Monday 13 November 2023

भगवान् श्रीकृष्ण का हस्तिनापुर जाना और धृतराष्ट्र तथा गान्धारी को सांत्वना देकर वापस आना

जनमेजय ने पूछा _विप्रवर ! धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण को गान्धारी के पास क्यों भेजा ? जब पहले वे संधि कराने के लिये कौरवों के पास गये थे, उस समय तो उनकी  इच्छा पूरी हुई नहीं, जिसके कारण वह युद्ध हुआ। अब जब सारे योद्धा मारे गये, दुर्योधन गिर गया और पाण्डव शत्रुहीन हो गये, तब ऐसी क्या आवश्यकता आ पड़ी, जिसके लिये भगवान् श्रीकृष्ण को फिर वहां जाना पड़ा! मुझे तो ऐसा जान पड़ता है, इसमें कोई छोटा_मोटा कारण नहीं होगा। वैशम्पायनजी ने कहा_राजन् ! तुमने जो प्रश्न किया है वह ठीक ही है; मैं इसका यथार्थ कारण बताता हूं, सुनो। भीमसेन ने गदायुद्ध के नियम का उल्लंघन करके महाबली दुर्योधन को मारा था_यह देखकर महाराज युधिष्ठिर को बड़ा भय हुआ। उन्होंने सोचा 'दुर्योधन की माता गांधारी बड़ी तपस्विनी है, उन्होंने जीवनभर घोर तपस्या की हैं। वे चाहे तो तीनों लोकों को भस्म कर सकती हैं, इसलिये सबसे पहले उन्हें ही शान्त करना चाहिये। अन्यथा हमलोगों के द्वारा जब वे अपने पुत्र का अन्यायपूर्वक वध सुनेंगी तो क्रोध में भरकर  अपने मन से अग्नि प्रकट करके हमें भष्म कर डालेंगी।' यह सब सोच_विचारकर धर्मराज ने श्रीकृष्ण से कहा_'गोविन्द ! आपकी ही कृपा से मैंने अकण्टक राज्य पाया है, अपने पुरुषार्थ से हम उसे पाने की बात भी नहीं सोच सकते थे। आपने ही सारथि बनकर हमारी सहायता और रक्षा की है। यदि आप इस युद्ध में अर्जुन के कर्णधार न होते, तो ये समुद्र जैसी कौरव_सेना को जीतकर उसके पार कैसे पहुंच पाते ? हमलोगों के लिये आपने कौन_कौन_सा कष्ट नहीं उठाया ? गदआओं के प्रहार, परिघों की मार, शक्ति, भिंदीपाल तोमर और परसों की चोटें सहीं तथा शत्रुओं की कठोर बातें भी सुनी। किन्तु दुर्योधन के मारे जाने से सब सफल हो गया। इस प्रकार यद्यपि हमलोगों की विजय हुई है, तथापि अभी हमारा चित्त संदेह के झूले में झूल रहा है। माधव ! जरा, आप गान्धारी के क्रोध का तो ख्याल कीजिये; वे नित्य कठोर तपस्या में संलग्न रहने के कारण दुर्बल हो गयी हैं, अपने पुत्र_पौत्रों का वध सुनकर निश्चय ही हमें भस्म कर डालेंगी। इसलिये इस समय उन्हें प्रसन्न करना आवश्यक है। पुरुषोत्तम! जब वे पुत्र के शोक से पीड़ित हो क्रोध से लाल_लाल आंखें करके देखेंगी, उस समय आपके सिवा दूसरा कौन उनकी ओर दृष्टि डालने का साहस करेगा ? अतः उन्हें शांत करने के लिये एक बार आपका वहां जाना उचित मालूम होता है। आपसी से इस जगत् का प्रादुर्भाव होता है और आपही में प्रलय। अतः आप ही यथार्थ कारणों से युक्त समयोचित बात कहकर गांधारी को शीघ्र शांत कर सकेंगे। बाबा व्यासजी भी वहीं होंगे। आपको पाण्डवों के हित की दृष्टि से हरेक उपाय करके गांधारी का क्रोध शान्त कर देना चाहिए।'
धर्मराज की बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने दारुक को बुलाया और उसे रथ तैयार करने की आज्ञा दी। दारुक ने बड़ी फुर्ती से रथ सजाया और उसे जोतकर भगवान् की सेवा में ला खड़ा किया। भगवान् उसपर सवार हो तुरंत हस्तिनापुर को चल दिये और रथ की घरघराहट से नगर को गुंजाते हुए वहां जा पहुंचे। नगर में प्रवेश करके रथ से उतरे और धृतराष्ट्र को अपने आने की सूचना देकर उनके महल में गये। जाते ही व्यासजी का दर्शन हुआ, जो पहले से ही वहां पधारे हुए थे। श्रीकृष्ण ने व्यासजी तथा राजा धृतराष्ट्र के चरण छूए और गान्धारी को भी प्रणाम किया। फिर वे धृतराष्ट्र का हाथ अपने हाथ में ले फूट_फूटकर रोने लगे। उन्होंने दो घड़ी तक शोक के आंसू बहाये। फिर जल से आंखें धोकर विधिवत् आचमन किया और धृतराष्ट्र से कहा_'भारत ! आप वृद्ध हैं। इसलिये काल के द्वारा जो कुछ संघटित हुआ है और हो रहा है, वह आपसे छिपा नहीं है। पाण्डव सदा से ही आपके इच्छानुसार वर्ताव करते हैं। उन्होंने बहुत चाहा कि आपके कुल का नाश न हो। वे सर्वथा निर्दोष थे; तो भी उन्हें कपटपूर्वक जूए में हराकर वनवास दिया गया। नाना प्रकार के वेष बनाकर उन्होंने अज्ञातवास का कष्ट भोगना। इसके अलावा भी उन्हें असमर्थ पुरुषों की तरह बहुत_से क्लेश सहने पड़े। जब युद्ध छिड़ने का अवसर आया, तो मैं स्वयं आपकी सेवा में उपस्थित हुआ और यह झगड़ा मिटाने के लिये मैंने सब लोगों के सामने आपसे केवल पांच गांव मांगे थे। किन्तु काल की प्रेरणा से आप भी लोभ में फंस गये और मेरी प्रार्थना ठुकरा दी गयी। इस तरह आपके अपराध से संपूर्ण क्षत्रियों का संहार हुआ है। भीष्म, सोमदत्त, बाह्लीक, कृप, द्रोण, अश्वत्थामा और विदुर जी भी आपसे सर्वथा सन्धि के लिये प्रार्थना करते रहे; किन्तु आपने किसी का कहना नहीं माना। सच है, जिसके मन पर काल का प्रभाव होता है, वह मोह में पड़ ही जाता है। जब युद्ध की तैयारी शुरू हुई, उस समय आपकी भी बुद्धि मारी गयी! इसे काल का प्रभाव या प्रारब्ध के सिवा और क्या कहा जा सकता है ? वास्तव में यह जीवन प्रारब्ध के ही अधीन है। महाराज! आप पाण्डवों पर दोषारोपण मत कीजियेगा, उन बेचारों का तनिक भी अपराध नहीं है। वे न कभी धर्म से गिरे हैं न न्याय से। आपके प्रति उनका स्नेह भी कम नहीं हुआ है और अब तो आपको और गान्धारी देवी पाण्डवों से ही पिण्डा_पानी मिलनेवाला है। उन्हीं से आपका वंश बढ़ेगा। पुत्र से मिलने वाला सारा फल अब पाण्डवों से ही मिलेगा। इसलिये आप लोग पाण्डवों के प्रति मन में मैल न रखें, उनकी बुराई न सोचें। अपना ही अपराध या भूल समझकर उनका कल्याण मनावें, उनकी रक्षा करें। महाराज! आप तो जानते ही हैं, धर्मराज युधिष्ठिर की आपके चरणों में कितनी भक्ति है। कितना स्वाभाविक स्नेह है ! उन्होंने अपनी बुराई करनेवाले शत्रुओं का ही संहार किया है; तो भी वे उनके शोक में दिन_रात जलते रहते हैं, उन्हें तनिक भी चैन नहीं मिलता ! आप और गान्धारी के लिए तो वे बहुत शोक करते हैं, उनके हृदय में शान्ति नहीं है। लज्जा के मारे उन्हें आपके सामने आने की हिम्मत नहीं पड़ती। राजा धृतराष्ट्र से इस प्रकार कहकर श्रीकृष्ण शोक से दुर्बल हुई गान्धारी देवी से बोले_'कल्याणी ! मैं तुमसे भी जो कह रहा हूं, उसे ध्यान देकर सुनो। आज संसार में तुम्हारे जैसी तपस्विनी स्त्री दूसरी कोई नहीं है। तुम्हें याद होगा, उस दिन सभा में मेरे सामने ही तुमने दोनों पक्षों के हित करनेवाला धर्म और अर्थ से संयुक्त वचन कहा था; किन्तु तुम्हारे पुत्रों ने उसे नहीं माना। दुर्योधन विजय का अभिलाषी था, उससे तुमने रुखाई के साथ कहा_'ओ मूर्ख ! जिधर धर्म होता है, उसी पक्ष की जीत होती है।' राजकुमारी! तुम्हारी वहीं बात आज सत्य हुई है, ऐसा समझकर मन में शोक न करो। तुममें तपस्या का बहुत बड़ा बल है, तुम अपनी क्रोध भरी दृष्टि से चराचर जगत् को भस्म कर डालने की शक्ति रखती हो; तो भी तुम्हें पाण्डवों के नाश का विचार कभी मन में लाना न चाहिये।' श्रीकृष्ण की बात सुनकर गांधारी ने कहा_'केशव ! तुम्हारी बात बिलकुल ठीक है। अबतक मेरे मन में बड़ी व्यथा थी, मैं चिंता की आग में जल रही थी; इसलिये मेरी बुद्धि विचलित हो गयी थी_मैं पाण्डवों के अनिष्ट की बात सोच रही थी। किन्तु अब तुम्हारी बातें सुनने से मेरी बुद्धि स्थिर हो गयी_क्रोध का आवेश जाता रहा। जनार्दन! ये राजा अंधे हैं, बूढ़े हैं और इनके पुत्र मारे गये पसंद नकहैं_इसके कारण शोक से पीड़ित भी हैं; अब वीरवर पाण्डवों के साथ तुम्हीं इनको सहारा देनेवाले हो।' इतना कहते-कहते गांधारी अंचल से मुंह ढांपकर फूट_फूटकर रोने लगी। पुत्रों के शोक सेसे उसे बड़ा संताप होने लगा। उस समय श्रीकृष्ण ने कितने ही कारण बताकर कितनी ही युतियां देकर गांधारी को शान्तवना दी_धीरज बंधाया।धृतराष्ट्र तथा गांधारी को आश्वासन देने के पश्चात् भगवान् ने अश्वत्थामा के भीषण संकल्प का स्मरण किया, फिर तो वे तुरंत खड़े हो गये और व्यासजी के चरणों में मस्तक झुकाकर राजा धृतराष्ट्र से बोले_'महाराज !  अब मैं यहां से जाने की आज्ञा चाहता हूं, आप शोक न करें। इस समय अश्वत्थामा के मन में पापपूर्ण विचार ओ़ोल काजाग्रत हुआ है, इसलिये सहसा उठ पड़ा हूं। उसने आज की रात पाण्डवों को मार डालने का निश्चय कर लिया है। यह सुनकर धृतराष्ट्र और गांधारी ने कहा_'जनार्दन ! यदि ऐसी बात है, तो जल्दी जाओ और पाण्डवों की रक्षा करो। हम फिर तुमसे शीघ्र मिलेंगे। तदनन्तर, भगवान् श्रीकृष्ण दारुक के साथ तुरंत चल दिये। उनके जाने के बाद महात्मा व्यासजी धृतराष्ट्र को आश्वासन देने लगे। छावनी के पास पहुंचकर श्रीकृष्ण पाण्डवों से मिले और हस्तिनापुर का सारा समाचार उन्हें कह सुनाया।

Sunday 29 October 2023

पाण्डवों का युधिष्ठिर के शिविर में आकर उसपर अधिकार करना, अर्जुन के रथ का दाह

धृतराष्ट्र ने पूछा_संजय ! दुर्योधन को भीमसेन के द्वारा मारा गया देख पाण्डवों और सृंजयों ने क्या किया ? संजय ने कहा_महाराज ! आपके पुत्र के मारे जाने पर श्रीकृष्णसहित पाण्डवों, पाण्डवों तथा सृंजयों को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे अपने दुपट्टे उछाल_उछालकर सिंहनाद करने लगे। किसी ने धनुष टंकारा तो कोई शंख बजाने लगा। किसी_किसी ने ढ़िंढ़ोरा पीटना शुरू किया बहुतेरे तो हंसने और खेलने लगे। कुछ लोग भीमसेन से बारंबार यों कहने लगे_'दुर्योधन ने गदायुद्ध में बड़ा परिश्रम किया था, उसको मारकर आपने बहुत बड़ा पराक्रम दिखाया ! भला नाना प्रकार के पैंतरे बदलते और सब तरह की मण्डल आकार गतियों से चलते हुए शूरवीर दुर्योधन भीमसेन के सिवा दूसरा कौन मार सकता था ? भीम ! आपने शत्रुओं को परास्त करके दुर्योधन का वध करने के कारण इस पृथ्वी पर अपना महान् यश फैलाया है। यह बड़े सौभाग्य की बात है।'  इस प्रकार जहां _तहां कुछ आदमी इकट्ठे होकर भीमसेन की प्रशंसा कर रहे थे। पांचाल और पाण्डव भी प्रसन्न होकर उनके सम्बन्ध में अलौकिक बातें सुना रहे थे। उस समय भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा_'राजाओं ! मरे हुए शत्रु को अपनी कठोर बातों से फिर मारना उचित नहीं है। यह पापी तो उसी समय मर चुका था, जब लज्जा को तिलांजलि दे लोभ में फंसा और पापियों की सहायता लेकर हित चाहनेवाले सुहृदों की आज्ञा का उल्लंघन करने लगा। विदुर, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, भीष्म और सृंजयों ने अनेकों बार अनुरोध किया; तो भी इसने पाण्डवों को उनकी पैतृक संपत्ति नहीं दी।  अब तो यह न तो मित्र कहने योग्य है, न शत्रु; यह महानीच है। काठ के समान जड़ है। इसे वचनरूपई बाणों से बेधने में कोई लाभ नहीं है। सब लोग रथों पर बैठो, अब छावनी में चलें। श्रीकृष्ण की बात सुनकर सब नरेश अपने _अपने शंख बजाते हुए शिविर की ओर चल दिये। आगे_आगे पाण्डव थे; उनके पीछे सात्यकि, धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, द्रौपदी के पुत्र तथा दूसरे_दूसरे धनुर्धर योद्धा चल रहे थे। सब लोग पर ले दुर्योधन की छावनी में गये, जो राजा के न होने से श्रीहीन दिखायी दे रहे थे। वहां कुछ बूढ़े मंत्री और हिजड़े बैठे हुए थे। बाकी लोग रानियों के साथ राजधानी चले गये थे। पाण्डवों के पहुंचने पर उनकी सेवा में दुर्योधन के सेवक हाथ जोड़े मैले कपड़े पहने उपस्थित हुए। पाण्डव भी दुर्योधन की छावनी में जाकर अपने_अपने रथों से उतर गये। अन्त में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा_'तुम स्वयं उतरकर अपने अक्षय तरकस और धनुष भी रथ से उतार लो, इसके बाद मैं उतरूंगा। ऐसा करने में ही तुम्हारी भलाई है।' अर्जुन ने वैसा ही किया। फिर भगवान ने घोड़ों की बागडोर छोड़ दी और स्वयं भी रथ से उतर पड़े। समस्त प्राणियों के ईश्वर श्रीकृष्ण के उतरते ही उस स्थान पर बैठा हुआ दिव्य कपि अन्तर्धान हो गया; फिर वह विशाल रथ, जो द्रोणाचार्य और कर्ण के दिव्यास्त्रों से दग्ध_सा ही हो चुका था, बिना आग लगाये ही प्रज्वलित हो उठा। उसके सारे उपकरण, जूआ, धूरी, राम और घोड़े _सब जलकर खाक हो गये। वह राख की ढेर होकर धरती पर बिखर गया। यह देख पाण्डवों को बड़ा आश्चर्य हुआ। अर्जुन ने हाथ जोड़कर भगवान् के चरणों में प्रणाम करके पूछा_'गोविन्द ! यह क्या आश्चर्यजनक घटना हो गयी ? एकाएक रथ क्यों जल गया ? यदि मेरे सुनने योग्य हो तो इसका कारण बताइये।' श्रीकृष्ण ने कहा_अर्जुन ! लड़ाई में नाना प्रकार के अस्त्रों के आघात से यह रथ तो पहले ही जल चुका था, सिर्फ मेरे बैठे रहने के कारण भस्म नहीं हुआ था। जब तुम्हारा सारा काम पूरा हो गया है, तब अभी_अभी इस रथ को मैंने छोड़ा है; इसलिये यह अब भष्म हुआ है। यों तो ब्रह्मास्त्र के तेज से यह पहले ही दग्ध हो चुका था। इसके बाद भगवान् ने किंचित् मुस्कराकर राजा युधिष्ठिर को हृदय से लगाया और कहा _'कुन्तीनन्दन ! आपके शत्रु परास्त हुए और आपकी विजय हुई _यह बड़े सौभाग्य की बात है। अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव तथा स्वयं आप इस विनाशकारी संग्राम से कुशलपूर्वक बच गये_यह और भी खुशी की बात है। अब आपको आगे क्या करना है, इसका शीघ्र विचार कीजिये। उपलव्य में जब मैं अर्जुन के साथ आपके पास आया था, उस समय आपने मुझे मधउपर्क देकर कहा था_'कृष्ण ! अर्जुन तुम्हारा भाई और मित्रों, इसी हर आफत से बचाना।' उस दिन मैंने 'हां' कहकर आपकी आज्ञा स्वीकार की थी।आपके उस अर्जुन की मैंने हर तरह से रक्षा की है, यह भाइयों सहित विजयी होकर इस रोमांचकारी संग्राम से छुटकारा पा गया।' श्रीकृष्ण की बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर को रोमांच हो आया, वे कहने लगे_'जनार्दन ! द्रोण और कर्ण ने जिस ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया था, उसे आपके सिवा दूसरा कौन सही सकता था ? वज्र धारी इन्द्र भी उसका सामना नहीं कर सकते थे । आपकी ही कृपा से संशप्तक परास्त हुए हैं। अर्जुन ने इस महासमर में कभी पीठ नहीं दिखायी_ यह भी आपके ही अनुग्रह का फल है। आपके द्वारा अनेकों बार हमारे कार्य सिद्ध हुए हैं। उपलव्य में महर्षि व्यास ने मुझसे पहले ही कहा था_जहां धर्म है, वहां श्रीकृष्ण हैं; और जहां श्रीकृष्ण हैं, वहीं विजय है।' तदनन्तर, उन सभी वीरों ने आपकी छावनी में घुसकर खजाना, रत्नों की ढ़ेरी तथा भंडार_घर पर अधिकार कर लिया। चांदी, सोना, मोती, मणि, अच्छे_अच्छे आभूषण, बढ़िया कम्बल, मऋगचर्म तथा राज्य के बहुत_से सामान उनके हाथ लगे। साथ ही असंख्य दास_दासियों को भी उन्होंने अपने अधीन किया। महाराज ! उस समय आपके अक्षय धन का भण्डार पाकर पाण्डव खुशी के मारे उछल पड़े, किलकारियां मारने लगे। इसके बाद अपने वाहनों को खोलकर वे वहीं विश्राम करने लगे। विश्राम के समय श्रीकृष्ण ने कहा_' आज की रात हमलोगों को अपने मंगल के लिए छावनी के बाहर ही रहना चाहिए।' 'बहुत अच्छा' कहकर पाण्डव श्रीकृष्ण और सात्यकि के साथ छावनी से बाहर निकल गये। उन्होंने परम पवित्र ओघवतई नदी के किनारे वह रात व्यतीत की। उस समय राजा युधिष्ठिर ने समयोचित कर्तव्य का विचार करके कहा_'माधव ! एक बार क्रोध में भरी हुई गान्धारी देवी को शान्त करने के लिये आपको हस्तिनापुर जाना चाहिये, यही उचित  जान पड़ता है।'


Saturday 14 October 2023

क्रोध में भरे हुए बलराम को श्रीकृष्ण का समझाना और युधिष्ठिर के साथ श्रीकृष्ण की तथा भीमसैन की बातचीत


