Friday 3 July 2015

आदिपर्व-सूर्यपुत्री तपती के साथ राजा संवरण का विवाह

सूर्यपुत्री तपती के साथ राजा संवरण का विवाह

गन्धर्व के मुख से तपतीनंदन सम्बोधन सुनकर अर्जुन ने कहा, गन्धर्वराज, हमलोग तो कुन्ती के पुत्र हैं फिर तुमने तपतीनंदन क्यों कहा। गन्धर्वराज ने कहा, अर्जुन, आकाश में सर्वश्रेष्ठ ज्योति है भगवान् सूर्य, इनकी आभा स्वर्ग तक परिव्याप्त है।इनकी पुत्री का नाम था तपती। सूर्य-पुत्री तपती सावित्री की छोटी बहन थी तथा अपनी तपस्या के कारण तीनों लोकों में तपती नाम से विख्यात थी। वैसी रूपवती कन्या देवता, असुर, अप्सरा, यक्ष आदि किसी की भी नहीं थी। उन दिनों उसके योग्य कोई पुरुष नहीं था, जिसके साथ भगवान् सूर्य उसका विवाह कर सके। इसके लिये वे सर्वदा चिन्तित रहा करते थे। उन्हीं दिनों पुरुवंश में राजा ऋक्ष के पुत्र संवरण बड़े ही बलवान एवं भगवान् सूर्य के सच्चे भक्त थे। वे प्रतिदिन सूर्य को अर्ध्य देते और अहंकार के बिना भक्ति-भाव से उनकी पूजा करते। सूर्य के मन में धीरे-धीरे यह बात आने लगी कि ये मेरी पुत्री के योग्य पति होंगे। बात थी भी ऐसी ही। जैसे आकाश में सबके पूज्य और प्रकाशमान सूर्य हैं, वैसे ही पृथ्वी में संवरण थे। एक दिन की बात है। संवरण घोड़े पर चढकर पर्वत की तराइयों और जंगल में शिकार खेल रहे थे। भूख-प्यास से व्याकुल होकर उनका श्रेष्ठ घोड़ा मर गया। वे पैदल ही चलने लगे।उस समय उनकी दृष्टि एक सुन्दर कन्या पर पड़ी। एकान्त में अकेली कन्या को देखकर वे एकटक उसकी ओर निहारने लगे। उन्हे ऐसा जान पड़ा मानो सूर्य की प्रभा ही पृथ्वी पर उतर आयी हो। राजा की आँखें और मन उसी में गड़ गये, वे सबकुछ भूल गये, हिल-डुल तक नहीं सके। फिर उन्होंने कहा, सुन्दरी, तुम किसकी पुत्री हो, तुम्हारा नाम क्या है, इस निर्जन जंगल में किस उद्देश्य से विचर रही हो। तुम्हारे शरीर की अनुपम छवि से आभूषण भी चमक उठे हैं। तुम्हारे लिये मेरा मन अत्यंत चंचल और लालायित हो रहा है। राजा की बात सुनकर वह कुछ न बोली। बादल में बिजली की तरह तत्क्षण अन्तर्ध्यान हो गयी। राजा ने उसे ढूँढने की बड़ी चेष्टा की। अन्त मेंअसफल होने पर विलाप करते-करते वे निष्चेष्ट हो गये। राजा संवरण को बेहोश और धरती पर पड़ा देखकर तपती फिर वहाँ आयी और मिठासभरी बाणी में बोली, राजन्, उठिये, उठिये। आप जैसे-सत्पुरुष को अचेत होकर धरती पर नहीं लोटना चाहिये। अमृतवाणी बोली सुनकर संवरण उठ गये। उन्होंने कहा, सुन्दरी, मेरे प्राण तुम्हारे हाथ है। मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकता। तुम गान्धर्व-विवाह के द्वारा मुझे स्वीकार कर लो। तपती ने कहा, राजन् मेरे पिता जीवित हैं। मैं स्वयं अपने संबंध में