Wednesday 30 November 2016

उद्योग-पर्व---परशुरामजी और महर्षि कण्व का सन्धि के लिये अनुरोध तथा दुर्योधन की उपेक्षा

परशुरामजी और महर्षि कण्व का सन्धि के लिये अनुरोध तथा दुर्योधन की उपेक्षा
जब भगवान् कृष्ण ने ये सब बातें कहीं तो सभी सभासदों का रोमांच हो आया और वे चकित से हो गये। वे मन-ही-मन तरह-तरह से विचार करने लगे। उनके मुख से कोई भी उत्तर नहीं मिला। सब राजाओं को इस प्रकार मौन हुआ देख उस सभा में बैठे हुए महर्षि परशुरामजी कहने लगे, "राजन् ! तुम सब प्रकार का संदेह छोड़कर मेरी एक सत्य बात सुनो। वह तुम्हे अच्छी लगे तो उसके अनुसार आचरण करो। पहले दम्भोदव नाम का एक सार्वभौम राजा हो गया है। वह महारथी सम्राट नित्यप्रति प्रातःकाल उठकर ब्राह्मण और क्षत्रियों से पूछा करता था कि 'क्या ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों में कोई ऐसा शस्त्रधारी है, जो युद्ध में मेरे समान अथवा मुझसे बढ़कर हो ?' इस प्रकार कहते हुए वह राजाअत्यन्त गर्वोन्मत्त होकर इस सम्पूर्ण पृथ्वी पर विचरता था। राजा का ऐसा घमण्ड देखकर कुछ तपस्वी ब्राह्मणों ने उससे कहा, 'इस पृथ्वी पर ऐसे दो सत्पुरुष हैं, जिन्होंने संग्राम में अनेकों को परास्त किया है। उनकी बराबरी तुम कभी नहीं कर सकोगे।' इसपर उस राजा ने पूछा, 'वे वीर पुरुष कहाँ हैं ? उन्होंने कहाँ जन्म लिया है ? वे क्या काम करते हैं ? और वे कौन हैं ?' ब्राह्मणों ने कहा, 'वे नर और नारायण नाम के दो तपस्वी हैं, इस सम वे मनुष्यलोक से आये हुए हैं; तुम उनके साथ युद्ध करो। वे गन्धमादन पर्वत पर बड़ा ही घोर और अवर्णनीय तप कर रहे हैं।'  "राजा को यह बात सहन नहीं हुई। वह उसी समय बड़ी भारी सेना सजाकर उनके पास चल दिया और गन्धमादन पर जाकर उनकी खोज करने लगा। थोड़ी ही देर में उसे वे दोनो मुनि दिखायी दिये। उनके शरीर के शिराएँ तक दीखने लगीं थीं। शीत, घाम और वायु को सहन करने के कारण वे बहुत ही कृश हो गये थे। राजा उनके पास गया और चरण-स्पर्श कर उनसे कुशल पूछी। मुनियों ने भी फल, मूल, आसन और जल से राजा का सत्कार करके पूछा, 'कहिये हम आपका क्या काम करें ?' राजा ने उन्हें आरम्भ से ही सब बातें सुनाकर कहा कि 'इस समय मैं आपसे युद्ध करने के लिये आया हूँ। यह मेरी बहुत दिनों की अभिलाषा है, इसलिये इसे स्वीकार करके ही आप मेरा आतिथ्य कीजिये।' नर-नारायण ने कहा, 'राजन् ! इस आश्रम में क्रोध-लोभ आदि दोष नहीं रह सकते; यहाँ युद्ध की तो कोई बात ही नहीं है, फिर अस्त्र-शस्त्र और कुटिल प्रकृति के लोग कैसे सह सकते हैं ? पृथ्वी पर बहुत-से क्षत्रिय हैं, तुम किसी दूसरी जगह जाकर युद्ध के लिये प्रार्थना करो।' नर-नारायण के इसी प्रकार बार-बार समझाने पर भी दम्भोदव की युद्धलिप्सा शान्त न हुई और इसके लिये उनसे आग्रह करता ही रहा। "तब भगवान् नर ने एक मुट्ठी सींके लेकर कहा, 'अच्छा, तुम्हे युद्ध की बड़ी लालसा है तो अपने हथियार उठा लो और अपनी सेना को तैयार करो।' यह सुनकर दम्भोदव और उनके सैनिकों ने उनपर बड़े पैने बाणों की वर्षा करना आरम्भ कर दिया। भगवान् नर ने एक सींक को अमोघ अस्त्र के रूप में परिणत करके छोड़ा। इससे यह बड़े आश्चर्य की बात हुई कि मुनिवर नर ने उन सब वीरों के आँख, नाक और कानों को सींकों से भर दिया। इसी प्रकार सारे आकाश को सफेद सींकों से भर दिया। इसी प्रकार सारे आकाश को सफेद सीकों से भरा देखकर राजा दम्भोदव उनके चरणों में गिर पड़ा और 'मेरी रक्षा करो, मेरी रक्षा करो' इस प्रकार चिल्लाने लगा। तब शरणागतवत्सल नर ने शरणापन्न राजा से कहा, 'राजन् ! तुम ब्राह्मणों की सेवा करो और धर्म का आचरण करो; ऐसा काम फिर कभी मत करना। तुम बुद्धि का आश्रय लो और लोभ को छोड़ दो तथा अहंकारशून्य, जितेन्द्रिय, क्षमाशील, मृदुल और शान्त होकर प्रजा का पालन करो। अब भविष्य में तुम किसी का अपमान मत करना।" "इसके बाद राजा दम्भोदव उन मुनीश्वरों के चरणों में प्रणाम कर अपने नगर मे लौट आया और अच्छी तरह धर्मानुकूल व्यवहार करने लगा। इस प्रकार उस समय नर ने बड़ा भारी काम किया था। इस समय नर ही अर्जुन है। अतः जबतक वे अपने श्रेष्ठ धनुष गाण्डीव पर बाण न चढ़ावें, तभीतक तुम मान छोड़कर अर्जुन की शरण ले लो। जो संपूर्ण जगत् के निर्माता, सबके स्वामी और समस्त कर्मों के साक्षी हैं, वे नारायण अर्जुन के सखा हैं। इसलिय युद्ध में उनके पराक्रम को सहना तुम्हारे लिये कठिन होगा। अर्जुन में अगनित गुण हैं और श्रीकृष्ण तो उनसे भी बढ़कर हैं। कुन्तीपुत्र अर्जुन के गुणों का तो तुम्हें भी कई बार परिचय मिल चुका है। जो पहले नर और नारायण थे वे ही इस समय अर्जुन और श्रीकृष्ण हैं। उन दोनों को तुम समस्त पुरुषों में श्रेष्ठ और बड़े वीर समझो। यदि तुम्हे मेरी बात ठीक जान पड़ती हो और मेरे प्रति किसी प्रकार का संदेह न हो तो तुम सद्बुद्धि का आश्रय लेकर पाण्डवों के साथ सन्धि कर लो।" परशुरामजी का भाषण सुनकर महर्षि कण्व भी दुर्योधन से कहने लगे---लोकपितामह ब्रह्मा और नर-नारायण---ये