धृतराष्ट्र ने पूछा_संजय ! जब राजा दुर्योधन अधर्मपूर्वक मारा गया, उस समय बलभद्रजी ने क्या कहा ? वे तो गदायुद्ध के विशेषज्ञ हैं, यह अन्याय देखकर चुप न रहे होंगे; अतः उन्होंने यदि कुछ किया हो तो बताओ। संजय ने कहा_महाराज ! भीमसेन ने आपके पुत्र की जांघों में प्रहार किया_यह देख महाबली बलरामजी को बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने सब राजाओं के बीच अपना हाथ ऊपर उठाकर भयंकर आर्तनाद करते हुए कहा_"भीमसेन ! तुम्हें धिक्कार है ! धिक्कार है !! बड़े अफसोस की बात है कि इस युद्ध में नाभि के नीचे के अंग में गदा का प्रहार किया गया। आज भीम ने जैसा अन्याय किया है, वह गदायुद्ध में पहले कभी नहीं देखा गया। शास्त्र ने यह निर्णय कर दिया है कि 'गदायुद्ध में नाभि से नीचे नहीं प्रहार करना चाहिये।' किन्तु यह तो मूर्ख है, शास्त्र को बिलकुल नहीं जानता, इसलिये मनमाना वर्ताव करता है।" इसके बाद उन्होंने दुर्योधन की ओर दृष्टिपात किया, उसकी दशा देख उनकी आंखें क्रोध से लाल हो गयीं; वे फिर कहने लगे_'कृष्ण ! दुर्योधन मेरे समान बलवान है, इसकी समानता करनेवाला कोई योद्धा नहीं है। आज अन्याय करके केवल दुर्योधन ही नहीं गिराया गया है, मेरा भी अपमान किया गया है। शरणागत की दुर्बलता देखकर शरण देनेवाले का तिरस्कार किया जा रहा है।' यह कहकर वे अपना हल ऊपर को उठाया भीमसेन की ओर दौड़े। यह देख श्रीकृष्ण ने बड़ी विनती और बड़े प्रयत्न के साथ अपनी दोनों भुजाओं से बलरामजी को पकड़ लिया और उन्हें शान्त करते हुए कहा_"भैया ! अपनी उन्नति छः प्रकार की होती है _अपनी वृद्धि और शत्रु की हानि, अपने मित्र की वृद्धि और शत्रु के मित्र की हानि। अपने या मित्र को जब विपरीत दशा आ घेरती है, तो मन में ग्लानि होती है ही। आप जानते हैं पाण्डव हमलोगों के स्वाभाविक मित्र हैं; ये विशुद्ध पुरुषार्थ का भरोसा रखनेवाले हैं, बुआ के लड़के होने के कारण हर तरह से अपने हैं। शत्रुओं ने कपटपूर्ण वर्ताव करके पहले इन्हें बहुत कष्ट पहुंचाया है। सभामवन में भीम ने यह प्रतिज्ञा की थी कि 'मैं अपनी गदा से दुर्योधन की जांघें तोड़ डालूंगा।' प्रतिज्ञा पालन क्षत्रिय के लिये धर्म है और भीम ने उसी का पालन किया है। महर्षि मैत्रेय ने भी दुर्योधन को यह शाप दिया था कि 'भीम अपनी गदा से तेरी जांघें तोड़ डालेगा।' इस प्रकार यही होनहार थी, मैं भीम का इसमें कोई दोष नहीं देखता। इसलिये  आप अपना क्रोध शान्त कीजिये। बुआ और बहन के नाते पाण्डवों के साथ हमलोगों का यौन संबंध भी है; मित्र तो ये हैं ही। अतः इनकी उन्नति में ही हमलोगों की उन्नति है। इसलिये आप क्रोध न कीजिये।" श्रीकृष्ण की बात सुनकर धर्म को जाननेवाले बलदेवजी ने कहा_'सत्पुरुषों ने धर्म का अच्छी तरह आचरण किया है, किन्तु वह अर्थ और काम_इन दो वस्तुओं से संकुचित हो जाता है। अत्यन्त लोभी का अर्थ और अधिक आसक्ति रखनेवाले का काम_ये दोनों ही धर्म को हानि पहुंचाते हैं। जो मनुष्य काम से धर्म और अर्थ को, अर्थ से धर्म और काम को तथा धर्म से काम और अर्थ को हानि न पहुंचाकर धर्म, अर्थ अथवा काम_इन तीनों का सेवन करता है, वहीं अत्यन्त सुख का भागी होता है। भीमसेन ने तो धर्म को हानि पहुंचाकर इन सबको विकृत कर डाला है। श्रीकृष्ण ने कहा_'भैया ! संसार के सबलओग आपको क्रोध रहित और धर्मात्मा समझते हैं; इसलिये शान्त हो जाइये, क्रोध न कीजिये। समझ लीजिये कि कलयुग आ गया। भीम की प्रतिज्ञा को भी भुला न दीजिये। पाण्डवों को वैर और प्रतिज्ञा के ऋण से मुक्त होने दीजिये। संजय कहते हैं_श्रीकृष्ण की बात सुनकर बलदेवजी को बहुत संतोष नहीं हुआ, उन्होंने राजाओं की सभा में फिर से कहा_'धर्मात्मा राजा दुर्योधन को अधर्मपूर्वक मारने के कारण भीमसेन संसार में कपटपूर्ण युद्ध करनेवाला कहा जायगा। दुर्योधन सरलता से युद्ध कर रहा था, उस अवस्था में वह मारा गया है; अतः: वह सनातन सद्गति को प्राप्त करेगा।'  यह कहकर रोहिणीनन्दन बलरामजी द्वारका को चल दिये। उनके चले जाने से पांचाल, वृष्णि तथा पाण्डव वीर उदास हो गये। युधिष्ठिर भी बहुत दुःखी थे, वे नीचे मुंह किये चिंता में मग्न हो रहे थे। उस समय भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा_'धर्मराज ! आप चुप होकर अधर्म का अनुमोदन क्यों कर रहे हैं? दुर्योधन के भाई और सहायक मर चुके हैं, बेचारा बेहोश होकर गिरा हुआ है; ऐसी दशा में भीम इसके मस्तक को पैरों से ठुकरा रहे हैं और आप धर्मज्ञ होकर चुपचाप तमाशा देखते हैं ! क्यों ऐसा हो रहा है ? युधिष्ठिर ने कहा_कृष्ण ! भीमसेन ने क्रोध में भरकर जो इसके मस्तक को पैरों से ठुकराया है, यह मुझे भी अच्छा नहीं लगा है। अपने कुल का संहार हो जाने से मैं खुश नहीं हूं। किंतु क्या करूं ? धृतराष्ट्र के पुत्रों ने सदा ही हमें अपने कपटजाल का शिकार बनाया, कटु वचन सुनाये और वनवास दिया; भीमसेन के हृदय में इन सब बातों के लिये बड़ा दु:ख था, यही सोचकर मैंने उसके इस काम की उपेक्षा की है। धर्मराज के ऐसा कहने पर श्रीकृष्ण ने बड़े कष्ट से कहा_'अच्छा, ऐसा ही सही।' राजन् ! आपके पुत्र को मारकर भीमसेन बहुत प्रसन्न हुए थे। उन्होंने युधिष्ठिर के सामने खड़े हो हाथ जोड़कर प्रणाम किया और विजयोल्लास के साथ कहा _'महाराज ! आज यह संपूर्ण पृथ्वी आपकी हो गयी। इसके कांटे दूर हुए तथा यह मंगलमयी हो गयी। अब आप अपने धर्म का पालन करते हुए इसका शासन कीजिये। कपट से प्रेम करनेवाले जिस मनुष्य ने कपट करके ही वैर की नींव डाली थी, वह मारा जाकर पृथ्वी पर पड़ा हुआ है। जिन्होंने आपसे कटु वचन कहे थे वे दु:शासन, कर्ण तथा शकुनि भी नष्ट हो गये। अब सारा राज्य आपका है।' युधिष्ठिर ने कहा_सौभाग्य की बात है कि राजा दुर्योधन मारा गया और आपस के वैर का अंत हो गया। श्रीकृष्ण की सलाह के अनुसार चलकर हमने पृथ्वी पर विजय पायी। अच्छा हुआ कि तुम माता की ऋण से उऋण हो गये और अपना क्रोध भी तुमने शान्त कर लिया। शत्रु मरा और तुम्हारी विजय हुई, यह कितने आनन्द की बात है !


Wednesday 11 October 2023

भीम के प्रहार से दुर्योधन की जंघाओं का टूटना, भीमद्वारा दुर्योधन का तिरस्कार और युधिष्ठिर का विलाप

संजय कहते हैं_भगवान् श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर अर्जुन भीमसेन के देखते _देखते अपनी बायीं जंघा ठोंकने लगे। भीम ने उनका संकेत समझ लिया। फिर वे गदा लिये अनेकों प्रकार के पैंतरे बदलते हुए रणभूमि में विचरने लगे। उस समय शत्रु को चकमा देने के लिये दायें_बायें तथा वक्रगति से घूम रहे थे। इस तरह आपका पुत्र भी भीम को मार डालने की इच्छा से बड़ी फुर्ती के साथ तरह_तरह की चालें दिखा रहा था। दोनों ही चन्दन और अगर से चर्चित हुई अपनी भयंकर गदाएं  घुमाते हुए आपस के वैर का अंत कर डालना चाहते थे। जब उनकी गदाएं टकरातीं तो आग की लपटें निकलने लगती थीं। और उनसे वज्रपात के समान भयंकर आवाज होती थी। लड़ते_लड़ते जब तक जाते तो दोनों ही घड़ी भर विश्राम करते और फिर गदा उठाकर एक_दूसरे से भिड़ जाते थे। गदा के भयंकर प्रहार से दोनो के शरीर जर्जर हो रहे थे, दोनों ही खून में लथपथ थे। उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो हिमालय पर ढ़ाक के दो वृक्ष फूले हुए हों। अर्जुन ने भीम को जो इशारा किया, उसे दुर्योधन भी कुछ_कुछ समझ गया था; इसलिये वह सहसा उनके पास से दूर हट गया। जब वह निकट था, उसी समय भीम ने बड़े वेग से उसपर गदा चलायी; किन्तु वह अपने स्थान से एकाएक हट गया, इसलिये गदा उसे न लगकर जमीन पर आ पड़ी। इस करार उनके प्रहार को बचाकर दुर्योधन ने भीम पर स्वयं गदा का वार किया। भीमसेन को गहरी चोट लगी। उनके शरीर से खून की धारा बह चली और वे मूर्छित_से हो गये। किंतु दुर्योधन को उनकी मूर्छा का पता न चला; क्योंकि भीम अत्यन्त वेदना सहकर भी अपने शरीर को संभाले हुए थे। दुर्योधन ने यहीं समझा कि अब भीमसेन प्रहार करेंगे, इसलिये उसने उनके ऊपर पुनः प्रहार नहीं किया, वह अपने बचाव की फ़िक्र में पड़ गया। थोड़ी ही देर में जब भीमसेन पूरी तरह संभल गये तो उन्होंने दुर्योधन पर बड़े वेग से आक्रमण किया। उन्हें क्रोध में भरकर आते देख दुर्योधन ने पुनः उनके प्रहार को व्यर्थ करने का विचार किया और अवस्थान नामक दांव खेल भीम को धोखे में डालने के लिये ऊपर उछल जाना चाहा। भीमसेन उसका मनोभाव ताड़ गये थे; इसलिये सिंह के समान गर्जना करके उसके ऊपर टूट पड़े। अब वह कूदना ही चाहता था कि भीम ने उसकी जांघों पर बड़े वेग से गदा मारी। उस वज्र सरीखी गदा ने आपके पुत्र की दोनों जांघें तोड़ डालीं और वह आर्तनाद करता हुआ जमीन पर गिर पड़ा। जो एक दिन संपूर्ण राजाओं का राजा था, उस वीरवर दुर्योधन के गिरते ही बड़े जोर की आंधी चली, बिजली कौंधने लगी। धूल की वर्षा शुरु हो गयी तथा वृक्षों और पर्वतओंसहइत सारी पृथ्वी कांप उठी। धूल के साथ रक्त की वर्षा भी होने लगी। आकाश में यक्षों, राक्षसों तथा पिशाचों कोलाहल सुनाई देने लगा। बहुत _से हाथ पैरों वाले भयंकर कबंध नाचने लगे। कुओं और तालाबों में खून उफनने लगा। नदियां अपने उद्गम की ओर बहने लगीं। स्त्रियों में पुरुषों का तथा पुरुषों में स्त्रियों का_सा भाव आ गया। इस करार नाना प्रकार के अद्भुत उत्पात दिखाई देने लगे। देवता, गन्धर्व, अप्सराएं, सिद्ध तथा चारण लोग आपके दोनों पुत्रों के अद्भुत संग्राम की चर्चा करते हुए जहां से आये थे वहीं चले गये।
संजय कहते हैं_महाराज ! आपके पुत्र को इस प्रकार भूमि पर पड़ा देख पाण्डवों तथा सोमकों को बड़ी प्रसन्नता हुई। तदनन्तर, प्रतापी भीमसेन दुर्योधन के पास जाकर बोले_'अरे मूर्ख ! पहले भरी सभा में तूने जो एकवस्त्रा द्रौपदी की हंसी उड़ाई थी और हमलोगों को बैल कहकर अपमानित किया था,उस उपहास का फल आज भोग ले।' यों कहकर उन्होंने बातें पैर से दुर्योधन के मुकुट को ठुकरा दिया और उसके सिर को भी पैर से दबाकर रगड़ डाला। उसके बाद जो कुछ-कुछ कहा, वह भी सुनिये_'हमलोगों ने शत्रुओं कोअ दबाने के लिये छल_कपट से काम नहीं लिया, आग में जलाकर कोशिश नहीं की, न जुआ खेला, न कोई धोखाधड़ी की, न जुआ खेला, न और कोई धोखा_धड़ी; केवल अपने बाहुबल के भरोसे दुश्मनों को पछाड़ा है। ऐसा कहकर भीमसेन खूब हंसे; फिर युधिष्ठिर, श्रीकृष्ण, अर्जुन, नकुल, सहदेव तथा सृंजय से धीरे धीरे बोले_'आपलोग देखते हैं न ? जो रजस्वला अवस्था में द्रौपदी को सभा के भीतर घसीट लाए थे और जिन्होंने उसे नंगी करने का प्रयत्न किया था, वे धृतराष्ट्र के सभी पुत्र पाण्डवों के हाथ से मारे गये। यह द्रुपद कुमारी की तपस्या का फल है। जिन्होंने हमें तेलहीन तिल के समान सारहीन एवं नपुंसक कहा था, उन सबको सेवकों तथा सम्बन्धियोंसहित मौर के घाट उतार दिया गया।' इसके बाद भीम ने दुर्योधन के कंधे पर रखी हुई गदा ले ली और कपटी कहकर पुनः उसके मस्तक को अपने बायें पैर से दबाया। किन्तु उनके इस वर्ताव को धर्मात्मा सोमकों ने पसंद नहीं किया। उस समय धर्मराज युधिष्ठिर ने भी उनसे कहा_'भैया भीम ! तुमने अपने वैर का बदला ले लिया, तुम्हारी प्रतिज्ञा भी पूरी हो गयी; अब तो शान्त हो जाओ। दुर्योधन के मस्तक को पैर से न ठुकराओ, धर्म का उल्लंघन न करो। एक दिन यह ग्यारह अक्षौहिणी सेना का स्वामी था और अपना कुटुम्बी रहा है; अतः पैर से इसका स्पर्श नहीं करना चाहिये। इसके भाई और मंत्री मारे गये, सेना भी नष्ट हो गयी और स्वयं भी युद्ध में मारा गया; अतः यह सब प्रकार से सोचनीय है, दया का पात्र है, इसकी हंसी नहीं उड़ानी चाहिये। सोचो तो, इसकी संतानें नष्ट हो गयीं, अब इसे पिण्ड देनेवाला भी कोई न रहा। इसके सिवा अपना भाई ही तो है, क्या इसके साथ यह वर्ताव उचित था ? इसे पैरों से ठुकराकर तुमने न्याय नहीं किया है। भीमसेन ! तुम्हें तो लोग धार्मिक बताते हैं, फिर तुम क्यों राजा का अपमान करते हो ?'भीमसेन से ऐसा कहकर दुर्योधन युधिष्ठिर के निकट गये और बहुत दु:ख प्रगट करते हुए गद्गद् कण्ठ से बोले_'तात ! तुम हमलोगों पर क्रोध न करना, अपने लिये भी शोक न करना; क्योंकि सब प्राणियों को अपने पूर्वजन्म में किये हुए कर्मों का भयंकर परिणाम भोगना पड़ता है। तुमने अपने ही अपराध से इतना बड़ा संकट मोर लिया है। लोभ, मद और मूर्खता के कारण मित्रों, भाइयों, चाचाओं, पुत्रों तथा पौत्रों को मरवाकर अन्त में तुम स्वयं भी मौत के मुख में जा पड़े। तुम्हारे ही अपराध से हमें तुम्हारे महारथी भाइयों तथा अन्य कुटुम्बी का वध करना पड़ा है। वास्तव में प्रारब्ध को कोई टाल नहीं सकता। भैया ! तुम्हें अपने आत्मा के कल्याण के विषय में शोक नहीं करना चाहिये; तुम्हारी मृत्यु इतनी उत्तम हुई है, जिसकी दूसरे लोग इच्छा करते हैं। इस समय तो हम ही लोग सब तरह से शोक के योग्य हो गये; क्योंकि अब हमें अपने प्यारे बन्धुओं के वियोग में बड़े दुःख के साथ जीवन बिताना होगा। जब भाइयों, पुत्रों और पौत्रों की विधवा स्त्रियां शोक में डूबीं हुई हमारे सामने आयेंगी, उस समय हम कैसे उनकी ओर देख सकेंगे ? राजन् ! तुमने तो अकेले स्वर्ग की राह ली है, निश्चय ही तुम्हें स्वर्ग में स्थान मिलेगा।' यह कहकर धर्मपुत्र युधिष्ठिर शोक से आतुर हो गये और लम्बी_लम्बी सांसें भरते हुए देर तक विलाप करते रहे।








Saturday 30 September 2023

भीम और दुर्योधन का भयंकर गदायुद्ध

संजय कहते हैं_महाराज ! उन दोनों भाइयों में जब पुनः भिड़ंत हुई तो दोनों _ही_दोनों के चूकने का अवसर देखते हुए पैंतरे बदलने लगे। दोनों की गाएं यमदंड और वज्र के समान भयंकर दिखाई देती थीं। भीमसेन जब अपनी गदा को घुमाकर प्रहार करते, उस समय उसकी भयंकर आवाज एक मुहूर्त तक गूंजती रहती थी। यह देखकर दुर्योधन को बड़ा विस्मय होता था। नाना प्रकार के पैंतरे दिखाकर चारों ओर चक्कर लगाते हुए भीमसेन की उस समय अपूर्व शोभा हो रही थी।दोनों एक_दूसरे से भिड़कर अपनी_अपनी बचाव का प्रयत्न करते थे। तरह_तरह के पैंतरे बदलना, चक्कर देना, शत्रु पर प्रहार करना, उसके प्रहार को बचाना या रोकना तथा आगे बढ़कर पीछे हटना, वेग से शत्रु पर धावा करना, उसके प्रयत्न को निष्फल कर देना, सावधानीपूर्वक एक स्थान पर खड़ा होना, सामने आते ही शत्रु से युद्ध छेड़ना, प्रहार के लिये चारों ओर घूमना, शत्रु को घूमने से रोकना, नीचे से कूदकर शत्रु का वार बचाना, तिरछी गति से उछलकर प्रहार से बचना, पास जाकर और दूर हटकर शत्रु के ऊपर प्रहार करना_इत्यादि बहुत -सी क्रियाएं दिखाते हुए दोनों लड़ रहे थे। दोनों ही प्रहार करते हुए एक_दूसरे को चकमा देने की कोशिश करते थे। युद्ध का खेल दिखाते हुए सहसा गदआओं की चोट कर बैठते थे। इस प्रकार उनमें इन्द्र और वृत्रासुर की भांति भयंकर युद्ध चल रहा था। दोनों ही अपने _अपने मण्डल में खड़े थे। दायें मण्डल में दुर्योधन भीमसेन की पसली में गदा मारी, परन्तु भीमसेन ने उसके प्रहार को कुछ भी न गिनकर यमदण्ड के समान भयंकर गदा घुमायी और उसे दुर्योधन पर दे मारा। यह देख दुर्योधन ने भी भयंकर गदा उठाकर पुनः भीमसेन पर प्रहार किया। गदा प्रहार करते समय बड़े जोर का शब्द होता और आग की चिनगारियां छूटने लगती थीं। दुर्योधन भी अपने युद्ध कौशल का परिचय देता हुआ भीमसेन से अधिक शोभा पाने लगा। भीमसेन भी बड़े वेग से गदा घुमाने लगे। इतने में आपका पुत्र दुर्योधन युद्ध के की पैंतरे दिखाता हुआ भीम पर टूट पड़ा। भीम ने भी क्रोध में भरकर उसकी गदा पर आघात किया। दोनों गदआओं के टकराने की भयानक आवाज हुई, चिनगारियां छूटने लगीं। भीमसेन ने बड़े वेग से गदा छोड़ी थी, वह ज्यों ही नीचे गिरी, वहां की धरती कांपी उठी। यह देख दुर्योधन ने भीमसेन के मस्तक पर गदा का प्रहार किया किन्तु भीमसेन तनिक भी घबराये नहीं _यह एक अद्भुत बात थी। तत्पश्चात् भीमसेन ने आपके पुत्र पर बड़ी भारी गदा चलायी, किन्तु दुर्योधन फुर्ती से इधर_उधर होकर उस प्रहार को बचा गया। इससे लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। अब उसने भीमसेन की छाती पर गदा मारी, उसकी चोट से भीम को मूर्छा आ गयी और एक क्षण तक उन्हें अपने कर्तव्य का ज्ञान तक न रहा। किन्तु थोड़ी ही देर में उन्होंने अपने को संभाल लिया और दुर्योधन की पसली में बड़े जोर से गदा मारी। उस प्रहार से व्याकुल हो आपका पुत्र जमीन पर घुटने टेककर बैठ गया। उसे इस अवस्था में देखकर सृंजय ने हर्षध्वनि की। तब दुर्योधन क्रोध से जल उठा और महान् सर्प की भांति हुंकारें भरने लगा। उसने भीमसेन की ओर इस तरह देखा, मानो उन्हें भष्म कर डालेगा। उनकी खोपड़ी कुचल डालने के लिये वह हाथ में गदा लिये उनकी ओर दौड़ा। पास पहुंचकर उसने भीम के ललाट पर गदा का आघात किया। किन्तु भीम पर्वत के समान अविचल भाव से खड़े रहे, इस प्रहार का उनपर कोई असर नहीं हुआ। तदनन्तर, उन्होंने भी दुर्योधन के ऊपर अपनी लोहमयी गदा का प्रहार किया। उसकी चोट से आपके पुत्र की नस_नस ढ़ीली हो गयी। वह कांपता हुआ पृथ्वी पर जा पड़ा। यह देख पाण्डव हर्ष में भरकर सिंहनाद करने लगे। कुछ ही देर में जब दुर्योधन को होश हुआ तो वह उछलकर खड़ा हो गया और एक सुशिक्षित योद्धा की भांति रणभूमि में विचरने लगा। घूमते _घूमते मौका पाकर उसने सामने खड़े हुए भीमसेन को गदा मारा। उसकी चोट खाकर उनका सारा शरीर शिथिल हो गया और वे धरती पर घूमने लगे। भीम को गिराकर दुर्योधन दहाड़ने लगा। उसकी गदा के आघात से भीम के कवच के चिथड़े उड़ गये थे।  उनकी ऐसी अवस्था देख पाण्डवों को बड़ा भय हुआ। किन्तु एक ही मुहूर्त में भीम की चेतना पुनः लौट आयी। उन्होंने खून से भीगे हुए अपने मुख को पोंछा और धैर्य धारण करके आंखें खोलीं। फिर बलपूर्वक अपने को संभालकर वे खड़े हो गये। उन दोनों के युद्ध को बढ़ता देख अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्ण से कहा_'जनार्दन ! इन दोनों वीरों में आप किसको बड़ा मानते हैं; किस्में कौन_सा गुण अधिक है ? यह मुझे बताइये।' भगवान् बोले_'शिक्षा तो इन दोनों को एक_सी मिली है, किन्तु भीमसेन बल में अधिक है और अभ्यास तथा प्रयत्न में दुर्योधन बढ़ा _चढ़ा है। यदि भीमसेन धर्मपूर्वक युद्ध करेंगे तो नहीं जीत सकते; इन्होंने जूए के समय यह प्रतिज्ञा की है कि 'मैं युद्ध मेंं गदा मारकर दुर्योधन की जांघें तोड़ डालूंगा।' आज ये उस प्रतिज्ञा का पालन करें। अर्जुन ! मैं फिर भी यह कहें बिना नहीं रह सकता कि धर्मराज के कारण हमलोगों पर पुनः भय आ पहुंचा है। बहुत प्रयास करके भीष्म आदि कौरव_वीरों को मारकर हमें विजय और यश आदि की प्राप्ति हुई थी, किन्तु युधिष्ठिर ने उस विजय को फिर से संदेह में डाल दिया है। एक की हार_जीत से सबकी हार_जीत की शर्त लगाकर इन्होंने जो इस भयंकर युद्ध को जूए का दांव बना डाला, वह इनकी बड़ी भारी मूर्खता है। दुर्योधन युद्ध की कला जानता है, वीर है और एक निश्चय पर डटा हुआ है। इस विषय में शुक्राचार्य का कहा हुआ एक श्लोक सुनने में आता है, जिसमें नीति का तत्व भरा हुआ है, मैं उसका भावार्थ तुम्हें सुना रहा हूं_'युद्ध में मरने से बचे हुए शत्रु यदि प्राण बचाने के लिये भाग जायं और फिर युद्ध के लिये लौटें तो उनसे डरते रहना चाहिये; क्योंकि वे एक निश्चय पर पहुंचे हुए होते हैं। ( उस समय वे मृत्यु से भी नहीं डरते ) जो जीवन की आशा छोड़कर साहसपूर्वक युद्ध में कूद पड़ें, उनके सामने इन्द्र भी ठहर नहीं सकते।' दुर्योधन की सेना मारी गयी थी, वह परास्त हो गया था और अब राज्य मिलने की आशा न होने के कारण वह वन में चला जाना चाहता था, इसलिये भागकर पोखरे में छिपा था। ऐसे हताश शत्रु को कौन बुद्धिमान युद्ध के लिये आमंत्रित करेगा ? अब तो मुझे यह भी संदेह होने लगा है कि 'कहीं दुर्योधन हमलोगों के जीते हुए राज्य को फिर न हथिआ ले।'








