Monday 31 October 2016

उद्योग-पर्व---भगवान् श्रीकृष्ण से द्रौपदी की बातचीत तथा उनका हस्तिनापुर के लिये प्रस्थान

भगवान् श्रीकृष्ण से द्रौपदी की बातचीत तथा उनका  हस्तिनापुर के लिये प्रस्थान
तब महाराज युधिष्ठिर के धर्म और अर्थयुक्त वचन सुनकर तथा भीमसेन को शान्त देखकर द्रुपदनन्दिनी कृष्णा, सहदेव और सात्यकि की प्रशंसा करती हुई रो-रोकर इस प्रकार कहने लगी, 'धर्मज्ञ मधुसूदन ! दुर्योधन ने जिस प्रकार क्रूरता का आश्रय लेकर पाण्डवों को राजसुख से वंचित किया था, वह तो आपको मालूम ही है तथा संजय को राजा धृतराष्ट्र ने एकान्त में एकान्त में अपना जो विचार सुनाया है, वह भी आपसे छिपा नहीं है। इसलिये यदि दुर्योधन हमारा राज्य का भाग दिये बिना ही सन्धि करना चाहे तो आप उसे किसी प्रकार स्वीकार न करें। इन  वीरों के साथ पाण्डवलोग दुर्योधन की रणोन्मत्त सेना से अच्छी तरह मुकाबला कर सकते हैं। साम या दान के द्वारा कौरवों से अपना प्रयोजन सिद्ध होने की कोई आशा नहीं है, इसलिये आप भी उनके प्रति कोई ढ़ील-ढ़ाल न करें; क्योंकि जिसे अपनी जीविका को बचाने की इच्छा हो, उसे साम या दान से काबू में न आनेवाले शत्रु के प्रति दण्ड का ही प्रयोग करना चाहिये।
अतः अच्युत ! आपको भी पाण्डवों और संजय वीरो के साथ लेकर उन्हें शीघ्र ही बड़ा दण्ड देना चाहिये। 'जनार्दन ! शास्त्र का मत है कि जो दोष अवध्य का वध करने में है, वही वध्य का वध न करने भी है। अतः आप भी पाण्डव, यादव और सृंजय वीरों के सहित ऐसा काम करें, जिससे आपको यह दोष स्पर्श न कर सके। भला, बताइये तो मेरे समन पृथ्वी पर कौन स्त्री है। मैं महाराज द्रुपद की वेदी से प्रकट हुई अयोनिजा पुत्री हूँ, धृष्टधुम्न की बहन हूँ, आपकी प्रिय सखी हूँ, महात्मा पाण्डु की पुत्रवधू हूँ और पाँच इन्द्रों के समान तेजस्वी पाण्डवों की पटरानी हूँ। इतनी सम्मानिता होने पर भी मुझे केश पकड़कर सभा में लाया गया और फिर वहीं पाण्डवों के सामने और आपके जीवित रहते मुझे अपमानित किया गया। हाय ! पाण्डव, यादव और पांचाल वीरों के दम-में-दम रहते मैं इन पापियों की सभा में दासी की दशा में पहुँच गयी।किन्तु मुझे ऐसी स्थिति में देखकर भी पाण्डवों को न तो क्रोध ही आया और न इन्होंने कोई चेष्टा ही की। इसलिये मैं तो यही कहती हूँ कि यदि दुर्योधन एक मुहूर्त भी जीवित रहता है तो अर्जुन की धनुर्धरता और भीमसेन की बलवत्ता को धिक्कार है। अतः आप यदि आप मुझे अपनी कृपापात्री समझते हैं और वास्तव में मेरे प्रति आपकी दयादृष्टि है तो आप धृतराष्ट्र के पुत्रों पर पूरा-पूरा कोप कीजिये। इसे पश्चात् द्रौपदी अपने काले-काले लम्बे केशों को बायें हाथ में लिये श्रीकृष्ण के पास आयी और नेत्रों में जल भरकर उनसे कहने लगी---।कमलनयन श्रीकृष्ण ! शत्रुओं से सन्धि करने की तो आपकी इच्छा है; किन्तु अपने इस सारे प्रयत्न में आप दुःशासन के हाथों से खींचे हुए इस केशपाश को याद रखें। यदि भीम और अर्जुन कायर होकर आज सन्धि के लिये ही उत्सुक हैं तो अपने महारथी पुत्रों के सहित मेरे वृद्ध पिता कौरवों से संग्राम करेंगे तथा अभिमन्यु-सहित मेरे पाँच महारथी पुत्र उनके साथ जूझेंगे। यदि मैने दुःशासन की साँवली भुजा को कटकर धूलधूसरित होते न देखा तो मेरी छाती कैसे ठण्ढ़ी होगी ? इस प्रज्जवलित अग्नि के समान प्रचण्ड क्रोध को हृदय में रखकर प्रतीक्षा करते हुए मुझे तेरह वर्ष बीत गये हैं। आज भीमसेन के वाग्वाण से बिंधकर मेरा कलेजा फटा जा रहा है। हाय ! अभी ये धर्म को ही देखना चाहते है !'  इतना कहकर विशालाक्षी द्रौपदी का कण्ठ भर आया, आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गयी, होंठ काँपने लगे और वह फूट-फूटकर रोने लगी। तब विशालबाहु श्रीकृष्ण ने उसे धैर्य बँधाते हुए कहा---'कृष्णे ! तुम शीघ्र ही कौरवों की स्त्रियों को रुदन करे देखोगी। आज जिनपर तुम्हारा कोप है, उन शत्रुओं के स्वजन, सुहृद और सेनादि के नष्ट हो जाने पर उनकी स्त्रियाँ भी इसी प्रकार रोवेंगी।  महाराज युधिष्ठिर की आज्ञा से भीम, अर्जुन और नकुल-सहदेव के सहित मैं भी ऐसा ही काम करूँगा। यदि काल के वश में पड़े हुए धृतराष्ट्रपुत्र मेरी बात नहीं सुनेंग तो युद्ध में मारे जाकर कुत्ते और गीदड़ों के भोजन बनेंगे। तुम निश्चय मानो--- हिमालय भले ही अपने स्थान से टल जाय, पृथ्वी के सैकड़ों टुकड़े जायँ, तारों से भरा हुआ आकाश टूट पड़े, किन्तु मेरी बात झूठी नहीं हो सकती। कृष्णे ! अपने आँसुओं को रोको, मैं सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि तुम शीघ्र ही शत्रओंके मारे जाने से अपने पतियों को श्रीसम्पन्न देखोगी। ' अर्जुन ने कहा---श्रीकृष्ण ! इस समय सभी कुरुवंशियों के आप ही सबसे बड़े सुहृद् हैं। आप दोनों ही पक्षों के सम्बन्धी और प्रिय हैं। इसलिये पाण्डवों के साथ कौरवों का मेल कराकर सन्धि भी करा सकते हैं। श्रीकृष्ण बोले---वहाँ जाकर मैं ऐसी ही बातें कहूँगा, जो धर्म के अनुकूल होंगी तथा जिनसे हमारा और कौरवों का हित होगा। अच्छा, अब मैं राजा धृतराष्ट्र से मिलने के लिये जाता हूँ। कृष्णचन्द्र ने शरद् ऋतु का अन्त होने पर हेमन्त का आरम्भ होने के समय कार्तिक मास में रेवती नक्षत्र और मैत्र मुहूर्त में यात्रा आरम्भ की। उस समय उन्होंने अपने पास बैठे हुए सात्यकि से कहा कि ' तुम मेरे रथ में शंख, चक्र, गदा, तरकस, शक्ति आदि सभी शस्त्र रख दो।' इस प्रकार उनका विार जानकर सेवकलोग रथ तैयार करने के लिये दौड़ पड़े। उन्होंने नहला-धुलाकर सैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक नाम के घोड़ों को रथ में जोता तथा उसकी ध्वजा पर पक्षिराज गरुड़ विराजमान हुए। इसके पश्चात् श्रीकृष्ण उसपर चढ़ गये तथा सात्यकि को भी अपने साथ बैठा लिया। फिर जब रथ चला तो उसकी घरघराहट से पृथ्वी और आकाश गूँज उठे। इस प्रकार उन्होंने हस्तिनापुर प्रस्थान किया। भगवान् के चलने पर कुन्तिपुत्र युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव, चेकितान, चेदिराज, धृष्टकेतू, द्रुपद, काशीराज, शिखण्डी, धृष्टधुम्न, पुत्रों के सहित राजा विराट और केकयराज भी उन्हें पहुँचाने को चले। इस समय महाराज युधिष्ठिर ने सर्वगुणसम्पन्न श्रीश्यामसुन्दर को हृदय से लगाकर कहा, 'गोविन्द !  