अक्षय और अविनाशी है। अदिति के पुत्रों में केवल विष्णु ही सनातन, अजेय, अविनाशी, नित्य एवं सबके ईश्वर हैं। उनके सिवा चन्द्रमा, सूर्य, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, ग्रह और तारे----ये सभी विनाश का कारण उपस्थित होने पर भी नष्ट हो जाते हैं। जब संसार का प्रलय होता है तो ये सभी पदार्थ तीनों लोकों को त्यागकर नष्ट हो जाते हैं और सृष्टि का आरम्भ होने पर बार-बार आरम्भ होने पर बार-बार उत्पन्न होते रहते हैं। इन सब बातों पर विचार करके तुम्हें धर्मराज युधिष्ठिर के साथ सन्धि कर लेनी चाहिये, जिससे कौरव और पाण्डव मिलकर पृथ्वी का पालन करे। दुर्योधन ! तुम ऐसा मत समझो कि मैं बड़ा बली हूँ। संसार में बलवानों की अपेक्षा भी दूसरे बली पुरुष भी दिखायी देते हैं। सच्चे शूरवीरों के सामने सेना की शक्ति कुछ काम नहीं करती। पाण्डवलोग तो सभी देवताओं के समान शूरवीर और पराक्रमी हैं। वे स्वयं वायु, इन्द्र, धर्म और दोनो अश्विनीकुमार ही हैं। इन देवताओं की ओर तो तुम देख भी नहीं सकते। इसलिये इनसे विरोध छोड़कर सन्धि कर लो। तुम्हे इन तीर्थस्वरूप श्रीकृष्ण के द्वारा अपने कुल की रक्षा का प्रयत्न करना चाहिये। यहाँ महान् तपस्वी नारदजी विराजमान हैं। ये श्रीविष्णुभगवान् के महात्म्य को प्रत्यक्ष जानते हैं और वे चक्र-गदाधर श्रीविष्णु ही यहाँ श्रीकृष्णरूप में विद्यमान हैं। महर्षि कण्व की बात सुनकर दुर्योधन लम्बी-लम्बी साँस लेने लगा, उसकी त्योरी चढ़ गयी और वह कर्ण की तरफ देखकर जोर-जोर से हँसने लगा। उस दुष्ट ने कण्व के कथन पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया और ताल ठोककर इस प्रकार कहने लगा, 'महर्षे ! जो कुछ होनेवाला है और जैसी मेरी गति होनी है, उसी के अनुसार ईश्वर ने मुझे रचा है और वैसा ही मेरा आचरण है। उसमें आपके कथन से क्या होना है ?"

Sunday 27 November 2016

उद्योग-पर्व---श्रीकृष्ण का कौरवों की सभा में आना तथा सबको पाण्डवों का संदेश सुनाना

श्रीकृष्ण का कौरवों की सभा में आना तथा सबको पाण्डवों का संदेश सुनाना
प्रातःकाल उठकर श्रीकृष्ण ने स्नान, जप और अग्निहोत्र से निवृत हो उदित होते हुए सूर्य को उपस्थान किया और फिर वस्त्र और आभूषणादि धारण  किये। इसी समय राजा दुर्योधन और सबल के पुत्र शकुनि ने उसके पास आकर कहा---'महाराज धृतराष्ट्र तथा भीष्मादि सब कौरव महानुभाव सभा में आ गये हैं और आपकी बाट देख रहे हैं।'  तब श्रीकृष्णचन्द्र ने बड़ी मधुरवाणी से उन दोनो का अभिनन्दन किया। इसके बाद सारथि ने आकर श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम किया और उनका उत्तम घोड़ों से जुता हुआ शुभ्र रथ लाकर खड़ा कर लिया। श्रीयदुनाथ उस रथ पर सवार हुए। उस समय कौरव वीर उन्हें सब ओर से घेरकर चले। भगवान् के पीछे उन्हीं के रथ में समस्त धर्मों को जाननेवाले विदुरजी भी सवार हो गये तथा दुर्योधन और शकुनि एक दूसरे रथ में बैठकर उनके पीछे-पीछे चले। धीरे-धीरे भगवान् का रथ राजसभा के द्वार पर आ गया और उससे उतरकर भीतर सभा में गये।जिस समय श्रीकृष्ण विदुर और सात्यकि का हाथ पकड़कर सभाभवन पधारे, उस समय उनकी कान्ति से समस्त कौरवों  को निस्तेज सा कर दिया। उनके आगे-आगे दुर्योधन और कर्ण तथा पीछे कृतवर्मा और वृष्णिवंशी वीर चल रहे थे। सभा में पहुँचने पर उनका मान करने के लिये राजा धृतराष्ट्र तथा भीष्म, द्रोण आदि सभी लोग अपने आसनों से उठकर खड़े हो गये। श्रीकृष्ण के लिये राजसभा में महाराज धृतराष्ट्र की आज्ञा से सर्वतोभद्र नाम का सुवर्णमय सिंहासन रखा गया था। उसपर बैठकर श्रीश्यामसुन्दर मुस्कुराते हुए राजा धृतराष्ट्र, भीष्म, द्रोण तथा दूसरे राजाओं से बातचीत करने लगे तथा समस्त कौरव और राजाओं ने सभा में पधारे हुए राजाओं ने सभा में पधारे हुए श्रीकृष्ण का पूजन किया। इस समय श्रीकृष्ण ने सभा के भीतर ही अन्तरिक्ष में नारदादि ऋषियों को खड़े देखा। तब उन्होंने धीरे से शान्तनुनन्दन भीष्मजी से कहा, 'इस राजसभा को देखने के लिये ऋषिलोग आये हुए हैं। उनका आसनादि देकर बड़े सत्कार से आवाहन कीजिये। उनके बिना बैठे यहाँ कोई भी बैठ नहीं सकेगा। उन शुद्धचित्त मुनियों की शीघ्र ही पूजा कीजिये।' इतने ही में मुनियों को सभा के द्वार पर आया देख भीष्मजी ने बड़ी शीध्रता से सेवकों आसन लाने की आज्ञा दी। वे तुरन्त ही बहुत से आसन ले आये। जब ऋषियों ने आसन पर बैठकर अर्ध्र्धादि ग्रहण कर लिया तो श्रीकृष्ण तथा अन्य सब राजा भी अपने-अपने आसनों पर बैठ गये। महामति विदुरजी श्रीकृष्ण के सिंहासन से लगे हुए एक मणिमय आसनपर, जिसपर श्वेत रंग का मृगचर्म बिछा हुआ था, बैठे। राजाओं को श्रीकृष्ण का बहुत दिनों पर दर्शन हुआ था; अतः जैसे अमृत पीते-पीते कभी तृप्ति नहीं होती, उसी प्रकार वेउन्हें देखते-देखते अघाते नहीं थे। उस सभा में सभी का मन श्रीकृष्ण में लगा हुआ था, इसलिये किसी के मुख से कोई भी बात नहीं निकलती थी। जब सभा में सब राजा मौन होकर बैठ गये तो श्रीकृष्ण ने महाराज