ग्रन्थ का पाठ करना चाहिये।
कुरुप्रवीर पाण्डवगण अभिमन्यु का विवाह करके अपने सुहृद यादवों के सहित बड़े प्रसन्न हुए और ऱात्रि में विश्राम करके दूसरे दिन सवेरे ही विराट की सभामें पहुँच गये। सबसे पहले समस्त राजाओं के माननीय और वृद्ध विराट एवं द्रुपद आसनों पर बैठे। फिर पिता वसुदेवजी के सहित बलराम और श्रीकृष्ण विराजमान हुए। सात्यकि और बलरामजी तो पांचालराज द्रुपद के पास बैठे तथा श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर राजा विराट के समीप विराजमान हुए। इनके पश्चात् द्रुपदराज के सब पुत्र, भीमसेन, अर्जुन, नुल, सहदेव, प्रद्युम्न, साम्ब, विराटपुत्रों के सहित अभिमन्यु और द्रौपदी के सब कुमार---ये सभी सुवर्णजटित मनोहर सिंहासनों पर जा बैठा। जब सब लोग आ गये तो पुरुषश्रेष्ठ आपस में मिलकर तरह-तरह की बातचीत करने लगे। फिर श्रीकृष्ण की सम्मति जानने के लिये एक मुहूर्त तक उनकी ओर देखते हुए आसनों पर बैठे रहे। तब श्रीकृष्ण ने कहा, 'सुबलपुत्र शकुनि ने जिस प्रकार कपटध्यूत में हराकर महाराज युधिष्ठिर का राज्य छीन लिया और उन्हें वनवास के नियम में बाँध दिया था, वह सब तो आपलोगों को मालूम ही है। पण्डवलोग उस समय भी अपना राज्य लेने में समर्थ थे; परन्तु वे सत्यनिष्ठ थे, इसलिये उन्होंने तेरह वर्ष तक उस कठोर नियम का पालन किया।अब आपलोग ऐसा उपाय सोचें, जो कौरवों और पाण्डवों के लिये धर्माकूल और कीर्तिकर हो; क्योंकि अधर्म के द्वारा तो धर्मराज युधिष्ठिर देवताओं का राज्य भी नहीं लेना चाहेंगे। हाँ, धर्म और अर्थ से युक्त हो तो इन्हें एक गाँव का आधिपत्य स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होगी। यद्यपि धृतराष्ट्र के पुत्रों के कारण इन्हें असह्यकष्ट भोगने पड़े हैं, तथापि अपने सुहृदों के सहित ये सर्वदा उनका मंगल ही चाहते रहे हैं। अब ये पुरुषप्रवर अपना वही राज्य चाहते हैं, जिसे इन्होंने अपने बाहुबल से राजाओं को परास्त करके प्राप्त किया था। यह बात भी आपलोगों से छिपी नहीं है कि जब ये बालक थे तभी से ये क्रूरस्वभाव कौरव इनके पीछे पड़े हुए हैं और इनका राज्य हड़पने के लिये तरह-तरह के षडयंत्र रचते रहे हैं। अब उनके बड़े-बड़े लोभ, राजा युधिष्ठिर की धर्मज्ञता और इनके पारस्परिक संबंध का विचार करके आप सब मिलकर और अलग-अलग कोई बात तय करें। ये लोग तो सा सत्य पर डटे रहे हैं और इन्होंने अपनी प्रतिज्ञा का भी ठीक-ठीक पालन किया है। इसलिे यदि अब धृतराष्ट्र के पुत्र अन्याय करेंगे तो उन्हें मार डालेंगे। किन्तु अभी तक हमें दुर्योधन के ठीक-ठीक दुर्योधन के विचार का भी पता नहीं है कि वह क्या करना चाहता है और दूसरी ओर का विचार जाने बिना आप किसी कर्तव्य का निश्चय भी कैसे कर सकते हैं ? इसलिये उनलोगों को समझाने और महाराज युधिष्ठिर को आधा राज्य दिलाने के लिये इधर से कोई धर्मात्मा, पवित्रचित्त, कुलीन, सावधान और सामर्थ्यवान् पुरुष दूत बनकर जाना चाहिये। राजन् ! श्रीकृष्ण का भाषण धर्मार्थयुक्त, मधुर और पक्षपात-शून्य था। बलरामजी ने उसकी बड़ी प्रशंसा की और फिर इस प्रकार कहना आरंभ किया, 'आपने श्रीकृष्ण का धर्म और अर्थ के अनुकूल भाषण सुना। वह जैसा धर्मराज के लिये हितकर है, वैसा ही कुरुराज दुर्योधन के लिये भी है। वीर कुन्तीपुत्र आधा राज्य कौरवों के लिये छोड़कर शेष आधे के लिये ही प्रयत्न करना चाहते हैं। अतः यदि दुर्योधन यदि आधा राज्य दे दे तो वह बड़े आनन्द में रह सकता है। अतः यदि दुर्योधन का विचार जानने और उसे युधिष्ठिर का संदेश सुनाने के लिये कोई दूत भेजा जाय और इस प्रकार कौरवों -पाण्डवों का निबटारा हो जाय तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी। वहाँ जो दूत जाय, उसे जिस समय सभा में कुरुश्रेष्ठ भीष्म, धृतराष्ट्र, द्रोण, अश्त्थामा, विदुर, कृपाचार्य, शकुनि, कर्ण तथा शस्त्र और शास्त्रों में पारंगत दूसरे धृतराष्ट्रपुत्र उपस्थित हों और जब सब बयोवृद्ध एवं विद्याविद्ध पुरवासी भी यहाँ आ जायँ, तब उनहें प्रणाम करके राजा युधिष्ठिर का कार्य सिद्ध करनेवाला वचन कहना चाहिये। उन्होंने सबल होकर ही इनका धन छीना था। युधिष्ठिर की जूए में आसक्ति थी और अपने प्रिय दूत का आश्रय लेने पर ही उन्होंने इनका राज्य हरण किया था। यदि शकुनि ने इन्हें जूए में हरा दिया तो इसमे उनका कोई अपराध नहीं कहा जा सकता। बलरामजी का यह बात सुनकर सात्यकि एकसाथ तड़ककर खड़ा हो गया और उनके भाषण की बहुत निंदा करते हुए इस प्रकार कहने लगा, 'पुरुष का जैसा चित्त होता है, वैसी ही वह बात भी कहता है। आपका भी जैसा हृदय है, वैसी ही बात कह रहे हैं। संसार में शूरवीर भी होते हैं और कायर भी। लोगों में ये दोनो पक्ष पूरी तरह से देखे जाते हैं। यह ठीक है कि धर्मराज जूआ खेलना नहीं जानते थे और शकुनि इस क्रिया में पारंगत था। किंतु इनकी उसमें श्रद्धा नहीं थी। ऐसी स्थिति में यदि उसने इन्हें जूए के लिये निमंत्रित करके जीत लिया तो उसकी इस जीत को धर्मानुकूल कैसे कह सकते हैं ? अजी ! कौरवों ने तो इन्हें बुलाकर कपटपूर्वक हराया था; फिर उनका भला कैसे हो सकता है ?  महाराज युधिष्ठिर वनवास की अवधि पूरी करके अब स्वतंत्र हैं और अपने पैतृक राज्य के अधिकारी हैं। ऐसी स्थिति में ये उनसे भीख माँगे---यह कैसे हो सकता है ? भीष्म, द्रोण और विदुर ने तो कौरवों को बहुतेरा समझाया है; किन्तु पाण्डवों को उनकी पैतृक सम्पत्ति देने के लिये उनका मन ही नहीं होता। अब मैं रणभूमि में अपने पैने बाणों से उन्हें सीधा कर दूँगा और महात्मा युधिष्ठिर के चरणों पर उनका सिर रगड़वाऊँगा। यदि वे इनके आगे झुकने को न तैयार हुए तो अपने मंत्रियों सहित यमराज के घर जायेंगे। भला, ऐसा कौन है जो संग्रामभूमि में गाण्डीवधारी अर्जुन, चक्रपाणि श्रीकृष्ण, दुर्धर्ष भीम, धनुर्धर नकुल, सहदेव, वीरवर विराट और द्रुपद तथा मेरा वेग सहन कर सके। धृष्टधुम्न, पाण्डवों के पाँच पुत्र, धनुर्धर अभिमन्यु तथा काल और सूर्य के समान पराक्रमी गद, प्रद्युम्न और साम्बादि के प्रहारों का सहन करने की भी कौन ताब रखता है ?  हमलोग शकुनि के सहित दुर्योधन और कर्ण को मारकर महारज युधिष्ठिर का राज्याभिषेक करेंगे। आततायी शत्रुओं को मारने में तो कभी कोई दोष नहीं है। शत्रुओं के आगे भीख माँगना तो अधर्म और अपयश का ही कारण होता है। अतः आपलोग सावधानी से महाराज युधिष्ठिर के हृदय की ये अभिलाषा पूरी करें कि वे धृतराष्ट्र के देने से ही अपना राज्य प्राप्त कर लें। इस प्रकार उन्हें या तो अभी राज्य मिल जाना चाहिेये, नहीं तो सारे कौरव युद्ध में मारे जाकर पृथ्वी पर शयन करेंगे। इसपर राजा द्रुपद नें कहा--- महाबाहो ! दुर्योधन शान्ति से राज्य नहीं देगा। पुत्र के मोहवश धृतराष्ट्र भी उसी का अनुवर्तन केंगे तथा भीष्म और द्रोण दीनता के कारण एवं कर्ण और शकुनि मूर्खता से उसी की सी कहेंगे। मेरी बुद्धि में भी श्री बलदेवजी का प्रस्ताव नहीं जँचा, फिर भी शान्ति की इच्छावाले पुरुष को ऐसा करना ही चाहिये। दुर्योधन के सामने मीठे वचन तो किसी प्रकार नहीं बोलने चाहिये; मेरा ऐसा विचार है कि वह दुष्ट मीठी बातों से काबू में आनेवाला नहीं है। दुष्ट-लोग मृदुभाषी को शक्तिहीन समझते हैं। वे जहाँ नर्मी देखते हैं, वहीं अपना मतलब सधा हुआ समझ लेते हैं। हम यह भी करेंगे, पर साथ ही दूसरा उद्योग भी आरंभ करें। हमें अपने मित्रों के पास दूत भेजने चाहिये, जिससे वे हमारे लिये अपनी सेना तैयार रखें। शल्य, धृष्टकेतू, जयत्सेन और केकयराज---इन सभी के पास शीघ्रगामी दूत भेजने चाहिये। दुर्योधन भी निश्चय ही सब राजाओं के पास दूत भेजेगा और वे जिसके द्वारा पहले आमंत्रित होंगे, पहले उसी को सहायता के लिये वचन दे देंगे। इसलिये राजाओं के पास पहले हमारा निमंत्रण पहुँचे---इसके लिये शीघ्रता करनी चाहिये। मैं तो समझता हूँ हमें बहुत बड़े काम का भार उठाना है। ये मेरे पुरोहितजी बड़े विद्वान हैं, इन्हें अपना संदेश देकर राजा धृतराष्ट्र के पास भेजिये। दुर्योधन, भीष्म, धृतराष्ट्र और द्रोणाचार्य---इनसे अलग-अलग जो कुछ कहलाना हो, वह इन्हें समझा दीजिये। श्रीकृष्ण बोले---महाराज द्रुपद ने बहुत ठीक बात कही है। इनकी सम्मति अतुलित तेजस्वी महाराज युधिष्ठिर के कार्य को सिद्ध करनेवाली है। हमलोग सुनीति से काम लेना चाहते हैं। अतः पहले हमें ऐसा ही करना चाहिये। जो विपरीत आचरण करता है, वह तो महामूर्ख है। आयु और शास्त्रज्ञान की दृष्टि से आप ही हम सबमें बड़े हैं, हम सब तो आपके शिष्यवत् हैं।