Monday 20 January 2020

अर्जुन की आज्ञा से दोनों सेनाओं का रणभूमि में शयन तथा दुर्योधन और द्रोण की रोषपूर्ण बातचीत

संजय कहते हैं___व्यासजी के इस प्रकार समझाने पर धर्मराज युधिष्ठिर ने स्वयं तो कर्ण को मारने का विचार छोड़ दिया, किन्तु धृष्टधुम्न से कहा___’ वीरवर ! तुम द्रोणाचार्य का सामना करो; क्योंकि उनका ही विनाश करने के लिये तुम धनुष_ बाण, कवच और तलवार के साथ अग्नि से प्रकट हुए हो। पूर्ण उत्साह के साथ द्रोण पर धावा करो। तुम्हें तो उनसे किसी प्रकार का भय होना ही नहीं चाहिये। जन्मेजय, शिखण्डी, यशोधर, नकुल, सहदेव, द्रौपदी के पुत्र, प्रभद्रकगण, द्रुपद, विराट, सात्यकि, केकयकुमार और अर्जुन___ ये सब_ के_ सब द्रोण को मार डालने के लिये चारों ओर से आक्रमण करें। इसी प्रकार हमारे रथी, हाथीसवार, घुड़सवार और पैदल योद्धा भी महारथी द्रोण को रथ में मार गिराने का प्रयत्न करें।‘ पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर की ऐसी आज्ञा होने पर रथी सैनिक आचार्य द्रोण की वध करने के लिये उनपर टूट पड़े। उन्हें सहसा आते देख द्रोणाचार्य ने अपनी पूरी शक्ति लगाकर आगे बढ़ने से रोक दिया। तब राजा दुर्योधन ने भी आचार्य की जीवन_रक्षा के लिये पाण्डवों पर धावा किया। फिर तो दोनों ओर के योद्धाओं में युद्ध छिड़ गया। उस समय बड़े_ बड़े  महारथी भी नींद से अंधे हो रहे थे। थकावट से उनका बदन चूर_चूर हो रहा था। उनकी समझ में कुछ भी नहीं आता था कि क्या करना चाहिये।
वह भयानक अर्धरात्रि निद्रार्ध सैनिकों के लिये हजार पहर की_सी जान पड़ती थी। किसी में भी लड़ने का उत्साह नहीं रह गया था, सब शिथिल एवं दीन हो रहे थे। आपके तथा शत्रुओं के सैनिकों के पास न कोई अस्त्र रह गया था, न बाण। तो भी क्षत्रियधर्म का खयाल करके वे सेना का परित्याग नहीं कर सके थे। कुछ तो नींद से इतने अंधे हो गये थे कि हथियार फेंककर सो रहे। कुछ लोग हीथियों पर, कुछ रथों पर और कुछ घोड़ों पर ही झपकियाँ लेने लगे। घोर अंधकार में नींद से नींद बन्द हो जाते थे तो भी शूरवीर अपने शत्रुपक्ष के वीरों का संहार कर रहे थे। कुछ तो नींद में इतने बेसुध हो रहे थे कि शत्रु उन्हें मार रहे थे और उनको पता ही नहीं चलता था। सैनिकों की यह अवस्था देख अर्जुन समस्त दिशाओं को निनादित करते हुए ऊँची आवाज में बोले___’ योद्धाओं ! इस समय तुम्हारे वाहन थक गये हैं, तुमलोग भी नींद से अंधे हो रहे हो। इसलिये यदि तुम्हें स्वीकार हो तो थोड़ी देर के लिये लड़ाई बन्द कर दो और यहीं सो जाओ। फिर चन्द्रोदय होने पर जब नींद का वेग कम हो और थकावट दूर हो जाय तो दोनों दलों के लोग पुनः युद्ध छेड़ेंगे। धर्मात्मा अर्जुन की बात सबने मान ली और दोनों पक्ष की सेनाएँ युद्ध बन्द कर विश्राम लेने लगीं। अर्जुन के इस प्रस्ताव की देवताओं और ऋषियों ने भी सराहना की। विश्राम मिल जाने से आपके सैनिकों को भी बड़ा सुख हुआ। वे अर्जुन की प्रशंसा करते हुए कहने लगे___'महाबाहु अर्जुन ! तुममें वेद, अस्त्र, बुद्धि, पराक्रम और धर्म___सबकुछ है। तुम जीवों पर दया करना जानते हो। तुमने हमें जो आराम दिया है, इसके बदले हम भगवान् से प्रार्थना करते हैं कि तुम्हारा कल्याण