Saturday 17 December 2022

कर्ण और अर्जुन का युद्ध

संजय कहते हैं _महाराज ! भीमसेन तथा श्रीकृष्ण के इस प्रकार कहने पर अर्जुन ने सूतपुत्र के वध का विचार किया। साथ ही भूमि पर आने के प्रयोजन पर ध्यान देकर उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा_’भगवन् ! अब मैं संसार के कल्याण और सूतपुत्र का वध करने के लिये महान् भयंकर अस्त्र प्रकट कर रहा हूं ! इसके लिये आप, ब्रह्माजी, शंकरजी, समस्त देवता तथा संपूर्ण वेदवेत्ता मुझे आज्ञा दें।‘ भगवान् से ऐसा कहकर सव्यसाची ने ब्रह्माजी को नमस्कार किया और जिसका मन_ही_मन प्रयोग होता है, उस ब्रह्मास्त्र को प्रकट किया। परंतु कर्ण ने अपने बाणों की बौछार से उस अस्त्र को नष्ट कर डाला।
यह देख भीमसेन क्रोध से तमतमा उठे, उन्होंने सत्यप्रतिज्ञ अर्जुन से कहा_’सव्यसाचिन् ! सब लोग जानते हैं कि तुम परम उत्तम ब्रह्मास्त्र के ज्ञाता हो, इसलिये अब और किसी अस्त्र का संधान करो।‘ यह सुनकर अर्जुन ने दूसरे अस्त्र को धनुष पर रखा; फिर तो उससे प्रज्ज्वलित बाणों की वर्षा होने लगी, जिससे चारों दिशाएं आच्छादित हो गयीं। कोना_कोना भर गया। केवल बाण ही नहीं, उससे भयंकर त्रिशूल, फरसे, चक्र और नारायण आदि अस्त्र भी सैकड़ों की संख्या में निकलकर सब ओर खड़े हुए योद्धाओं के प्राण लेने लगे। किसी का सिर कटकर गिरा तो कोई यों ही भय के मारे गिर पड़ा, कोई दूसरे को गिरता देख स्वयं वहां से चंपत हो गया। किसी की दाहिनी बांह कटी तो किसी की बायीं। इस प्रकार किरीटधारी अर्जुन ने शत्रुपक्ष के मुख्य_मुख्य योद्धाओं का संहार कर डाला।
दूसरी ओर से कर्ण ने भी अर्जुन पर हजारों बाणों की वर्षा की। फिर भीमसेन श्रीकृष्ण और अर्जुन को ती_तीन बाणों से सींचकर बड़े जोर की गर्जना की। तब अर्जुन ने पुनः अठारह बाण चलाते; उनमें से एक बाण के द्वारा उन्होंने कर्ण की ध्वजा छेद डाली, चार बाणों से राजा शल्य को और तीन से कर्ण को घायल किया, शेष दस बाणों का प्रहार राजकुमार सभापति पर हुआ। दो बाणों से राजकुमार के ध्वजा और धनुष कट गये, पांच से घोड़े और सारथि मारे गये, फिर दो से उनकी दोनों भुजाएं कटीं और एक से मस्तक उड़ा दिया गया। इस प्रकार मृत्यु को प्राप्त होकर वह राजकुमार रथ से नीचे गिर पड़ा।
इसके बाद अर्जुन ने पुनः तीन, आठ, दो, चार और दस बाणों से कर्ण को बींध डाला। फिर अस्त्र_शस्त्रोंसहित चार सौ हाथीसवारों , आठ सौ रथियों, एक हजार घुड़सवारों, आठ सौ रथियों, एक हजार घुड़सवारों तथा आठ हजार पैदल सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया। यही नहीं, उन्होंने बाणों से कर्ण को उसके सारथि, रथ और घोड़े और ध्वजा सहित ढ़क दिया; अब वह दिखाती नहीं पड़ता था। तदनन्तर उन्होंने कौरवों को अपने बाणों का निशाना बनाया। उनकी मार खाकर कौरव चिल्लाते हुए कर्ण के पास आते और कहने लगे_’कर्ण ! तुम शीघ्र ही बाणों की वर्षा करके पाण्डु पुत्र अर्जुन को मार डालो। नहीं तो वह पहले कौरवों को ही समाप्त कर देना चाहता है।
उनकी प्रेरणा से कर्ण ने पूरी शक्ति लगाकर लगातार बहुत_से बाणों की वर्षा की, इससे पाण्डव और पांचाल सैनिकों का नाश होने लगा।
कर्ण और अर्जुन दोनों ही अस्त्र_शस्त्र विद्या के ज्ञाता थे, इसलिये बड़े _बड़े अस्त्रों का प्रयोग करके वे अपने _अपने शत्रुओं की सेना का संहार करने लगे। इतने में ही राजा युधिष्ठिर यन्त्र तथा औषधियों के बल से पूर्ण आये। हितैषी वैद्यों ने उनके शरीर से बाण निकालकर घाव अच्छा कर दिया था। धर्मराज को संग्राममभूमि में उपस्थित देखकर सबको बड़ी प्रसन्नता हुआ।
उस समय सूतपुत्र कर्ण ने अर्जुन को क्षुद्रक नामवाले सौ बाण मारे, फिर श्रीकृष्ण को साफ बाणों से बींधकर अर्जुन को भी आठ बाणों से घायल किया। साथ ही भीमसेन पर भी उसने हजारों बाणों का प्रहार किया। तब पाण्डव और सोमवीर कर्ण को तेज किये हुए बाणों से आच्छादित करने लगे। किन्तु उसने अनेकों बाण मारकर उन योद्धाओं को आगे बढ़ने से रोक दिया और उसने अपने अस्त्रों को उनके अस्त्रों को नष्ट करके रथ, घोड़े तथा हाथियों का भी संहार कर डाला। अब तो आपके योद्धा यह समझकर कि कर्ण की विजय हो गरी, ताली पीटने और सिंहनाद करने लगे।
इसी समय अर्जुन ने हंसते _हंसते दस बाणों से राजा शल्य के कवच को बींध डाला, फिर बारह तथा सात बाण मारकर कर्ण को भी घायल कर दिया। कर्ण के शरीर में बहुत से घाव हो गये, वह खून से लथपथ हो गया। 
तदनन्तर कर्ण ने भी अर्जुन को तीन बाण मारे और श्रीकृष्ण को मारने की इच्छा से उसने पांच बाण चलाये। वे बाण श्रीकृष्ण के कवच को छेदकर पृथ्वी पर जा गिरे। यह देख अर्जुन क्रोध से जल उठे, उन्होंने अनेकों दमकते हुए बाण मारकर कर्ण के मर्मस्थानों को बींध डाला। इससे कर्ण को बड़ी पीड़ा हुई, वह विचलित हो उठा; किन्तु किसी तरह धैर्य धारण कर रणभूमि में डटा रहा। तत्पश्चात् अर्जुन ने बाणों का ऐसा जाल फैलाया कि दिशाएं, कोने, सूर्य की प्रभा तथा कर्ण का रथ_इन सबका दीवाना बंद हो गया।
उन्होंने कर्ण के पहियों की रक्षा करनेवाले, आगे चलनेवाले और पीछे रहकर रक्षा करने वाले समस्त सैनिकों की बात_की_बात में सफाया कर डाला। इतना ही नहीं; दुर्योधन जिनका बड़ा आदर करता था, उन दो हजार कौरव_वीर को भी उन्होंने रथ, घोड़े और सारथि सहित मौत के मुख में पहुंचा दिया। अब तो आपके बचे हुए पुत्र कर्ण का आसरा छोड़कर भाग चले।
कौरव योद्धा मरे हुए अथवा घायल होकर चीखते_चिल्लाते हुए बाप_बेटों को भी छोड़कर पलायन कर गये। उस समय कर्ण ने जब चारों ओर दृष्टि डाली तो उसे सब सूना ही दिखाती पड़ा; भयभीत होकर भागे हुए कौरवों ने उसे अकेला ही छोड़ दिया था; किन्तु इससे उसको तनिक भी घबराहट नहीं हुई। उसने पूर्ण उत्साह के साथ अर्जुन पर धावा किया।





Saturday 3 December 2022

अश्वत्थामा का दुर्योधन से सन्धि के लिये प्रस्ताव, दुर्योधन द्वारा उसकी अस्वीकृति तथा कर्ण और अर्जुन के युद्ध में भीम और श्रीकृष्ण का अर्जुन को उत्तेजित करना

संजय कहते हैं _महाराज ! तदनन्तर दुर्योधन, कृतवर्मा, शकुनि, कृपाचार्य और कर्ण_ये पांच महारथी श्रीकृष्ण और अर्जुन पर प्राणान्तकारी बाणों का प्रहार करने लगे। यह देख धनंजय ने उनके धनुष, बाण, तरकस, घोड़े, हाथी, रथ और सारथि आदि को अपने बाणों से नष्ट कर डाला; साथ ही उन शत्रुओं का मान_मर्दन करके सूतपुत्र कर्ण को बारह बाणों का निशाना बनाया। इतने में ही वहां सैकड़ों रथी, सैकड़ों हाथीसवार और शक, तुषार, यवन तथा कम्बोज देश के बहुतेरे घुड़सवार अर्जुन ने को मार डालने की इच्छा से दौड़े आते; पर अर्जुन ने अपने बाणों तथा क्षुरों की मार से उन सबके उत्तम_उत्तम अस्त्रों तथा मस्तकों को काट गिराया। उनके घोड़ों, हाथियों और रथों को भी काट डाला। यह देख आकाश में देवताओं की दुंदुभी बज उठी, सभी अर्जुन को साधुवाद देने लगे। साथ ही वहां फूलों की वर्षा भी होने लगी। उस समय द्रोणकुमार अश्वत्थामा दुर्योधन के पास गया और उसका हाथ अपने हाथ में लेकर सान्त्वना देते हुए बोला _’दुर्योधन ! अब प्रसन्न होकर पाण्डवों से सन्धि कर लो; विरोध से कोई लाभ नहीं। आपस के इस झगड़े को धिक्कारा है ! तुम्हारे गुरुदेव अस्त्र विद्या के महान् पण्डित थे, किन्तु इस युद्ध में मारे गये। यही दशा भीष्म आदि महारथियों की भी हुई।
मैं और मामा कृपाचार्य तो अवश्य हैं, इसलिये अबतक बचे हुए हैं। अतः अब तुम पाण्डवों से मिलकर चिरकाल तक राज्य शासन करो। मेरे मना करने से अर्जुन शान्त हो जायेंगे। श्रीकृष्ण भी विरोध नहीं चाहते। युधिष्ठिर तो सभी प्राणियों के हित में लगे रहते हैं, अतः वे भी मान लेंगे। बाकी रहे भीमसेन और नकुल_सहदेव; हो ये भी धर्मराज के अधीन हैं, उनकी इच्छा के विरुद्ध कुछ भी नहीं करेंगे। तुम्हारे साथ पाण्डवों की सन्धि हो जाने पर सारी प्रजा का कल्याण होगा। फिर तुम्हारी अनुमति लेकर ये राजा लोग भी अपने _अपने देश को लौट जायं और समस्त सैनिकों को युद्ध से छुटकारा मिल जाय।
राजन् ! यदि मेरी यह बात नहीं सुनोगे तो निश्चय ही शत्रुओं के हाथ से मारे जाओगे और उस समय तुम्हें बहुत पश्चाताप होगा। आज तुमने और सारे संसार ने यह देख लिया कि अकेले अर्जुन ने जो पराक्रम किया है कि इन्द्र, यमराज, वरुण और कुबेर भी नहीं कर सकते। अर्जुन गुणों में मुझसे बढ़कर हैं, तो भी मुझे पूर्ण विश्वास है कि वे मेरी बात नहीं टालेंगे। यही, वे सदा तुम्हारे अनुकूल वर्ताव भी करेंगे। इसलिये राजन् ! तुम प्रसन्नतापूर्वक संधि हो जाने पर सारी प्रजा का कल्याण होगा।  फिर तुम्हारी अनुमति लेकर ये राजालोग भी अपने_अपने देश को लौट जायं और समस्त सैनिकों को युद्ध से छुटकारा मिल जाय। राजन् यदि मेरी यह बात नहीं सुनोगे तो निश्चय ही शत्रुओं के हाथ से मारे जाओगे और उस समय तुम्हें बहुत पश्चाताप होगा। आज तुमने और सारे संसार ने यह देख लिया कि अकेले अर्जुन ने जो पराक्रम किया है उसे इन्द्र, यमराज, वरुण और कुबेर भी नहीं कर सकते अर्जुन गुणों में मुझसे बढ़कर हैं, तो भी मुझे पूर्ण विश्वास है कि वे मेरी बात नहीं टालेंगे। यही नहीं, वे सदा तुम्हारे अनुकूल ही व्यवहार करेंगे। इसलिये राजन् ! तुम प्रसन्नतापूर्वक संधि कर लो। अपनी घनिष्ठ मित्रता के कारण ही मैं तुमसे यह प्रस्ताव कर रहा हूं। जब तुम इसे प्रेम पूर्वक स्वीकार कर लोगे तो मैं कर्ण को भी युद्ध से रोक दूंगा। विद्वान लोग चार प्रकार के मित्र बतलाते हैं, एक सहज मित्र होते हैं, जिनकी मैत्री स्वाभाविक होती है। दूसरे होते हैं संधि करके बनाते हुए मित्र। तीसरे वे हैं, जो धन देकर अपनाते गये हैं। किसी का प्रबल प्रताप देखकर जो स्वत: चरणों के निकट आ जाते हैं _शरणागत हो जाते हैं, वे चौथे प्रकार के मित्र हैं।
पाण्डवों के साथ तुम्हारी सभी प्रकार की मित्रता सम्भव है। वीरवर ! यदि तुम प्रसन्नतापूर्वक पाण्डवों से मित्रता स्वीकार कर लोगे तो तुम्हारे द्वारा संसार का बहुत बड़ा कल्याण है।
इस प्रकार जब अश्वत्थामा ने दुर्योधन से हित की बात कही तब उसने मन_ही_मन खिन्न होकर कहा_’मित्र ! तुम जो कुछ कहते हो, वह सब ठीक है; किन्तु इसके सम्बन्ध में मेरी कुछ बात भी सुन लो।
इस दुर्बुद्धि भीमसेन ने दु:शासन को मार डालने के पश्चात् जो बात कही थी, वह अब भी मेरे हृदय से दूर नहीं होती। ऐसी दशा में कैसे शान्ति मिले ? क्यों कर सन्धि हो ? गुरुपुत्र ! इस समय तुम्हें कर्ण से युद्ध बन्द कर देने की बात भी नहीं करनी चाहिए; क्योंकि अर्जुन बहुत तक गये हैं, अंत: अब कर्ण उन्हें बलपूर्वक मार डालेगा।
अश्वत्थामा से यों  दुर्योधन ने अनुनय_विनय करके उसे प्रसन्न कर लिया, फिर अपने सैनिकों से कहा_’ अरे !  तुमलोग हाथों में बाण लिये चुप क्यों बैठ गये ? शत्रुओं पर धावा करके उन्हें मार डालो।‘ इसी बीच में श्वेत घोड़ोंवाले कर्ण तथा अर्जुन युद्ध के लिये आमने _सामने आकर डट गये। दोनों ने एक_दूसरे पर महान् अस्त्रों का प्रहार आरम्भ किया। दोनों के ही सारथि और घोड़ों के शरीर बाणों से बिंध गये। खून की धारा बहने लगी। वे अपने वज्र के समान बाणों से इन्द्र और वृत्रासुर की भांति एक दूसरे पर प्रहार कर रहे थे। उस समय हाथी, घोड़े, रथ और पैदलों से युक्त दोनो ओर की सेनाएं भय से कांप रही थी।
इतने में ही कर्ण मतवाले हाथी की तरह अर्जुन को मारने की इच्छा से आगे बढ़ा। यह देख सोमकों ने चिल्लाकर कहा _’अर्जुन ! अब विलम्ब करना व्यर्थ है। कर्ण सामने है, इसे छेद डालो; इसका मस्तक उड़ा दो।‘ इसी प्रकार हमारे पक्ष के बहुतेरे योद्धा भी कर्ण से कहने लगे _’कर्ण ! जाओ, जाओ अपने तीखे बाणों से अर्जुन को मार डालो।‘ तब पहले कर्ण ने दस बड़े_बड़े बाणों से अर्जुन को बींध दिया। फिर अर्जुन ने तेज की हुई धारवाले दस सायकों से कर्ण के कांख में हंसते_हंसते प्रहार किया। अब दोनों एक_दूसरे को अपने _अपने बाणों का निशाना बनाने लगे और हर्ष में भरकर भयंकर रूप से आक्रमण करने लगे। अर्जुन ने गाण्डीव धनुष की प्रत्यंचा सुधारकर कर्ण पर नाराच, नालीक, वराहकर्ण, क्षुर, आंतरिक और अर्धचन्द्र आदि नामों की झड़ी लगा दी। किन्तु अर्जुन जो_जो बाण उसपर छोड़ते थे, उसी_उसी को वह अपने हाथों को नष्ट कर डालता था। तदनन्तर उसने आग्नेयास्त्र का प्रहार किया। इससे पृथ्वी से लेकर आकाश तक आग की ज्वाला फैल गयी। योद्धाओं के वस्त्र जलने लगे, वे रण से भाग चलें। जैसे जंगल के बीच बांस का वन जलते समय जोर_जोर से चटखने की आवाज करता है, उसी तरह आग की लपट में झुलसते हुए सैनिकों का भयंकर आर्तनाद होने लगा। आग्नेयास्त्र को बढ़ते देख उसे शान्त करने के लिये कर्ण ने वारुणास्त्र का प्रयोग किया। उससे वह आग बुझ गयी। उस समय मेघों की घटा घिरी आती और चारों दिशाओं में अंधेरा छा गया। सब ओर पानी_ही_पानी नजर आने लगा। तब अर्जुन ने वायव्यास्त्र से कर्ण के छोड़े हुए वारुणास्त्र को शान्त कर दिया; बादलों की वह घटा छिन्न_भिन्न हो गयी।  तत्पश्चात् उन्होंने गाण्डीव धनुष, उसकी प्रत्यंचा और बाणों को अभिमंत्रित करके अत्यंत प्रभावशाली ऐन्द्रेयास्त्र वज्र को प्रकट किया। उससे क्षुरप्र, आंज्लिक, अर्धचन्द्र, नालीक, नारायण और वराह कर्ण आदि तीखे अस्त्र हजारों की संख्या में छूटने लगे। उन अस्त्रों से कर्ण के सारे अंग, घोड़े, धनुष, दोनों पहिये और ध्वजाएं बिंध गयीं। उस समय कर्ण का शरीर बाणों से आच्छादित होकर खून से लथपथ हो रहा था, क्रोध के मारे उसकी आंखें बदल गयीं। अतः उसने भी समुद्र के समान गर्जना करनेवाले भागवास्त्र को प्रकट किया और अर्जुन के महेन्द्रास्त्र से प्रकट हुए बाणों के टुकड़े _टुकड़े कर डाले। इस प्रकार अपने अस्त्र से शत्रु के अस्त्र को दबाकर कर्ण ने पाण्डव सेना के रथी, हाथीसवार और पैदलों का संहार आरंभ किया। भार्गवास्त्र के प्रभाव से जब वह पांचालों और सोमकों को भी पीड़ित करने लगा तो वे भी क्रोध में भरकर उनपर टूट पड़े और चारों ओर से तीखे बाण मारकर उसे बींधने लगे। किन्तु सूतपुत्र ने पांचालों के रथी, हाथीसवार और घुड़सवारों के समुदायों को अपने बाणों से विदीर्ण कर डाला; वे चीखते _चिल्लाते हुए प्राण त्यागकर धराशाही हो गये। उस समय आपके सैनिक कर्ण की विजय समझकर सिंहनाद करने और ताली पीटने लगे।
यह देख भीमसेन क्रोध में भरकर अर्जुन से बोले_’विजय ! धर्म की अवहेलना करनेवाले इस पापी कर्ण ने आज तुम्हारे सामने ही पांचालों के प्रधान _प्रधान वीरों को कैसे मार डाला ? तुम्हें तो कालिकेय नाम के दानव भी नहीं परास्त कर सके, साक्षात् महादेवीजी से तुम्हारी हाथापाई हो चुकी है; फिर भी इस सूतपुत्र ने तुम्हें पहले ही बाण मारकर कैसे बींध डाला ? तुम्हारे चलाते हुए बाणों को इसने नष्ट कर दिया ! यह तो मुझे एक अचंभे की बात मालूम हो रही है।
अरे ! सभा में जो द्रौपदी को कष्ट दिये गये ह हैं, उनको याद करो; इस पापी ने निर्भय होकर जो हमलोगों को नपुंसक कहा तथा जो तीखी और कठोर बातें सुनायी न, उन्हें भी स्मरण करो। इन सारी बातों का ध्यान रखकर शीघ्र ही कर्ण का नाश कर डालो। तुम इतनी लापरवाही क्यों कर रहे हो ? यह लापरवाही का समय नहीं है।
तदनन्तर श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन से कहा _वीरवर ! यह क्या बात है ? तुमने जितने बार प्रहार किते, कर्ण ने प्रत्येक बार तुम्हारे अस्त्र को नष्ट कर दिया। आज तुमपर कैसा मोह छा रहा है ? ध्यान नहीं देते ? ये तुम्हारे शत्रु कौरव कितने हर्ष में भरकर गले रहे हैं ! जिस धैर्य से तुमने प्रत्येक युग में भयंकर राक्षसों को मारा और दम्भोद्भव नामक असुरों का विनाश किया है, उसी धैर्य से आज कर्ण को भी नष्ट करो।‘