अतः राजा धृतराष्ट्र के पास आप ही ऐसा संदेश भिजवाइये, जो पाण्डवों की कार्यसिद्धि करनेवाला हो। आप उन्हें जो संदेश भिजवायेंगे, वह हम सबको भी अवश्य मान्य होगा। यद कुरुराज धृतराष्ट्र ने न्यायपूर्वक संधि कर ली तो फिर कौरव-पाण्डवों का भीषण संहार नहीं होगा। और यदि मोहवश अभिमान के कारण दुर्योधन ने संधि करना स्वीकार न किया तो वह गाण्डीव धनुर्धर अर्जुन के कुपित होने  पर अपने सलाहकार और सगे सम्बन्धियों के सहित नष्ट-भ्रष्ट हो जायगा। इसके पश्चात् राजा विराट ने श्रीकृष्ण का सत्कार करके उन्हें बन्धु-बान्धवों सहित विदा किया। भगवान् के द्वारका चले जाने पर युधिष्ठिर आदि पाँचों भाई और राजा विराट युद्ध की सब तैयारियाँ करने लगे। राजा विराट, द्रुपद और उनके संबंधियों ने सब राजाओं के पास पाण्डवों को सहायता देने के लिये संदेश भेजे और वे सभी नृपतिगण कुरुश्रेष्ठ पाण्डवों का तथा विराट और द्रुपद का निमंत्रण पाकर बड़ी प्रसन्नता से आने लगे। पाण्डवों के यहाँ सेना इकट्ठी हो रही है---यह समाचार पाकर धृतराष्ट्र के पुत्र भी राजाओं को एकत्रित करने लगे। उस समय कौरव और पाण्डवों की सहायता के लिये आनेवाले राजाओं से सारी पृथ्वी व्याप्त हो गयी। राजा द्रुपद ने अपने पुरोहित से कहा---पुरोहितजी ! यह बात तो आपको मालूम ही है कि कौरवों ने पाण्डवों को ठगा था---शकुनि ने कपटध्यूत के द्वारा दुर्योधन को धोखा दिया था। इसलिये अब वे स्वयं तो किसी भी प्रकार राज्य नहीं देंगे। किन्तु आप धृतराष्ट्र को धर्मयुक्त बातें सुनाकर उनके वीरों का चित्त अवश्य बदल दे सकते हैं। विदुरजी भी आपके वचनों का समर्थन करेंगे। आप भीष्म, द्रोण और कृप आदि में मतभेद पैदा कर सकेंगे। इस परकर जब उनके मंत्रियो में मतभेद हो जायगा और योद्धा लोग उनके विरुद्ध हो जायेंगे तो करवलोग तो उन्हें एकमत करने में लग जायेंगे औ पाण्डवलोग इस बीच सुभीते से सैन् संगठन और धन-संचय कर लेंगे। आप अधिक समय लगाने का प्रत्न करें क्योंकि आपके रहते हुए वे सैन्य एकत्रित करने का काम नहीं कर सकेंगे। ऐसा भी संभव है कि आपकी संगति से धृतराष्ट्र आपकी धर्मानुकूल बात मान लें। आप धर्मनिष्ठ हैं, अतः मेरा ऐसा विश्वास है कि उनके साथ धर्मानुकूल आचरण करके, कृपालु पुरुषों के आगे पाण्डवों के क्लेशों की बात कहकर और बड़े-बूढ़ों के आगे पूर्व-पुरुषों के बरते हुए कुलधर्म की चर्चा चाकर आप उनके चित्तों को बदल देंगे। अतः आप युधिष्ठिर की कार्यसिद्धि के लिये पुष्प नक्षत्र और विजय मुहूर्त में प्रस्थान करें। द्रुपद के इस परार समझाने पर उनके सदाचारसम्पन्न और अर्थनीति विशारद पुरोहित पाण्डवों का हित करने के उद्देश्य से अपने शिष्योंसहित हस्तिनापुर को चल दिये।

Monday 13 June 2016

विराटपर्व---अभिमन्यु के साथ उत्तरा का विवाह

अभिमन्यु के साथ उत्तरा का विवाह
अर्जुन की बात सुनकर राजा विराट ने कहा---'पाण्डवश्रेष्ठ ! मैं स्वयं तुम्हें अपनी कन्या दे रहा हूँ, फिर तुम उसे अपनी पत्नी के रूप में क्यों नहीं स्वीकार  करते ?' अर्जुन ने कहा---'राजन् ! मैं बहुत काल तक आपके रनिवास में रहा हूँ और आपकी कन्या को एकान्त में तथा सबके सामने पुत्रीभाव से ही देखता आया हूँ। उसने भी मझपर पिता की भाँति ही विश्वास किया है। मैं नाचता था और संगीत का जानकार भी हूँ; इसलिये वह मुझसे प्रेम तो बहुत करती है, परन्तु सदा मुझे गुरु ही मानती आयी है। वह वयस्क हो गयी है और उसे साथ एक वर्ष तक मुझ रहना पड़ा है। इस कारण तुम्हे या किसी और को हमपर कोई अनुचित संदेह न हो, इसलिये मैं उसे अपनी पुत्रवधू के रूप में ही वरण करता हूँ।  