Thursday 31 March 2016

विराटपर्व----पाण्डवों का मत्स्यदेश में जाना, शमीवृक्ष पर अस्त्र रखना और युधिष्ठिर, भीम तथा द्रौपदी का क्रमशः राजभवन में पहुँचना

पाण्डवों का मत्स्यदेश में जाना, शमीवृक्ष पर अस्त्र रखना और युधिष्ठिर, भीम तथा द्रौपदी का क्रमशः राजभवन में पहुँचना

तदनन्तर महापराक्रमी पाण्डव यमुना के निकट पहुँचकर उसके दक्षिण किनारे से चलने लगे। उनकी यात्रा पैदल ही हो रही थी। वे कभी पर्वत की गुफाओं में और कभी जंगलों में ठहरते जाते थे। आगे जाकर वे दशार्ण से उत्तर और पांचाल से दक्षिण यकृल्लोम और शूरसेन देशों के बीच से होकर यात्रा करने लगे। उनके हाथ में धनुष और कमर में तलवार थी। शरीर का रंग फीका हो गया था। दाढ़ी-मूँछें बढ़ गयी थीं।धीरे-धीरे वन का मार्ग तय करके वे मत्स्य देश में जा पहुँचे और क्रमशः आगे बढ़ते हुए विराट की राजधानी के निकट पहुँच गये। तब युधिष्ठिर ने अर्जुन से कहा---'भैया ! नगर में प्रवेश करने के पहले यह निश्चय हो जाना चाहिये कि हमलोग अपने अस्त्र-शस्त्र कहाँ रखें। तुम्हारा यह गाण्डीव धनुष बहुत बड़ा है, संसार के सब लोगों में इनकी प्रसिद्धि है; अतः यदि हमलोग अस्त्रों को साथ लेकर नगर में प्रवेश करेंगे तो इसमें कोई संदेह नहीं कि सबलोग हमें पहचान लेंगे। ऐसी दशा में हमें अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार फिर बारह वर्ष तक के लिये वनवास करना पड़ेगा।' अर्जुन ने कहा---राजन् ! श्मशानभूमि के निकट एक टीले पर यह शमी का बहुत बड़ा सघन वृक्ष दिखायी दे रहा है; इसकी शाखाएँ बड़ी भयानक हैं, अतः इसके ऊपर किसी का चढ़ना कठिन है। इसके सिवा इस समय यहाँ ऐसा कोई मनुष्य भी नहीं है, जो हमलोगों को इसपर शस्त्र रखते देख सके। यह वृक्ष रास्ते से बहुत दूर जंगल में है, इसके आस-पास हिंसक जीव और सर्प आदि रहते हैं। इसलिये इसी पर हम अपने अस्त्र-शस्त्र रखकर नगर में प्रवेश करें; और वहाँ जैसा सुयोग हो, उसके अनुसार समय व्यतीत करें। धर्मराज से यों कहकर अर्जुन अस्त्र-शस्त्रों को वहाँ रखने का उद्योग करने लगे। पहले सबने अपने-अपने धनुष की डोरी उतार ली; फिर चमकती हुई तलवारों, तरकसों और छूरे के समान तीखी धारवाले वाणों को धनुष के साथ बाँधा। तब युधिष्ठिर ने नकुल से कहा---'वीर ! तुम शमी पर चढ़कर यह धनुष रख दो।' आज्ञा पाते ही नकुल उस वृक्ष पर चढ़ गये और उसके खोड़रे में, जहाँ वर्षा का पानी पड़ने की सम्भावना नहीं थी, सबके धनुष रखकर उन्होंने एक मजबूत रस्सी से शाखा के साथ बाँध दिया। इसके बाद पाण्डवों ने एक मुर्दे की लाश लाकर उसे वृक्ष से लटका दिया जिससे उसकी दुर्गन्ध के कारण कोई मनुष्य वृक्ष के निकट न आ सके। यह सब प्रबन्ध करके युधिष्ठिर ने पाँचों भाइयों का एक-एक गुप्त नाम रखा, जो क्रमशः इस प्रकार है---जय, जयन्त, विजय, जयत्सेन और जयद्वल। फिर अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार अज्ञातवास करने के लिये उन्होंने विराट के बहुत बड़े नगर में प्रवेश किया। नगर में प्रवेश करते समय महाराज युधिष्ठिर ने भाइयों के साथ मिलकर त्रिभुनेश्वरी दुर्गा का स्तवन किया। देवी प्रसन्न हो गयीं। और उन्होंने प्रकट होकर विजय तथा राज्यप्राप्ति का वरदान दिया और यह भी कहा कि 'विराटनगर में तुम्हे कोई पहचान नहीं सकेगा।'  तदनन्तर वे राजा विराट की सभा में गये। राजा विराट राजसभा में बैठे थे। सबसे पहले युधिष्ठिर उनके दरबार में पहुँचे, वे एक वस्त्र में पासे बाँधकर लेते गये थे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने राजा से निवेदन किया कि 'सम्राट् ! मैं एक ब्राह्मण हूँ; मेरा सर्वस्व लुट गया है, इसलिये मैं आपके यहाँ जीविका के लिये आया हूँ। आपकी इच्छा के अनुसार सब कार्य करते हुए मैं आपही के निकट रहने की इच्छा करता हूँ।' राजा ने प्रसन्नता के साथ उनका स्वागत किया और उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। फिर प्रेमपूर्वक पूछा---ब्राह्मणदेवता ! मैं जानना चाहता हूँ कि तुमने किस राजा के राज्य से यहाँ पधारने का कष्ट किया है, तुम्हारा नाम और गोत्र क्या है, तथा तुम कौन-सी कला जानते हो । युधिष्ठिर बोले---राजन् ! मैं व्याघ्रपाद गोत्र में उत्पन्न हुआ हूँ। मेरा नाम है कंक। पहले मैं राजा युधिष्ठिर के पास रहता था। जूआ खेलनेवालों में पासा फेंकने की कला का मुझे विशेष ज्ञान है। विराट ने कहा---कंक ! मैन तुम्हे अपना मित्र बनाया; जैसी सवारी मैं चलाता हूँ, वैसी ही तुम्हे भी मिलेगी। पहनने के वस्त्र और भोजन-पान आदि का प्रबंध भी पर्याप्त मात्रा में रहेगा। बाहर के राज्य, कोष और सेना आदि तथा भीतर के धन दारा आदि की देखभाल तुमपर छोड़ता हूँ। तुम्हारे लिये राजमहल का फाटक सदा खुला रहेगा , तुमसे कोई परदा नहीं रखा जायगा। जो लोग जीविका के बिना कष्ट पाते हों और तुम्हारे पास आकर याचना करें, उनकी प्रार्थना तुम हर समय मुझको सुना सकते हो, तुम्हे विश्वास दिलाता हूँ कि उन याचकों की सभी कामनाएँ पूर्ण करूँगा। तुम मुझसे कुछ भी कहते समय भय या संकोच मत करना। राजा से इस प्रकार बातचीत करके युधिष्ठिर बड़े सम्मान के साथ वहाँ सुखपूर्वक रहने लगे। उनका गुप्त रहस्य किसी पर प्रकट नहीं हुआ।  तदनन्तर सिंह की-सी मस्त चाल चलते हुए भीमसेन राजा के दरबार में उपस्थित हुए। उनके हाथ में चमचा, कलछी और साग काटने के लिये एक लोहे का काला छुरा भी था। वेष तो रसोइये का था, पर उनके शरीर से तेज निकल रहा था। उन्होंने आते ही कहा---'राजन् ! मेरा नाम बल्लव है। मैं रसोई का काम जानता हूँ, मुझे बहुत अच्छा भोजन बनाने आता है। आप इस काम के लिये मुझे रख लें।' विराट ने कहा---बल्लव ! मुझे विश्वास नहीं होता कि तुम रसोइये हो, तुम तो इन्द्र के समान तेजस्वी और पराक्रमी दिखायी देते हो ! भीमसेन बोले---महाराज ! विश्वास कीजिये, मैं रसोइया हूँ और आपकी सेवा करने आया हूँ। राजा युधिष्ठिर ने भी मेरे बनाये हुए भोजन का स्वाद लिया है। इसे सिवा, जैसा कि आपने कहा है, मैं पराक्रमी भी हूँ; बल में मेरे समान दूसरा कोई नहीं है। पहलवानी में भी मेरी बराबरी कोई नहीं कर सकता। मैं सिंहों और हाथियों से युद्ध करके आपको प्रसन्न किया करूँगा। विराट ने कहा--- अच्छा, भैया ! तुम अपने को भोजन बनाने के काम में कुशल बताते हो तो यही काम करो।  