Sunday 28 August 2016

उद्योग-पर्व---विदुरनीति ( छठा अध्याय )

विदुरनीति ( छठा अध्याय )
विदुरजी कहते हैं---जब कोई माननीय वृद्ध पुरुष निकट आता है, उस समय नवयुवक व्यक्ति के प्राण ऊपर को उठने लगते हैं; फिर जब वह वृद्ध के स्वागत में उठकर खड़ा होता और प्रणाम करता है, तो पुनः प्राणों को वास्तविक स्थिति में प्राप्त करता है। धीर पुरुष को चाहिये, जब कोई साधु पुरुष अतिथि के रूप में घर पर आवे तो पहले आसन देकर, जल लाकर उसके चरण पखारे, फिर उसकी कुशल पूछकर अपनी स्थिति बतावे,  तदनन्तर आवश्यकता समझकर अन्न भोजन करावे। वेदवेत्ता जिसके घर दाता के लोभ, भय या कंजूसी के कारण जल, मधुपर्क और गौ को नहीं स्वीकार करता, श्रेष्ठ पुरुषों ने उस गृहस्थ का जीवन व्यर्थ बताया है। वैद्य, ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट, चोर, क्रूर, शराबी, गर्भहत्यारा, सेनाजीवी और वेदविक्रेता---ये यद्यपि पैर धोने के योग्य नहीं हैं, तथापि यदि अतिथि होकर आवें तो विशेष प्रिय यानि आदर के योग्य होते हैं। नमक, पका हुआ अन्न, दही, दूध, मधु, तेल, घी, तिल, माँस, फल, मूल, साग, लाल कपड़ा, सब प्रकार की गंध और गुड़---इतनी वस्तुएँ बेचने योग्य नहीं हैं। जो क्रोध न करनेवाला, ढ़ेला, पत्थर और सुवर्ण को एक सा समझनेवाला, शोकहीन, सन्धि-विग्रह से रहित, निन्दा-प्रशंसा से शून्य, प्रिय-अप्रिय का त्याग करनेवाला तथा उदासीन है, वही सन्यासी है। जो नीवार ( जंगली चावल ),  कन्द-मूल, इंगुद ( लिसौड़ा ) और साग खाकर निर्वाह करता है, मन को वश में रखता है, अग्निहोत्र करता है, वन में रहकर भी अतिथिसेवा में सदा सावधान रहता  है, वही पुण्यात्मा तपस्वी ( वानप्रस्थी ) श्रेष्ठ माना गया है। बुद्धिमान व्यक्ति की बुराई करके इस बात पर निश्चित न रहें कि 'मैं दूर हूँ'। बुद्धिमान की बाँहें बड़ी लम्बी होती हैं, सताया जाने पर वह उन्हीं बाँहों से बदला लेता है। जो विश्वास का पात्र नहीं है, उसका तो विश्वास करे ही नहीं; किन्तु जो विश्वासपात्र है, उसपर भी अधिक विश्वास न करें। विश्वासी व्यक्ति से उत्पन्न हुआ भय मूलोच्छेद कर डालता है। मनुष्य को चाहिये कि वह इर्ष्यारहित, स्त्रियों का रक्षक, सम्पत्ति का न्यायपूर्वक विभाग करनेवाला,प्रियवादी, स्वच्छ तथा स्त्रियों के निकट मीठे वचन बोलनेवाला हो, परन्तु उनके वश में कभी न हो। स्त्रियाँ घर की लक्ष्मी कही गयी हैं; ये अत्न्त सौभाग्यशालिनी, पूजा के योग्य, पवित्र तथा घर की शोभा हैं। अतः इनकी विशेषरूप से रक्षा करनी चाहिये। अन्तःपुर की रक्षा का कार्य पिता को सौंप दें, रसोईघर का प्रबन्ध माता के हाथ में दे दे, गौओं की सेवा में अपने समान व्यक्ति को नियुक्त करे और कृषि का कार्य स्वयं करे। सेवकों द्वारा वाणिज्य-व्यापार करे और पुत्रों के द्वारा विद्वानों की सेवा करे। जल से अग्नि, ब्राह्मण से क्षत्रिय और पत्थर से लोहा पैदा हुआ है। इनका तेज सर्वत्र व्याप्त होने पर भी अपने उत्पत्ति स्थान में शान्त हो जाता है। अच्छे कुल में उत्पन्न, अग्नि के समान तेजस्वी, क्षमाशील और विकारशून्य संत व्यक्ति सदा काष्ठ में अग्नि की भाँति शान्तभाव से स्थित रहते हैं। जिस राजा की मंत्रणा को उसके बहिरंग एवं अंतरंग सभासद् तक नहीं जानते, सब ओर दृष्टि रखनेवाला वह राजा चिरकाल तक ऐश्वर्य का उपभोग करता है। धर्म, काम और अर्थ सम्बन्धी कार्यों को करने से पहले न बताये, करके ही दिखाये। पर्वत की चोटी पर चढ़कर अथवा राजमहल के एकान्त स्थान में जाकर या जंगल में निर्जन स्थान पर मंत्रणा करनी चाहिये। हे भारत ! जो मित्र न हो, मित्र होने पर भी पण्डित न हो, पण्डित होने पर भी जिसका मन वश में न हो, वह अपना गुप्त मंत्र जानने के योग्य नहीं है। राजा अच्छी तरह परीक्षा किये बिना किसी को अपना मंत्री न बनावे। क्योंकि धन की प्राप्ति और मंत्र की रक्षा का भार मंत्री पर ही रहता है। जिसके धर्म, अर्थ और काम विषयक सभी कार्यों के पूर्ण होने के बाद ही सभासद्गण जान पाते हैं, वही राजा समस्त राजाओं में श्रेष्ठ है। अपने मंत्र को गुप्त रखनेवाले उस राजा को निःसंदेह सिद्धि प्राप्त होती है। जो मोहवश बुरे कर्म करता है, वह उन