इन्द्रादि देवताओं की प्रार्थना से बह्मा और शिवजी का अर्जुन की विजय घोषित करना तथा कर्ण का शल्य से और अर्जुन का श्रीकृष्ण से वार्तालाप

संजय कहते हैं_महाराज ! उधर जब कर्ण ने देखा कि वृषसेन मारा गया तो उसे बड़ा दु:ख हुआ, वह दोनों नेत्रों से आंसू बहाने लगा। फिर क्रोध से लाल आंखें किये कर्ण अर्जुन को युद्ध के लिये ललकारता हुआ आगे बढ़ा। उस समय त्रिभुवन पर विजय पाने के लिये उद्यत हुए इन्द्र और बलि के भांति उन दोनों वीरों तैयार देख संपूर्ण प्राणियों को आश्चर्य होने लगा। कौरव और पाण्डव दोनों दलों के लोग शंख और भेरी बजाने लगे। शूरवीर अपनी भुजाएं ठोकने और सिंहनाद करने लगे। उन सबकी तुमुल आवाज चारों ओर गूंजने लगी।
वे दोनों वीर जब एक_दूसरे का सामना करने के लिये दौड़े,  उस समय और काल के समान प्रतीत होते थे तथा इन्द्र एवं वृत्रासुर के समान क्रोध में भरे हुए थे। वे रूप और बल में देवताओं के तुल्य थे, उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो सूर।यह और चन्द्रमा दैवेच्छा से एकत्र हो गये हों। दोनों महाबली युद्ध के लिये नाना प्रकार के शस्त्र धारण किये हुए थे। उन्हें आमने_सामने खड़े देख आपके योद्धाओं को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन दोनों में किसकी विजय होगी इस विषय में सबको संदेह होने लगे। महाराज ! कर्ण और अर्जुन का युद्ध देखने के लिये देवता, दानव, गन्धर्व, नाग, यक्ष, पक्षी, वेदवेत्ता महर्षि, श्राद्धान्भोजी पितर तथा तप विद्या एवं औषधियों के अधिष्ठाता देवता नाना प्रकार के रूप धारण किये अन्तरिक्ष में खड़े थे। वहां उनका कोलाहल सुनाई दिया। ब्रह्मर्षियों और प्रजापतियों के साथ ब्रह्माजी तथा भगवान् शंकर भी दिव्य विमानों में बैठकर वहां युद्ध देखने आये थे। देवताओं ने ब्रह्माजी से पूछा_’भगवन् ! कौरव और पाण्डव के इन दो महान् वीरों में कौन विजयी होगा ? देव ! हम तो चाहते हैं_इनकी एक_सी विजय हो। कर्ण और अर्जुन के विवाद से सारा संसार संदेह में पड़ा हुआ है। प्रभो ! आप सभी बात बताते, इनमें से किसकी विजय होगी ?
यह प्रश्न सुनकर इन्द्र ने देवाधिदेव महादेव को प्रणाम किया और कहा_’भगवन् ! आप पहले बता चुके हैं कि श्रीकृष्ण और अर्जुन की ही विजय निश्चित है। आपकी यह बात सच्ची होनी चाहिए। प्रभो ! मैं आपके चरणों में प्रणाम करता हूं, मुझपर प्रसन्न होइये।‘ इन्द्र की प्रार्थना सुनकर ब्रह्मा और शंकरजी ने कहा_’देवराज ! महात्मा अर्जुन की ही विजय निश्चित है। उन्होंने खाण्डव_वन में अग्निदेव को तृप्त किया है, स्वर्ग से आकर तुम्हे भी सहायता पहुंचाई है। अर्जुन ने सत्य और धर्म में अटल रहनेवाले हैं; इसलिये उनकी विजय अवश्य होगी, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। संसार के स्वामी साक्षात् भगवान् नारायण ने उनका सारथि होना स्वीकार किया है; वे मनस्वी, बलवान्, शूरवीर, अस्त्र विद्या के ज्ञाता और तपस्या के धनी हैं। उन्होंने धनुर्विद्या का पूर्ण अध्ययन किया है। इस प्रकार अर्जुन विजय दिलानेवाले संपूर्ण सद्गुणों से युक्त हैं; इसके अलावे, उनकी विजय देवताओं का ही कार्य है। अर्जुन मनुष्यों में श्रेष्ठ और तपस्वी हैं।
वे अपनी महिमा से दैव के विधान को भी टाल सकते हैं; यदि ऐसा हुआ तो निश्चय ही संपूर्ण लोकों का अन्त हो जायगा। श्रीकृष्ण तथा अर्जुन के क्रोध करने पर यह संसार कहीं नहीं टिक सकता। ये ही दोनों संसार की सृष्टि करते हैं। ये ही प्राचीन ऋषि नर_नारायण हैं। इनपर किसी का शासन नहीं चलता और वे सबको अपने शासन में रखते हैं। देवलोक या मनुष्यलोक में इन दोनों की बराबरी करनेवाला कोई नहीं है। देवता, ऋषि और चारणों के साथ ये तीनों लोकएवं संपूर्ण भूत यानि सारा विश्व ब्रह्माण्ड ही इनके शासन में हैं; इनकी ही शक्ति से सब अपने _अपने कर्मों में प्रवृत हो रहे हैं। अतः विजय तो श्रीकृष्ण और अर्जुन की ही होगी। कर्ण वसुओं अथवा मरुतों के लोक में जायगा। ‘ब्रह्मा और शंकरजी के ऐसा कहने पर इन्द्र ने संपूर्ण प्राणियों को बुलाकर उनकी आज्ञा सुनायी। वे बोले _’हमारे पूज्य प्रमुखों ने संसार के हित  के लिये जो कुछ कहा है, उसे तुमलोगों ने सुना ही होगा। वह वैसे ही होगा, उसके विपरीत होना असंभव है; अंत: अब निश्चिंत हो जाओ। इन्द्र की बात सुनकर समस्त प्राणी ही विस्मित हो गये और हर्ष में भरकर श्रीकृष्ण और अर्जुन की प्रशंसा करते हुए उनपर सुगंधित फूलों की वर्षा करने लगे। देवता लोग कई तरह के दिव्य बाजे बजाने लगे।
तत्पश्चात् श्रीकृष्ण और अर्जुन ने तथा शल्य और कर्ण ने अलग_अलग अपने _अपने शंख बजाये। उस समय  उन दोनों में कायरों को डराने वाला युद्ध आरंभ हुआ। दोनों के रथों  निर्मल ध्वजाएं शोभा पा रही थीं। कर्ण की ध्वजा का डंडा रत्न का बना हुआ था, उसपर हाथी की सांकल का चिह्न था। अर्जुन की ध्वजा पर एक श्रेष्ठ वानर बैठा था, जो यमराज के समान मुंह बाये रहता था। वह अपनी झाड़ों से सबको डराया करता था, उसकी ओर देखना कठिन था। भगवान् श्रीकृष्ण ने शल्य की ओर आंखों की त्योरी और करके देखा, मानो उसे नेत्ररुपी बाणों से बींध रहे हों। शल्य ने भी उनकी ओर दृष्टि डाली। किन्तु इसमें विजय श्रीकृष्ण की ही हुई, शल्य की पलकें झंप गयीं। इसी प्रकार कुन्तीनन्दन धनंजय ने भी दृष्टि द्वारा कर्ण को परास्त किया। तदनन्तर कर्ण शल्य से हंसकर बोला_’शल्य ! यदि कदाचित् इस संसार में अर्जुन मुझे मार डाले तो तुम क्या करोगे ? शल्य ने कहा_’कर्ण ! यदि वे आज तुझे मार डालेंगे तो मैं श्रीकृष्ण तथा अर्जुन दोनों को ही मौत के घाट उतार दूंगा।‘ इसी तरह अर्जुन ने भी श्रीकृष्ण से पूछा; तब वे हंसकर कहने लगे _’पार्थ ! क्या यह भी सच हो सकता है ? कदाचित् सूर्य अपने स्थान से गिर जाय, समुद्र सूख जाय और आग अपना उष्ण स्वभाव छोड़कर शीतलता स्वीकार कर ले_ये सभी बातें संभव हो जायं; किन्तु कर्ण तुम्हें मार डाले, यह कदापि संभव नहीं है। यदि किसी तरह ऐसा हो जाय तो संसार उलट जायगा। मैं अपनी भुजाओं से ही कर्ण तथा शल्य को मसल डालूंगा।‘भगवान् की बात सुनकर अर्जुन हंस पड़े और बोले_’जनार्दन ! ये शल्य और कर्ण तो मेरे लिये काफी नहीं है। आज आप देखिएगा मैं छत्र, कवच, शक्ति, धनुष, बाण, रथ, घोड़े तथा राजा शल्य के सहित कर्ण को अपने बाणों से टुकड़े _टुकड़े कर डालूंगा। आज सूतपुत्र के स्त्रियों के विधवा होने का समय आ गया है। इस अदूरदर्शी मूर्ख ने द्रौपदी को सभा में आती देख बारंबार उसपर आक्षेप किया और हमलोगों की खिल्लियां भी उड़ायी थीं। अतः आज उसको अवश्य रौंद दूंगा।

Monday 21 November 2022

धृतराष्ट्र के दस पुत्रों का वध, कर्ण का वध और शल्य का समझाना, नकुल और वृषसेन का युद्ध, अर्जुन द्वारा वृषसेन का वध तथा कर्ण के विषय में श्रीकृष्ण अर्जुन की बातचीत

संजय कहते हैं_महाराज ! दु:शासन के मारे जाने पर आपके पुत्र, निषंगी, कवची, पाशी, दण्डधारी, धनुर्धर, अलोलुप, सह, चण्ड, वातवेग और सुवर्चा_ये दस महारथी एक साथ भीमसेन पर टूट पड़े और उन्हें बाणों की वृष्टि से आच्छादित करने लगे। इनको अपने भाई की मृत्यु के कारण बड़ा दु:ख हुआ था, इसलिये इन्होंने बाणों से मारकर भीमसेन की प्रगति रोक दी। इन महारथियों को चारों ओर से बाण मारते देख भीमसेन क्रोध से जल उठे, उनकी आंखें लाल हो गयीं और वे कोप में भरे हुए काल के समान जान पड़ने लगे। उन्होंने भल्ल नामक दस बाण मारकर आपके दसों पुत्रों को यमराज के घर भेज दिया।
उसके मरते ही कौरव की सेना भीम के डर से भाग चली। कर्ण देखता ही रह गया। महाराज प्रजा का नाश करनेवाले यमराज के समान भीम का यह पराक्रम देखकर कर्ण के भी मन में बड़ा भारी भय समा गया। राजा शल्य उसका आकार देखकर भीतर का भाव समझ गये। तब उन्होंने कर्ण से यह समयोचित बात कही_’राधानन्दन भय न करो। तुम्हारे जैसे वीर को यह शोभा नहीं देता। ये राजा लोग भीम के भय से घबराकर भागे जा रहे हैं, दुर्योधन भी भाई की मृत्यु से किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया है। भीमसेन जब दु:शासन का रक्त पी रहे थे, तभी से कृपाचार्य आदि वीर तथा मरने से बचे हुए कौरव दुर्योधन को चारों ओर से घेरकर खड़े हैं। सभी शोक से व्याकुल हैं, सबकी चेतना लुप्त हो रही है। ऐसी अवस्था में तुम पुरुषार्थ का भरोसा रखो और क्षत्रिय धर्म को सामने रखकर अर्जुन का मुकाबला करो। दुर्योधन ने सारा भार तुम्हारे ही ऊपर रखा है। तुम अपने बल और शक्ति के अनुसार उसका वहन करो। यदि विजय हुई तो बहुत बड़ी कीर्ति फैलेगी और पराजय होने पर अक्षय स्वर्ग की प्राप्ति निश्चित है।‘ शल्य की बात सुनकर कर्ण ने अपने हृदय में युद्ध के लिये आवश्यक भाव ( उत्साह अमर्स आदि को ) जगाया। इधर, महान् वीर नकुल ने वृषसेन पर चढ़ाई की और रोष में भरकर अपने शत्रु को बाणों से पीड़ित करना आरम्भ किया। उसने वृषसेन के धनुष को काट डाला। तब कर्ण के पुत्र ने दूसरा धनुष लेकर नकुल को घायल कर दिया। वह अस्त्र विद्या का ज्ञाता था इसलिये माद्री कुमार पर दिव्यास्त्रों की वर्षा करने लगा। उसने उत्तम अस्त्र के प्रहार से नकुल के सफेद रंग वाले चारों घोड़ों को मार डाला। घोड़ों के मारे जाने पर नकुल हाथों में ढ़ाल_तलवार ले रथ से कूद पड़ा और उछलता_कूदता हुआ रणभूमि में विचरने लगा। उसने बड़े _बड़े रथियों, घुड़सवारों और हाथी सवारों  मौत के घाट उतारा तथा अकेले ही दो हजार योद्धाओं का सफाया कर डाला। फिर वृषसेन को भी घायल किया और कितने ही पैदलों घोड़ों तथा हाथियों को मौत के मुंह में भेज दिया। तब कर्ण के पुत्र ने नकुल को अठारह बाणों को खींचकर कर उसके ऊपर तीखे सायकों की दूरी लगा दी। नकुल भी उसके बाणों की बौछार को व्यर्थ करता हुआ और युद्ध के अनेकों अद्भुत पैंतरे दिखाता हुआ संग्राममभूमि में विचरने लगा। इतने में ही वृषसेन ने नकुल की ढाल के टुकड़े _टुकड़े कर डाले। ढ़ाल कट जाने पर उसने तलवार के साथ दिखाने आरंभ किये, किन्तु कर्णपुत्र ने छः बाणों से उसके भी खण्ड_खण्ड कर दिये। फिर तेज किये हुये सायकों से उसने नकुल की छाती में भी गहरी चोट पहुंचायी। इससे नकुल को बहुत व्यथा हुई और सहसा छलांग मारकर भीमसेन के रथ के पास जा बैठा। अब एक ही रथ पर बैठे हुए उन दोनों महारथियों को घायल करने के लिये वृषसेन बाणों की वृष्टि करने लगा। उस समय वहां कौरवपक्ष के दूसरे योद्धा भी आ पहुंचे और सब मिलकर उन दोनों भाइयों पर बाण बरसाने लगे।
इसी समय यह जानकर कि ‘नकुल वृषसेन के बाणों से पीड़ित हैं, उसकी तलवार तथा धनुष कट गये हैं और वह रथहीन हो चुका है।‘ द्रुपद के पांचों पुत्र गरजते हुए वहां आ पहुंचे और अपने बाणों से आपकी सेना के रथ, हाथी एवं घोड़ों का संहार करने लगे। यह देख, आपके प्रधान महारथी कृपाचार्य, कृतवर्मा, अश्वत्थामा, दुर्योधन, उलूक, वृक, क्राथ और  आदि ने बाण मारकर शत्रुओं के उन ग्यारह महारथियों को आगे बढ़ने से रोक दिया। तब नवीन मेघ के समान काले और पर्वत शिखर कै समान ऊंचे एवं भयंकर वेग वाले हाथियों के साथ कुलिन्दों की सेना ने आपके महारथियों पर धावा किया। कुलिन्दराज के पुत्र ने लोहे के दस बाण मारकर सारथि और घोड़ों सहित कृपाचार्य को बहुत घायल किया, किन्तु अंत में कृपाचार्य के सायकों की मार खाकर वह हाथीसहित जमीन पर गिरा और मर गया। कुलिन्दराजकुमार का छोटा भाई गान्धारराज शकुनि से भिड़ा था, वह सूर्य की किरणों के समान चमकते हुए तोमरों से गान्धारराज के रथ की धज्जियां उड़ाकर बड़े जोर से गर्जना करने लगा। इतने में ही शकुनि ने उसका सिर काट लिया। उसी समय कुलिन्दराजकुमार के दूसरे छोटे भाई ने आपके पुत्र दुर्योधन की छाती में बहुत _से बाण मारे। तब दुर्योधन तीखे बाणों से उसे बींधकर उसके हाथी को भी छेद डाला। हाथी अपने शरीर से रक्त की धारा बहाता हुआ धरती पर गिर पड़ा। अब कुलिन्दकुमार ने दूसरा हाथी आगे बढ़ाया, उसने सारथि तथा घोड़ों सहित क्राथ के रथ को कुचल डाला। किन्तु थोड़ी ही देर में क्राथ के द्वारा चलाते हुए बाणों से विदीर्ण होकर वह हाथी भी सवारसहित धराशायी हो गया। इसके बाद हाथी पर ही बैठे हुए एक पर्वतीय राजा ने क्राथराज पर आक्रमण किया। उसने अपने बाणों से क्राथ के घोड़े, सारथि, ध्वजा तथा धनुष को नष्ट करके उसे भी मार गिराया। तब बृक ने उस पहाड़ी राजा को बारह बाण मारकर अत्यंत घायल कर दिया। चोट खाकर राजा का वह विशाल गजराज वृक पर झपटा और अपने चारों चरणों से उसने रथ और घोड़ोंसहित वृक का कचूमर निकाल डाला और अन्त में देवावृध_कुमार के बाणों से आहत होकर राजासहित वह गजराज भी काल का ग्रास बन गया। इधर देवावृधकुमार भी सहदेवपुत्र के बाणों से पीड़ित होकर गिरा और मर गया। इसके बाद दूसरा कुलिन्दयोद्धा हाथी पर सवार हो शकुनि को मारने के लिये आगे बढ़ा और उसे बाणों से पीड़ित करने लगा। यह देख गान्धारराज ने उसका भी सिर काट लिया। दूसरी ओर नकुल पुत्र शतानीक अपनी सेना के बड़े _बड़े गजराजों, घोड़ों, रथियों और पैदलों का संहार करने लगा। उस समय कलिंगराज के एक दूसरे पुत्र ने उसका सामना किया। उसने हंसते _हंसते बहुत से तीखे बाण मारकर शतानीक को घायल कर दिया। तब शतानीक ने क्रोध में भरकर क्षुराकार बाण से कलिंगराजजकुमार का मस्तक काट डाला।
इसी बीच में कर्ण कुमार वृषसेन ने शतानीक पर आक्रमण किया। उसने नकुल पुत्र को तीन बाणों से घायल करके अर्जुन को तीन, भीमसेन को तीन, नकुल को सात और श्रीकृष्ण को बारह बाणों से बींध डाला। उसका यह अलौकिक पराक्रम देख समस्त कौरव हर्ष में भरकर उसकी प्रशंसा करने लगे। अर्जुन ने देखा कि कर्णपुत्र द्वारा नकुल के घोड़े मार डाले गये हैं और उसने श्रीकृष्ण को भी बहुत घायल कर दिया है, तो वे कर्ण के सामने खड़े हुए उसके पुत्र की ओर दौड़े। उन्हें आक्रमण करते देख कर्णकुमार ने अर्जुन को एक बाण से आहत करके बड़े जोर से गर्जना की। फिर उनकी बायीं भुजा के मूलभाग में उसने  भयंकर बाण मारे। इतना ही नहीं, उसने पुनः श्रीकृष्ण को नौ और अर्जुन को दस बाणों से बींध डाला। अब अर्जुन को कुछ_कुछ क्रोध हुआ और उन्होंने मन_ही_मन वृषसेन को मार डालने का निश्चय किया। बढ़ते हुए क्रोध के कारण उनके भौंहों में तीन जगह बल पड़ गया, आंखें लाल हो गयीं। उस समय मुस्कराते हुए वे कर्ण, दुर्योधन और अश्वत्थामा आदि सभी महारथी से कहने लगे _’कर्ण ! मेरा पुत्र अभिमन्यु अकेला था और मैं उसके साथ मौजूद नहीं था, ऐसी दशा में तुम सब लोगों ने मिलकर उसका वध किया _इस काम को सब लोग खोटा बताते हैं। किन्तु आज मैं तुमलोगों के सामने ही तुम्हारे पुत्र वृषसेन का वध करूंगा। रथियों ! तुम सब मिलकर मिलकर उसे बचा सको तो बचाओ। कर्ण ! वृषसेन का वध करने के पश्चात् तुम्हें भी मार डालूंगा। सारे झगड़े की जड़ तुम्हीं हो, दुर्योधन का आश्रय पाकर तुम्हारा घमंड बहुत बढ़ गया है, इसलिये आज मैं जबरदस्ती तुम्हारा वध करूंगा और दुर्योधन का वध भीमसेन के साथ से होगा। ऐसा कहकर अर्जुन ने धनुष की टंकार की और वृषसेन पर निशाना साधकर ठीक किया, तुरंत ही उसके वध के उद्देश्य से दस बाण छोड़े। उनसे वृषसेन के मर्मस्थानों में चोट पहुंची। इसके बाद अर्जुन ने कर्णकुमार का धनुष और उसकी दोनों भुजाएं काट डालीं। फिर चार क्षुरों से उसका मस्तक उड़ा दिया। मस्तक और भुजाएं कट जाने पर वृषसेन रथ से लुढ़कअर जमीन पर आ पड़ा। पुत्र के वध से कर्ण को बड़ा दु:ख हुआ, वह रोष में भरकर श्रीकृष्ण और अर्जुन की ओर दौड़ा। महाराज ! उस समय कर्ण को आते देख भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से हंसकर कहा_’धनंजय ! आज तुम्हें जिसके साथ लोहा लेना है, वह महारथी कर्ण आ रहा है, अब संभल जाओ। देखो वह है उसका रथ; उसमें सफेद घोड़े जुते हुए हैं। रथी के स्थान पर स्वयं राधानन्दन कर्ण विराजमान हैं। रथ पर भांति_भांति की पताकाएं फहराती हैं तथा उसमें छोटी_छोटी घण्टियां शोभा पा रही हैं। जरा उसकी ध्वजा तो देखो, उसमें सर्प का चिह्न बना हुआ है। कर्ण बाणों की बौछार करता हुआ बढ़ा चला आ रहा है। उसे देखकर ये पांचाल महारथी भय के मारे अपनी सेना से भागे ,जा रहे हैं। इसलिये कुन्तीनन्दन ! तुम्हें अपनी सारी शक्ति लगाकर सूतपुत्र का वध करना चाहिए। रण में तुम देवता, असुर, गंधर्व तथा स्थावर_जंगमरूप तीनों लोकों को जीतने में समर्थ हो। इस बात को मैं जानता हूं। जिनकी मूर्ति बड़ी ही उग्र एवं भयंकर है, जिनकी तीन आंखें हैं, जो मस्तक पर जटाजूट धारण करते हैं, उन महादेव जी को दूसरे लोग देख भी नहीं सकते, फिर उनके साथ युद्ध करने की बात ही कहां है ? परन्तु तुमने समस्त जीवों का कल्याण करनेवाले उन्हीं भगवान् शिव की युद्ध के द्वारा अराधना की है। देवताओं ने भी तुम्हे वरदान दिये हैं। इसलिये तुम त्रिशूलधारी देवाधिदेव भगवान् शंकर की कृपा से कर्ण का उसी प्रकार वध करो, जैसे इन्द्र ने नमुचि का किया था। मैं आशीर्वाद देता हूं_युद्ध में तुम्हारी विजय हो। अर्जुन बोले_मधुसूदन ! संपूर्ण लोक के गुरु आप मुझपर प्रसन्न हैं, तो मेरी विजय निश्चित है, इसमें तनिक भी संदेह के लिये गुंजाइश नहीं है। हृषिकेश ! घोड़े हांककर रथ को कर्ण के पास ले चलिये। अब अर्जुन कर्ण को मारे बिना पीछे नहीं लौट सकता। आज आप मेरे बाणों से टुकड़े_टुकड़े हुए कर्ण को देखिये, या मुझे ही कर्ण के बाणों से मरा हुआ देखियेगा। आज तीनों लोकों को मोह में डालने वाला यह भयंकर युद्ध उपस्थित हुआ है। जबतक पृथ्वी कायम रहेगी, जबतक संसार के लोग इस युद्ध की चर्चा करेंगे।
भगवान् श्रीकृष्ण से ऐसा कहकर अर्जुन बड़ी शीघ्रता से आगे बढे। वे चलते_चलते कहने लगे_हृषीकेश ! घोड़ों को तेज चलाइये, अर्जुन के ऐसा कहने  भगवान् ने विजय का वरदान दे उनका सत्कार किया और घोड़ों को हांका। एक ही क्षण में अर्जुन का रथ कर्ण के सामने जाकर खड़ा हो गया।