यद्यपि यह काम मैं तुम्हारे योग्य नही समझता, तथापि तुम्हारी इच्छा देखकर स्वीकार कर रहा हूँ। तुम मेरी पाकशाला के प्रधान अधिकारी रहो। जो लोग पहले से उसमें काम कर रहे हैं, मैं तुम्हे उन सबका स्वामी बना रहा हूँ। इस प्रकार भीमसेन राजा विराट की पाकशाला के प्रधान रसोइये हुए। उन्हे कोई पहचान न सका। राजा को वे बड़े ही प्रिय हो गये। इसके बाद द्रौपदी सैरन्ध्री का वेष बनाये दुखिया की तरह नगर में भटकने लगी। उस समय राजा विराट की रानी सुदेष्णा अपने महल से नगर की शोभा देख रही थी, उनकी दृष्टि द्रौपदी पर पड़ी। वह एक वस्त्र धारण किये अनाथ सी जान पड़ती थी। रूप तो उसका अद्भुत् था ही। रानी ने उसे अपने पास बुलाकर पूछा---'कल्याणी ! तुम कौन हो और क्या करना चाहती हो ?' द्रौपदी ने कहा---'महारानी ! मैं सैरन्ध्री हूँ और अपने योग्य काम चाहती हूँ; जो मुझे नियुक्त करेगा, मैं उसका कार्य करूँगी।' सुदेष्णा बोली---'भामिनि ! तुम्हारी-जैसी रूपवती स्त्रियाँ सैरन्ध्री नहीं हुआ करतीं। तुम तो बहुत से दास और दासियों की स्वामिनी जान पड़ती हो। बड़ी-बड़ी आँखें, लाल-लाल ओठ, शंख के समान गला, नस और नाडियाँ माँस से ढ़की हुई और पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर मुखमण्डल ! यह है तुम्हारा सुन्दर रूप, जिससे लक्ष्मी सी जान पड़ती हो। अतः सच-सच बताओ, तुम कौन हो ? यक्ष या देवता तो नहीं हो ? अथवा तुम कोई अप्सरा, देवकन्या, नागकन्या या चन्द्रपत्नी रोहिणी या इन्द्राणी तो नहीं हो ? अथवा ब्रह्मा या प्रजापति की देवियों में से कोई हो ?' द्रौपदी बोली---रानी ! मैं सच कहती हूँ---देवता या गन्धर्वी नहीं हूँ, सेवा का काम करनेवाली सैरन्ध्री हूँ। बालों को सुन्दर बनाना और गूँथना जानती हूँ, चन्दन या अंगराग भी बहुत अच्छा तैयार करती हूँ। मल्लिका, उत्पल, कमल और चम्पा आदि फूलों को बहुत सुन्दर एवं विचित्र-विचित्र हार गूँथ सकती हूँ। आज से पहले मं महारानी द्रौपदी की सेवा में रह चुकी हूँ। जहाँ-तहाँ घूम-फिरकर सेवा करती रहती हूँ, और भोजन तथा वस्त्र के सिवा और कुछ नहीं लेती। वह भी जितना मिल जाय, उतने से ही संतोष कर लेती हूँ। सुदेष्णा ने कहा---यदि राजा तुमपर मोहित न हों तो तुम्हे मैं अपने सिर पर रख सकती हूँ। किन्तु मुझे संदेह है कि राजा तुम्हें देखते ही संपूर्ण चित्त से तुम्हें चाहने लगेंगे। द्रौपदी बोली---महारानी ! राजा विराट अथवा कोई भी परपुरुष मुझे प्राप्त नहीं कर सकता। पाँच तरुण गन्धर्व मेरे पति हैं, जो सदा मेरी रक्षा करते रहते हैं। जो मुझे अपनी जूठन नहीं देता, मुझसे पैर नहीं धुलवाता, उसके ऊपर मेरे पति गन्धर्वलोग प्रसन्न रहते हैं; परन्तु जो मुझे अन्य साधारण स्त्रियों के समान समझकर मेरे ऊपर बलात्कार करना चाहता है, उसको उसी रात में शरीर त्याग करना पड़ता है; मेरे पति उसे मार डालते हैं। अतः कोई भी पुरुष मुझे सदाचार से विचलित नहीं कर सकता। सुदेष्णा ने कहा---नन्दिनि ! यदि ऐसी बात है, तो मैं तुम्हे अपने महल में रखूँगी। तुम्हे पैर या जूठन नहीं छूने पड़ेंगे। विराट की रानी ने जब इस प्रकार आश्वासन दिया, तब पतिव्रत धर्म पालन करनेवाली सती द्रौपदी वहाँ रहने लगी, उसे कोई भी पहचान न सका।

