भगवान् श्रीकृष्ण से द्रौपदी की बातचीत
तथा उनका हस्तिनापुर के लिये प्रस्थान
तब महाराज
युधिष्ठिर के धर्म और अर्थयुक्त वचन सुनकर तथा भीमसेन को शान्त देखकर द्रुपदनन्दिनी कृष्णा,
सहदेव और सात्यकि की प्रशंसा करती हुई रो-रोकर इस प्रकार कहने लगी, 'धर्मज्ञ मधुसूदन
! दुर्योधन ने जिस प्रकार क्रूरता का आश्रय लेकर पाण्डवों को राजसुख से वंचित किया
था, वह तो आपको मालूम ही है तथा संजय को राजा धृतराष्ट्र ने एकान्त में एकान्त में
अपना जो विचार सुनाया है, वह भी आपसे छिपा नहीं है। इसलिये यदि दुर्योधन हमारा राज्य का भाग दिये बिना
ही सन्धि करना चाहे तो आप उसे किसी प्रकार स्वीकार न करें। इन वीरों के साथ पाण्डवलोग दुर्योधन की रणोन्मत्त सेना
से अच्छी तरह मुकाबला कर सकते हैं। साम या दान के द्वारा कौरवों से अपना प्रयोजन सिद्ध
होने की कोई आशा नहीं है, इसलिये आप भी उनके प्रति कोई ढ़ील-ढ़ाल न करें; क्योंकि जिसे
अपनी जीविका को बचाने की इच्छा हो, उसे साम या दान से काबू में न आनेवाले शत्रु के
प्रति दण्ड का ही प्रयोग करना चाहिये।
अतः अच्युत
! आपको भी पाण्डवों और संजय वीरो के साथ लेकर उन्हें शीघ्र ही बड़ा दण्ड देना चाहिये।
'जनार्दन ! शास्त्र का मत है कि जो दोष अवध्य का वध करने में है, वही वध्य का वध न
करने भी है। अतः आप भी पाण्डव, यादव और सृंजय वीरों के सहित ऐसा काम करें, जिससे आपको
यह दोष स्पर्श न कर सके। भला, बताइये तो मेरे समन पृथ्वी पर कौन स्त्री है। मैं महाराज
द्रुपद की वेदी से प्रकट हुई अयोनिजा पुत्री हूँ, धृष्टधुम्न की बहन हूँ, आपकी प्रिय
सखी हूँ, महात्मा पाण्डु की पुत्रवधू हूँ और पाँच इन्द्रों के समान तेजस्वी पाण्डवों
की पटरानी हूँ। इतनी सम्मानिता होने पर भी मुझे केश पकड़कर सभा में लाया गया और फिर
वहीं पाण्डवों के सामने और आपके जीवित रहते मुझे अपमानित किया गया। हाय ! पाण्डव, यादव
और पांचाल वीरों के दम-में-दम रहते मैं इन पापियों की सभा में दासी की दशा में पहुँच
गयी।किन्तु मुझे ऐसी स्थिति में देखकर भी पाण्डवों को न तो क्रोध ही आया और न इन्होंने
कोई चेष्टा ही की। इसलिये मैं तो यही कहती हूँ कि यदि दुर्योधन एक मुहूर्त भी जीवित
रहता है तो अर्जुन की धनुर्धरता और भीमसेन की बलवत्ता को धिक्कार है। अतः आप यदि आप
मुझे अपनी कृपापात्री समझते हैं और वास्तव में मेरे प्रति आपकी दयादृष्टि है तो आप
धृतराष्ट्र के पुत्रों पर पूरा-पूरा कोप कीजिये। इसे पश्चात् द्रौपदी अपने काले-काले
लम्बे केशों को बायें हाथ में लिये श्रीकृष्ण के पास आयी और नेत्रों में जल भरकर उनसे
कहने लगी---।कमलनयन श्रीकृष्ण ! शत्रुओं से सन्धि करने की तो आपकी इच्छा है; किन्तु