हो। वीरवर ! तुम्हारे सभी मनोरथ शीघ्र पूरे हों। इस प्रकार पार्थ की प्रशंसा करते करते वे नींद के पराभूत हो सो गये। कोई घोडों की पीठ पर लेटे थे तो कोई रथ की बैठक में लुढ़क गये थे। कुछ लोग हाथी के कंधों पर सोते थे और कुछ जमीन पर ही पड़ गये थे। नाना प्रकार के आयुध, गदा, तलवार, फरसा, प्रास और कवच धारण किये हुए ही लोग अलग_ अलग पड़े हुए थे। राजन् ! उस समय अत्यंत थके हुए हाथी, घोड़े और सैनिक___ सभी युद्ध से विश्राम पाकर गाढ़ी नींद में सो गये थे। तदनन्तर दो घड़ी के बाद पूर्व दिशा में ताराओं के तेज को  क्षीण करते हुए भगवान्  चन्द्रदेव का उदय हुआ। क्षणभर में ही सारा जगत् प्रकाशमान हो गया। अन्धकार की नाम_ निशान भी न रहा। चन्द्रकमलों के सुकोमल स्पर्श से सारी सेना जाग उठी। फिर उत्तम लोकों को पाने की इच्छा रखनेवाले दोनों दल के योद्धाओं में लोकसंहारकारी संग्राम आरम्भ हो गया।
उस समय दुर्योधन द्रोणाचार्य के पास गया और उनके उत्साह और तेज तो उत्तेजना देने के लिये क्रोध में भरकर बोला____' आचार्य ! इस समय शत्रु थककर विश्राम ले रहे हैं, उत्साह खो बैठे हैं और विशेषतः हमारे दाँव में फँस गये हैं; ऐसी दशा में भी युद्ध में उनपर किसी तरह की रियायत नहीं होनी चाहिये। आजतक हम ऐसे मौकों पर आपको प्रसन्न रखने के लिये सब तरह से क्षमा करते आये हैं; उसका फल यह हुआ है कि पाण्डव थके होने पर भी अधिक बलवान् होते गये हैं।
ब्रह्मास्त्र आदि जितने भी दिव्य अस्त्र हैं, वह सब यदि किसी एक के पास हैं तो वे आप ही हैं। संसार में पाण्डव या हमलोग___ कोई भी धनुर्धर युद्ध में आपकी समानता नहीं कर सकते। द्विजवर ! इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि आप अपने दिव्य अस्त्रों से देवता, असुर और गंधर्वोंसहित तीनों लोकों का संहार कर सकते हैं। इतने शक्तिशाली होकर भी आप पाण्डवों को अपना शिष्य समझकर अथवा मेरे दुर्भाग्य के कारण उनको क्षमा ही करते जाते हैं।‘ दुर्योधन की बात सुनकर आचार्य द्रोण कुपित होकर बोले___’ दुर्योधन ! मैं बूढ़ा हो गया तो भी संग्राम में अपनी शक्तिभर लड़ने की चेष्टा करता हूँ। परन्तु जान पड़ता है, तुम्हें विजय दिलाने के लिये मुझे नीचकर्म भी करना पड़ेगा। ये सब लोग उन अस्त्रों को नहीं जानते और मैं जानता हूँ, इसीलिये मैं उन्हीं अस्त्रों का प्रयोग करके इन्हें मार डालूँ___ इससे बढ़कर खोटा काम और क्या हो सकता है ? बुरा या भला जो भी काम तुम कराना चाहो, तुम्हारे कहने से ही वह सब कुछ करूँगा; अन्यथा अपनी इच्छा से तो अशुभ कर्म मुझसे नहीं होगा। समस्त पांचाल राजाओं का संहार करके युद्ध में पराक्रम दिखाने के बाद ही अब कवच उतारूँगा। इसके लिये मैं अपने हथियार छूकर शपथ खाता हूँ। परन्तु तुम जो यह समझते हो कि अर्जुन युद्ध में थक गये हैं, यह तुम्हारी भूल है। अर्जुन का सच्चा पराक्रम मैं सुनाता हूँ, सुनो। सव्यसाची के कुपित होने पर देवता, गन्धर्व, यक्ष और राक्षस भी उन्हें नहीं जीत सकते। खाण्डव_ वन में उन्होंने इन्द्र का सामना किया और अपने बाणों से उनकी वर्षा रोक दी तथा बल के घमण्ड में फूले हुए यक्ष, नाग और दैत्यों को परास्त किया। याद है कि नहीं, घोषयात्रा के समय जब