हमारी जिस अबला माता ने हमें बालकपन से ही पाल-पोसकर बड़ा किया है, जो निरन्तर उपवास और तप में लगी रहकर हमारे कुशल-क्षेम का ही प्रयत्न करती रहती है तथा जिसका देवता और अतिथियों के सत्कार और गुरुजनों की सेवा में बड़ा अनुराग है, उससे आप कुशल पूछें। उसे हर समय हमारा शोक सालता रहता है।
आप हमारे नाम लेकर हमारी ओर से उसे प्रणाम कहें। शत्रुदमन श्रीकृष्ण ! क्या कभी वह समय आवेगा, जब इस दुःख से छूटकर हम अपनी दुःखिनी माता को कुछ सुख पहुँचा सकेंगे।इसके सिवा राजा धृतराष्ट्र और हमसे बयोबृद्ध राजाओं से तथा भीष्म, द्रोण, कृप, बाह्लीक, द्रोणपुत्र अश्त्थामा, सोमदत्त और अन्यान्य भरतवंशियों से हमारा यथायोग्य अभिवादन कहें एवं कौरवों के प्रधानमंत्री अगाधबुद्धि विदुरजी को मेरी ओर से आलिंगन करें।' इतना कहकर महाराज युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण की परिक्रमा की और उनसे आज्ञा लेकर लौट गये। फिर रास्ते में चलते-चलते अर्जुन ने कहा---'गोविन्द ! पहले मंत्रणा के समय हमलोगों को आधा राज्य देने की बात हुई थी---उसे सब राजालोग जानते हैं। अब दुर्योधन ऐसा करने के लिये तैयार हो, तब तो बड़ी अच्छी बात है; उसे भी बहुत बड़ी आपत्ति से छुट्टी मिल जायगी। और यदि ऐसा न किया तो मं अवश्य ही उसके पक्ष के समस्त क्षत्रिय वीरों का नाश कर दूँगा। ' अर्जुन की यह बात सुनकर भीमसेन भी बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने बड़े जोर से सिंहनाद किया। उससे भयभीत होकर बड़े-बड़े धनुर्धर भी काँपने लगे। इस प्रकार श्रीकृष्ण को अपना निश्चय सुनाकर, उनका आलिंगन कर अर्जुन भी लौट आये। इस तरह सभी राजाओं के लौट जाने पर श्रीकृष्ण बड़ी तेजी से हस्तिनापुर की ओर चल दिये। मार्ग में श्रीकृष्ण ने रास्ते के दोनो ओर खड़े हुए अनेकों महर्षि देखे। वे सब ब्रह्मतेज से देदिप्यमान थे। उन्हें देखते ही वे तुरन्त रथ से उतर पड़े और उन्हें प्रणाम कर बड़े आदरभाव से कहने लगे, 'कहिये, सब लोकों में कुशल है ? धर्म का ठीक-ठाक पालन हो रहा है ? आपलोग इस समय किधर जा रहे हैं ? मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?' तब परशुरामजी ने श्रीकृष्ण को गले लगाकर कहा---'यदुपते ! ये सब देवर्षि, ब्रह्मर्षि और राजर्षिलोग प्राचीनकाल के अनेकों देवता और असुरों को देख चुके हैं। इस समय ये हस्तिनापुर में एकत्रित हुए क्षत्रिय राजाओं को, सभासदों और आपको देखने के लिये जा रहे हैं। यह सब समारोह अवश्य ही बड़ा दर्शनीय होगा। वहाँ कौरवों की राजसभा में आप जो धर्म और अर्थ के अनुकूल भाषण करेंगे, उसे सुनने की हमारी इच्छा है। उस सभा में भीष्म, द्रोण और महामति विदुर-जैसे महापुरुष तथा आप भी मौजूद होंगे। उस समय हम आपके और उनके दिव्य वचन सुनना चाहते हैं। वे वचन अवश्य ही हितकर और यथार्थ होंगे। वीरवर ! आप पधारिये, हम सभा में ही आपके दर्शन करेंगे। देवकीनन्दन श्रीकृष्ण के हस्तिनापुर जाते समय दस महारथी, एक हजार पैदल, एक हजार घुड़सवार, बहुत सी भोजन-सामग्री और सैकड़ों सेवक भी उनके साथ थे। उनके चलते समय जो शकुन और अपशकुन हुए, उन्हें मैं सुनाता हूँ। उस समय बिना ही बादलों के बड़ी भीषण गर्जना और बिजली की कड़क हुई तथा वर्षा होने लगी। पूर्व दिशा की ओर बढ़ने वाली छः नदियाँ तथा समुद्र---ये उलटे बहने लगे। सब दिशाएँ ऐसी अनश्चित हो गयीं कि कुछ पता ही नहीं लगता था। किन्तु मार्ग में जहाँ-जहाँ श्रीकृष्ण चलते थे, वहाँ बड़ा सुखप्रद वायु चलता था और शकुन भी अच्छे ही होते थे। जहाँ-तहाँ सहस्त्रों ब्राह्मण उनकी स्तुति करते तथा मधुपर्क और अनेकों मांगलिक द्रव्यों से सत्कार करते थे। इस प्रकार मार्ग में अनेकों पशु और ग्रामों को देखते तथा अनेकों नगर और राष्ट्रों को लाँघते वे परम रमणीय शालियवन नामक स्थान में पहुँचे। वहाँ के निवासियों ने श्रीकृष्णचन्द्र का बड़ा आतिथ्य सत्कार किया।  इसके पश्चात् सायंकाल में, जब अस्त होते हुए सूर्य की किरणें सब ओर फैल रही थीं, वे वृकस्थल नाम के गाँव में पहुँचे। वहाँ उन्होंने रथ से उतरकर नियमानुसार शौचादि नित्यकर्म किया और रथ छोड़ने की आज्ञा देकर सन्ध्या-वन्दन किया। दारुक ने घोड़े छोड़ दिये। फिर भगवान् ने वहाँ के निवासियों से कहा कि 'हम राजा युधिष्ठिर के काम से जा रहे हैं और आज रात को वहीं ठहरेंगे।' उनका ऐसा विचार जानकर ग्रामवासियों ने ठहरने का प्रबंध कर दिया और एक क्षण में ही खान-पान की उत्तम सामग्री जुटा दी। फिर उस गाँव में जो प्रधान-प्रधान लोग थे, उन्होंने आकर आशीर्वाद और मांगलिक वचन कहते हुए उनका विधिवत् सत्कार किया। इसके पश्चात् भगवान् ने उन्हें सुस्वादु भोजन कराकर स्वयं भी भोजन किया और सब लोगों के साथ बड़े आनन्द से उस रात को वहीं रहे।