ऐसा करके ही मैं शुद्ध, जितेन्द्रिय तथा सबको वश में करनेवाला हो सकूँगा और इससे आपकी कन्या का चरित्र भी शुद्ध समझा जायगा। मैं निन्दा और मिथ्या कलंक से डरता हूँ, इसलिये उत्तरा को पुत्रवधू के रूप में ही ग्रहण करूँगा।मेरा पुत्र भी देवकुमार के समान है, वह भगवान् श्रीकृष्ण का भानजा है। वे उसपर बहुत प्रेम रखत हैं। उसका नाम है अभिमन्यु। वह सब प्रकार की अस्त्रविद्या में निपुण है और तुम्हारी कन्या के पति होने के सर्वथा योग्य है।' विराट ने कहा---पार्थ ! तुम कौरवों में श्रेष्ठ और कुन्ती के पुत्र हो। तुम्हे धर्माधर्म का इतना विचार होना उचित ही है। तुम सदा धर्म में तत्पर रहनेवाले और ज्ञानी हो। अब इसके बाद का जो कुछ कर्तव्य हो, उसे पूर्ण करो। जब अर्जुन मेरा संबंधी हो रहा है, तो मेरी कौन सी कामना अपूर्ण रह गयी ? विराट के ऐसा कहने पर अवसर देखकर राजा युधिष्ठिर ने भी इन दोनो क बातों का अनुमोदन किया। फिर विराट और युधिष्ठिर ने अपने-अपने मित्रों के यहाँ तथा भगवान् श्रीकृष्ण के पास दूत भेजा। अब तेरहवाँ वर्ष बीत चुका था, इसलिये पाण्डव विराट के उपलव्य नामक स्थान में रहने लगे। अभिमन्यु, श्रीकृष्ण तथा अन्यान्य दाशार्हवंशियों को बुलवाया गया। काशीराज और शैव्य---ये एक-एक अक्षौहिणी सेना लेकर युधिष्ठिर के यहाँ प्रसन्नतापूर्वक पधारे। राजा द्रुपद भी एक अक्षौहिणी सेना के साथ आये। उनके साथ शिखण्डी और धृष्टधुम्न भी थे। इनके सिवा और भी बहुत-से नरेश अक्षौहिणी सेना के साथ पधारे। राजा विराट ने यथोचित सत्कार किया और सबको उत्म स्थानों पर ठहराया। भगवान् श्रीकृष्ण, बलदेव, कृतवर्मा, सात्यकि अक्रूर और साम्ब आदि क्षत्रिय अभिमन्यु और सुभद्रा को साथ लेकर आये। जिन्होंने द्वारका में एक वर्ष तक वास किया था। वे इन्द्रसेन आदि सारथि भी रथोंसहित वहाँ आ गये। भगवान् श्रीकृष्ण के साथ दस हजार हाथी, दस हजार घोड़े, एक अरब रथ और एक निखर्व ( दस निखर्व ) पैदल सेना थी। वृष्णि, अन्धक और भोजवंश के भी बलवान् राजकुमार आये। श्रीकृष्ण ने निमंत्रण में बहुत सी दासियाँ, नाना प्रकार के रत्न बहुत-वस्त्र युधिष्ठिर को भेंट किये। राजा विराट के घर शंख, भेरी और गोमुख आदि भाँति-भाँति के बाजे बजने लगे। अन्तःपुर की सुन्दर स्त्रियाँ नाना प्रकार के आभूषण और वस्त्रों से सज-धजकर कानों में मणिमय कुण्डल पहने रानी सुदेष्णा को आगे करके महारानी द्रौपदी के यहाँ चली।  वे राजकुमारी उत्तरा का सुन्दर श्रृंगार करके उसे सब ओर से घेरे हुए चल रही थीं। द्रौपदी के पास पहुँचकर उसके रूप, सम्पत्ति और शोभा के सामने सब फीकी पड़ गयीं। अर्जुन ने सुभद्रानन्दन अभिमन्यु के लिये सुन्दरी विराटकुमारी को स्वीकार किया। उस समय वहाँ इन्द्र के समन वेषभूषा धारण किये राजा युधिष्ठिर भी खड़े थे। उन्होंने भी उत्तरा को पुत्रवधू के रूप में अंगीकार किया। तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण के सामने अभिमन्यु और उत्तरा का विवाह हुआ। विवाहकाल में विराट ने प्रज्जलित अग्नि में विधिवत् हवन करके सभी को सत्कार किया औ दहेज में वरपक्ष को वायु के समान वेगवाले सात हजार घोड़े, दो सौ हाथी तथा बहुत सा धन दिया। साथ ही राजपाट,सेना और खजाने सहित अपने को भी सेना में समर्पण किया। विवाह सम्पन्न हो जाने पर युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण से भेंट में मिले हुए धनों में से बहुत कुछ दान में दिया। हजारों गौएँ, रत्न, वस्त्र, भूषण, वाहन, बिछौने तथा खाने-पीने की उत्तम वस्तुएँ अर्पण कीं। उस महोत्सव के समय हजारों-लाखों हृष्ट-पुष्ट मनुष्यों से भरा हुआ मत्स्य-नरेश का वह नगर बहुत ही शोभायमान हो रहा था।

विराटपर्व---पाण्डवों की पहचान और अर्जुन के साथ उत्तरा के विवाह का प्रस्ताव

पाण्डवों की पहचान और अर्जुन के साथ उत्तरा के विवाह का प्रस्ताव