कार्यों का विपरीत परिणाम होने से अपने जीवन से भी हाथ धो बैठता है। उत्तम कर्मों का अनुष्ठान तो सुख देनेवाला होता है, किन्तु उनका न किया जाना पश्चाताप का कारण माना गया है। जिसके क्रोध और हर्ष व्यर्थ नहीं जाते, जो आवश्यक कार्यों की स्वयं देखभाल करता है और खजाने की स्वयं जानकारी रखता है, उसकी पृथ्वी पर्याप्त धन देनेवाली ही होती है। भूपति को चाहिये कि अपने 'राजा' नाम से और राजोचित 'छत्र' धारण से संतुष्ट रहे। सेवकों को पर्याप्त धन दें, सब अकेले ही न हड़प ले। ब्राह्मण को ब्राह्मण जानता है, स्त्री को उसका पति जानता है। मंत्री को राजा जानता है और राजा को राजा को भी राजा ही जानता है। वश में आये हुए अयोग्य शत्रु को कभी छोड़ना नहीं चाहिये। यदि अपना बल अधिक न हो तो नम्र होकर उसके पास समय बिताना चाहिेये, और बल होने पर उसे मार ही डालना चाहिये; क्योंकि यदि शत्रु मारा न गया तो उससे शीघ्र ही भय उपस्थित होता है। देवता, ब्राह्मण, राजा, बृद्ध, बालक और रोगी पर होनेवाले क्रोध को प्रयत्नपूर्वक रोकना चाहिये। निरर्थक कलह करना मू्र्खों का काम है, बुद्धिमान मनुष्य को इसका त्याग करना चाहिये। ऐसा करने से उसे लोक में यश मिलता है और अनर्थ का सामना नहीं करना पड़ता। जिसे प्रसन्न होने का कोई फल नहीं तथा जिसका क्रोध भी व्यर्थ होता है, ऐसे राजा को प्रजा उसी प्रजा उसी भाँति नहीं चाहती जैसे स्त्री नपुंसक पति को। बुद्धि से धन प्राप्त होता है, और मूर्खता दरिद्रता का कारण है---ऐसा कोई नियम नहीं है। संसारचक्र के वृतांत को केवल विद्वान ही जानते हैं, दूसरे लोग नहीं। भारत ! मूर्ख मनुष्य विद्या, शील, अवस्था, बुद्धि, धन और कुल में बड़े माननीय पुरुषों का अनादर किया जाता है। जिसका चरित्र निंदनीय है, जो मूर्ख, गुणों में दोष देखनेवाला, अधार्मिक, बुरे वचन बोलनेवाला और क्रोधी है, उसके ऊपर शीघ्र ही अनर्थ टूट पड़ते हैं। ठगई न करना, दान देना, बात पर कायम रहना और अच्छी तरह कही हुई हित की बात---ये सब संपूर्ण भूतों को अपना बना लेते हैं। किसी को भी धोखा न देनेवाला, चतुर, कृतज्ञ, बुद्धिमान और सरल राजा खजाना खतम हो जाने पर भी सहायकों को पा जाता है, अर्थात् उसे सहायक मिल जाते हैं।धैर्य, मनोविग्रह, इंद्रियसंयम, पवित्रता, दया, कोमल वाणी और मित्र से द्रोह न करना---ये सात बातें लक्ष्मी को बढ़ानेवाली हैं। राजन् ! जो अपने आश्रितों में धन का ठीक-ठीक बँटवारा नहीं करता तथा जो दुष्ट, कृतघ्न और निर्लज्ज है, ऐसा राजा इस लोक में त्याग देने योग्य है। जो स्वयं दोषी होकर भी निर्दोष आत्मीय व्यक्ति को कुपित करता है, वह सर्पयुक्त घर में रहनेवाले मनुष्य की भाँति रात में सुख से नहीं सो सकता। भारत ! जिनके ऊपर दोषारोपण करने से योग और क्षेत्र में बाधा आती हो, उन लोगों को देवता की भाँति सदा प्रसन्न रखना चाहिये। जो धन आदि पदार्थ, स्त्री, प्रमादी, पतित और नीच पुरुषों के हाथ में सौंप दिये जाते हैं, वे संशय में पड़ जाते हैं। राजन् ! जहाँ का शासन स्त्री, जुआरी और बालक के हाथ में है, वहाँ के लोग नदी में पत्थर की नाव पर बैठनेवालों की तरह विपत्ति के समुद्र में डूब जाते हैं। जो लोग जितना आवश्यक है, उतने ही काम में लगे रहते हैं, अधिक में हाथ नहीं डालते, उन्हें मैं पण्डित मानता हूँ; क्योंकि अधिक में हाथ डालना संघर्ष का कारण होता है। जुआरी जिसकी तारीफ करते हैं, चारण जिसकी प्रशंसा का गान करते हैं और वेश्याएँ जिसकी बड़ाई किया करती हैं, वह मनुष्य जीता ही मुर्दे के समान है। भारत ! आपने उन महान् धनुर्धर और अत्न्त तेजस्वी पाण्डवों को छोड़कर यह महान् ऐश्वर्य का भार दुर्योधन के ऊपर रख दिया है; इसलिये आप शीघ्र ही उस ऐश्वर्य से मूढ़ दुर्योधन को त्रिभुवन के साम्राज्य से गिरे हुए बलि की भाँति इस राज्य से भ्रष्ट होते देखियेगा।

Tuesday 23 August 2016

उद्योग-पर्व---विदुरनीति ( पाँचवाँ अध्याय )

विदुरनीति ( पाँचवाँ अध्याय )