भीम द्वारा दु:शासन का रक्तपान और उसका वध, युधामन्यु द्वारा चित्रसेन का वध तथा हर्षोद्गार

संजय कहते हैं_महाराज ! जब वह भयंकर संग्राम चल रहा था, उसी समय राजा दुर्योधन का छोटा भाई आपका पुत्र दु:शासन निर्भय हो बाणों की वर्षा करता हुआ भीमसेन पर चढ़ आया। उसे देखते ही भीमसेन दौड़े और जिस प्रकार ‘रुरू’ मृग पर सिंह आक्रमण करता है, वैसे ही वे उसके निकट गये । फिर तो शम्बरासुर और इन्द्र के समान क्रोध में भरे हुए उन दोनों वीरों का बड़ा भयंकर युद्ध छिड़ गया, दोनों ही प्राणों की बाजी लगाकर लड़ने लगे। इसी बीच में भीमसेन ने अपनी फुर्ती दिखाते हुए दो क्षुरों से आपके पुत्र का धनुष और ध्वजा काट डाला। एक बाण से उसके ललाट में घाव किया और दूसरे से उसके सारथि का मस्तक भी धड़ से अलग कर दिया। तब दु:शासन ने दूसरा धनुष उठाकर भीम को बारह बाणों से बींध डाला और स्वयं ही घोड़ों को काबू में रखते हुए उसने पुनः उनके ऊपर बाणों की झड़ी लगा दी। इसके बाद दु:शासन ने भीमसेन पर एक भयंकर बाण चलाया, जो उनके अंगों को छेद डालने में समर्थ और वज्र के समान अदम्य था। उससे भीमसेन का शरीर बिंध गया, वे बहुत शिथिल हो गये और रथ पर लुढ़क गये। थोड़ी ही देर में जब होश हुआ तो वे पुनः सिंह के समान दहाड़ने लगे। उसी समय तुमुल युद्ध करते हुए दु:शासन ने ऐसा पराक्रम दिखाया, जो दूसरों से होना कठिन था। उसने एक ही बाण में भीमसेन का धनुष काटकर साठ बाणों से उसके सारथि को भी बींध डाला। उसके बाद अच्छे_अच्छे बाणों से वह भीम को घायल करने लगा। तब भीमसेन ने क्रोध में भरकर आपके पुत्र पर एक भयंकर शक्ति चलायी। उसे सहसा अपने ऊपर आती देख आपके पुत्र ने दस बाणों से काट डाला। उसके इस दुष्कर कर्म को देख सभी सैनिक हर्ष में भरकर उसकी प्रशंसा करने लगे। परंतु भीमसेन का क्रोध और बढ़ गया। वे उसकी ओर रोषभरी दृष्टि से देख आगबबूला  होकर कहने लगे_’वीर दु:शासन ! आज तूने तो मुझे बहुत घायल किया, किन्तु अब तू भी मेरी गदा का आघात सहन कर।‘ यह कहकर उसने भयंकर शक्ति चलायी दु:शासन के वध के लिए अपनी भयंकर गदा हाथ में ली और फिर कहा_’दुरात्मन् ! आज इस संग्राम में मैं तेरा रक्तपान करूंगा।
भीम के ऐसा कहते ही दु:शासन ने उनके ऊपर एक भयंकर शक्ति चलायी। इधर से भीम ने भी अपनी भयंकर गदा उठाकर फेंकी। वह गदा दु:शासन की शक्ति को टूक_टूक करती हुई उसके मस्तक में जा लगी।  गदा के आघात से दु:शासन का रथ दस हाथ पीछे हट गया। उसके शरीर पर भी बहुत सख्त चोट पहुंची थी, कवच टूट गया, आभूषण और हार बिखर गये, कपड़े फट गये तथा वह अत्यंत वेदना से व्याकुल हो छटपटाने लगा और कांपता हुआ जमीन पर गिर पड़ा। इतना ही नहीं, उस गदा से दु:शासन के घोड़े मारे गये और उसके रथ की धज्जियां भी उड़ गयीं। दु:शासन को इस अवस्था में देख पाण्डव और पांचाल योद्धा अत्यंत प्रसन्न होकर सिंहनाद करने लगे।्इस प्रकार आपके पुत्र को गिराकर भीमसेन हर्ष में भर गये और संपूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वनित करते हुए जोर जोर से गर्जना करने लगे। वह भैरवनाद सुनकर आसपास खड़े हुए योद्धा मूर्छित होकर गिर गये। उस समय भीमसेन को पिछली बातें याद हो आयीं ‘देवी द्रौपदी रजस्वला थीं, उसने कोई अपराध भी नहीं किया था, तो भी उसके केश खींचे गये और भरी सभा में वस्त्र उतारा गया। इसके साथ ही कौरवों द्वारा दिये हुए और भी बहुत से दु:खों का स्मरण करके भीमसेन क्रोध से जल उठे। वे वहां खड़े हुए कर्ण, दुर्योधन, कृपाचार्य, अश्वत्थामा और कृतवर्मा से कहने लगे_’योद्धाओं ! मैं पापी दु:शासन को अभी मारे डालता हूं, तुम सब लोग मिलकर उसे बचा सको तो बचाओ।‘ यों कहकर भीमसेन रथ से कूद पड़े और दु:शासन को मार डालने की इच्छा से दौड़ते हुए उसके पास जा पहुंचे। फिर सिंह जैसे बहुत बड़े हाथी को  लेता है, उसी प्रकार उन्होंने कर्ण और दुर्योधन के सामने ही दु:शासन को धर दबाया। इसके बाद उसकी ओर आंखें गड़ाकर देखते हुए भीम ने तलवार उठायी और एक पैर से उसका गला दबा दिया। उस समय दु:शासन थर_थर कांप रहा था। अब उसकी ओर देख भीमसेन बोले_’दु:शासन ! याद है न वह दिन, जब तूने कर्ण और दुर्योधन के साथ बड़े हर्ष में भरकर मुझे ’बैल’ कहा था। दुरात्मन् ! राजसूय यज्ञ में अवभृथस्नान से पवित्र हुए महारानी द्रौपदी के केशों को तूने किस हाथ से खींचा था ? बता, आज भीमसेन तुझसे इसका उत्तर चाहता है।‘ भीम का यह भयंकर वचन सुनकर दु:शासन ने उनकी ओर देखा। उस समय उसकी त्यौरी बदल गयी, वह क्रोध से जल उठा और बड़े आवेश में आकर बोला_’यह है वह , जो हाथी के शुण्ड_दण्ड  के समान बलिष्ठ है, जिसने सहस्त्रों गौवों का दान तथा कितने ही क्षत्रिय_वीरों का संहार किया है। भीमसेन ! उस समय जबकि प्रधान_प्रधान कौरव, अन्यान्य सभास्थल तथा तुमलोग भी बैठे_बैठे देख रहे थे, मैंने इसी दाहिने हाथ से द्रौपदी के केश खींचे थे!’ दु:शासन की यह गर्वभरी बात सुनकर भीमसेन उसकी छाती पर चढ़ बैठे और अपने दोनों हाथों से उसकी दाहिनी बांह पकड़कर बड़े जोर से दहाड़ने लगे। फिर संपूर्ण योद्धाओं को सुनाकर बोले_’मैं दु:शासन की बांह उखाड़े लेता हूं, अब यह प्राण त्यागना ही चाहता  जिसमें ताकत हो वो आकर इसको मेरे हाथ से बचा ले।‘ इस प्रकार समस्त वीरों पर आक्षेप करके महाबली भीम ने क्रोध में उसकी बांह उखाड़ दी। दु:शासन की वह भुजा वज्र के समान कठोर थी, भीमसेन उसी से सब वीरों के सामने उसको पीटने लगे। उसके बाद दु:शासन की छाती फाड़कर वे उसका गरम_गरम रक्त पीने लगे। तदनन्तर उन्होंने तलवार उठायी और उसका मस्तक धड़ से अलग कर दिया। इस प्रकार अपनी प्रतिज्ञा सत्य करके दिखाने के लिये भीम ने दु:शासन का गरम_गरम रक्तपान किया। वे उसका स्वाद लेकर कहने लगे_’मैंने माता का दूध का, शहद और घी का दिव्य रस का भी आस्वादन किया है, दूध और दही से हिलोरे हुए ताजे माखन का भी स्वाद लिया है। इनके अलावे भी संसार में बहुत_से पान करने योग्य पदार्थ हैं, जिनमें अमृत के समान मधुर स्वाद है; परंतु मेरे शत्रु के इस रक्त का स्वाद तो उन सबसे विलक्षण है, इसमें सबसे अधिक रस है। यों कहकर वे बारंबार उसके रक्त का आस्वादन करते और अत्यंत हर्ष में भरकर उछलने_कूदने लगते थे। उस समय जिन्होंने उनकी ओर देखा, वे भय से व्याकुल हो पृथ्वी पर गिर पड़े। जो घबराये नहीं, उनके हाथों से हथियार तो गिर ही पड़ा। कितने ही भय के मारे आंखें बन्द करके चीखने_चिल्लाने लगे। रक्त पीते समय उनका रूप बड़ा भयंकर जान पड़ता था। उस समय बहुत_से योद्धा भयभीत होकर ‘अरे ! यह मनुष्य नहीं राक्षस है' ऐसा कहते हुए चित्रसेन के साथ भागने लगे। चित्रसेन को भागते देख युधामन्यु ने अपनी सेना के साथ उसका पीछा किया और तेज किये हुए सात बाण मारकर उसे बींध दिया। चित्रसेन ने भी युधामन्यु को तीन और उसके सारथि को छ: बाण मारे। तब युधामन्यु ने धनुष को कान तक खींचकर एक तीखा बाण चलाया और चित्रसेन का मस्तक धड़ से अलग कर दिया। अपने भाई के मरने से कर्ण क्रोध में भर गया और अपना पराक्रम दिखाता हुआ पाण्डव_सेना को भगाने लगा। उस समय अत्यंत तेजस्वी नकुल ने आगे बढ़कर उसका सामना किया। इधर भीमसेन दु:शासन के रक्त को अपनी अंजलि में लेकर विकट गर्जना करते हुए सब वीरों को सुनाकर बोले_’नीच दु:शासन !  यह देख, मैं तेरे गले का खून पी रहा हूं। अब फिर आनन्द में भरा हुआ तू मुझे  बैल_बैल’ कहकर खुशी के मारे नाच उठते थे, उन सबको आज बारंबार ‘बैल’ बनाता हुआ मैं स्वयं नाचता हूं। मुझे विष खिलाकर नदी में डाल दिया गया, जहां काले सांपों ने डंसा। फिर हमलोगों को लाक्षागृह में जलाने का षडयंत्र हुआ और जूए में सारा राज्य छीनकर हमें जंगल में रहने को मजबूर किया गया। सबसे घोर दु:ख तो इस बात का है कि भरी सभा में द्रौपदी का केश खींचा गया। युद्ध में हमें  बाणों की मार सहनी पड़ती है और घर में भी कभी सुख नहीं मिला। राजा विराट के भवन में जो क्लेश भोगना पड़ा_सो तो अलग है। शकुनि, दुर्योधन और कर्ण की सलाह से हमें जो_जो कष्ट सहने पड़े, उन सबका मूल कारण तू ही था।‘
यों कहकर अत्यंत क्रोध में भरे हुए भीमसेन श्रीकृष्ण और अर्जुन के पास गये। उस समय उनका शरीर खून से लथपथ हो रहा था। वे मुस्कराते हुए बोले_’वीरों ! मैंने युद्ध में दु:शासन के विषय में जो प्रतिज्ञा की थी, उसे आज पूर्ण कर दिया। अब इस रणयज्ञ में दुर्योधन रूपी यज्ञपशु का वध करके दूसरी आहुति डालूंगा और इन कौरवों की आंखों के सामने ही उस दुरात्मा का सिर पैरों से ठुकराकर कुचल डालूंगा, तभी मुझे शांति मिलेगी।‘  ऐसा कहकर वे गरजने लगे।