विराटपर्व---धौम्य का युधिष्ठिर को राजा के यहाँ रहने का ढ़ंग बताना

धौम्य का युधिष्ठिर को राजा के यहाँ रहने का ढ़ंग बताना
द्रौपदी सहित सब भाइयों की बातें सुनकर राजा युधिष्ठिर ने कहा---"विधता के निश्चय के अनुसार जो-जो कार्य तुमलोग करनेवाले हो, सो सब तुमने सुना दिये; मुझे भी अपनी बुद्धि के अनुसार जो कुछ उचित जान पड़ा, वह अपना कर्तव्य बताया। अब पुरोहित धौम्य मुनि सेवकों और रसोइयों के साथ राजा द्रुपद के घर पर जाकर रहें और हमारे अग्निहोत्र की रक्षा करें। इन्द्रसेन आदि सारथि और सेवकगण खाली रथ लेकर द्वारका चले जायँ। तथा ये सब स्त्रियाँ और द्रौपदी की दासियाँ रसोइयों और नौकरों सहित पांचाल को लौट जायँ। किसी के पूछने पर सबको यही बताना चाहिये कि 'हमें पाण्डवों का पता नहीं है, वे हमको द्वैतवन में ही छोड़कर न जाने कहँ चले गये।" इस प्रकार परस्पर निश्चय करके पाण्डवों ने धौम्य मुनि से सलाह ली। धौम्य ने उनके समक्ष अपना विचार इस प्रकार रखा---'पाण्डवों ! तुमने ब्राह्मण, सुहृद्, सेवक, वाहन अस्त्र-शस्त्र और अग्नि आदि के सम्बन्ध में जैसी व्यवस्था की है, सब ठीक है। अब मैं तुम्हे यह बता देना चाहता हूँ कि राजा के घर में रहकर कैसा वर्ताव करना चाहिये। राजा से मिलना हो तो पहले द्वारपाल से मिलकर उनकी आज्ञा मँगा लेनी चाहिये; राजाओं पर पूर्ण विश्वास कभी नहं करना चाहिये। अपने लिये वही आसन पसंद करें जिसपर दूसरा कोई बैठनेवाला न हो। समझदार मनुष्य को कभी राजा की रानियों से मेल-जोलनहीं बढ़ाना चाहिये। इसी प्रकार जो अंतःपुर में जाने-आनेवाले हों, उनलोगों से तथा राजा जिनसे द्वेष रखते हों या जो लोग राजा से शत्रुता रखते हों, उनसे भी मित्रता नहीं करनी चाहिये। छोटे-से-छोटा कार्य भी राजा को जताकर ही करें,  ऐसा करने से कभी हानि नहीं उठानी पड़ती। अग्नि और देवता के समान मानकर प्रतिदिन प्रयत्नपूर्वक राजा की परिचर्या करनी चाहिये।  जो उनके साथ कपटपूर्ण बर्ताव करता है, वह निःसंदेह मारा जाता है। राजा जिस-जिस कार्य के लिये आज्ञा दे, उसका ही पालन करे; लापरवाही, क्रोध और घमण्ड को सर्वथा त्याग दे। प्रिय और हितकारी बात कहे; प्रिय से भी हितकर वचन का महत्व विशेष है। सभी विषयों और सब बातों में राजा के अनुकूल रहे। जो चीज राजा को पसंद न हो, उसका कदापि सेवन न करे; उसे शत्रुओं से बातचीत करना छोड़ दे और कभी भी अपने स्थान से विचलित न हो। ऐसा वर्ताव करनेवाला मनुष्य ही राजा के यहाँ रह सकता है। विद्वान पुरुष राजा के दाहिने या बाँयें भाग में बैठे; जो शस्त्र लेकर पहरा देनेवाले हों, उन्हें राजा के पिछले भाग में रहना चाहिये। यदि राजा कोई अप्रिय बात कह दे, तो उसे दूसरों के सामने प्रकाशित न करे। 