Monday 18 September 2023

बलरामजी की सलाह से सबका समन्तपंचक में जाना तथा वहां भीम और दुर्योधन में गदायुद्ध का आरंभ

वैशम्पायनजी कहते हैं_राजा जनमेजय ! इस प्रकार होनेवाले उस तुमुलयुद्ध की बात सुनकर धृतराष्ट्र को बड़ा दु:ख हुआ और उन्होंने संजय से पूछा _'सूत ! गदायुद्ध के समय बलरामजी को उपस्थित देख मेरे पुत्र ने भीमसेन के साथ किस प्रकार युद्ध किया?' संजय ने कहा_महाराज ! बलरामजी को वहां उपस्थित देख दुर्योधन को बड़ी खुशी हुई। राजा युधिष्ठिर तो उन्हें देखते ही खड़े हो गये और बड़ी प्रसन्नता के साथ उनका पूजन करके बैठने को आसन दे कुसल_समाचार पूछने लगे। तब बलरामजी ने उनसे कहा_'राजन् ! मैंने ऋषियों के मुंह से सुना है कि कुरुक्षेत्र बड़ा पवित्र तीर्थ है, वह स्वर्ग प्रदान करनेवाला है, देवता, ऋषि तथा महात्मा, ब्राह्मण सदा उसका सेवन करते हैं, वहां युद्ध करके प्राण त्यागनेवाले मनुष्य निश्चय ही स्वर्ग में इन्द्र के साथ निवास करेंगे। इसलिए हमलोग यहां से समन्तपंचक क्षेत्र में चलें, वह देवलोक में प्रजापति की उत्तर वेदी की नाम से विख्यात है। वह त्रिभुवन का अत्यन्त पवित्र एवं सनातन तीर्थ है, वहां युद्ध करने से जिसकी मृत्यु होगी, वह अवश्य ही स्वर्गलोक में जायगा।' 'बहुत अच्छा' कहकर युधिष्ठिर ने बलरामजी की आज्ञा स्वीकार की और समन्तपंचक क्षेत्र की ओर चल दिये। राजा दुर्योधन भी हाथ में बहुत बड़ी गदा ले पाण्डवों के साथ पैदल ही चला। उस समय शंखनाद होने लगा, भेरियां बज उठीं और शूरवीरों के सिंहनाद से संपूर्ण दिशाएं भर गयीं। तत्पश्चात् वे लोग कुरुक्षेत्र की सीमा में आये, फिर पश्चिम की ओर आगे बढ़कर सरस्वती के दक्षिण किनारे पर जीत एक उत्तम तीर्थ में पहुंचे। वहीं स्थान उन्हें युद्ध के लिये पसंद आया। फिर तो भीमसेन कवच पहनकर हाथ में बड़ी नोकवाली गदा ले युद्ध के लिये तैयार हो गये। दुर्योधन भीअ सिर पर टोप लगाये सोने का कवच बांधे भीम के सामने डट गया। फिर दोनों भाई क्रोध में भरकर एक_दूसरे को देखने लगे। दुर्योधन की आंखें लाल हो रही थीं। उसने भीमसेन की ओर देखकर अपनी गदा संभाली और उन्हें ललकारा। भीम ने भी गदा ऊंची करके दुर्योधन को ललकारा। दोनों ही क्रोध में भरे थे। दोनों की गाथाएं ऊपर को उठी थीं और दोनों ही भयंकर पराक्रम दिखाने वाले थे। उस समय वे राम_रावण और बालि सुग्रीव के समान जान पड़ते थे। तदनन्तर, दुर्योधन ने केकय, सृंजय और पांचालों तथा श्रीकृष्ण, बलराम एवं अपने भाइयों के साथ खड़े हुए युधिष्ठिर से कहा_'मेरा भीमसेन के साथ जो युद्ध ठहरा हुआ है, उसको आप सब लोग पास ही बैठकर देखिये।' दुर्योधन की इस राय को सबने पसंद किया। फिर सब लोग बैठ गये। चारों ओर राजाओं की मंडली बैठी और बीच में भगवान् बलराम विराजमान हुए; क्योंकि सबलओग उनका सम्मान करते थे।वैशम्पायनजी कहते हैं _यह प्रसंग सुनकर धृतराष्ट्र को बड़ा दु:ख हुआ, उन्होंने संजय से कहा_'सूत ! जिसका परिणाम इतना दु:कंद होता है, उस मानव_जन्म को धिक्कार है ! मेरा पुत्र ग्यारह अक्षौहिणी सेना का मालिक था, उसने सब राजाओं पर हुक्म चलाया, सारी पृथ्वी का अकेले उपभोग किया, किन्तु अन्त में यह हालत हुई कि गदा हाथ में लेकर उसे पैदल ही युद्ध में जाना पड़ा ! इसे प्रारब्ध के सिवा और क्या कहा जा सकता ?'
संजय ने कहा_महाराज ! आपके पुत्र ने मेघ के समान गर्जना करके जब भीम को युद्ध के लिये ललकारा, उस समय अनेकों भयंकर उत्पात होने लगे। बिजली की गड़गड़ाहट के साथ आंधी चलने लगी। धूल की वर्षा शुरु हो गयी और चारों दिशाओं में अंधकार छा गया। आकाश से सैकड़ों उल्काएं टूट_टूटकर गिरने लगीं। बिना अमावस्या के ही सूर्य पर ग्रहण लग गया। वृक्षों तथा वनों के साथ धरती डोलने लगी। पर्वतों के शिखर टूट_टूटकर जमीन पर पड़ने लगे। कुओं के पानी में बाढ़ आ गयी। किसी का शरीर नहीं दिखायी देता तो भी देहधारीकी_सी आवाजें सुनायी पड़ती थीं।
इन सब अपशकुनों को देखकर भीमसेन ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा_'भैया ! आपके हृदय में जो कांटा सकता रहता है, उसे आज निकाल फेंकूंगा। इस पापी को गदा से मारकर इसके शरीर के टुकड़े_टुकड़े कर डालूंगा। अब यह पुनः हस्तिनापुर में नहीं प्रवेश करने पायगा। इस दुष्ट ने मेरे बिछौने पर सांप छोड़ा, भोजन में विष मिलाया, प्रमाणकोटि में ले जाकर मुझे पानी में गिरवाया, लाक्षाभवन में जलाने का प्रयत्न किया, सभा में हंसी उड़ायी, हमलोगों का सर्वस्व छीना तथा इसी के कारण हमें वनवास एवं अज्ञातवास का कष्ट भोगना पड़ा। आज सबका बदला चुकाकर मैं उन दु:खों से छुटकारा पा जाऊंगा। इसे मारकर अपने आत्मा का ऋण चुकाऊंगा। इस दुष्ट की आयु पूरी हो गयी है। अब इसे माता_पिता का दर्शन भी नहीं मिलेगा। आज यह कउलकलंक अपने राज्य, लक्ष्मी तथा प्राणों से हाथ धोकर सदा के लिये जमीन पर सो जायगा।' यह कहकर महापराक्रमी भीमसेन गदा ले युद्ध के लिये डट गये और दुर्योधन को पुकारने लगे। दुर्योधन ने भी गदा ऊंची की, यह देख भीमसेन पुनः क्रोध में भरकर बोले_'दुर्योधन ! वारणाव्रत में राजा धृतराष्ट्र ने और तूने जो पाप किये थे, उन्हें आज याद कर ले। तूने भरी सभा में राजस्वला द्रौपदी को जो क्लेश पहुंचाया, जूए के समय तूने और शकुनि ने मिलकर जो राजा युधिष्ठिर के साथ वंचना की_उन सबका बदला चुकाऊंगा। खुशी की बात यह है कि आज तू सामने दिखाई  दे रहा है। तेरे ही कारण पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण, कर्ण तथा शल्य जैसे वीर मारे गये। तेरे भाई तथा और भी बहुत _से क्षत्रिय यमलोक पहुंच गये। सबसे पहले वैर की आग लगानेवाला शकुनि और द्रौपदी को दु:ख देनेवाला प्रतिकारी भी चल बसा, अब तू ही रह गया है, इसलिये तुझे भी इस गदा से मौत के घाट उतारूंगा_इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।' राजन् ! भीमसेन ने ये बातें बड़े जोर से कहीं थीं, इन्हें सुनकर आपके पुत्र ने बेधड़क जवाब दिया_'वृकोदर ! इतनी शेखी बघारने से क्या होगा ? चुपचाप लड़ाई कर, आज तेरा युद्ध का सारा हौसला मिटाये देता हूं। दुर्योधन को तू दूसरे साधारण लोगों के समान मत समझ, यह तेरे_जैसे किसी भी मनुष्य की धमकी से नहीं डरता। मैं तो इसे सौभाग्य समझता हूं, मेरे मन में बहुत दिनों से यह इच्छा थी कि तेरे साथ गदायुद्ध होता, सो आज देवताओं ने उसे पूर्ण कर दिया। अब बहुत बड़बड़ाने से कोई लाभ नहीं है, पराक्रम के द्वारा अपनी वाणी को सत्य करके दिखा; विलम्ब न कर।'
दुर्योधन की बात सुनकर सबने उसकी बड़ी प्रशंसा की और भीमसेन गदा उठाकर बड़े वेग से  उसकी ओर दौड़े। दुर्योधन ने भी गर्जना करते हुए आगे बढ़कर उनका सामना किया। फिर दोनों दो सांडों की तरह एक_दूसरे से भिड़ गये। प्रहार_पर_प्रहार होने लगा। उस समय गदा की चोट पड़ने पर वज्रपात के समान भयंकर आवाज होती थी। दोनों खून से नहा उठे। उनके रक्तरंजित शरीर खिले हुए ढ़ाकी के वृक्षों_जैसे दिखाई देने लगे। लड़ते_लड़ते दोनों ही थक गये, फिर दोनों ने घड़ीभर विश्राम किया। इसके बाद दोनों ही अपनी_अपनी गलाएं उठाकर आपस में युद्ध करने लगे।

Friday 8 September 2023

समन्तपंचक तीर्थ ( कुरुक्षेत्र ) की महिमा तथा नारदजी के कहने से बलदेवजी का भीम और दुर्योधन का युद्ध देखने जाना

ऋषियों ने कहा_बलरामजी ! समन्तपंचक क्षेत्र सनातन है, यह प्रजापति की उत्तर वेदी कहलाता है। प्राचीन काल से देवताओं ने यहां बहुत बड़ा यज्ञ किया था तथा बुद्धिमान महात्मा राजर्षि कुरु ने पहले बहुत वर्षों तक इस क्षेत्र की जमीन जोती थी, इसलिये उन्हीं के नाम पर यह 'कुरुक्षेत्र' कहा जाने लगा।
बलरामजी ने पूछा _मुनीवरों ! महात्मा कुरु ने इस क्षेत्र में हल क्यों चलाया ?
ऋषियों ने कहा_बलरामजी ! पूर्वकाल में राजा कुरु जब यहां प्रतिदिन उठकर हल चलाया करते थे, उन्हीं दिनों की बात है, इन्द्र ने स्वर्ग से आकर कुरु से इसका कारण पूछा_'राजन् ! आप इतना रयइस क्यों कर रहे हैं ? यहां का जमीन जोतने से आपका क्या अभिप्राय है ?'  कुरु ने कहा_' इन्द्र ! जो लोग इस क्षेत्र में मरेंगे वे पुण्यवानों के लोक में जायेंगे।' यह जवाब सुनकर इन्द्र को हंसी आ गई। वे चुपचाप स्वर्ग लौट आये। इससे राजर्षि करु का उत्साह कम नहीं हुआ, वे वहां की जमीन जोतने में लगे ही रह गये। इन्द्र ने की बार आकर प्रश्न किया, किन्तु वहीं उत्तर पाकर वे हर बार लौट गये। कुरु ने भी कठोर तपस्या के साथ हर जोतना आरम्भ किया। तब इन्द्र ने उनका मनोभाव देवताओं से कह सुनाया। सुनकर देवता बोले_'अगर संभव हो तो राजर्षियों को वरदान देकर राजी कर लीजिये। नहीं तो यदि वे अपने प्रयत्न में सफल हो गये और मनुष्य यज्ञ किये बिना ही स्वर्ग में आने लगे तो हमलोगों का यज्ञभाग नष्ट हो जायगा। Wतब इन्द्र ने कुरु के पास आकर कहा_'राजन् ! अब आप कष्ट न उठाइये, मेरी बात मानिये; मैं वरदान देता हूं कि जो मनुष्य अथवा पशु यहां निराहार रहकर या युद्ध में मारे जाकर शरीर त्याग करेंगे, वे स्वर्ग के अधिकारी होंगे।' राजा कुरु ने 'बहुत अच्छा' कहकर इन्द्र की आज्ञा स्वीकार की और इन्द्र भी राजा की अनुमति ले प्रसन्नतापूर्वक स्वर्ग को चले गये।
बलरामजी ! इस प्रकार शुभ उद्देश्य से राजर्षि कुरु ने इस क्षेत्र को जोता था। पृथ्वी पर इससे बढ़कर कोई पवित्र स्थान नहीं है। जो मनुष्य यहां तप करेंगे, वे देहत्याग के पश्चात् ब्रह्मलोक जायेंगे। जो दान करेंगे उनका दिया हुआ हजार गुना होकर फल देगा। जो सदा यहां निवास करेंगे, उन्हें यमराज के राज्य में नहीं जाना पड़ेगा। यदि राजा लोग यहां आकर बड़े _बड़े यज्ञ करें तो जबतक यह पृथ्वी कायम रहेगी तब तक के लिये उन्हें स्वर्ग में रहने का सौभाग्य प्राप्त होगा। साक्षात् इन्द्र ने भी कुरुक्षेत्र के विषय में यह उद्गार प्रकट किया है_'कुरुक्षेत्र की धूल भी यदि हवा से उड़कर किसी पापी के ऊपर पड़ जाये तो वह उसे उसे उत्तम लोक में पहुंचाती है। यहां  बड़े_बड़े देवता, उत्तम ब्राह्मण तथा नृग आदि नरेश भी यज्ञ करके उत्तम गति को प्राप्त कर चुके हैं। तरन्तुक से लेकर आरन्तुक तक तथा रामहृद से आरम्भ करके यमचक्रकत के बीच का जो स्थान है वहीं कुरुक्षेत्र और समन्तपंचक तीर्थ है। इसे प्रजापति की उत्तर वेदी भी कहते हैं। यह क्षेत्र बहुत ही पवित्र और कल्याणकारी है, देवताओं ने भी इसका सम्मान किया है। यह सभी सद्गुणों से सम्पन्न है; अतः यहां मरे हुए सब क्षत्रिय अक्षय गति को प्राप्त होंगे।' इस प्रकार साक्षात् इन्द्र ने यह बात कही और ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि देवताओं ने इसका समर्थन किया था। वैशम्पायनजी कहते हैं_ तदनन्तर कुरुक्षेत्र का दर्शन और वहां बहुत _सा दान करके बलरामजी एक दिव्य आश्रम के निकट गये। वहां पहुंचकर उन्होंने मुनियों से पूछा_'यह सुन्दर आश्रम किसका है ?' तब उन्होंने कहा_'बलरामजी ! पहले तो यहां भगवान् विष्णु तपस्या कर चुके हैं, फिर अक्षय फल देनेवाले कई यज्ञ भी इस आश्रम पर हुए हैं। बाल्यकाल से ही ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाली एक सिद्ध ब्राह्मणी भी यहां तपस्या कर चुकी है। यह शाण्डिल्य मुनि की पुत्री थी।'
ऋषियों की बात सुनकर बलभद्रजी ने उन्हें प्रणाम किया और हिमालय के समीप उस आश्रम में गये। वहां के उत्तम तीर्थ का तथा सरस्वती के उद्गमभूत श्रोत का दर्शन करके उन्हें बड़ा विस्मय हुआ। इसके बाद कआरपवन तीर्थ में जाकर उन्होंने वहां के स्वच्छ, शीतल एवं जल में डुबकी लगायी तथा देवताओं और पितरों का तर्पण करके ब्राह्मणों को दान दिया। फिर एक रात वहां निवास करके वे ब्राह्मणों और संन्यासियों के साथ मित्रावरुण के पवित्र आश्रम पर गये। वह स्थान यमुना के तट पर है। सर्वप्रथम उस स्थान पर आकर इन्द्र, अग्नि तथा अर्यमा बहुत प्रसन्न हुए थे। बलरामजी वहां स्नान_दान करके ऋषियों और सिद्धों के साथ बैठकर उत्तम कथाएं सुनने लगे।
उसी समय देवर्षि नारदजी दण्ड, कमण्डलु और मनोहर वीणा लिये वहां आ पहुंचे। उन्हें आते देख बलरामजी उठकर खड़े हो गये और उनका विधिवत् पूजन करके उनसे कौरवों का समाचार पूछने लगे। नारदजी, जिस प्रकार कौरवों का महासंहार हुआ था, वह सब ज्यों_का_त्यों सुना दिया। तब बलभद्रजी ने दी:ख प्रकट करते हुए कहा_' तपोधन ! उस क्षेत्र की क्या अवस्था है तथा वहां आये हुए राजाओं की क्या दशा हुई है ? यह सब संक्षेप के साथ मैं पहले ही सुन चुका हूं। अब मुझे वहां का विस्तृत समाचार जानने की उत्कण्ठा हो रही है।'
नारदजी ने कहा_ भीष्मजी तो पहले ही मारे गये, उनके बाद द्रोणाचार्य, जयद्रथ, कर्ण और उसके पुत्र भी परलोक पहुंच गये। भूरिश्रवा, शल्य तथा दूसरे महाबली राजाओं की भी यही दशा हुई है। ये सब राजा और राजकुमार दुर्योधन की विजय के लिये अपने प्राणों की बलि दे चुके हैं। अब जो मरने से बचे हैं, उनके नाम सुनिये। दुर्योधन की सेना में कृपाचार्य, कृतवर्मा और अश्वत्थामा_ये ही तीन प्रधान वीर बचे हुए हैं। किन्तु जब शल्य मारे गये तो ये भी डर के मारे पलायन कर गये। उस समय दुर्योधन बहुत दु:खी हुआ और भागकर द्वैपायण सरोवर में जा छिपा। माया से सरोवर का पानी बांधकर वह भीतर हो रहा था, इतने में पाण्डवलोग भगवान् श्रीकृष्ण के साथ वहां आ पहुंचे और उसे कड़वी बातें सुनाकर कष्ट पहुंचाने लगे। वह भी बलवान ही ठहरा, इनके ताने क्यों सहता ? हाथ में गदा लेकर उठ पड़ा और भीमसेन से युद्ध करने के लिये उनके पास जाकर खड़ा हो गया। अब उन दोनों में भयंकर युद्ध छिड़नेवाला है, यदि आप देखने को उत्सुक हैं तो शीघ्र जाइये, विलंब न कीजिये। अपने दोनों शिष्यों का युद्ध देखिये।
वैशम्पायनजी कहते हैं _नारदजी की बात सुनकर बलरामजी ने अपने साथ आये हुए ब्राह्मणों की पूजा करके उन्हें विदा कर दिया और सेवकों को द्वारका चले जाने की आज्ञा दी। फिर वे, जहां सरस्वती का श्रोत निकला हुआ है, उस श्रेष्ठ पर्वत शिखर से नीचे उतरे और उस तीर्थ का महान् फल सुनकर ब्राह्मणों के समीप उसकी महिमा का इस प्रकार वर्णन करने लगे _'सरस्वती के तट पर निवास करने में जो सुख है, आनन्द है, वह अन्यत्र कहां मिल सकता है? उसमें जो गुण हैं, वे और कहां हैं? सरस्वती का सेवन करके स्वर्गलोक में पहुंचे हुए मनुष्य उसका सदा ही स्मरण करते रहेंगे। सरस्वती सब नदियों में पवित्र है, वह संसार का कल्याण करने वाली है, सरस्वती को पाकर मनुष्य इहलोक और परलोक में पापों के लिये शोक नहीं करते।'
तदनन्तर, बारंबार सरस्वती की ओर देखते हुए बलरामजी सुंदर रथ पर सवार हुए और शिष्यों का युद्ध देखने के लिये तेज चाल से चलकर द्वैपायन सरोवर के पास जा पहुंचे


