Sunday 29 May 2016

विराटपर्व---दुर्योधन की पराजय, कौरवसेना का मोहित होना और कुरुदेश को लौटना

दुर्योधन की पराजय, कौरवसेना का मोहित होना और कुरुदेश को लौटना
जब भीष्मजी संग्राम का मुहाना छोड़कर रण से बाहर हो गये,  उस समय दुर्योधन अपने रथ की पताका फहराता तथा गरजता हुआ हाथ में धनुष ले धनंजय के ऊपर चढ़ आया। उसने कान तक धनुष खींचकर अर्जुन के ललाट में बाण मारा; वह बाण ललाट में धँस गया और उसे गरम-गरम रक्त की धारा बहने लगी। इससे अर्जुन का क्रोध बढ़ गया और वह विषाग्नि के समान तीखे बाणों से दुर्योधन को बींधने लगा। इस प्रकार अर्जुन दुर्योधन को और दुर्योधन अर्जुन को बींधते हुए आपस में युद्ध करने लगे। तत्पश्चात् अर्जुन ने एक बाण मारकर दुर्योधन की छाती छेद दी और उसे घायल कर दिया। फिर उन्होंने कौरवों के मुख्य-मुख्य योद्धाओं को मार भगाया। योद्धाओं को भागते देख दुर्योधन ने भी अपना रथ पीछे लौटाया और युद्ध से भागने लगा। अर्जुन ने देखा दुर्योधन का शरीर घायल हो गया है और वह मुँह से रक्त वमन करता हुआ बड़ी तेजी के साथ भागा जा रहा है; तब उसने युद्ध की इच्छा से अपनी भुजाएँ ठोंककर दुर्योधन को ललकारते हुए कहा---'धृतराष्ट्रनन्दन ! युद्ध में पीठ दिखाकर क्यों भागा जा रहा है, अरे ! इससे तेरी विशाल कीर्ति नष्ट हो रही है। तेरे विजय के बाजे पहले जैसे बजते थे, वैसे अब नहीं बज रहे हैं ! तूने जिसे राज्य से उतार दिया है, उन्हीं धर्मराज युधिष्ठिर का आज्ञाकारी यह मध्यम पाण्डव अर्जुन युद्ध के लिये खड़ा है, जरा पीछे फिरकर मुँह तो दिखा। राजा के कर्तव्य का तो स्मरण कर। वीर पुरुष दुर्योधन ! अब आगे-पीछे तेरा कोई रक्षक नहीं दिखायी देता, इसलिये भाग जा और इस पाण्डव के हाथ से अपने प्यारे प्राणों को बचा ले।' इस प्रकार युद्ध में महात्मा अर्जुन के ललकारने पर अंकुश की चोट खाये हुए मस्त गजराज के समान दुर्योधन लौट पड़ा। अपने क्षत-विक्षत शरीर को किसी तरह संभालकर उसे पुनः युद्ध में आते देख कर्ण उत्तर ओर से उसकी रक्षा करता हुआ अर्जुन के मुकाबले में आ गया। पश्चिम से उसकी रक्षा करने के लिये भीष्मजी धनुष चढ़ाये लौट आये। द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, विविंशति और दुःशासन अपने बड़े-बड़े धनुष लिये शीघ्र ही आये। दिव्य अस्त्र धारण किये हुए उन योद्धाओं ने अर्जुन को चारों ओर से घेर लिया और जैसे  बादल पहाड़ के ऊपर सब ओर से पानी बरसाते हैं, उसी प्रकार वे उसपर बाणों की वर्षा करने लगे। अर्जुन ने अपने शस्त्र छोड़कर शत्रुओं के अस्त्रों का निवारण कर दिया और कौरवों को लक्ष्य करके सम्मोहन नामक अस्त्र प्रकट किया, जिसका निवारण होना कठिन था। इसके बाद उसने भयंकर आवाज करनेवाले अपने शंख को दोनो हाथों से थामकर उच्च स्वर से बजाया। उसकी गम्भीर ध्वनि से दिशा-विदिशा, भूलोक तथा आकाश गूँज उठे। अर्जुन के बजाते हुए उस शंख की आवाज सुनकर कौरव वीर बेहोश हो गये, उनके हाथों से धनुष और बाण गिर पड़े तथा वे सभी परम शान्त---निष्चेष्ट हो गये। उन्हें अचेत हुए