विदुरजी कहते हैं---राजेन्द्र ! विचित्रवीर्यनन्दन ! स्वायम्भुव मनुजी ने कहा है किनीचे लिखे सत्रह प्रकार के मनुष्यों को पाश हाथ में लिये यमराज के दूत नरक में ले जाते हैं---जो आकाश पर मुष्टि से प्रहार करता है, न झुकाये जा सकनेवाले वर्षाकालीन इन्द्रधनुष को झुकाना चाहता है, पकड़ में न आनेवाली सूर्य की किरणों को पकड़ने का प्रयास करता है, शासन के अयोग्य पुरुष पर शासन करता है, मर्यादा का उल्लंघन करके संतुष्ट होता है, शत्रु की सेवा करता है, स्त्रीरक्षा के द्वारा जीविका चलाता है, याचना करने के अयोग्य पुरुष से याचना करता है तथा आत्मप्रशंसा करता है, अच्छे कुल में उत्पन्न होकर भी नीच कर्म करता है, दुर्बल होकर भी बलवान से बैर बाँधता है, श्रद्धाहीन को उपदेश करता है, न चाहनेयोग्य वस्तु को चाहता है, श्वसुर होकर पुत्रवधू के साथ परिहास पसंद करता है तथा पुत्रवधू की सहायता से संकट से छूटकर भी पुनः उससे अपनी प्रतिष्ठा चाहता है, परस्त्रीसमागम करता है,  आवश्यकता से अधिक स्त्री की निंदा करता है, किसी से कोई वस्तु पाकर भी 'याद नहीं है' ऐसा कहकर उसे दबाना चाहता है, माँगने पर दान देकर उसके लिये अपनी डींग हाँकता है और झूठ को सही साबित करने का प्रयास करता है। जो मनुष्य अपने साथ जैसा वर्ताव करे, उसके साथ वैसा ही वर्ताव करना चाहिये---यही नीति है। कपट का आचरण करनेवाले के साथ कपटपूर्ण वर्ताव करें और अच्छा व्यवहार करनेवाले के साथ साधु व्यवहार से ही पेश आना लज्जा का, नीच पुरुषों की सेवा सदाचार का, क्रोध लक्ष्मी का और अभिमान सर्वस्व का ही नाश कर देता है। धृतराष्ट्र ने कहा---जब सभी वेदों में पुरुष को सौ वर्ष की आयुवाला बताया गया गया है, तो वह किस कारण से अपनी पूर्ण आयु को नहीं पाता ? विदुरजी बोले---राजन् ! आपका कल्याण हो। अत्यन्त अभिमान, अधिक बोलना, त्याग का अभाव, क्रोध, अपना ही पेट पालने की चिंता और मित्रद्रोह----ये छः तीखी तलवारें देहधारियों की आयु को काटती हैं। ये ही मनुष्यों का वध करती हैं, मृत्यु नहीं। भारत ! जो अपने ऊपर विश्वास करनेवाले की स्त्री के साथ समागम करता है, गुरुस्त्रीगामी है, ब्राह्मण होकर शूद्र की स्त्री से सम्बन्ध रखता है, शराब पीता है तथा जो बड़ों पर हुक्म चलानेवाला, दूसरों की जीविका नष्ट करनेवाला तथा शरणागत की हिंसा करनेवाला है---ये सब-के-सब ब्रह्महत्यारे के समान है; इनका संग हो जाने पर प्रायश्चित करें। बड़ों की आज्ञा माननेवाला, नीतिज्ञ, दाता, यज्ञशेष भोजन करनेवाला, हिंसारहित, अनर्थकारी कार्यों से दूर रहनेवाला, कृतज्ञ, सत्यवादी और कोमल स्वभाववाला विद्वान् स्वर्गगामी होता है। राजन् ! सदा प्रिय वचन बोलनेवाला मनुष्य तो सहज से ही मिल सकते हैं; किन्तु जो अप्रिय होता हुआ हितकारी हो, ऐसे वचन के वक्ता और श्रोता दोनो ही दुर्लभ हैं। जो धर्म का आश्रय लेकर तथा स्वामी को प्रिय लगेगा या अप्रिय---इसका विचार छोड़कर अप्रिय होनेपर भी हित की बात कहना है, उसी से राजा को सच्ची सहायता मिलती है। कुल की रक्षा के लिये एक मनुष्य का, ग्राम की रक्षा के लिये कुल का, देश की रक्षा के लिये गाँव की रक्षा के लिये गाँव का और आत्मा के कल्याण के लिये सारी पृथ्वी का त्याग कर देना चाहिये। आपत्ति के लिये धन की रक्षा करें।. पहले के समय में जूआ खेलना मनुष्यों में बैर डालने का कारण देखा गया है; अतः बुद्धिमान मनुष्य हँसी में भी जूआ न खेले। राजन् ! मैने जूए का खेल आरम्भ होते समय भी कहा था कि यह ठीक नहीं है; किन्तु रोगी को जैसे दवा औ पथ्य नहीं भाते, उसी तरह मेरी वह बात भी आपको अच्छी नहीं लगी। नरेन्द्र आप कौओं के समान अपने पुत्रों के द्वारा विचित्र पंखों वालों मोरों के सदृश पाण्डवों को पराजित करने का प्रयत्न कर रहे हैं, सिंहों को छोड़कर सियारों की रक्षा कर रहे हैं; समय आने पर आपको इसके लिये पश्चाताप करना पड़ेगा। तात ! जो स्वामी सदा हितसाधन में लगे रहनेवाले भक्त  सेवक पर कभी क्रोध नहीं करता, उसपर भृत्यगण विश्वास करते हैं और उसे आपत्ति के समय भी नहीं छोड़ते। सेवकों की जीविका बन्द करके दूसों क राज्य और धन के अपहरण का प्रयत्न नहीं करना चाहिये; क्योंकि अपनी जीविका छिन जाने से भोगों से वंचित होकर पहले से प्रेमी मंत्री भी उस समय विरोधी बन जाते हैं और राजा का परित्याग कर देते हैं। पहले कर्तव्य, आय-व्यय और उचित वेतन आदि का निश्चय करके