धृतराष्ट्र की ओर देखते हुए बड़ी गम्भीर वाणी में कहा---राजन् ! मेरा यहाँ आने का उद्देश्य यह है कि क्षत्रिय वीरों का संहार हुए बिना ही कौरव और पाण्डवों में सन्धि हो जाय। इस समय राजाओं में कुरुवंश ही सबसे श्रेष्ठ माना जाता है। इसमें शास्त्र और सदाचार का सभ्यक आदर है तथा और भी अनेकों शुभ गुण हैं। अन्य राज्यवंशों की अपेक्षा कुरुवंशियों में कृपा, दया, करुणा, मृदुता, सरलता, क्षमा और सत्य---ये विशेषरूप से पाये जाते हैं। इस प्रकार के गुणों से गौरवान्वित इस वंश में आपके कारण यदि कोई अनुचित बात हो तो यह उचित नहीं है। यदि कौरवों में गुप्त या प्रकटरूप से कोई असद्व्यवहार होता है तो उसे रोकना तो आपही का काम है। दुर्योधनादि आपके पुत्र धर्म और अर्थ की ओर से मुँह फेरकर क्रूर पुरुषों के से आचरण करते हैं। अपने खास भाइयों के साथ इनका अशिष्ट पुरुषों का-सा आचरण है तथा चित्त पर लोभ का भूत सवार हो जाने से इन्होंने धर्म की मर्यादा को एकदम छोड़ दिया है। ये सब बातें आपको मालूम ही हैं। यह भयंकर आपत्ति इस समय कौरवों पर आयी है और यदि इसकी उपेक्षा की गयी तो यह सारी पृथ्वी को चौपट कर देगी। यदि आप अपने कुल को नाश से बचाना चाहें तो अब भी इसका निवारण किया जा सकता है। मेरे विचार से इन दोनो पक्षों में सन्धि होनी बहुत कठिन नहीं है। इस समय शान्ति कराना आपके और मेरे ही हाथ में है। आप अपने पुत्रों को मर्यादा में रखिये और मैं पाण्डवों को नियम में रखूँगा। आपके पुत्रों को बाल-बच्चों सहित आपकी आज्ञा में रहना ही चाहिये। यदि ये आपकी आज्ञा में रहेंगे तो इनका बड़ा भारी हित हो सकता है। महाराज ! आप पाण्डवों की रक्षा में रहकर धर्म और अर्थ का अनुष्ठान कीजिये। आपको ऐसे रक्षक प्रयत्न करने पर भी नहीं मिल सकते। भरतश्रेष्ठ ! जिनके अंदर भीष्म, द्रोण, कृप, कर्ण, विविंशति, अश्त्थामा, विकर्ण, सोमदत्त, बाह्लीक, युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव, सात्यकि और युयुत्सु जैसे वीर हों उनसे युद्ध करने की किस बुद्धिहीन की हिम्मत हो सकती है। कौरव और पाण्डवो के मिल जाने से आप समस्त लोकों का आधिपत्य प्राप्त करेंगे था शत्रु आपका कुछ भी न बिगाड़ सकेंगे; तथा जो राजा आपके समकक्ष या आपसे बड़े हैं, वे भी आपके साथ सन्धि कर लेंगे। ऐसा होने से आप अपने पुत्र, पौत्र, पिता भाई और सुहृदों से सब प्रकार सुरक्षित रहकर सुख से जीवन व्यतीत कर सकेंगे। यदि आप पाण्डवों को ही आगे रखकर इनका पूर्ववत् आदर करेंगे तो इस सारी पृथ्वी का आनन्द से भोग कर सकेंगे। महाराज ! युद्ध करने में तो मुझे बड़ा भारी संहार दिखायी दे रहा है। इस प्रकार दोनो पक्षों का नाश कराने में आपको क्या धर्म दिखायी देता है। अतः आप इस लोक की रक्षा कीजिये और ऐसा कीजिये, जिसमें आपकी प्रजा का नाश न हो। यदि आप सत्वगुण को धारण कर लेंगे तो सबकी रक्षा ठीक हो जायगी। महाराज ! पाण्डवों ने आपको प्रणाम कहा है और आपकी प्रसन्नता चाहते हुए ह प्रार्थना की है कि 'हमने अपने साथियों के सहित आपकी आज्ञा से ही इतने दिनों तक दुःख भोगा है। हम बारह वर्ष तक वन में रहे हैं और फिर तेरहवाँ वर्ष जनसमूह में अज्ञातवासरूप से रहकर बिताया है। वनवास की शर्त होने के समय हमारा यही निश्चय था कि जब हम लौटेंगे तो आप हमारे ऊपर पिता की तरह रहेंगे। हमने उस शर्त का पूरी तरह पालन किया है; इसलिये अब आप भी जैसा ठहरा था, वैसा ही वर्ताव कीजिये। आप धर्म और अर्थ का स्वरूप जानते हैं, इसलिये आपको हमारी रक्षा करनी चाहिये। गुरु के प्रति शिष्य का जैसा गौरवयुक्त व्यवहार होना चाहिये, आपके साथ हमारा वैसा ही वर्ताव है। इसलिये आप हमारे प्रति गुरु का-सा आचरण कीजिये। हमलोग यदि मार्गभ्रष्ट हो रहे हैं तो आप हमें ठीक रास्ते पर लाइये और स्वयं भी सन्मार्ग पर स्थित होइये।' इसके सिवा आपके उन पुत्रों ने इन सभासदों से कहलाया है कि जहाँ धर्मज्ञ सभासद् हों, वहाँ कोई अनुचित बात नहीं होनी चाहिेये। यदि सभासदों को देखते हुए अधर्म से धर्म का और असत्य से सत्य का नाश हो तो उनका भी नाश हो जाता है। इस समय पाण्डवलोग धर्म पर दृष्टि लगाये चुपचाप बैठे हैं। उन्होंने धर्म के अनुसार सत्य और न्याययुक्त बात ही कही है। राजन् ! आप पाण्डवों को राज्य दे दीजिये---इसके सिवा आपसे और क्या कहा जा सकता है ?  इस सभा में जो राजालोग बैठे हैं, उन्हें कोई और बात कहनी हो तो कहें। यदि धर्म और अर्थ का विचार करके मैं सच्ची बात कहूँ तो यही कहना होगा कि इन क्षत्रियों को आप मृत्यु के फंदे से छुड़ा दीजिये।भरतश्रेष्ठ ! शान्ति धारण कीजिये, क्रोध के वश न होइये और पाण्डवों को उनका यथोचित पैतृक राज्य दे दीजिये। ऐसा करके आप अपने पुत्रों सहित आनन्द से भोग कीजिये। राजन् ! इस समय आप अपने अर्थ को अनर्थ मान रखा है। आपके पुत्रों पर लोभ ने अधिकार जमा रखा है, आप उन्हें जरा काबू में रखिये। पाण्डव तो आपकी सेवा के लिये भी तैयार हैं। इन दोनों आपको जो बात अधिक हितकर जान पड़े, उसी पर डट जाइये।

Tuesday 22 November 2016