Tuesday 18 October 2022

अर्जुन और भीमसेन के द्वारा कौरव वीरों का संहार तथा कर्ण का पराक्रम

संजय कहते हैं_महाराज ! दूसरी ओर कौरवों के प्रधान_प्रधान वीरों ने भीमसेन पर धावा किया था। कुन्तीनन्दन भीम कौरव_समुद्र में डूबना ही चाहते थे कि अर्जुन उन्हें उबारने की इच्छा से वहां आ पहुंचे। उन्होंने सूतपुत्र की सेना को छोड़कर कौरवों पर चढ़ाई की और शत्रु वीरों को यमलोक भेजना आरंभ कर दिया। अर्जुन के छोड़े हुए बाण आकाश में पहुंचकर फैले हुए जाल के समान दिखाती देते थे। जहां पक्षियों के झुंड उड़ा करते थे, उस आकाश को बाणों से व्याप्त कर कौरवों  के काल बन गये। वे बल्लों क्षुरप्रों तथा उज्जवल नाराचों से शत्रुओं का अंग_अंग छेद डालते और मस्तक काट लेते थे। रणभूमि गिरे हुए और गिरते हुए योद्धाओं की लाशों से ढक गयी थी। अर्जुन के बाणों से छिन्न_भिन्न हुए रथ, हाथी और घोड़ों के  वहां की जमीन बैतरणी नदी के समान अगम्य हो गयी थी, उसे देखकर बड़ा भय मालूम होता था, उधर देखना कठिन हो रहा था। उस समय क्रूर महावतों की प्रेरणा से चार सौ हाथी चढ़ आते, जिन्हें अर्जुन ने बाणों से मार गिराया। जैसे समुद्र में तूफान के आघात से जहाज टूट_फूट जाता है, उसी प्रकार उनके सायकों की मार से कौरव_सेना छिन्न_भिन्न हो गयी। गाण्डीव धनुष से छूटे नाना प्रकार के बाण बिजली की भांति आपकी सेना को दग्ध करने लगे। जिस प्रकार बहुत बड़े जंगल में दावाग्नि से डरे हुए मृग इधर_उधर भागते हैं वैसे ही रणभूमि में अर्जुन के बाणों से आहत हुई कौरव_सेना चारों ओर भाग चली। जब समस्त कौरव युद्ध से विमुख हो गये तब विजयी अर्जुन ने भीमसेन के पास पहुंचकर थोड़ी देर विश्राम किया। फिर भीम से  उन्होंने कुछ सलाह की और बताया कि राजा युधिष्ठिर के शरीर से बाण निकाल दिये गये हैं; तथा इस समय वे अच्छी तरह से हैं।‘इस प्रकार कुशल_मंगल कहकर भीमसेन की आज्ञा ले अर्जुन कर्ण के सेना की ओर चल दिये। इसी समय आपके दस वीरों ने अर्जुन को घेर लिया और उन्हें बाणों से पीड़ित करना आरम्भ किया। परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण ने रथ बढ़ाकर उन्हें अपने दाहिने भाग में कर दिया। अर्जुन के रथ को दूसरी ओर जाते देख वे पुनः उनपर टूट पड़े। तब उन्होंने उनके रथ की ध्वजा, धनुष और सायकों को नाराचों तथा अर्धचन्द्रों से तुरंत काट गिराया, फिर दूसरे दस भल्लों से उनके मस्तक उड़ा दिये। इस प्रकार उन दस कौरवों को मौत के घाट उतारकर अर्जुन आगे बढ़े।
उन्हें जाते देख कौरव_पक्ष के संशप्तक योद्धा, जिनकी संख्या नब्बे थी, युद्ध के लिये अग्रसर हुए। उन्होंने यह शपथ लेकर कि ‘यदि पीछे हटें  तो हमें परलोक में उत्तम गति न मिले' अर्जुन को सब ओर से घेर लिया। भगवान् श्रीकृष्ण ने उनकी परवाह न करके अपने तेज चलनेवाले घोड़ों को कर्ण के रथ के ओर हांक दिया। यह देख संशप्तकों ने उनपर बाणों की वृष्टि करते हुए पीछा किया। तब अर्जुन ने अपने पैने बाणों से उनके सारथि, धनुष और ध्वजा को नष्ट करके उन्हें भी यमलोक पहुंचा दिया। उनके मारे जाने पर कौरव महारथियों ने रथ, हाथी तथा घोड़ों की सेना लेकर अर्जुन पर धावा किया, उस समय उनके मन में तनिक भी भय नहीं था। उन्होंने पास आते ही शक्ति, श्रष्टि, तोमर, प्रास, गदा, तलवार तथा बाणों से अर्जुन को ढक दिया। उनकी शस्त्रवर्षा आकाश में चारों ओर गई, किन्तु अर्जुन ने बाण मारकर उसे तुरंत ही नष्ट कर डाला। इसके बाद आपके पुत्र दुर्योधन की आज्ञा पाकर तेरह सौ मतवाले हाथियों पर बैठे हुए म्लेच्छ जाति के योद्धा अर्जुन की दोनों बगल में चोट करने लगे। वे कर्णि, नालीक, नारायण, तोमर, प्राश, शक्ति, मूसल और भिन्दीपालों की मार से पार्थ को पीड़ा देने लगे। तब अर्जुन ने तीखे भल्लों और अर्धचन्द्राकार बाणों से म्लेच्छों द्वारा की हुई शस्त्रवर्षा को शान्त कर दिया। फिर नाना प्रकार के बाणों से हाथियों को उनके सवारोंसहित मार डाला। जब अधिकांश सेना नष्ट हो गयी तो बचे_खुचे लोग व्याकुल होकर भाग चले। उस समय भीमसेन अर्जुन के पास आ पहुंचे और मरने से बचें हुए घुड़सवारों को अपनी गदा से नष्ट करने लगे। उन्होंने बहुत से हाथियों और पैदलों पर भी उस भयंकर गदा का प्रहार किया। उसके आघात से योद्धाओं के सिर फूटे, हड्डियां टूटी और पांव उखड़ गये तथा वे आर्तनाद करते हुए पृथ्वी पर गिर गए। इस प्रकार दस हजार पैदलो का सफाया करके क्रोध में भरे हुए भीम गदा हाथ में लिये इधर_उधर विचरने लगे। महाराज ! आपके सैनिकों ने गदाधारी भीम को देखकर यही समझा कि साक्षात् यमराज ही कालदण्ड लिये यहां आ पहुंचे हैं। अब भीम ने हाथियों की सेना में प्रवेश किया और अपनी बड़ी भारी गदा लेकर एक ही क्षण में सबको यमलोक पहुंचा दिया। गजसेना का संहार करके महाबली भीम पुनः अपने रथ पर आ बैठे और अर्जुन के पीछे_पीछे चलने लगे।
तदनन्तर, कौरवों में बड़े जोर से आर्तनाद होने लगा। हाथी, घोड़े तथा पैदलों  प्राण लेने वाले अर्जुन के बाणों की मार से सब लोग हाहाकार मचा रहे थे, सब पर अत्यन्त भय छा गया था, सभी एक_दूसरे की आड़ में छिपना चाहते थे। इस तरह आपकी संपूर्ण सेना उस समय अलातचक्र के समान घूम रही थी। उस युद्ध में कोई रथी, सवार, घोड़ा या हाथी ऐसा नहीं बचा था जो अर्जुन के बाणों से घायल नहीं हुआ हो। उनका यह पराक्रम देख सभी कौरव कर्ण के जीवन से निराश हो गये। सबने गाण्डीव धारी के प्रहार को अपने लिखे असभ्य समझा और उनसे परास्त होकर सब पीछे हट गये।  सहायकों से बिंध जाने पर वे भयभीत होकर रणभूमि में कर्ण को अकेला छोड़कर भाग चले। किन्तु सहायता के लिये सूतपुत्र कर्ण को ही पुकारते थे।
महाराज ! इसके बाद आपके पुत्र भागकर कर्ण के रथ के पास गये। वे संकट के अथाह समुद्र में डूब रहे थे, उस समय कर्ण ही द्वीप के समान उसका रक्षक हुआ। कर्म करनेवाले जीव मृत्यु से डरकर जैसे धर्म की शरण लेते हैं, उसी प्रकार आपके पुत्र भी अर्जुन से भयभीत हो कर्ण की शरण में पहुंचे थे। कर्ण ने देखा, ये खून से लथपथ हो रहे हैं, बड़े संकट में पड़े हैं और बाणों की चोट से व्याकुल हैं तो उसने उनसे कहा_’मेरे पास आ जाओ, डरो मत।‘ इसके बाद कर्ण ने खूब सोच विचारकर मन_ही_मन अर्जुन के वध का निश्चय किया। और उनके देखते_देखते उसने पांचालों पर आक्रमण किया। यह देख पांचाल राजाओं की आंखें क्रोध से लाल हो गयीं, वे कर्ण पर बाणों की वृष्टि करने लगे। तब कर्ण ने भी हजारों बाण मारकर पांचालों को मौत के मुख में भेज दिया। अब वह पांचाल देशीय राजकुमारों का नाश करने लगा। उसने ‘आंजलिक' नामक बाण मारकर जन्मेजय के सारथि को नीचे गिरा दिया और उसके घोड़ों को भी मार डाला। फिर शतानिक तथा सुतसोम पर भल्लों की वृष्टि करके उन दोनों के धनुष काट दिये। छः बाणों से धृष्टद्युम्न को सीधा और उसके घोड़ों का भी काम तमाम किया। इसी तरह सात्यकि के घोड़ों को नष्ट करके सूतपुत्र ने केकयराजकुमार विशोक का भी वध कर डाला। राजकुमार के मारे जाने पर  सेनापति उग्रकर्मा ने कर्ण पर धावा किया। उसने अपने भयंकर वेग वाले बाणों से कर्ण के पुत्र प्रसेन को घायल कर दिया। तब कर्ण ने तीन अर्धचन्द्राकार बाणों से उग्रकर्मा की दोनों भुजाएं और मस्तक काट डाले। वह प्राणहीन होकर जमीन पर जा पड़ा। उधर जब कर्ण ने सात्यकि के घोड़े मार डाले तो उसके पुत्र प्रसेन ने तेज किते हुए सहायकों से सात्यकि को ढंक दिया। इसके बाद सात्यकि के बाणों का निशाना बनाकर वह स्वयं भी धराशाही हो गया।
पुत्र के मारे जाने पर  कर्ण के हृदय में क्रोध की आग जल उठी, उसने सात्यकि पर एक शत्रु संहारकारी बाण छोड़ा और कहा ‘शैनेय ! अब तू मारा गया।‘ किन्तु कर्ण के उस बाण को शिखण्डी ने काट दिया और उसे भी तीन बाणों से बींध दिया। तब कर्ण ने दो क्षुरप्रों से शिखण्डी की ध्वजा और धनुष काट दिये तथा छः बाणों से उसे भी बींध दिया। इसके बाद उसने धृष्टद्युम्न के पुत्र का सिर धड़ से अलग कर दिया और एक तीक्ष्ण बाण मारकर सुतसोम को भी घायल कर डाला। तत्पश्चात् सूतपुत्र ने सोमकों का संहार करते हुए बड़ा भारी संग्राम छेड़ा। उनके बहुत_से घोड़े, रथ और हाथियों का नाश करके उसने संपूर्ण दिशाओं को बाणों से आच्छादित कर दिया। तब उत्तमौजा, जन्मेजय, युधामन्यु, शिखण्डी तथा धृष्टद्युम्न_ये सभी गर्जना करते हुए क्रोध में भरकर कर्ण के सामने आते और उसपर बाणों की वर्षा करने लगे। इन पांचों ने कर्ण पर जोरदार हमला किया, किन्तु सब मिलकर भी उसे रथ से गिराने में सफल न हो सके कर्ण ने उनके धनुष, ध्वजा, घोड़े, सारथि और पताका आदि को काटकर पांच बाण से उन पांचों को बींध डाला।। जिस समय वह बाणों से पांचालों पर प्रहार कर रहा था, उस समय उसके धनुष की टंकार सुकर ऐसा जान पड़ता था कि अब पर्वत और वृक्षों सहित सारी पृथ्वी फट जायेगी। उसने शिखण्डी को बारह, उत्तमौजा को छ: और युधामन्यु, जन्मेजय तथा धृष्टद्युम्न को तीन_तीन बाण मारे। इस प्रकार सूतपुत्र कर्ण ने उन पांचों महारथियों को परास्त कर दिया। वे कर्णरूपी समुद्र में डूबना ही चाहते थे कि द्रौपदी के पुत्रों ने वहां पहुंचकर उन्हें रणसामग्री से सजे हुए रथों में बिठाया और इस प्रकार अपने मामाओं का संकट से उद्धार किया।
तत्पश्चात् सात्यकि ने कर्ण के छोड़े हुए बहुत से बाणों को अपने तीखे तीरों से काट डाला। फिर कर्ण को भी घायल कर आठ बाणों  आपके पुत्र दुर्योधन को बींध डाला। तब कृपाचार्य, कृतवर्मा, दुर्योधन तथा कर्ण_ये चारों मिलकर सात्यकि पर तीक्ष्ण सायकों की वर्षा करने लगे। जैसे चार दिक्पालों के साथ अकेले दैत्यराज हिरण्यकशिपु का युद्ध हुआ था, उसी प्रकार इन चारों वीरों के साथ यदुकुलभूषण सात्यकि ने अकेले ही लोहा लिया। इतने में ही उक्त पांचाल महारथी कवच पहनकर दूसरे रथ पर बैठकर वहां आ पहुंचे और सात्यकि की रक्षा करने लगे। उस समय शत्रुओं का आपके सैनिकों के साथ घोर युद्ध हुआ। कितने ही रथी, हाथीसवार, घुड़सवार और पैदल योद्धा नाना प्रकार के अस्त्र_शस्त्रों से आच्छादित हो इधर_उधर भटकने लगे।  वे परस्पर के ही धक्के से लड़खड़ाकर गिर जाते और आर्तस्वर से चित्कार मचाने लगते थे। बहुतेरे सैनिक प्राणों से हाथ धोकर रणभूमि में सो रहे थे।

Monday 5 September 2022

कर्ण की मार से कौरव_सेना का पलायन, श्रीकृष्ण और अर्जुन को आते देख शल्य और कर्ण की बातचीत तथा अर्जुन द्वारा कौरव_सेना का विध्वंस

धृतराष्ट्र ने पूछा_संजय ! भीमसेन ने जब कौरव योद्धाओं को तितर_बितर कर दिया, उस समय दुर्योधन, शकुनि, कृतवर्मा, अश्वत्थामा अथवा दु:शासन ने क्या कहा ? सूतपुत्र ने कौन_सा पराक्रम किया ? मेरे पुत्रों तथा अन्य दुर्धर्ष राजाओं ने क्या काम किया ? ये सारी बातें बताओ। संजय ने कहा_महाराज ! उस दिन तीसरे पहर में प्रतापी सूतपुत्र ने भीमसेन के देखते_देखते समस्त सोमकों का संहार कर डाला तथा भीमसेन ने भी कौरवों की अत्यन्त बलवती सेना का विध्वंस कर दिया। तत्पश्चात् कर्ण ने शल्य से कहा_’अब मेरा रथ पांचालों की ओर ही ले चलो।‘ सेनापति की आज्ञा पाकर सारथि ने अपने घोड़ों को चेदि, पांचाल तथा करूषदेशीय वीरों की ओर बढ़ाया। कर्ण का रथ देखते ही पाण्डव और पांचाल वीर थर्रा उठे। तदनन्तर कर्ण अपने सैकड़ों बाणों से मारकर पाण्डव_सेना के सौ_सौ तथा हजार_हजार वीरों को गिराने लगा। यह देख पाण्डव_पक्ष के अनेकों महारथियों ने पहुंचकर कर्ण को चारों ओर से घेर लिया। उस समय सात्यकि ने तेज किये हुए बीस बाणों से कर्ण के गले की हंसली में प्रहार किया। फिर शिखण्डी ने पच्चीस, धृष्टद्युम्न ने सात, द्रौपदी के पुत्रों ने चौंसठ, सहदेव ने सात तथा नकुल ने सौ बाण मारकर कर्ण को घायल कर डाला। इसी तरह भीमसेन ने कर्ण की हंसली पर नब्बे बाण मारे। तदनन्तर, सूतपुत्र ने हंसकर अपने धनुष की टंकार की और तेज किये हुए बाणों का प्रहार कर उन सब योद्धाओं को बींध डाला। उसने सात्यकि का धनुष और ध्वजा काटकर उसकी छाती में नौ बाणों का प्रहार किया। फिर क्रोध में भरकर भीम को भी तीस बाणों से घायल किया। एक भल्ल से सहदेव की ध्वजा काटकर तीन बाणों से उसके सारथि को भी मार डाला तथा द्रौपदी के पुत्रों को रथहीन कर दिया। यह सारा काम पलक मारते_मारते हो गया। देखनेवालों के लिये ये बड़े आश्चर्य की बात हुई। महारथी कर्ण ने चेदि तथा मत्स्यदेश के योद्धाओं को भी अपने तीखे तीरों का निशाना बनाया। उसकी मार खाकर  वे भयभीत होकर भाग चले। कर्ण का यह अद्भुत पराक्रम मैंने अपनी आंखों से देखा था। जैसे भेड़िया पशुओं को भयभीत करके भगा देता है, उसी प्रकार कर्ण ने पाण्डव योद्धाओं को आतंकित करके खदेड़ दिया। पाण्डवों की सेना को भागती देख कौरव_पक्ष के धनुर्धर योद्धा भैरव_गर्जना करते हुए सामने की ओर बढ़ आये। कर्ण ने उनमें से बहुतों के पांव उखाड़ दिये। पांचाल देश के बीस रथियों तथा चेदिदेश के सैकड़ों योद्धाओं को भी अपने हाथों से यमलोक पहुंचा दिया। इस प्रकार पाण्डव_पक्ष के बहुत_से योद्धाओं का नाश हो गया और महाबली भीम के सामने युद्ध करने से आपके भी बहुत_से वीर मारे गये। इधर, अर्जुन कौरवों की चतुरंगिनी सेना का विनाश करके जब आगे बढ़े तब क्रोध में भरे हुए सूतपुत्र पर उनकी दृष्टि पड़ी, तब उन्होंने भगवान् वासुदेव से कहा_ जनार्दन ! वह देखिये, रण में सूतपुत्र की ध्वजा दिखाई दे रही है तथा ये भीमसेन आदि योद्धा कौरव महारथियों से लड़ रहे हैं। इधर पांचाल योद्धा कर्ण के भय से भागे जाते हैं। इधर कर्ण के संरक्षण में रहकर कृपाचार्य, कृतवर्मा तथा अश्वत्थामा राजा दुर्योधन की रक्षा कर रहे हैं। यदि हम लोगों ने इन्हें मारा नहीं तो ये सोमकों का संहार कर डालेंगे। अतः मेरा विचार यह है कि आप महारथी कर्ण के पास मुझे ले चलें, अब मैं संग्राम में कर्ण का वध किये बिना पीछे नहीं लौटूंगा। तब भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन के साथ द्वयरथ युद्ध कराने के लिये आपकी सेना में कर्ण की ओर अपना रथ बढ़ाया। वे रथ पर बैठे_ही_बैठे चारों तरफ खड़ी हुई पाण्ड_सेना को धीरज बंधाते जाते थे। वीरवर अर्जुन आपकी सेना को परास्त करते हुए आगे बढ़ रहे थे। श्वेत घोड़े वाले रथ पर बैठकर अपने सारथि भगवान् श्रीकृष्ण के साथ अर्जुन को आते देख मद्रराज शल्य ने कर्ण से कहा _’कर्ण ! तुम दूसरे लोगों से जिनका पता पूछते फिरते थे, वे कुन्तीनन्दन अर्जुन अपना गाण्डीव धनुष लिये हुए सामने खड़े हैं, वह उनका रथ आ रहा है। यदि आज उन्हें मार डालोगे तो हमलोगों का भला होगा। अर्जुन के धनुष की प्रत्यंचा में चन्द्रमा एवं छात्राओं के चिह्न हैं, उनकी ध्वजा के शिखर पर भयंकर वानर दिखाई पड़ता है, जो चारों ओर ताक_ताककर वीरों का भी भय बढ़ा रहा है। ये अर्जुन के रथ पर बैठकर घोड़े हांकते हुए भगवान् श्रीकृष्ण के शंख, चक्र, गदा तथा शाड़्ंग धनुष दीख रहे हैं। यह गांडीव टंकार रहा है तथा अर्जुन के छोड़े हुए तीखे तीर शत्रुओं के प्राण ले रहे । आज यह रणभूमि राजाओं के कटे हुए मस्तकों से पटी जा रही है। जैसे सिंह हजारों सरियों के झुंड को घबराहट में डाल देता है, उसी प्रकार अर्जुन ने अपने शत्रुओं की सेना को अत्यंत व्याकुल कर डाला है। अर्जुन तनिक_सी देर में बहुसंख्यक शत्रुओं का अंत कर देते हैं इसलिये उनके भय से वह कौरव_सेना चारों ओर से छिन्न_भिन्न हो रही है। यह देखो, अर्जुन सब सेनाओं को छोड़कर तुम्हारे पास पहुंचने की जल्दी कर रहे हैं। भीमसेन को पीड़ित देख वे क्रोध से तमतमा उठे हैं, इसलिये आज तुम्हारे सिवा और किसी से युद्ध करने के लिए नहीं रुके।  तुमने धर्मराज को रथहीन करके उन्हें बहुत घायल कर डाला है, शिखण्डी, धृष्टद्युम्न, द्रौपदी के पुत्र, सात्यकि, उत्तमौजा, नकुल तथा सहदेव को भी तुम्हारे हाथों बहुत चोट पहुंची है; यह सब देखकर अर्जुन की आंखें क्रोध से लाल हो गयी हैं, वे समस्त राजाओं का संहार करने की इच्छा से अकेले ही तुम्हारे ऊपर चढ़े आ रहे हैं। कर्ण ! अब तुम भी इनका सामना करने के लिये आओ , क्योंकि तुम्हारे सिवा, दूसरा कोई ऐसा धनुर्धर नहीं है, जो अर्जुन से लोहा ले सके। केवल तुम्हीं युद्ध में श्रीकृष्ण और अर्जुन को परास्त करने की शक्ति रखते हो, तुम्हारे ही ऊपर यह भार रखा गया है, इसलिये धनंजय का मुकाबला करो।  तुम, भीष्म, द्रोण, अश्वत्थामा तथा कृपाचार्य के समान बली हो, इस महासमर में आगे बढ़ते हुए अर्जुन को रोको। देखो, ये कौरव_सेना के महारथी अर्जुन के भय से भागे जाते हैं, सूतनन्दन ! तुम्हारे सिवा दूसरा कोई ऐसा वीर नहीं है, जो इनका भय दूर करे। ये समस्त कौरव दीप के समान अपना रक्षक मानकर तुम्हारे ही पास आ रहे हैं और तुमसे शरण पाने की आशा रखकर यहां खड़े हुए हैं।
कर्ण ने कहा_शल्य ! अब तुम राह पर आते हो और मुझसे सहमत जान पड़ते हो। महाबाहो ! अर्जुन का भय मत करो। आज मेरी इन भुजाओं और शिक्षा का बल देखना। मैं अकेला ही पाण्डवों की विशाल सेना तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन का वध करूंगा।  यह तुमसे सच्ची बात बता रहा हूं। उन दोनों वीरों को मारे बिना आज मैं किसी तरह पीछे पैर नहीं हटाऊंगा। दो में से एक काम करके कृतार्थ होउंगा_या तो उन्हें मारूंगा या स्वयं मर जाऊंगा। शल्य ने कहा_कर्ण ! महारथी लोग अर्जुन को अकेले होने पर भी युद्ध में जीतना असंभव मानते हैं, फिर जब वे श्रीकृष्ण से सुरक्षित हों, तब तो कहना ही क्या है ? ऐसी दशा में यहां उन्हें जीतने का साहस कौन कर सकता है ? कर्ण ने कहा_मैं मानता हूं, अर्जुन जैसा महारथी इस संसार में कभी हुआ ही नहीं। उनके हाथ प्रत्यंचा के चिह्न से अंकित है, उनमें न कभी पसीना आता है और न वे कांपते ही हैं। अर्जुन का धनुष भी मजबूत है। वे बड़े कार्यकुशल और शीघ्रतापूर्वक हाथ चलानेवाले । पाण्डव नन्दन अर्जुन के समान दूसरा कोई योद्धा है ही नहीं। उनके बाण दो मील के निशाने मारने में भी नहीं चूकते और उनके जैसा योद्धा इस पृथ्वी पर और कौन है ? अतिरथी वीर अर्जुन केवल श्रीकृष्ण की सहायता से खाण्डववन में अग्निदेव को तृप्त किया, जहां महात्मा श्रीकृष्ण को चक्र मिला था और श्रीकृष्ण को गाण्डीव धनुष, श्वेत घोड़ों से जुताई हुआ रथ, कभी खाली न होने वाले दो तरकस तथा बहुत से दिव्यास्त्र प्राप्त हुए।
ये सभी वस्तुएं अग्निदेव ने भेंट की थी। इसी प्रकार उन्होंने इन्दलोक में जाकर असंख्य कालकेयों का संहार किया था जहां उन्हें देवदत्त नामक शंख की प्राप्ति हुई। अतः इस भूमंडल में  उनसे बढ़कर योद्धा कौन होगा ? जिन महानुभाव ने अपनी सुंदर युद्धकला के द्वारा साक्षात् महादेवजी को प्रसन्न किया  उनसे अत्यंत भयंकर पाशुपत नामक महान् अस्त्र प्राप्त किया जो त्रिभुवन का संहार करने में समर्थ है।
जिन्हें समस्त लोकपालों ने अलग_अलग अनेकों अनुपम  दिव्यास्त्र प्रदान किये हैं तथा जिन्होंने विराटनगर में अकेले ही हम सब महारथियों को जीतकर सारा गोधन छीन लिया और महारथियों के वस्त्र भी उतार लिये, ऐसे पराक्रम और गुणों से सम्पन्न अर्जुन को, जिनके साथ श्रीकृष्ण भी मौजूद हैं, युद्ध के लिये ललकारना बड़े दु:साहस का काम है_इस बात को मैं अच्छी तरह समझता हूं इसके सिवा समस्त संसार मिलकर दस हजार वर्षों में भी नहीं गिन सकता, जो शंख, चक्र धारण करनेवाले हैं, वे अत्यंतपराक्रमी साक्षात् भगवान् नारायण ही अर्जुन की रक्षा कर रहे हैं।
श्रीकृष्ण और अर्जुन को एक रथ पर बैठे देख मुझे भय लगता है, हृदय कांप उठता है। अर्जुन समस्त धनुर्धारियों से बढ़कर हैं तथा चक्र युद्ध में नारायण स्वरूप श्रीकृष्ण का मुकाबला करनेवाला भी कोई नहीं है। वे दोनों वीर ऐसे पराक्रमी हैं। हिमालय अपने स्थान से हट जाय, पर श्रीकृष्ण और अर्जुन नहीं विचलित हो सकते। वे दोनों महारथी शूरवीर और अस्त्र विद्या के विद्वान हैं। शल्य ! बताओ तो सही, ऐसे पराक्रमी श्रीकृष्ण और अर्जुन का मुकाबला मेरे सिवा दूसरा कौन कर सकता है ? आज ऐसा युद्ध होगा, जैसा पहले कभी नहीं हुआ था। या तो मैं ही इन दोनों को मार गिराऊंगा या ये ही मेरा वध कर डालेंगे। ऐसा कहकर शत्रुहंता कर्ण ने मेघ के समान गर्जना की। फिर वह आपके पुत्र दुर्योधन के निकट गया। दुर्योधन ने उसका अभिनन्दन किया और छाती से लगाया। तब कर्ण ने कुरुराज दुर्योधन, कृपाचार्य, कृतवर्मा, भाइयोंसहित शकुनि, अश्वत्थामा और अपने छोटे भाई से हाथीसवार, घुड़सवार और पैदल सैनिकों से कहा_’राजाओं ! आपलोग श्रीकृष्ण और अर्जुन पर धावा करके उन्हें चारों ओर से घेर लें और सब ओर से युद्ध छेड़कर अच्छी तरह थका डालें। आपके द्वारा जब वे बहुत घायल हो जायेंगे तो मैं उन दोनों को सुगमता से मार डालूंगा। ‘बहुत अच्छा' कहकर अर्जुन को मारने की इच्छा से वे सभी वीर उनपर टूट पड़े और अपने कबाणों का प्रहार करने लगे। उन महारथियों के चलाते हुए बाणों को अर्जुन ने हंसते_हंसते काट डाला और आपकी सेना को भस्म करना आरंभ किया। यह देख कृपाचार्य, कृतवर्मा, दुर्योधन तथा अश्वत्थामा अर्जुन की ओर दौड़े और उनके ऊपर बाणों की वर्षा करने लगे। अर्जुन ने अपने सायकों से उनके बाणों के टुकड़े_टुकड़े कर दिये और बड़ी फुर्ती के साथ उन्होंने प्रत्येक महारथी की छाती में तीन_तीन बाण मारे। तब अश्वत्थामा ने दस बाणों से धनंजय को, तीन से श्रीकृष्ण को और चार से उनके घोड़ो को बींध डाला, फिर उनकी ध्वजा पर बैठे हुए वानर को उसने अनेकों बाणों तथा नाराचों का निशाना बनाया। यह देख अर्जुन ने तीन बाणों से अश्वत्थामा के धनुष को, एक से सारथि के मस्तक को, चार सायकों से उसके चारों घोड़ों को तथा तीन से उसकी ध्वजा को काटकर रथ से नीचे गिरा दिया। इसके बाद कृपाचार्य के भी बाण सहित धनुष, ध्वजा, पताका, घोड़े तथा सारथि को नष्ट कर दिया। फिर उन्हें भी हजारों बाणों के घेरे में कैद कर लिया। तत्पश्चात् अर्जुन ने दहाड़ते हुए दुर्योधन के ध्वजा और धनुष काट दिये, कृतवर्मा के घोड़ों को मार डाला तथा उसके रथ की ध्वजा भी खण्डित कर दी। फिर बड़ी फुर्ती के साथ उन्होंने आपकी सेना के घोड़ों, सारथियों, तरकसों, ध्वजाओं, हाथियों और रथों का सफाया कर डाला। उस समय आपकी विशाल सेना छिन्न_भिन्न होकर इधर_उधर बिखर गयी।