Wednesday 26 October 2016

उद्योग-पर्व---श्रीकृष्ण के साथ भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सात्यकि की बातचीत

श्रीकृष्ण के साथ भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सात्यकि की बातचीत
भीमसेन ने कहा---मधुसूदन ! आप कौरवों से ऐसी ही बातें कहें, जिससे वे सन्धि करने के लिये तैयार हो जायँ; उन्हें युद्ध की बात सुनाकर भयभीत न करें। दुर्योधन बड़ा ही असहनशील, क्रोधी, अदूरदर्शी, निठुर, दूसरों की निंदा करनेवाला और हिंसाप्रिय है।वह मर जायगा परन्तु अपनी टेक नहीं छोड़ेगा। जिस प्रकार शरद् ऋतु के बाद ग्रीष्मकाल आने पर वन दावाग्नि से जल जाते है, वैसे ही दुर्योधन के क्रोध से एक दिन सभी भरतवंशी भष्म हो जायेंगे। केशव ! कलि, मुदावर्त, जन्मेजय, वसु, अजबिन्धु, रुषर्धिक, अर्कज, धौतमूलक, हयग्रीव, वरयु, बाहु, पुरूरवा, सहज, वृषध्वज, धारणम, विगाहन और शम---ये अठ्ठारह राजा ऐसे हुए हैं, जिन्होंने अपने ही सजातीय, सुहृद और बन्धु-बान्धवों का संहार कर डाला था। इस समय हम कुरुवंशियों के संहार का समय आया है, इसी से कालगति से यह कुलांगार पापात्मा दुर्योधन उत्पन्न हुआ है। अतः आप जो कुछ कहें, मधुर और कोमल वाणी में धर्म और अधर्म से युक्त उनके हित की ही बात कहें। साथ ही यह भी ध्यान रखें कि वह बात अधिकतर उसके मन के अनुकूल ही हो। हम सब तो दुर्योधन के नीचे रहकर बड़ी नम्रतापूर्वक उसका अनुसरण करने को भी तैयार हैं, हमारे कारण से भरतवंश का नाश न हो। आप कौरवों की सभा में जाकर हमारे वृद्ध पितामह और अन्याय सभासदों से ऐसा करने के लिये ही कहे, जिससे भाई-भाइयों में मेल बना रहे और दुर्योधन भी शान्त हो जाय। भीमसेन के मुख से कभी किसीने नम्रता की बातें नहीं सुनी थीं। अतः उनके ये वचन सुनकर श्रीकृष्ण हँस पड़े और फिर भीमसेन को उत्तेजित करते हुए इस प्रकार कहने लगे, 'भीमसेन ! तुम अन्यान्य समय तो इन क्रूर धृतराष्ट्रपुत्रों को कुचलने की इच्छा से युद्ध की ही प्रशंसा किया करते थे। तथा तुमने अपने भाइयों के बीच में गदा उठाकर यह प्रतिज्ञा भी की थी कि 'मैं यह बात सच-सच कह रहा हूँ, इसमें तनिक भी अन्तर नहीं आ सकता कि संग्रामभूमि में सामने आने पर इस गदा से ही मैं द्वेषदूषित दुर्योधन का वध कर डालूँगा।' किन्तु इस समय देखते हैं कि जिस समय युद्धकाल उपस्थित होने पर युद्ध के लिये उतावले अनेकों अन्य वीरों का उत्साह ढ़ीला पड़ जाता है, उसी प्रकार तुम भी युद्ध से भय मानने लगे हो। यह तो बड़े ही दुःख की बात है। इस समय तो नपुंसकों के समान तुम्हें तुम्हें भी अपने में कोई पुरुषार्थ दिखायी नहीं देता। यह तो बड़े ही दुःख की बात है। इस समय तो नपुंसकों के समान तुम्हें तुम्हें भी अपने में कोई पुरुषार्थ दिखायी नहीं देता।सो हे भरतनन्दन ! तुम अपने कुल, जन्म और कर्मों पर दृष्टि डालकर खड़े हो जाओ। व्यर्थ ही किसी प्रकार का विषाद मत करो और अपने क्षत्रियोचित कर्म पर डटे रहो। तुम्हारे चित्त में जो इस समय बन्धुवध के कारण युद्ध से ग्लानि का भाव उत्पन्न हुआ है, वह तुम्हारे योग्य नहीं है; क्योंकि क्षत्रिय जिसे पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त नहीं करता, उस चीज को वह अपने काम में भी नहीं लाता। भीमसेन ने कहा---वासुदेव ! मैं तो कुछ और ही करना चाहता हूँ, किन्तु आप दूसरी ही बात समझ गये। मेरा बल और पुरुषार्थ अन्य पुरुषों के पराक्रम से कुछ भी समता नहीं रखता। अपने मुँह अपनी बड़ाई करना---यह सत्पुरुषों की दृष्टि में अच्छी बात नहीं है। परन्तु आपने मेरे पुरुषार्थ की निंदा की है, इसलिये मुझे अपने बल का वर्णन करना ही पड़ेगा।  पाण्डवों पर अत्याचार करने को उद्यत इन समस्त युद्धोत्सुक क्षत्रियों को मैं पृथ्वी पर गिराकर उनपर लात जमाकर जम जाऊँगा। मैने जिस प्रकार राजाओं को जीत-जीतकर अपने अधीन किया था, वह क्या आप भूल गये हैं ? यदि सारा संसार मुझपर कुपित होकर टूट पड़े तो भी मुझे भय नहीं होगा। मैने जो शान्ति की बातें कही हैं, वे तो केवल मेरा सौहार्द ही है; मैं दावश ही सब प्रकार के कष्ट सह लेता हूँ और इसी से चाहता हूँ कि भरतवंशियों का नाश न हो। श्रीकृष्ण ने कहा---भीमसेन ! मैने भी तुम्हारा भाव जानने के लिये प्रेम से ही ये बातें कही हैं, अपनी बुद्धिमानी दिखाने या क्रोध के कारण ऐसा नहीं कहा। मैं तुम्हारे प्रभाव और पराक्रम को अच्छी तरह जानता हूँ, इसलिये तुम्हारा तिरस्कार नहीं कर सकता। अब कल मैं धृतराष्ट्र के पास जाकर आपलोगों के स्वार्थ  की रक्षा करते हुए सन्धि का प्रयत्न करूँगा। यदि उन्होंने सन्धि कर ली तो मुझे तो चिरस्थायी सुयश मिलेगा, आपलोगों का काम हो जायगा और उनका बड़ा भारी उपकार होगा। और यदि उन्होंने अभिमानवश मेरी बात न मानी तो फिर युद्ध जैसा भयंकर कर्म करना ही होगा। भीमसेन ! इस युद्ध का सारा भार तुम्हारे ही ऊपर रहेगा या अर्जुन को इसकी धुरी धारण करनी पड़ेगी तथा और सब लोग तुम्हारी आज्ञा में रहेंगे।युद्ध हुआ तो मैं अर्जुन का सारथि बनूँगा। अर्जुन की भी ऐसी ही इच्छा है। इससे तुम यह न समझना कि मैं युद्ध करना नहीं चाहता। इसी से जब तुमने कायरता की-सी बात की तो मुझे तुम्हारे विचार पर संदेह हो गया और मैने ऐसी बातें कहकर तुम्हारे तेज को उभाड़ दिया।
प्रारब्ध को बदलना तो मेरे वश की बात भी नहीं है। दुरात्मा दुर्योधन तो धर्म और लोक दोनो को ही तिलांजलि देकर स्वेच्छाचारी हो गया है। ऐसे कर्मों से उस पश्चाताप भी नहीं होता। बल्कि उसके सलाहकार शकुनि, कर्ण और दुःशासन भी उसकी उस पापमयी कुमति को ही बढ़ावा देते रहते हैं। इसलिये आधा राज्य देकर उसे चैन नहीं पड़ेगा। उसका तो परिवारसहित नाश होने पर ही शान्ति होगी। और अर्जुन ! तुम्हें तो दुर्योधन  के मन और ममेरे विचार का भी पता है ही। फिर अनजान की तरह मुझसे शंका क्यों कर रहे हो ? पृथ्वी का भार उतारने के लिये देवतालोग पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए हैं---इस दिव्य विधान को भी तुम जानते ही हो। फिर बताओ तो उनसे सन्धि कैसे हो सकती है ? फिर भी मुझे सब प्रकार धर्मराज की आज्ञा का पालन तो करना है ही।  अब नकुल ने कहा---माधव ! धर्मराज ने आपसे कई प्रकार की बातें कही हैं; वे सब आपने सुन ही ली हैं। भीमसेन ने भी सन्धि के लिये ही कहकर फिर आपको अपना बाहुबल भी सुना दिया है। इसी प्रकार अर्जुन ने जो कुछ कहा है, वह भी आप सुन ही चुके हैं तथा अपना विचार भी कई बार सुना चुके हैं। सो पुरुषोत्तम ! इन सब बातों को छोड़कर आप शत्रु का विचार जानकर जैसा करना उचित समझें, वही करें। श्रीकृष्ण ! हम देखते हैं कि वनवास और अज्ञातवास के समय हमारा विचार दूसरा था और अब दूसरा ही है। वन में रहते समय हमारा आधा राज्य पाने में इतना अनुराग नहीं था, जैसा अब है। आप कौरवों की सभा में जाकर पहले तो सन्धि की ही बात करें, पीछे युद्ध की धमकी दें और इस प्रकार बात करें जिससे मन्दबुद्धि दुर्योधन को व्यथा न हो। भला विचारिये तो ऐसा कौन पुरुष है जो संग्रामभूमि में महाराज युधिष्ठिर, अर्जुन, सहदेव, आप, बलरामजी, सात्यकि, विराट, उ्तर, द्रुपद, धृष्टधुम्न,, काशिराज, चेदिराज, धृष्टकेतू और मेरे सामने टिक सके। आपके कहने पर विदुर, भीष्म, द्रोण और बाह्लीक यह बात समझ सकेंगे कि कौरवों का हित किसमें है । और फिर वे राजा धृतराष्ट्र और सलाहकारों के सहित पापी दुर्योधन को समझा देंगे। इसके पश्चात् सहदेव ने कहा---महाराज ने जो बात कही है, वह तो सनातन धर्म ही है; किन्तु आप ऐसा प्रयत्न करें, जिससे युद्ध ही हो। यदि कौरवलोग सन्धि करना चाहें तो भी आप उनकेे साथ युद्ध होने का रास्ता ही निकालें। श्रीकृष्ण ! सभा में की हुई द्रौपदी की दुर्गति देखकर मुझे दु्योधन पर जो क्रोध हुआ था, वह उसके प्राण लिये बिना कैसे शान्त होगा ? सात्यकि ने कहा---महाबाहो ! महामति सहदेव ने बहुत ठीक कहा है। इनका और मेरा कोप तो दुर्योधन का वध होने पर ही शान्त होगा। वीरवर सहदेव ने जो बात कही है, वास्तव में वही ससब योद्धाओं का मत है। सात्यकि के ऐसा कहते ही वहाँ बैठे हुए सब योद्धा भयंकर सिंहनाद करने लगे। उन युद्धोत्सुक वीरों ने 'ठीक है, 'ठीक है ऐसा कहकर सात्यकि को हर्षित करते हुए सब प्रकार उन्हीं के मत का समर्थन किया।

Wednesday 19 October 2016

उद्योग-पर्व---कौरवों की सभा में दूत बनकर जाने के लिये श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर का संवाद