उद्योग-पर्व---राजा दुर्योधन का निमंत्रण छोड़कर भगवान् का विदुरजी के यहाँ भोजन तथा उनसे बातचीत करना

राजा दुर्योधन का निमंत्रण छोड़कर भगवान् का विदुरजी के यहाँ भोजन तथा उनसे बातचीत करना
श्रीकृष्ण के पहुँचते ही दुर्योधन अपने मंत्रियों सहित आसन से खड़ा हो गया। भगवान् दुर्योधन और उसके मंत्रियों से मिलकर फिर वहाँ एकत्रित हुए सब राजाओं से उनकी आयु के अनुसार मिले। इसके पश्चात् वे एक अत्यन्त विशद सुवर्ण के पलंग पर बैठ गये। स्वागत सत्कार के अनन्तर राजा दुर्योधन ने भोजन के लिये प्रार्थना की, किन्तु श्रीकृष्ण ने उसे स्वीकार नहीं किया। तब दुर्योधन ने श्रीकृष्ण से आरम्भ में मधुर किन्तु परिणाम में शठता से भरे हुए शब्दों में कहा, 'जनार्दन ! हम आपको जो अच्छे-अच्छे खाद्य और पेय पदार्थ तथा वस्त्र और शय्याएँ भेंट कर रहे हैं, उन्हें आप स्वीकार क्यों नहीं करते ? आपने तो दोनो ही पक्षों को सहायता दी है और आप हित भी दोनो का ही करना चाहत हैं। इसके सिवा आप महाराज धृतराष्ट्र के सम्बन्धी और प्रिय भी हैं ! धर्म और अर्थ का रहस्य भी आप अच्छी तरह जानते ही हैं। अतः इसका क्या कारण है, यह मैं सुनना चाहता हूँ।' दुर्योधन के इस प्रकार पूछने पर महामना मधुसूदन ने अपनी विशाल भुजा उठाकर मेघ के समान गम्भीर वाणी से कहा 'राजन् ! ऐसा नियम है कि दूत अपना उद्देश्य पूर्ण होने पर ही भोजनादि ग्रहण करते हैं। अतः जब मेरा काम पूरा हो जाय, तब तुम भी मेरा और मेरे मंत्रियों का सत्कार करना। मैं काम, क्रोध, द्वेष,स्वार्थ, कपट अथवा लोभ में पड़कर धर्म को किसी प्रकार नहीं छोड़ सकता। भोजन या तो प्रेमवश किया जाता है या आपत्ति में पड़कर किया जाता है। सो तुम्हारा तो मेरे प्रति ्रेम नहीं है और मैं किसी आपत्ति में ग्रस्त नहीं हूँ। देखो, पाण्डव तो तुम्हारे भाई ही हैं; वे सदा अपने स्नेहियों के अनुकूल रहते हैं और उनमें सभी सद्गुण विद्यमान हैं। फिर भी तुम बिना कारण जन्म से ही उनसे द्वेष करते हो। उनके साथ द्वेष करना ठीक नहीं है। वे तो सर्वदा अपने धर्ममें ही स्थित रहते हैं। उनसे जो द्वेष करता है, वह मुझसे भी द्वेष करता है और जो उनके अनुकूल है, वह मेरे भी अनुकूल है। धर्मात्मा पाण्डवों के साथ तो तुम मुझे एकरूप हुआ ही समझो। जो पुरुष काम और क्रोध का गुलाम है तथा मूर्खतावश गुणवानों और विद्वानों से द्वेष करता है, उसी को अधम कहते हैं। तुम्हारे इस सारे अन्न का सम्बन्ध दुष्ट पुरुषों से है, इसलिये यह खानेयोग्य नहीं है। मेरा तो यही विचार है कि मुझे केवल विदुरजी का अन्न खाना चाहिये।'  दुर्योधन से ऐसा कहकर श्रीकृष्ण उसके महल से निकलकर विदुरजी के घर आ गये। विदुरजी के घर पर ही उनसे मिलने के लिये भीष्म, द्रोण, कृप, बाह्लीक तथा कुछ अन्य कुरुवंशी आये। उन्होंने कहा, 'वार्ष्णेय ! हम आपको उत्तम-उत्तम पदार्थों से पूर्ण अनेकों भवन समर्पित करते हैं, वहाँ चलकर आप विश्राम कीजिये।'  उनसे श्रीमधुसूदन ने कहा---'आप सब लोग पधारें, आप मेरा सब प्रकार सत्कार कर चुके।' उनसे श्रीमधुसूदन ने कहा---'आप सब लोग पधारें, आप मेरा सब प्रकार सत्कार कर चुके।' कौरवों के चले जाने पर विदुरजी ने बड़े उत्साह से श्रीकृष्ण का पूजन किया। फिर उन्होंने उन्हें अनेक प्रकार के उत्तम और पुणयुक्त भोज्य और पेय पदार्थ दिये। उन पदार्थों से श्रीकृष्ण ने पहले ब्राह्मणों को तृप्त किया और फिर अपने अनुयायियों के सहित बैठकर स्वयं भोजन किया। जब भोजन के पश्चात् भगवान् विश्राम करने लगे तो रात्रि के समय विदुरजी ने उनसे कहा---"केशव ! आप यहाँ आये, यह विचार आपने ठीक नहीं किया। मन्दमति दुर्योधन धर्म और अर्थ दोनो को ही छोड़ बैठा है। वह क्रोधी और गुरुजनों की आज्ञा का उल्लंघन करनेवाला है; धर्मशास्त्र को तो वह कुछ समझता ही नहीं, अपनी ही हठ रखता है। उसे किसी सन्मार्ग में ले जाना ही असंभव है। वह विषयों का कीड़ा, अपने को बड़ा बुद्धिमान माननेवाला, मित्रों से द्रोह करनेवाला, सभी  को शंका की दृष्टि से देखनेवाला, कृतध्न और बुद्धिहीन है। इसके सिवा उसमें और भी अनेकों दोष हैं। आप उससे हित की बात कहेंगे तो भी वह क्रोधवश कुछ सुनेगा नहीं। भीष्म, द्रोण, कृप, कर्ण, अश्त्थामा और जयद्रथ के कारण उसे इस राज्य को स्वयं ही हड़प जाने का पूरा भरोसा है। इसलिये उसे सन्धि करने का विचार ही नहीं होता। उसे तो पूरा विश्वास है कि अकेला कर्ण ही मेरे सारे शत्रुओं को जीत लेगा। इसलिये वह सन्धि नहीं करेगा।