Thursday 18 August 2022

अर्जुन और भीमसेन के द्वारा कौरव_सेना का संहार, भीम के साथ से शकुनि का मूर्छित होना

संजय कहते हैं_महाराज ! जैसे देवराज इन्द्र ने हाथ में वज्र लेकर जम्भासुर को मारने के लिये यात्रा की थी, उसी प्रकार अर्जुन ने भी रथ में बैठकर विजय के लिये यात्रा की। उन्हें आते देख कौरव_पक्ष के नरवीर क्रोध में भरकर रथ, घोड़े, हाथी और पैदलों को साथ ले अर्जुन के सामने चढ़ आये। फिर तो त्रिलोकी का राज्य पाने के लिये जैसे असुरों के साथ जैसे देवताओं और भगवान् विष्णु का युद्ध हुआ, उसी प्रकार उन योद्धाओं के साथ अर्जुन का संग्राम होने लगा। वह संग्राम देह, प्राण और पापों का नाश करनेवाला था। उस समय कौरववीरों ने छोटे_बड़े जितने अस्त्रों का प्रयोग किया, उन सबको क्षुर, अर्धचन्द्र तथा तीखे भल्लों से अर्जुन ने अकेले ही काट डाला। इतना ही नहीं, उन्होंने उसके मस्तक और भुजाएं काटकर छत्र, चंवर, ध्वजा, घोड़े, रथ, पैदल तथा हाथी आदि को भी नष्ट कर दिया। वे सब पृथ्वी पर गिर पड़े। इस प्रकार धनंजय अपने वज्र के समान बाणों से शत्रुओं के घोड़े, हाथी और रथ आदि की धज्जियां उड़ाकर कर्ण को मार डालने की इच्छा से तुरंत उसके पास जा पहुंचे। उन्हें वहां देख आपके सैनिक रथी, घुड़सवार, हाथीसवार तथा पैदल की सेना साथ लेकर पुनः उनपर टूट पड़े और एक साथ होकर उन्हें पैने बाणों से बींधने लगे। तब अर्जुन ने भी अपने बाण उठाये और उनकी मार से हजारों रथियों, हाथी सवारों तथा घुड़सवारों को यमलोक भेज दिया। इस प्रकार जब कौरव महारथियों पर अर्जुन के बाणों की मार पड़ी तो वे भयभीत होकर इधर_उधर छिपने लगे। तो भी उन्होंने उनमें से चार सौ महारथियों को तीखे बाण मारकर यमलोक का अतिथि बना ही दिया। तरह_तरह के तीखे तीरों की चोट खाकर वे धैर्य खो बैठे और अर्जुन को छोड़कर सब ओर भाग निकले। इस प्रकार उस सेना को खदेड़कर अर्जुन ने सूतपुत्र की सेना पर धावा किया। इसी समय प्रतापी भीमसेन ने अर्जुन के शुभागमन का समाचार सुना। तो भी वे अपने प्राणों की परवाह न करके आपकी सेना को कुचलने लगे। उस समय उनके अलौकिक बल को देख कौरव_सैनिकों के होश उड़ गये। तब राजा दुर्योधन ने अपने महान् धनुर्धर योद्धाओं को आदेश दिया_वीरों ! मार डालो भीमसेन को, इसके मारे जाने पर मैं पाण्डवों की संपूर्ण सेना को मरी हुई ही समझता हूं।‘ राजाओं ने आपके पुत्र की आज्ञा स्वीकार की और भीमसेन को चारों ओर से घेरकर उनपर बाणों की वर्षा आरंभ कर दी। तब भीम ने भी बाणों की झड़ी लगाई और उस महासेना में दरार बनाकर वे घेरे से बाहर निकल आये। तत्पश्चात् उन्होंने दस हजार हाथियों, दो लाख दो सौ पैदलों, पांच हजार घोड़ों और एक सौ रथों का संहार करके खून की नदी बहा दी। महारथी भीम शत्रुओं की सेना में जिस ओर घुस जाते, उधर लाखों योद्धाओं का सफाया कर डालते थे। उनका यह पराक्रम देख दुर्योधन ने शकुनि से कहा_’मामाजी ! आप महाबली भीम को परास्त कीजिए, इसको जीत लेने पर मैं पाण्डवों की विशाल सेना को जीती हुई ही समझता हूं। यह सुनकर शकुनि ने महान् संग्राम करने के लिये तैयार हो अपने भाइयों को भी साथ दिया और भीमसेन के पास पहुंचकर उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया। अब भीमसेन शकुनि की ओर मुड़े। शकुनि ने उनकी छाती में बायें किनारे पर अनेकों तीखे नाराचों से प्रहार किया। वे भीम का कवच छेदकर शरीर के भीतर धंस गये। उनसे अत्यंत घायल होकर भीम ने बड़े रोष के साथ शकुनि पर एक बात चलाया, किन्तु शकुनि ने उसके सात टुकड़े कर डाले। फिर दो भल्लों से सारथि को और सात से भीमसेन को बींध डाला। इसके बाद एक भल्ल से ध्वजा और दो से छत्र काट दिया। फिर चार बाणों से भीम के चारों घोड़ों को भी घायल कर दिया।
तब भीमसेन को बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने सुबल_पुत्र पर लोहे की बनी हुई एक शक्ति चलायी। पास आते ही शकुनि ने उस शक्ति को हाथ से पकड़ लिया और फिर भीम पर ही चला दिया। भीम की बायीं भुजा पर चोट करती हुई वह शक्ति जमीन पर जा पड़ी। अब भीम ने प्राणों की परवा न करके अपने बाणों से शकुनि की सेना को आच्छादित कर दिया। फिर उसके चारों घोड़ों तथा सारथि को मारकर एक भल्ल से उसके रथ की ध्वजा भी काट डाली। शकुनि तुरंत ही रथ से कूदकर एक ओर खड़ा हो गया और धनुष टंकारा हुआ भीम पर चारों ओर से बाणों की वृष्टि करने लगा। यह देखकर प्रतापी भीम ने बड़े वेग से उसपर आघात किया, फिर उसका धनुष काटकर उसे तीखे बाणों से बींध डाला। बलवान् शत्रु के आघात से अत्यंत घायल होकर शकुनि पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसे मूर्छित जानकर आपका पुत्र दुर्योधन आया और उसे अपने रथ पर बिठाकर रणभूमि से दूर हटा ले गया। अब तो कौरव_योद्धा भयभीत होकर चारों दिशाओं में भागने लगे और भीमसेन सैकड़ों बाणों की वर्षा करते हुए बड़े वेग से उनका पीछा करने लगे। उनकी मार से पीड़ित हो वे सब_के_सब योद्धा कर्ण की शरण में गये। महाराज ! उस समय कर्ण ही उनका रक्षक हुआ।

Thursday 28 July 2022

अर्जुन के वीरोचित उद्गार, दोनों पक्ष की सेनाओं में द्वन्द्वयुद्ध, सुषेण का वध, भीमसेन का पराक्रम तथा अर्जुन के आने से उनकी प्रसन्नता

संजय कहते हैं_महाराज ! भगवान् श्रीकृष्ण का भाषण सुनकर अर्जुन एक ही क्षण में शोकरहित एवं परम प्रसन्न हो गये। फिर प्रत्यंचा सुधारकर गाण्डीव धनुष की टंकार करते हुए उन्होंने केशव से कहा_’गोविन्द !  जब आप मेरे स्वामी और संरक्षक हैं तो मेरी विजय निश्चित है। संसार के भूत भविष्य का निर्माण आपके हाथ में है, जिसपर आप प्रसन्न हैं, उसकी विजय में क्या संदेह है ? कृष्ण ! कर्ण की तो बात ही क्या है ? आपकी सहायता मिलने पर तो मैं अपने सामने आये हुए तीनों लोकों को परलोक का पथिक बना सकता हूं। जनार्दन ! मैं देखता हूं_पांचालों की सेना भाग रही है। यह भी देख रहा हूं कि कर्ण रणभूमि में निर्भय_सा विचरता है। उस प्रज्जवलित भार्गवास्त्र की ओर भी मेरी दृष्टि है, जिसे कर्ण ने प्रगट किया है। निश्चय ही यह , वह संग्राम है, जहां कर्ण मेरे हाथों से मारा जायगा और जबतक यह पृथ्वी कायम रहेगी, जबतक समस्त प्राणी इस बात की चर्चा करेंगे। आज मेरे गाण्डीव धनुष से छूटे हुए बाण कर्ण को मौत के घाट उतारेंगे। कृष्ण ! मैं आपसे सच्ची बात बता रहा हूं, आज कर्ण के मारे जाने से दुर्योधन अपने राज्य और जीवन_दोनों से निराश हो जायगा।
मेरे बाणों से कर्ण के टुकड़े_टुकड़े हुए देख आज राजा दुर्योधन आपके उन वचनों को स्मरण करे, जिन्हें आपने उसकी भलाई के लिये कहा था। कौरवों की सभा में पाण्डवों की निंदा करते हुए कर्ण ने द्रौपदी से जो कठोर बातें कहीं थीं, उनके लिये आज उसे खूब पश्चाताप होगा। आज कर्ण के मारे जाने पर धृतराष्ट्र के सभी पुत्र राजा दुर्योधन के साथ इस तरह भयभीत होकर भागेंगे, जैसे सिंह से डरे हुए मृग भागते हैं। कर्ण के पुत्र और मित्रों को भी आज जीवित नहीं रहने दूंगा। सूतपुत्र की मौत देखकर राजा दुर्योधन अब अपने लिये चिंता करें। आज राजा धृतराष्ट्र को उनके पुत्र_पौत्र, मंत्री और सेवकों सहित राज्य की ओर से निराश कर दूंगा। आज मैं अकेला ही कौरवों तथा बाह्लीकों को सेनासहित मारकर अपने बाणों की ज्वाला में जला डालूंगा। मेरे एक हाथ में बाण की तथा दूसरे में बाण सहित दिव्य धनुष की रेखाएं हैं, पैरों में भी रथ और ध्वजा के चिह्न हैं। मेरे जैसे लक्षणोंवाले योद्धा को कोई भी युद्ध में नहीं जीत सकता। भगवान् से ऐसा कहकर अद्वितीय वीर अर्जुन क्रोध से लाल आंखें किये रणभूमि में जा पहुंचे। उस समय उनके मन में दो संकल्प थे_भीमसेन को संकट से छुड़ाना और कर्ण के मस्तक को धड़ से अलग कर देना।
धृतराष्ट्र ने पूछा_संजय ! मेरे पुत्रों तथा पाण्डव_सृंजयों में पहले से ही महाभयंकर संग्राम छिड़ा हुआ था। फिर जब अर्जुन वहां पहुंचे तो युद्ध का स्वरूप कैसा हो गया ?
संजय ने कहा_राजन् ! उस समय अर्जुन घोड़े और सारथिसहित हाथियों और घोड़ों, पैदलों एवं संपूर्ण शत्रुओं को अपने बाण समूहों की मार से मृत्यु के अधीन करने लगे। उनके पहुंचने के पहले कृपाचार्य और शिखण्डी एक_दूसरे से भिड़े थे। सात्यकि ने दुर्योधन पर धावा किया था, श्रुतश्रवा का अश्वत्थामा से और युधामन्यु का चित्रसेन के साथ युद्ध चल रहा था। उत्तमौजा ने कर्ण के पुत्र सुषेण पर और सहदेव ने शकुनि पर आक्रमण किया था। नकुल कुमार शतानीक और कर्ण पुत्र वृषसेन में मुकाबला हो रहा था। नकुल ने कृतवर्मा पर और धृष्टद्युम्न  सेनासहित कर्ण पर चढ़ाई की थी। दु:शासन ने संशप्तकों की सेना लेकर भीमसेन पर धावा किया था। उस संग्राम में उत्तमौजा ने कर्णपुत्र सुषेण को अपने बाणों का निशाना बनाकर उसका मस्तक काट गिराया। सुषेण का सिर पृथ्वी पर पड़ा देखकर कर्ण व्याकुल हो उठा। उसने क्रोध में भरकर उत्तमौजा के घोड़ों को मार डाला और पैने बाणों से उसके ध्वजा तथा रथ की भी धज्जियां उड़ा दीं।
उत्तमौजा भी अपने तीखे बाणों तथा चमकती हुई तलवार से कृपाचार्य के पार्शरक्षकों एवं घोड़ों को मारकर शिखण्डी के रथ पर जा चढ़ा। रथ पर बैठे हुए शिखण्डी ने कृपाचार्य को रथहीन देखकर उनपर प्रहार करने का विचार छोड़ दिया। तदनन्तर अश्वत्थामा ने आगे आकर कृपाचार्य के रथ को अपने पीछे छिपा दिया और उनका उस रण से उद्धार किया। दूसरी ओर भीमसेन अपने पैने बाणों की मार से आपके पुत्रों की सेना को अत्यंत संताप देने लगे। घमासान युद्ध में बहुत से शत्रुओं द्वारा घिरे हुए भीमसेन अपने सारथि से बोले_’सारथे ! तू घोड़ों को तेज हांककर शीघ्र मुझे धृतराष्ट्र के पुत्रों के पास ले चल, आज उन सबको मैं यमलोक पहुंचाये देता हूं।‘ आज्ञा पाते ही सारथि ने घोड़ों की चाल तेज की और तुरंत ही रथ लिये आपकी पुत्रों की सेना में जा पहुंचा।
कौरव_पक्ष के योद्धा भी सब ओर से हाथी, घोड़े, रथ और पैदलों को साथ ले आगे बढ़ आते। भीम के रथ पर चारों ओर से बाणों की बौछार होने लगी और भीम उन सबको अपने बाणों से काटने लगे। उन्होंने शत्रुओं के छोड़े हुए प्रत्येक बाण के दो_दो, तीन_तीन टुकड़े कर डाले। तदनन्तर उनके द्वारा मारे गये हाथी, घोड़े , रथ और पैदल जवानों का चित्कार सुनाई देने लगा। भीमसेन के बाणों की मार से राजाओं के अंग विदीर्ण हो रहे थे, तो भी उन्होंने उनपर सब ओर से धावा कर दिया। तब भीम ने अपना प्रचण्ड वेग प्रगट किया, जिसे शत्रु रोक न सके। महात्मा भीम द्वारा भस्म होती हुई आपकी सेना भयभीत हो रण से भाग चली।  यह देख भीम प्रसन्न होकर पुनः अपने सारथि से बोले_’सूत ! ये जो ध्वजाओं सहित बहुत_से रथ इस ओर बढ़ते चले आ रहे हैं ये हैं अपने शत्रुओं के ? इसकी पहचान कर लेना। युद्ध करते समय मुझे अपने_पराये का ज्ञान नहीं रहता। कहीं ऐसा न हो कि अपनी ही सेना को बाणों से आच्छादित कर डालूं।
विशोक !  राजा युधिष्ठिर बाणों के प्रहार से बहुत घबराते हुए हैं। इधर अर्जुन उन्हें देखने गये थे, सो अभी तक नहीं लौटे। पता नहीं, राजा अभी तक जीवित हैं या नहीं ? अर्जुन का भी समाचार नहीं मिला। इससे मुझे बड़ा खेद हो रहा है तो भी मैं शत्रुओं की प्रचण्ड सेना का संहार करूंगा। तू मेरे रथ पर रखे हुए सभी शस्त्रों की जांच कर लें, अब उनमें कितने बाण बाकी रह गये हैं। किस_किस तरह के बाण बचे हैं और उनकी संख्या कितनी है ? यह सब समझकर बता।‘
विशोक ने कहा_वीरवर ! अब अपने पास साठ हजार मार्गण हैं, दस_दस हजार क्षुर और भल्ल हैं, दो हजार नारायण बचे हैं तथा तीन हजार प्रदर हैं। अभी इतने अस्त्र_शस्त्र बाकी  रह गये हैं कि छः बैलों से जुताई हुआ छकड़ा भी उन्हें नहीं खींच सकता।  तलवारें हजारों की संख्या में पड़ी हैं। प्रास, मुद्गल, शक्ति और तोमर भी बहुत हैं। आप इसके डर में न रहें कि हमारे अस्त्र_शस्त्र जल्दी समाप्त हो जायेंगे। भीमसेन बोले_सूत ! आज अकेले मैं ही समस्त कौरवों को मार गिराउंगा या वे ही मुझे पीड़ित करेंगे। इस समय देवतालोग मेरा एक ही काम सिद्ध कर दें; जैसे यज्ञ में आह्वान करते ही इन्द्र पहुंचते हैं, उसी प्रकार अर्जुन भी यहां आ जायं। विशोक ! इस छिन्न_भिन्न होती हुई कोरव_सेना की ओर तो दृष्टि डाल, ये राजालोग क्यों भाग रहे हैं ? मुझे तो स्पष्ट जान पड़ता है कि नरश्रेष्ठ अर्जुन यहां आ पहुंचे, वे ही अपने बाणों से संपूर्ण सेना को आच्छादित कर रहे हैं। कौरवों पर मोह छा गया है, सब_के_सब भाग रहे हैं। रण में हाहाकार मचा है। हाथी बड़े जोरों से चिग्घाड़ रहे हैं। विशोक ने कहा_ कुमार भीमसेन ! क्रोध में भरे हुए अर्जुन के द्वारा खींचे जानेवाले गाण्डीव धनुष की भयंकर टंकार  क्या तुम्हें नहीं सुनाई देती ? पाण्डुनन्दन ! लो, तुम्हारी सारी कामनाएं पूरी हुईं, उधर देखो, हाथियों की सेना में अर्जुन के रथ की ध्वजा का वानर दिखाई देता है। वह ध्वजा के ऊपर चढकर शत्रुओं को भयभीत करता हुआ चारों ओर देख रहा है। मैं स्वयं भी उसे देखकर डर रहा हूं।
अर्जुन का वह विचित्र मुकुट, सूर्य के समान चमकीली मणि लगी लगी हुई है, कितना सुंदर है ? उनकी बगल में देवदत्त नामवाला श्वेत शंख है। इसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण के पार्श्व में सूर्य के समान कान्तिमान चक्र है, जो उनका यश बढ़ानेवाला है। यदुवंशी सदा उसकी पूजा किया करते हैं। श्रीकृष्ण के पास उनका पांचजन्य भी है, जो चन्द्रमा के समान उज्जवल है।
देखो, भगवान् के वक्ष:स्थल पर कौस्तुभमणि तथा वैजन्तीमाला कैसी शोभा पा रही है ? निश्चय ही श्यामसुंदर घोड़े हांकते हैं और महारथी अर्जुन शत्रुओं की सेना को खदेड़ते हुए इधर ही आ रहे हैं। वह देखो, अर्जुन ने अपने बाणों से घोड़े और  सारथिसहित चार सौ रथियों को मार डाला, सात सौ हाथियों का सफाया किया और हजारों घुड़सवारों तथा पैदलों को मौत के घाट उतार दिया है। इस प्रकार कौरव_योद्धाओं का संहार करते हुए महाबली अर्जुन अब तुम्हारे ही पास आ रहे हैं। तुम्हारा मनोरथ सफल हो गया।
भीमसेन बोले_विशोक ! तुमने बड़ा प्रिय समाचार सुनाया, इससे मुझे बड़ी खुशी हुई है, इस शुभ संवाद के रिमेक मैं तुम्हें चौदह गांवों की जागीर दूंगा। साथ ही सौ दासियां तथा बीस रथ भी तुम्हें पारितोषिक के रूप में मिलेंगे।