देख अर्जुन को उत्तरा की बात का स्मरण हो आया; अतः उसने उत्तर से कहा---'राजकुमार ! जबतक इन कौरवों को होश नहीं होता, तबतक ही तुम सेना के बीच से निकल जाओ और द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्य के श्वेत, कर्ण के पीले तथा अश्त्थामा एवं दुर्योधन के नीले वस्त्र लेकर लौट आओ। मैं समझता हूँ, पितामह भीष्मजी सचेत हैं, क्योंकि वे इस सम्मोहनास्त्र को निवारण करना जानते हैं। इसलिये उनके घोड़ों को अपनी बायीं ओर छोड़कर जाना; क्योंकि जो होश में है, उससे इसी प्रकार सावधान होकर चलना चाहिये।' अर्जुन के ऐसा कहने पर विराटकुमार उत्तर घोड़ों की बागडोर छोड़कर रथ से कूद पड़ा और महारथियों के वस्त्र ले पुनः शीघ्र ही उसपर आ बैठा। तदनन्तर वह रथ हाँककर अर्जुन को युद्ध के घेरे से बाहर ले चला। इस प्रकार अर्जुन को जाते देख भीष्मजी उसे बाणों से मारने लगे। तब अर्जुन ने भी उनके घोड़ों को मारकर उन्हें भी दस बाणों से बींध दिया; इसके बाद सारथि के भी प्राण ले लिये। फिर उन्हें युद्धभूमि में छोड़कर वह रथियों के समूह से बाहर आ गया। उस समय बादलों से प्रकट हुए सूर्य की भाँति उसकी शोभा हुई। उसके बाद सभी कौरव वीर धीरे-धीरे होश में आ गये। दुर्योधन ने जब देखा कि अर्जुन युद्ध के घेरे से बाहर होकर अकेले खड़ा है, तो वह भीष्मजी से घबरहट के साथ बोला---'पितामह ! यह आपके हाथ से कैसे बच गया ? अब भी इसका मान-मर्दन कीजिये, जिससे छूटने न पावे।' भीष्म ने हँसकर कहा---'कुरुराज ! जब तू अपने विचित्र बाणों और धनुष को त्यागकर यहाँ अचेत पड़ा हुआ था, उस समय तेरी बुद्धि कहाँ थी, पराक्रम कहाँ चला गया था ? अर्जुन कभी निर्दयता का व्यवहार नहीं कर सकता, उसका मन कभी पापाचार में प्रवृत नहीं होता; वह त्रिलोकी के राज्य के लिये भी अपना धर्म नहीं छोड़ सकता। यही कारण है कि उसने इस युद्ध में भी हम सब लोगों के प्राण नहीं लिये। अब तू शीघ्र ही कुरुदेश को लौट चल, अर्जुन भी गौओं को जीतकर लौट जायगा। मोहवश अब अपने स्वार्थ का भी नाश न कर; सबको अपने लिये हितकर कार्य ही करना चाहिये।' पितामह के हितकारी वचन सुनकर दुर्योधन को अब इस युद्ध में किसी लाभ की आशा न रही। वह भीतर-ही-भीतर अत्यन्त अमर्ष का भार लिये लम्बी साँसें भरता हुआ चुप हो गया। अन्य योद्धाओं को भी भीष्म का कथन हितकर प्रतीत हुआ। युद्ध करने से तो अर्जुन रूपी अग्नि उत्तरोत्तर प्रज्जवलित होती जाती थी, इसलिये दुर्योधन की रक्षा करते हुए सबने लौट जाने की राय पसंद की। कौरव वीरों को लौटते देख अर्जुन को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने अपने पितामह शान्तनुनन्दन भीष्म और आचार्य द्रोण के चरणों में सिर झुकाकर प्रणाम किया तथा अश्त्थामा, कृपाचार्य और अन्यान्य माननीय कुरुवंशियों को बाणों की विचित्र रीति से नमस्कार किया। फिर एक बाण मारकर दुर्योधन के रत्नजटित मुकुट को काट डाला। इस प्रकार माननीय वीरों का सत्कार कर उसने गाण्डीव धनुष की टंकार से जगत् को गुंजायमान कर दिया। इसके बाद सहसा देवदत्त नामक