अपने इस सारे प्रयत्न में आप दुःशासन के हाथों से खींचे हुए इस केशपाश को याद रखें। यदि भीम और अर्जुन कायर
होकर आज सन्धि के लिये ही उत्सुक हैं तो अपने महारथी पुत्रों के सहित मेरे वृद्ध पिता
कौरवों से संग्राम करेंगे तथा अभिमन्यु-सहित मेरे पाँच महारथी पुत्र उनके साथ जूझेंगे।
यदि मैने दुःशासन की साँवली भुजा को कटकर धूलधूसरित होते न देखा तो मेरी छाती कैसे
ठण्ढ़ी होगी ? इस प्रज्जवलित अग्नि के समान प्रचण्ड क्रोध को हृदय में रखकर प्रतीक्षा
करते हुए मुझे तेरह वर्ष बीत गये हैं। आज भीमसेन के वाग्वाण से बिंधकर मेरा कलेजा फटा जा रहा है। हाय ! अभी
ये धर्म को ही देखना चाहते है !' इतना कहकर विशालाक्षी द्रौपदी का कण्ठ भर आया, आँखों
से आँसुओं की झड़ी लग गयी, होंठ काँपने लगे और वह फूट-फूटकर रोने लगी। तब विशालबाहु श्रीकृष्ण
ने उसे धैर्य बँधाते हुए कहा---'कृष्णे ! तुम शीघ्र ही कौरवों की स्त्रियों को रुदन
करे देखोगी। आज जिनपर तुम्हारा कोप है, उन शत्रुओं के स्वजन, सुहृद और सेनादि के नष्ट
हो जाने पर उनकी स्त्रियाँ भी इसी प्रकार रोवेंगी। महाराज युधिष्ठिर की आज्ञा
से भीम, अर्जुन और नकुल-सहदेव के सहित मैं भी ऐसा ही काम करूँगा। यदि काल के वश में पड़े हुए
धृतराष्ट्रपुत्र मेरी बात नहीं सुनेंग तो युद्ध में मारे जाकर कुत्ते और गीदड़ों के
भोजन बनेंगे। तुम निश्चय मानो--- हिमालय भले ही अपने स्थान से टल जाय, पृथ्वी के सैकड़ों
टुकड़े जायँ, तारों से भरा हुआ आकाश टूट पड़े, किन्तु मेरी बात झूठी नहीं हो सकती। कृष्णे ! अपने आँसुओं को
रोको, मैं सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि तुम शीघ्र ही शत्रओंके मारे जाने से अपने
पतियों को श्रीसम्पन्न देखोगी। ' अर्जुन ने कहा---श्रीकृष्ण ! इस समय सभी कुरुवंशियों के आप ही सबसे
बड़े सुहृद् हैं। आप दोनों ही पक्षों के सम्बन्धी और प्रिय हैं। इसलिये पाण्डवों के
साथ कौरवों का मेल कराकर सन्धि भी करा सकते हैं। श्रीकृष्ण बोले---वहाँ जाकर मैं ऐसी
ही बातें कहूँगा, जो धर्म के अनुकूल होंगी तथा जिनसे हमारा और कौरवों का हित होगा।
अच्छा, अब मैं राजा धृतराष्ट्र से मिलने के लिये जाता हूँ। कृष्णचन्द्र ने शरद् ऋतु
का अन्त होने पर हेमन्त का आरम्भ होने के समय कार्तिक मास में रेवती नक्षत्र और मैत्र
मुहूर्त में यात्रा आरम्भ की। उस समय उन्होंने अपने पास बैठे हुए सात्यकि से कहा कि
' तुम मेरे रथ में शंख, चक्र, गदा, तरकस, शक्ति आदि सभी शस्त्र रख दो।' इस प्रकार उनका
विार जानकर सेवकलोग रथ तैयार करने के लिये दौड़ पड़े। उन्होंने नहला-धुलाकर सैव्य, सुग्रीव,