'मैं शूरवीर हूँ, बड़ा बुद्धिमान हूँ, ऐसा घमण्ड न दिखाये, सदा राजा के प्रिय लगनेवाला कार्य करता रहे। अपने दोनो हाथ, ओठ और घुटनों को व्यर्थ न हिलावे; बहुत बातें न बनावे। किसी की हँसी हो रही हो तो बहुत हर्ष न प्रकट करे। पागलों की तरह ठहाका मारकर भी न हँसे। जो किसी वस्तु के मिलने पर खुशी के मारे फूल नहीं उठता, अपमान हो जाने पर बहुत दुःखी नहीं होता और अपने काम में सदा सावधान रहता है, वही राजा के यहाँ टिक सकता है।यदि कोई मंत्री राजा का पहले कृपापात्र रहा हो और पीछे अकारण उसे दण्ड भोगना पड़े, तो भी यदि वह उसकी निंदा नहीं करता तो फिर उसे सम्पत्ति प्राप्त हो जाती है। सदा अपना ही लाभ सोकर राजा दी दूसरों के साथ अधिक बातचीत नहीं करानी चाहिये; युद्ध आदि योग्य अवसरों पर राजा को सब प्रकार की राजोचित शक्तियों से विशिष्ट बनाने का प्रयत्न करते रहना चाहिये। जो सदा उत्साह दिखानेवाला; बु्धि-बल से युक्त, शूरवीर, सत्यवादी,  दयालु, जितेन्द्रिय और छाया की भाँति राजा के पीछे चलनेवाला हो, वही राजा के घर में गुजारा कर सकता है।  जब दूसरे को किसी काम के लिये भेजा जा रहा हो, उस समय जो स्वयं ही उठकर आगे आ जाय और पूछे---'मेरे लिये क्या आज्ञा है ?' वही राजभवन में टिक सकता है। राजा के समान अपनी वेश-भूषा न बनावें, उनके अत्यन्त निकट न रहें तथा अनेकों प्रकार की विरुद्ध सलाह न दिया करें। ऐसा करने से ही मनुष्य राजा का प्रिय हो सकता है। यदि राजा ने किसी काम पर नियुक्त कर दिया हो, तो उसमें दूसरों से घूस के रूप में थोड़ा भी धन न लेवें; क्योंकि जो चोरी का लेता है, उसे किसी-न-किसी दिन बन्धन अथवा वध का दण्ड भोगना पड़ता है। पाण्डवों ! इस प्रकार प्रयत्नपूर्वक अपने मन को वश में रखकर अच्छा वर्ताव करते हुए तेरहवाँ वर्ष पूर्ण करो; इसके बाद अपने देश में आकर स्वच्छंद बिचरना। युधिष्ठिर बोले---ब्रह्मन् ! आपने हमलोगों को बहुत अच्छी सीख दी। हमारी माता कुन्ती और महाबुद्धिमान् विदुरजी को छोड़कर दूसरा कोई नहीं है, जो ऐसी बात बता सके। अब हमें इस दुःख से छुटकारा दिलाने, यहाँ से प्रस्थान करने और विजयी होने के लिये जो कर्तव्य आवश्यक हो, उसे आप पूरा करें। राजा युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर धौम्यजी ने यात्रा के समय जो कुछ भी शास्त्रविहित कर्तव्य है, उसका विधिवत् सम्पादन किया। पाण्डवों की अग्निहोत्र सम्बन्धी अग्नि को प्रज्वलित करके उन्होंने उनकी समृद्धि और विजय के लिये वेदमन्त्र पढ़कर हवन किया।  इसके बाद पाण्डवों ने अग्नि, ब्राह्मण और तपस्वियों की प्रदक्षिणा की और द्रौपदी को आगे करके वे अज्ञातवास के लिये चल दिये। उनके चले जाने पर धौम्यजी उस आहवनीय अग्नि को लेकर पांचाल देश में चले गये। तथा इन्द्रसेन आदि सेवक द्वारका जाकर रथ और घोड़ों की रक्षा करते हुए आनन्दपूर्वक रहने लगे।

Thursday 24 March 2016

विराटपर्व---विराटनगर में कौन क्या कार्य करे, इसके विषय में पाण्डवों का विचार

विराटनगर में कौन क्या कार्य करे, इसके विषय में पाण्डवों का विचार