Saturday 2 September 2023

इन्द्रतीर्थ और आदित्यतीर्थ की महिमा, देवल_जैगीषव्य मुनि तथा वऋद्धकन्यआक्षएत्र की कथा

वैशम्पायनजी कहते हैं_वहां जाकर बलरामजी ने विधिवत् स्नान किया और ब्राह्मणों को धन तथा रत्न दान दिये। इन्द्रतीर्थ में देवराज ने सौ यज्ञ किये थे, जिनमें बृहस्पतिजी को बहुत _सा धन दिया गया था। अनेकों प्रकार की दक्षिणाएं बांटी गयी थीं। इस प्रकार सौ यज्ञ पूर्ण करने के कारण इन्द्र 'शतक्रतु' के नाम से विख्यात हुए और उन्हीं के नाम पर परम पवित्र, कल्याणकारी एवं सनातन तीर्थ 'इन्द्रतीर्थ' कहलाने लगा। वहां स्नान_दान करने के पश्चात् बलरामजी रामतीर्थ में पहुंचे, जहां परशुरामजी ने अनेकों बार क्षत्रियों का संहार करके इस पृथ्वी पर विजय पायी और कश्यप मुनि को आचार्य बनाकर वाजपेयी तथा सौ अश्वमेध यज्ञ किये। उन्होंने समुद्रसहित संपूर्ण पृथ्वी ही दक्षिणा के रूप में दे दी थी तथा और भी नाना प्रकार के दान देकर वे वन में चले गये थे। उस पावन तीर्थ में रहनेवाले मुनियों को सादर प्रणाम करके बलरामजी यमुनातीर्थ में आये, जहां वरुण ने राजसूय यज्ञ किया था। वहां ऋषियों की पूजा करके उन्होंने सबको संतुष्ट किया था तथा दूसरे याचकों को भी उनके इच्छानुसार दान दिया। इसके बाद वे आदित्यतीर्थ में गये, जहां भगवान् सूर्य ने परमात्मा का यजन करके ज्योतिषयों का आधिपत्य तथा अनुपम प्रभाव प्राप्त किया था। इनके सिवा, इन्द्र आदि संपूर्ण देवता, विश्वेंद्र, मरुद्गण, गन्धर्व, अप्सरा, द्वैपायन व्यास, शुकदेव तथा दूसरे अनेकों योगसिद्ध महात्माओं ने भी सरस्वती के उस पवित्र तीर्थ में सिद्धि प्राप्त की है। पूर्वकाल में यहां देवल मुनि गृहस्थ धर्म का आश्रय लेकर रहते थे। वे बड़े धर्मात्मा तथा तपस्वी थे। मन, वाणी तथा क्रिया से भी समस्त जीव के प्रति समान भाव रखते थे। क्रोध तो उन्हें छू तक नहीं गया था। उनकी कोई निंदा करें या स्तुति, वे सबको समान समझते थे, अनुकूल या प्रतिकूल वस्तु प्राप्ति होने पर भी उनकी वृत्ति एक_सी ही रहती थी। वे धर्मराज के समान समदर्शी थे। सुवर्ण और मिट्टी के ढ़ेले को एक ही नज़र से देखते थे। देवता, अतिथि तथा ब्राह्मणों की सदा पूजा किया करते और प्रतिदिन ब्रह्मचर्य की रक्षा करते हुए धर्माचरण में संलग्न रहते थे। एक दिन जैगिषव्य मुनि उस तीर्थ में आये और अपनी योगशक्ति से भिक्षुक का वेष बनाकर देवल के आश्रम पर रहने लगे। महर्षि जैगिषव्य सिद्धि प्राप्त योगी थे और सदा योग में ही उनकी स्थिति रहती थी। यद्यपि जैगीषव्य देवल के आश्रम पर ही रहते थे, तो भी देवल मुनि उन्हें दिखाकर योग_साधना नहीं करते थे। इस तरह दोनों को वहां रहते हुए बहुत समय बीत गये।
तदनन्तर, कुछ काल तक ऐसा हुआ कि जैगीषव्य मुनि सदा नहीं दिखाई देते, केवल भोजन के समय ही देवल के आश्रम पर उपस्थित होते थे। उस समय केवल अपनी शक्ति के अनुसार शास्त्रीय विधि से उनका पूजन आप आतिथ्य_सत्कार करते थे। यह नियम भी बहुत वर्षों तक चला। एक दिन जैगिषव्य मुनि को देखकर देवल के मन में बड़ी चिंता हुई। उन्होंने सोचा 'इनकी पूजा करते_करते कितने वर्ष बीत गये;' मगर ये भिक्षु आजतक मुझसे एक भी बात नहीं बोले। यही सोचते हुए वे कलश हाथ में ले आकाश मार्ग से समुद्रतट की ओर चल दिये। वहां जाकर देखा कि भिक्षु महोदय पहले से ही समुद्र तट पर मौजूद थे। अब तो उन्हें चिंता के साथ_साथ आश्चर्य भी हुआ। सोचने लगे_'ये पहले ही कैसे आ पहुंचे ?' इन्होंने तो स्नान भी समाप्त कर लिया है !' तदनन्तर महर्षि देवल ने भी विधिवत् स्नान करके गायत्री-मंत्र का जप किया। जब नित्य नियम समाप्त हो गया तो वे पुनः आश्रम की ओर चले। वहां पहुंचते ही उन्हें जैगिषव्य मुनि बैठे दिखायी पड़े। तब देवल मुनि पुनः विचार में पड़ गये_'मैंने तो इन्हें समुद्र तट पर देखा है, ये आश्रम पर कब और कैसे आ गये।' यह सोचकर उनके मन में जैगीषव्य को ठीक _ठीक जानने की इच्छा हुई, फिर तो वे उस आश्रम से आकाश की ओर उड़े। ऊपर जाकर उन्हें बहुत _सी अन्तरिक्ष चारी सिद्धों का दर्शन हुआ, साथ ही, उन सिद्धों के द्वारा पूजे जाते हुए जैगीषव्य मुनि भी दिखाई पड़े। इसके बाद देवल ने उन्हें स्वर्ग लोक जाते देखा, वहां से पितृलोक में, पितृलोक से यमलोक में, वहां से चन्द्रलोक में तथा चन्द्रलोक से एकान्त में यज्ञ करनेवाले अग्निहोत्रियों के उत्तम लोकों में उन्हें गमन करते देखा। इसी तरह दर्श_पौर्णमास मांग करनेवालों के लोकों में तथा अन्य बहुतेरे लोकों में भी वे जाते दिखायी पड़े। रुद्रों, वसुओं तथा वृहस्पति के स्थान पर भी वे पहुंच गये। तत्पश्चात् वे पतिव्रताओं के लोक में जाकर अन्तर्ध्यान हो गये। फिर देवल मुनि उन्हें न देख सके। तब उन्होंने जैगीषव्य के प्रभाव, व्रत और अनुपम योगसिद्धि के विषय में विचार करते हुए सिद्धों से पूछा_'अब मुझे महान् तेजस्वी जैगीषव्य नहीं दिखाई देते, आपलोग उनका पता बतावें।' सिद्धों ने कहा_'देवल ! जैगीषव्य ब्रह्मलोक में चले गये, वहां तुम्हारी गति नहीं है।'सिद्धों की बात सुनकर देवल मुनि क्रमश: नीचे के लोकों में होते हुए भूमि पर उतरने लगे। वे अपने आश्रम पर पहुंचे तो वहां पहले से ही बैठे हुए जैगीषव्य पर उनकी दृष्टि पड़ी। वे उनके तप और जोग का प्रभाव देख चुके थे, इसलिये अपनी धर्मयुक्त शुद्ध बुद्धि से कुछ देर विचार किया; फिर  वे मुनि की शरण में गये और बोले_'भगवन् ! मैं मोक्षधर्म का आश्रय लेना चाहता हूं।'  उनकी बात सुनकर और संन्यास लेने का विचार जानकर जैगीषव्य ने उन्हें ज्ञानोपदेश दिया; साथ ही योग की विधि बताकर शास्त्र के अनुसार कर्तव्य_अकर्तव्य का भी उपदेश दिया। मुनिवर देवल ने भी गृहस्थ धर्म का परित्याग करके मोक्षधर्म में प्रीति लगायी और परा_सिद्धि और परम योग को प्राप्त किया। राजा जनमेजय ! जैगीषव्य और देवल दोनों महात्माओं का जहां आश्रम था, वह उत्तम स्थान ही तीर्थ बन गया। बलरामजी ने उस तीर्थ में आचमन करके ब्राह्मणों को दान किया और अन्य धार्मिक कार्य सम्पन्न करके वहां से चलकर सारस्वत तीर्थ में पहुंचे, जहां पूर्वकाल में बारह वर्षों तक वर्षा नहीं हुई थी, उस समय सरस्वतीपुत्र सारस्वत मुनि ने ब्राह्मणों को वेद पढ़ाया था। सारस्वत मुनि के नाम से प्रसिद्ध हुए उस तीर्थ।था में धन दान करके बलरामजी वहां से आगे बढ़े और जहां वृद्ध कन्या ने तप किया था, उस प्रसिद्ध तीर्थ में जा पहुंचे। जनमेजय ने पूछा_मुने ! पूर्वकाल में कुमारी ने किस उद्देश्य से तप किया था? जिस प्रकार वह तपस्या में प्रवृत हुई, उसका सारा वृतांत सुनाइये। वैशम्पायनजी ने कहा_राजन् ! प्राचीन काल में एक 'कुणिगर्ग' नामक महान् यशस्वी ऋषि हो गये हैं; उन्होंने बड़ी तपस्या करके अपने मन से ही एक सुन्दरी कन्या उत्पन्न की। पुत्री को देखकर मुनि को बड़ी प्रसन्नता हुई। कुछ काल के पश्चात् वे इस शरीर का त्याग करके स्वर्ग में चले गये। अब आश्रम का भार उस कन्या के ऊपर आ पड़ा। वह बहुत क्लेश उठाकर उग्र तपस्या में संलग्न हुई और निरंतर उपवास करती हुई पितरों तथा देवताओं की पूजा करने लगी। उसे उग्र तपस्या करते बहुत समय बीत गया। वह बूढ़ी और दुबली हो गयी। तब उसने परलोक में जाने का विचार किया। उसकी देहत्याग की इच्छा देख नारदजी ने आकर कहा_'देवी ! तुम्हारा तो अभी संस्कार ही नहीं हुआ है, फिर तुम्हें उत्तम लोक कैसे मिल सकता है? यह बात मैंने देवलोक में सुनी है। तुमने तपस्या तो बहुत बड़ी की, पर तुम्हें उत्तम लोकों पर अधिकार नहीं प्राप्त हो सका।' नारदजी की बात सुनकर वह ऋषियों की सभा में जाकर बोली_'जो कोई मेरा पाणिग्रहण करेगा, उसे मैं अपनी तपस्या का आधा भाग ले लूंगी।' उसके ऐसा कहने पर गालव के पुत्र श्रृंगवान् ने कहा_'कल्याणी ! मैं इस शर्त पर तुम्हारा पाणिग्रहण करूंगा कि विवाह हो जाने पर तुम एक रात मेरे साथ निवास करो।' वृद्धा कुमारी ने 'हां' कहकर अपना हाथ मुनि के साथ में दे दिया। गालवनन्दन ने शास्त्रीय विधि के अनुसार हवन आदि करके उसका पाणिग्रहण संस्कार किया। रात्रि के समय वह सुन्दरी तरुण बनकर मुनि के पास गयी। उस समय उसके शरीर पर दिव्य वस्त्र और आभूषण शोभा पा रहे थे। दिव्य हार तथा दिव्य अंगरागों की सुगंध फैल रही थी। उसकी छवि से चारों ओर प्रकाश_सा हो रहा था। उसे देखकर श्रृंगवान् ऋषि को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने एक रात उसके साथ निवास किया। सवेरा होते ही वह मुनि से बोली_'विप्रवर ! आपने जो शर्त की थी , उसके अनुसार मैं आपके साथ रह चुकी, अब आज्ञा दीजिए, मैं जाती हूं।' यह कहकर वह वहां से चल दी। जाते_जाते उसने फिर कहा_'जो अपने चित्त को एकाग्र कर देवताओं को तृप्त करके इस तीर्थ में निवास करेगा, उसे अट्ठावन वर्षों तक ब्रह्मचर्य_पालन करने का फल मिलेगा।'  ऐसा कहकर वह साध्वी देह त्यागकर स्वर्ग में चली गयी और मुनि उसके दिव्य रूप का चिंतन करते हुए बहुत दु:खी हो गये। उन्होंने प्रतिज्ञा के अनुसार उसके तप का आधा भाग ले लिया और उससे अपने को सिद्ध बनाकर उसी की गति का अनुसरण किया। राजन् ! यही वृद्ध कन्या का परिचय है, जो तुम्हें सुना दिया। बलरामजी ने इसी तीर्थ में आने पर शल्य की मृत्यु का समाचार सुना था। वहां भी उन्होंने ब्राह्मणों को बहुत कुछ दान दिया। तत्पश्चात् समन्तपंचक द्वार से निकलकर उन्होंने ऋषियों से कुरुक्षेत्र_सेवन का फल पूछा। तब उन महात्माओं ने बलरामजी से उस क्षेत्र के सेवन का ठीक _ठीक फल बताया।


Tuesday 15 August 2023

सोमतीर्थ, अग्नितीर्थ और बदरपाचन तीर्थ की महिमा

जनमेजय ने पूछा_मुनिवर ! देवताओं ने सोमतीर्थ में वरुण का किस तरह अभिषेक किया ? इसकी कथा मुझे सुनाइये। वैशम्पायनजी ने कहा_राजन् ! पहले सत्ययुग की बात है; समस्त देवता वरुण के पास जाकर बोले_'भगवन् ! देवराज इन्द्र जैसे सदा हमलोगों की भय से रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप भी सब सरिताओं का पालन कीजिये। समुद्र में आपका निवास होगा और समुद्र सदा आपके अधीन रहेगा। चन्द्रमा के घटने_बढ़ने के साथ ही आपकी भी हानि और वृद्धि होगी।'वरुण ने 'एवमस्तु' कहकर देवताओं की प्रार्थना स्वीकार कर ली। फिर सबने एकत्र होकर उन्हें जल का राजा बनाया और उनका अभिषेक करके पूजन किया। तत्पश्चात् वे अपने_अपने नाम को चले गये। फिर इन्द्र जैसे देवताओं की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार वरुण भी नदी, नदी, सरोवर तथा समुद्रों की रक्षा करने लगे। उस तीर्थ में पहुंचकर बलरामजी ने स्नान किया और ब्राह्मणों को दान देकर वहां से अग्नितीर्थ में गये। वहीं शमी के भीतर छिपा जाने के कारण अग्निदेव किसी को दिखाई नहीं पड़ते थे। उस समय जब संसार का प्रकाश नष्ट हो गया तो सब देवता ब्रह्माजी के पास उपस्थित हुए और बोले _'प्रभो ! भगवान् अग्निदेव नहीं दिखायी पड़ते, इसका क्या कारण है ? कहीं ऐसा न हो कि अग्नि के अभाव में संपूर्ण प्राणियों का नाश हो जाय। अतः आप अग्निदेव को प्रकट कीजिये।' जनमेजय ने पूछा _संपूर्ण जगत् को उत्पन्न करनेवाले भगवान् अग्नि अदृश्य क्यों हो गये थे ? और देवताओं ने उनका पता किस तरह लगाया ? यह सब मुझे ठीक_ठीक बताइये।वैशम्पायनजी ने कहा_राजन् ! महर्षि भृगु ने अग्निदेव को शाप दे दिया था, इससे अत्यन्त भयभीत होकर वे शमी के भीतर छिप गये। उनके अदृश्य हो जाने पर इन्द्र आदि संपूर्ण देवताओं ने अत्यन्त दुःखी होकर उनकी खोज आरम्भ की। खोजते_खोजते अग्नितीर्थ में आकर उन्होंने अग्निदेव को शमी के भीतर छिपे देखा। उन्हें पाकर सबको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे जैसे आये थे वैसे ही लौट गये। अग्निदेव भी ब्रह्मवादी भृगु के शाप के अनुसार सर्वभक्षई हो गये। फिर उसी तीर्थ में स्नान करने से उन्हें ब्रह्मत्व की प्राप्ति हुई। पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने भी सब देवताओं के साथ अग्नितीर्थ में डुबकी लगायी थी तथा यहां भिन्न_भिन्न देवताओं के तीर्थों का उद्घाटन किया था। बलरामजी वहां स्नान_दान करके कऔबएर तीर्थ में गये, जहां बड़ी भारी तपस्या करके कुबेर धन के स्वामी हुए थे। वहां स्नान करके बलरामजी ने ब्राह्मणों को धन दान किया,  उसके बाद कुबेरवन में जाकर उस स्थान का दर्शन किया, जहां कुबेर ने तप किया था। यक्षराज ने वहां बहुतसे वरदान प्राप्त किये थे। धन का प्रभुत्व, शंकरजी के साथ मित्रता, देवत्व, लोकपालत्व और नलकूबर जैसा पुत्र_यह सबकुछ कुबेर ने वहीं तपस्या करके पाया था। वहीं मरुद्गणों ने एकत्रित होकर कुबेर का लोकपाल के पद पर अभिषेक किया और उन्हें यक्षों का राज तथा हंसों से जीता हुआ पुष्पक विमान प्रदान किया। बलदेवजी ने वहां भी स्नान करके बहुत कुछ दान किया। इसके बाद वे बदरपाचन नामक तीर्थ में गये। वहां पूर्वकाल में भरद्वाज की अनुपम रूपवती कन्या श्रुतावती ने इन्द्र को अपना पति बनने के लिये उग्र तपस्या की थी। उसने ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए बहुत_से कठोर नियमों का पालन किया था। उसका सदाचार, तप और भक्ति देखकर इन्द्र उसके ऊपर प्रसन्न हो गये तथा उसे प्रत्यक्ष दर्शन देकर उन्होंने कहा_'शुभे ! मैं तुम्हारी तपस्या, नियम_पालन और भक्ति से बहुत संतुष्ट हूं, इसलिये तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा और यह शरीर त्यागकर तुम मेरे साथ स्वर्गलोक में निवास करोगी। महाभागे ! इस पवित्र तीर्थ में अरुंधति को यहां अकेली छोड़कर स्वयं जीविकानिर्वाह के लिए फल_फूल लाने को हिमालय पर चले गये। वहां उस समय बारह वर्षों के लिये वर्षा रुक गयी थी। जब ऋषियों को वहां कुछ भी नहीं मिला तो वे आश्रम बनाकर रहने लगे। इधर, कल्याणी अरुंधती निरंतर तपस्या में संलग्न हो गयी। उसे कठोर नियम का पालन करती देख वर्दियां भगवान् शंकर अत्यन्त प्रसन्न हो ब्राह्मण का रूप बनाकर वहां आये और बोले_'कल्याणी ! मैं भिक्षा चाहता हूं।' अरुंधती ने कहा_'विप्रवर ! अन्न तो समाप्त हो गया है, सिर्फ थोड़े_से बेर रखें हैं, इन्हें का लीजिये।' महादेवजी ने कहा, 'शुभे ! इन फलों को आग पर पका दो।' यह सुनकर  अरउन्धतईं ब्राह्मण_देवता का प्रिय करने के लिये फलों को प्रज्ज्वलित अग्नि पर रखकर पकाने लगी। उस समय उसे परम पवित्र, मनोहर और दिव्य कथाएं सुनाई देने लगीं। वह बिना खाये ही बेर पकाती और कथा सुनती रही; इतने में बारह वर्षों की वह भयंकर अनावृष्टि समाप्त हो गयी। वह दारुण समय उसे एक दिन के समान ही प्रतीत हुआ। तदनन्तर, सप्तर्षि भी फल लेकर वहां आ पहुंचे। तब भगवान् ने प्रसन्न होकर कहा_'धर्म को जाननेवाली देवी, अब तुम पहले की ही भांति इन ऋषियों की सेवा करो। तुम्हारा तप और नियम देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है।'  'यह कहकर भगवान् शंकर ने अपना स्वरूप प्रकट किया और ऋषियों से उसके महत्वपूर्ण आचरण का वर्णन करते हुए कहा_'मुनियों ! तुमने हिमालय की घाटी में रहकर जिस तप का उपार्जन किया है और इस अरुन्धती ने यहीं रहकर जो तप किया है, इन दोनों में कोई समानता नहीं है। अरुंधती का ही तप श्रेष्ठ है। इसने बारह वर्षों तक बिना भोजन किये बेर पकाते हुए दुष्यंत तप का अनुष्ठान किया है।' कल्याणि ! तुम्हारे मन में जो अभिलाषा हो, वरदान मांग लो।' तब वह बोली_'भगवन् ! यदि आप प्रसन्न हैं तो यह स्थान 'बदरपाचन' नामक तीर्थ हो जाय और सिद्धों तथा देवर्षियों को यह बहुत प्रिय जान पड़े। जो मनुष्य इस तीर्थ में पवित्रतापूर्वक तीन रात्रि निवास तथा उपवास करें, उसे बारह वर्षों तक तीर्थसेवन एवं उपवास करने का फल प्राप्त हो।'
भगवान् शंकर ने 'एवमस्तु' कहकर  उसके वर का अनुमोदन किया।। फिर सप्तर्षि यों द्वारा की हुई स्तुति सुनकर वे अपने नाम को चले गये। अरुन्धती इतने दिनों तक भूख_प्यास सहकर भी न तो थकी और न उसके बदन पर उदासी ही छायी। उसको इस अवस्था में देख ऋषियों को बड़ा आश्चर्य हुआ।
'इस करार अरुन्धती ने यहां परम सिद्धि प्राप्त की थी, तुमने भी मेरे लिये अरुन्धती की ही भांति उत्तम व्रत का पालन किया है। मैं तुम्हारे नियम से संतुष्ट होकर इस तीर्थ के सम्बन्ध में एक विशेष वरदान देता हूं_ जो मनुष्य इस तीर्थ में स्नान करके एकाग्रचित्त हो एक रात भी यहां निवास करेगा, वह देह त्याग के पश्चात् दुर्लभ लोकों में जायगा।'
वैशम्पायनजी कहते हैं _पवित्र चरित्रवान श्रुतावती से ऐसा कहकर इन्द्र स्वर्ग को चले गये। उनके जाते ही वहां फूलों की वर्षा होने लगी। देवताओं की दुंदुभी बज उठी। सुगन्धित हवा चलने लगी। उसी समय श्रुतावती भी शरीर त्यागकर स्वर्ग चली गयी और वहां इन्द्र की पत्नी के रूप में रहने लगी। बलभद्रजी उस बदरपाचन तीर्थ में स्नान करके ब्राह्मणों को धन दान कर इन्द्रतीर्थ में चले गये।