Tuesday 19 July 2022

अर्जुन का युधिष्ठिर से क्षमा मांगना, युधिष्ठिर का अर्जुन को आशीर्वाद देना, अर्जुन की रणयात्रा और भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन के पराक्रम का वर्णन

संजय कहते हैं_महाराज ! धर्मराज के मुख से वह प्रेमयुक्त वचन सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया। इधर अर्जुन ने भगवान् के कथनानुसार जो युधिष्ठिर का प्रतिवाद किया था उससे ‘कोई पाप बन गया’ ऐसा समझकर वे पुनः बहुत उदास हो गये थे। तब भगवान् श्रीकृष्ण ने हंसते_हंसते कहा_’अर्जुन ! राजा युधिष्ठिर को ‘तू’ कह देनेमात्र से जब तुम इस तरह शोक में डूब गये  राजा का वध कर देने पर तुम्हारी क्या दशा होती ? सचमुच धर्म का स्वरूप जानना बड़ा कठिन है, जिनकी बुद्धि मंद है, उनके लिए तो उसका जानना और भी मुश्किल है। तुम धर्मभीरू होने के कारण अपने भाई का वध करके निश्चय ही घोर अन्धकार में पड़ते, भयंकर नरक में गिरते। अब मेरी राय यह है कि तुम कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिर को ही प्रसन्न करो, जब वे प्रसन्न हो जाएं तो हमलोग शीघ्र ही सूतपुत्र कर्ण से लड़ने के लिये चलें।‘ तब अर्जुन बहुत लज्जित होकर राजा के चरणों में पड़ गये और बोले_’राजन् ! धर्मपालन की कामना से भयभीत होकर मैंने जो कुछ कह डाला है यह उसे क्षमा कीजिये और मुझपर प्रसन्न होइये।‘ धर्मराज ने देखा अर्जुन पैरों पर पड़े हुए रो रहे हैं, तो उन्होंने अपने प्यारे भाई को उठाकर बड़े स्नेह के साथ गले लगाया और स्वयं भी फूटफूटकर रोने लगे। दोनों भाई बड़ी देर तक रोते रहे, फिर दोनों का भाव एक_दूसरे के प्रति शुद्ध हो गया, दोनों ही प्रेम और प्रसन्नता से भर गये। तदनन्तर युधिष्ठिर ने पुनः अर्जुन को बड़े प्रेम से गले लगाया और उनका मस्तक सूंघकर अत्यन्त प्रसन्नता के साथ कहा_’महाबाहो ! मैं युद्ध में पूर्ण प्रयत्न के साथ लड़ रहा था, किंतु कर्ण ने समस्त सैनिकों के सामने मेरा कवच, रथ की ध्वजा, धनुष_बाण, शक्ति और घोड़े नष्ट कर डाले। उसके इस कर्म को याद करके मैं दु:ख से पीड़ित हो रहा हूं, अब जीना अच्छा नहीं लगता। यदि आज युद्ध में उस वीर को नहीं मार डालोगे तो मैं निश्चय ही अपने प्राणों को त्याग दूंगा।‘
उनके ऐसा कहने पर अर्जुन ने कहा_’राजन् ! मैं नकुल_सहदेव तथा भीमसेन की सौगंध खाता हूं और अपने हथियारों को छूकर सत्य शपथ करके कहता हूं कि आज या तो मैं आज कर्ण को मार डालूंगा या स्वयं ही मरकर रणभूमि में शयन करूंगा।‘ राजा से यों कहकर अर्जुन श्रीकृष्ण से बोले_’माधव ! आज युद्ध में मैं अवश्य कर्ण को मारूंगा; आपकी बुद्धि के बल से ही उस दुरात्मा का वध होगा।‘ यह सुनकर श्रीकृष्ण बोले_’अर्जुन ! तुम महाबली कर्ण का वध करने में स्वयं समर्थ हो। मेरी तो सदा यह इच्छा रहती है कि तुम किसी तरह कर्ण को मारते।‘ अर्जुन से यह कहकर श्रीकृष्ण धर्मराज युधिष्ठिर से बोले_’राजन् ! मैं और अर्जुन_दोनों आपको देखने आते थे। सौभाग्य की बात है कि आप न तो मारे गये और न उसकी कैद में ही पड़े। अब अर्जुन को शान्त करके इन्हें विजय के लिये आशीर्वाद दीजिये।‘
युधिष्ठिर बोले_भैया अर्जुन ! आओ, आओ, फिर मेरी छाती से लग जाओ। तुमने कहने योग्य और हित की बात कही है तथा मैंने उसके लिये क्षमा भी कर दी। धनंजय ! मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं। जाओ, कर्ण का नाश करो। यह सुनकर अर्जुन ने पुनः अपने बड़े भाई के चरण पकड़ और उनपर सिर रखकर प्रणाम किया। राजा ने उन्हें उठाकर पुनः छाती से लगाया और उनका मस्तक सूंघकर कहा_’धनंजय ! तुमने मेरा बहुत सम्मान किया है, अतः ये आशीर्वाद देता हूं कि सर्वत्र तुम्हारी महिमा बढ़े और तुम्हें सनातन विजय प्राप्त हो।‘
अर्जुन ने कहा_महाराज ! जिसने आपको बाणों से पीड़ित किया है, उस कर्ण को आज अपने पापों का भयंकर फल मिलेगा। आज उसे मारकर ही आपका दर्शन करूंगा। इस सच्ची प्रतिज्ञा के साथ मैं आपके चरणों का स्पर्श करता हूं।
यह सुनकर युधिष्ठिर का चित्त बहुत प्रसन्न हुआ। उन्होंने अर्जुन से फिर कहा_’पार्थ ! तुम्हें सदा ही अक्षय यश, पूर्ण आयु, मनोवांछित कामना, विजय तथा बल की प्राप्ति हो। तुम्हारे लिये मैं जो कुछ चाहता हूं, वह सब तुम्हें मिले। अब जाओ और शीघ्र ही कर्ण का नाश करो। खाइस प्रकार धर्मराज को प्रसन्न करने के अनन्तर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा_’गोविन्द ! अब मेरा रथ तैयार हो। उसमें उत्तम घोड़े जोते जायं और सब प्रकार के अस्त्र_शस्त्र सजाकर रख दिये जायं फिर सूतपुत्र का वध करने के लिये आप शीघ्र ही यात्रा करें।‘ अर्जुन के ऐसा कहने पर श्रीकृष्ण ने दारुक से कहा_’तुम पार्थ के कथनानुसार सारी तैयारी करो।‘ भगवान् की आज्ञा पाते ही दारुक ने रथ को सब सामग्रियों से सुसज्जित करके उसमें घोड़े जोते दिये और उसे अर्जुन के पास लाकर खड़ा कर दिया। अर्जुन ने देखा, दारुक रथ जोतकर ले आया, तो उन्होंने धर्मराज से आज्ञा दी और ब्राह्मणों द्वारा स्वास्तिवाचन कराकर वे अपने मंगलमय रथ पर विराजमान हुए। उस समय धर्मराज युधिष्ठिर ने अर्जुन को आशीर्वाद दिये। कुछ दूर जाने पर उनके मन में बड़ी चिन्ता हुई। वे सोचने लगे_’मैंने कर्ण को मारने की प्रतिज्ञा तो की है, किन्तु  वह किस तरह पूर्ण होगी ?’ अर्जुन को चिन्तित देख भगवान् मधुसूदन ने कहा_’गाण्डीवधारी अर्जुन ! तुमने अपने धनुष से जिन जिन वीरों पर विजय पायी है, उन्हें जीतनेवाला इस संसार में तुम्हारे सिवा कोई मनुष्य नहीं है। जो तुम्हारे_जैसे वीर नहीं हैं, उनमें से कौन ऐसा पुरुष है, जो द्रोण, भीष्म, भगदत्त, अवन्ति के राजकुमार विन्द_अनुविन्द, काम्बोजराज सुदक्षिण, श्रुतायु तथा अच्युतायु का सामना करके कुशल से रह सकता था ?
तुम्हारे पास दिव्यास्त्र है, तुममें फुर्ती है, बल है, युद्ध के समय तुम्हें घबराहट नहीं होती, तुम्हें अस्त्र_शस्त्रों का पूर्ण ज्ञान है। लछ्य को बेधने और गिराने की कला मालूम है। निशाना मारते समय तुम्हारा चित्त एकाग्र रहता है। तुम चाहो तो गन्धर्वों और देवताओं सहित संपूर्ण चराचर जगत् का नाश कर सकते हो ?  इस भूमंडल पर तुम्हारे समान योद्धा है ही नहीं। ब्रह्माजी ने प्रजा की सृष्टि करने के पश्चात् इस महान् गाण्डीव धनुष की भी रचना की थी, जिससे तुम युद्ध करते हो, इसलिये तुम्हारी बराबरी करनेवाला कोई नहीं है। तो भी तुम्हारे हित के लिए एक बात बता देना आवश्यक है; तुम कर्ण को अपने से छोटा समझकर उसकी अवहेलना न करना। मैं तो महारथी कर्ण को तुम्हारे समान या तुमसे भी बढ़कर समझता हूं
इसलिये पूरा प्रयास करके तुम्हें उसका वध करना चाहिए। वह अग्नि के समान तेजस्वी और वायु के समान वेगवान है, क्रोध होने पर काल के समान हो सकता है। उसके शरीर की गठन सिंह के समान है, वह बहुत बलवान है। उसकी ऊंचाई आठ रत्नी ( एक सौ अड़सठ अंगुल ) है। ( मुट्ठी बांधे हुए हाथ की माप को रत्नी कहते हैं ) । भुजाएं बड़ी_बड़ी और छाती चौड़ी है। उसको जीतना बहुत कठिन है। वह महान् शूरवीर और अभिमानी है। उसमें योद्धाओं के सभी गुण हैं। वह अपने मित्र कौरवों को अभय देने वाला और पाण्डवों से सदा द्वेष रखनेवाला है।  मेरा तो ऐसा खयाल है कि सिर्फ तुम्हीं उसे मार सकते हो और किसी के लिये उसका मारना टेढ़ी खीर है। इसलिये आज ही उस दुरात्मा, क्रूर और पापी कर्ण को मारकर अपना मनोरथ पूर्ण करो।
‘अर्जुन ! मैं तुम्हारे उस पराक्रम को जानता हूं जिसका वारण करना देवता और असुरों के लिये भी कठिन है। जैसे सिंह मतवाले हाथी को मार डालता है, उसी प्रकार तुम अपने बल और पराक्रम से शूरवीर कर्ण का संहार करो_इसके लिये मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं। तुम शत्रुओं के लिये दुर्धर्ष हो, तुम्हारे ही आश्रय में रहकर ये पाण्डव और पांचाल रण में डटे हुए हैं। तुम्हारे द्वारा सुरक्षित हुए इन पाण्डव, पांचाल, मत्स्य, करुष तथा चेदिदेशीय वीरों ने असंख्य शत्रुओं का संहार कर डाला है। तुम्हारे संरक्षण में युद्ध करनेवाले पाण्डव महारथियों के सिवा दूसरा कौन है, जो संग्राम में कौरवों को परास्त कर सके। तुम तो देवता, असुरों और मनुष्योंसहित तीनों लोकों को युद्ध में जीत सकते हो, फिर कौरव सेना की विसात ही क्या है ? कोई इन्द्र के समान भी पराक्रमी क्यों न हो, तुम्हारे सिवा कौन राजा भगदत्त को जीत सकता था ? अक्षौहिणी सेना के स्वामी तथा युद्ध में कभी पीछे पैर न हटानेवाले भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा, भूरिश्रवा, कृतवर्मा, जयद्रथ, शल्य तथा दुर्योधन जैसे महारथियों पर तुम्हें छोड़ दूसरा कौन विजय पा सकता है ? भयंकर पराक्रम दिखानेवाले तुषार, यवन, खुश, दार्वाभिषार, दरद,शक, माठर, तंगण, आन्ध्र, पुदीना, किरात, म्लेच्छ, पर्वतीय तथा समुद्र के तट पर रहनेवाले योद्धा क्रोध में भरकर दुर्योधन की सहायता के लिये आते हैं, इन्हें तुम्हारे सिवा दूसरा कोई नहीं जीत सकता।
यदि तुम रक्षक न होते तो व्यूहाकार में खड़ी हुई कौरवों की विशाल सेना पर कौन चढ़ाई कर सकता था ? तुम्हारी ही सहायता से पाण्डव पक्ष के वीरों ने उसका संहार किया है। भीष्मजी अस्त्र विद्या में बड़े प्रवीण थे, उन्होंने चेदि, काशी, पांचाल, करुष, मत्स्य तथा कैकयदेशीय वीरों को बाणों से आच्छादित करके मार डाला था। वे जब एक बार धनुष की मूठ पकड़ते तो हजारों रथियों का सफाया कर डालते थे। उनके द्वारा हज़ारों मनुष्यों और हाथियों का संहार हुआ। दस दिनों के युद्ध में तुम्हारी बहुत सी सेना का विध्वंस करके उन्होंने कितने ही रथ सूने कर दिये।
संग्राम में भगवान् रुद्र और विष्णु के समान अपना भयंकर रूप प्रकट करके चेदि, पांचाल और केकयवीरों का संहार करते हुए उन्होंने रथों घोड़ों और हाथियों से भरी हुई पाण्डवसेना का विनाश कर डाला। इस प्रकार भीष्मजी अद्वितीय वीर थे, परन्तु उन्हें भी शिखण्डी ने तुम्हारे संरक्षण में रहकर अपने बाणों का निशाना बनाया। आज वे बाणशय्या पर पड़े हुए हैं। पार्थ ! जयद्रथ का वध करते समय युद्ध में तुमने जैसा पराक्रम किया था, वैसा तुम्हारे सिवा दूसरा कौन कर सकता है ? राजालोग सिंधुराज के वध को तुम्हारा आश्चर्यजनक पराक्रम मानते हैं; पर मैं ऐसा नहीं समझता; क्योंकि तुम्हारे जैसे वीर से ऐसा काम होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मेरा तो ऐसा विश्वास है कि यदि सारा क्षत्रिय समाज एकत्रित होकर तुम्हारा सामना करने आ जाय तो वह एक ही दिन में नष्ट हो जायगा और मेरे विचार से यही तुम्हारे योग्य पराक्रम होगा।‘अर्जुन ! जिस समय भीष्म और द्रोणाचार्य मारे गये, तभी से कौरवों की इस भयंकर सेना का मानो सर्वस्व लुट गया। इसके प्रधान_प्रधान योद्धा नष्ट हो गये, इसमें घोड़ों, रथों और हाथियों का अभाव हो गया। इस समय यह सेना सूर्य, चन्द्रमा और तालाबों से रहित आकाश की भांति श्रीहीन दिखाई दे रही है। इसके प्रमुख वीरों में से और सब तो मारे गये, केवल अश्वत्थामा, कृतवर्मा, कर्ण, शल्य तथा कृपाचार्य_ये ही पांच महारथी बाकी रह गये हैं, इन पांचों को मारकर तुम शत्रुहीन हो जाओ और राजा युधिष्ठिर को द्वीप, नगर, समुद्र, पर्वत, बड़े_बड़े वन तथा आकाश और पातालसहित समस्त पृथ्वी अर्पण कर दो। यदि अपने गुरु आचार्य द्रोण का सम्मान करने के कारण तुम उनके पुत्र अश्वत्थामा पर कृपादृष्टि रखते हो अथवा आचार्य का गौरव रखने के लिये कृपाचार्य पर तुम्हें दया आती हो, यदि माता के बन्धुजनों के प्रति आदर_बुद्धि होने से तुम कृतवर्मा को सामने पाकर भी यमलोक नहीं भेजना चाहते तथा माता माद्री के भाई मद्रराज शल्य को भी दयावश मारना नहीं चाहते तो न सही, किन्तु पाण्डवों के प्रति अत्यंत नीचतापूर्ण वर्ताव करनेवाले इस पापी कर्ण को आज तीखे बाणों से मार ही डालो। यह तुम्हारे लिये पुण्य का काम होगा। मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं; कर्ण का वध करने में कोई दोष नहीं है।
‘दुर्योधन ने पांचों पुत्रों सहित माता कुन्ती को आधीरात के समय जो लाक्षाभवन में जलाने की कोशिश की तथा तुम लोगों के साथ जो वह जुआ खेलने में प्रवृत हुआ, उन सब षड्यंत्रों का मूल कारण यह दुष्टात्मा कर्ण ही था। दुर्योधन को सदा से ही यह विश्वास था कि कर्ण मेरी रक्षा करेगा, इसीलिये वह क्रोध में भरकर मुझे भी कैद करने को तैयार हो गया था। उसमें तुम लोगों के साथ जो_जो बुराईयां की हैं, उन सबमें इस पापात्मा कर्ण की ही प्रधानता है। मित्र ! दुर्योधन के छः निर्दयी महारथियों ने मिलकर जो सुभद्राकुमार की जान ली थी, उस भयंकर संग्राम में कर्ण ने ही अभिमन्यु का धनुष काटा था। कर्ण द्वारा धनुष कट जाने पर शेष पांच महारथियों ने, जो छल_कपट में बड़े प्रवीण थे, बाणों की बौछार से उसे मार डाला। उस वीर के इस तरह मारे जाने पर प्रायः सबको दु:ख हुआ; केवल वे दुष्ट कर्ण और दुर्योधन ही जी भरकर हंसे थे।
इतना ही नहीं, इसने कौरवों की भरी सभा में द्रौपदी को इस प्रकार कटु वचन सुनाते थे_’कृष्णे ! पाण्डव तो नष्ट होकर सदा के लिये नरक में पड़ गये ! अब तू दूसरा पति वरण कर ले। आज से तू धृतराष्ट्र की दासी हुई; अतः राजमहल में आकर अपना काम संभाल। अब पाण्डव तुम्हारे स्वामी नहीं रहे। वे तेरे लिये कुछ भी नहीं कर सकते। तू दासों की स्त्री है और स्वयं भी दासी है।‘ 
‘इस तरह इस पापी ने बहुत_सी बातें कहीं, जो तुमने भी सुनी थी। इसके अलावे भी इसने तुमलोगों के साथ अन्याय करके जो_जो पाप किये हैं उन सबको तथा इसके जीवन को भी तुम्हारे बाण नष्ट करें। आज दुरात्मा कर्ण अपने शरीर पर गाण्डीव धनुष से छूटे हुए भयंकर बाणों की चोट सहता हुआ आचार्य द्रोण तथा भीष्म के वचन याद करें। तुम्हारे हाथों से पीड़ित हुए राजा लोग आज दीन और विषादयुक्त होकर हाहाकार मचाते हुए कर्ण को रथ से नीचे गिरता देखें। राजा शल्य भी आज तुम्हारे सैकड़ों बाणों से छिन्न_भिन्न हुए रथी और अश्व से रहित रथ को छोड़कर भयभीत होकर भाग जायं। 
पार्थ ! यदि तुम सूतपुत्र कर्ण के देखते_देखते अपनी प्रतिज्ञा पूर्ति के लिये उसके पुत्र को मार डालो तो वह भीष्म, द्रोण और विदुर की बातों को याद करें। तुम्हारा मुख्य शत्रु दुर्योधन तुम्हारे हाथ से कर्ण को मारा गया देख आज अपने जीवन तथा राज्य से निराश हो जाय। जान पड़ता है पांचालदेशीय वीर, द्रौपदी के पुत्र, धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, धृष्टद्युम्न के पुत्र, शतानीक, नकुल_सहदेव, दुर्मुख, जन्मेजय, सुधर्मा और सात्यकि_ये कर्ण के वश में पड़ गये हैं। उनका घोर आर्तनाद सुनाई पड़ता है। जो अपने मित्र के प्राणों  की परवाह न करके सामने डटकर लड़ रहे हैं, उन सैकड़ों पांचाल वीरों को कर्ण यमलोक भेज रहा है। वे कर्ण रूपी अगाध महासागर में नाव के बिना डूब रहे हैं, अब तुम्हें ही नौका बनकर उनका उद्धार करना चाहिये। कर्ण ने भृगुवंशी परशुरामजी से जो अस्त्र प्राप्त किया था, उसी का भयंकर रूप आज प्रगट हुआ है। 
वह घोर अस्त्र अपने तेज से प्रज्जवलित हो तुम्हारी सेना को सब ओर से घेरकर संताप दे रहा है। यह देखो, भीम सृंजय योद्धाओं से घिरे हुए हैं और अत्यन्त क्रोध में भरकर कर्ण से लड़ते हुए उनके पैने बाणों से पीड़ित हो रहे हैं। मैं युधिष्ठिर की सेना में तुम्हारे सिवा और किसी वीर को ऐसा नहीं देखता, जो कर्ण से लोहा लेकर कुशलपूर्वक घर लौट आवे। इसलिये तुम अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार तेज किते हुए बाणों से आज कर्ण को मारकर उज्जवल कीर्ति प्राप्त करो। वीरवर ! मैं सच कहता हूं, एक तुम्हीं कर्ण सहित कौरवों को युद्ध में जीत सकते हो, दूसरा कोई नहीं। अतः महारथी कर्ण को मारकर तुम अपना मनोरथ सफल करो।