मेघपुष्प और बलाहक नाम के घोड़ों को रथ में जोता तथा उसकी ध्वजा पर पक्षिराज गरुड़ विराजमान
हुए। इसके पश्चात् श्रीकृष्ण उसपर चढ़ गये तथा सात्यकि को भी अपने साथ बैठा लिया। फिर
जब रथ चला तो उसकी घरघराहट से पृथ्वी और आकाश गूँज उठे। इस प्रकार उन्होंने हस्तिनापुर
प्रस्थान किया। भगवान् के चलने पर कुन्तिपुत्र युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव,
चेकितान, चेदिराज, धृष्टकेतू, द्रुपद, काशीराज, शिखण्डी, धृष्टधुम्न, पुत्रों के सहित
राजा विराट और केकयराज भी उन्हें पहुँचाने को चले। इस समय महाराज युधिष्ठिर ने सर्वगुणसम्पन्न
श्रीश्यामसुन्दर को हृदय से लगाकर कहा, 'गोविन्द ! हमारी जिस अबला माता ने हमें बालकपन से ही पाल-पोसकर
बड़ा किया है, जो निरन्तर उपवास और तप में लगी रहकर हमारे कुशल-क्षेम का ही प्रयत्न
करती रहती है तथा जिसका देवता और अतिथियों के सत्कार और गुरुजनों की सेवा में बड़ा अनुराग
है, उससे आप कुशल पूछें। उसे हर समय हमारा शोक सालता रहता है।
आप हमारे
नाम लेकर हमारी ओर से उसे प्रणाम कहें। शत्रुदमन श्रीकृष्ण ! क्या कभी वह समय आवेगा,
जब इस दुःख से छूटकर हम अपनी दुःखिनी माता को कुछ सुख पहुँचा सकेंगे।इसके सिवा राजा
धृतराष्ट्र और हमसे बयोबृद्ध राजाओं से तथा भीष्म, द्रोण, कृप, बाह्लीक, द्रोणपुत्र
अश्त्थामा, सोमदत्त और अन्यान्य भरतवंशियों से हमारा यथायोग्य अभिवादन कहें एवं कौरवों
के प्रधानमंत्री अगाधबुद्धि विदुरजी को मेरी ओर से आलिंगन करें।' इतना कहकर महाराज
युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण की परिक्रमा की और उनसे आज्ञा लेकर लौट गये। फिर रास्ते में
चलते-चलते अर्जुन ने कहा---'गोविन्द ! पहले मंत्रणा के समय हमलोगों को आधा राज्य देने
की बात हुई थी---उसे सब राजालोग जानते हैं। अब दुर्योधन ऐसा करने के लिये तैयार हो,
तब तो बड़ी अच्छी बात है; उसे भी बहुत बड़ी आपत्ति से छुट्टी मिल जायगी। और यदि ऐसा न
किया तो मं अवश्य ही उसके पक्ष के समस्त क्षत्रिय वीरों का नाश कर दूँगा। ' अर्जुन
की यह बात सुनकर भीमसेन भी बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने बड़े जोर से सिंहनाद किया। उससे
भयभीत होकर बड़े-बड़े धनुर्धर भी काँपने लगे। इस प्रकार श्रीकृष्ण को अपना निश्चय सुनाकर,
उनका आलिंगन कर अर्जुन भी लौट आये। इस तरह सभी राजाओं के लौट जाने पर श्रीकृष्ण बड़ी
तेजी से हस्तिनापुर की ओर चल दिये। मार्ग में श्रीकृष्ण ने रास्ते के दोनो ओर खड़े हुए
अनेकों महर्षि देखे। वे सब ब्रह्मतेज से देदिप्यमान थे। उन्हें देखते ही वे तुरन्त
रथ से उतर पड़े और उन्हें प्रणाम कर बड़े आदरभाव से कहने लगे, 'कहिये, सब लोकों में कुशल