कौरवों की सभा में दूत बनकर जाने के लिये श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर का संवाद
इधर संजय के चले जाने पर राजा युधिष्ठिर ने यदुश्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्ण से कहा, 'मित्रवत्सल श्रीकृष्ण ! मुझे आपके सिवा और कोई ऐसा दिखायी देता, जो हमें आपत्ति से पार करे। आपके भरोसे ही हम बिलकुल निर्भय हैं और दुर्योधन से अपना भाग माँगना चाहते हैं।' श्रीकृष्ण ने कहा---राजन् ! मैं तो आपकी सेवा में उपस्थित ही हूँ; आप जो कुछ कहना चाहें, वह कहिये। आप जो-जो आज्ञा करेंगे, वह सब मैं पूर्ण करूँगा। युधिष्ठिर ने कहा---राजा धृतराष्ट्र और उनके पुत्र जो कुछ करना चाहते हैं, वह तो आपने सुन ही लिया। संजय ने हमसे जो कुछ कहा है, वह सब उन्हीं का मत है। क्योंकि दूत तो स्वामी के कथनानुसार ही कहा करता है, यदि वह कोई दूसरी बात कहता है तो प्राणदण्ड का अधिकारी समझा जाता है। राजा धृतराष्ट्र को राज्य का बड़ा लोभ है, इसी से वे हमारे और कौरवों के प्रति समानभाव न रखकर हमें राज्य दिये बिना ही सन्धि करना चाहते हैं। हम तो यही समझकर कि महाराज धृतराष्ट्र अपने वचन का पालन करेंगे, उनकी आज्ञा से बारह वर्ष वन में रहे और एक वर्ष अज्ञातवास किया। किन्तु इन्हें तो बड़ा लोभ जान पड़ता है। वे धर्म का कुछ भी विचार नहीं कर रहे हैं तथा अपने मूर्ख पुत्र के मोहपाश में फँसे होने के कारण उसी की आज्ञा बजाना चाहते हैं। हमारे साथ तो इनका बिलकुल बनावटी वर्ताव है।
जनार्दन ! जरा सोचिये तो, इससे बढ़कर दुःख की बात और क्या होगी कि मैं तो माताजी की ही सेवा कर सकता हूँ और अपने सम्बन्धियों का भरण-पोषण ही। यद्यपि काशीराज, चेदिराज, पांचालनेश, मत्स्यराज और आप मेरे सहायक हैं तो भी मैं केवल पाँच गाँव ही माँग रहा हूँ। मैने तो यही कहा है कि अविस्थल, वृकस्थल, माकन्दी, वारणावत और पाँचवाँ जो वे चाहें---ऐसे पाँच गाँव या नगर हमें दे दें, जिससे हम पाँचों भाई मिलकर रह सकें और हमारे कारण भरतवंश का नाश न हो। परन्तु दुष्ट दुर्योधन इतना भी करने तैयार नहीं है। वह सबपर अपना ही दखल रखना चाहता है। लोभ से बुद्धि मारी जाती है, बुद्धि नष्ट होने से लज्जा नहीं रहती, लज्जा के साथ ही धर्म चला जाता है और धर्म गया कि श्री भी विदा हो जाती है। श्रीहीन पुरुष से स्वजन, सुहृद और विद्वानलोग दूर रहने लगते हैं जैसे पुष्प-फलहीन वृक्ष को छोड़कर पक्षी उड़ जाते हैं। निर्धन अवस्था बड़ी ही दुःखमयी है। कोई-कोई तो इस अवस्था में पहुँचकर मौत ही माँगने लगते हैं। कोई किसी दूसरे गाँव या वन में जा बसते हैं और कोई मौत के मुख में ही चले जाते हैं। जो लोग जन्म से ही निर्धन हैं, उन्हें इसका उतना कष्ट नहीं जान पड़ता जितना कि लक्ष्मी पाकर सुख में पले हुए लोगों को धन का नाश होने पर होता है। माधव ! इस विषय में हमारा पहला विचार तो यही है कि हम और कौरवलोग आपस में सन्धि करके शान्तिपूर्वक समान रूप से उस राज्यलक्ष्मी को भोगें; और यदि ऐसा न हुआ तो अन्त में हमें यही करना होगा कि कौरवों क मारकर यह सारा राज्य हम अपने अधीन कर लें। युद्ध में तो सर्वथा कलह ही रहता है और प्राण भी संकटग्रस्त रहते हैं। मैं तो नीति का आश्रय लेकर ही युद्ध करूँगा; क्योंकि मैं न तो राज्य छोड़ना चाहता हूँ और न कुल का नाश हो, यही मेरी इच्छा है। यों तो हम साम, दाम, दण्ड, भेद---सभी उपायों से अपना काम कर लेना चाहते हैं; किन्तु यदि थोड़ी नम्रता दिखाने से सन्धि हो जाय तो वही सबसे बढ़कर बात होगी। और यदि सन्धि न हुई तो युद्ध होगा ही, फिर पराक्रम न करना अनुचित ही होगा। जब शान्ति से काम नहीं चलता तो स्वतः ही कटुता आ जाती है। पण्डितों ने इसकी उपमा कुत्तों के कलह से दी है। कुत्ते पहले पूँछ हिलाते हैं, इसके बाद एक-दूसरे का दोष देखने लगते हैं, फिर गुर्राना आरम्भ करते हैं, इसे बाद दाँत दिखाना और भूँकना शुरु होता है और फिर युद्ध होने लगता है। श्रीकृष्ण ! अब मैं यह जानता हूँ कि ऐसा समय उपस्थित होने पर आप क्या करना उचित समझते हैं। ऐसा कौन उपाय है जिससे हम अर्थ और धर्म से वंचित न हों। पुरुषोत्तम ! इस संकट के समय हम आपको छोड़कर किससे सलाह लें ? भला, आपके समान हमारा प्रिय और हितैषी तथा समस्त कर्मों के परिणाम को जाननेवाला सम्बन्धी कौन है ? महाराज युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर श्रीकृष्ण ने कहा, 'मैं दोनो पक्षों के हित के लिये कौरवों की सभा में जाऊँगा और यदि वहाँ आपके लाभ में किसी प्रकार की बाधा न पहुँचाते हुए सन्धि करा सकूँगा तो समझूँगा मुझसे बड़ा भारी पुण्यकार्य बन गया।' युधिष्ठिर ने कहा---श्रीकृष्ण ! आप कौरवों के पास जायँ---इसमें मेरी सम्मति तो है नहीं; क्योंकि आपके बहुत युक्तियुक्त बात कहने पर भी दुर्योधन उसे मानेगा नहीं। इस समय वहाँ दुर्योधन के वशवर्ती सब राजालोग भी इकट्ठे हो रहे हैं, इसलिये उनलोगों के बीच मेंं आपलोगों का जाना मुझे अच्छा नहीं जान पड़ता। माधव ! आपको कष्ट होने पर तो हमें धन, सुख, देवत्व और समस्त देवताओं पर आधिपत्य भी प्रसन्न नहीं कर सकेगा। श्रीकृष्ण ने कहा---महाराज ! दुर्योधन कैसा पापी है---यह मैं जानता हूँ। किन्तु यदि हम अपनी ओर से स्पष्ट कह देंगे तो संसार में कोई भी राजा हमें दोषी नहीं कह सकेगारही मेरे लिये भय की बात; सो जिस सममय सिंह के सामने दूसरे जंगली जानवर नहीं ठहर सकते, उसी प्रकार यदि मैं क्रोध करूँ तो संसारके सारे राजा मिलकर भी मेरा मुकाबला नहीं कर सकते। अतः मेरा वहाँ जाना निरर्थक तो किसी भी तरह नहीं हो सकता। सम्भव है काम बन जाय और काम न भी बना तो निंदा से तो बच ही जायेंगे। युधिष्ठिर ने कहा---श्रीकृष्ण ! यदि आपको ऐसा ही उचित जान पड़ता है,तो आप प्रसन्नता से कौरवों के पास जाइये। आशा है, मैं आपके कार्य में सफल होकर यहाँ सकुशल लौटा हुआ देखूँगा। आप वहाँ पधारकर कौरवों को शान्त करें, जिसे कि हम आपस में मिलकर शान्तिपूर्वक रह सकें। आप हमें जानते हैं और कौरवों को भी पहचानते हैं तथा हम दोनो का हित भी आपसे छिपा नहीं है; इसके सिवा बातचीत करने में भी  आप खूब कुशल हैं। अतः जिस-जिसमें आपका हित हो, वे सब बातें आप दुर्योधन से कह दें।  श्रीकृष्ण बोले---राजन् ! मैने संजय और आप दोनो की ही बातें सुनी हैं तथा मुझे कौरव और आप दोनो का ही अभिप्राय मालूम है। आपकी बुद्धि धर्म का आश्रय लिये हुए है और उनकी शत्रुता में डूबी हुई है। आप शत्रुता में डूबी हुई है।. आप तो उसी को अच्छा समझेंगे, जो बिना युद्ध किये मिल जायगा। परन्तु महाराज ! यह क्षत्रिय का नैष्ठिक ( स्वाभाविक ) धर्म नहीं है। सभी आश्रमवालों का कहना है कि क्षत्रिय को भीख नहीं माँगनी चाहिये। उसके लिये तो विधाता ने यही सनातन धर्म बताया है कि या तो संग्राम में विजय प्राप्त करे या मर जाय। अतःआप पराक्रमपूर्वक शत्रुओ का दमन कीजिये। धृतराष्ट्र के पुत्र बड़े लोभी हैं। इधर बहुत दिनों से साथ रहकर उन्होंने स्नेह का वर्ताव करके अनेकों राजाओं को अपना मित्र बना लिया है।  इससे उनकी शक्ति बहुत बढ़ गयी है। इसलिये वे आपस में सन्धि कर लें---ऐसी तो कोई सूरत दिखायी नहीं देती। इसलिये वे आपस में सन्धि कर लें---ऐसी तो कोई सूरत दिखायी नहीं देती। इसके सिवा भीष्म और कृपाचार्य आदि के कारण वे अपने को बलवान् भी समझते ही हैं। अतः जबतक आप उनके साथ नरमी का वर्ताव करेंगे, तबतक वे आपके राज्य को हड़पने का ही प्रयत्न करेंगे। राजन् ! ऐसे कुटिल स्वभाव और आचरणवालों के साथ आप मेल-मिलाप करने का प्रयत्न न करें; आपही के नहीं, वे तो सभी के वध्य है। जिस समय जूए का खेल हुआ था और पापी दुःशासन असहाय समान रोती हुई द्रौपदी को उसके केश पकड़कर राजसभा में खींच लाया था, उस समय दुर्योधन ने भीष्म और द्रोण के सामने भी उसे बार-बार गौ कहकर पुकारा था। जिस समय जूए का खेल हुआ था और पापी दुःशासन असहाय समान रोती हुई द्रौपदी को उसके केश पकड़कर राजसभा में खींच लाया था, उस समय दुर्योधन ने भीष्म और द्रोण के सामने भी उसे बार-बार गौ कहकर पुकारा था। उस अवसर पर अपने महापराक्रमी भाइयों को आपने रोक दिया था। इसी से धर्मपाश में बँध जााने के कारण इन्होंने इसका कुछ भी प्रतीकार नहीं किया। किन्तु दुष्ट और अधम पुरुष को तो मार ही डालना चाहिये। अतः आप किसी प्रकार का विचार न करके इसे मार डालिये। हाँ, आप तो पितृतुल्य धृतराष्ट्र और पितामह भीष्म के प्रति नम्रता का भाव दिखा रहे हैं, यह आपके योग्य ही है। अब मैं कौरवो की सभा में जाकर सब राजाओं के सामने आपके सर्वांगिण गुणों को प्रकट करूँगा और दुर्योधन के दोष बताऊँगा। मैं वे ही बातें कहूँगा, जो धर्म और अर्थ के अनुकूल होगी। शान्ति के लिये प्रार्थना करने पर भी आपकी निंदा नहीं होगी। सब राजा धृतराष्ट्र और कौरवों की ही निंदा करेंगे। मैं कौरवों के पास जाकर इस प्रकार संधि के लिये प्रयत्न करूँगा, जिससे आपके स्वार्थसाधन में कोई त्रुटि न आवे तथा उनकी गतिविधि को भी मालूम कर लूँगा। मुझे तो पूरा-पूरा यही भान होता है कि शत्रुओ के साथ हमारा संग्राम ही होगा; क्योंकि मुझे ऐसे ही शकुन हो रहे हैं। अतः आप सभी वीरगण एक निश्चय करके शस्त्र, यंत्र, कवच, रथ, हाथी और घोड़े तैयार कर लें। इनके सिवा जो और भी युद्धोपयोगी सामग्रियाँ हों, वे सब जुटा लें। यह निश्चय मानें कि जबतक दुर्योधन जीवित है, तबतक वह तो किसी भी प्रकार आपको कुछ देगा ही नहीं।