Sunday 6 August 2023

रुषंगु के आश्रम पर आर्ष्टिषेण आदि तथा विश्वामित्र की तपस्या, ययाततीर्थ की महिमा और अरुणा में स्नान करने से इन्द्र का उद्धार

वैशम्पायनजी कहते हैं_ बलरामजी ने उस तीर्थ में आश्रमवासी ऋषियों की पूजा करने के पश्चात् एक रात निवास किया। उन्होंने ब्राह्मणों को दान दिये और स्वयं वहां रहकर रातभर उपवास किया। दूसरे दिन प्रातःकाल उठकर तीर्थ के जल में स्नान किया और सब ऋषि मुनियों की आज्ञा लेकर वे औशनस तीर्थ में जा पहुंचे। उसे कपालमोचन तीर्थ भी कहते हैं। पूर्वकाल में भगवान् राम ने यहां एक राक्षस को मारकर उसका सिर दूर फेंका था, वह सिर ( कपाल ) महोदय मुनि की जांघ में जा लगा था। वहीं पर उस मुनि ने मुक्ति पायी थी तथा वहीं शुक्राचार्यजी ने तप किया था, जिससे उनके हृदय में संपूर्ण नीतिविद्या स्फुरित हुई थी। बलरामजी ने उस तीर्थ में पहुंचकर ब्राह्मणों को विधिपूर्वक धन का दान दिया। तत्पश्चात् वे रुषंगु के आश्रम में गये, जहां आर्ष्टिषेण ने घोर तपस्या की थी। रुषंगु मुनि ने यहीं अपने देह का त्याग किया था। उनकी कथा इस प्रकार है_रुषंगु एक बूढ़े ब्राह्मण थे, वे सदा तपस्या में ही लगे रहते थे। एक दिन बहुत सोच_विचारकर उन्होंने अपना देह त्यागने का निश्चय किया। उस समय उन्होंने अपने सब पुत्रों को बुलाकर कहा_'मुझे पृथूदक तीर्थ में ले चलो।' उनके पुत्र भी बड़े तपस्वी थे, वे अपने पिता को अत्यंत वृद्ध जानकर सरस्वती नदी के पृथूदक तीर्थ पर ले गये। वहां पहुंचकर रुषंगु ने तीर्थ के जल में विधिवत् स्नान किया और अपने पुत्रों को बताया कि 'सरस्वती नदी के उत्तर किनारे पर जो यह पृथूदक तीर्थ है, इसमें स्नान करके गायत्री आदि का जप करते हुए जो पुरुष प्राण त्याग करेगा, उसे पुनः जन्म_मरण का कष्ट नहीं भोगना पड़ेगा।' बलरामजी ने उस पवित्र तीर्थ में स्नान करके ब्राह्मणों को दान दिये। उसके बाद उस स्थान पर पदार्पण किया जहां लोकपितामह ब्रह्माजी ने लोकों की सृष्टि प्रारंभ की थी तथा जहां आर्ष्टिषेण, सिन्धु द्वीप, देवर्षि और विश्वामित्र आदि राजर्षियों ने महान् तप करके ब्राह्मणत्व प्राप्त किया था। जनमेजय ने पूछा_ मुनिवर ! आर्ष्टिषेण ने किस प्रकार महान् तप किया ? सिन्धुद्वीप, देवापि तथा विश्वामित्र ने कैसे ब्राह्मणत्व प्राप्त किया ? यह सब बातें मुझे बतलाइये ? वैशम्पायनजी ने कहा_राजन् ! सतयुग की बात है। एक आर्ष्टिषेण नामवाली ब्राह्मण थे, जो गुरु के घर में रहकर सदा वेदों के अध्ययन में लगे रहते थे। यद्यपि उन्होंने बहुत अधिक समय तक गुरुकुल में निवास किया तथापि न तो उनकी विद्या समाप्त हुई और न उन्हें वेदों का ही पूरा अभ्यास हुआ। इससे वे मन_ही_मन बहुत दुखी हुए और कठोर तपस्या में लग गये। उस तप के प्रभाव से उन्हें वेदों का उत्तम ज्ञान प्राप्त हुआ। अब वे विद्वान होने के साथ ही सिद्ध हो गये। उन्होंने उस तीर्थ में तीन वरदान दिये _'आज से जो मनुष्य सरस्वती नदी के इस तीर्थ में डुबकी लगायेगा, उसे अश्वमेध यज्ञ का पूरा_पूरा फल मिलेगा, यहां सर्पों का भय नहीं रहेगा तथा थोड़े समय तक भी इस तीर्थ का सेवन करने से महान् फल की प्राप्ति होगी। इस प्रकार रुषंगु के आश्रम पर ही आर्ष्टिषेण मुनि को सिद्धि प्राप्त हुई थी। फिर वहीं राजर्षि सिन्धुद्वीप एवं देवापि ने तप करके ब्राह्मणत्व प्राप्त किया था तथा सदा तप में रहनेवाले विश्वामित्रजी को भी वहीं ब्राह्मणत्व प्राप्त हुआ था। इसकी कथा यों है_पृथ्वी पर एक 'गाधि' नाम से विख्यात महान् राजा राज्य करते थे। विश्वामित्र उन्हीं के पुत्र थे। कहते हैं, राजा गांधी बड़े योगी थे, उन्होंने अपने पुत्र विश्वामित्र को राज्य देकर स्वयं देह त्याग देने का विचार किया। उस समय प्रजा जनों ने राजा को प्रणाम करके कहा_'महाराज ! आप वन में न जाइये, हमारी महान् भय से रक्षा कीजिये।'प्रजा के ऐसा कहने पर गाधि ने कहा_मेरा पुत्र संपूर्ण जगत् की रक्षा करनेवाला होगा।' यों कहकर उन्होंने विश्वामित्र को राजसिंहासन पर बैठा दिया और स्वयं शरीर त्यागकर स्वर्ग की राह ली। विश्वामित्र राजा तो हुए, किंतु बहुत यत्न करने पर भी वे पृथ्वी की पूर्णतः रक्षा न कर सके। एक दिन उन्होंने सुना कि प्रजा पर राक्षसों का महान् भय बढ़ा हुआ है; अतः वे चतुरंगिणी सेना को साथ लेकर राजधानी से निकल पड़े। बहुत दूर तक रास्ता तय कर लेने के पश्चात् वे वशिष्ठ मुनि के आश्रम पर पहुंचे। वहां उनके सैनिकों ने नाना प्रकार के अत्याचार किये। इतने में वशिष्ठ मुनि आश्रम पर आये। उन्होंने देखा कि यह महान् वन सब ओर से उजाड़ दिया जा रहा है, तो अपनी कामधेनु गौ से कहा_'तू भयंकर भीलों को उत्पन्न कर।' ऋषि की आज्ञा पाकर धेनु ने भयंकर मनुष्यों को प्रकट किया, जिन्होंने विश्वामित्र की सेना पर धावा करके उसे चारों ओर भगा दिया। विश्वामित्र ने जब सुना कि मेरी सेना भाग गयी तो उन्होंने तपस्या को ही सबसे बढ़कर माना और मन_ही_मन तप करने का निश्चय किया।तत्पश्चात् वे सरस्वती के उपर्युक्त तीर्थ में ही आये और चित्त को एकाग्र करके व्रत और नियमों का पालन करते हुए शरीर को सुखाने लगे। कुछ काल तक जल पीकर रहे, फिर वायु का आहार करने लगे, इसके बाद पत्ते चबाकर रहने लगे। इतना ही नहीं, वे खुले मैदान में जमीन पर सोने तथा और भी बहुत_से नियमों का पालन करने लगे। तदनन्तर, देवताओं ने उनके व्रत में विध्न डालना आरम्भ किया, किन्तु किसी तरह उनका मन न डिग सका। वे बहुत प्रयत्न करके अनेकों प्रकार के जप करने लगे। उस समय वे सूर्य के समान तेजस्वी दिखाई देने लगे। उन्हें ऐसी कठोर तपस्या में लगे देख ब्रह्माजी आये और उन्हें वर मांगने के लिये कहा । विश्वामित्र ने यहीं वर मांगा कि 'मैं ब्राह्मण हो जाऊं।' ब्रह्माजी ने 'तथास्तु' कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। इस प्रकार महायशस्वी विश्वामित्र कठोर तपस्या के द्वारा ब्राह्मणत्व पाकर कृतार्थ हो गये। उस तीर्थ में पहुंचकर बलरामजी ने श्रेष्ठ ब्राह्मणों की पूजा करके बहुत_सा धन, दूध देनेवाली गौएं, वाहन, बिछौने, वस्त्र, तथा खाने_पीने की सुन्दर वस्तुएं दान कीं। इसके बाद वे वक और दाल्भ्य मुनि के आश्रम में गये, जहां वेद मंत्रों की ध्वनि गूंजती रहती है। वहां पहुंचकर उन्होंने  ब्राह्मणों को रथ, हीरे, माणिक्य तथा अन्न_धन आदि दान किये। वहां से यायात तीर्थ में गये। वहां राजा ययाति के यज्ञ में सरस्वती नदी ने गई और दूध की धारा बहायी थी। वहीं यज्ञ करके ययाति ने ऊपर के लोकों में गमन किया था। सरस्वती ने राजा ययाति की उदारता तथा अपने प्रति उनकी सनातन भक्ति देखकर उनके यज्ञ में आये ब्राह्मणों की सारी कामनाएं पूर्ण की थी। राजा का यज्ञ वैभव देखकर देवता और गन्धर्व बहुत प्रसन्न थे, परन्तु मनुष्यों को बड़ा आश्चर्य होता था। उस तीर्थ में नाना प्रकार के दिन करके बलरामजी वशिष्टप्रवाह तीर्थ में गये। वहीं स्थानीय तीर्थ है जहां वशिष्ठ और विश्वामित्र ने तपस्या की थी और जहां देवताओं देवताओं ने कार्तिकेयजी को सेनापति के पद पर अभिषेक किया था। इसी तीर्थ में स्नान करने से देवराज इन्द्र को ब्रह्महत्या के पाप से छुटकारा मिला था। जनमेजय ने पूछा_ ब्रह्मन्! इन्द्र को ब्रह्महत्या का पाप कैसे लगा? तथा इस तीर्थ में स्नान करने से उन्हें उनसे छुटकारा किस तरह मिला? वैशम्पायनजी ने कहा_राजन् ! प्राचीन काल की बात है, नमुचि इन्द्र के भय से डरकर सूर्य की किरणों में समा गया था। तब इन्द्र ने उससे मित्रता कर ली और यह प्रतिज्ञा की कि न तो तुम्हें गीले हथियार से मारूंगा, न सूखे से; न दिन में मारूंगा न रात में। यह बात मैं सत्य की सौगंध खाकर कहता हूं।' इस प्रकार की प्रतिज्ञा कर लेने पर एक दिन जबकि चारों ओर कुहासा जा रहा था, इन्द्र ने पानी के फेन से नमुचि का सिर काट लिया। वह कटा हुआ मस्तक इन्द्र के पीछे _पीछे गया और बोला_'मित्र की हत्या करनेवाला पापी
! कहां जाता है ?' इस प्रकार जब उस मस्तक ने बार_बार टोका तब इन्द्र घबरा उठे। उन्होंने ब्रह्मा के पास जाकर यह सब समाचार सुनाया। सुनकर ब्रह्माजी ने कहा_'इन्द्र ! तुम अरुणा नदी के तट पर जाओ। पूर्वकाल में सरस्वती ने गुप्त रूप से जाकर अरुणा को अपने जल से पूर्ण किया था, अतः वह अरुणा तथा सरस्वती का पवित्र संगम है। वहां जाकर यज्ञ और दान करो। उसमें गोता लगाने से इस भयंकर पाप से मुक्त हो जाओगे।'
ब्रह्मा के ऐसा कहने पर इन्द्र सरस्वती के तटवर्ती निकुंज में गये और उन्होंने यज्ञ करके अरुणा में डुबकी लगायी। ऐसा करने से वे ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो गये और अत्यंत प्रसन्न होकर स्वर्ग में चले गये। नमुचि का वह सिर भी यमुना में गोता लगाकर अक्षय लोकों में जा पहुंचा।
बलभद्रजी ने उस तीर्थ में स्नान करके नाना प्रकार के दिन किये और वहां के सोम तीर्थ की यात्रा की। पूर्वकाल में सोम ने वहां राजसूय यज्ञ किया था, जिसमें अत्रि मुनि होता बने थे। उस यज्ञ की समाप्ति हो जाने पर दानव, दैत्य तथा राक्षसों के साथ देवताओं का भयंकर युद्ध हुआ, जिसे तारक संग्राम कहते हैं, उसमें स्वामी कार्तिकेय ने तारकासुर को मारा था। उसी युद्ध में कार्तिकेयजी देवसेना के सेनापति बनाये गये तथा सदा के लिये उन्होंने वहां अपना निवास बना लिया। वहीं वरुण का भी जल के राज्य पर अभिषेक हुआ था। बलदेवजी ने उस तीर्थ में स्नान करके स्वामी कार्तिकेय का पूजन किया और ब्राह्मणों को सुवर्ण, वस्त्र तथा आभूषण दान दिये। फिर एक रात निवास करके उन्हें बहुत प्रसन्नता हुई।

Thursday 27 July 2023

विनसन आदि तीर्थों का वर्णन, नैमिषीय तथा सप्तसारस्वत तीर्थों का विशेष वृतांत


संजय कहते हैं_महाराज ! वहां सरस्वती नदी जमीन के भीतर अदृश्य रूप से बहती है, इसलिये ऋषिगण उसे 'विनशन तीर्थ' कहते हैं। बलदेवजी वहां आचमन करके आगे बढ़े और सरस्वती के उत्तम तट पर सुभूमिक तीर्थ में जा पहुंचे। वहां उन्हें बहुत_से गन्धर्व और अप्सराएं दिखाई पड़ीं। उस पवित्र तीर्थ में स्नान तथा दान करके वे गन्धर्वतीर्थ में गये, जहां तपस्या में लगे हुए विश्र्वावसु आदि प्रधान _प्रधान वसु गाना बजाना तथा नृत्य कर रहे थे। उस तीर्थ में स्नान करके बलदेवजी ने ब्राह्मणों को सोना_चांदी आदि विविध वस्तुओं का दान किया। फिर उन्हें भोजन कराकर बहुमूल्य वस्तुएं दे उनकी कामनाएं पूर्ण की। तत्पश्चात् वे गर्गस्त्रोत नामक तीर्थ में गये। जहां वृद्ध गर्ग ने तपस्या करके अन्त:कर्ण को पवित्र किया था तथा काल का ज्ञान, काल की गति, नक्षत्रों और ग्रहों की गति का उलट_फेर, भयंकर उत्पात और शुभ शकुन आदि ज्योति:शास्त्र के विषयों की पूर्ण जानकारी प्राप्त की थीं। उन्हीं के नाम पर यह तीर्थ 'गर्गस्त्रोत' कहा जाने लगा। वहां पर बलदेवजी ने ब्राह्मणों को विधिपूर्वक धन दान दिया और नाना प्रकार के पदार्थ भोजन कराकर शंखतीर्थ में पदार्पण किया। वहां उन्होंन मेरुगिरि के समान एक बहुत ऊंचा शंख देखा; जो अनेकों ऋषियों से सुसेवित था। वहीं सरस्वती के तट पर एक बहुत बड़ा वृक्ष था, जहां हजारों की संख्या में यक्ष, विद्याधर, राक्षस, पिशाच तथा सिद्ध रहते थे। वे सब अन्न त्याग करके व्रत और नियमों का पालन करते हुए समय_समय पर उस वृक्ष का फल ही खाया करते थे। वहां बलदेवजी ने ब्राह्मणों की पूजा करके उन्हें बर्तन और वस्त्र दान दिये। इसके बाद वे परम पवित्र द्वैतवन में आये। उस वन में रहनेवाले ऋषि_मुनियों का दर्शन करके उन्होंने वहां के तीर्थ_जल में डुबकी लगाई और ब्राह्मणों की पूजा करके उन्हें विविध प्रकार के भोज्यपदार्थ दान किये। फिर वहां से चलकर वे सरस्वती के दक्षिणभाग में थोड़ी ही दूर पर स्थित नागधन्वा तीर्थ में गये जहां नित्य चौदह हजार ऋषि मौजूद रहते हैं। उसी स्थान पर देवताओं ने वासुकि को सर्पों का राजा बनाकर अभिषेक किया था। वहां किसी को भी सांपों के डसने का भय नहीं रहता। बलदेवजी वहां भी ब्राह्मणों को ढ़ेर_के_ढ़ेर रत्न दान किये। फिर वे पूर्व दिशा की ओर चल दिये, जहां पग_पग पर लाखों तीर्थ प्रकट हुए हैं। उन सब तीर्थों में उन्होंने गोते लगाये और ऋषियों के बताये अनुसार व्रत_नियमादि का पालन किया। फिर सब प्रकार के दिन करके वे अपने अभीष्ट मार्ग की ओर चल दिये। जाते_जाते वहां पहुंचे, जहां पश्चिम की ओर बहनेवाली सरस्वती नदी नैमिषीय मुनियों के दर्शन की इच्छा से पुनः पूर्व दिशा की ओर लौट पड़ी है। उसे पीछे की ओर लौटी देख बलदेवजी को बड़ा आश्चर्य हुआ।जनमेजय ने पूछा _ब्रह्मण् ! सरस्वती नदी पूर्व की ओर क्यों लौटी ? बलभद्रजी के आश्चर्य का भी कोई कारण होना चाहिये। उस नदी के पीछे लौटने में क्या हेतु है ? वैशम्पायनजी ने कहा _राजन् ! सतयुग की बात है। नैमिषीय तपस्वी ऋषियों ने मिलकर बारह वर्षों में समाप्त होने वाला एक महान् सत्र आरम्भ किया, उसमें सम्मिलित होने के लिये बहुत _से ऋषि पधारे थे। जब सत्र समाप्त हुआ, उस समय भी तीर्थ के कारण वहां बहुत _से ऋषि महर्षियों का शुभागमन हुआ।उनकी संख्या इतनी अधिक हो गयी कि सरस्वती के दक्षिण किनारे के तीर्थ नगरों के समान मनुष्यों से भर गये। नदी के तीर पर नैमिषारण्य से लेकर समन्तपंचक तक ऋषि_मुनि ठहरे हुए थे। वे वहां यज्ञ_होमादि करने लगे, उनके द्वारा उच्चारित वेद_मंत्रों के गम्भीर घोष से संपूर्ण दिशाएं गूंज उठीं। महाराज! उन ऋषियों में सुप्रसिद्ध बालखिल्य, अश्मकउट्ट ( पत्थर से फोड़े हुए फल का भोजन करने वाले ) , दन्तोलूखली (दांत से ही ओखली का काम लेनेवाले अर्थात्  ओखली में कूटकर नहीं दांतों से ही चबाकर खाने वाले ) का पेड़ और प्रसंख्यान ( गिने हुए फल खानेवाले  ) भी थे। कोई हवा पीकर रहता था कोई पानी। बहुतेरे तपस्वी पत्ते चबाकर रहते थे। सब लोग मिट्टी की वेदी पर सोते और नाना प्रकार के नियमों में लगे रहते थे। वे सब ऋषि सरस्वती के निकट आकर उसकी शोभा बढ़ाने लगे, किन्तु वहां तीर्थ भूमि में उन्हें रहने की जगह नहीं दिखाई दी। इससे वे निराश एवं चिंतित हो गये। उनकी यह अवस्था देख सरस्वती ने दयावश उन्हें दर्शन दिया। वह अनेकों कुंजों का निर्माण करती हुई पीछे लौट पड़ी और ऋषियों के लिये तीर्थभूमि बनाकर फिर पश्चिम की ओर मुड़ गयी। इस महानदी ने ऋषियों के आगमन को सफल बनाने का निश्चय कर लिया था, इसीलिए यह अत्यंत अद्भुत कार्य कर दिखाया। सरस्वती का बनाया हुआ वह निकुंजों का समुदाय ही 'नैमिषिय'नाम से विख्यात हुआ। वहां के अनेकों कुंजों तथा पीछे लौटी हुई सरस्वती नदी को देखकर बलदेवजी को बड़ा विस्मय हुआ। वहां भी उन्होंने विधिवत् आचमन एवं स्नान किया और ब्राह्मणों को भांति _भांति के भोज्यपदार्थ तथा बर्तन दान करके वे सप्तसारस्वत नाम के तीर्थ में चले गये; जहां वायु, जल, फल अथवा पत्ता खाकर रहनेवाले बहुत_से महात्मा थे। उनके स्वाध्याय का गंभीर घोष सब ओर गूंज रहा था। वहां अहिंसक एवं धर्मपरायण मनुष्य निवास करते थे।
जनमेजय ने पूछा _मुनिवर ! सप्तसारस्वत तीर्थ कैसे प्रकट हुआ ?  मैं इसका वृतांत विधिपूर्वक सुनना चाहता हूं। वैशम्पायनजी कहते हैं _ राजन्! सरस्वती नाम से प्रसिद्ध सात नदियां हैं, ये सारे जगत् में फैली हुई हैं। इनके विशेष नाम हैं_सुप्रभा,कांचनाक्षी, विशाला, मनोरमा, ओघवती, सुरेणु तथा विमलोदका। शक्तिशाली महात्माओं ने भिन्न-भिन्न देशों में एक_एक सरस्वती का आवाहन किया है। एक समय की बात है, पुष्कर तीर्थ में ब्रह्माजी का एक महान् यज्ञ हो रहा था, यज्ञशाला में सिद्ध ब्राह्मण विराजमान थे। पुण्याहघोष हो रहा था, सब ओर वेद_मंत्रों की ध्वनि फैल रही थी, समस्त देवता यज्ञकार्य में लगे हुए थे, स्वयं ब्रह्माजी ने यज्ञ की दीक्षा ली थी। उनके यज्ञ करते समय सबकी समस्त इच्छाएं पूर्ण हो रही थीं। धर्म और अर्थ में कुशल मनुष्य मन में जिस वस्तु का चिंतन करते थे, वहीं उन्हें प्राप्त हो जाती थी। उस समय ऋषियों ने पितामह से कहा _'यह यज्ञ अधिक गुणों से सम्पन्न नहीं दिखाई देता; क्योंकि अभी तक सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती का ही प्रादुर्भूत नहीं हुआ।' यह सुनकर ब्रह्माजी ने सरस्वती का स्मरण किया। उनके आवाहन करते ही 'सुप्रभा'  नामधारी सरस्वती पुष्कर तीर्थ में प्रकट हो गयी। पितामह के सम्मानार्थ वहां सरस्वती नदी को प्रकट देख मुनियों ने उस यज्ञ की बड़ी प्रशंसा की। इसी तरह नैमिषारण्य में भी वेद के स्वाध्याय में लगे रहनेवाले मुनियों ने सरस्वती का आवाहन किया, उनके चिंतन करते ही वहां 'कांचनाक्षी'  नामवाली सरस्वती नदी प्रकट हो गयी। ऐसे ही जब राजा गय यज्ञ कर रहे थे, उस समय उनके यहां भी सरस्वती का आवाहन किया गया था।  वहां 'विशाला' नामवाली सरस्वती का आविर्भाव हुआ। उसकी गति बड़ी तेज है। वह हिमालय की घाटी से निकली हुई है। एक समय की बात है, उत्तर कोसल प्रान्त में उद्दालक मुनि यज्ञ कर रहे थे, उन्होंने भी सरस्वती का स्मरण किया। ऋषि के कारण वह नदी उस देश में भी प्रकट हुई, जिसका मुनियों ने पूजन किया। वह 'मनोरमा' नाम से विख्यात हुई; क्योंकि ऋषियों ने पहले उसका अपने मन में ही स्मरण किया था।
'सुरेणु' नामवाली सरस्वती नदी का प्रादुर्भाव ऋषभ द्वीप में हुआ। जिस समय राजा कुरु कुरुक्षेत्र में यज्ञ कर रहे थे, उसी समय वहां सरस्वती प्रकट हुई। गंगाद्वार में यज्ञ करते समय दक्ष प्रजापति ने जब सरस्वती का स्मरण किया था तो वहां भी सुरेणु ही प्रकट हुई। इसी प्रकार महात्मा वशिष्ठ भी एक बार कुरुक्षेत्र में यज्ञ कर रहे थे, वहां पर उन्होंने सरस्वती का आवाहन किया; उनके आवाहन से 'ओघवती' का प्रादुर्भाव हुआ। ब्रह्माजी ने एक बार हिमालय पर्वत पर भी यज्ञ किया था, वहां जब उन्होंने सरस्वती का स्मरण किया तो 'विमलोदका' प्रकट हुई। इन सातों सरस्वती योग का जल जहां एकत्र हुआ है, उसे सप्तसारस्वत कहते हैं। इस प्रकार मैंने तुम्हें सात सरस्वती योग के नाम और वृतांत बताये। इन्हीं से परम पवित्र सप्तसारस्वत तीर्थ की प्रसिद्धि हुई है।