आप तो सन्धि का प्रयत्न कर रहे हैं; किन्तु धृतराष्ट्र के पुत्रों ने तो यह प्रतिज्ञा कर ली है कि 'पाण्डवोंको उनका भाग कभी नहीं देंगे।' जब उनका ऐसा विचार है तो उनसे कुछ भी कहना व्यर्थ ही होगा। "श्रीकृष्ण ! पहले जिन राजाओं ने आपके साथ वैर ठाना था, उन सबने अब आपके भय से दुर्योधन का आश्रय लिया है। वे सब योद्धा दुर्योधन के साथ मेल करके अपने प्राण तक निछावर करके पाण्डवों से लड़ने को तैयार हैं। अतः आप उन सबके बीच में जायँ---यह बात मुझे अच्छी नहीं लगती। यद्यपि देवतालोग भी आपके सामने नहीं टिक सकते और मैं आपके प्रभाव, बल और बुद्धि को अच्छी तरह जानता हूँ, तथापि आपके प्रति प्रेम और सौहार्द का भाव होने के कारण मैं ऐसा कह रहा हूँ। कमलनयन ! आपका दर्शन करके आज मुझे जैसी प्रसन्नता हो रही है, वह मैं आपसे क्या कहूँ ? आप तो सभी देहधारियों के अन्तरात्मा हैं, आपसे छिपा ही क्या है ?" श्रीकृष्ण ने कहा---विदुरजी ! एक महान् बुद्धिमान को जैसी बात कहनी चाहिये और मुझ जैसे प्रेमपात्र से आपको जो कुछ कहना चाहिये तथा आपके मुख से जैसा धर्म और अर्थ से युक्त वचन निकलना चाहिये, वैसी ही बात आपने माता-पिता के समान स्नेहवश कही है। मैं दुर्योधन की दुष्टता और क्षत्रियवीरों के वैरभाव आदि सब बातों को जानकर ही आज कौरवों के पास आया हूँ। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह धर्मतः प्राप्त कार्य को करे। यथाशक्ति प्रयत्न करने पर भी यदि वह उसे पूरा न कर सके तो भी उसे पुण्य तो अवश्य ही मिल जायगा---इसमें मुझे संदेह नहीं है। दुर्योधन और उसके मंत्रियों को भी मेरी शुभ, हितकारी एवं धर्म एवं अर्थ के अनुकूल बात माननी ही चाहिये। मैं तो निष्कपटभाव से कौरव, पाण्डव और पृथ्वीतल के समस्त क्षत्रियों के हित का प्रयत्न करूँगा। इस प्रकार हित का प्रयत्न करने पर भी यदि दुर्योधन मेरी बात में शंका करे तो भी मेरा चित्त तो प्रसन्न ही होगा और मैं अपने कर्तव्य से उऋण भी हो जाऊँगा।' श्रीकृष्ण सन्धि करा सकते थे तो भी उन्होंने क्रोध के आवेश में आये हुए कौरव-पाण्डवों को रोका नहीं'---यह बात मूढ़ अधर्मी न कहें, इसलिये मैं यहाँ सन्धि कराने के लिये आया हूँ। दुर्योधन ने यदि मेरी धर्म और अर्थ के अनुकूल हित की बात सुनकर भी उसपर ध्यान न दिया तो वह अपने किये का फल भोगेगा। इसके पश्चात् यदुकुलभूषण श्रीकृष्ण पलंग पर लेट गये। वह सारी रात महात्मा विदुर और श्रीकृष्ण के इसी प्रकार बात करते-करते बीत गयी।

Thursday 17 November 2016

उद्योग-पर्व---श्रीकृष्ण का हस्तिनापुर में प्रवेश तथा राजा धृतराष्ट्र, विदुर और कुन्ती के यहाँ जाना

श्रीकृष्ण का हस्तिनापुर में प्रवेश तथा राजा धृतराष्ट्र, विदुर और कुन्ती के यहाँ जाना
इधर श्रीकृष्ण के नगर के समीप पहुँचने पर दुर्योधन के सिवा और सब धृतराष्ट्रपुत्र तथा भीष्म, द्रोण और कृप आदि खूब बन-ठनकर उनकी आगवानी के लिये आये। उनके सिवा अनेकों नगर-वासी भी कृष्णदर्शन की लालसा से पैदल और तरह-तरह की सवारियों में बैठकर चले। रास्तें ही भी भीष्म, द्रोण और सब धृतराष्ट्रपुत्रों से भगवान से समागम हो गया और  उनसे घिरकर उन्होंने हस्तिनापुर में प्रवेश किया। श्रीकृष्ण के सम्मान के लिये सारा नगर खूब सजाया गया था।  राजमार्ग से तो अनेकों बहुमूल्य और दर्शनीय वस्तुएँ बड़े ढ़ंग से सजायी गयी थी। श्रीकृष्ण को देखने के लिये उत्कण्ठा के कारण उस दिन कोई भी स्त्री, बूढ़ा या बालक घर में नहीं टिका। सभी लोग राजमार्ग में आकर पृथ्वी पर झुक-झुककर श्रीकृष्ण की स्तुति कर रहे थे। श्रीकृष्णचन्द्र ने इस सारी भीड़ को पार करके महाराज धृतराष्ट्र के राजभवन में प्रवेश किया। यहमहल आसपास के अनेकों भवनों से सुशोभित था। इनमें तीन ड्योढ़ियाँ थीं। उन्हें लाँघकर श्रीकृष्ण राजा धृतराष्ट्र के पास पहुँच गये। श्रीरघुनाथजी के पहुँचते ही कुरुराज धृतराष्ट्र, भीष्म, द्रोण आदि सभी सभासदों के सहित खड़े हो गये। उस समय कृपाचार्य, सोमदत्त और बाह्लीक ने भी अपने आसनों से उठकर श्रीकृष्ण का सत्कार किया। श्रीकृष्ण ने राजा धृतराष्ट्र और पितामह भीष्म के पास जाकर वाणी द्वारा उनका सत्कार किया। इस प्रकार उनकी धर्मानुसार पूजा कर वे क्रमशः सभी राजाओं से मिले और आयु के अनुसार उनका यथायोग्य सम्मान किया।श्रीकृष्ण के लिये वहाँ एक सुन्दर सुवर्ण का सिंहासन रखा हुआ था। राजा धृतराष्ट्र की आज्ञा से वे उसपर विराज गये। महाराज धृतराष्ट्र ने भी उनका विधिवत् पूजन करके सत्कार किया। श्रीकृष्ण ने राजा धृतराष्ट्र और पितामह भीष्म के पास जाकर वाणी द्वारा उनका सत्कार किया। इस प्रकार उनकी धर्मानुसार पूजा कर वे क्रमशः सभी राजाओं से मिले और आयु के अनुसार उनका यथायोग्य सम्मान किया। श्रीकृष्ण के लिये वहाँ एक सुवर्ण का सिंहासन रखा हुआ था। राजा धृतराष्ट्र की आज्ञा से वे उसपर विराज गये। महाराज धृतराष्ट्र ने उनका विधिवत् पूजन करके सत्कार किया। इसके पश्चात् कुरुराज से आज्ञा लेकर वे विदुरजी के भव्य भवन में आये।विदुरजी ने सब प्रकार की मांगलिक वस्तुएँ लेकर उनकी आगवानी की और अपने घर लाकर पूजन किया। फिर वे कहने लगे---'कमलनयन ! आज आपके दर्शन करके मुझे जैसा आनन्द हो रहा है, वह मैं आपसे किस प्रकार कहूँ; आप तो समस्त देहधारियों के अन्तरात्मा ही हैं।' अतिथि-सत्कार हो जाने पर धर्मज्ञ विदुरजी ने भगवान् से पाण्डवों की कुशल पूछी। विदुरजी पाण्डवों के प्रेमी तथा धर्म और अर्थ में तत्पर रहनेवाले थे।