Wednesday 8 June 2022

भगवान् का अर्जुन को प्रतिज्ञा भंग, भातृवध तथा आत्मघात से बचाना और युधिष्ठिर को वन जाने से रोकना

अर्जुन बोले_ श्रीकृष्ण ! कोई बहुत बड़ा विद्वान और बुद्धिमान मनुष्य जैसा उपदेश दे सकता है तथा जिसके अनुसार आचरण होने से हमलोगों का कल्याण होना संभव है, वैसी ही बात आपने बतायी है। आप हमलोगों के माता_पिता तुल्य हैं, आप ही परम गति हैं इसलिये आपने बहुत उत्तम बात बतायी है। तीनों लोकों में कहीं कोई भी ऐसी बात नहीं है, जो आपको विदित न हो। अतः आप ही परम धर्म को पूर्णरूप से तथा ठीक_ठीक जानते हैं। अब मैं राजा युधिष्ठिर को मारने योग्य नहीं समझता। मेरी इस प्रतिज्ञा के संबंध में आप ही अनुग्रह करके कुछ ऐसी बात बताइये, जिससे इसका पालन भी हो जाय और राजा का वध भी न होने पावे। भगवन् ! आप तो जानते ही हैं कि मेरा व्रत क्या है ? मनुष्यों में जो कोई भी यह कह दे कि ‘तुम अपना गाण्डीव धनुष दूसरे किसी वीर को दे डालो, जो अस्त्रविद्या और पराक्रम में तुमसे बढ़कर हो।‘ मैं तो हठात् उसकी जान ले लूं। इसी तरह भीमसेन को कोई ‘तूबरक’ ( बिना मूंछ का या अधिक खाने वाला ) कह दे, तो वे सहसा उसे मार डाले। राजा ने आपके सामने ही मुझसे कहा है कि ‘तुम अपना धनुष दूसरे को दे डालो। ऐसी दशा में यदि मैं इन्हें मार डालूं तो इनके बिना एक क्षण के लिये भी मैं इस संसार में नहीं रह सकूंगा और यदि इनका वध न करूं तो फिर प्रतिज्ञा भंग के पाप से कैसे मुक्त होऊंगा ? क्या करूं ? मेरी बुद्धि कुछ काम नहीं देती। कृष्ण ! संसार के लोगों की समझ में मेरी प्रतिज्ञा भी सच्ची हो तो राजा युधिष्ठिर का तथा मेरा जीवन भी सुरक्षित रहे_ऐसा कोई सलाह दीजिये।‘ 
श्रीकृष्ण ने कहा_वीरवर ! सुनो ! राजा युधिष्ठिर थक गये हैं और बहुत दुःखी हैं। कर्ण ने अपने तीखे बाणों से इन्हें संग्राम में अधिक घायल कर डाला है। इतना ही नहीं, ये जब युद्ध नहीं कर रहे थे, उस समय भी उसने इनके ऊपर बाणों का प्रहार किया। इसीलिए दुख और रोष में भरकर इन्होंने तुम्हें न कहने योग्य बात कह दी है। ये जानते हैं कि पापी कर्ण को सिर्फ तुम्हीं मार सकते हो; और उसके मारे जाने पर कौरवों को शीघ्र ही जीत लिया जा सकता है।
इसी विचार से इन्होंने वे बातें कह डाली हैं; इसलिये इनका वध करना उचित नहीं है। अर्जुन ! तुम्हें अपने प्रतिज्ञा का पालन करना है तो जिस उपाय से ये जीवित रहते हुए मरे के समान हो जायं, वहीं बताता हूं, सुनो। यही उपाय तुम्हारे अनुरूप होगा। सम्माननीय पुरुष जबतक संसार में सम्मान पाता है, जबतक ही उसका जीवित रहना माना जाता है, जिस दिन उसका बहुत बड़ा अपमान हो जाय, उस समय वह जीते_जी ‘मरा’ समझा जाता है। तुमने, भीमसेन ने, नकुल_सहदेव  ने तथा अन्य वृद्ध पुरुषों एवं शूरवीरों ने राजा युधिष्ठिर का हमेशा ही सम्मान किया है। आज तुम उनका अंशश: अपमान करो। यद्यपि युधिष्ठिर पूज्य होने के कारण ‘आप' कहने योग्य हैं तथापि इन्हें ‘तू’ कह दो। गुरुजन को ‘तू’ कह देना उनका वध कर देने के समान माना जाता है। जिसके देवता अथर्वा और अंगिरा हैं, ऐसी एक सर्वोत्तम श्रुति बताई जाती है। अपना भला चाहनेवाले को बिना बिचारे ही इसके अनुसार वर्ताव करना चाहिये। उस श्रुति का भाव यह है_’गुरु को तू कह देना उसे बिना मारे ही मार डालना है। ‘ इसलिये जैसा मैंने बताया उसी के अनुसार तुम धर्मराज के लिये ‘तू’ शब्द का प्रयोग करो। इसके बाद तुम इनके चरणों में प्रणाम करके शान्त्वना देना और अपनी कही हुई अनुचित बात के लिये क्षमा मांग लेना। 
तुम्हारे भाई राजा युधिष्ठिर समझदार हैं, वे धर्म का ख्याल करके भी तुम पर क्रोध नहीं करेंगे। इस प्रकार तुम मिथ्याभाषण और भातृवध के पाप से छूटकर प्रसन्नतापूर्वक सूतपुत्र कर्ण का वध करना। अपने सखा भगवान् श्रीकृष्ण का वचन सुनकर अर्जुन ने उसकी बड़ी प्रशंसा की, फिर वे हठपूर्वक धर्मराज के प्रति ऐसे कटुवचन कहने लगे, जैसे पहले कभी नहीं कहे थे। वे बोले_’तू चुप रह, न बोल, तू खुद ही लड़ाई से भागकर एक कोस दूर आ बैठा है, तू क्या उलाहना देगा ? हां, भीमसेन को मेरी निंदा करने का अधिकार है; क्योंकि वे समस्त संसार के प्रमुख वीरों के साथ लड़ रहे हैं। शत्रुओं को पीड़ा पहुंचा रहे हैं। असंख्य शूरवीरों, अनेकों राजाओं, रथियों, घुड़सवारों तथा हजारों हाथियों को मौत के घाट उतारकर कम्बोजों और पर्वतीय योद्धाओं को इस तरह नष्ट कर रहे हैं, जैसे सिंह मृगों को। तू अपने कठोर वचनों के चाबुक से अब मुझे न मार, मेरे कोप को फिर न बढ़ा। अर्जुन धर्मभीरू थे, वे युधिष्ठिर को ऐसी कठोर बातें सुनाकर बहुत उदास हो गये। यह जानकर कि ‘मुझसे कोई बहुत बड़ा पाप बन गया’ उनके चित्त में बड़ा खेद हुआ। बारंबार उच्छवास खींचते हुए उन्होंने फिर से तलवार उठा ली। यह देखकर श्रीकृष्ण ने कहा_’अर्जुन ! यह क्या ? तुम फिर क्यों तलवार उठा रहे हो ? मुझे जवाब दो, तुम्हारा अभीष्ट सिद्ध करने के लिये मैं पुनः कोई उपाय बताऊंगा।
पुरुषोत्तम के ऐसा कहने पर अर्जुन दु:खी होकर बोले_’भगवन् ! मैंने जिदमें आकर भाई का अपमान रूप महान् पाप कर डाला है, इसलिये अब मैं अपने इस शरीर को ही नष्ट कर डालूंगा।‘ अर्जुन की बात सुनकर भगवान् ने कहा_पार्थ ! राजा युधिष्ठिर को ‘तू’ मात्र कहकर तुम इतने घोर दु:ख में क्यों डूब गये ? उफ़ ! इसी के लिये आत्मघात करना चाहते हो ? अर्जुन ! श्रेष्ठ पुरुषों ने कभी ऐसा काम नहीं किया है। धर्म का स्वरूप सूक्ष्म है और उसको समझना कठिन। अज्ञानियों के लिये तो और भी मुश्किल है।
यहां जो कर्तव्य है , उसे मैं बताता हूं, सुनो ! भाई का वध करने से जिस नरक की प्राप्ति होती है, उससे भी भयानक नरक तुम्हें आत्मघात करने से मिलेगा। इसलिये अब अपने ही मुंह से अपने गुणों का बखान करो, ऐसा करने से यही समझा जायेगा कि तुमने अपने ही हाथों अपने को मार लिया।‘ यह सुनकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण की बातों का अभिनन्दन किया और ‘तथास्तु’ कहकर धनुष को नवाते हुए वे युधिष्ठिर से बोले_’राजन् ! अब मेरे गुणों को सुनिये_पिनाकधारी भगवान् शंकर को छोड़कर दूसरा कोई भी मेरे समान धनुर्धर नहीं है; मेरी वीरता का उन्होंने भी अनुमोदन किया है। यदि चाहूं तो इस चराचर जगत् को एक ही क्षण में नष्ट कर डालूंगा। मेरे चरणों में रथ और ध्वजा के चिह्न हैं। मुझ जैसा वीर यदि युद्ध में पहुंच जाय तो उसे कोई भी नहीं जीत सकता। उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम_इन सभी दिशाओं के राजाओं का मैंने संहार किया है।‘
कृष्ण ! अब हम दोनों विजयशाली रथ पर बैठकर सूतपुत्र कर्ण का वध करने के लिये शीघ्र ही चल दें। आज राजा युधिष्ठिर प्रसन्न हों, मैं कर्ण को अपने बाणों से नष्ट कर डालूंगा।‘ यों कहकर अर्जुन पुनः युधिष्ठिर से बोले_’आज या तो कर्ण की माता पुत्रवती न होगी या माता कुन्ती ही मुझसे ही हीन हो जायगी। मैं सत्य कहता हूं, अपने बाणों से कर्ण को मारे बिना आज कवच नहीं उतारुंगा। यह कहकर अर्जुन ने तुरंत अपने हथियार और धनुष नीचे डाल दिये, तलवार म्यान में रख दी, फिर लज्जित होकर उन्होंने युधिष्ठिर के चरणों में सिर झुकाया और हाथ जोड़कर कहा ‘महाराज ! मैंने जो कुछ कहा है उसे क्षमा कीजिये और मुझपर प्रसन्न हो जाइये। मैं आपको प्रणाम करता हूं। अब मैं सब तरह से प्रयत्न करके भीमसेन को युद्ध से छुड़ाने और सूतपुत्र कर्ण का वध करने के लिये जा रहा हूं। राजन् ! मेरा जीवन आपका प्रिय करने के लिये ही है_यह मैं सत्य कहता हूं।‘ ऐसा कहकर अर्जुन ने राजा के दोनों चरणों का स्पर्श किया और फिर वे रणभूमि की ओर जाने को उद्यत हो गये। धर्मराज युधिष्ठिर अर्जुन के कठोर वचनों को सुनकर अपने पलंग पर खड़े हो गये, उस समय उनका चित्त बहुत दुःखी हो गया था। वे कहने लगे_’पार्थ ! मैंने अच्छे काम नहीं किये हैं, इसलिये तुमलोगों पर घोर संकट आ पड़ा है। मेरी बुद्धि मारी गयी है, मैं आलसी और डरपोक हूं, इसलिये आज वन में चला जाता हूं। मेरे न रहने पर तुम सुख से रहना। महात्मा भीमसेन ही राजा होने के योग्य है, मैं तो क्रोधी और कायर हूं। अब मुझमें तुम्हारी ये कठोर बातें सहन करने की शक्ति नहीं है। इतना अपमान हो जाने पर मेरे जीवित रहने की कोई आवश्यकता नहीं है।‘_यह कहकर वे सहसा पलंग से कूद पड़े और वन जाने को उद्यत हो गये। यह देख भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें प्रणाम करके कहा_’राजन् ! आपको तो सत्यप्रतिज्ञ अर्जुन की यह प्रतिज्ञा मालूम ही है कि जो कोई उन्हें गाण्डीव धनुष दूसरे को देने के लिये कह देगा, वह उनका वध्य होगा। फिर भी आपने उन्हें वैसी बात कह दी। इससे अर्जुन ने अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा करते हुए मेरे कहने पर आपका अनादर किया है। गुरुजनों का अपमान ही उनका वध कहलाता है। इसलिए मैंने तथा अर्जुन ने सत्य की रक्षा की दृष्टि में रखकर आपके साथ न्याय के विरुद्ध आचरण किया है, उसे आप क्षमा कीजिये। हम दोनों ही आपकी शरण में आये हैं। मेरा भी अपराध है इसके लिये आपके चरणों पर गिरकर क्षमा की भीख मांगता हूं। आप मुझे भी क्षमा कर दें। आज यह पृथ्वी पापी कर्ण का रक्तपान करेगी, मैं आपसे सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूं, अब सूतपुत्र को मरा हुआ ही मान लीजिये।‘
भगवान् की यह बात सुनकर युधिष्ठिर ने सहसा उन्हें अपने चरणों पर से उठाया और हाथ जोड़कर कहा_’गोविन्द ! आप जो कुछ कहते हैं, बिलकुल ठीक है, सचमुच ही मुझसे यह भूल हो गयी है। माधव ! आपने यह रहस्य बताकर मुझपर बड़ी कृपा की, डूबने से बचा लिया। आज आपने हमलोगों की भयंकर विपत्ति से रक्षा की। आप जैसे स्वामी को पाकर ही हम दोनों संकट के भयानक समुद्र से पार हो गये। हमलोग अज्ञानवश मोहित हो रहे थे, आपकी ही बुद्धि रूप नौका का सहारा ले अपने मंत्रियोंसहित शोकसागर के पार हुए हैं। अच्युत ! हम आपसे ही सनाथ हैं।‘