Tuesday 18 July 2023

बलरामजी की तीर्थयात्रा तथा प्रभास_क्षेत्र का प्रभाव

जनमेजय ने कहा_मुने ! जब महाभारत युद्ध आरंभ होने के पहले ही बलदेवजी भगवान् श्रीकृष्ण की सम्मति लेकर अन्य वृष्णवंशियों के साथ तीर्थयात्रा के लिये चले गये और जाते_जाते यह कह गये कि 'मैं न तो दुर्योधन की सहायता करूंगा, न पाण्डवों की; तब फिर उस समय वहां उनका शुभागमन कैसे हुआ ? यह समाचार आप मुझे विस्तार से सुनाइये ? वैशम्पायनजी कहते हैं_राजन् ! जिस समय पाण्डव उपलव्य नामक स्थान में छावनी के डालकर ठहरे हुए थे, उन्हीं दिनों की बात है, पाण्डवों ने सब प्राणियों के हित के लिये भगवान् श्रीकृष्ण को धृतराष्ट्र के पास भेजा। उन्हें भेजने का उद्देश्य यह था कि कौरव_पाण्डवों में शान्ति बनी रहे_कलह न हो। भगवान् हस्तिनापुर जाकर धृतराष्ट्र से मिले और उनसे सबके लिये हितकर एवं यथार्थ बातें कहीं। किन्तु उन्होंने भगवान् का कहना नहीं माना। जब वहां सन्धि कराने में सफल न हो सके तो भगवान् उपलव्य में ही लौट आये और पाण्डवों से बोले_'कौरव अब काल के वश में हो रहे हैं इसलिये मेरा कहना नहीं मानते। पाण्डवों ! अब तुमलोग मेरे साथ पुष्य नक्षत्र में युद्ध के लिये निकल पड़ो।' इसके बाद जब सेना का बंटवारा होने लगा तो बलदेवजी ने श्रीकृष्ण से कहा_'मधुसूदन ! तुम कौरवों की भी सहायता करना।' परन्तु श्रीकृष्ण ने उनका यह प्रस्ताव नहीं स्वीकार किया; इससे वे रूठ गये और पुष्य नक्षत्र में वहां से तीर्थयात्रा के लिये निकल पड़े। रास्ते में उन्होंने सेवकों को आज्ञा दी कि तुमलोग द्वारका जाकर तीर्थयात्रा में उपयोगी सभी आवश्यक सामान लाओ। साथ ही अग्निहोत्र की अग्नि और यज्ञ करानेवाले ब्राह्मणों को आदरपूर्वक ले आना। सोना, चांदी, गौ, वस्त्र, घोड़े, हाथी, रथ, खच्चर और ऊंट भी लाने चाहिये। इस प्रकार आदेश देकर वे सरस्वती नदी के किनारे _किनारे उसके प्रवाह की ओर तीर्थयात्रा के लिये चयन पड़े; उनके साथ ऋत्विक, सउहऋद्, श्रेष्ठ ब्राह्मण, रथ, हाथी_घोड़े, सेवक, बैल, खच्चर और ऊंट भी थे। उन्होंने देश_देश में थके_मांदे रोगी, बालक और वृद्धों का सत्कार करने के लिये तरह_तरह की देने योग्य वस्तुएं तैयार करा रखी थीं। भूखों को भोजन कराने के लिये सर्वत्र अन्न का प्रबंध कराया गया था। जिस किसी देश में जो कोई ब्राह्मण जब भोजन की इच्छा प्रकट करता था, उसको उसी स्थान पर तत्काल भोजन दिया जाता था। भिन्न-भिन्न तीर्थों में बलदेवजी की आज्ञा से उनके सेवक खाने_पीने की पदार्थों का ढ़ेर लगा रखते थे। ब्राह्मणों के सम्मानार्थ बहुमूल्य वस्त्र, पलंग और बिछौने तैयार रहते थे। इस यात्रा में सबलओग आराम से चलते और विश्राम करते थे। यात्रा करनेवालों की यदि इच्छा हो तो उन्हें सवारियां भी मिलती थीं। प्यासे को पानी पिलाया जाता और भूखे को स्वादिष्ट अन्न दिया जाता था। उन यात्रियों का रास्ता बड़े सुख से तो होता था। सबको स्वर्गीय आनंद मिलता था। सभी सदा ही प्रसन्न रहते थे। साथ में खरीदने _बेचने की वस्तुओं का बाजार भी लगता था। महात्मा बलदेवजी ने अपने मन को वश में रखकर पुण्य तीर्थों में ब्राह्मणों को बहुत _सा धन दान दिया, यज्ञ करके उन्हें दक्षिणाएं दीं हजारों दूध देनेवाली गऔएं दान कीं। उन गौओं के सींग में सोना मढ़ा था और उन्हें सुन्दर वस्त्र ओढ़ाये गये थे। भिन्न-भिन्न देशों के घोड़े दान किये गये। तरह_तरह की सवारियां, सेवक, रत्न, मोती, मणि, मूंगा, सोना, चांदी तथा लोहे और तांबे के बर्तन भी ब्राह्मणों को दिये गये। इस करार सरस्वती के तटवर्ती तीर्थों में बहुत _सा दान करके बलरामजी क्रमश: कुरुक्षेत्र में आ पहुंचे। जनमेजय ने कहा_आप मुझे सरस्वती के तटवर्ती तीर्थों के गुण, प्रभाव और उत्पत्ति की कथा सुनाइये। उन तीर्थों में जाने का क्या फल है ? और यात्रा की सिद्धि कैसे होती है ? तथा जिस क्रम से बलरामजी ने यात्रा की थी, वह क्रम भी बताइये, मुझे यह सब सुनने का बड़ा कौतूहल हो रहा है। वैशम्पायनजी बोले_राजन् ! सरस्वती तट के तीर्थों का विस्तार, उनका प्रभाव तथा उनकी उत्पत्ति की पवित्र कथाएं मैं सुना रहा हूं, सुनो । यादवनन्दन बलदेवजी ब्राह्मणों तथा ऋत्वइजओं के साथ सबसे पहले प्रभास_क्षेत्र में गये जहां राजयक्ष्मा से कष्ट पाते हुए चन्द्रमा को शाप से छुटकारा मिला तथा अपना खोया हुआ तेज भी प्राप्त हुआ, जिससे वे सारे जगत् को प्रकाशित करते हैं। चन्द्रमा को प्रभासित करने के कारण ही वह प्रधान तीर्थ पृथ्वी पर 'प्रभास' नाम से विख्यात हुआ।जनमेजय ने पूछा_मुनिवर ! भगवान् सोम को यक्ष्मा कैसे हो गया ? और उन्होंने उस तीर्थ में किस तरह स्नान किया तथा उसमें डुबकी लगाने से वे रोगमुक्त हो पुष्ट किस प्रकार हुए ? ये सारी बातें आप मुझे विस्तार के साथ बताइये।
वैशम्पायनजी ने कहा_राजन् ! दक्षप्रजापति की संतानों में अधिकांश कन्याएं हुई थीं, उनमें से सत्ताइस कन्याओं का ब्याह उन्होंने चन्द्रमा के साथ कर दिया। उन सबकी 'नक्षत्र' संज्ञा थी। चन्द्रमा के साथ जो नक्षत्रों का योग होता है, उसकी गणना के लिये वे सत्ताइस रूपों में प्रकट हुई थीं। वे सब_की_सब अनुपम सुन्दरी थीं। किन्तु उनमें भी रोहिणी का सौन्दर्य सबसे बढ़कर था, इसलिये चन्द्रमा का अनुराग रोहिणी में ही अधिक हुआ। वहीं उनकी हृदयवल्लभा हुई। वे सदा ही उसके ही संपर्क में रहने लगे। जनमेजय ! पूर्वकाल में चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र के संपर्क में रहने लगे। जनमेजय! पूर्वकाल में चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र के संसर्ग में अधिक काल तक रहा करते थे; इसलिये नक्षत्र नामधारी दूसरी स्त्रियों को बड़ी ईर्ष्या हुई, वे, वे कुपित होकर अपने पिता प्रजापति के पास चली गयीं और बोलीं _'प्रजानाथ ! सोम सदा रोहिणी के पास ही रहते हैं, हमलोगों पर उनका स्नेह नहीं है। अतः हमलोग अब आपके पास ही रहेंगी और नियमित आहार करके तपस्या में लग जायेंगी। उनकी बातें सुनकर दक्ष ने सोम को बुलाकर कहा_'तुम अपनी सब स्त्रियों में समता का भाव रखो, सबके साथ एक_सा वर्ताव करो। ऐसा करने से ही तुम पाप से बच सकोगे।' तदनन्तर, दक्ष ने अपनी कन्याओं से कहा_'तुम सब लोग चन्द्रमा के पास जाओ, अब वे मेरी आज्ञा के अनुसार तुम सबके साथ समान भाव रखेंगे।' पिता के विदा करने पर वे पुनः पति के घर चली गयीं। किन्तु सोम के वर्ताव में कोई अन्तर नहीं पड़ा। उनका रोहिणी के प्रति अधिकाधिक प्रेम बढ़ता गया और वे सदा उसी के पास रहने लगे। तब शेष कन्याएं पुनः एकसाथ होकर पिता के पास गयीं और कहने लगीं_'पिताजी ! सोम ने आपकी आज्ञा नहीं मानी, अब तो हम आपकी सेवा में ही रहेंगी।' यह सुनकर दक्ष ने फिर सोम को बुलवाया और कहा_'तुम सब स्त्रियों के साथ समान वर्ताव करो, नहीं तो मैं शाप दे दूंगा।' परन्तु चन्द्रमा ने उनकी बात का अनादर करके रोहिणी के ही साथ निवास किया।
जब दक्ष को पुनः इसका समाचार मिला तो उन्होंने क्रोध में भरकर सोम के लिये यक्ष्मा की सृष्टि की, यक्ष्मा चन्द्रमा के शरीर में घुस गया। क्षयरोग से पीड़ित हो जाने के कारण चन्द्रमा प्रतिदिन क्षीण होने लगे। उन्होंने उससे छूटने का यत्न भी किया, नाना प्रकार के यज्ञ आदि किये, किन्तु दक्ष के शाप से छुटकारा न मिला, वे प्रतिदिन क्षीण ही होते गये। जब चन्द्रमा की प्रभा नष्ट हो गयी, तो अन्न आदि औषधियों का पैदा होना भी बन्द हो गया। जो पैदा भी हओतईं उनमें न कोई स्वाद होता, न रस। उनकी शक्ति भी नष्ट हो जाती। इस प्रकार अन्न आदि के न होने से सब प्राणियों का नाश होने लगा। सारी प्रजा दुर्बल हो गयी।
तब देवताओं ने चन्द्रमा के पास आकर कहा_'यह आपका रूप कैसा हो गया ? इसमें प्रकाश क्यों नहीं होता ? हमलोगों से सारा कारण बताइये, आपसे पूरा हाल सुनकर फिर हम इसके लिये कोई उपाय करेंगे।'
उनके इस प्रकार पूछने पर चन्द्रमा ने उन्हें अपने को शाप मिलने का कारण बताया और उस शाप के रूप में यक्ष्मा की बीमारी होने का हाल भी कह सुनाया। देवतालोग उनकी बात सुनकर दक्ष के पास गये और बोले_'भगवन् ! आप चन्द्रमा पर प्रसन्न होकर शापनिवृत कीजिये। उनका क्षय होने से प्रजा का भी क्षय हो रहा है। तृण, लता, बेलें, औषधियां तथा नाना प्रकार के बीज_ये सब नष्ट हो रहे हैं। इनके न रहने से हमारा नाश ही हो जायगा। फिर हमारे बिना संसार कैसे रह सकता है ? इस बात पर ध्यान देकर आपको अवश्य कृपा करनी चाहिये।' देवताओं के ऐसा कहने पर प्रजापति बोले_'मेरी बात पलटी नहीं जा सकती, एक शर्त पर इसका प्रभाव कम हो सकता है, यदि चन्द्रमा अपनी सब स्त्रियों के साथ समान वर
ताल करें तो सरस्वती नदी के उत्तम तीर्थ में स्नान करने से ये पुनः पुष्ट हो जायेंगे। फिर ये पंद्रह दिनों तक बराबर क्षीण होंगे और पंद्रह दिनों तक बढ़ते रहेंगे। मेरी यह बात सच्ची मानो। पश्चिम समुद्र के तट पर, जहां सरस्वती नदी सागर में मिलती है, जाकर ये भगवान् शंकर की अराधना करें, इससे इन्हें इनकी खोयी हुई कान्ति मिल जायगी।'
इस प्रकार प्रजापतिकी आज्ञा होने से सोम सरस्वती के प्रथम तीर्थ प्रभास क्षेत्र में गये। वहां अमावस्या को उन्होंने स्नान किया, इससे उनकी प्रतिभा बढ़ गयी, फिर वे समस्त संसार को प्रकाशित करने लगे। तब देवतालोग चन्द्रमा को साथ लेकर प्रजापति के पास गये। उन्होंने देवताओं को तो विदा कर दिया और चन्द्रमा से कहा_'बेटा ! आज से अपनी पत्नियों का तथा ब्राह्मण का अपमान न करना। जाओ, सावधानी के साथ मेरी आज्ञा का पालन करते रहना।
यह कहकर प्रजापति ने उन्हें जाने की आज्ञा दे दी। चन्द्रमा अपने लोक में गये और संपूर्ण प्रजा पूर्ववत् प्रसन्न रहने लगी। जनमेजय ! चन्द्रमा को जिस प्रकार शाप मिला था, वह सारा प्रसंग मैंने तुम्हें सुना दिया, साथ ही सब तीर्थों में प्रधान प्रभास_क्षेत्र का प्रभाव भी बता दिया। उस तीर्थ में स्नान करने के पश्चात् बलरामजी चमसोभ्देद नामक तीर्थ में गये, वहां विधिवत् स्नान करके उन्होंने नाना प्रकार के दिन दिये और एक रात वहीं निवास भी किया। दूसरे दिन उदपान तीर्थ में गये, जहां स्नान करने से मनुष्य का कल्याण हो जाता है। इस तीर्थ में सरस्वती नदी का जल जमीन के भीतर छिपा रहता है।

Sunday 9 July 2023

श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को उलाहना, भीम की प्रशंसा तथा भीम और दुर्योधन में वाग्युद्ध, फिर बलरामजी का आगमन और उनका स्वागत