स्वतंत्र नहीं हूँ। यदि आप सचमुच ही मुझसे प्रेम करते हैं तो मेरे पिता से कहिये। आप जैसे कुलीन, भक्तवत्सल और विश्रविश्रुत राजा को पतिरूप में स्वीकार करने में मेरी ओर से कोई आपत्ति नहीं है। आप नम्रता, नियम और तपस्या के द्वारा मेरे पिता को प्रसन्न करके मुझे माँग लीजिये। मैं भगवान् सूर्य की कन्या और विश्र्ववन्द्या सावित्री की छोटी बहन हूँ। यह कहकर तपती आकाशमार्ग से चली गयी।राजा संवरण वहीं मूर्छित हो गये। उसी समय राजा संवरण को ढूँढते-ढूँढते उनके मंत्री,अनुयायी और सैनिक आ पहुँचे। उन्होंने राजा को जगाया और अनेक उपायों से चेत में लाने की चेष्टा की। होश आने पर उन्होंने सबको लौटा दिया, केवल एक मंत्रीको अपने पास रख लिया। अब वे पवित्रता से हाथ जोड़कर ऊपर की ओर मुँह करके भगवान् सर्य की अराधना करने लगे। उन्होंने मन-ही-मन अपने पुरोहित वशिष्ठ का ध्यान किया। ठीक बारहवें दिन वशिष्ठ महर्षि आये। उन्होंने राजा संवरण के मन का हाल जानकर उन्हें आश्वासन दिया और उनके सामने ही सूर्य से मिलने के लिये चल पड़े। सूर्य के सामने जाकर उन्होंने अपना परिचय दिया और उनके स्वागत प्रश्न आदि के अनन्तर इच्छा पूर्ण करने की बात कहने पर महर्षि वशिष्ठ ने प्रणामपूर्वक कहा,भगवन्,मैं राजा संवरण के लिये आपकी कन्या तपती की याचना करता हूँ। आप उनके उज्जवल वंश धार्मिकता और नीतिज्ञता से परिचित ही हैं। मेरे विचार से वह आपकी कन्या का योग्य पति है। भगवान् सूर्य ने तत्काल उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और उन्हीं के साथ अपनी सर्वांगसुन्दरी कन्या को संवरण के पास भेज दिया। वशिष्ठ के साथ तपती को आते देखकर संवरण अपनी प्रसन्नता का संवरण न कर सके।इस प्रकार भगवान् सर्य की अराधना और अपने पुरोहित वशिष्ठ की शक्ति से राजा संवरण ने तपती को प्राप्त किया और विधिपूर्वक पाणिग्रहण संस्कार से सम्पन्न होकर उसके साथ उसी पर्वत पर सुखपूर्वक विहार करने लगे। इस प्रकार वे बारह वर्ष तक वहीं रहे।राजकाज मंत्री पर रहा। इससे इन्द्र ने उनके राज्य में वर्षा ही बन्द कर दी। अनावृष्टि के कारण प्रजा का नाश होने लगा। ओस तक न पड़ने के कारण अन्न की पैदावार सर्वथा बन्द हो गयी।प्रजा मर्यादा छोड़कर एक-दूसरे को लूटने-पीटने लगी। तब वशिष्ठ मुनि ने अपनी तपस्या के प्रभाव से वहाँ वर्षा करवायी और तपती-संवरण को राजधानी में ले आये। इन्द्र पूर्ववत वर्षा करने लगे। पैदावार शुरु हो गयी।राजदम्पति ने सह्स्त्रों वर्ष तक सुख किया। गन्धर्वराज ने कहा, अर्जुन यही सूर्यकन्या तपती आपके पूर्वपुरुष राजा संवरण की पत्नी थीं। इन्हीं तपती से राजा कुरु का जन्म हुआ, जिससे कुरुवंश चला। उन्हीं के संबंध से मैने आपको तपतीनंदन कहा।