शंख बजाया, जिसे सुनकर शत्रुओं का दिल दहल गया। उस समय अपने रथ की सुवर्णमालामण्डित ध्वजा से समस्त शत्रुओं का तिरस्कार करके अर्जुन विजयोल्लास से सुशोभित हो रहा था। जब कौरव चले गये तो अर्जुन ने प्रसन्न होकर उत्तर से कहा---'राजकुमार ! अब घोड़ों को लौटाओ; तुम्हारी गौओं को हमने जीत लिया और शत्रु भाग गये; इसलिये अब आनन्दपूर्वक अपने नगर की ओर चलो।' कौरवों का अर्जुन के साथ होनेवाला यह अद्भुत युद्ध देखकर देवतालोग बड़े प्रसन्न हुए और अर्जुन के पराक्रम का स्मरण करते हुए अपने-अपने लोक को चले गये।

Thursday 26 May 2016

विराटपर्व---अर्जुन और भीष्म का युद्ध तथा भीष्म का मूर्छित होना

अर्जुन और भीष्म का युद्ध तथा भीष्म का मूर्छित होना
कर्ण पर विजय पाने के अनन्तर अर्जुन ने उत्तर से कहा---'जहाँ रथ की ध्वजा में सुवर्णमय ताड़का चिह्न दिखायी दे रहा है, उसी सेना के पास मुझे ले चलो। वहाँ मेरे पितामह भीष्मजी, जो देखने में देवता के समान जजान पड़ते हैं, रथ में विराजमान हैं और मेरे साथ युद्ध करना चाहते हैं।' उत्तर का शरीर बाणों से बहुत घायल हो चुका था। अतः उसने अर्जुन से कहा---''वीरवर ! अब मैं आपके घोड़ों को काबू में नहीं रख सकता। मेरे प्राण संतप्त हैं, मन घबरा रहा है। आज तक किसी भी युद्ध में मैने इतने शूरवीरों का समागम नहीं देखा था।आपके साथ जब इनलोगों का युद्ध देखता हूँ, तो मेरा मन डवाँडोल हो जाता है। गदाओं के टकराने का शब्द, शंखों की ऊँची ध्वनि, वीरों का सिंहनाद, हाथियों की चिघ्घाड़ तथा बिजली की गड़गड़ाहट के समान गाण्डीव की टंकार सुनते-सुनते मेरे कान बहरे हो रहे हैं, स्मरणशक्ति क्षीण हो गयी है। अब मुझमें चाबुक और बागडोर संभालने की शक्ति नहीं रह गयी है।' अर्जुन ने कहा---'नरश्रेष्ठ ! डरो मत, धैर्य रखो; तुमने भी युद्ध में बड़े अद्भुत् पराक्रम दिखाये हैं। तुम राजा के पुत्र हो।शत्रुओं का दमन करनेवाले मत्स्यनरेश के विख्यात वंश में तुम्हारा जन्म हुआ है। इसलिये इस अवसर पर तुम्हे उत्साहहीन नहीं होना चाहिये। राजपुत्र ! भली-भाँति धीरज रखकर रथ पर बैठो और युद्ध के समय घोड़ों पर नियंत्रण करो। अच्छा, अब तुम मुझे भीष्मजी की सेना के सामने ले चलो और देखो कि मैं किस प्रकार दिव्य अस्त्रों का प्रयोग करता हूँ। आज सारी सेना को तुम चक्र की भाँति घूमते हुए देखोगे। इस मय मैं तुम्हे बाण चलाने की तथा अन्य शस्त्रों के संचालन की भी अपनी योग्यता दिखाऊँगा। मैने मुट्ठी को दृढ़ रखना इन्द्र से, हाथों की फुर्ती ब्रह्माजी से तथा संकट के अवसर पर विचित्र प्रकार से युद्ध करने की कला प्रजापति से सीखी है। इसी प्रकार रुद्र से रौद्रास्त्र की, वरुण से वरुणास्त्र की, अग्नि से आग्नेयास्त्र की और वायु से वायव्यास्त्र की शिक्षा प्राप्त की है। अतः तुम भय मत करो, मैं अकेले ही कौरवरूपी वन को उजाड़ डालूँगा। इस प्रकार अर्जुन ने जब धीरज बँधाया, तब उत्तर उसके रथ को भीष्मजी के द्वारा सुरक्षित रथसेना के पास ले गया। कौरवों पर विजय पाने की इच्छा से अर्जुन को अपनी ओर