फिर सुयोग्य सहायकों का सम्भव करें; क्योंकि कठिन-से-कठिन कार्य भी सहायकों द्वारा साध्य होते हैं। जो सेवक स्वामी के अभिप्राय को समझकर आलस्यरहित हो समस्त कार्यों को पूरा करता है, जो हित की बात कहनेवाला, स्वामिभक्त, सज्जन और राजा की शक्ति जाननेवाला है, उसे अपने समान समझकर कृपा करनी चाहिये। जो सेवक स्वामी के आज्ञा देने पर उनकी बात का आदर नहीं करता, किसी काम में लगाये जाने पर इनकार कर जाता है, अपनी बुद्धि पर गर्व करने और प्रतिकूल बोलनेवाले उस भृत्य को शीघ्र ही त्याग देना चाहिये। अहंकाररहित, कायरताशून्य, शीघ्र काम पूरा करनेवाला, दयालु, शुद्धहृदय, दूसरों के बहकावे में न आनेवाला, निरोग और उदार वचनवाला---इन आठ गुणों से युक्त मनुष्यों को 'दूत' बनाने योग्य बताया गया है। सावधान मनुष्य विश्वास होने पर भी सायंकाल में कभी शत्रु के घर न जाय, रात में छिपकर चौराहे पर न खड़ा हो और राजा जिस स्त्री को ग्रहण करना चाहता हो, उसे प्राप्त करने का यत्न न करें। दुष्ट सहायकोंवाला राजा जब बहुत लोगों के साथ मंत्रणासमिति में बैठकर सलाह ले रहा हो, उस समय उसकी बात का खण्डन न करें;  'मैं तुमपर विश्वास नहीं करता' ऐसा भी न कहें। अपितु कोई युक्तिसंगत बहाना बनाकर वहाँ से हट जायँ। अधिक दयालु राजा, व्यभिचारिणी स्त्री, राजकर्मचारी, पुत्र, भाई, छोटे बच्चों वाली विधवा, सैनिक और जिसका अधिकार छिन गया हो, वह पुरुष---इन सबके साथ लेन-देन का व्यवहार न करें। ये आठ गुण पुरुष की शोभा बढ़ाते हैं---बुद्धि, कुलीनता, शास्त्रज्ञान, इन्द्रिय-निग्रह, पराक्रम, अधिक न बोलने का स्वभाव,यथाशक्ति दान और कृतज्ञता। तात ! एक गुण ऐसा है, जो इन सभी महत्वपूर्ण गुणों पर हठात् अधिकार कर लेता है। राजा जिस समय मनुष्य का सत्कार करता है, उस समय यह गुण ( राजसम्मान ) उपर्युक्त सभी गुणों से बढ़कर शोभा पाता है। नित्य स्नान करनेवाले मनुष्य को बल, रूप, मधुर स्वर, उज्जवल वर्ण, कोमलता, सुगन्ध, पवित्रता, शोभा, सुकुमारता और सुन्दरी स्त्रियाँ---यह दस लाभ प्राप्त होते हैं। थोड़ा भोजन करनेवालों को निम्नांकित छः गुण प्राप्त होते हैं---आरोग्य, आयु, बल और सुख तो मिलते ही हैं; उसकी संतान सुन्दर होती हैं तथा यह बहुत खानेवाला है' ऐसा कहकर लोग उसपर आक्षेप नहीं करते।अकर्मण्य, बहुत खानेवाले, सब लोगों से वैर करनेवाले, अधिक मायावी, क्रूर, देश-काल का ज्ञान न रखनेवाले और निन्दित वेष धारण करनेवाले मनुष्य को कभी अपने घर में न ठहरने दें। बहुत दुःखी होने पर भी कृपण, गाली बकनेवाले, मूर्ख, जंगल में रहनेवाले, धूर्त, नीचसेवी, निर्दयी, वैर बाँधनेवाले और कृतध्न से कभी सहायता की याचना नहीं करनी चाहिये। क्लेशप्रद कर्म करनेवाला, अत्यन्त प्रमादी, सदा असत्यभाषण करनेवाला, अस्थिर भक्तिवाला, स्नेह से रहित, अपने को चतुर माननेवाला---इन छः प्रकार के अधम पुरुषों की सेवा न करें। धन की प्राप्ति सहायक की अपेक्षा रखते हैं; ये दोनो एक दूसरे के आश्रित हैं, परस्पर के सहयोग बिना इनकी सिद्धि नहीं होती।  पुत्रों को उत्पन्न कर उन्हें ऋण के भार से मुक्त करके उनके लिये किसी जीविका का प्रबन्ध कर दे; फिर कन्याओं का योग्य वर के साथ विवाह कर देने के पश्चात् वन में मुनिवृति से रहने की इच्छा करे। जो संपूर्ण प्राणियों के लिये लिये हितकर और अपने लिये भी सुखद हो, उसे ईश्वरार्पण बुद्धि से करे, सम्पूर्ण सिद्धियों का यही मूलमंत्र है। जिसमें बढ़ने की शक्ति, प्रभाव, तेज, पराक्रम, उद्योग और निश्चय है, उसे अपनी जीविका के नाश का भय कैसे हो सकता है ? पाण्डवों के साथ युद्ध करने में जो दोष है, उनपर दृष्टि डालिये; उनसे संग्राम छिड़ जाने पर इन्द्र आदि देवताओं को भी कष्ट ही उठाना पड़ेगा। इसके सिवा पुत्रों के साथ वैर, नित्य उद्वेगपूर्ण जीवन, कीर्ति का नाश और शत्रुओं को आनन्द होगा। आकाश में तिरछे उदित हुए धूमकेतू से से सारे संसार में अशान्ति और उपद्रव खड़ा हो जाता है, उसी तरह भीष्म, आप, द्रोणाचार्य और राजा युधिष्ठिर का बढ़ा हुआ कोप इस संसार का संहार कर सकता है। आपके सौ पुत्र, कर्ण और पाँच पाण्डव---ये सब मिलकर समुद्र-पर्यन्त सम्पूर्ण पृथ्वी का शासन कर