यक्ष से वरदान पाने के अनन्तर एक दिन धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अपने सब भाइयों को पास बुलाकर इस प्रकार कहा---'राज्य से बाहर होकर वन में रहते हुए हमलोगों के बारह वर्ष बीत गये; अब यह तेरहवाँ लग रहा है, इसमें बड़े कष्ट से कठिनाइयों का सामना करते हुए गुप्तरूप से रहना होगा। अर्जुन ! तुम अपनी रुचि के अनुसार कोई अच्छा सा निवासस्थान बताओ, जहाँ हम सब लोग चलकर एक वर्ष तक रहें और शत्रुओं को इसकी कानोंकान खबर न हो।' अर्जुन बोले---महाराज ! इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि धर्मराज के दिये हुए वर के प्रभाव से हमें कोई भी मनुष्य पहचान नहीं सकता; अतः हमलोग स्वच्छन्दतापूर्वक इस पृथ्वी पर विचरते रहेंगे। तो भी मैं आपसे निवास करने योग्य कुछ रमणीय एवं गुप्त राष्ट्रों का नाम बताता हूँ। कुरुक्षेत्र के आस-पास बहुत सुरम्य प्रदेश हैं, जहाँ बहुत अन्न होता है। उनके नाम हैं---पांचाल, चेदि, मत्स्य, शूरसेन, पटच्चर, दशार्ण, नवराष्ट्र, मल्ल, शाल्व, युगन्धर, कुन्तिराष्ट्र, सुराष्ट्र और अवन्ति। इनमें से किसी भी देश को आप निवास के लिये पसन्द कर लें, उसी में हम सब लोग इस वर्ष रहेंगे। युधिष्ठिर ने कहा---तुम्हारे बताये हुए देशों में से मत्स्य देश का राजा विराट बहुत बलवान् है और पाण्डुवंश पर प्रेम भी रखता है; साथ ही वह उदार, धर्मात्मा और वृद्ध भी है। इसलिये विराटनगर में ही हम एक वर्ष तक निवास करें और राजा का कुछ काम करते रहें। किन्तु तुमलोग अब यह बताओ कि मत्स्यदेश में रहते हुए हम राजा विराट के किन-किन कामों को कर सकते हैं। अर्जुन ने पूछा---नरदेव ! आप उनके राष्ट्र में कैसे रह सकेंगे ? अथवा कौन सा काम करने से विराटनगर में आपका मन लगेगा ? युधिष्ठिर बोले---मैं पासा खेलने की विद्या जानता हूँ और यह खेल मुझे पसंद भी है; इसलिये कंक नामक ब्राह्मण बनकर राजा के पास जाऊँगा और उनकी राजसभा का एक सभासद् बना रहूँगा। मेरा काम होगा---राजा, मंत्री तथा राजा के सम्बन्धियों को पासा खेलाकर प्रसन्न रखना। भीमसेन ! अब तुम बताओ, कौन सा काम करने से विराट के यहाँ प्रसन्नतापूर्वक रह सकोगे ? भीम ने कहा---मैं रसोई बनाने के काम में चतुर हूँ, अतः बल्लव नामक रसोइया बनकर राजा के दरबार में उपस्थित होऊँगा। युधिष्ठिर---अच्छा, अर्जुन क्या काम करेगा ? अर्जुन---मैं हाथों में शंख तथा हाथीदाँत की चूड़ियाँ पहनकर सिर पर चोटी गूँथ लूँगा और अपने को नपुंसक घोषित कर 'बृहनल्ला' नाम बताऊँगा। मेा काम होगा---राजा विराट के अंतःपुर की स्त्रियों को संगीत और नृत्यकला की शिक्षा देना। साथ ही उन्हें कई प्रकार के बाजे बजाना भी सिखाऊँगा। इस तरह नर्तकी के रूप में मैं अपने को छिपाये रहूँगा। युधिष्ठिर--- भैया नकुल ! अब तुम अपनी बात बताओ, राजा विराट के यहाँ तुम्हारे द्वारा कौन सा कार्य सम्पन्न हो सकेगा ? नकुल---मुझे अश्वविद्या की विशेष जानकारी है, घोड़ों को चाल सिखलाना, उनकी रक्षा और पालन करना तथा उनके रोगों की चिकित्सा करना---इन सब कार्यों में मैं विशेष कुशल हूँ, अतः राजा के यहाँ जाकर मैं अपना नाम ग्रन्थिक बताऊँगा और उनका अश्वपाल बनकर रहूँगा। अब युधिष्ठिर ने सहदेव से पूछा---भैया ! राजा के पास जाकर तुम किस प्रकार अपना परिचय दोगे और कौन -सा काम करके अपने स्वरूप