तदनन्तर इसके तीसरे दिन पाँचों महारथी पाण्डवों ने स्नान करके श्वेत वस्त्र धारण किये और राजोचित आभूषणों से भूषित हो युधिष्ठिर को आगे करके सभाभवन में प्रवेश किया। सभा में पहुँचकर वे राजाओं के योग्य आसन पर विराजमान हो गये। इसके बाद राजकार्य देखने के लिये स्वयं राजा विराट वहाँ पधारे। अग्नि के समान तेजस्वी पाण्डवों को राजासन पर बैठे देख राजा को बड़ा क्रोध हुआ। फिर थोड़ी देर तक मन-ही-मन विचार करके उसने कंक से कहा---'तुम तो पासा फेंकनेवाले हो। सभा में पासा बिछाने के लिये मैने तुम्हे नियुक्त किया था। आज इस प्रकार बन-ठन कर सिंहासन पर कैसे बैठ गये ?' राजा ने यह बात परिहास के भाव में कहा था। उसे सुनकर अर्जुन ने मुस्कराते हुए कहा---'राजन् ! तुम्हारे राजसिंहासन की तो बात ही क्या है, ये तो इन्द्र के आधे आसन पर बैठने के अधिकारी हैं। ये ब्राह्मणों के रक्षक, शास्त्रों के विद्वान्, त्यागी, यज्ञकर्ता और दृढ़ता के साथ अपने व्रत का पालन करनेवाले हैं। ये मूर्तिमान् धर्म हैं; पराक्रमी पुरुषों में श्रेष्ठ हैं---इनका नाम है धर्मराज युधिष्ठिर। विराट ने कहा---यदि ये कुरुवंशी कुन्तीनन्दन राजा युधिष्ठिर हैं, तो इनमें इनका भाई अर्जुन और महाबली भीमसेन कौन हैं ? नकुल, सहदेव और यशस्विनी द्रौपदी कौन हैं ? जबसे पाण्डवलोग जूए में हार गये, तबसे कहीं भी उनका पता नहीं लगा। अर्जुन ने कहा---राजन् ! ये जो वल्लव-नामधारी आपके रसोइया हैं, ये ही भयंकर वेग और पराक्रमवाले भीमसेन हैं। कीचक को मारनेवाले गन्धर्व भी ये ही हैं। यह नकुल है, जो आपके आपके यहाँ घोड़ों का प्रबंध कर रहा है और यह है सहदेव, जो गौओं की संभाल रखता रहा है। ये ही दोनो महारथी, मातामाद्री के पुत्र हैं। तथा यह सैरन्ध्री, जो आपके यहाँ सैरन्ध्री के रूप में रह रही है, द्रौपदी है; इसके ही लिये कीचक का विनाश किया गया है। मेरा नाम है अर्जुन ! अवश्य ही आपके कानों में भी मेरा नाम पड़ा होगा। यह सुनकर राजा विराट ने कहा---'उत्तर ! अब हमें पाण्डवों के प्रसन्न करने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ है। तुम्हारी राय हो तो मैं अर्जुन से कुमारी उत्तरा का ब्याह कर दूँ।' उत्तर बोला---'पाण्डवलोग सर्वथा श्रेष्ठ, पूजनीय और सम्मान के योग्य है तथा इसकेलिये हमें मौका भी मिल गया है। इसलिये आप इनका सत्कार अवश्य करें।'विराट न कहा---'युद्ध में भी शत्रुओं के फंदे में पड़ गया था; उस समय भीमसेन ने ही मुझे छुड़ाया और गौओं को भी जीता है। मैने अनजान में राजा युधिष्ठिर को जो कुछ अनुचित वचन कहे हैं, उसे लिये धर्मात्मा पाण्डुनन्दन मुझे क्षमा करें। इस प्रकार क्षमा-प्रार्थना करके राज विराट को बहुत संतोष हुआ और उसने पुत्र से सलाह करके अपना सारा राज-पाट और खजाना युधिष्ठिर की सेवा में सौंप दिया। फिर पाण्डवों और विशेषतः अर्जुन के दर्शन से अपने सौभाग्य की सराहना की। सबका मस्तक सूँघकर प्यार से गले लगाया। इसके बाद वह अतृप्त नेत्रों से उन्हें एकटक देखने लगा और अत्यन्त प्रसन्न होकर युधिष्ठिर से बोला---'बड़े सौभाग्य की बात है जो आपलोग कुशलपूर्वक वन से लौट आये। और यह भी अच्छा हुआ कि इस कष्टदायक अज्ञातवास की अवधि कोआपने पूरा कर लिया। मेरा सर्वस्व आपका है, इसे निःसंकोच स्वीकार करें। अर्जुन मेरी पुत्री उत्तरा का पाणिग्रहण करें, वे सर्वथा उसके स्वामी होने योग्य हैं।' विराट के ऐसा कहने पर युधिष्ठिर ने अर्जुन की ओर देखा। तब अर्जुन ने मत्स्यराज को इस प्रकार उत्तर दिया---'राजन् ! मैं आपकी कन्या को अपनी पुत्रवधू के रूप में स्वीकार करता हूँ। मत्स्य और भरतवंश का यह संबंध उचित ही है।

विराटपर्व---उत्तर का अपने नगर में प्रवेश, स्वागत तथा विराट के द्वारा युधिष्ठिर का तिरस्कार एवं क्षमा प्रार्थना

उत्तर का अपने नगर में प्रवेश, स्वागत तथा विराट के द्वारा युधिष्ठिर का तिरस्कार एवं क्षमा प्रार्थना