क्रोध तो उन्हें स्पर्श भी नहीं करता था। अतः श्रीकृष्ण ने, पाण्डवलोग जो कुछ करना चाहते थे, वे सब बातें उन्हें विस्तार से सुना दी। इसके बाद दोपहरी बीतने पर भगवान् श्रीकृष्ण अपनी बुआ कुन्ती के पास गये। विदुरजी ने सब प्रकार की मांगलिक वस्तुएँ लेकर उनकी आगवानी की और अपने घर लाकर पूजन किया। फिर वे कहने लगे---'कमलनयन ! आज आपके दर्शन करके मुझे जैसा आनन्द हो रहा है, वह मैं किस प्रकार कहूँ; आप तो समस्त देहधारियों की अन्तरात्मा ही हैं। विदुरजी पाण्डवों के प्रेमी तथा धर्म और अर्थ में तत्पर रहनेवाले थे, क्रोध तो उन्हें स्पर्श भी नहीं करता था। अतः श्रीकृष्ण ने, पाण्डवलोग जो कुछ करना चाहते थे, वे सब बातें उन्हें विस्तार से सुना दीं। इसके बाद दोपहरी बीतने पर भगवान् श्रीकृष्ण अपनी बुआ कुन्ती के पास गये। श्रीकृष्ण को आये देख वह उनके गले से चिपट गयी और अपने पुत्रों को याद करके रोने लगी। आज पाण्डवों के सहचर श्रीकृष्ण को भी उसने बहुत दिनों पर देखा था। इसलिये उन्हें देखकर उसकी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गयी। तब अतिथिसत्कार हो जाने पर श्रीश्यामसुन्दर बैठ गये तो कुन्ती ने गद्गद्कण्ठ होकर कहा, 'माधव ! मेरे पुत्र बचपन से ही गुरुजनों की सेवा करनेवाले थे। उनका आपस में बड़ा स्नेह था, दूसरे लोग उनका आदर कपते थे और वे भी सबके प्रति समानभाव रखते थे। किन्तु  इन कौरवों ने कपटपूर्वक उन्हें राजच्युत कर दिया और अनेकों मनुष्यों के बीच में रहने योग्य होने पर भी वे निर्जन वन में भटकते रहे। वे हर्ष-शोक को वश में कर चुके थे और सर्वदा सत्य-भाषण करते थे। इसलिये उन्होंने उसी समय राज्य से और भोगों से मुँह मोड़ लिया और मुझे रोती छोड़कर वन को चल दिये। भैया ! जब वे वन को गये थे, मेरे हृदय को तो वे उसी समय साथ लेकर गये थे। मैं तो अब बिलकुल हृदयहीना हूँ। जो बड़ा ही लज्जावान्,  सत्य का भरोसा रखनेवाला, जितेन्द्रिय, प्राणियों पर दया करनेवाला, शील और सदाचार से सम्पन्न, धर्मज्ञ, सर्वगुणसम्पन्न और तीनों लोकों का राजा बनने योग्य है। समस्त कुरुवंशियों में श्रेष्ठ वह अजातशत्रु युधिष्ठिर इस समय कैसा है ? जिसमें दस हजार हाथियों का बल है, जो वायु के समान वेगवान् है, अपने भाइयों का नित्य प्रिय करने के कारण जो उन्हें बहुत प्यारा है, जिसने भाइयों के सहित कीचक तथा क्रोधवश, हिडिम्ब और बक आदि असुरों को बात-की-बात में मार डाला था, अतः जो पराक्रम में इन्द्र और क्रोध में साक्षात् शंकर के समान है, उस महाबली भीम का इस समय क्या हाल है ? जो तेज में सूर्य, मन के संयम में महर्षि, क्षमा में पृथ्वी और पराक्रम में इन्द्र के समान है तथा समस्त प्राणियों को जीतनेवाला और स्वयं किसी के काबू में आनेवाला नहीं है, वह तुम्हारा भाई और सखा अर्जुन इस समय कैसे हैं ?  सहदेव भी बड़ा ही दयालु, लजालु, अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञाता, मृदुलस्वभाव और धर्मज्ञ और मुझे अत्यन्त प्रिय हैं। वह धर्म और अर्थ में कुशल तथा अपने भाइयों की सेवा करने में तत्पर रहता है। उसके शुभ आचरण की सब भाई बड़ी प्रशंसा किया करते हैं। इस समय उसकी क्या दशा है ? नकुल भी बड़ा सुकुमार, शूरवीर और दर्शनीय युवा है। अपने भाइयों का तो वह बाह्य प्राण ही है। वह अनेक प्रकार के युद्ध के में कुशल है तथा बड़ा ही धनुर्धर और पराक्रमी है। कृष्ण ! इस समय वह कुशल से है न ? पुत्रवधू द्रौपदी तो सभी गुणों से सम्पन्न, परम रूपवती एवं अच्छे कुल की बेटी है।  मुझे वह अपने सब पुत्रों से भी अधिक प्रिय है। वह सत्यवादिनी अपने प्यारे पुत्रों को भी छोड़कर वनवासी की सेवा कर रही है। इस समय उसका क्या हाल है ? "कृष्ण ! मेरी दृष्टि में कौरव और पाण्डवों में कभी कोई भेद-भाव न रहा। उसी सत्य के प्रभाव से अब मैं शत्रुओं का नाश होने पर पाण्डवों सहित तुमको राज्यसुख भोगते देखूँगी। परंतप ! जिस समय अर्जुन का जन्म होने पर मैं सौरी में थी, उस रात्रि में मुझे जो आकाशवाणी हुई थी कि 'तेरा यह पुत्र सारी पृथ्वी को जीतेगा, इसका यश स्वर्ग तक फैल जायगा, यह महायुद्ध में कौरवों को मारकर उनका राज्य प्राप्त करेगा और फिर अपने भाइयों सहित तीन अश्वमेध यज्ञ करेगा' उसे मैं दोष नहीं देती; मैं तो सबसे महान् नारायण-स्वरूप धर्म को ही नमस्कार करती हूँ। वही सम्पूर्ण जगत् का विधाता है और वही संपूर्ण प्रजा को धारण करनेवाला है। यदि धर्म सच्चा है तो तुम भी वह सब काम पूरा कर लोगे, जो उस समय देववाणी ने कहा था। "माधव ! तुम धर्मप्राण युधिष्ठिर से कहना कि 'तुम्हारे धर्म की बड़ी हानि हो रही है; बेटा ! तुम उसे इस प्रकार व्यर्थ बरबाद मत होने दो।' कृष्ण ! जो स्त्री दूसरों की आश्रिता होने पर जीवननिर्वाह करे, उसे तो धिक्कार ही है। दीनता से प्राप्त हुई जीविका की अपेक्षा मर जाना ही अच्छा है। तुम अर्जुन और नित्य उद्योगशील भीमसेन से कहना कि 'क्षत्राणियाँ जिस काम के लिये पुत्र उत्पन्न करती हैं, उसे करने का समय आ गया है। ऐसा अवसर आने पर भी यदि तुम युद्ध नहीं करोगे तो इसे व्यर्थ ही खो दोगे। तुम सब लोकों