को गुप्त रख सकोगे। सहदेव---मैं राजा विराट की गौओं की संभाल रखूँगा। कितनी ही उद्धत गौ क्यों न हो, मैं उसे काबू में कर लेता हूँ। गौओं के दुहने और परीक्षा करने में भी कुशल हूँ। गौओं के जो लक्षण या चरित्र मंगलमय होते हैं, उनका भी मुझे अच्छा ज्ञान है। मैं उन शुभ लक्षणों वाले बैलों को भी जानता हूँ, जिनके मूत्र को सूँघ लेने मात्र से बाँझ स्त्री भी गर्भ धारण कर सकती है। इसलिये मैं गौओं की सेवा करूँगा। मेरा नाम होगा 'तन्तिपाल'। मुझे कोई पहचान नहीं सकता; मैं राजा को प्रसन्न कर लूँगा। अब युधिष्ठिर द्रौपदी की ओर देखकर कहने लगे---यह द्रुपदकुमारी तो हमलोगों के प्राणों से भी अधिक प्यारी है; भला यह वहाँ जाकर कौन सा कार्य करेगी ? द्रौपदी बोली---महाराज ! आप मेरे लिये चिन्ता न करें। जो स्त्रियाँ दूसरों के घर सेवा का कार्य करती हैं, उन्हें सैरन्ध्री कहते हैं; अतः मैं सैरन्ध्री कहकर अपना परिचय दूँगी। केशों के श्रृंगार का कार्य मैं अच्छी तरह जानती हूँ। पूछने पर बताऊँगी कि मैं द्रौपदी की दासी थी। मैं स्वतः अपने को छिपाकर रखूँगी; इसके अलावा विराट की रानी सुदेष्णा भी मेरी रक्षा करेगी। अतः आप मेरी ओर से निश्चिन्त रहें।

Tuesday 22 March 2016

वनपर्व---सब पाण्डवों का जीवित होना, महाराज युधिष्ठिर का वर पाना तथा पाण्डवों का अज्ञातवास के लिये सबसे विदा लेना

सब पाण्डवों का जीवित होना, महाराज युधिष्ठिर का वर पाना तथा पाण्डवों का अज्ञातवास के लिये सबसे विदा लेना


तब यक्ष के कहते ही सब पाण्डव खड़े हो गये तथा एक क्षण में ही उनकी सब भूख-प्यास जाती रही।युधिष्ठिर ने पूछा---भगवन् ! आप कौन देवश्रेष्ठ हैं ? आप यक्ष ही हैं, ऐसा तो मुझे मालूम नहीं होता आप वसुओं में से, रुद्रों मे से अथवा मरुतों में से तो कोई नहीं हैं ? अथवा स्वयं देवराज इन्द्र ही हैं ? मेरे ये भाई तो सौ-सौ, हजार-हजार वीरों से युद्ध करनेवाले हैं। ऐसा तो मैने कोई योद्धा नहीं देखा, जिसने इन सभी को रणभूमि में गिरा दिया हो। अब जीवित होने पर भी इनकी इन्द्रियाँ सुख की नींद सोकर उठे ुओं के समान स्वस्थ दिखायी देती है; सो आप हमारे कोई सुहृद हैं अथवा पिता हैं। यक्ष ने कहा---भरतश्रेष्ठ ! मैं तुम्हारा पिता धर्मराज हूँ। यश, सत्य, दम, शौच, मृदुता, लज्जा, अचंचलता, दान, तप और ब्रह्मचर्य---ये सब मेरे शरीर हैं तथा अहिंसा, समता, शान्ति, तप, शौच और अमत्सर---इन्हें तुम मेरा मार्ग समझो। तुम मुझे सदा ही प्रिय हो। यह बड़ी प्रसन्नता की बात है कि तुम्हारी शम, दम, उपरति, तितिक्षा और समाधान---इन पाँच साधनों पर प्रीति है तथा तुमने भूख-प्यास, शोक-मोह और जरा-मृत्यु---इन छः दोषों को जीत लिया है। इनमें पहले दो दोष आरम्भ से ही रहते हैं, बीच के दो तरुणावस्था आने पर होते हैं तथा अन्तिम दो दोष अनन्त समय पर आते हैं। मैं धर्म हूँ और तुम्हारा व्यवहार जानने की इच्छा से ही यहाँ आया हूँ। निष्पाप राजन् ! तुम्हारी समदृष्टि के कारण मैं तुमपर प्रसन्न हूँ, तुम अभीष्ट वर माँग लो; जो मेरे भक्त हैं, उनकी कभी दुर्गति नहीं होती। युधिष्ठिर ने