इस प्रकार उत्तम दृष्टि रखनेवाला अर्जुन संग्राम में करवों को जीतकर विराट का वह महान् गोधन लौटाकर ले आया। जब धृतराष्ट्र के पुत्र इधर-उधर सब दिशाओं में भाग गये, उसी समयबहुत से कौरवों के सैनिक, जो घने जंगल में छिपे हुए थे, निकलकर डरते-डरते अर्जुन के पास आये। वे भूखे-प्यासे और थके माँदे थे; परदेश में होने के कारण उनकी विकलता और भी बढ़ गयी थी। उन्होंने प्रणाम करके अर्जुन से कहा---'कुन्तीनन्दन ! हमलोग आपके किस आज्ञा का पालन करें ?' अर्जुन ने कहा---तुमलोगों का कल्याण हो। डरो मत, अपने देश को लौट जाओ। मैं संकट में पड़े हुए को नहीं मारना चाहता। इस बात के लिये तुमलोगों को पूरा विश्वास दिलाता हूँ। वह अभयदानयुक्त वाणी सुनकर वहाँ आये हुए सभी योद्धाओं ने आयु, कीर्ति तथा यश देनेवाले आशीर्वादों से अर्जुन को प्रसन्न किया। उसके बाद अर्जुन ने उत्तर को हृदय से लगाकर कहा---'तात ! यह तो तुम्हे मालूम ही हो गया है कि तुम्हारे पिता के पास पाण्डव निवास करते हैं; परन्तु अपने नगर में प्रवेश करके तुम पाण्डवों की प्रशंसा न करना, नहीं तो तुम्हारे पिता डरकर प्राण त्याग देंगे।'  उत्तर बोला---'सव्यसाचिन् ! जबतक आप इस बात को प्रकाशित करने के लिये स्वयं मुझसे नहीं कहेंगे, तबतक पिताजी के निकट आपके विषय में कुछ भी नहीं कहूँगा।' तदनन्तर, अर्जुन पुनः श्मशानभूमि में आया और उसी शमीवृक्ष के पास आकर खड़ा हुआ। उसी समय उसके रथ की ध्वजा पर बैठा हुआ अग्नि के समान तेजस्वी विशालकाय वानर भूतों के साथ ही आकाश में उड़ गया। इसी प्रकार जो माया थी, वह भी विलीन हो गयी। फिर रथ पर सिंह के चिह्नवाली राजा विराट की ध्वजा चढ़ा दी गयी और अर्जुन के सब शस्त्र , गाण्डीव धनुष तथा तरकस पुनः शमीवृक्ष में बाँध दिये गये। तत्पश्चात् महात्मा अर्जुन सारथि बनकर बैठा और उत्तर रथी बनकर आनन्दपूर्वक नगर की ओर चला। अर्जुन ने पुनः चोटी गूँथक धारण कर ली और बृहनल्ला वेष में होकर घोड़ों की बागडोर संभाली। रास्ते में जाकर उसने उत्तर से कहा---'राजकुमार ! अब इन ग्वालों को आज्ञा दो कि शीघ्र ही नगर में जाकर प्रिय समाचार सुनावें और तुम्हारी विजय की घोषणा करें।'  अर्जुन की बात मानकर उत्तर ने तुरत ही दूतों को आज्ञा दी---'तुमलोग नगर में पहुँचकर खबर दो कि शत्रु हारकर भाग गये, अपनी विजय हुई और गौएँ जीतकर वापस लायी गयीं है।' सेनापति राजा विराट ने भी दक्षिण दिशा से गौओं को जीतकर चारों पाण्डवों को साथ लिये बड़ी प्रसन्नता के साथ नगरमें प्रवेश किया। उसने संग्राम में त्रिगर्तों पर विजय पायी थी। जिस समय अपनी सब गौएँ साथ लेकर पाण्डवों सहित वहाँ पदार्पण किया, उस समय उनकी विजयश्री से  अपूर्व शोभा हो रही थी। राजसभा में पहुँचकर उसने सिंहासन को सुशोभित किया; उसे देखकर सुहृद-संबंधियों को बड़ा हर्ष हुआ। सब लोग पाण्डवों के साथ मिलकर राजा की सेवा करने लगे। इसके बाद राजा विराट ने पूछा---'कुमार उत्तर कहाँ गया है ?' इसे उत्तर में रनिवास में रहनेवाली स्त्रियों और कन्याओं ने निवेदन किया---'महाराज ! आपके युद्ध में चले जाने पर कौरव यहाँ आये और गौओं को हरकर ले जाने लगे। तब कुमार उत्तर क्रोध में भर गया और अत्यन्त साहस के कारण अकेले ही उन्हे जीतने चल दिया। साथ में सारथि के रूप में बृहनल्ला है। कौरवों की सेना में भीष्म, कृपाचार्य, कर्ण, दुर्योधन, द्रोणाचार्य और अश्त्थामा---ये छः महारथी आये हैं।' विराट ने जब सुना कि 'मेरा पुत्र अकेले बृहनल्ला को सारथि बनाकर केवल एक रथ साथ में ले कौरवों से यु्द्ध करने गया है' तो उसे बड़ा दुःख हुआ और अपने रधान मंत्रियों से बोला---'मेरे जो योद्धा त्रिगर्तों के साथ युद्ध में घायल न हुए हों, वे बहुत सी सेना साथ लेकर उत्तर की रक्षा के लिये जायँ।' सेना को जाने की आज्ञा देकर उसने पुनः मंत्रियों से कहा---'पहले शीघ्र इस बात का पता लगाओ कि कुमार जीवित है या नहीं। जिसका सारथि एक हिजड़ा है, उसके अबतक जीवित रहने की संभावना ही नहीं है।' राजा विराट को दुःखी देखकर धर्मराज युधिष्ठिर ने हँसकर कहा---'राजन् ! यदि बृहनल्ला सारथि है तो विश्वास