Thursday 2 July 2015

आदिपर्व-पाण्डवों की पांचाल-यात्रा और अर्जुन के हाथों चित्ररथ गन्धर्व की पराजय

पाण्डवों की पांचाल-यात्रा और अर्जुन के हाथों चित्ररथ गन्धर्व की पराजय

पाण्डवों ने बड़ी प्रसन्नता से अपनी माता को आगे करके पांचाल देश की यात्रा की।वे लोग उत्तर की ओर बढ़ने लगे। एक दिन-रात यात्रा करने के बाद वे गंगातट के सोमाश्रयायन तीर्थ पर पहुँचे। उस समय उनके आगे-आगे अर्जुन मसाल लिये चल रहे थे। उस तीर्थ के पास स्वच्छ और एकान्त गंगाजल में गंधर्वराज चित्ररथ स्त्रियों के साथ विहार कर रहा था। उसने उनलोगों के पैरों की धमक और नदी की ओर बढना देख-सुनकर बड़ा क्रोध प्रकट किया और अपने धनुष को टंकारकर पाण्डवों से बोला, अजी दिन के अंत में जब लालिमामयी सन्ध्या होती है, उसके बाद चालीस निमेष के अतिरिक्त सारा समय गन्धर्व, यक्ष और राक्षसों के लिये है। दिन का सारा समय तो मनुष्यों के लिये है ही। जो मनुष्य लोभवश हमलोगों के समय में इधर आते हैं, उन्हें हम और राक्षस कैद कर लेते हैं। इसी से रात के समय में जल में प्रवेश करना निषिद्ध है। खबरदार, दूर ही रहो। क्या तुमलोगों को पता नहीं है कि मैं गन्धर्वराज चित्ररथ इस समय गंगाजल में विहार कर रहा हूँ। मेरे भय से यह वन प्रसिद्ध है। मैं गंगा के तट पर चाहे कहीं भी मौज सेविहार कर सकता हूँ। इस समय यहाँ कोई नहीं आ सकता। तुम क्यों आ रहे हो। अर्जुन ने कहा, अरे मूर्ख समुद्र, हिमालय की तराई और गंगानदी के स्थान रात, दिन अथवा स्ध्या के समय किसके लिये सुरक्षित है। भूखे-नंगे, अमीर-गरीब सभी के लिये रात-दिन गंगा-माई का द्वार खुला है, यहाँ आने का कोई समय नहीं। यदि मान भी लें कि तुम्हारी बात ठीक है तो भी शक्ति-सम्पन्न हैं, बिना समय भी तुम्हे पीस सकते हैं। कमजोर नपुंसक ही तुम्हारी पूजा करते हैं। देवनदी गंगा कल्याणजननी एवं सबके लिये बेरोक-टोक है। तुम जो इसमें रोक-टोक करना चाहते हो वह सनातन धर्म के विरुद्ध है। क्या केवल तुम्हारी बन्दर घुड़की से डरकर हम गंगाजल का स्पर्श न करें। यह नहीं हो सकता। अर्जुन की बात सुनकर चित्ररथ ने धनुष खींचकर जहरीले वाण छोड़ने प्रारंभ किये। अर्जुन ने अपनी मशाल और ढाल का ऐसा हाथ घुमाया, जिससे सारे वाण व्यर्थ हो गये। अर्जुन ने कहा, अरे गन्धर्व अस्त्र के मर्मज्ञों के सामने धमकी से काम नहीं चलता। ले, मैं तुझसे मायायुद्ध नहीं करता, दिव्य अस्त्र चलाता हूँ। अर्जुन ने अपनी मशाल और ढाल का ऐसा हाथ घुमाया,जिससे सारे वाण व्यर्थ हो गये। अर्जुन ने कहा, अरे गन्धर्व अस्त्र के मर्मज्ञों के सामने धमकी से काम नहीं चलता। ले, मैं तुझसे मायायुद्ध नहीं करता, दिव्य अस्त्र चलाता हूँ। यह आग्नेयास्त्र वृहस्पति ने भारद्वाज को, भारद्वाज ने अग्निवेश्य को और अग्निवेश्य ने मेरे गुरु द्रोणाचार्य और उन्होंने मुझे दिया है। ऐसा कहकर अर्जुन ने आग्नेयास्त्र छोड़ा। चित्ररथ का रथ जल जानने के कारण दग्धरथ हो गया। वह अस्त्र के तेज से इतना चकरा गया कि रथ से कूदकर मुँह के बल लुढकने