Friday 14 October 2016

उद्योग-पर्व---श्रीव्यासजी और गान्धारी के सामने संजय का राजा धृतराष्ट्र को श्रीकृष्ण का माहात्म्य सुनाना

श्रीव्यासजी और गान्धारी के सामने संजय का राजा धृतराष्ट्र को श्रीकृष्ण का माहात्म्य सुनाना
राजन् !  दुर्योधन से ऐसा कह राजा धृतराष्ट्र ने संजय से फिर कहा, 'संजय ! अब जो बात सुनानी रह गयी है, वह भी कह दो। श्रीकृष्ण के बाद अर्जुन ने तुमसे क्या कहा  था ? उसे सुनने के लिये मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा है।' संजय ने कहा---श्रीकृष्ण की बात सुनकर कुन्तीपुत्र अर्जुन ने उनसे कहा---'संजय ! तुम पितामह भीष्म, महाराज धृतराष्ट्र, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, राजा बाह्लीक, अश्त्थामा, सोमदत्त, शकुनि, दुःशासन, विकर्ण और वहाँ इकट्ठे हुए समस्त राजाओं से मेरा यथायोग्य अभिवादन कहना और मेरी ओर से उनकी कुशल पूछना तथा पापात्मा दुर्योधन, उसके मंत्री और वहाँ आये हुए सब राजाओं को  श्रीकृष्णचन्द्र का समाधानयुक्त संदेश सुनकर मेरी ओर से भी इतना कहना कि शत्रुदमन महाराज युधिष्ठिर जो अपना भाग लेना चाहते हैं, वह यदि तुम नहीं दोगे तो मैं अपने तीखे तीरों से तुम्हारे घोड़े, हाथी और पैदल सेना के सहित तुम्हें यमपुरी भेज दूँगा।' महाराज ! इसके बाद मैं अर्जुन से विदा होकर और श्रीकृष्ण को प्रणाम करके उनका गौरवपूर्ण संदेश आपको सुनाने के लिये तुरंत ही यहाँ चला आया। राजन् ! श्रीकृष्ण और अर्जुन की इन बातों का दुर्योधन ने कुछ भी आदर नहीं किया। सब लोग चुप ही रहे। फिर वहाँ जो देश-देशान्तर के नरेश बैठे थे, वे सब उठकर अपने-अपने डेरों में चले गये।इस एकान्त के समय धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा, 'संजय ! तुम्हें तो दोनो पक्ष के बलाबल का ज्ञान है, यों भी तुम धर्म और अर्थ का रहस्य अच्छी तरह जानते हो और किसी भी बात का परिणाम तुमसे छिपा नहीं है। इसलिये तुम ठीक-ठीक बताओ कि इन दोनो पक्षों में कौन सबल है और कौन निर्बल।' संजय ने कहा---राजन् ! एकान्त में तो मैं आपसे कोई भी बात नहीं कहना चाहता, क्योंकि इससे आपके हृदय में डाह होगी। इसलिये आप महानन् तपस्वी  भगवान् व्यास और महारानी गान्धारी को भी बुला लीजिये। उन दोनों के सामने मैं आपको श्रीकृष्ण और अर्जुन का पूरा-पूरा विचार सुना दूँगा। संजय के इस प्रकार कहने पर गांधारी और श्रीव्यासजी को बुलाया गया और विदुरजी तुरंत ही उन्हें सभा में ले गये। तब महामुनि व्यासजी राजा धृतराष्ट्र और संजय का विचार जानकर उनके मत पर दृष्टि रखकर कहने लगे, 'संजय ! धृतराष्ट्र तुमसे प्रश्न कर रहे हैं; अतः इनकी आज्ञा के अनुसार तुम श्रीकृष्ण और अर्जुन के विषय में जो कुछ जानते हो, वह सब ज्यों-का-त्यों सुना दो। संजय ने कहा--- श्रीकृष्ण और अर्जुन  दोनो ही बड़े सम्मानित धनुर्धर हैं। श्रीकृष्ण के चक्र के भीतर का भाग पाँच हाथ चौड़ा है और उसका इच्छानुसार प्रयोग कर सकते हैं। नरकासुर, शम्बर, कंस और शिशुपाल---ये बड़े भयंकर वीर थे। परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण ने इन्हें खेल में ही परास्त कर दिया था। यदि एक ओर सारे संसार को और दूसरी ओर श्रीकृष्ण को रखा जा तो श्रीकृष्ण ही बल में अधिक निकलेंगे। वे संकल्पमात्र से सारे संसार को भष्म कर सकते हैं। श्रीकृष्ण तो वहीं रहते हैं जहाँ सत्य, धर्म, लज्जा और सरलता का निवास होता है और जहाँ श्रीकृष्ण रहते हैं वहीं विजय रहती है।  वे सर्वान्तर्यामी पुरुषोत्तम जनार्दन क्रीड़ा से ही पृथ्वी, आकाश और स्वर्गलोक को प्रेरित कर रहे हैं। इस समय सबको अपनी माया से मोहित करके वे पाण्डवों को ही निमित्त बनाकर आपके अधर्मनिष्ठ मूढ़ पुत्रों को भष्म करना चाहते हैं। ये केशव ही कालचक्र जगचक्र और युगचक्र को घुमाते रहते हैं। मैं सच कहता हूँ---एकमात्र वे ही काल, मृत्यु और संपूर्ण स्थावर-जंगम जगत् के स्वामी हैं तथा अपनी माया के द्वारा लोकों को मोह में डाले रहते हैं। जो लोग केवल उन्हीं की शरण ले लेते हैं, वे ही मोह में नहीं पड़ते। धृतराष्ट्र ने पूछा---संजय ! श्रीकृष्ण समस्त लोकों के अधीश्वर हैं---इस बात को तुम कैसे जानते हो और मैं क्यों नहीं जान सका ? इसका रहस्य मुझे बतलाओ। संजय ने कहा---राजन् ! आपको ज्ञान नहीं है और मेरी ज्ञानदृष्टि कभी मंद नहीं पड़ती। जो पुुरुष ज्ञानहीन हैं वे श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप को नहीं जान सकता। मैं ज्ञानदृष्टि से प्राणियों की उत्पत्ति औरविनाश करनेवाले अनादि मधुसूदन भगवान् भगवान् को जानता हूँ। धतराष्ट्र ने पूछा---संजय ! भगवान् कृष्ण में सर्वदा तुम्हारी भक्ति जो रहती है, उसका स्वरूप क्या है ? संजय ने कहा---महाराज ! आपका कल्याण हो, सुनिये। मैं कभी भी कपट का आश्रय नहीं लेता, किसी व्यर्थ धर्म का आचरण नहीं करता, ध्यानयोग के द्वारा मेरा भाव शुद्ध हो गया है अतः शास्त्र के वाक्यों द्वारा मुझे श्रीकृष्ण के स्वरूप का ज्ञान हो गया है। यह सुनकर राजा धृतराष्ट्र ने दुर्योधन से कहा---भैया दुर्योधन ! संजय हमारे हितकारी और विश्वासपात्र हैं; अतः तुम भी हृषिकेश, जनार्दन भगवान् श्रीकृष्ण की शरण लो। दुर्योधन ने कहा---देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण भले ही तीनों लोकों का संहार कर डालें; किन्तु जब वे अपने को अर्जुन का सखा घोषित कर चुके हैं तो मैं उनकी शरण में नहीं जा सकता। तब धृतराष्ट्र