कीजिये, आपका पुत्र समस्त राजाओं, कौरवों तथा देवता,  असुर, सिद्ध और यक्षों को भी युद्ध में जीता जा सकता है।' इतने में उत्तर के भेजे हुए दूत विराटनगर में आ पहुँचे और उन्होंने उत्तरकुमार की विजय का समाचार सुनाया। उसे सुनकर मंत्री ने राजा के पास आकर कहा---'महाराज ! उत्तर ने सब गौओं को जीत लिया, कौरव हार गये और कुमार अपने सारथि के साथ कुशलपूर्वक आ रहे हैं।' युधिष्ठिर बोले---'यह बड़े सौभाग्य की बात है कि गौएँ जीतकर वापस लायी गयीं और कौरव हारकर भाग गये। किन्तु इसमें आश्चर्य करने की आवश्यकता नहीं है; जिसका सारथि बृहनल्ला हो, उसकी विजय तो निश्चित ही है।' पुत्र की विजय का समाचार सुनकर राजा विराट के हर्ष का ठिकाना न रहा। उनके शरीर में रोमांच हो आया। दूतों को इनाम देकर उन्होंने मंत्रियों को आज्ञा दी कि 'सड़कों के किनारे विजय पताका फहरानी चाहिये। फूलों तथा नाना प्रकार की सामग्रियों से देवताओं की पूजा होनी चाहिये। सब कुमार और प्रधान-प्रधान योद्धा गाजे-बाजे के साथ मेरे पुत्र की अगवानी में जायँ। तथा एक आदमी हाथी पर बैठकर घंटा बजाते हुए सारे नगर में मेरी विजय का समाचार सुनावे। राजा की इस आज्ञा को सुनकर समस्त नगरनिवासी, सौभाग्यशाली तरुणी स्त्रियाँ तथा सूत-मागध आदि मांगलिक वस्तुएँ हाथ में ले गाजे-बाजे के साथ विराटकुमार उत्तर को लेने के लिये आगे गये। इन सबको भेजने के पश्चात् राजा विराट बड़े प्रसन्न होकर बोले---'सैरन्ध्री ! जा, पासे ले आ; कंकजी ! अब जूआ आरम्भ करना चाहिये।' यह सुनकर युधिष्ठिर ने कहा---'मैने सुना है, अत्यन्त हर्ष से भरे हुए चालाक खिलाड़ी के साथ जूआ नहीं खेलना चाहिये। आप भी आज आनन्दमग्न हो रहे हैं, अतः आपके साथ खेलने का साहस नहीं होता। भला, आप जूआ क्यों खेलते हैं ? इसमें तो बहुत से दोष हैं। जहाँ तक सम्भव हो, इसका त्याग ही कर देना उचित है। आपने युधिष्ठिर को देखा होगा, अथवा उनका नाम तो सुना ही होगा; वे अपना विशाल साम्राज्य तथा भाइयों को भी जूए में हार गये थे। इसीलिये मैं जूए को पसंद नहीं करता। तो भी आपकी विशेष इच्छा हो तो खेलेंगे ही।' जूआ का खेल आरम्भ हो गया। खेलते-खेलते विराट ने कहा--- 'देखो, आज मेरे बेटे ने उन प्रसिद्ध कौरवों पर विजय पायी है।' युधिष्ठिर ने कहा---'बृहनल्ला जिसका सारथि हो वह भला, युद्ध क्यों नहीं जीतेगा ?' यह उत्तर सुनते ही राजा कोप में भरकर बोले---'अधम ब्राह्मण ! तू मेरे बेटे की प्रशंसा एक हिजड़े के साथ कर रहा है ? मित्र होने के कारण मैं तेरे इस अपराध को क्षमा करता हूँ; किन्तु यदि जीवित रहना चाहता है, तो फिर कभी ऐसी बात न कहना।' राजा युधिष्ठिर ने कहा---'राजन् ! जहाँ द्रोणाचार्य, भीष्म, अश्त्थामा, कर्ण, कृपाचार्य और दुर्योधन आदि महारथी युद्ध करने को आये हों, वहाँ बृहनल्ला के सिवा दूसरा कौन है जो उनका मुकाबला कर सके। जिसके समान किसी मनुष्य का बाहुबल न हुआ है न आगे होने की आशा है, जो देवता, असुर और मनुष्यों पर भी विजय पा चुका है, ऐसे वीर को सहायक पाकर उत्तर क्यों न विजयी होगा ?' विराट ने कहा---'अनेकों बार मना किया, किन्तु तेरी जुबान बंद न हुई ! सच है, यदि कोई दण्ड  देनेवाला न रहे तो मनुष्य धर्म का आचरण नहीं कर सकता !' यह कहते-कहते राजा कोप से अधीर हो गया और पासा उठकर उसने युधिष्ठिर के मुँह पर दे मारा। फिर डाँटते हुए कहा---'अब फिर कभी ऐसा न करना।' पासा जोर से लगा। युधिष्ठिर की नाक से रक्त निकलने लगा। उसकी बूँद पृथ्वी पर पड़ने के पहले ही युधिष्ठिर ने अपने दोनो हाथों से उसे रोक लिया और पास ही खड़ी हुई द्रौपदी को देखा। द्रौपदी अपने पति का अभिप्राय समझ गयी। वह जल से भरा हुआ एक सोने का कटोरा ले आयी और उसमें वह सब रक्त उसने ले लिया। तदनन्तर राजकुमार उत्तर ने नगर में बड़ी प्रसन्नता के साथ प्रवेश किया। विराटनगर के स्त्री पुरुष तथा आस-पास के प्रान्त के लोग भी उसकी अगवानी में आये थे; सबने कुमार का स्वागत सत्कार किया। इसे बाद राजभवन के द्वार