लगा। अर्जुन ने झपटकर उसके केश पकड़ लिये और घसीटकर अपने भाइयों के पास ले आये। गन्धर्वपत्नी कुंभीनसी अपने पतिदेव की रक्षा के लिये युधिष्ठिर की शरण में आयी। उसकी शरणागति और रक्षा प्रार्थना से द्रवित होकर युधिष्ठिर ने अर्जुन को उसे छोड़ने की आज्ञा दी। गन्धर्व ने कहा, मैं हार गया। मैं अर्जुन को गंधर्वों की माया सिखा देता हूँ। यह आग्नेयास्त्र वृहस्पति ने भारद्वाज को, भारद्वाज ने अग्निवेश्य को और अग्निवेश्य ने मेरे गुरु द्रोणाचार्य और उन्होंने मुझे दिया है। ऐसा कहकर अर्जुन ने आग्नेयास्त्र छोड़ा। चित्ररथ का रथ जल जानने के कारण दग्धरथ हो गया। वह अस्त्र के तेज से इतना चकरा गया कि रथ से कूदकर मुँह के बल लुढकने लगा। अर्जुन ने झपटकर उसके केश पकड़ लिये और घसीटकर अपने भाइयों के पास ले आये। गन्धर्वपत्नी कुंभीनसी अपने पतिदेव की रक्षा के लिये युधिष्ठिर की शरण में आयी। उसकी शरणागति और रक्षा प्रार्थना से द्रवित होकर युधिष्ठिर ने अर्जुन को उसे छोड़ने की आज्ञा दी। गन्धर्व ने कहा, मैं हार गया। मैं अर्जुन से मित्रता करके उन्हें गन्धर्वों की माया सिखा देना चाहता हूँ।इस विद्या का नाम चाक्षुषी है। इसे मनु ने सोम को, सोम ने विश्रवावसु को और विश्रवावसु ने मुझे दिया है। इस विद्या का प्रभाव यह है कि इसके बल से जगत् की कोई भी वस्तु, चाहे वह जितनी सूक्ष्म हो, नेत्र के द्वारा प्रत्यक्ष देख सकते हैं। जो छः महीने तक एक पैर से खड़ा रहे, वह इसका अधिकारी है। इसी विद्या के कारण हम गन्धर्व मनुष्यों से श्रेष्ठ माने जाते हैं। मैं आप सब भाइयों को गन्धर्वों के दिव्य वेगशाली और दुबले होने पर भी कभी न थकनेवाले सौ-सौ घोड़े देता हूँ। वे चाहते ही आ जाते हैं, चाहते ही चाहे जहाँ चले जाते हैं और चाहते ही अपना रंग बदल लेते हैं। अर्जुन ने कहा, गन्धर्वराज, मैंने मृत्यु से तुम्हे बचा लिया है इसलिये मुझे कुछ देना चाहते हो तो मैं लेना पसंद नहीं करता। गन्धर्व बोला, जब सत्पुरुष इकट्ठे होते हैं तो उनका परस्पर प्रेम-भाव बढता ही है। मैंआपको प्रेमवश यह भेंट करता हूँ। आप भी मुझ आप्रेय अस्त्र दीजिये। अर्जुन ने कहा, मित्र यह बात ठीक है। हमारी दोस्ती अनंत हो। तुम्हे किसी क भय हो तो बतलाओ। एक बात और बतलाओ कि तुमने हमलोगों पर आक्रमण किस कारण से किया। गन्धर्व ने कहा, मै आपको नहीं जानता था।आपका यशस्वी वंश सभी को मालूम है। मैं आपके आचार्य पिता और गुरुजनों से भी परिचित हूँ। आपलोगों के विशुद्ध अंतःकरण, उत्तम विचार एवं श्रेष्ठ संकल्प को जानकर भी मैने आक्रमण किया। एक तो स्त्रियों के सामने अपमान नहीं सहा जाता, दूसरे रात के समय बल अधिक बढ जाने से क्रोध भी अधिक आता है। परंतु आप श्रेष्ठ धर्म और ब्रह्मचर्य के सच्चे पुजारी हैं। आपके ब्रह्मचर्य के कारण ही मुझे हारना पड़ा। कोई ब्रह्मचर्यहीन क्षत्रिय रात्रि में मेरा सामना करता तो उसे मरना ही पड़ता। मनुष्य को चाहिये कि अभिलाषित कल्याण की प्राप्ति के लिये अवश्य ही जितेन्द्रिय पुरोहित को कर्म में नियुक्त करे। 