चित्रसेन आदि गन्धर्व तुम्हें बाँधकर लिये जाते थे, उस समय अर्जुन ने छुटकारा दिलाया था ? देवताओं के शत्रु निवातकवच नामक दैत्यों को, जिन्हें स्वयं देवता भी नहीं मार सके थे, अर्जुन ने ही परास्त किया। हिरण्यपुर में रहनेवाले हजारों दानवों को उन्होंने जीत लिया था, उन पुरुषसिंह अर्जुन को मनुष्य कैसे हरा सकता है ? हर तरह से चेष्टा करने पर भी उन्होंने तुम्हारी सेना का संहार कर डाला, यह सब तो तुम रोज आँखों से देखते हो।‘ महाराज ! इस प्रकार जब द्रोणाचार्य अर्जुन की प्रशंसा करने लगे तो आपके पुत्र ने कुपित होकर कहा___’आज मैं दुःशासन, कर्ण और मामा शकुनि सब मिलकर कौरव_सेना को दो भागों में बाँटकर जो जगह मोर्चाबन्दी करेंगे और युद्ध में अर्जुन को मार डालेंगे।‘  यह सुनकर आचार्य मुस्कराते हुए बोले___’अच्छा जाओ, परमात्मा ही कुशल करें। भला, कौन ऐसा क्षत्रिय है जो गाण्डीवधारी अर्जुन का नाश कर सकें ? दुर्योधन ! मनुष्य की तो बात ही क्या है___इन्द्र, वरुण, यम, कुबेर तथा असुर, नाग और राक्षस भी उसका बाल बाँका नहीं कर सकते। तुम जो कुछ कह रहे हो, ऐसी बातें मूर्ख किया करते हैं। भला संग्राम में अर्जुन से लोहा लेकर कौन कुशलपूर्वक घर लौट सकता है ? तुम तो निर्दयी हो और पाप में ही तुम्हारा मन बसता है; इसलिये तुम्हारा सब पर संदेह रहता है तथा जो लोग तुम्हारे हितसाधन में लगे हैं, उनके प्रति भी  अंट_संट बातें बकवास किया करते हो। तुम भी तो खानदानी क्षत्रिय हो; जाओ न अपने लिये खुद ही अर्जुन से लड़ो और उन्हें मार डालो। इन सब निरपराध सिपाहियों की जान क्यों मरवाना चाहते हो ? तुम्ही इस वैर_विरोध के मूल कारण हो; इसलिये स्वयं ही जाकर अर्जुन का सामना करो और साथ में जाय तुम्हारा यह मामा, जो कपट से जूआ खेलने में बहादुर है। यह धूर्त जुआरी, जिसने दूसरों को धोखा देने में ही अपनी बुद्धि का परिचय दिया है, तुम्हें पाण्डवों से विजय दिलायेगा ? तुम भी धृतराष्ट्र को सुना_सुनाकर कर्ण के साथ बड़ी उमंग से कहा करते थे, ‘पिताजी ! मैं, कर्ण और दुःशासन___ तीनों मिलकर पाण्डवों को जीत लेंगे।‘ तुम्हारा यह डींग मारना मैंने सभा में कई बार सुना है। आज उन्हें साथ लेकर प्रतिज्ञा पूरी करो, कही हुई बात सत्य करके दिखाओ। वह देखो, तुम्हारा शत्रु अर्जुन निर्भीक होकर सामने ही खड़ा है; क्षत्रिय धर्म का खयाल करके युद्ध करो। अर्जुन के हाथ से तुम्हारा मारा जाना जीत होने से कहीं अच्छा है। जाओ लड़ो।‘ यह कहकर आचार्य द्रोण जिधर शत्रु खड़े थे, उधर ही चल दिये। फिर सेना को दो भागों में बाँधकर युद्ध आरम्भ हुआ।

Sunday 12 January 2020

युधिष्ठिर का विषाद और भगवान् कृष्ण तथा व्यासजी के द्वारा उसका निवारण

धृतराष्ट्र ने पूछा___संजय ! अब आगे की बात बताओ। घतोत्कच के मारे जाने पर कौरव_ पाण्डवों में किस प्रकार युद्ध हुआ ? संजय ने कहा___ महाराज ! कर्ण के द्वारा उस राक्षस के मारे जाने पर आपके सैनिक बड़े प्रसन्न हुए। वे ऊँचे स्वर से गर्जना करने लगे और बड़े वेग से इधर_ उधर दौड़ने लगे। उधर उस घोर अंधकारमयी रजनी में पाण्डवसेना का संहार हो रहा था, इससे राजा युधिष्ठिर का मन बहुत छोटा हो गया। वे भीमसेन से बोले___ महाबाहो !