ने गान्धारी से कहा---गान्धारी ! तुम्हारा यह दुर्बुद्धि और अभिमानी पुत्र ईर्ष्यावश सत्पुरुषों की बात न मानकर अधोगति की ओर जा रहा है। गान्धारी ने कहा---दुर्योधन ! तू बड़ा ही दुष्टबुद्धि और मूर्ख है। अरे ! तू ऐश्वर्य के लोभ में पड़कर अपने बड़े-बूढ़ों की आज्ञा का उल्लंघन कर रहा है ! मालूम होता है अब तू अपने ऐश्वर्य, जीवन, माता और पिता---सभी से हाथ धो चुका है। देख ! जब भीमसेन तेरे प्राण लेने को तैयार होगा, उस समय तुझे अपने पिताजी की बातें याद आयेंगी। फिर व्यासजी ने कहा---धृतराष्ट्र ! तुम मेरी बात सुनो। तुम श्रीकृष्ण के प्यारे हो। अहो ! तुम्हारा संजय जैसा दूत है, जो तुम्हे कल्याण के मार्ग में ही ले जायगा। इसे पुराण-पुरुष श्री हृषीकेश के स्वरूप का पूरा ज्ञान है; अतः यदि तुम इसकी बात सुनोगे तो यह तुम्हे जन्म-मरण के महान् भय से मुक्त कर देगा। जो लोग कामनाओं से अन्धे हो रहे हैं, वे अन्धे के पीछे लगे हुए अन्धे के समान अपने कर्मों के अनुसार बार-बार मृत्यु के मुख में जाते हैं। मुक्ति का मार्ग तो सबसे निराला है, उसे बुद्धिमान पुरुष पकड़ते हैं। उसे पकड़कर वे महापुरुष मृत्यु से पार हो जाते हैं और उनकी कहीं भी आसक्ति नहीं रहती।  तब धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा---भैया संजय ! तुम मुझे कोई ऐसा निर्भय मार्ग बताओ, जिससे चलकर मैं श्रीकृष्ण को पा सकूँ और मुझे परमपद प्राप्त हो जाय। संजय ने कहा---कोई अजितेन्द्रिय पुरुष श्री हृषिकेश भगवान् को प्राप्त नहीं कर सकता। इसके सिवा उन्हें पाने का कोई और मार्ग नहीं है। इन्द्रियाँ बड़ी उन्मत्त हैं, इन्हें जीतने का साधन सावधानी से भोगों को त्याग देना है। प्रमाद और हिंसा से दूर रहना---निःसंदेह यही ज्ञान के मुख्य कारण हैं। इन्द्रियों को निश्छल रूप से अपने काबू में रखना---इसी को विद्वान् लोग ज्ञान कहते हैं। वास्तव में  यही ज्ञान है और यही मार्ग है, जिससे कि बुद्धिमानलोग उस परमपद की ओर बढ़ते हैं। धृतराष्ट्र ने कहा---संजय ! तुम एक बार फिर श्रीकृष्णचन्द्र के स्वरूप का वर्णन करो, जिससे कि उनके नाम और कर्मों का रहस्य जानकर मैं उन्हें प्राप्त कर सकूँ। संजय ने कहा---मैने श्रीकृष्ण के कुछ नामों की व्युत्पत्ति ( तात्पर्य ) सुनी है। उनमें से जितना मुझे स्मरण है, वह सुनाना चाहता हूँ। श्रीकृष्ण तो वास्तव में किसी प्रमाण के विषय नही हैं। समस्त प्राणियों को अपनी माया से आवृत किये रहने तथा देवताओं के जन्मस्थान होने के कारण ये 'वासुदेव' हैं; व्यापक तथा महान् होने के कारण 'विष्णु' हैं; मौन, ध्यान और योग स प्राप्त होने के कारण 'माधव' हैं तथा मधु दैत्य का वध करनेवाले और सर्वतत्वमय होने से वे 'मधुसूदन' हैं। 'कृष्' धातु का अर्थ सत्ता है और 'ण' आनन्द का वाचक है; इन दोनो भावों से युक्त होने के कारण यदुकुल में अवतीर्ण हुए श्रीविष्णु 'कृष्ण' कहे जाते हैं। हृदयरूप पुण्डरीक ( श्वेत कमल ) ही आपका नित्य आलय और अविनाशी परम स्थान है, इसलिये 'पुण्डरीकाक्ष' कहे जाते हैं तथा दुष्टों का दमन करने के कारण 'जनार्दन' हैं; क्योंकि आप सत्वगुणों से कभी च्युत नहीं होते हैं और न कभी तत्व की आपमें कमी ही होती है, इसलिये आप सात्वत हैं। आर्य अर्थत् उपनिषदों से प्रकाशित होने के कारण आप 'आर्षभ' हैं तथा वेद ही आपके नेत्र हैं, इसलिये आप 'वृपभेक्षण' हैं। आप किसी भी उत्पन्न होनेवाले प्राणी से उत्पन्न नहीं होते इसलिये 'अज्ञ' हैं। 'उदर'---इन्द्रियों के स्वयं प्रकाशक और 'दाम'---उनका दमन करनेवाले होने से आप 'दामोदर' हैं। 'हृषीक' वृत्तिसुख और स्वरूपसुख को कहते हैं, उसके ईश होने से आप 'हृषिकेश' कहलाते हैं। अपनी भुजाओं से पृथ्वी और आकाश को धारण करनेवाले होने से आप 'महाबाहु' हैं। आप कभी अधः ( नीचे की ओर ) क्षीण नहीं होते, इसलिये 'अधोक्षज' हैं तथा नरों ( जीवों ) के अयन ( आश्रय ) होने से 'नारायण' कहे जाते हैं। जो सबमें पूर्ण और सबका आश्रय होने से 'नारायण' कहे जाते हैं। जो सबमें पूर्ण और सबका आश्रय हो, उसे 'पुरुष'  कहते हैं; उनमें श्रेष्ठ होने से आप 'पुरुषोत्तम' हैं आप सत् और असत्---सबकी उत्पत्ति और लय के स्थान हैं तथा सर्वदा उन सबको जानते हैं, इसलिये 'सर्व' हैं। श्रीकृष्ण सत्य में प्रतिष्ठित हैं और सत्य उनमें प्रतिष्ठित है तथा वे सत्य से भी सत्य हैं; इसलिये 'सत्य' भी उनका नाम है।  वे विक्रमण ( वामनावतार में अपने क्रम डगों से विश्व को व्याप्त ) करने के कारण 'विष्णु' हैं, जय करने के करण 'जिष्णु' हैं, नित्य होने के कारण 'अनन्त' हैं और गो अर्थात् इन्द्रियों के ज्ञाता होने से 'गोविन्द' हैं। वे अपनी सत्ता-स्फूर्ति से असत्य को सत्य सा दिखाकर सारी प्रजा को मोह में डाल देते हैं। निरन्तर धर् में स्थित रहनेवाले भगवान् मधुसूदन का स्वरूप ऐसा है। वे श्री अ्च्चुत भगवान् कौरवों को नाश से बचाने के लिये यहाँ पधारनेवाले हैं। धृतराष्ट्र बोले---संजय ! जो लोग अपने नेत्रों से भगवान् के तेजोमय दिव्य विग्रह का दर्शन करते हैं, उन तेजवान् पुरुषों के भाग्य की मुझे भी लालसा होती है। मैं आदि, मध्य और अन्त से रहित, अनन्तकीर्ति तथा ब्रह्मादि से भी श्रेष्ठ पुराणपुरुष श्रीकृष्ण की शरण लेता हूँ। जिन्होंने तीनों लोकों की रचना की है, जो देवता, असुर, नाग और राक्षस सभी की उत्पत्ति करनेवाले हैं तथा राजाओं और विद्वानों में प्रधान हैं, उन इन्द्र के अनुज श्रीकृष्ण की मैं शरण हूँ।