सकते हैं। राजन् ! आपके पुत्र वन के समान हैं और पाण्डव उसमें रहनेवाले व्याघ्र हैं। आप व्याघ्रोंसहित समस्त वन को नष्ट न कीजिये तथा वन से उन व्याघ्रों को दूर न भगाइये। व्याघ्रों के बिना वन की रक्षा नहीं हो सकती तथा वन के बिना व्याघ्र नहीं रह सकते; क्योंकि व्याघ्र वन की रक्षा करते हैं और वन व्याघ्र की। जिनका मन पापों में लगा रहता है, वे लोग दूसरों के कल्याणमय गुणों को जानने की वैसी इच्छा नहीं रखते, जैसी की उनके अवगुणों को जानने की रखते हैं। जो अर्थ की पूर्ण सिद्धि चाहता हो, उसे पहले धर्म का ही आचरण करना चाहिये। जैसे स्वर्ग से अमृत दूर नहीं होता, उसी प्रकार धर्म से अर्थ अलग नहीं होता। जिसकी बुद्धि पाप से हटाकर कल्याण में लगा दी गयी है, उसने संसार में जो भी प्रकृति और विकृति है---उस सबको जान लिया है। जो समयानुसार धर्म, अर्थ और काम प्राप्त करता है , वह इस लोक और परलोक में भी धर्म, अर्थ और काम को प्राप्त करता है। राजन् ! जो क्रोध और हर्ष के उठे हुए वेग को रोक लेता है और आपत्ति में भी धैर्य को खो नहीं बैठता, वही राजलक्ष्मी का अधिकारी होता है। राजन् ! आपका कल्याण हो, मनुष्यों में सदा पाँच प्रकार का बल होता है; उसे सुनिये। जो बाहुबल है, वह कनिष्ठ बल कहलाता है; मंत्री का मिलना दूसरा बल है; धन के लाभ को तीसरा बल भी माना जाता है; और राजन् ! जो बाप दादों से प्राप्त हुआ स्वाभाविक बल ( कुटुम्ब का बल ) है, वह 'अभिजात ' नामक चौथा बल है। जिससे इन सभी बलों का संग्रह हो जाता है, वह बलों में श्रेष्ठ 'बुद्धि का बल' कहलाता है।जो मनुष्य का बहुत बड़ा अपकार कर सकता है, उस व्यक्ति के साथ वैर ठानकर यह इस विश्वास पर निश्चिन्त न हो जाय कि मैं उससे दूर हूँ ( वह मेरा कुछ नहीं कर सकता)। ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो स्त्री, राजा, साँप, पढ़े हुए पाठ, सामर्थ्यशाली व्यक्ति शत्रु, भोग और आयुष्य पर पूर्ण विश्वास कर सकता है ? जिसको बुद्धि के बाण से मारा गया है, उस जीव के लिये न कोई वैद्य है, न दवा है, न होम, न मंत्र, न कोई मांगलिक कार्य न भलीभाँति सिद्ध हुई बूटी ही है। मनुष्य को चाहिये कि वह साँप, अग्नि, सिंह और अपने कुल में उत्पन्न व्यक्ति का अनादर न करे; क्योंकि ये सभी बड़े तेजस्वी होते हैं। संसार में अग्नि एक महान् तेज है, वह काठ में छिपी रहती है; किन्तु जबतक दूसरे लोग उसे प्रज्जवलित न कर दें, तबतक वह उस काठ को नहीं जलाती। वही अग्नि दि काठ से बचकर उद्दीप्त कर दी जात है, तो वह अपने तेज से इस काठ को तथा दूसरे जंगल को जल्दी ही जला डालती है। इसी प्रकार अपने कुल में उत्पन्न वे अग्नि के समान तेजस्वी पाण्डव क्षमाभाव से युक्त और विकारशून्य हो काष्ठ में छिपी अग्नि की तरह शान्तभाव से स्थित हैं। अपने पुत्रों सहित आप लता के समान हैं और पाण्डव महान् शालवृक्ष के सदृश हैं; महान् वृक्ष का आश्रय लिये बिना लता कभी बढ़ नहीं सकती। राजन् ! आपके पुत्र वन हैं और पाण्डवों को उसके भीतर रहनेवाले सिंह समझिये। तात ! सिह से सूना हो जा पर वन नष्ट हो जाता है और वन के बिना सिंह भी नष्ट हो जाते हैं।


Tuesday 16 August 2016

उद्योग-पर्व---विदुरनीति ( चौथा अध्याय )

विदुरनीति ( चौथा अध्याय )
विदुरजी कहते हैं---इस विषय में दत्तात्रेय और साध्य देवताओं के संवादरूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं; यह मेरा सुना हुआ है। प्राचीन काल की बात है, उत्तम व्रतवाले महाबुद्धिमान महर्षि द्तात्रेयजी हंस (परमहंस ) रूप से विचर रहे थे; उस समय साध्य देवताओं ने उनसे पूछा---साध्य बोले---महर्षि ! हम सब लोग साध्य देवता हैं, आपको केवल देखकर हम आपके विषय में कुछ अनुमान नहीं कर सकते। हमें तो आप शास्त्रज्ञान से युक्त, धीर एवं बुद्धिमान जान पड़ते हैं; अतः हमलोगों को विद्वत्तापूर्ण अपनी उदार वाणी सुनाने की कृपा करें। हंस ने कहा---देवताओं ! मैने सुना है कि धैर्य-धारण, मनोनिग्रह तथा सत्य-धर्मों का पालन ही कर्तव्य है; इसके द्वारा मनुष्य को चािए कि हृदय की सारी गाँठ खोलकर प्रिय और अप्रिय को अपने आत्मा के समान समझे। दूसरों से गाली सुनकर भी स्वयं उन्हें गाली न दें। क्षमा करनेवाले का रोका हुआ क्रोध ही गाली देनेवाले को जला डालता है और उसके पुण्य को भी ले लेता है। दूसरों को न तो गाली दें और न उसका अपमान करें, मित्रों से द्रोह तथा नीच पुरुषों की सेवा न करें, सदाचार से हीन एवं अभिमानी न हों, रूखी तथा रोषभरी वाणी का परित्याग करें। जिसकी वाणी रूखी और स्वभाव कठोर है, जो मर्म पर आघात करता और वाग्वाणों से मनुष्यों को पीड़ा पहुँचाता है, उसे ऐसा समझना चाहिये कि वह मनुष्यों में महादरिद्र है और अपनी वाणी में दरिद्रता को बाँधे हुए ढ़ो रहा है।