संजय कहते हैं_महाराज ! यों कहकर दुर्योधन जब बारंबार गर्जना करने लगा, उस समय भगवान् श्रीकृष्ण कुपित होकर युधिष्ठिर से बोले_राजन् ! आपने यह कैसी दु:साहसपूर्ण बात कह डाली कि 'तुम हममें से एक को मारकर कौरवों के राजा हो जाओ।' अगर दुर्योधन अर्जुन, नकुल अथवा सहदेव अथवा आपको ही युद्ध के लिये चुन लें, तब क्या होगा ? मैं आपलोगों में इतनी शक्ति नहीं देखता कि गदायुद्ध में दुर्योधन का मुकाबला कर सकें। इसने भीमसेन का वध करने करने के लिये उनके लोहे की मूर्ति के साथ तेरह वर्षों तक गदायुद्ध का अभ्यास किया है। दुर्योधन का सामना करनेवाला इस समय भीमसेन के सिवा दूसरा कोई नहीं है, आपने फिर पहले ही के समान जूआ खेलना शुरू कर दिया ! आपका यह जूआ शकुनि के जूए से कहीं अधिक भयंकर है ! माना कि भीमसेन बलवान् और समर्थ है, परंतु राजा दुर्योधन ने अभ्यास अधिक किया है। एक ओर बलवान हो और दूसरी ओर युद्ध का अभ्यासी हो तो उनमें अभ्यास करनेवाला ही बड़ा माना जाता है। अतः महाराज! आपने अपने शत्रु को समान मार्ग पर ला दिया है। अपने को विपत्ति में फंसाया और हमलोगों की कठिनाई बढ़ा दी। भला कौन ऐसा होगा, जो सब शत्रुओं को जीत लेने के बाद जब एक ही बाकी रह जाय और वह भी संकट में पड़ा हो तो अपने हाथ में आया हुआ राज्य दांव लगाकर हार जाय, एक के साथ युद्ध की शर्त लगाकर लड़ना पसंद करें। यदि हम न्याय से युद्ध करें तो भीमसेन के विजय में भी संदेह है; क्योंकि दुर्योधन का अभ्यास इनसे अधिक है। तो भी अपने कह दिया कि ' हममें से एक को भी मार डालने पर तुम राजा बन जाओगे। यह सुनकर भीमसेन ने कहा_'मधुसूदन ! आप चिन्ता न कीजिये। आज युद्ध में दुर्योधन को मैं अवश्य मार डालूंगा। इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। मुझे तो निश्चय ही धर्मराज की विजय दिखाई देती है। मेरी गदा दुर्योधन की गदा से डेढ़ गुना भारी है। मैं इस गदा से दुर्योधन के साथ भिड़ने का हौसला रखता हूं। आप सब लोग तमाशा देखिये, दुर्योधन की तो विसात ही क्या है, मैं देवताओं सहित तीनों लोकों के साथ युद्ध कर सकता हूं।' संजय कहते हैं_भीमसेन ने जब ऐसी बात कही तो भगवान् बड़े प्रसन्न हुए और उनकी प्रशंसा करते हुए बोले_'महाबाहो ! इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि राजा युधिष्ठिर ने तुम्हारे ही भरोसे अपने शत्रुओं को मारकर उज्जवल राज्यलक्ष्मी प्राप्त की है। धृतराष्ट्र के सब पुत्र तुम्हारे ही हाथ से मारे गये हैं। कितने ही राजे, राजकुमार और हाथी तुम्हारे द्वारा मौत के घाट उतारे जा चुके हैं। कलिंग, मगन, प्राच्य, गांधार और कुरुक्षेत्र के राजाओं का भी तुमने संहार किया है इसी प्रकार आज दुर्योधन को भी मारकर तुम समुद्रसहित यह सारी पृथ्वी धर्मराज के हवाले कर दो। तुमसे भिड़ने पर पापी दुर्योधन अवश्य मारा जायेगा। देखो, तुम इसकी दोनों जांघें तोड़कर अपनी प्रतिज्ञा का पालन करना।' तदनन्तर, सात्यकि ने पाण्डुनन्दन भीम की प्रशंसा की। पाण्डवों तथा पांचालों ने भी उनके प्रति सम्मान भाव प्रदर्शित किया। इसके बाद भीम ने युधिष्ठिर से कहा, 'भैया ! मैं रण में दुर्योधन के साथ लड़ना चाहता हूं, यह पापी मुझे कदापि नहीं परास्त कर सकता। मेरे हृदय में इसके प्रति बहुत दिनों से क्रोध जमा हो रहा है, उसे आज इसके ऊपर छोड़ूंगा और गदा से इसका विनाश करके आपके हृदय का कांटा निकाल दूंगा, अब आप प्रसन्न होइये। अब राजा धृतराष्ट्र अपने पुत्र को मेरे हाथ से मारा गया सुनकर शकुनि की सलाह से किये हुए अपने अशुभ कर्मों को याद करेंगे। यों कहकर भीम ने गदा उठायी और इन्द्र ने जैसे वृत्रासुर को बुलाया था, वैसे ही दुर्योधन को युद्ध के लिये ललकारा। दुर्योधन उनकी ललकार न सह सका, वह तुरंत ही भीम का सामना करने के लिये उपस्थित हो गया। उस समय दुर्योधन के मन में न घबराहट थी न भय, न ग्लानि थी, न व्यथा; वह सिंह के समान निर्भय खड़ा था। उसे देखकर भीमसेन ने कहा_'दुरात्मन् ! तूने तथा राजा धृतराष्ट्र ने हमलोगों पर जो_जो अत्याचार किये थे और वारणावर्त में जो तुम्हारे द्वारा हमारा अहित किया गया, उन सबको याद कर लें। भरी सभा में तूने राजस्वला द्रौपदी को क्लेश पहुंचाया, शकुनि की सलाह लेकर राजा युधिष्ठिर को कपटपूर्वक जूए में हराया तथा निरपराध पाण्डवों पर जितने_जितने अत्याचार तूने किये, उन सबका महान् फल आज अपनी आंखों से देख ले। तेरे ही कारण हमलोगों के पितामह भीष्मजी आज शर_शैय्या पर पड़े हुए हैं। द्रोणाचार्य, कर्ण, शल्य तथा शकुनि_ये सब मारे गये हैं। तेरे भाई, पुत्र, योद्धा तथा कितने ही वीर क्षत्रिय मौत के घाट उतर चुके; अब इस वंश का नाश करने वाला सिर्फ तू ही बाकी रह गया है। आज इस गदा से तुझे भी मार डालूंगा_ इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। आज तेरा घमंड चूर्ण कर दूंगा और राज्य के लिये बढ़ी हुई लालसा भी मिटा दूंगा।' दुर्योधन बोला_वृकोदर ! बहुत बातें बनाने से क्या होगा, मेरे साथ लड़ तो सही, आज युद्ध का तेरा सारा हौसला पूरा कर दूंगा। पापी ! देखता नहीं; मैं हिमालय के शिखर के समान भारी गदा लेकर युद्ध के लिये खड़ा हुआ हूं। मेरे हाथ में गदा होने पर कौन शत्रु मुझे जीतने का साहस कर सकता है। न्यायत: युद्ध हो तो इन्द्र भी मुझे परास्त नहीं कर सकते। कुन्तीनन्दन ! व्यर्थ गर्जना न कर; तुझमें जितना बल हो उसे आज युद्ध में दिखा। संजय कहते हैं_महाराज ! भीमसेन और दुर्योधन में महाभयंकर संग्राम छिड़नेवाला था कि अपने दोनों शिष्यों के युद्ध का समाचार पाकर बलरामजी वहां आ पहुंचे। उन्हें देखकर श्रीकृष्ण तथा पाण्डवों को बड़ी प्रसन्नता है। उन्होंने निकट जाकर उनका चरणस्पर्श किया और विधिवत् उनकी पूजा की। इसके बाद बलरामजी, श्रीकृष्ण, पाण्डवों तथा गदाधारी दुर्योधन को देखकर कहने लगे_'माधव ! मुझे यात्रा में निकले आज बयालीस दिन हो गये। पुष्प नक्षत्र में चला था और श्रवण नक्षत्र में यहां आया हूं। इस समय मैं अपने दोनों शिष्यों का गदायुद्ध देखना चाहता हूं_इसीलिये इधर आया हूं। तदनन्तर युधिष्ठिर ने बलरामजी को गले से लगाकर उनकी कुशल पूछी, श्रीकृष्ण और अर्जुन भी प्रणाम करके उनसे गले मिले। नकुल _सहदेव तथा द्रौपदी के पुत्रों ने भी उन्हें प्रणाम किया। फिर भीमसेन और दुर्योधन ने गदा ऊंची करके उनके प्रति सम्मान प्रकट किया। इस प्रकार सबसे सम्मानित होकर बलरामजी ने सृंजय _पाण्डवों को गले लगाया तथा सब राजाओं से कुशल समाचार पूछा। इसके बाद उन्होंने श्रीकृष्ण और सात्यकि को छाती से लगाकर उनके मस्तक सूंघे। फिर उन दोनों ने भी बड़े प्रेम से उनका पूजन किया। तब धर्मराज युधिष्ठिर ने बलदेवजी से कहा_'भैया बलराम ! अब तुम इन दोनों भाइयों का महान् युद्ध देखो।' उनके ऐसा कहने पर बलरामजी महारथियों से सम्मानित और प्रसन्न होकर राजाओं के मध्य में जा बैठे। फिर तो भीम और दुर्योधन में वैर का अन्त करनेवाला रोमांचकारी युद्ध होने लगा।

Tuesday 4 July 2023

युधिष्ठिर और दुर्योधन का संवाद, युधिष्ठिर के कहने से किसी एक पाण्डव का गदा युद्ध के लिये तैयार होना

संजय कहते हैं_महाराज ! उस सरोवर पर पहुंचकर युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण से कहा_'माधव ! देखिये तो सही दुर्योधन ने जल के भीतर कैसी माया का प्रयोग किया है ? यह पानी को रोककर यहां सो रहा है। यह माया में बड़ा निपुण है। किन्तु यदि साक्षात् इन्द्र भी इन्द्र भी इसकी सहायता करने आवें, तो भी संसार आज इसे मरा हुआ ही देखेगा।' श्रीकृष्ण ने कहा_भारत ! इस मायावी की माया को आप माया से ही नष्ट कर डालिये; आप भी जल में माया का प्रयोग कर इसका वध कीजिये। राजन् ! उद्योग ही सबसे अधिक बलवान है; और कुछ नहीं। उद्योग और उपायों से ही बड़े _बड़े दैत्य, दानव, राक्षस तथा राजा मारे गये हैं, इसलिए आप उद्योग कीजिये। भगवान् के ऐसा कहने पर युधिष्ठिर ने हंसते-हंसते पानी में छिपे हुए आपके पुत्र से कहा_'सुयोधन ! तुमने जल के भीतर किसलिए यह अनुष्ठान आरंभ किया है ? समस्त क्षत्रियों तथा अपने कुल का संहार कराकर अब अपनी जान बचाने के लिये पोखरे में आ घुसे हो ? तुम्हारा यह पहले का दर्प और अभिमान कहां चला गया जो डर के मारे यहां आकर छिपे हो ? सभा में सब लोग तुम्हें शूर कहा करते हैं, किन्तु अब तुम पानी में घुसे हो तो मैं तुम्हारा वह शौर्य व्यर्थ ही समझता हूं। जो कौरव_वंश में जन्म लेने के कारण सदा अपनी प्रशंसा किया करता था वही युद्ध से डरकर पानी में कैसे छिपा बैठा है ? अभी युद्ध का अंत तो हुआ नहीं, फिर तुम्हें जीवित रहने की इच्छा कैसे हो गयी ? इस लड़ाई में पुत्र, भाई, संबंधी मित्र, मामा, बांधव जनों को मरवाकर अब तुम पोखरे में क्यों सो रहे हो ? कहां गया तुम्हारा पौरुष,  कहां गया तुम्हारा अभिमान और कहां गया तुम्हारी वज्र की_सी गर्जना ? तुम तो अस्त्र विद्या के ज्ञाता थे, कहां गया वह सारा ज्ञान ? भारत ! उठो और क्षत्रिय _धर्म के अनुसार हमारे साथ युद्ध करो। हमलोगों को परास्त करके पृथ्वी का राज्य करो अथवा हमारे हाथों भरकर सदा के लिये रणभूमि में सो जाओ।' धर्मराज के ऐसा कहने पर आपके पुत्र ने पानी में से ही जवाब दिया_'महाराज ! किसी भी प्राणी को भय होना आश्चर्य की बात नहीं है, किन्तु मैं प्राणों के भय से यहां नहीं आया हूं। मेरे पास न रथ है, न भाथा। पार्श्वरक्षक और सारथि भी मारे जा चुके हैं। सेना नष्ट हो गयी और मैं अकेला रह गया; इस दशा में मुझे कुछ देर तक विश्राम करने की इच्छा हुई। राजन् ! मैं प्राणों की रक्षा करने या किसी और भय से बचने के लिये अथवा मन में विषाद होने के कारण पानी में नहीं घुसा हूं; सिर्फ तक जाने के कारण ऐसा किया है। तुम भी कुछ देर तक सुस्ता लो, तुम्हारे अनुयायी भी विश्राम कर लें, फिर मैं उठकर तुम सब लोगों के साथ लोहा लूंगा।' युधिष्ठिर ने कहा_सुयोधन ! हम सब लोग सुस्ता चुके हैं और बहुत देर से तुम्हें खोज रहे हैं, इसलिये तुम अभी उठकर युद्ध करो। संग्राम में समस्त पाण्डवों को मारकर समृद्धशाली राज्य का उपभोग करो अथवा हमारे हाथ से भरकर वीरों के मिलनेयोग्य पुण्योंका में चले जाओ।
दुर्योधन बोला_राजन् ! जिनके लिये मैं राज्य चाहता था, वे मेरे सभी भाई मारे जा चुके हैं। पृथ्वी के समस्त पुरुषरत्नों और क्षत्रियपुंगवों का विनाश हो गया है; अब यह भूमि विधवा स्त्री के समान श्रीहीन हो चुकी है; अतः इसके उपभोग के लिये मेरे मन में तनिक भी उत्साह नहीं है। हां आज भी पांडवों तथा पांचालों का उत्साह भंग करके तुम्हें जीतने की आशा रखता हूं। किन्तु जब द्रोण और कर्ण शान्त हो गये, पितामह भीष्म मार डाले गये, तो अब मेरी दृष्टि में इस युद्ध की कोई आवश्यकता नहीं। आज से यह सारी पृथ्वी तुम्हारी ही रहे, मैं इसे नहीं चाहता। मेरे पक्ष के सभी वीर नष्ट हो गये, अतः अब राज्क्य में मेरी रुचि नहीं रही। मैं तो मृगछाला धारण करके आज से वन में ही जाकर रहूंगा। मेरे अपने कहे जानेवाले जब कोई भी मनुष्य जीवित नहीं रहे, तो मैं स्वयं भी जीवित रहना नहीं चाहता। अब तुम जाओ और जिसका राजा मारा गया, योद्धा नष्ट हो गये तथा जिसके रत्न क्षीण हो चुके हैं,  उस पृथ्वी का आनंदपूर्वक उपभोग करो; क्योंकि तुम्हारी आजीविका छीनी जा चुकी है। युधिष्ठिर ने कहा_तात ! तुम जल में बैठे_बैठे प्रलाप न करो। मैं इस संपूर्ण पृथ्वी को तुम्हारे दान के रूप में नहीं लेना चाहता। मैं तो तुम्हें युद्ध में जीतकर ही इसका उपभोग करूंगा। अब तो तुम स्वयं ही पृथ्वी के राजा नहीं रहे, फिर इसका दान कैसे करना चाहते हो ? जब हमलोगों ने अपने कुल में शान्ति कायम करने के लिये धर्मत: याचना की थी, उसी समय तुमने हमें पृथ्वी क्यों नहीं दे दी ! एक बार भगवान श्रीकृष्ण को कोरा जवाब देकर इस समय राज्य देना चाहते हो ? यह कैसी पागलपन की बात है। अब न तो तुम पृथ्वी किसी को दे सकते हो और न छीन ही सकते हो, फिर देने की इच्छा क्यों हुई ? पहले तो सूई की नोक बराबर भी जमीन नहीं देना चाहते थे और आज सारी पृथ्वी देने को तैयार हो गये ! क्या बात है? याद है न, तुमने हमलोगों को जलाने की कोशिश की थी, भीम को विष खिलाकर पानी में डुबाया और विषधर सांपों से डंसवाया। इतना ही नहीं तुमने सारा राज्य छीनकर हमें अपने कपटजाल का शिकार बनाया। तुम्हारे ही आदेश से द्रौपदी के केश और वस्त्र खींचे गये और स्वयं तुमने उसे गालियां सुनायीं। पापी ! इन सब कारण से तुम्हारा जीवन नष्ट_सा हो चुका है। अब उठो और युद्ध करो, इसी में तुम्हारी भलाई है। धृतराष्ट्र ने पूछा _संजय ! मेरा पुत्र दुर्योधन स्वभावत: क्रोधी था, जब युधिष्ठिर ने उसे इस तरह फटकारा तो उसकी क्या दशा हुई? राजा होने के कारण वह सबके आदर के पात्र था, इसलिये ऐसी फटकार उसको कभी नहीं सुननी पड़ी थी। किन्तु उस दिन उसको डांट सहनी पड़ी और वह भी अपने शत्रु पाण्डवों की। संजय ! बताओ, उनकी वे कड़वी बातें सुनकर दुर्योधन ने क्या जवाब दिया? संजय कहते हैं_महाराज ! पानी के भीतर बैठे हुए दुर्योधन को भाइयोंसहित युधिष्ठिर ने जब इस तरह फटकारा तो उनकी कड़वी बातें सुनकर वह क्रोध से दोनों हाथ हिलाने लगा और मन_ही_मन युद्ध का निश्चय करके राजा युधिष्ठिर से बोला_'तुम सभी पाण्डव अपने हितेषी मित्रों को साथ लेकर आये हो, तुम्हारे रथ और वाहन भी मौजूद हैं। तुम्हारे पास बहुत से अस्त्र-शस्त्र होंगे और मैं निहत्था हूं, तुम रथ पर बैठोगे और मैं कहां अकेला_ऐसी दशा में तुम्हारे साथ कैसे युद्ध कर सकता हूं ? युधिष्ठिर ! तुम अपने पक्ष के एक_एक वीर से मुझे बारी_बारी से लड़ाओ। एक को बहुतों के साथ युद्ध के लिये मजबूर करना उचित नहीं है। राजन् ! मैं तुमसे या भीम से जरा भी नहीं डरता। श्रीकृष्ण, अर्जुन तथा पांचालों का भी मुझे भय नहीं है। नकुल, सहदेव, तथा सात्यकि की भी मैं परवा नहीं करता, इनके अतिरिक्त भी तुम्हारे पास जो सैनिक हैं, उनको भी मैं कुछ नहीं समझता। मैं अकेला ही सबको परास्त कर दूंगा। आज भाइयोंसहित तुम्हारा वध करके मैं बाह्लीक, द्रोण, भीष्म, कर्ण, जयद्रथ, भगदत्त, शल्य, भूरीश्रवा और शकुनि के तथा अपने पुत्रों, मित्रों , हितैषियों एवं बन्धु_बान्धवों के ऋण से उऋण हो जाउंगा।' यह कहकर दुर्योधन चुप हो गया। तब युधिष्ठिर ने कहा_'दुर्योधन ! यह जानकर खुशी हुई कि तुम अभी युद्ध का ही विचार रखते हो। यदि तुम्हारी इच्छा हममें से एक_एक के साथ लड़ने की है, तो ऐसा ही करो। कोई भी एक हथियार, जो तुम्हें पसंद है, लेकर मैदान में उतरो और एक ही के साथ लड़ो। बाकी लोग दर्शक बनकर खड़े रहेंगे। इसके अलावा तुम्हारी एक कामना और पूर्ण करता हूं, हममें से एक को भी मार डालोगे तो सारा राज्य तुम्हारा हो जायगा और यदि खुद मारे गये तो स्वर्ग तो तुम्हें मिलेगा ही।' दुर्योधन ने कहा_यदि एक से ही लड़ना है तो मैं युद्ध के लिये ललकारता हूं। किसी भी शूरवीर को मेरा सामना करने के लिये दे दो। तुम्हारे कथनानुसार मैं आयुधों में एकमात्र गदा को ही पसंद करता हूं। तुममें से कोई भी एक वीर, जो मुझे जीतने की शक्ति रखता हो, गदा लेकर पैदल ही आ जाय और मेरे साथ युद्ध करे। युधिष्ठिर ! इस गदा से मैं तुमको, तुम्हारे भाइयों को, पांचालों और सृंजयों को तथा तुम्हारे अन्य सैनिकों को भी परास्त कर सकता हूं। डर तो मुझे इन्द्र से भी नहीं लगता, फिर तुमसे क्या भय करूंगा? युधिष्ठिर बोले_गान्धारीनन्दन ! उठो तो सही, एक_एक के साथ ही गदा युद्ध करके अपने पुरुषत्व का परिचय दो। आओ मेरे ही साथ लड़ो। यदि इन्द्र भी तुम्हारी सहायता करें तो भी आज तुम जीवित नहीं रह सकते। महाराज! युधिष्ठिर के इस कथन को दुर्योधन नहीं सह सका। वह कंधे पर लोहे की गदा रखकर बंधे हुए जल को चीरता हुआ बाहर निकल आया। उस समय सब प्राणियों ने उसे दण्डधारी यमराज के समान ही समझा। उसे पानी से बाहर आया देख पाण्डव तथा पांचाल बहुत प्रसन्न हुए और एक_दूसरे के साथ पर ताली पीटने लगे। दुर्योधन ने इसे अपना उपहास समझा, क्रोध से उसकी त्योरियां चढ़ गयीं। भौहों में तीन जगह बल पड़ गये और वह मानो सबको भस्म कर डालेगा, इस प्रकार श्रीकृष्णसहित पाण्डवों की ओर देखता हुआ बोला_'पाण्डवों ! इस उपहास का फल तुम्हें भोगना पड़ेगा। तुम मेरे हाथ से मारे जाकर इन पांचालों के साथ शीघ्र ही यमलोक में पहुंचोगे ।यों कहकर वह अपने हाथ में गदा लिये खड़ा हुआ, उस समय पाण्डव उसे कोप में भरे हुए यमराज के समान मानने लगे। उसने मेघ के समान गरजकर अपनी गदा दिखाते हुए संपूर्ण पाण्डवों को युद्ध के लिये ललकारा और कहने लगा_'युधिष्ठिर ! तुमलोग एक_एक करके मुझसे युद्ध करने के लिये आते जाओ; क्योंकि एक वीर को एक साथ बहुतों से लड़ना न्याय की बात नहीं है। अगर सब लोग मेरे साथ लड़ना ही चाहो तो भी मैं तैयार हूं, परंतु यह काम उचित है या अनुचित ? यह तो तुम्हें मालूम ही होगा !' कहकर वह अपने हाथ में गदा लिये खड़ा हुआ, उस समय पाण्डव उसे कोप में भरे हुए यमराज के समान मानने लगे। उसने मेघ के समान गरजकर अपनी गदा दिखाते हुए संपूर्ण पाण्डवों को युद्ध के लिये ललकारा और कहने लगा_'युधिष्ठिर ! तुमलोग एक_एक करके मुझसे युद्ध करने के लिये आते जाओ; क्योंकि एक वीर को एक साथ बहुतों से लड़ना न्याय की बात नहीं है। अगर सब लोग मेरे साथ लड़ना ही चाहो तो भी मैं तैयार हूं, परंतु यह काम उचित है या अनुचित ? यह तो तुम्हें मालूम ही होगा !' युधिष्ठिर बोले _दुर्योधन ! जिस समय बहुत_से महारथियों ने मिलकर अकेले अभिमन्यु को मार डाला था, उस समय तुम्हें न्याय_अन्याय की बातक्यों नहीं सूझी ? यदि तुम्हारा धर्म यही कहता है कि बहुत से योद्धा मिलकर एक को न मारें, तो उस दिन तुम्हारी सलाह लेकर बहुत _से योद्धा मिलकर एक को न मारें, तो उस दिन तुम्हारी सलाह लेकर बहुत_से महारथियों ने अभिमन्यु को क्यों मार डाला था ? सच है, स्वयं संकट में पड़ने पर प्रायः सभी लोग धर्म का विचार करने लगते हैं। खैर, जाने दो इन बातों को। कवच पहनो और शिखा बांध लो तथा और जो आवश्यक सामान तुम्हारे पास न हो, वह मुझसे ले लो। इसके सिवा, जैसा कि पहले कह चुका हूं, तुम्हें एक वरदान और देता हूं_तुम पांचों पाण्डवों में से जिसके साथ युद्ध करना चाहो, करो, यदि उसको मार डालोगे तो राज्य तुम्हारा ही होगा और यदि खुद मारे गये तो तुम्हारे लिये स्वर्ग तो है ही। इसके अतिरिक्त भी बताओ, हम तुम्हारा कौन_सा प्रिय कार्य करें ? जीवन की भिक्षा छोड़कर जो चाहो मांग सकते हो। संजय कहते हैं_ तदनन्तर, दुर्योधन सोने का कवच और सुनहरा टोप, ये दो चीजें मांग लीं और उन्हें धारण भी कर लिया। फिर हाथ में गदा लेकर बोला_'राजन् ! तुम्हारे भाइयों में से कोई भी एक आकर मुझसे गदायुद्ध करे। सहदेव, भीम, नकुल , अर्जुन अथवा तुम_कोई भी क्यों न हो, मैं उसके साथ युद्ध करूंगा और उसे जीत भी लूंगा। मेरा ऐसा विश्वास है कि गदायुद्ध में मेरे समान कोई है ही नहीं, गदा से मैं तुम सब लोगों को मार सकता हूं। यदि न्यायत: युद्ध हो तो तुम्हें से कोई भी मेरा सामना नहीं कर सकता। मुझे स्वयं अपने लिये ऐसी गर्भवती बात नहीं कहनी चाहिये, तथापि कहना पड़ा है। अथवा कहने की क्या बात है, मैं तुम्हारे सामने ही सबकुछ सत्य करके दिखा दूंगा। जो मेरे साथ युद्ध करना चाहता हो, वह गदा लेकर सामने आ जाय।'