में सम्मानित हो; ऐसे होकर भी यदि तुमने कोई निन्दनीय कर्म कर डाला तो फिर कभी तुम्हारा मुँह नहीं देखूँगी। अरे ! समय आ पड़े तो अपने प्राणों का भी लोभ मत करना।' माद्री के पुत्र नकुल तथा सहदेव सर्वदा क्षात्रधर्म पर डटे रहनेवाले हैं। उनसे कहना कि 'प्राणों की बाजी लगाकर भी अपने पराक्रम से प्राप्त हुए भोगों की इच्छा करना; क्योंकि जो मनुष्य क्षात्रधर्म के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करता है, उसके मन को पराक्रम से प्राप्त हुए भोग ही सुख पहुँचा सकते हैं।' "शत्रुओं ने राज्य छीन लिया---यह कोई दुःख की बात नहीं है; जुए में हारना भी दुःख का कारण नहीं है। मेरे पुत्रों को वन में रहना पड़ा---इसका भी मुझे दुःख नहीं है। किंतु इससे बढ़कर दुःख की और कौन बात हो सकती है कि मेरी युवती पुत्रवधू को, जो केवल एक ही वस्त्र पहने हुए थी, घसीटकर सभा में लाया गया और उसे उन पापियों के कठोर वचन सुनने पड़े। हाय ! उस समय वह मासिक-धर्म में थी। किन्तु अपने वीर पतियों की उपस्थिति में भी वह क्षत्राणी अनाथा-सी हो गयी। पुरुषोत्तम ! मैं पुत्रवती हूँ, इसके सिवा मुझे तुम्हारा, बलराम का और प्रद्मुम्न का भी पूरा-पूरा आश्रय है। फिर भी मैं ऐसे दुःख भोग रही हूँ। हाय ! दुर्धर्ष भीम और युद्ध से पीठ न फेरनेवाले अर्जुन के रहते मेरी यह दशा !" कुन्ती पुत्रों के दुःख से अत्यन्त व्याकुल थी। उसकी ऐसी बातें सुनकर श्रीकृष्ण कहने लगे---'बुआजी ! तुम्हारे समान सौभाग्यवती और कौन स्त्री होगी। तुम राजा शूरसेन की पुत्री हो और महाराज अजमीठ के वंश में विवाही गयी हो !  तुम सब प्रकार के शुभगुणों से सम्पन्न ह तथा अपने पतिदेव से भी तुमने बड़ा सम्मान पाया है। तुम वीरमाता और वीरपत्नी हो। तुम जैसी महिलाएँ ही सब प्रकार के सुख-दुःखों को सह सकती हैं। पाण्डवलोग निद्रा-तन्द्रा, क्रोध-हर्ष, क्षुधा-पिपासा, शीत-घाम---इन सब को जीतकर वीरोचित आनन्द का भोग करते हैं। उन्होंने और द्रौपदी ने  आपको प्रणाम कहलाया है और अपनी कुशल कहकर तुम्हारा कुशल समाचार पूछा है। तुम शीघ्र ही पाण्डवों को निरोग और सफल मनोरथ देखोगी। उनके सारे शत्रु मारे जायेंगे और वे संपूर्ण लोकों का आधिपत्य पाकर राज्यलक्ष्मी से सुशोभित होंगे। ' श्रीकृष्ण के इस प्रकार ढ़ाढ़स बँधाने पर कुन्ती ने अपने अज्ञानजनित मोह को दूर करके कहा---कृष्ण ! पाण्डवों के लिये जो-जो हित की बात हो और उसे जिस-जिस प्रकार तुम करना चाहो उसी-उसी प्रकार करना, जिससे कि धर्म का लोप न हो और कपट का आश्रय न लेना पड़े। मैं तुम्हारे सत्य और कुल के प्रभाव को अ्छी तरह जानती हूँ। अपने मित्रों का काम करने में तुम जिस बुद्धि और पराक्रम से काम लेते हो, वे भी मुझसे छिपे नहीं हैं। हमारे कुल में तुम मूर्तिमान् धर्म, सत्य और तप ही हो। तुम सबकी रक्षा करनेवाले हो, तुम्ही परम-ब्रह्म हो और तुममें ही सारा प्रपंच अधिष्ठित है। तुम जैसा कह रहे हो, तुम्हारे द्वारा वह बात उसी प्रकार सत्य होकर रहेगी। इसके पश्चात् महाबाहु श्रीकृष्ण कुन्ती से आज्ञा ले, उसकी प्रदक्षिणा करके दुर्योधन के महल की ओर गये।

Thursday 10 November 2016

उद्योगपर्व---हस्तिनापुर में श्रीकृष्ण के स्वागत की तैयारियाँ और कौरवों की सभा में परामर्श

हस्तिनापुर में श्रीकृष्ण के स्वागत की तैयारियाँ और कौरवों की सभा में परामर्श
इधर जब दूतों के द्वारा राजा धृतराष्ट्र को पता लगा कि श्रीकृष्ण आ रहे हैं तो उन्हें हर्ष से रोमांच हो आया और उन्होंने बड़े आदर से भीष्म, द्रोण, संजय, विदुर, दुर्योधन और उसके मंत्रियों से कहा, 'सुना है, पाण्डवों के काम से हमसे मिलने के लिये श्रीकृष्ण आ रहे हैं। वे सब प्रकार हमारे माननीय और पूज्य हैं। सारे लोकव्यवहार उन्हीं में अधिष्ठित हैं, क्योंकि वे समस्त प्राणियों के ईश्वर हैं; उनमें धैर्य, वीर्य, प्रज्ञा और ओज---सभी गुण हैं। वे सनातन धर्मरूप हैं, इसलिये सब प्रकार सम्मान के योग्य हैं। उनका सत्कार करने में ही सुख है, असत्कृत होने पर वे दुःख के निमित्त बन जाते हैं। यदि हमारे सत्कार से वे संतुष्ट हो गये तो समस् राजाओं के समान हमारे सभी अभीष्ट सिद्ध हो जायेंगे। दुर्योधन ! तुम उनके स्वागत सत्कार की आज ही से तैयारी करो और रास्ते में सब प्रकार की आवश्यक सामग्री से सम्पन्न विश्रामस्थान बनवाओ। तुम ऐसा उपाय कर, जिसे श्रीकृष्ण हमारे ऊपर प्रसन्न हो जायँ। भीष्मजी ! इस विषय में आपकी क्या सम्मति है ?'  