धृतराष्ट्र की सेना को रोको; मैं तो घतोत्कच के मरने से बहुत घबरा गया हूँ, मुझसे कुछ नहीं हो सकता।‘ यह कहकर वे अपने रथ पर बैठ गये। आँखों से आँसू बहने लगे। उच्छवास चलने लगा। उस पल कर्ण का पराक्रम देखकर वे अत्यंत अकील हो गये। उनको इस अवस्था में देखकर भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा___’कुन्तीनन्दन ! आप खेद न कीजिये, आपके लिये यह व्याकुलता शोभा देती। यह तो अज्ञानी मनुष्यों का काम है। उठिये और युद्ध कीजिये। इस महासंग्राम का गुरुत्तर भाग संभालिये। आप ही घबरा जायेंगे तब तो विजय मिलने में संदेह ही रहेगा।‘ श्रीकृष्ण की बात सुनकर युधिष्ठिर ने आँखें पोंछते हुए कहा___’महाबाहो ! मुझे धर्म की गति मालूम है। जो मनुष्य किसी के किये हुए उपकारों को नहीं मानता, उसे ब्रह्महत्या का पाप लगता है। जनार्दन ! घतोत्कच अभी बालक था तो भी उसने यह जानकर कि अर्जुन स्वर्गप्राप्ति के लिये तप करने गये हैं, वन में हमलोगों की बड़ी सहायता की थी। इसी प्रकार इस महासमर में भी उसने हमारे लिये बड़ा कठिन पराक्रम किया है। वह मेरा भक्त था, मुझसे प्रेम करता था तथा मेरा भी उसपर स्नेह था। इसीलिये उसकी मृत्यु से मैं शोकसंतप्त हो रहा हूँ, रह_रहकर मूर्छा_सी आ रही है। भगवन् ! देखिये, कौरव किस प्रकार अपनी सेना को खदेड़ रहे हैं। तथा महारथी द्रोण तथा कर्ण कितने सावधान दिखायी दे रहे हैं। किस तरह हर्षनाद कर रहे हैं ? जनार्दन !  आपके और हमारे जीते_जी घतोत्कच कर्ण के हाथों से क्योंकर मारा गया ?  अर्जुन के देखते_ देखते उसकी मृत्यु हुई है। वीरवर !  अब मैं स्वयं ही कर्ण को मारने के लिये जाऊँगा।‘ यों कहकर वे अपना महान् धनुष टंकारते हुए वे बड़ी उतावली के साथ चल दिये। यह देख भगवान् कृष्ण ने अर्जुन से कहा___'ये राजा युधिष्ठिर कर्ण को मारने के लिये चले जा रहे हैं। इस समय इन्हें अकेले छोड़ देना ठीक नहीं होगा।‘ यह कहकर उन्होंने बड़ी शीघ्रता के साथ घोड़ों को हाँका और दूर पहुँचे हुए राजा को पकड़ लिया। इतने में ही भगवान् व्यासजी उनके समीप प्रकट होकर बोले____'कुन्तीनन्दन ! यह बड़े सौभाग्य की बात है कि कर्ण के साथ कई बार मुठभेड़ होने पर भी अर्जुन जीवित बच गये हैं। उसने अर्जुन को ही मारने की इच्छा से इन्द्र की दी हुई शक्ति बचा रखी थी। द्वैरथ_युद्ध में उसका सामना करने के लिये अर्जुन नहीं गये___ यह बहुत अच्छा हुआ। यदि जाते तो आज कर्ण इन पर ही उस शक्ति का प्रहार करता, ऐसी दशा में तुम और भयंकर विपत्ति में फँस जाते। सूतपुत्र के हाथ से घतोत्कच का मारा जाना जाते। सूतपुत्र के हाथ से घतोत्कच का ही मारा जाना अच्छा हुआ। काल ने ही इन्द्र की शक्ति से उसका नाश किया है__ ऐसा समझकर तुम्हें क्रोध और शोक नहीं करना चाहिये। युधिष्ठिर ! सभी प्राणियों की एक दिन यही गति होती है। इसलिए तुम चिंता छोड़कर अपने सभी भाइयों के साथ ले कौरवों का सामना करो। आज के पाँचवें दिन तुम्हारा इस पृथ्वी पर अधिकार हो जायगा। सदा धर्म का ही चिंतन करते रहो। दया, तप, दान, क्षमा और सत्य आदि सद्गुणों का प्रसन्नतापूर्वक पालन करो। जिधर धर्म होता है, उसी पक्ष की विजय होती है।' यह कहकर व्यासजी वहीं पर अन्तर्धान हो गये।