Sunday 25 June 2023

व्याधों से दुर्योधन का पता पाकर युधिष्ठिर का सेनासहित सरोवर पर जाना और कृपाचार्य आदि का दूर हट जाना

धृतराष्ट्र ने पूछा_'संजय ! पाण्डवों ने रणभूमि में जब हमारी सारी सेना का संहार कर डाला, उस समय बचे हुए महारथी कृतवर्मा, कृपाचार्य तथा अश्वत्थामा ने क्या किया ? और मूर्ख दुर्योधन ने कौन_सा काम किया ? संजय ने कहा_महाराज ! जब राजरानियां नगर की ओर चल दीं और शिविर के दूसरे लोग भी पलायन कर गये, उस समय सारी छावनी सूनी देखकर उन तीनों महारथियों को बड़ा दु:ख हुआ। अब उस स्थान पर मन न लगा; इसलिये वे भी सरोवर की ओर ही चल दिये। उधर, धर्मात्मा युधिष्ठिर अपने भाइयों को साथ लेकर दुर्योधन का वध करने के लिये इधर_उधर विचरने लगे, किन्तु बहुत ढ़ूंढ़ने पर भी वे उसका पता न पा सके। इधर, उनके वाहन बहुत तक गये थे, इसलिये समस्त पाण्डव अपनी छावनी में जाकर सैनिकों सहित विश्राम करने लगे। तदनन्तर कृपाचार्य, अश्वत्थामा और कृतवर्मा उस सरोवर पर गये। जहां दुर्योधन हो रहा था। वहां पहुंचकर वे उससे बोले_'राजन् ! उठो और हमलोगों को साथ लेकर युधिष्ठिर से युद्ध करो या तो युद्ध करके पृथ्वी का राज भोगों या रण में प्राण देकर स्वर्ग प्राप्त करो। पाण्डवों को भी सारी सेना का तुमने संहार कर दिया है, जो सैनिक बच गये हैं, वे भी बहुत घायल हो चुके हैं। अब वे तुम्हारा वेग नहीं सह सकते। हम सर्वथा तुम्हारी रक्षा करेंगे। इसलिये तुम युद्ध के लिये तैयार हो जाओ। दुर्योधन बोला_ जहां इतना बड़ा नर_संहार हुआ है, वहां से आपलोगों को बचकर आये देख मुझे बड़ी प्रसन्नता हो रही है। अवश्य ही हमलोग शत्रुओं पर विजय पायेंगे; किन्तु यह तभी हो सकता है, जब कुछ समय तक विश्राम करके अपनी थकावट दूर कर ले। आपलोग भी बहुत तक गये हैं और मैं भी विशेष घायल हो चुका हूं। उधर पाण्डवों का बल और उत्साह बढ़ा हुआ है। इसलिये इस समय उनके साथ युद्ध करना मुझे पसंद नहीं है। आज एक रात यहां विश्राम करके कल आपलोगों को साथ लेकर शत्रुओं से युद्ध करूंगा। संजय कहते हैं _दुर्योधन के ऐसा कहने पर अश्वत्थामा ने कहा_'राजन् ! तुम्हारा कल्याण हो। उठो, हमलोग अवश्य अपने शत्रुओं को जीतेंगे। मैं अपने यज्ञ_याग, दान, सत्य तथा जप आदि पुण्यकर्मों की सौगंध खाकर कहता हूं, आज मैं सोमकों को अवश्य मार डालूंगा। यदि इसी रात मैं अपने शत्रुओं का संहार न कर डालूं तो सत्पुरुषों को मिलने योग्य यज्ञ का फल मुझे न मिले। इस प्रकार जब वे बातें कर रहे थे, उसी समय मांस के बोझ से थके हुए कुछ व्याधे पानी पीने के लिये अकस्मात् वहां आ पहुंचे। उनकी भीमसेन के प्रति बड़ी भक्ति थी। वहां खड़े होकर व्याधों ने उन लोगों का एकान्त वार्तालाप सुन लिया। उन्हें दुर्योधन की बात भी सुनायी दी। सब देख_सुनकर उन्होंने जाने दिया कि 'राजा दुर्योधन जल में छिपा है, उसका युद्ध करने काश मन नहीं है, तो भी ये महारथी उसे उकसा रहे हैं।'
अब ये आपस में सलाह करने लगे_'यह तो साफ जाहिर हो गया कि दुर्योधन पोखरे के पानी में आ बैठा है। अतः भीमसेन से जाकर कहना चाहिए कि 'दुर्योधन पानी में सो रहा है'। इससे हमें खुशी होगी और बहुत_सा धन मिल जायगा। इस सूखे मांस को ढ़ोकर व्यर्थ का क्लेश उठाने से क्या फायदा है? यह निश्चय करके वे बड़े प्रसन्न हुए, उन्हें धन का लोभ जो था ! मांस का बोझ सिर पर उठाया और छावनी की ओर चल दिये। उधर पाण्डवों ने भी दुर्योधन का पता लगाने के लिये चारों ओर जासूस रवाने किये थे; किन्तु सबने लौटकर यही बताया कि 'वह कहीं भाग गया, उसका कुछ पता नहीं चलता।' जासूसों की बात सुनकर राजा को बड़ी चिंता हुई। उसका पता न लगने से समस्त पाण्डव उदास होकर बैठे थे, इतने में ही व्याधे वहां आ पहुंचे। उन्होंने भीमसेन के पास जाकर जो वहां देखा_सुना था, सब कह सुनाया। तब भीमसेन ने उन्हें बहुत_सा धन देकर विदा किया और धर्मराज से आकर कहा_'महाराज ! जिसके लिये आप चिंता में पड़े हैं, उस दुर्योधन का पता व्याधों द्वारा लग गया है। वह माया से पानी बांधकर पोखरे में सो रहा है।' यह प्रिय समाचार सुनकर भाइयोंसहित युधिष्ठिर बहुत प्रसन्न हुए और भगवान श्रीकृष्ण को आगे करके तुरंत सरोवर की ओर चल दिये। उनके साथ सोमक क्षत्रिय भी थे। जाते समय उनके रथ की घरघराहट बहुत दूर तक सुनाई देती थी। उस समय अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव, धृष्टद्युम्न, शिखंडी, उत्तमौजा, युधामन्यु, सात्यकि, द्रौपदी के पुत्र तथा शेष पांचाल योद्धा, हाथी सवार, घुड़सवार और सैकड़ों पैदलों के साथ युधिष्ठिर पीछे_पीछे गये। तदनन्तर, महाराज युधिष्ठिर सके साथ उस अत्यंत भयंकर द्वैपायन नाक सरोवर के पास, जहां दुर्योधन छिपा था, जा पहुंचे। युधिष्ठिर की सेना ने जब प्रस्थान किया था, उसी समय उसका महान् कोलाहल सुनकर कृतवर्मा, कृपाचार्य और अश्वत्थामा ने दुर्योधन से कहा_'राजन् ! विजयोल्लास से सुशोभित पाण्डव अत्यन्त आनन्द में भरकर इधर ही आ रहे हैं। यदि आप आज्ञा दें तो हमलोग कुछ देर के लिये हट जायें।' उनकी बात सुनकर दुर्योधन ने कहा _'अच्छा, आप लोग जाइये। उनसे ऐसा कहकर वह सरोवर के भीतर चला गया और माया से जल को बांध दिया। कृपाचार्य आदि महारथी राजा की आज्ञा लेकर शोकमग्न हो वहां से दूर चले गये। रास्ते में उन्हें एक बरगद का पेड़ दिखाई पड़ा। वे थके तो थे ही, उसके नीचे बैठ गये और राजा दुर्योधन के विषय में विचार करने लगे। ' अब युद्ध किस तरह होगा ? राजा दुर्योधन की क्या दशा होगी ? पाण्डवों को दुर्योधन का पता कैसे लगेगा ?' यही सब सोचते_सोचते उन्होंने घोड़ों को रथ से खोल दिया और सब_के _सब वृक्ष के नीचे आराम करने लगे।

दुर्योधन का सरोवर में प्रवेश और युयुत्सु का हस्तिनापुर जाना

संजय कहते हैं _महाराज ! तदनन्तर शकुनि के अनुचर क्रोध में भर गये और प्राणों का मोह छोड़कर उन्होंने पाण्डवों को चारों ओर से घेर लिया। किन्तु अर्जुन और भीमसेन ने उसकी प्रगति रोक दी। वे लोग शक्ति, ऋष्टि हाथ में लेकर सहदेव को मार डालने की इच्छा से आगे बढ़ रहे थे, परन्तु अर्जुन ने गाण्डीव के द्वारा उनका संकल्प व्यर्थ कर दिया। उन्होंने भल्ल मारकर उन योद्धाओं की आयुधोंसहित भुजाओं तथा मस्तकों को काट डाला और उनके घोड़ों को भी मौत के घाट उतार दिया। इस तरह अपनी सेना का संहार देखकर राजा दुर्योधन को बड़ा क्रोध हुआ। उसने मरने से बचे हुए सब योद्धाओं को एकत्रित किया, उनमें सौ तो रथी थे और बाकी कुछ हाथी सवार, घुड़सवार और पैदल थे। सबके इकठ्ठे हो जाने पर दुर्योधन ने उनसे कहा_'वीरों ! तुमनलोग पाण्डवों को उनके मित्रों सहित मार डालो, साथ ही सेनासहित धृष्टद्युम्न का भी संहार कर डालो। इसके बाद शीघ्र मेरे पास लौट आना। दुर्योधन की आज्ञा शिरोधार्य करके वे रणोन्मत्त वीर पाण्डवों की ओर दौड़े। उन्हें आते देख पाण्डव भी बाणों की बौछार करने लगे। कुछ ही क्षणों में वह सेना पाण्डवों के साथ से मारी गयी, उसे कोई बचाने वाला न मिला। वह युद्ध के लिये प्रस्थित तो हुई, मगर भय के मारे ठहर न सकी। पाण्डव_दल के बहुत_से सैनिकों ने मिलकर आपके उन योद्धाओं का कुछ ही क्षणों में सफाया कर डाला। उनमें _से एक भी सिपाही नहीं बचा। महाराज ! आपके पुत्र ने अट्ठारह अक्षौहिणी सेना इकट्ठी की थी, किन्तु पाण्डव और सृंजयों ने सबका अन्त कर डाला। आपकी ओर से लड़ने वाले हजारों राजाओं में केवल दुर्योधन ही उस समय दिखायी पड़ा, वह भी बहुत घायल हो चुका था। उसने अपने चारों ओर दृष्टिपात किया, किन्तु सारी पृथ्वी सूनी दिखायी पड़ती। दुर्योधन ने जब अपने को सब योद्धाओं से रहित अकेला पाया और पाण्डवों को सफल मनोरथ एवं प्रसन्न देखा तो उसे बड़ा शोक हुआ। उसके पास न सेना थी न सवारी, इसलिये वह भाग जाने का विचार करने लगा। धृतराष्ट्र ने पूछा_संजय ! जब मेरे सब सैनिक मार डाले गये तो सारी छावनी सूनी हो गयी, उस समय पाण्डवों के पास कितनी सेना बच गयी थी ? अकेला हो जाने पर मेरे मूर्ख पुत्र दुर्योधन ने क्या किया ? संजय ने कहा_महाराज ! उस समय पाण्डवों के पास दो हजार रथी, सात सौ हाथी सवार, पांच हजार घुड़सवार और दस हजार पैदल थे। उनकी इतनी सेना अभी बची हुई थी। राजा दुर्योधन जब अकेला हो गया और उसे समरभूमि में अपना कोई भी अपना सहायक नहीं दिखायी पड़ा तो अपने मरे हुए घोड़े को वहीं छोड़कर वह पूर्व दिशा की ओर पैदल ही भागा। जो एक दिन ग्यारह अक्षौहिणी सेना का मालिक था वहीं दुर्योधन गदा लेकर अब पैदल ही सरोवर की ओर भागा जा रहा था। अभी थोड़ी ही देर गया था कि उसे धर्मात्मा विदुरजी की कही हुई बातें याद आने लगीं। उसने सोचा_'अहो ! हमारा और इन क्षत्रियों का जो महान् संहार हुआ है, इसे महान् बुद्धिमान विदुरजी ने पहले ही जान लिया था।' इस प्रकार की बातें सोचता हुआ वह सरोवर में प्रवेश करने के लिये बढ़ता चला गया। उस समय अपनी सेना का संहार देखकर उसका हृदय शोक से संतप्त हो रहा था। राजन् ! दुर्योधन की सेना में कई लाख वीर थे, किन्तु उस समय अश्वत्थामा, कृतवर्मा, तथा कृपाचार्य के सिवा कोई भी जीवित नहीं दिखाई पड़ता था। मुझे कैद में पड़ा देख धृष्टद्युम्न ने सात्यकि से हंसकर कहा_'इसको कैद करके क्या करना है, इसके जीवित रहने से अपना कोई लाभ तो है ही नहीं।' उसकी बात सुनकर सात्यकि ने मेरा वध करने के लिये तीखी तलवार उठायी; किन्तु श्रीवेदव्यासजी ने सहसा वहां प्रकट होकर कहा_'संजय को जीवित छोड़ दो, इसे किसी तरह मारना नहीं।' व्यासजी की बात सुनकर सात्यकि ने मुझसे कहा_'सात्यकि ने मुझसे कहा_'संजय ! जा अपना कल्याण साधन कर।' उसकी आज्ञा पाकर संध्या के समय में वहां से हस्तिनापुर के लिये प्रस्थित हुआ। उस समय मेरे पास न कवच था, न कोई हथियार। चलते _चलते जब मैं एक कोस इधर आ गया तो गदा हाथ में लिये दुर्योधन को अकेला खड़ा देखा, उसके शरीर पर बहुत _से घाव हो गये थे। मुझपर दृष्टि पड़ते ही उसकी आंखों में आंसू भर गये, वह अच्छी तरह मेरी ओर देख न सका। मैं भी उसे उस अवस्था में देख शोक में डूब गया, कुछ देर तक मेरे मुंह से कोई बात न निकल सकी। तदनन्तर मैंने अपने कैद होने और व्यासजी की कृपा से जीते-जी छुटकारा पाने का समाचार कह सुनाया। सुनकर थोड़ी देर तक कुछ सोचता रहा, इसके बाद उसने अपने भाइयों और सेना का हाल पूछा। मैंने भी जो कुछ आंखों देखा था, वह सब बता दिया और कहा_राजन् ! तुम्हारे भाई मारे गये और सारी सेना का संहार हो गया। रणभूमि से चलते समय व्यासजी ने मुझसे कहा था कि तुम्हारे पक्ष में तीन ही महारथी बच गये हैं।' यह सुनकर उसने कहा_'संजय ! तुम प्रज्ञा चक्षु महाराज से जाकर कहना कि 'आपका पुत्र दुर्योधन उस महासंग्राम से जीवित बचकर पानी से भरे सरोवर में सो रहा है, वह बहुत घायल हो चुका है।' यों कहकर दुर्योधन ने उस सरोवर में प्रवेश किया और माया से उसका पानी बांध दिया। इसके बाद कृपाचार्य, अश्वत्थामा और कृतवर्मा भी उधर ही आ निकले; इन तीनों महारथियों के घोड़े बहुत तक गये थे। मेरे पास आकर उन्होंने कहा_'संजय ! सौभाग्य की बात है कि तुम जीवित हो। 'फिर वे लोग आपके पुत्र का समाचार पूछते हुए बोले_'संजय ! क्या हमारे राजा दुर्योधन जीवित हैं ?' मेरी बात सुनकर वे महारथी थोड़ी देर तक वहां विलाप करते रहे, किन्तु पाण्डवों को रण में खड़े देख वहां से भाग चले। उन्होंने मुझे भी कृपाचार्य के रथ में बिठा लिया।  फिर सब लोग छावनी पर आ गये। सूर्यास्त निकट था,  छावनी के पहरेदार घबराये हुए थे; आपके पुत्रों का मरण सुनकर वे सब एक साथ रो पड़े। तदनन्तर स्त्रियों की रक्षा में नियुक्त हुए वृद्ध पुरुषों ने राजरानियों को साथ लेकर नगर की ओर प्रस्थान करने का विचार किया। बेचारी रानियां पतियों का मरण का समाचार सुनकर कुररी के समान विलाप करने लगीं। वे हाय ! हाय ! करती हुई हाथों से सिर और छाती पीटने लगीं। उनका करुणक्रन्दन चारों ओर फैल गया। राज्यमंत्री व्याकुल हो उठे, उनका गला भर आया ; वे रानियों को साथ लेकर नगर की ओर प्रस्थित हुए; साथ में रक्षा करने के लिये छड़ीदार सिपाही भी थे। रक्षा करनेवाले सिपाही रथ पर बैठकर अपनी_अपनी स्त्रियों को साथ ले नगर की ओर जा रहे थे। राजमहल में रहने पर जिन राशियों को सूर्य भी नहीं देख पाते थे। उन्हें ही नगर को जाते समय साधारण लोग भी दे रहे थे। उस समय ग्वाले और भेड़ चरानेवाले तक भीमसेन के डर से नगर की ओर भाग रहे थे। उस भगदड़ के समय युयुत्सु शोक से मूर्छित हो मन_ही_मन सोचने लगा_'भयंकर पराक्रम करनेवाले पाण्डवों ने ग्यारह अक्षौहिणी सेना के स्वामी राजा दुर्योधन को परास्त कर दिया, उसके सब भाइयों को मार डाला और भीष्म और द्रोण जैसे कौरव_वीर भी मौत के घाट उतर गये। भाग्यवश केवल मैं बच गया हूं। दुर्योधन के मंत्री रानियों को साथ लेकर नगर की ओर भागे जा रहे हैं। अब उचित यही होगा कि मैं युधिष्ठिर तथा भीमसेन से पूछकर उनके साथ नगर में चला जाऊं।' यह सोचकर उसने युधिष्ठिर और भीमसेन से अपना मनोभाव प्रकट किया। राजा युधिष्ठिर बड़े दयालु हैं, युयुत्सु की बात सुनकर वे बहुत प्रसन्न हुए और उसे छाती से लगाकर उन्होंने जाने की आज्ञा दे दी। तब युयुत्सु ने अपने रथ पर बैठकर घोड़ों को बड़ी तेजी से हांका और राजरानियों को भी साथ लेकर नगर में प्रवेश किया। उस समय सूर्यास्त हो रहा था। नगर में पहुंचते ही उसका गला भर आया, आंखों से आंसुओं की धारा बह चली। इसी अवस्था में उसे विदुरजी मिल गये, उसे देखते ही विदुरजी के नेत्रों में भी अश्रुप्रवाह जारी हो गया। वे विनीत भाव से सामने खड़े हुए युयुत्सु से बोले_' बेटा ! इस कुरुवंश का संहार हो जाने पर भी तुम अभी जीवित हो_ यह बड़े सौभाग्य की बात है ? किन्तु राजा युधिष्ठिर के नगर में प्रवेश करने के पहले तुम यहां कैसे आ गये। इसका कारण विस्तारपूर्वक बताओ।' युयुत्सु ने कहा_' तात ! अपने जाति, भाई और पुत्र के साथ जब मामा शकुनि मारे गये, उस समय राजा दुर्योधन रक्षकों से रहित हो जाने के कारण अपने मरे हुए घोड़ों को वहीं छोड़ डर के मारे पूर्व दिशा की ओर भाग गये। उनके भागते ही छावनी के सब लोग डरकर भागने लगे। फिर स्त्रियों के रक्षक भी राजा और उनके भाइयों की रानियों को सवारी पर बिठाकर भाग चले। तब मैं भी राजा युधिष्ठिर और भगवान् श्रीकृष्ण से पूछकर भागते हुए लोगों की रक्षा के लिये हस्तिनापुर तक आ गया। युयुत्सु की बात सुनकर विदुरजी ने सोचा, 'इसने वही काम किया है, जो ऐसे अवसर पर उचित था।' अतः वे बहुत प्रसन्न हुए और उसकी प्रशंसा करते हुए बोले_'बेटा ! यह ठीक ही हुआ है। दयालु होने के कारण तुमने अपने कुलधर्म की रक्षा की है। उस संहारकारी संग्राम से आज तुम्हें सकुशल लौटे देखकर मुझे बड़ा आनन्द मिला है। अपने अंधे पिता के तुम्हीं लाठी कू सहारे हो। विपत्ति में डूबकर दु:ख पाते हुए राजा धृतराष्ट्र को धैर्य देने के लिये केवल तुम्हीं जीवित हो। आज यहां रहकर विश्राम करो, कर सवेरे ही युधिष्ठिर के पास चले जाना।' यह कहकर विदुरजी आंसू बहाते हुए चले। उन्होंने युयुत्सु को राजभवन में भेजकर स्वयं भी प्रवेश किया। उस समय वहां नगर और प्रांत के लोग एकत्रित होकर बड़े दु:ख से हाहाकार कर रहे थे। वह भवन आनंदशून्य और श्रीहीन दिखाई देता था। राजमहल की यह अवस्था देखकर विदुरजी को बड़ा कष्ट हुआ। वे मन_ही_मन विकल हो धीरे_धीरे उच्छ्वास लेते हुए वहां से लौटकर नगर में चले गये। युयुत्सु ने वह रात अपने ही घर में रहकर व्यतीत की।