पहुँचकर उसने पिता के पास समाचार भेजा। द्वारपाल ने दरबार में जाकर विराट से कहा---'महाराज ! बृहनल्ला के साथ राजकुमार उत्तर ड्योढ़ी पर खड़े हैं।' इस शुभसंवाद से राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने द्वारपाल से कहा---'दोनो को शीघ्र ही भीतर लिवा लाओ, मैं उनसे मिलने को उत्सुक हूँ।' इसी समय युधिष्ठिर ने द्वारपाल के कान में धीरे से जाकर कहा---"पहले सिर्फ उत्तर को यहाँ ले आना, बृहनल्ला को नहीं; क्योंकि उसने यह प्रतीज्ञा कर रखी है कि 'जो संग्राम के सिवा कहीं अन्यत्र मेरे शरीर में घाव कर देगा या रक्त निकाल देगा, उसका प्राण ले लूँगा।' मेरे बदन में रक्त देखकर वह क्रोध में भर जायगा और उस दशा में वह विराट को उनकी सेना, सवारी तथा मंत्रियों सहित मार डालेगा।" तत्पश्चात् पहले उत्तर ने ही सभाभवन में प्रवेश किया। आते ही पिता के चरणों में सिर झुकाया, फिर कंक को भी प्रणाम किया। उसने देखा, 'कंकजी के नासिका से रक्त बह रहा है औरवे एकान्त में भूमि पर बैठे हुए हैं, साथ ही सैरन्ध्री उनकी सेवा में उपस्थित है।' तब उसने बड़ी उतावली के साथ अपने पिता से पूछा---'राजन् ! इन्हे किसने मार दिया ? किसने यह पाप कर डाला ?' विराट ने कहा---'मैने ही इसे मारा है, यह बड़ा कुटिल है; इसका जितना आदर किया जाता है, उतने के योग्य यह कदापि नहीं है। देखो न, जब तुम्हारे शौर्य की प्रशंसा की जाती है, उस समय यह उस हिजड़े की तारीफ करने लगता है।' उत्तर बोला---'महाराज ! आपने बहुत बुरा काम किया; इन्हें जल्दी प्रसन्न कीजिये, नहीं तो ब्राह्मण का क्रोध आपको समूल नष्ट कर देगा।' बेटे की बात सुनकर राजा विराट ने कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर से क्षमा-याचना की। राजा को क्षमा माँगते देख युधिष्ठिर बोले---'राजन् ! क्षमा का व्रत तो मैने चिरकाल से ले रखा है, मुझे क्रोध आता ही नहीं। मेरी नाक से निकला हुआ यह रक्त यदि पृथ्वी पर गिर पड़ता तो इसमें कोई संदेह नहीं कि राज्य के साथ ही तुम्हारा विनाश हो जाता; इसीलिये रक्त को मैने गिरने नहीं दिया था।' जब युधिष्ठिर का लोहू निकलना बन्द हो गया, तब बृहनल्ला ने भी भीतर पहुँचकर विराट और कंक को प्रणाम किया। विराट ने अर्जुन के सामने ही उत्तर की प्रशंसा शुरु की---'कैकेयीनन्दन ! तुम्हे पाकर आज मैं वास्तव में पुत्रवान् हूँ। तुम्हारे जैसा पुत्र न तो हुआ और न होने की संभावना है। बेटा ! जो एक साथ एक हजार निशाना मारने में भी कभी नहीं चूकता उस कर्ण के साथ, इस जगत्में जिनकी बराबरी करनेवाला कोई है ही नहीं उन भीष्मजी के साथ तथा कौरवों के आचार्य द्रोण, अश्त्थामा और योद्धाओं को कँपा देनेवाले कृपाचार्य के साथ तुमने कैसे मुकाबला किया ? तथा दुर्योधन के साथ भी तुम्हारा किस प्रकार युद्ध हुआ ? यह सब मैं सुनना चाहता हूँ।' उत्तर ने कहा---महाराज ! यह मेरी विजय नहीं है। यह सब काम एक देवकुमार ने किया है। मैं तो डरकर भागा आ रहा था, किन्तु उस देवपुत्र ने मुझे लौटाया और स्वयं ही उसने रथ पर बैठकर गौओं को जीता और कौरवों को हराया है। उसी न कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, भीष्म, अश्त्थामा, कर्ण और दु्योधन---इन छः महारथियों को बाण मारकर रणभूमि से भगाया है। उसी ने उनकी सारी सेना को हराकर हँसते-हँसते उनके वस्त्र भी छीन लिये। विराट बोले---'वह महाबाहु वीर देवपुत्र कहाँ है ? मैं उसे देखना चाहता हूँ।' उत्तर ने कहा---'वह तो वहीं अन्तर्धान हो गया, कल परसों तक यहाँ प्रकट होकर दर्शन देगा।' उत्तर का यह संकेत अर्जुन के ही विषय में था, पर नपुंसक वेष में छिपे होने के कारण विराट उसे न पहचान सका। उनकी आज्ञा से बृहनल्ला ने वे सब कपड़े, जो युद्ध में लाये गये थे, राजकुमारी उत्तरा को दे दिये। उन बहुमूल्य एवं रंग-बिरंगे वस्त्रों को पाकर उत्तरा बहुत प्रसन्न हुई। इसके बाद अर्जुन राजा युधिष्ठिर के प्रकट होने के विषय में उत्तर से सलाह करके उसके अनुसार कार्य किया।