आते देख निष्ठुर पराक्रम दिखानेवाले गंगानंदन भीष्म ने धीरतापूर्वक उसकी गति रोक दी। तब अर्जुन ने बाण मारकर भीष्मजी के रथ की ध्वजा जड़ से काटकर गिरा दी। इसी समय महाबली दुःशासन, विकर्ण, दुःशह और विविंशति---इन चार वीरों ने आकर धनंजय को चारों तरफ से घेर लिया। दुःशासन ने एक बाण से विराटनंदन उत्तर को बींधा और दूसरे से अर्जुन की छाती में चोट पहुँचायी। अर्जुन ने भी तीखी धारवाले बाण से दुःशासन का सुवर्णजटित धनुष काट दिया और उसकी छाती में पाँच बाण मारे।  उन बाणों से उसको बड़ी पीड़ा हुई और वह युद्ध छोड़कर भाग गया। इसके बाद विकर्ण अपने तीखे बाणों से अर्जुन को घायल करने लगा। तब अर्जुन ने उसके ललाट में एक बाण मारा। उसके लगते ही घायल होकर वह रथ से गिर पड़ा। तदनन्तर दुःशह और विविंशति दोनो एक साथ आकर अपने भाई का बदला लेने के लिये अर्जुन पर बाणों की बर्षा करने लगे। अर्जुन तनिक भी विचलित नहीं हुआ, उसने दो तीखे बाण छोड़कर उन दोनो भाइयों को एक ही साथ बींध दिया और उनके घोड़ों को भी मार डाला। जब सेवकों ने देखा कि दोनो के घोड़े मर गये और शरीर घायल हकर लोहू-लुहान हो रहे हैं, तो वे इन्हें दूसरे रथ पर बिठाकर युद्धभूमि से हटा ले गये। और जिसका निशाना कभी खाली नहीं जाता था, वह महाबली अर्जुन रणभूमि के चारों ओर घूमने लगा। धनंजय के ऐसे पराक्रम देखकर दुर्योधन, कर्ण, दुःशासन, विविंशति, द्रोणाचार्य, अश्त्थामा तथा महारथी कृपाचार्य अमर्ष से भर गये और उसे मार डालने की इच्छा से अपने दृढ़ धनुषों की टंकार करते हुए पुनः बढ़ आये। वहाँ आकर सब एक साथ अर्जुन पर बाण बरसाने लगे। उनके दिव्यास्त्रों से सब ओर से आछन्न हो जाने के कारण उनके शरीर का दो अंगुल भाग भी ऐसा नहीं बचा था, जिसपर बाण न लगे हों। ऐसी अवस्था में अर्जुन ने तनिक हँसकर अपने गाण्डीव धनुष पर ऐन्द्र-अस्त्र का संधान किया और बाणों की झड़ी लगाकर समस्त कौरवों को ढ़क दिया। वर्षा होते समय जैसे बिजली आकाश में चमककर संपूर्ण दिशाओं और भू-मंडल को प्रकाशित करती है, उसी प्रकार गाण्डीव धनुष से छूटे हुए बाणों द्वारा दसों दिशाएँ आच्छन्न हो गयीं। रणभूमि में खड़े हुए हाथी-सवार और रथी सब मूर्छित हो गये। सबका उत्साह ठण्ढ़ा पड़ गया, किसी को होश न रहा। सारी सेना तितर-बितर हो गयी; सभी योद्धा जीवन से निराश होकर चारों ओर भागने लगे। यह देखकर शान्तनुनन्दन भीष्मजी सुवर्णजटित धनुष और मर्मभेदी बाण लेकर अर्जुन के ऊपर धावा किया। उन्होंने अर्जुन की ध्वजा पर फुफकारते हुए सर्पों के समान आठ बाण मारे। उससे ध्वजा पर स्थित वानर को बड़ी चोट पहुँची और उसके अग्रभाग में रहनेवाले भूत भी घायल हुए। तब अर्जुन ने एक बहुत बड़े भाले से भीष्मजी का छत्र काट डाला; कटते ही वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। साथ ही उसने उनकी ध्वजा पर भी बाणों से आघात किया और शीघ्रतापूर्वक उनके घोड़ों को, पार्श्वरक्षक तथा सारथि को भी घायल कर दिया। भीष्मपितामह इस बात को सहन नहीं कर सके। वे अर्जुन पर दिव्यास्त्रों का प्रयोग