कहा---भगवन् ! पहला वर तो मैं यही माँगता हूँ कि जिस ब्राह्मण के अरणीसहित मन्थन काष्ठ को मृग लेकर भाग गया है, उसके अग्निहोत्र का लोप हो। यक्ष ने कहा---राजन् ! उस ब्राह्ण के अरणिसहित मन्थन काष्ठ को तुम्हारी परीक्षा के लिये मैं ही मृगरूप से लेकर भाग गया था। वह मैं तुम्हे देता हूँ। तुम कोई दूसरा वर माँग लो। युधिष्ठिर बोले---हम बारह वर्ष तक वन में रहे, अब तेरहवाँ वर्ष लगा है; अतः ऐसा वर दीजिये कि हमें कोई पहचान सके। यह सुनकर भगवान् धर्म ने कहा---'मैने तुम्हे वर दिया। यद्यपि तुम पृथ्वी पर अपने इसी रूप से विचरोगे , तो भी तुम्हे कोई पहचान नहीं सकेगा। तथा तुममें से जो-जो जैसा-जैसा चाहेगा, वह वैसा-वैसा ही रूप धारण कर सकेगा। इसके सिवा तुम एक तीसरा वर भी माँग लो। राजन् ! तुम मेरे पुत्र हो और विदुर ने भी मेरे ही अंश से जन्म लिया है; अतः मेरी दृष्टि में तुम दोनो ही समान हो। युधिष्ठिर ने कहा--- युधिष्ठिर ने कहा---भगवन् ! आप सनातन देवाधिदेव हैं। आज साक्षात् आपके ही दर्शन हुए, इससे अब मेरे लिये क्या दुर्लभ है ? तो भी आप मुझे जो वर देंगे, वह मैं सिर आँखों पर लूँगा। मुझे ऐसा वर दीजिये कि मैं लोभ, मोह और क्रोध को जीत सकूँ तथा दान, तप और सत्य में सर्वदा मेरे मन की प्रवृति रहे। धर्मराज ने कहा---पाण्डुपुत्र ! इन गुणों से तो तुम स्वभाव से ही सम्पन्न हो, आगे भी तुम्हारे कथनानुसार तुममें ये सब धर्म बने रहेंगे। ऐसा कहकर भगवान् धर्म अन्तर्धान हो गये तथा सब पाण्डव साथ-साथ आश्रम में लौट आये। वहाँ आकर उन्होंने उस तपस्वी ब्राह्मण को उसकी अरणी दे दी। जो लोग इस श्रेष्ठ आख्यान को ध्यान में रखेंगे उनके मन की अधर्म में, सुहद्विद्रोह में, दूसरों का धन हरने में, परस्त्रीगमन में अथवा कृपणता में कभी प्रवृति नहीं होगी। इस तरह धर्मराज की आज्ञा पाकर सत्यपराक्रमी पाण्डवलोग अज्ञात रहने के लिये तेरहवें वर्ष में गुप्तरूप से रहे थे। वे सब बड़े नियम-व्रतादि का पालन करनेवाले थे। एक दिन वे अपने प्रेमी वनवासी तपस्वियों के साथ बैठे थे। उस समय अज्ञातवास के लिये आज्ञा लेने के लिये उन्होंने हाथ जोड़कर कहा, 'मुनिगण ! हम बारह वर्ष तक तरह-तरह की कठिनाइयाँ सहते हुए वन में निवास करते हुए वन में निवास करते रहे हैं। अब हमारे अज्ञातवा का तेरहवाँ वर्ष शेष है। इसमें हम छिपकर रहेंगे। आप हमें इसके लिये आज्ञा देने की कृपा करें। दुरात्मा दुर्योधन, कर्ण और शकुनि ने हमारे पीछे गुप्तचर लगा दिये हैं तथा पुरवासी और स्वजनोंको सचेत कर दिया है कि यदि हमें कोई आश्रय देगा तो उसके साथ कड़ाई का व्यवहार किया जायगा। अतः अब हमको किसी दूसरे राष्ट्र में जाना होगा। अतः अाप हमें प्रसन्नता से अन्यत्र जाने की आज्ञा प्रदान करें।' तब समस्त वेदवत्ता मुनि और यतियों ने उन्हें आशीर्वाद दिये और उनसे फिर भी भेंट होने की आशा रखकर वे अपने-अपने आश्रमों को चले गये। फिर धौम्य के साथ पाँचों पाण्डव खड़े हुए और द्रौपदी के सहित वहाँ से चल दिये। एक कोस आकर वे दूसरे ही दिन अज्ञातवास आरम्भ करने के लिये आपस में सलाह करने के लिये बैठ गये।