Sunday 9 October 2016

उद्योगपर्व----कर्ण का वक्तव्य, भीष्म द्वारा उसकी अवज्ञा, कर्ण की प्रतिज्ञा, विदुर का वक्तव्य तथा धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना

कर्ण का वक्तव्य, भीष्म द्वारा उसकी अवज्ञा, कर्ण की प्रतिज्ञा, विदुर का वक्तव्य तथा धृतराष्ट्र  का दुर्योधन को समझाना
तब दुर्योधन का हर्ष बढ़ाते हुए कर्ण ने कहा, 'गुरुवर  परशुरामजी से मैने जो ब्रह्मास्त्र प्राप्त किया था वह अभी तक मेरे पास है। अतः अर्जुन को जीतने में तो मैं अच्छी तरह समर्थ हूँ, उसे परास्त करने का भार मेरे ऊपर रहा। यही नहीं, मैं पांचाल, करूप, मत्स्य और बेटे-पोतों सहित अन्य सब पाण्डवों को भी एक क्षण में मारकर शस्त्रास्त्र के द्वारा प्राप्त होनेवाले लोकों को प्राप्त करूँगा। पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य तथा अन्य राजालोग भी आपके ही पास रहें; पाण्डवों को तो अपनी प्रधान सेना के सहित जाकर मैं ही मार दूँगा। यह काम मेरे जिम्मे रहा।' जब कर्ण इस प्रकार कह रह था तो भीष्मजी कहने लगे---'कर्ण ! तुम्हारी बुद्धि तो कालवश नष्ट हो गयी है। तुम क्या बढ़-बढ़कर बातें बना रहे हो ! याद रखो, इन कौरवों की मृत्यु तो पहले तुम-जैसे प्रधान वीर के मारे जाने पर ही होगी। इसलिये तुम अपनी रक्षा का प्रबंध करो।  अजी ! खाण्डव वन का दाह कराते समय श्रीकृष्ण के सहित अर्जुन ने जो काम किया था, उसे सुनकर ही तुम्हे अने बन्धु-बान्धवों के सहित होश में आ जाना चाहिये। देखो, दानासुर और भौमासुर का वध करनेवाले श्रीकृष्ण अर्जुन की रक्षा करते हैं ! इस घोर संग्राम में तुम जैसे चुने-चुने वीरों का ही नाश करेंगे।' यह सुनकर कर्ण बोला ----पितामह जैसा कहते हैं, श्रीकृष्ण तो निःसंदेह वैसे ही हैं---बल्कि उससे भी बढ़कर हैं। परन्तु इन्होंने मेरे लिये जो कड़ी बातें कही हैं, उनका परिणाम भी कान खोलकर सुन लें। अब मैं अब मैं अपना शंख रखे देता हूँ। आज से मुझे पितामह रणभूमि या राजसभा में नहीं देखेंगे। बस, अब आपका अन्त हो जायगा तभी पृथ्वी के सब राजा लोग मेरा प्रभाव देखेंगे। ऐसा कहकर महान् धनुर्धर कर्ण सभा से उठकर अपने घर चला गया।
अब भीष्मजी सब राजाओं के सामने हँसते हुए राजा दुर्योधन से कहने लगे---"राजन् ! कर्ण तो सत्यप्रतिज्ञ है। फिर उसने जो राजाओं के सामने ऐसी प्रतीज्ञा की थी कि 'मैं नित्यप्रति सहस्त्रों ववीरों का संहार करूँगा', उसे वह कैसे पूरी करेगा ? इसका धर्म और तप तो तभी नष्ट हो गया था, जब इसने भगवान् परशुरामी के पास जाकर अपने को ब्राह्मण बताते हुए उनसे शस्त्रविद्या सीखी थी।' जब भीष्म ने इस प्रकार कहा और कर्ण शस्त्र छोड़कर सभा से चला गया तो मन्दमति दुर्ोधन कहने लगा---पितामह ! पाण्डवलोग और हम अस्त्रविद्या, योद्धाओों के संग्रह तथा शस्त्र-संचालन की फुर्ती और सफाई में समान ही हैं और हैं भी दोनो मनुष्य-जाति के ही; फिर आप ऐसा कैसे समझते हैं कि पाण्डवों की ही विजय होगी ? मैं, आप, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, बाह्लिक  अथवा अन्य राजाओं के बल पर यह युद्ध नहीं ठान रहा हूँ। पाँचों पाण्डवों को तो मैं, कर्ण और भाई दुःशासन---हम तीन ही अपने पैने बाणों से मार डालेंगे। इसपर  विदुरजी ने कहा---वृद्ध पुरुष इस लोक में दम को ही कल्याण का साधन बताते हैं। जो पुरुष दम, दान, तप ज्ञान और स्वाध्याय का अनुसरण करता रहता है, उसी को दान, क्षमा और मोक्ष यथावत् रूप से प्राप्त होते हैं। दम तेज की बृद्धि करता है, दम पवित्र और सर्वश्रेष्ठ है। इस प्रकार जिसका पाप निवृत होकर तेज बढ़ गया है, वह परमपद प्राप्त कर अचंचलता, उदीनता, अक्रोध, संतोष और श्रद्धा---इतने गुण हों, वह दममुक्त कहा जाता है। दमनशील पुरुष काम, लोभ, दर्प, निद्रा, बढ़-बढ़कर बातें बनाना, मान, इर्ष्या और शोक---इन्हें तो अपने पास नहीं फटकने देता। कुटिलता और शठता से रहित होना तथा  शुद्धता से रहना---यह दमशील पुरुष का लक्षण है। जो पुरुष ललोलुपतारहित, भोगों के चिन्तन से बिमुख और समुद्र के समान गम्भीर होता है, वह दमशील कहा गया है। अच्छे आचरणवाला, शीलवान्, प्रसन्नचित्त, आत्ममवेत्ता और बुद्धिमान पुरुष इस लोक में सम्मान पाकर मरने पर सद्गति प्राप्त करता है। तात ! हमने पूर्वपुरुषों के मुख से सुना था कि किसी समय एक चिड़िमार ने चिड़ियों को  फँसाने के लिये पृथ्वी पर जाल फैलाया। उस जाल में साथ-साथ रहनेवाले दो पक्षी फँस गये। तब वे  दोनो उस जाल को लेकर उड़ चले। चिडिमार उन्हें आकाश में चढ़े देखकर उदास हो गया और जिधर-जिधर वे जाते, उधर-उधर ही उनके पीछे दौड़ रहा था। इतने में ही एक मुनि की उसपर दृष्टि पड़ी।  मुनिवर ने व्याधे से पूछा, 'अरे व्याघ्र ! मुझे यह बात विचित्र जान पड़ती है कि तू उड़ते हुए पक्षियों के पीछे पृथ्वी पर भटक रहा है !' व्याघ्र ने कहा, 'ये दोनो पक्षी आपस में मिल गये हैं, इसलिये मेरे जाल को लिये जा रहे हैं। अब जहाँ इसमें झगड़ा होने लगेगा, वहीं ये मेरे वश में आ जायेंगे।' थोड़ी देर ही में काल के वशीभूत हुए उन पक्षियों में झगड़ा होने लगा और वे लड़ते-लड़ते पृथ्वी पर गिर पड़े। बस, चिड़िमार ने चुपचाप उनके पास जाकर उन दोनों को पकड़ लिया। इसी प्रकार जब दो कुटुम्बियों में सम्पत्ति के लिये परस्पर झगड़ा होने लगता है तो वे शत्रुओं के चंगुल में फँस जाते हैं। आपसदारी के काम तो साथ बैठकर भोजन करना, आपस में प्रेम से बातचीत करना, एक-दूसरे के सुख-दुःख को पूछना और आपस में मलते-जुलते रहना है, विरोध करना नहीं। जो शुद्धहृदय पुरुष समय आने पर गुरुजनों का आश्रय लेते हैं, वे सिंह से सुरक्षित वन के समान किसी के भी दबाव में नहीं आ सकते। एक बार कई भील और ब्राह्मणों के साथ हम गन्धमादन पर्वत पर गये थे। वहाँ हमने एक शहद से भरा हुआ छत्ता देखा। अनेकों विषधर सर्प उसकी रक्षा कर रहे थे। वह ऐसा गुणयुक्त था कि यदि कोई उसे पा ले तो अमर हो जाय, अंधा सेवन करे तो उसे दीखने लगे और बूढ़ा युवा हो जाय। यह बात हमने रासायनिक ब्राह्मणों से सुनी थी। भील लोग उसे प्राप्त करने का लोभ न रोक सके और उस सर्पोंवाली गुफा में जाकर नष्ट हो गये। इसी प्रकार आपका पुत्र दुर्योधन अकेला ही सारी पृथ्वी को भोगना चाहता है। इसे मोहवश शहद तो दीख रहा है किन्तु अपने नाश का सामान दिखायी नहीं देता।
याद रखिये, जिस प्रकार अग्नि सब वस्तुओं को जला डालता है, वैसे ही द्रुपद, विराट और क्रोध से भरा हुआ अर्जुन---ये संग्राम में किसी को भी जीता नहीं छोड़ेंगे। इसलिये राजन् ! आप महाराज युधिष्ठिर को भी अपनी गोद में स्थान दीजिये, नहीं तो इन दोनों का युद्ध होने पर किसकी जीत होगी---यह निश्चितरूप से नहीं कहा जा सकता।
विदुरजी का वक्तव्य समाप्त होने पर राजा धृतराष्ट्र ने कहा---बेटा दुर्योधन ! मैं तुमसे जो कुछ कहता हूँ, उसपर ध्यान दो। तुम अनजान बटोही के समान इस समय कुमार्ग को ही सुमार्ग समझ रहे हो। इसी से तुम पाँचों पाण्डवों के तेज को दबाने का विचार कर रहे हो। परंतु याद रखो, उन्हें जीतने का विचार करना अपने प्राणों को संकट में डालना ही है। श्रीकृष्ण अपने देह, गेह, स्त्री और राज्य को एक ओर तथा अर्जुन को दूसरी ओर समझते हैं। उसके लिे वे इन सभी को त्याग सकते हैं। जहाँ अर्जुन रहता है, वहीं श्रीकृष्ण रहते हैं, और जिस सेना में स्वयं श्रीकृष्ण रहते हैं, उसका वेग तो पृथ्वी के लिये भी असह्य हो जाता है। देखो, तुम सत्पुरुषों और तुम्हारे हित की कहनेवाले सुहृदों के कथनानुसार आचरण करो और इन वयोवृद्ध पितामह भीष्म की बात पर ध्यान दो। मैं भी कौरवों के ही हित की बात सोचता हूँ, तुम्हें मेरी बात भी सुननी चाहिये और द्रोण, कृप, विकर्ण एवं महाराज बाह्लीक के कथन पर भी ध्यान देना चाहिये। भरतश्रेष्ठ ! ये सब धर्म के धर्मज्ञ और कौरव एवं पाण्डवों पर समान स्नेह रखनेवाले हैं। अतः तुम पाण्डवों को अपने सगे भाई समझकर उन्हें आधा राज्य दे दो।

Tuesday 4 October 2016

उद्योग-पर्व--संजय से पाण्डवपक्ष के वीरों का विवरण सुनकर धृतराष्ट्र का युद्ध न करने की सम्मति देना, दुर्योधन का उससे असहमत होना तथा संजय का राजा धृतराष्ट्र को श्रीकृष्ण का संदेश सुनाना-