है ? धर्म का ठीक-ठाक पालन हो रहा है ? आपलोग इस समय किधर जा रहे हैं ? मैं आपकी क्या
सेवा करूँ ?' तब परशुरामजी ने श्रीकृष्ण को गले लगाकर कहा---'यदुपते ! ये सब देवर्षि,
ब्रह्मर्षि और राजर्षिलोग प्राचीनकाल के अनेकों देवता और असुरों को देख चुके हैं। इस
समय ये हस्तिनापुर में एकत्रित हुए क्षत्रिय राजाओं को, सभासदों और आपको देखने के लिये
जा रहे हैं। यह सब समारोह अवश्य ही बड़ा दर्शनीय होगा। वहाँ कौरवों की राजसभा में आप
जो धर्म और अर्थ के अनुकूल भाषण करेंगे, उसे सुनने की हमारी इच्छा है। उस सभा में भीष्म,
द्रोण और महामति विदुर-जैसे महापुरुष तथा आप भी मौजूद होंगे। उस समय हम आपके और उनके
दिव्य वचन सुनना चाहते हैं। वे वचन अवश्य ही हितकर और यथार्थ होंगे। वीरवर ! आप पधारिये,
हम सभा में ही आपके दर्शन करेंगे। देवकीनन्दन श्रीकृष्ण के हस्तिनापुर जाते समय दस
महारथी, एक हजार पैदल, एक हजार घुड़सवार, बहुत सी भोजन-सामग्री और सैकड़ों सेवक भी उनके
साथ थे। उनके चलते समय जो शकुन और अपशकुन हुए, उन्हें मैं सुनाता हूँ। उस समय बिना
ही बादलों के बड़ी भीषण गर्जना और बिजली की कड़क हुई तथा वर्षा होने लगी। पूर्व दिशा
की ओर बढ़ने वाली छः नदियाँ तथा समुद्र---ये उलटे बहने लगे। सब दिशाएँ ऐसी अनश्चित हो
गयीं कि कुछ पता ही नहीं लगता था। किन्तु मार्ग में जहाँ-जहाँ श्रीकृष्ण चलते थे, वहाँ
बड़ा सुखप्रद वायु चलता था और शकुन भी अच्छे ही होते थे। जहाँ-तहाँ सहस्त्रों ब्राह्मण
उनकी स्तुति करते तथा मधुपर्क और अनेकों मांगलिक द्रव्यों से सत्कार करते थे। इस प्रकार
मार्ग में अनेकों पशु और ग्रामों को देखते तथा अनेकों नगर और राष्ट्रों को लाँघते वे
परम रमणीय शालियवन नामक स्थान में पहुँचे। वहाँ के निवासियों ने श्रीकृष्णचन्द्र का
बड़ा आतिथ्य सत्कार किया। इसके पश्चात् सायंकाल में, जब अस्त होते हुए सूर्य
की किरणें सब ओर फैल रही थीं, वे वृकस्थल नाम के गाँव में पहुँचे। वहाँ उन्होंने रथ
से उतरकर नियमानुसार शौचादि नित्यकर्म किया और रथ छोड़ने की आज्ञा देकर सन्ध्या-वन्दन
किया। दारुक ने घोड़े छोड़ दिये। फिर भगवान् ने वहाँ के निवासियों से कहा कि 'हम राजा
युधिष्ठिर के काम से जा रहे हैं और आज रात को वहीं ठहरेंगे।' उनका ऐसा विचार जानकर ग्रामवासियों
ने ठहरने का प्रबंध कर दिया और एक क्षण में ही खान-पान की उत्तम सामग्री जुटा दी। फिर
उस गाँव में जो प्रधान-प्रधान लोग थे, उन्होंने आकर आशीर्वाद और मांगलिक वचन कहते हुए
उनका विधिवत् सत्कार किया। इसके पश्चात् भगवान् ने उन्हें सुस्वादु भोजन कराकर स्वयं
भी भोजन किया और सब लोगों के साथ बड़े आनन्द से उस रात को वहीं रहे।