यदि दूसरा कोई इस मनुष्य को अग्नि और सूर्य के समान दग्ध करनेवालेीखे वाग्वाणों से बहुत चोट पहुँचावे तो वह विद्वान पुरुष चोट खाकर अत्यन्त वेदना सहते हुए भी ऐसा समझे कि वह मेरे पुण्यों को पुष्ट कर रहा है। जैसे वस्त्र जिस रंग में रंगा जाय वैसा ही हो जाता है, उसी प्रकार यदि कोई सज्जन, असज्जन, तपस्वी अथवा चोर की सेवा करता है तो उसपर उसी का रंग चढ़ जाता है। जो स्वयं किसी के प्रति बुरी बात नहीं कहता, दूसरों से भी नहीं कहलाता, मार खाकर बदले में न तो स्वयं मारता है और न दूसरों से मरवाता है, अपराधी को भी जो मारना नहीं चाहता, देवता भी उसके आगमन की बाट जोहते रहते हैं। बोलने से न बोलना अच्छा बताया गया है; किन्तु सत्य बोलना बाणी की दूसरी विशेषता है, यानि मन की अपेक्षा भी दूना लाभप्रद है। सत्य भी यदि प्रिय बोला जाय तो तीसरी विशेषता है और वह भी यदि धर्मसम्मत कहा जाय तो वह वचन की चौथी विशेषता है। मनुष्य जैसे लोगों के साथ रहता है, जैसे लोगों की सेवा करता है और जैसा होना चाहता है वैसा ही हो जाता है। जिन-जिन विषयों को मन से हटाया जाता है, उन-उन से मुक्ति होती जाती है; इस प्रकार यदि सब ओर से निवृति हो जाय तो मनुष्य को लेशमात्र का भी कभी अनुभव न हो। जो न तो स्वयं किसी से जी ता जाता, न दूसरों को जीतने की इच्छा करता है, न किसी के साथ बैर करता और न दूसरों को चोट पहुँचाना चाहता है, जो निंदा और प्रशंसा में समान भाव रखता है, वह हर्ष-शोक से परे हो जाता है। जो सबका कल्याण चाहता है, किसी के अकल्याण की बात मन में नहीं लाता, जो सत्यवादी, कोमल और जितेन्द्रिय है, वह उत्तम मनुष्य माना गया है। जो झूठी शान्त्वना नहीं देता, देने की प्रतीज्ञा करके दे ही डालता है, दूसरों के दोषों को जानता है, वह मध्यम श्रेणी का मनुष्य है। देखिये, दुःशासन गन्धर्वों द्वारा पीटा गया, अस्त्र-शस्त्रों से विदीर्ण किया गया, ( उस समय पाण्डवों ने उनकी रक्षा की; ) तो भी वह कृतघ्न क्रोध के वशीभूत हो पाण्डवों की बुराई से मुँह नहीं मोड़ता। वह दुरात्मा किसी का भी मित्र नहीं है। ऐसी चित्तवृत्ति अधम पुरुषों की ही हुआ करती है। जो अपने विषय में संदेह होने के कारण दूसरों से भी कल्याण होने का विश्वास नहीं करता, मित्रों को भी दूर रखता है, अवश्य ही वह अधम पुरुष है। जो अपने विषय में संदेह होने के कारण दूसरों से भी कल्याण होने का विश्वास नहीं करता, मित्रों को भी दूर रखता है, अवश्य ही वह अधम पुरुष है। जो अपनी उन्नति चाहता है, वह उत्तम पुरुषों की ही सेवा कर ले, परन्तु अधम पुरुषों की सेवा कदापि न करें। मनुष्य दुष्ट पुरुषों के बल से, निरन्तर के उद्योग से, बुद्धि से तथा पुरुषार्थ से धन भले ही प्राप्त कर ले; परन्तु इससे उत्तम कुलीन पुरुषों के सम्मान और सदाचार को वह कदपि नहीं प्राप्त कर सकता। धृतराष्ट्र ने पूछा---विदुर ! धर्म और अर्थ के नित्य ज्ञाता एवं बहुश्रुत देवता भी उत्तम कुल में उत्पन्न पुरुषों की इच्छा करते हैं। इसलिये मैं तुमसे यह प्रश्न करता हूँ कि उत्तम कुल कौन है ? विदुरजी बोले---जिनमें तप, इन्द्रियसंयम, वेदों का स्वाध्याय, यज्ञ, पवित्र विवाह, सदा अन्नदान और सदाचार---ये सात गुण वर्तमान हैं, उन्हें उत्तम कुल कहते हैं। जिनका सदाचार शिथिल नहीं होता, जो अपने दोषों से माता-पिता को कष्ट नहीं पहुँचाते, प्रसन्नचित्त से धर्म का आचरण करते हैं तथा असत् का परित्याग करके अपने कुल की विशेष कीर्ति चाहते हैं उन्हीं का कुल उत्तम है। यज्ञ न होने से, निन्दित कुल में विवाह करने से, वेद का त्याग और धर्म का