संजय से पाण्डवपक्ष के वीरों का विवरण सुनकर धृतराष्ट्र का युद्ध न करने की सम्मति देना, दुर्योधन का उससे असहमत होना तथा संजय का राजा धृतराष्ट्र को श्रीकृष्ण का संदेश सुनाना
धृतराष्ट्र ने पूछा---संजय ! जो पाण्डवों के लिये मेरे पुत्र की सेना से युद्ध करेंगे, ऐसे किन-किन वीरों को तुमने युधिष्ठिर की प्रसन्नता के लिये वहाँ आये हुये देखा था ?  संजय ने कहा--- मैने अंधक और वृष्णिवंशीय यादवों में प्रधान श्रीकृष्ण को तथा चेकितान के सात्यकि को वहाँ मौजूद देखा था। ये दोनो सुप्रसिद्ध महारथी अलग-अलग एक-एक अक्षौहिणी सेना लेकर और पांचालनरेश द्रुपद अपने दस पुत्र सत्यजित और धृष्टधुम्नादि के सहित एक अक्षौहिणी सेना लेकर आये हैं। महाराज विराट भी शंख और उत्तर नामक अपने पुत्र तथा सूर्यदत्त और मदिराक्ष इत्यादि वीरों के साथ एक अक्षौहिणी सेना लेकर युधिष्ठिर से मिले हैं।  इसके सिवा केकय देश के पाँच सहोदर राजा भी एक अक्षौहिणी सेना के साथ पाण्डवों के पास आये हैं। मैने यहाँ आये हुए केवल इतने ही राजा देखे हैं, जो पाण्डवों के लिये दुर्योधन का सामना करेंगे। राजन् ! संग्राम के लिये भीष्म शिखण्डी के हिस्से में रखे गये हैं। उसके पृष्ठपोषक रूप से मत्स्यदेशीय वीरों के साथ राजा विराट रहेंगे। मद्रराज शल्य युधिष्ठिर के जिम्मे हैं। अपने सौ भाई और पुत्रों के सहित दुर्योधन तथा पूर्व और दक्षिण दिशाओं के राजा भीमसेन के भाग हैं। कर्ण, अश्त्थामा, विकर्ण और सिन्धुराज जयद्रथ से लड़ने का काम अर्जुन को सौंपा गया है। इनके सिवा और भी जिन राजाओं के साथ दूसरों का युद्ध करना संभव नहीं है, उन्हे भी अर्जुन ने अपने ही हिस्से में रखा है। केकय देश के महान् धनुर्धर पाँच सहोदर राजपुत्र हैं, वे हमारे पक्ष के केकयवीरों के साथ ही युद्ध करेंगे। दुर्योधन और दुःशासन के सब पुत्र और राजा बृहद्वल सुभद्रानन्दन अभिमन्यु के भाग में रखे गये हैं। धृष्टधुम्न के नेतृत्व में द्रौपदी  के पुत्र आचार्य द्रोण का सामना करेंगे। सोमदत्त के साथ चेकितान का रथयुद्ध होगा और भोजवंशीय कृतवर्मा के साथ सात्यकि लड़ना चाहता है। माद्री के पुत्र महावीर सहदेव ने स्वयं ही आपके साले शकुनि को अपने हिस्से में रखा है तथा माद्रीनन्दन नकुल ने उलूक, कैतव्य और सारस्वतों के साथ युद्ध करने का निश्चय किया है। इनके सिवा इस महायुद्ध में और भी जो-जो राजा आपकी ओर से युद्ध करेंगे, उनके नाम ले-लेकर युद्ध करने के लिये पाण्डवों ने योद्धाओं को नियुक्त कर दिया है। राजन् ! मैं निश्चिन्त बैठा हुआ था। उस समय धृष्टधुम्न ने मुझसे कहा कि 'तुम शीघ्र ही यहाँ से जाओ और तनिक भी के पक्ष के वीर हैं उनसे, बाह्लिक, कुरु और प्रतीप के वंशधरों से तथा कृपाचार्य, कर्ण, द्रोण, अश्त्थामा, जयद्रथ, विकर्ण, राजा दुर्योधन और भीष्म से जाकर कहो कि तुम्हे महाराज युधिष्ठिर के साथ भलेपन से ही व्यवहार करना चाहिये। ऐसा न हो कि देवताओं से सुरक्षित अर्जुन तुम्हे मार डाले। तुम जल्दी ही धर्मराज को उनका राज्य सौंप दो; वे लोक में सुप्रसिद्ध वीर हैं, तुम उनसे क्षमा प्रार्थना करो। सव्यसाची अर्जुन जैसे पराक्रमी हैं, वैसा योद्धा इस पृथ्वीतल पर दूसरा नहीं है। गाण्डीवधारी अर्जुन के रथ की रक्षा देवतालोग करते हैं, कोई भी मनुष्य उन्हें नहीं जीत सकता; इसलिये तुम युद्ध के लिये मन मत चलाओ।
यह सुनकर राजा धृतराष्ट्र ने कहा---दुर्योधन ! तुम युद्ध का विचार छोड़ दो। महापुरुष युद्ध को तो किसी भी अवस्था में अच्छा नहीं बताते। इसलिये बेटा ! तुम पाण्डवो को उनका यथोचित भाग दे दो, तुम्हारे और तुम्हारे मंत्रियों के निर्वाह के लिये तो आधा राज्य ही बहुत है।  देखो, न तो मैं युद्ध करना चाहता हूँ, न बाह्लीक उसके पक्ष में है और न भीष्म, द्रोण, अश्त्थामा, संजय, सोमदत्त, शल या कृपाचार्य ही युद्ध करना चाहते हैं।  इनके सिवा सत्यव्रत, पुरुमित्र, जय और भूरिश्रवा भी युद्ध के पक्ष में नहीं हैं। मैं समझता हूँ तुम भी अपनी इच्छा से यह युद्ध नहीं कर रहे हो; बल्कि पापात्मा दुःशासन, कर्ण और शकुनि ही तुमसे यह काम करा रहे हैं।  इसपर दुर्योधन ने कहा---पिताजी ! मैने आप,द्रोण, अश्त्थामा, संजय, भीष्म, काम्बोजनरेश, कृप, सत्यव्रत पुरुमित्र, भूरिश्रवा अथवा आपके अनान्य योद्धाओं के भरोसे पाण्डवों को युद्ध के लिये आमंत्रित नहीं किया है। इस युद्ध में पाण्डवों का संहार तो मैं, कर्ण और भाई दुःशासन---हम तीन ही कर लेंगे। या तो पाण्डवों को मारकर मैं ही इस पृथ्वी का शासन करूँगा या पाण्डवलोग ही मुझे मारकर इसे भोगेंगे। मैं जीवन, राज्य और धन---ये सब तो छोड़ सकता हूँ; किन्तु पाण्डवों के साथ रहना मेरे वश की बात नहीं है। सूई के बारीक नोक से जितनी जमीन छिद सकती है, उतनी भी मैं पाण्डवों को नहीं दे सकता।धृतराष्ट्र ने कहा---बन्धुओं ! मुझे तुम सभी कौरवों के लिये बड़ा शोक है। दुर्योधन को तो मैने त्याग दिया; किन्तु जो लोग इस मूर्ख का अनुसरण करेंगे, वे भी अवश्य यमलोक में जायेंगे। जब पाण्डवों की मार से कौरवसेना व्याकुल हो जायगी, तब तुम्हें मेरी बात का स्मरण होगा। फिर संजय से कहा, संजय ! महात्मा श्रीकृष्ण और अर्जुन ने तुमसे जो-जो बातें कही हैं, वे सब मुझे सुनाओ; उन्हें सुनने की मेरी बड़ी इच्छा है।'संजय ने कहा---राजन् ! श्रीकृष्ण और अर्जुन को मैने जिस स्थिति में देखा था, वह सुनिये तथा उन वीरों ने जो कुछ कहा है, वह भी मैं आपको सुनाता हूँ। महाराज ! आपका संदेश सुनाने के लिये मैं अपने पैरों की अंगुलियों की ओर दृष्टि रखकर बड़ी सावधानी से हाथ जोड़े उनके अंतःपुर में गया। उस स्थान में अभिमन्यु और नकुल-सहदेव भी नहीं जा सकते थे। वहाँ पहुँचने पर मैने देखा कि श्रीकृष्ण अपने दोनो चरण अर्जुन की गोद में रखे हुए बैठे हैं तथा अर्जुन के चरण द्रौपदी और सत्यभामा की गोद में है। अर्जुन ने बैठने के लिये मुझे एक सोने का पादपीठ ( पैर रखने की चौकी ) दिया। मैं उसे हाथ से स्पर्श करके पृथ्वी पर बैठ गया।उन दोनो महापुरुषों को एक आसन पर बैठे देखकर मुझे बड़ा भय मालूम हुआ और मैं सचने लगा कि मन्दबुद्धि दुर्योधन कर्ण की बकवाद में आकर इन विष्णु और इन्द्र के समान वीरों के स्वरूप को कुछ नहीं समझता। उस समय मुझे तो यही निश्चय हुआ कि ये दोनो जिनकी आज्ञा में रहते हैं, उन धर्मराज युधिष्ठिर के मन का संकल्प ही पूरा होगा। वहाँ अन्न-पानादि से मेरा सत्कार किया गया। फिर आराम से बैठ जाने पर मैने हथ जोड़कर उन्हें आपका संदेश सुनाया। इसपर अर्जुन ने श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम करके उसका उत्तर देने के लिये प्रार्थना की। तब भगवान् बैठ गये और आरम्भ में मधुर किन्तु परिणाम में कठोर शब्दों में मुझसे कहने लगे---"संजय ! बुद्धिमान धृतराष्ट्र भीष्म और आचार्य द्रोण से तुम हमारी ओर से यह संदेश कहना। तुम बड़ों को प्रणाम कहना तथा छोटों से कुशल पूछकर उन्हें कहना कि 'तुम्हारे सिर पर बड़ा संकट आ गया है; इसलिये तुम अनेक प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान करो, दान दो तथा स्त्री और पुरुषों के साथ कुछ दिन आनन्द भोग लो।'  देखो, अपना चीर खींचे जाते समय द्रौपदी ने जो 'हे गोविन्द' ऐसा कहकर कुछ द्वारकावासी को पुकारा था, उसका ऋण मेरे ऊपर बहुत बढ़ गया है; वह एक क्षण को भी मेरे हृदय से दूर नहीं होता। भला, जिसके साथ मैं हूँ उस अर्जुन से युद्ध करने की प्रार्थना ऐसा कौन मनुष्य कर सकता है, जिसे सिर पर काल न नाच रहा हो ? मुझे तो देवता, असुर, मनुष्य, यक्ष गन्धर्व और नागों में ऐसा कोई भी दिखायी नहीं देता जो रणभूमि में अर्जुन का सामना कर सके। विराटनगर में तो उसने अकेले ही सारे कौरवों में भगदड़ मा दी थी और इधर-उधर चंपत हो गये थे---यही इसका पर्याप्त प्रमाण है। बल, वीर्य, तेज, फुर्ती, काम की सफाई, अविवाद और धैर्य---ये सारे गुण अर्जुन के सिवा किसी एक व्यक्ति में नहीं मिलते।" इस प्रकार अर्जुन को उत्साहित करते हुए श्रीकृष्ण ने मेघ के समान गरजकर ये शब्द कहे थे।