अर्जुन बोले_ श्रीकृष्ण ! कोई बहुत बड़ा विद्वान और बुद्धिमान मनुष्य जैसा उपदेश दे सकता है तथा जिसके अनुसार आचरण होने से हमलोगों का कल्याण होना संभव है, वैसी ही बात आपने बतायी है। आप हमलोगों के माता_पिता तुल्य हैं, आप ही परम गति हैं इसलिये आपने बहुत उत्तम बात बतायी है।
तीनों लोकों में कहीं कोई भी ऐसी बात नहीं है, जो आपको विदित न हो। अतः आप ही परम धर्म को पूर्णरूप से तथा ठीक_ठीक जानते हैं। अब मैं राजा युधिष्ठिर को मारने योग्य नहीं समझता। मेरी इस प्रतिज्ञा के संबंध में आप ही अनुग्रह करके कुछ ऐसी बात बताइये, जिससे इसका पालन भी हो जाय और राजा का वध भी न होने पावे। 
भगवन् ! आप तो जानते ही हैं कि मेरा व्रत क्या है ? मनुष्यों में जो कोई भी यह कह दे कि ‘तुम अपना गाण्डीव धनुष दूसरे किसी वीर को दे डालो, जो अस्त्रविद्या और पराक्रम में तुमसे बढ़कर हो।‘ मैं तो हठात् उसकी जान ले लूं। इसी तरह भीमसेन को कोई ‘तूबरक’ ( बिना मूंछ का या अधिक खाने वाला ) कह दे, तो वे सहसा उसे मार डाले। हो राजा ने आपके सामने ही मुझसे कहा है कि ‘तुम अपना धनुष दूसरे को दे डालो। ऐसी दशा में यदि मैं इन्हें मार डालूं तो इनके बिना एक क्षण के रिमेक भी मैं इस संसार में नहीं रह सकूंगा और यदि इनका वध न करूं तो फिर प्रतिज्ञा भंग के पाप से कैसे मुक्त होऊंगा ? क्या करूं ? मेरी बुद्धि कुछ काम नहीं देती। कृष्ण ! संसार के लोगों की समझ में मेरी प्रतिज्ञा भी सच्ची हो तो राजा युधिष्ठिर का तथा मेरा जीवन भी सुरक्षित रहे_ऐसा कोई सलाह दीजिये।‘ 
श्रीकृष्ण ने कहा_वीरवर ! सुनो ! राजा युधिष्ठिर तक गये हैं और बहुत दुःखी हैं। कर्ण ने अपने तीखे बाणों से इन्हें संग्राम में अधिक घायल कर डाला है। इतना ही नहीं, ये जब युद्ध नहीं कर रहे थे, उस समय भी उसने इनके ऊपर बाणों का प्रहार किया। इसीलिए दुख और रोष में भरकर इन्होंने तुम्हें न कहने योग्य बात कह दी है। ये जानते हैं कि पापी कर्ण को सिर्फ तुम्हीं मार सकते हो; और उसके मारे जाने पर कौरवों को शीघ्र ही जीत लिया जा सकता है।
इसी विचार से इन्होंने वे बातें कह डाली हैं; इसलिये इनका वध करना उचित नहीं है। अर्जुन ! तुम्हें अपने प्रतिज्ञा का पालन करना है तो जिस उपाय से ये जीवित रहते हुए मरे के समान हो जायं, वहीं बताता हूं, सुनो। यही उपाय तुम्हारे अनुरूप होगा।
सम्माननीय पुरुष जबतक संसार में सम्मान पाता है, जबतक ही उसका जीवित रहना माना जाता है, जिस दिन उसका बहुत बड़ा अपमान हो जाय, उस समय वह जीते_जी ‘मरा’ समझा जाता है। तुमने, भीमसेन ने, नकुल_सहदेव  ने तथा अन्य वृद्ध पुरुषों एवं शूरवीरों ने राजा युधिष्ठिर का हमेशा ही सम्मान किया है। आज तुम उनका अंशश: अपमान करो। यद्यपि युधिष्ठिर पूज्य होने के कारण ‘आप' कहने योग्य हैं तथापि इन्हें ‘तू’ कह दो। गुरुजन को ‘तू’ कह देना उनका वध कर देने के समान माना जाता है।
जिसके देवता अथर्वा और अंगिरा हैं, ऐसी एक सर्वोत्तम श्रुति बताई जाती है। अपना भला चाहनेवाले को बिना बिचारे ही इसके अनुसार वर्ताव करना चाहिये। उस श्रुति का भाव यह है_’गुरु को तू कह देना उसे बिना मारे ही मार डालना है। ‘ इसलिये जैसा मैंने बताया उसी के अनुसार तुम धर्मराज के लिये ‘तू’ शब्द का प्रयोग करो। इसके बाद तुम इनके चरणों में प्रणाम करके शान्त्वना देना और अपनी कही हुई अनुचित बात के लिये क्षमा मांग लेना। 
तुम्हारे भाई राजा युधिष्ठिर समझदार हैं, वे धर्म का ख्याल करके भी तुम पर क्रोध नहीं करेंगे। इस प्रकार तुम मिथ्याभाषण और भातृवध के पाप से छूटकर प्रसन्नतापूर्वक सूतपुत्र कर्ण का वध करना।
अपने सखा भगवान् श्रीकृष्ण का वचन सुनकर अर्जुन ने उसकी बड़ी प्रशंसा की, फिर वे हठपूर्वक धर्मराज के प्रति ऐसे कटुवचन कहने लगे, जैसे पहले कभी नहीं कहे थे। वे बोले_’तू चुप रह, न बोल, तू खुद ही लड़ाई से भागकर एक कोस दूर आ बैठा है, तू क्या उलाहना देगा ? हां, भीमसेन को मेरी निंदा करने का अधिकार है; क्योंकि वे समस्त संसार के प्रमुख वीरों के साथ लड़ रहे हैं। शत्रुओं को पीड़ा पहुंचा रहे हैं। असंख्य शूरवीरों, अनेकों राजाओं, रथियों, घुड़सवारों तथा हजारों हाथियों को मौत के घाट उतारकर कम्बोजों और पर्वतीय योद्धाओं को इस तरह नष्ट कर रहे हैं, जैसे सिंह मृगों को। तू अपने कठोर वचनों के चाबुक से अब मुझे न मार, मेरे कोप को फिर न बढ़ा।
अर्जुन धर्मभीरू थे, वे युधिष्ठिर को ऐसी कठोर बातें सुनाकर बहुत उदास हो गये। यह जानकर कि ‘मुझसे कोई बहुत बड़ा पाप बन गया’ उनके चित्त में बड़ा खेद हुआ। बारंबार उच्छवास खींचते हुए उन्होंने फिर से तलवार उठा ली। यह देखकर श्रीकृष्ण ने कहा_’अर्जुन ! यह क्या ? तुम फिर क्यों तलवार उठा रहे हो ? मुझे जवाब दो, तुम्हारा अभीष्ट सिद्ध करने के लिये मैं पुनः कोई उपाय बताऊंगा।
पुरुषोत्तम के ऐसा कहने पर अर्जुन दु:की होकर बोले_’भगवन् ! मैंने जिदमें आकर भाई का अपमान रूप महान् पाप कर डाला है, इसलिये अब मैं अपने इस शरीर को ही नष्ट कर डालूंगा।‘ अर्जुन की बात सुनकर भगवान् ने कहा_पार्थ ! राजा युधिष्ठिर को ‘तू’ मात्र कहकर तुम इतने घोर दु:ख में क्यों डूब गये ? उफ़ ! इसी के रिमेक आत्मघात करना चाहते हो ? अर्जुन ! श्रेष्ठ पुरुषों ने कभी ऐसा काम नहीं किया है। धर्म का स्वरूप सूक्ष्म है और उसको समझना कठिन। अज्ञानियों के रिमेक तो और भी मुश्किल है।
यहां जो कर्तव्य है , उसे मैं बताता हूं, सुनो ! भाई का वध करने से जिस नरक की प्राप्ति होती है, उससे भी भयानक नरक तुम्हें आत्मघात करने से मिलेगा। इसलिये अब अपने ही मुंह से अपने गुणों का बखान करो, ऐसा करने से यही समझा जायेगा कि तुमने अपने ही हाथों अपने को मार लिया।‘ 
यह सुनकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण की बातों का अभिनन्दन किया और ‘तथास्तु’ कहकर धनुष को नवाते हुए वे युधिष्ठिर से बोले_’राजन् ! अब मेरे गुणों को सुनिये_पिनाकधारी भगवान् शंकर को छोड़कर दूसरा कोई भी मेरे समान धनुर्धर नहीं है; मेरी वीरता का उन्होंने भी अनुमोदन किया है। यदि चाहूं तो इस चराचर जगत् को एक ही क्षण में नष्ट कर डालूंगा। मेरे चरणों में रथ और ध्वजा के चिह्न हैं। मुझ जैसा वीर यदि युद्ध में पहुंच जाय तो उसे कोई भी नहीं जीत सकता। उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम_इन सभी दिशाओं के राजाओं का मैंने संहार किया है।‘
कृष्ण ! अब हम दोनों विजयशाली रथ पर बैठकर सूतपुत्र कर्ण का वध करने के लिये शीघ्र ही चल दें। आज राजा युधिष्ठिर प्रसन्न हों, मैं कर्ण को अपने बाणों से नष्ट कर डालूंगा।‘ यों कहकर अर्जुन पुनः युधिष्ठिर से बोले_’आज या तो कर्ण की माता पुत्री न होगी या माता कुन्ती ही मुझसे ही हीन हो जायगी। मैं सत्य कहता हूं, अपने बाणों से कर्ण को मारे बिना आज कवच नहीं उतारुंगा।
यह कहकर अर्जुन ने तुरंत अपने हथियार और धनुष नीचे डाल दिये, तलवार म्यान में रख दी, फिर लज्जित होकर उन्होंने युधिष्ठिर के चरणों में सिर झुकाया और हाथ जोड़कर कहा ‘महाराज ! मैंने जो कुछ कहा है उसे क्षमा कीजिये और मुजफर प्रसन्न हो जाते। मैं आपको प्रणाम करता हूं। अब मैं सब तरह से प्रयत्न करके भीमसेन को युद्ध से छुड़ाने और सूतपुत्र कर्ण का वध करने के लिये जा रहा हूं। राजन् ! मेरा जीवन आपका प्रिय करने के रिमेक ही है_यह मैं सत्य कहता हूं।‘ ऐसा कहकर अर्जुन ने राजा के दोनों चरणों का स्पर्श किया और फिर वे रणभूमि की ओर जाने को उद्यत हो गये।
धर्मराज युधिष्ठिर अर्जुन के कठोर वचनों को सुनकर अपने पलंग पर खड़े हो ग्रे, उस समय उनका चित्त बहुत दुःखी हो गया था। वे कहने लगे_’पार्थ ! मैंने अच्छे काम नहीं किये हैं, इसलिये तुमलोगों पर घोर संकट आ पड़ा है। मेरी बुद्धि मारी गरी है, मैं आलसी और डरपोक हूं, इसलिये आज वन में चला जाता हूं। मेरे न रहने पर तुम सुख से रहना। महात्मा भीमसेन ही राजा होने के योग्य है, मैं तो क्रोधी और कायर हूं। अब मुझमें तुम्हारी ये कठोर बातें सहन करने की शक्ति नहीं है। इतना अपमान हो जाने पर मेरे जीवित रहने की कोई आवश्यकता नहीं है।‘_यह कहकर वे सहसा पलंग से कूद पड़े और वन जाने को उद्यत हो गये।
यह देख भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें प्रणाम करके कहा_’राजन् ! आपको तो सत्यप्रतिज्ञ अर्जुन की यह प्रतिज्ञा मालूम ही है कि जो कोई उन्हें गाण्डीव धनुष दूसरे को देने के रिमेक कह देगा, वह उनका वध्य होगा। फिर भी आपने उन्हें वैसी बात कह दी। इससे अर्जुन ने अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा करते हुए मेरे कहने पर आपका अनादर किया है। गुरुजनों का अपमान ही उनका वध कहलाता है। इसलिए मैंने तथा अर्जुन ने सत्य की रक्षा की दृष्टि समें रखकर आपके साथ न्याय के विरुद्ध आचरण किया है, उसे आप क्षमा कीजिये। हम दोनों ही आपकी शरण में आये हैं। मेरा भी अपराध है इसके लिये आपके चरणों पर गिरकर क्षमा की भीख मांगता हूं। आप मुझे भी क्षमा कर दें। आज यह पृथ्वी पापी कर्ण का रक्तपान करेगी, मैं आपसे सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूं, अब सूतपुत्र को मरा हुआ ही मान लीजिये।‘
भगवान् की यह बात सुनकर युधिष्ठिर ने सहसा उन्हें अपने चरणों पर से उठाया और हाथ जोड़कर कहा_’गोविन्द ! आप जो कुछ कहते हैं, बिलकुल ठीक है, सचमुच ही मुझसे यह भूल हो गयी है। माधव ! आपने यह रहस्य बताकर मुझपर बड़ी कृपा की, डूबने से बचा लिया। आज आपने हमलोगों की भयंकर विपत्ति से रक्षा की। आप जैसे स्वामी को पाकर ही हम दोनों संकट के भयानक समुद्र से पार हो गये। हमलोग अज्ञानवश मोहित हो रहे थे, आपकी ही बुद्धि रूप नौका का सहारा ले अपने मंत्रियोंसहित शोकसागर के पार हुए हैं। अच्युत ! हम आपसे ही सनाथ हैं।‘


अर्जुन बोले_ श्रीकृष्ण ! कोई बहुत बड़ा विद्वान और बुद्धिमान मनुष्य जैसा उपदेश दे सकता है तथा जिसके अनुसार आचरण होने से हमलोगों का कल्याण होना संभव है, वैसी ही बात आपने बतायी है। आप हमलोगों के माता_पिता तुल्य हैं, आप ही परम गति हैं इसलिये आपने बहुत उत्तम बात बतायी है।
तीनों लोकों में कहीं कोई भी ऐसी बात नहीं है, जो आपको विदित न हो। अतः आप ही परम धर्म को पूर्णरूप से तथा ठीक_ठीक जानते हैं। अब मैं राजा युधिष्ठिर को मारने योग्य नहीं समझता। मेरी इस प्रतिज्ञा के संबंध में आप ही अनुग्रह करके कुछ ऐसी बात बताइये, जिससे इसका पालन भी हो जाय और राजा का वध भी न होने पावे। 
भगवन् ! आप तो जानते ही हैं कि मेरा व्रत क्या है ? मनुष्यों में जो कोई भी यह कह दे कि ‘तुम अपना गाण्डीव धनुष दूसरे किसी वीर को दे डालो, जो अस्त्रविद्या और पराक्रम में तुमसे बढ़कर हो।‘ मैं तो हठात् उसकी जान ले लूं। इसी तरह भीमसेन को कोई ‘तूबरक’ ( बिना मूंछ का या अधिक खाने वाला ) कह दे, तो वे सहसा उसे मार डाले। हो राजा ने आपके सामने ही मुझसे कहा है कि ‘तुम अपना धनुष दूसरे को दे डालो। ऐसी दशा में यदि मैं इन्हें मार डालूं तो इनके बिना एक क्षण के रिमेक भी मैं इस संसार में नहीं रह सकूंगा और यदि इनका वध न करूं तो फिर प्रतिज्ञा भंग के पाप से कैसे मुक्त होऊंगा ? क्या करूं ? मेरी बुद्धि कुछ काम नहीं देती। कृष्ण ! संसार के लोगों की समझ में मेरी प्रतिज्ञा भी सच्ची हो तो राजा युधिष्ठिर का तथा मेरा जीवन भी सुरक्षित रहे_ऐसा कोई सलाह दीजिये।‘ 
श्रीकृष्ण ने कहा_वीरवर ! सुनो ! राजा युधिष्ठिर तक गये हैं और बहुत दुःखी हैं। कर्ण ने अपने तीखे बाणों से इन्हें संग्राम में अधिक घायल कर डाला है। इतना ही नहीं, ये जब युद्ध नहीं कर रहे थे, उस समय भी उसने इनके ऊपर बाणों का प्रहार किया। इसीलिए दुख और रोष में भरकर इन्होंने तुम्हें न कहने योग्य बात कह दी है। ये जानते हैं कि पापी कर्ण को सिर्फ तुम्हीं मार सकते हो; और उसके मारे जाने पर कौरवों को शीघ्र ही जीत लिया जा सकता है।
इसी विचार से इन्होंने वे बातें कह डाली हैं; इसलिये इनका वध करना उचित नहीं है। अर्जुन ! तुम्हें अपने प्रतिज्ञा का पालन करना है तो जिस उपाय से ये जीवित रहते हुए मरे के समान हो जायं, वहीं बताता हूं, सुनो। यही उपाय तुम्हारे अनुरूप होगा।
सम्माननीय पुरुष जबतक संसार में सम्मान पाता है, जबतक ही उसका जीवित रहना माना जाता है, जिस दिन उसका बहुत बड़ा अपमान हो जाय, उस समय वह जीते_जी ‘मरा’ समझा जाता है। तुमने, भीमसेन ने, नकुल_सहदेव  ने तथा अन्य वृद्ध पुरुषों एवं शूरवीरों ने राजा युधिष्ठिर का हमेशा ही सम्मान किया है। आज तुम उनका अंशश: अपमान करो। यद्यपि युधिष्ठिर पूज्य होने के कारण ‘आप' कहने योग्य हैं तथापि इन्हें ‘तू’ कह दो। गुरुजन को ‘तू’ कह देना उनका वध कर देने के समान माना जाता है।
जिसके देवता अथर्वा और अंगिरा हैं, ऐसी एक सर्वोत्तम श्रुति बताई जाती है। अपना भला चाहनेवाले को बिना बिचारे ही इसके अनुसार वर्ताव करना चाहिये। उस श्रुति का भाव यह है_’गुरु को तू कह देना उसे बिना मारे ही मार डालना है। ‘ इसलिये जैसा मैंने बताया उसी के अनुसार तुम धर्मराज के लिये ‘तू’ शब्द का प्रयोग करो। इसके बाद तुम इनके चरणों में प्रणाम करके शान्त्वना देना और अपनी कही हुई अनुचित बात के लिये क्षमा मांग लेना। 
तुम्हारे भाई राजा युधिष्ठिर समझदार हैं, वे धर्म का ख्याल करके भी तुम पर क्रोध नहीं करेंगे। इस प्रकार तुम मिथ्याभाषण और भातृवध के पाप से छूटकर प्रसन्नतापूर्वक सूतपुत्र कर्ण का वध करना।
अपने सखा भगवान् श्रीकृष्ण का वचन सुनकर अर्जुन ने उसकी बड़ी प्रशंसा की, फिर वे हठपूर्वक धर्मराज के प्रति ऐसे कटुवचन कहने लगे, जैसे पहले कभी नहीं कहे थे। वे बोले_’तू चुप रह, न बोल, तू खुद ही लड़ाई से भागकर एक कोस दूर आ बैठा है, तू क्या उलाहना देगा ? हां, भीमसेन को मेरी निंदा करने का अधिकार है; क्योंकि वे समस्त संसार के प्रमुख वीरों के साथ लड़ रहे हैं। शत्रुओं को पीड़ा पहुंचा रहे हैं। असंख्य शूरवीरों, अनेकों राजाओं, रथियों, घुड़सवारों तथा हजारों हाथियों को मौत के घाट उतारकर कम्बोजों और पर्वतीय योद्धाओं को इस तरह नष्ट कर रहे हैं, जैसे सिंह मृगों को। तू अपने कठोर वचनों के चाबुक से अब मुझे न मार, मेरे कोप को फिर न बढ़ा।
अर्जुन धर्मभीरू थे, वे युधिष्ठिर को ऐसी कठोर बातें सुनाकर बहुत उदास हो गये। यह जानकर कि ‘मुझसे कोई बहुत बड़ा पाप बन गया’ उनके चित्त में बड़ा खेद हुआ। बारंबार उच्छवास खींचते हुए उन्होंने फिर से तलवार उठा ली। यह देखकर श्रीकृष्ण ने कहा_’अर्जुन ! यह क्या ? तुम फिर क्यों तलवार उठा रहे हो ? मुझे जवाब दो, तुम्हारा अभीष्ट सिद्ध करने के लिये मैं पुनः कोई उपाय बताऊंगा।
पुरुषोत्तम के ऐसा कहने पर अर्जुन दु:की होकर बोले_’भगवन् ! मैंने जिदमें आकर भाई का अपमान रूप महान् पाप कर डाला है, इसलिये अब मैं अपने इस शरीर को ही नष्ट कर डालूंगा।‘ अर्जुन की बात सुनकर भगवान् ने कहा_पार्थ ! राजा युधिष्ठिर को ‘तू’ मात्र कहकर तुम इतने घोर दु:ख में क्यों डूब गये ? उफ़ ! इसी के रिमेक आत्मघात करना चाहते हो ? अर्जुन ! श्रेष्ठ पुरुषों ने कभी ऐसा काम नहीं किया है। धर्म का स्वरूप सूक्ष्म है और उसको समझना कठिन। अज्ञानियों के रिमेक तो और भी मुश्किल है।
यहां जो कर्तव्य है , उसे मैं बताता हूं, सुनो ! भाई का वध करने से जिस नरक की प्राप्ति होती है, उससे भी भयानक नरक तुम्हें आत्मघात करने से मिलेगा। इसलिये अब अपने ही मुंह से अपने गुणों का बखान करो, ऐसा करने से यही समझा जायेगा कि तुमने अपने ही हाथों अपने को मार लिया।‘ 
यह सुनकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण की बातों का अभिनन्दन किया और ‘तथास्तु’ कहकर धनुष को नवाते हुए वे युधिष्ठिर से बोले_’राजन् ! अब मेरे गुणों को सुनिये_पिनाकधारी भगवान् शंकर को छोड़कर दूसरा कोई भी मेरे समान धनुर्धर नहीं है; मेरी वीरता का उन्होंने भी अनुमोदन किया है। यदि चाहूं तो इस चराचर जगत् को एक ही क्षण में नष्ट कर डालूंगा। मेरे चरणों में रथ और ध्वजा के चिह्न हैं। मुझ जैसा वीर यदि युद्ध में पहुंच जाय तो उसे कोई भी नहीं जीत सकता। उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम_इन सभी दिशाओं के राजाओं का मैंने संहार किया है।‘
कृष्ण ! अब हम दोनों विजयशाली रथ पर बैठकर सूतपुत्र कर्ण का वध करने के लिये शीघ्र ही चल दें। आज राजा युधिष्ठिर प्रसन्न हों, मैं कर्ण को अपने बाणों से नष्ट कर डालूंगा।‘ यों कहकर अर्जुन पुनः युधिष्ठिर से बोले_’आज या तो कर्ण की माता पुत्री न होगी या माता कुन्ती ही मुझसे ही हीन हो जायगी। मैं सत्य कहता हूं, अपने बाणों से कर्ण को मारे बिना आज कवच नहीं उतारुंगा।
यह कहकर अर्जुन ने तुरंत अपने हथियार और धनुष नीचे डाल दिये, तलवार म्यान में रख दी, फिर लज्जित होकर उन्होंने युधिष्ठिर के चरणों में सिर झुकाया और हाथ जोड़कर कहा ‘महाराज ! मैंने जो कुछ कहा है उसे क्षमा कीजिये और मुजफर प्रसन्न हो जाते। मैं आपको प्रणाम करता हूं। अब मैं सब तरह से प्रयत्न करके भीमसेन को युद्ध से छुड़ाने और सूतपुत्र कर्ण का वध करने के लिये जा रहा हूं। राजन् ! मेरा जीवन आपका प्रिय करने के रिमेक ही है_यह मैं सत्य कहता हूं।‘ ऐसा कहकर अर्जुन ने राजा के दोनों चरणों का स्पर्श किया और फिर वे रणभूमि की ओर जाने को उद्यत हो गये।
धर्मराज युधिष्ठिर अर्जुन के कठोर वचनों को सुनकर अपने पलंग पर खड़े हो ग्रे, उस समय उनका चित्त बहुत दुःखी हो गया था। वे कहने लगे_’पार्थ ! मैंने अच्छे काम नहीं किये हैं, इसलिये तुमलोगों पर घोर संकट आ पड़ा है। मेरी बुद्धि मारी गरी है, मैं आलसी और डरपोक हूं, इसलिये आज वन में चला जाता हूं। मेरे न रहने पर तुम सुख से रहना। महात्मा भीमसेन ही राजा होने के योग्य है, मैं तो क्रोधी और कायर हूं। अब मुझमें तुम्हारी ये कठोर बातें सहन करने की शक्ति नहीं है। इतना अपमान हो जाने पर मेरे जीवित रहने की कोई आवश्यकता नहीं है।‘_यह कहकर वे सहसा पलंग से कूद पड़े और वन जाने को उद्यत हो गये।
यह देख भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें प्रणाम करके कहा_’राजन् ! आपको तो सत्यप्रतिज्ञ अर्जुन की यह प्रतिज्ञा मालूम ही है कि जो कोई उन्हें गाण्डीव धनुष दूसरे को देने के रिमेक कह देगा, वह उनका वध्य होगा। फिर भी आपने उन्हें वैसी बात कह दी। इससे अर्जुन ने अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा करते हुए मेरे कहने पर आपका अनादर किया है। गुरुजनों का अपमान ही उनका वध कहलाता है। इसलिए मैंने तथा अर्जुन ने सत्य की रक्षा की दृष्टि समें रखकर आपके साथ न्याय के विरुद्ध आचरण किया है, उसे आप क्षमा कीजिये। हम दोनों ही आपकी शरण में आये हैं। मेरा भी अपराध है इसके लिये आपके चरणों पर गिरकर क्षमा की भीख मांगता हूं। आप मुझे भी क्षमा कर दें। आज यह पृथ्वी पापी कर्ण का रक्तपान करेगी, मैं आपसे सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूं, अब सूतपुत्र को मरा हुआ ही मान लीजिये।‘
भगवान् की यह बात सुनकर युधिष्ठिर ने सहसा उन्हें अपने चरणों पर से उठाया और हाथ जोड़कर कहा_’गोविन्द ! आप जो कुछ कहते हैं, बिलकुल ठीक है, सचमुच ही मुझसे यह भूल हो गयी है। माधव ! आपने यह रहस्य बताकर मुझपर बड़ी कृपा की, डूबने से बचा लिया। आज आपने हमलोगों की भयंकर विपत्ति से रक्षा की। आप जैसे स्वामी को पाकर ही हम दोनों संकट के भयानक समुद्र से पार हो गये। हमलोग अज्ञानवश मोहित हो रहे थे, आपकी ही बुद्धि रूप नौका का सहारा ले अपने मंत्रियोंसहित शोकसागर के पार हुए हैं। अच्युत ! हम आपसे ही सनाथ हैं।‘