तब भीष्मादि सभी सभासदों ने राजा धृतराष्ट्र के कथन की प्रशंसा की और कहा कि 'आपका विचार बहुत ठीक है।' उन सबकी अनुमति जानकर दुर्योधन ने जहाँ-तहाँ सुन्दर विश्रामस्थान बनवाने आरम्भ कर दिये। जब उसने देवताओं के स्वागत के योग्य सब प्रकार की तैयारी करा ली तो राजा धृतराषट्र को इसकी सूचना दे दी। किन्तु श्रीकृष्ण ने उन विश्रामस्थान और तरह-तरह के रत्नों की ओर दृष्टि भी नहीं डाली। दुर्योधन के सब तैयारी की सूचना पाकर राजा धृतराष्ट्र ने विदुरजी से कहा---विदुर ! श्रीकृष्ण उपल्व्य से इस ओर आ रहे हैं। आज उन्होंने वृकस्थल में विश्राम किया है। कल प्रातःकाल से यहाँ आ जायेंगे। वे बड़े ही उदारचित्त, पराक्रमी और महाबली हैं। यादवों का जो विस्तृत राज्य है, उसका पालन और रक्षण करनेवाले ये ही हैं। ये तो तीनों लोकों के पितामह और ब्रह्माजी के भी पिता हैं। इसलिये हमारी स्त्री, पुरुष, बालक, बृद्ध ---जितनी प्रजा है, उसे साक्षात् सूर्य के समान श्रीकृष्ण के दर्शन करने चाहिये। सब ओर बड़ी-बड़ी ध्वजा और पताकाएँ लगवा दो तथा उनके आने के मार्ग को झड़वा-बुहरवाकर उसपर जल छिड़कवा दो।देखो, दुःशासन का भवन दुर्योधन के महल से भी अच्छा है। उसे शीघ्र ही साफ कराकर अच्छी तरह से सुसज्जित करा दो।उस भवन में बड़े सुन्दर-सुन्दर कमरे और अट्टालिकाएँ हैं, उसमें सब प्रकार का आराम है और एक ही समय सब ऋतुओं का आनन्द मिल सकता है। मेरे और दुर्योधन के महलों में जो-जो बढ़िया चीजें हैं, वे सब उसी में सजा दो तथा उनमें से जो-जो पदार्थ श्रीकृष्ण के योग्य हों वे अवश्य उनकी भेंट कर दो। विदुरजी ने कहा---राजन् ! आप तीनों लोकों में बड़े सम्मानित हैं और इस लोक में बड़े प्रतिष्ठित तथा माननीय माने जाते हैं। इस समय आप जो बातें कह रहे हैं, वह शास्त्र या उत्तम युक्ति के आधार पर ही कही जान पड़ती है। इससे मालूम होता है कि आपकी बुद्धि स्थिर है। बयोबृद्ध तो आप हैं ही। किन्तु मैं आपको वास्तविक बात बताये देता हूँ। आप धन देकर या किसी दूसरे प्रयत्न द्वारा श्रीकृष्ण को अर्जुन से अलग नहीं कर सकेंगे।  मैं श्रीकृष्ण की महिमा जानता हूँ और पाण्डवों पर उनका जैसा सुदृढ़ अनुराग है, वह भी मुझसे छिपा नहीं है। अर्जुन तो उन्हें प्राणों के समान प्रिय हैं, उसे तो वे छोड़ ही नहीं सकते। वे जल से भरे हुए घड़े, पैर धोने के जल और कुशल-प्रश्न के सिवा आपकी और किसी चीज की ओर तो आँख उठाकर भी नहीं देखेंगे। हाँ, उन्हें अतिथि सत्कार प्रिय अवश्य है और वे सम्मान के योग्य हैं भी। इसलिये उनका सत्कार तो अवश्य कीजिये। इस समय श्रीकृष्ण दोनों पक्षों के हित की कामना से जिस काम के लिये आ रहे हैं, उसे आप पूरा करें। वे तो पाण्डवों के साथ आपकी और दुर्योधन की सन्धि कराना चाहते हैं। उनकी इस बात को आप मान लीजिये। महाराज ! आप पाण्डवों के पिता हैं, वे आपके पुत्र हैं; आप बृद्ध हैं, वे आपके सामने बालक हैं। वे आपके पुत्रों की तरह वर्ताव कर रहे हैं, आप भी उनके साथ पिता के तरह वर्ताव करें। दुर्योधन बोला---पिताजी ! विदुरजी ने जो कुछ कहा है, ठीक ही है। श्रीकृष्ण का पाण्डवों के प्रति बड़ा प्रेम है। उन्हें उधर से कोई तोड़ नहीं सकता। अतः आप उनके त्कार के लिये जो तरह-तरह की वस्तुएँ देना चाहते हैं, वे उन्हें कभी नहीं देनी चाहिये। दुर्योधन की यह बात सुनकर पितामह भीष्म ने कहा---श्रीकृष्ण ने अपने मन मे जो कुछ करने का निश्चय कर लिया होगा, उसे किसी भी प्रकार बदल नहीं सकेगा। इसलिये वे जो कुछ कहें, वही बात निःसंशय होकर करनी चाहिये। तुम श्रीकृष्णरूप सचिव के द्वारा पाण्डवों से शीघ्र ही सन्धि कर लो। धर्मप्राण श्रीकृष्ण अवश्य ऐसी ही बातें कहेंगे, जो धर्म के अर्थ के अनुकूल होंगी। अतः तुम्हे और तुम्हे सम्बन्धियों को उनके साथ प्रियभाषण करना चाहिये।' दुर्योधन ने कहा---पितामह ! मुझे यह बात मंजूर नहीं है कि जबक मेरे शरीर में प्राण हैं, तबतक मैं इस राजलक्ष्मी को पाण्डवों के साथ मिलकर भोगूँ। जिस महत्कार्य को करने का मैने विचार किया है, वह तो यह है कि मैं पाण्डवों के पक्षपाती कृष्ण को कैद कर लूँ। उन्हें कैद करते ही समस्त यादव, सारी पृथ्वी और पाण्डवलोग मेरे अधीन हो जायेंगे और वे प्रातःकाल यहाँ आ ही रहे हैं। अब आपलोग मुझे ऐसी सलाह दीजिये, जिससे इस बात का कृष्ण को पता न लगे और किसी प्रकार की हानि भी न हो।श्रीकृष्ण के विषय में यह भयंकर बात सुनकर राजा धृतराष्ट्र और उनके मंत्रियों को बड़ी चोट लगी और वे व्याकुल हो गये। फिर उन्होंने दुर्योधन से कहा---'बेटा ! तू अपने मुँह से ऐसी बात न निकाल। यह सनातन धर्म के विरुद्ध है। श्रीकृष्ण तो दूत बनकर आ रहे हैं। यों भी वे हमारे संबंधी और सुहृद हैं। उन्होंने कौरवों का कुछ बिगाड़ा भी नहीं है। फिर वे कैद किये जाने योग्य कैसे हो सकते हैं ?'  भीष्म ने कहा---धृतराष्ट्र ! मालूम होता है कि तुम्हारे इस मंदमति पुत्र को मौत ने घेर लिया है। इसके सुहृद और सम्बन्धी कोई हित की बात बताते हैं तो भी यह अनर्थ को ही गले लगाना चाहता है। यह पापी तो कुमार्ग में चलता ही है, इसके साथ तुम भी अपने हितैषियों की बात पर ध्यान न देकर इसी की लीक पर चलना चा हते हो। तुम नहीं जानते, यह दुर्बुद्धि यदि श्रीकृष्ण के मुकाबले खड़ा हो गया तो एक क्षण में अपने सब सलाहकारों के सहित नष्ट हो जायगा। इस पापी ने धर्म को तो एकदम तिलांजली दे दी है, इसका हृदय बड़ा ही कठोर है। मैं इसकी यह अनर्थपूर्ण बातें बिलकुल नहीं सुन सकता। ऐसा कहकर पितामह भीष्म अत्यन्त क्रोध में भरकर उसी समय सभा से उठकर चले गये।