उल्लंघन करने से उत्तम कुल अधम हो जाते हैं। देवताओं के धन का नाश, ब्राह्मण के धन का अपहरण और ब्राह्मणों की मर्यादा का उल्लंघन करने से उत्तम कुल भी अधम हो जाते हैं। गौओं, मनुष्यों और धन से सम्पन्न होकर भी जो कुल सदाचार से हीन है, वे अच्छे कुलों की गणना में नहीं आ सकते। थोड़े धनवाले कुल भी यदि सदाचार से सम्पन्न हैं, तो वे अच्छे कुलों की गणना में आ जाते हैं और महान् यश प्राप्त करते हैं। सदाचार की रक्षा यत्नपूर्वक करनी चाहिये; धन तो आता-जाता रहता है। धन क्षीण हो जाने पर भी सदाचारी मनुष्य क्षीण नहीं माना जाता; किन्तु जो सदाचार से भ्रष्ट हो गया, उसे तो नष्ट ही समझना चाहिये। जो कुल सदाचार से हीन ही हैं, वे गौओं, पशुओं, घोड़ों तथा हरी-भरी खेती से सम्पन्न होने पर भी उन्नति नहीं कर पाते। हमारे कुल में कोई वैर करनेवाला न हो, दूसरों के धन का अपहरण करनेवाला राजा अथवा मंत्री न हो और मित्रद्रोही, कपटी तथा असत्यवादी न हो। इसी प्रकार माता-पिता, देवता एवं अतिथियों को भोजन कराने से पहले भोजन करनेवाला भी न हो। तृण का आसन, पृथ्वी, जल और चौथी मीठी वाणी---सज्जनों के घर में इन चार चीजों की कभी कमी नहीं होती। राजन् ! पुण्यकर्म करनेवाले धर्मात्मा पुरुषों के यहाँ ये तृण आदि वस्तुएँ बड़ी श्रद्धा के साथ सत्कार के लिये उपस्थित की जाती है। नृपवर ! छोटा-सा भी रथ भार ढ़ो सकता है, किन्तु दूसरे काठ बड़े-बड़े होने पर भी ऐसा नहीं कर सकते। इसी प्रकार उत्म कुल में उत्पन्न उत्साही पुरुष भार सकते हैं, दूसरे मनुष्य वैसे नहीं होते। जिसके कोप से भयभीत होना पड़े तथा शंकित होकर जिसकी सेवा की जाय, वह मित्र नहीं है। मित्र तो वही है, जिसपर पिता की भाँति विश्वास किया जा सके; दूसरे तो संगीमात्र हैं। पहले से कोई संबंध न होने पर भी जो मित्रता का वर्ताव करे वही बन्धु, वही सहारा, वही मित्र और वही आश्रय है। जिसका चितत चंचल है, जो वृद्धों की सेवा नहीं करता, उस अनिश्चितमति पुरुष के लिये मित्रों का संगत स्थाई नहीं होता। जैसे हं सूखे सरोवर के आसपास ही मँडराकर रह जाते हैं, भीतर नहीं प्रवेश करते, उसी प्रकार जिसका चित्त चंचल है, जो अज्ञानी और इन्द्रियों का गुलाम है, उसे अर्थ की प्राप्ति नहीं होती। दुष्ट पुरुषों का स्वभाव मेघ के समान चंचल होता है, वे सहसा क्रोध करते हैं और अकारण ही प्रसन्न हो जाते हैं। जो मित्रों से सत्कार पाकर और उनकी सहायता से कृतकार्य होकर भी उनके नहीं होते, ऐसे कृतध्ऩों के मरने पर उनका माँस माँसभोजी जन्तु भी नहीं खाते। धन हो या न हो, मित्रों का सत्कार तो करें ही। मित्रों से कुछ भी न माँगते हुए उनके सार-आसार की परीक्षा न करें। संताप से रूप नष्ट होता है, संताप से बल नष्ट होता है, संताप से ज्ञान नष्ट होता है और संताप से मनुष्य रोग को प्राप्त होता है। अभीष्ट वस्तु शोक करने से नहीं मिलती; उससे तो शरीर को कष्ट होता है, और शत्रु प्रसन्न होते हैं। इसलिये आप मन में शोक न करें। मनुष्य बार-बार मरता और जन्म लेता है, बार-बार हानि उठाता और बढ़ता है, बार-बार स्वयं दूसरे से याचना करता है और दूसरे उससे याचना करते हैं, तथा बारंबार वह दूसरों के लिये शोक करता है और दूसरे उसके लिये शोक करते हैं। सुख-दुःख, उत्पत्ति-विनाश, लाभ-हानि और जीवन मरण---ये बारी-बारी से प्राप्त होते रहते हैं; इसलिये धीर पुरुष को इनके लिये हर्ष और शोक नहीं करना चाहिये। ये छः इन्द्रियाँ बहुत ही चंचल हैं; इनमें से जो-जो इन्द्रिय जिस-जिस विषय की ओर बढ़ती है, उससे बुद्धि उसी प्रकार क्षीण होती है जिस प्रकार टूटे घड़े से पानी सर्वदा चू जाता है। धृतराष्ट्र ने कहा---काठ में छिपी हुई आग के समान सूक्ष्म धर्म से बँधे हुए राजा युधिष्ठिर के साथ मैने मिथ्या व्यवहार किया है; अतः वे युद्ध करके मेरे पुत्रों का नाश कर डालेंगे। महामते ! यह सब कुछ सदा ही भय से उद्विग्न हैं; इसलिये जो उद्वेगशून्य और शान्तप्रद हो वही मुझे बताओ। विदुरजी बोले---पापशून्य नरेश ! विद्या, तप, इन्द्रियनिग्रह और लोभत्याग के सिवा और कोई आपके लिये शान्ति का उपाय मैं नहीं देखता। बुद्धि से मनुष्य अपने भय को दूर करता है, तपस्या से