आदिपर्व-व्यासजी का आगमन और द्रौपदी के पूर्वजन्म की कथा

व्यासजी का आगमन और द्रौपदी के पूर्वजन्म की कथा

द्रौपदी के जन्म की कथा और उसके स्वयंवर का समाचार सुनकर पाण्डवों का मन बेचैन हो गया। उनकी व्याकुलता और द्रौपदी के प्रति प्रीति देखकर कुन्ती ने कहा कि बेटा, हमलोग बहुत दिनों से इस ब्राह्मण के घर में आनंदपूर्वक रह रहे हैं। अब यहाँ का सब-कुछ देख चुके, चलो न, तुम्हारी इच्छा हो तो पांचाल देश में चलें।युधिष्ठिर ने कहा कि यदि सब भाइयों की सम्मति हो तो चलने में क्या आपत्ति है। सबने स्वीकृति दे दी। प्रस्थान की तैयारी हुई। उसी समय व्यासजी वहाँ पर आये। उन्होने एक कथा सुनायीं। एक बड़े महात्मा ऋषि की सुन्दरी और गुणवती कन्या थी। परंतु रूपवती, गुणवती और सदाचारिणी होने पर भी पूर्वजन्मों के बुरे कर्मों के फलस्वरुप किसी ने उसे पत्नी के रुप में स्वीकार नहीं किया। इससे दुःखी होकर वह तपस्या करने लगी। उसकी उग्र तपस्या से भगवान शंकर संतुष्ट हुये। उस कन्या को भगवान् शंकर के दर्शन से और वर माँगने के लिये कहने से इतना हर्ष हुआ कि वह बार-बार कहने लगी, मैं सर्वगुणयुक्त पति चाहती हूँ। शंकरभगवान् ने कहा कि, तुझे पाँच भरतवंशी पति प्राप्त होंगे। कन्या बोली, मैं तो आपकी कृपा से एक ही पति चाहती हूँ। भगवान् शंकर ने कहा, तूने पति प्राप्त करने के लिये मुझसे पाँच बार प्रार्थना की है। मेरी बात अन्यथा नहीं हो सकती। दूसरे जन्म में तुझे पाँच ही पति प्राप्त होंगे। इस कथा को सुनाकर व्यास ने कहा, पाण्डवों वही देवरुपिणी कन्या द्रुपद की यज्ञवेदी से प्रकट हुई है। तुमलोगों के लिये विधि-विधान के अनुसार वही सर्वांगसुन्दरी कन्या निश्चित है। तुम जाकर पांचालनगर में रहो। उसे पाकर तुमलोग सुखी होओगे। इस प्रकार कहकर पाण्डवों की अनुमति से व्यासजी ने प्रस्थान किया।