महान् पद को प्राप्त होता है, गुरुसुश्रुषा से ज्ञान और योग से शान्ति पाता है। मोक्ष की इच्छा रखनेवाले मनुष्य दान के पुण्य का आश्रय नहीं लेते, वेद के पुण्य का भी आश्रय नहीं लेते; किन्तु निष्कामभाव से राग-द्वेष से रहित हो इस लोक में विचरते रहते हैं। सभ्यक अध्ययन, न्यायोचित युद्ध, पुण्यकर्म और अच्छी तरह की हुई तपस्या के अन्त में सुख की वृद्धि होती है। राजन् ! आपस में फूट रखनेवाले लोग अच्छे बिछौनों से युक्त पलंग पाकर भी कभी सुख की नींद नहीं सोने पाते; उन्हें स्त्रियों के पास रहकर तथा बंदीजनों द्वारा की हुई स्तुति सुनकर भी प्रसन्नता नहीं होती। जो परस्पर भेद-भाव रखते हैं, वे कभी धर्म का आचरण नहीं करते। सुख भी नहीं पाते। उन्हें गौरव नहीं प्राप्त होता तथा शान्ति की भाषा भी नहीं सुहाती। हित की बात भी कही जाय तो उन्हें अच्छी नहीं लगती, उनके योग-क्षेम की सिद्धि नहीं हो पाती; राजन् ! भेदभाव वाले पुरुषों की विनाश के सिवा और कोई गति नहीं है। जैसे गौओं में दूध, ब्राह्मणों में तप और युवती स्त्रियों में चंचलता का होना अधिक सम्भव है, उसी प्रकार अपने जाति बन्धुओं से भय होना भी सम्भव ही है। नित्य सींचकर चढ़ाई हुई पतली लताएँ बहुत होने से बहुत वर्षों तक नाना प्रकार के झोंके सहती है; यही बात सत्पुरुषों के विषय में भी समझनी चाहिये। वे दुर्बल होने पर भी सामूहिक शक्ति से बलवान हो जाते हैं। भरतश्रेष्ठ ! जलती हुई लकड़ियाँ अलग-अलग होने पर धुआँ फेंकती हैं और एक साथ होने पर प्रज्जवलित हो उठती हैं। इसी प्रकार जातिबंधु भी फूट होने पर दुःख उठाते हैं और एकता होने पर सुखी रहते हैं। धृतराष्ट्र ! जो लोग ब्राह्मणों, स्त्रियों और गौओं पर ही शूरता प्रकट करते हैं, वे डंठल से पके हुए फलों की भाँति नीचे गिरते हैं। यदि वृक्ष अकेला है तो वह बलवान्, दृढ़मूल और बहुत बहुत बड़ा होने पर एक ही क्षण में आँधी के द्वारा बलपूर्वक शाखाओं सहित धराशायी किया जा सकता है। किन्तु जो बहुत से वृक्ष एक साथ रहकर समूह के रूप में खड़े हैं, वे एक-दूसरे के सहारे बड़ी-से-बड़ी आँधी को सह सकते हैं। इसी प्रकार समस्त गुणों से सम्पन्न मनुष्य को भी अकेले होने पर शत्रु अपनी ताकत के अन्दर समझते हैं, जैसे अकेले वृक्ष को वायु। किन्तु परस्पर मेल होने से और एक-दूसरे का सहारा मिलने से लोग इस प्रकार वृद्धि को प्राप्त होते हैं जैसे तालाब में कमल। ब्राह्मण, गौ, कुटुम्बी, बालक, स्त्री, अन्नदाता और शरणागत---ये अवध्य होते हैं। राजन् ! आपका कल्याण हो, मनुष्य में धन और आरोग्य को छोड़कर दूसरा कोई गुण नहीं है; क्योंकि रोगी तो मुर्दे के समान है। महाराज ! जो बिना रोग के उत्पन्न, कड़वा, सिर में दर्द पैदा करनेवाला,पाप से सम्ब्ध, कठोर, तीखा और गरम है, जो सज्जनों द्वारा पान करने योग्य है और जिसे दुर्जन नहीं पी सकते---उस क्रोध को आप पी जाइये और शान्त होइये। रोग से पीड़ित मनुष्य मधुर फलों का आदर नहीं करते, विषयों में भी उन्हें कुछ सुख या सार नहीं मिलता। रोगी सदा ही दुःखी रहते हैं; वे तो धन सम्बन्धी भोगों का और सुख का ही अनुभव करते हैं। राजन् ! पहले जूए में जीती गयी द्रौपदी को देखकर मैने कहा था, 'आप ध्यूतक्रीड़ा में आसक्त दुर्योधन को रोकिये, विद्वान लोग इस प्रवंचना को मना करते हैं;' किन्तु आपने मेरा कहना नहीं माना। वह बल नहीं, जिसका मृदुल स्वभाव के साथ विरोध हो; सूक्ष्म धर्म का शीघ्र ही सेवन करना चाहिेये।क्रूरतापूर्ण उपार्जन की हुई लक्ष्मी नश्चर होती है; यदि वह मृदुलतापूर्वक बढ़ायी गयी हो तो पुत्र पौत्रों तक स्थिर रहती है। राजन् ! आपके पुत्र पाण्डवों की रक्षा करें और पाण्डु के पुत्र आपके पुत्रों की रक्षा करें। सभी कौरव एक दूसरे के शत्रु को शत्रु और मित्र को मित्र समझें। सबका एक ही कर्तव्य हो, सभी सुखी और समृद्धिशाली होकर जीवन व्यतीत करें। इस समय आपही कौरवों के आधार स्तंभ हैं, कुरुवंश आपके ही अधीन है। तात ! कुन्ती के पुत्र अभी बालक हैं और वनवास से बहुत कष्ट पा चुके हैं; इस समय अपने यश की रक्षा करते हुए पाण्डवों का पालन कीजिये। समस्त पाण्डव सत्य पर डटे हुए हैं; अब आप अपने पुत्र दुर्योधन को रोकिये।