Wednesday 1 July 2015

आदिपर्व-द्रौपदी के स्वयंवर का समाचार तथा धृष्टधुम्न और द्रौपदी के जन्म की कथा

द्रौपदी के स्वयंवर का समाचार तथा धृष्टधुम्न और द्रौपदी के जन्म की कथा

बकासुर को मारने के बाद पश्चात् पाण्डव वेदाध्ययन करते हुए उसी ब्राह्मण के घर में निवास करने लगे।कुछ दिनों के बाद उसके यहाँ एक सदाचारी ब्राह्मण आया। बड़े आदर-सत्कार से उसे स्थान दिया गया। कुन्ती और पाँचों पाण्डव भी उसकी सेवा सत्कार में लग रहे थे। ब्राह्मण ने देश-काल की बात करते-करते द्रुपद की कथा छेड़ दी तथा द्रौपदी स्वयंवर की बात भी कही। पाण्डवों ने विस्तारपूर्वक द्रौपदी की जन्म-कथा सुननी चाही इसपर वह द्रुपद का पूर्व-चरित्र सुनाकर कहने लगा--जबसे द्रोणाचार्य ने पाण्डवों के द्वारा द्रुपद को पराजित करवाया, तबसे घड़ी-दो-घड़ी के लिेये भी द्रुपद को चैन नहीं मिला। वे चिन्तित रहने के कारण दुर्बल पड़ गये और द्रोणाचार्य से बदला लेने के लिये आश्रमों में घूमने लगे। वे शोकातुर होकर यही सोचते रहते कि मुझे श्रेष्ठ संतान की प्राप्ति कैसे हो।किन्तु किसी भी प्रकार  द्रोणाचार्य के प्रभाव, विनय, शिक्षा और चरित्र को नीचा दिखाने में समर्थ न हुए। राजा द्रुपद गंगातट पर घूमते-घूमते कल्माषी नगरी के पास एक ब्राह्मण बस्ती में गये। उस बस्ती में ऐसा कोई नहीं था जो ब्रह्मचर्य का विधिवत् पालन करनेवाला या स्नातक न हो। उसमें दो बड़े ही शान्त तपस्वी थे। उनके नाम थे याज और उपयाज। द्रुपद ने पहले छोटे भाई उपयाज के पास जाकर उन्हें प्रसन्न किया और प्रार्थना की कि आप कोई ऐसा कर्म कराइये जिससे मेरे यहाँद्रोण को मारनेवाले पुत्र का जन्म हो। मैं आपको दस करोड़ गाय दूँगा। यही नहीं आपकी जो इच्छा होगी, मैं पूर्ण करूँगा। उपयाज ने कहा, मैं ऐसा नहीं कर सकता। द्रुपद ने फिर भी एक वर्ष तक उनकी सेवा की। उपयाज ने कहा, राजन्, मरे बड़े भाई याज एक दिन वन में विचर रहे थे। उन्होंने जमीन पर पड़े एक ऐसे फल को उठा लिया जिसकी शुद्धि-अशुद्धि के संबंध में कुछ पता नहीं था। मैने उनका यह काम देख लिया और सोचा कि किसी वस्तु के ग्रहण में शुद्धि-अशुद्धि का विचार नहीं करते। तुम उनके पास जाओ वे तुम्हारा यज्ञ करा देंगे। उन्होंने याज की सेवा-सुश्रूषा करके उन्हें प्रसन्न किया और प्रार्थना की कि मैं द्रोण से श्रेष्ठ और उनको युद्ध में मारनेवाला पुत्र चाहता हूँ। आप वैसा यज्ञ मुझसे कराइये। मैं आपको दस करोड़ गौ दूँगा। याज ने स्वीकार कर लिया।याज की सम्मति से द्रुपद का यज्ञ-कार्य सम्पन्न हुआ और अग्निकुण्ड से एक दिव्य कुमार प्रकट हुआ। उसके शरीर का रंग धधकती आग के समान था। सिर पर मुकुट और शरीर पर कवच था। उसके हाथ में धनुष-वाण और खड्ग थे। वह बार-बार गर्जना कर रहा था। अग्निकुण्ड से निकलते ही वह दिव्य कुमार रथ पर सवार होकर इधर-उधर विचरने लगा।सभी पांचालवासी हर्षित होकर, साधु-साधु का उद्घोष करने लगे। इसी समय आकाशवाणी हुई----इस पुत्र के जन्म से द्रुपद का सारा शोक मिट जायगा। यह कुमार द्रोण को मारने के लिये ही पैदा हुआ है। उसी वेदी से कुमारी पांचाली का भी जन्म हुआ। वह सर्वांगसुन्दरी,कमल के समान विशाल नेत्रोंवाली और श्याम वर्ण की थी। उसके नीले-नीले घुँघराले बाल, लाल-लाल ऊँचे नख, उभरी छाती और टेढी भौंहें बड़ी मनोहर थीं। उसके शरीर से तुरंत के खिले नीलकमल के समान सुन्दर गंध दूर तक फैल रही थी। उसके जन्म लेने पर भी आकाशवाणी ने कहा, यह रमणीरत्न कृष्णा है। देवताओं का प्रयोजन सिद्ध करने के लिये क्षत्रियों के संहार के उद्देश्य से इसका जन्म हुआ है। इसके कारण कौरवों को बड़ा भय होगा। इस दिव्य कुमार और कुमारी को देखकर द्रुपदराज की रानी याज के पास आयीं और प्रार्थना करने लगी कि ये दोनो मेरे अतिरिक्त और किसी को अपना माँ न जाने। याज ने राजा की प्रसन्नता के लिये एवमस्तु कहा। इन दिव्य कुमार और कुमारी का नामकरण किया गया। वे बोले, यह कुमार बड़ा धृष्ट और असहिष्णु है। इसका नाम होना चाहिये, धृष्टधुम्न। यह कुमारी कृष्ण वर्ण की है ,इसलिये इसका नाम कृष्णा होगा। यज्ञ समाप्त होने के बाद द्रोणाचार्य धृष्टधुम्न को अपने घर ले आये और उसे अस्त्र-शस्त्र की विशिष्ट शिक्षा दी। बुद्धिमान द्रोणाचार्य यह जानते थे कि कुछ ऐसा होना है जो होकर रहेगा। इसलिये उन्होंने अपने कीर्ति के अनुरुप उस शत्रु को भी अस्त्र शिक्षा दी, जिसके हाथों उनका मरना निश्चित था।