करने लगे। जवाब में अर्जुन ने भी दिव्यास्त्रों का प्रहार किया। इस समय उन दोनों वीरों बलि और इन्द्र के समान रोमांचकारी युद्ध होने लगा। कौरव प्रशंसा करते हुए कहने लगे---'भीष्मजी ने अर्जुन के पास जो युद्ध ठाना है, वह बड़ा ही दुष्कर कार्य है। अर्जुन बलवान् है, तरुण है, रणकुशल और फुर्ती करनेवाला है; भला युद्ध में भीष्म और द्रोण के सिवा दूसरा कौन इसके वेग को सह सकता है ? अर्जुन और भीष्म दोनो ही महापुरुष उस युद्धमें प्राजापत्य, ऐन्द्र, आग्नेय, रौद्र, वारुण, कौबेर, याम्य और वायव्य आदि दिव्यास्त्रों का प्रयोग करते हुए विचर रहे थे। अर्जुन और भीष्म सभी अस्त्रों के ज्ञाता थे। पहले तो इनमें दिव्यास्त्रों का युद्ध हुआ, इसके बाद बाणों का संग्राम छिड़ा। अर्जुन ने भीष्म का सुवर्णमय धनुष काट दिया। तब महारथी भीष्म ने एक ही क्षण में दूसरा धनुष लेकर उसपर प्रत्यंचा चढ़ा दी और क्रुद्ध होकर वे अर्जुन के ऊपर बाणों की बर्षा करने लगे। उन्होंने अपने बाणों से अर्जुन की बायीं पसली बींध डाली। तब उसने भी हँसकर तीखी धारवाला एक बाण मारा और भीष्म का धनुष काट दिया। उसके बाद दस बाणों से उसकी छाती बींध डाली। इससे भीष्मजी को बड़ी पीड़ा हुई और वे रथ का कूबर थामकर देरतक बैठे रह गये। भीष्मजी को अचेत जानकर सारथि को अपने कर्तव्य का स्मरण हुआ और वह उनकी रक्षा के लिये युद्धभूमि  बाहर ले गया।

Saturday 21 May 2016

विराटपर्व---अर्जुन के साथ कर्ण और अश्त्थामा का युद्ध तथा उनकी पराजय

अर्जुन के साथ कर्ण और अश्त्थामा का युद्ध तथा उनकी पराजय
तदनन्तर अश्त्थामा ने अर्जुन के ऊपर धावा किया। जैसे मेघ पानी बरसाता है, उसी प्रकार उसके धनुष से वाणों की वृष्टि होने लगी। उसका वेग वायु के समान प्रचण्ड था, तो भी अर्जुन ने सामना करके उसे रोक दिया और उसके घोड़ों को अपने वाणों से मारकर अधमरा कर दिया। घायल हो जाने के कारण उन्हें दिशा का भान न रहा। महाबली अश्त्थामा ने अर्जुन की जरा सी असावधानी देख एक वाण मारा और उसके धनुष की प्रत्यंचा काट दी। उसके इस अलौकिक कर्म देखकर देवताओं ने प्रशंसा की और द्रोण, भीष्म, कर्ण तथा कृपाचार्य ने भी साधुवाद दिया। तत्पश्चात् अश्त्थामा ने अपना श्रेष्ठ धनुष तानकर अर्जुन की छाती में कई वाण मारे। अर्जुन खिलखिलाकर हँस पड़ा और उसने गाण्डीव को बलपूर्वक झुकाकर तुरंत ही उसपर नयी प्रत्ंचा चढ़ा दी। फिर उन दोनो में रोमांचकारी युद्ध आरंभ हो गया। दोनो ही शूरवीर थे; इसलिये अपने सर्पाकार प्रज्जवलित बाणों से वे एक-दूसरे पर चोट करने लगे। महात्म अर्जुन के पास दो दिव्य तरकस थे, जिसमें कभी बाणों की कमी नहीं होती थी; इसलिये वह युद्ध में पर्वत के समान अचल था। इधर अश्त्थामा जल्दी-जल्दी प्रहार कर रहा था, इसलिये उसके बाण समाप्त हो गये; अतः उसकी अपेक्षा अर्जुन का जोर अधिक रहा। यह देखकर कर्ण ने अपने धनुष की टंकार की, उसकी आवाज सुनकर जब अर्जुन ने उधर देखा तो कर्ण पर उसकी दृष्टि पड़ी। देखते ही अर्जुन क्रोध में भर गया और कर्ण को मार डालने की इच्छा से आँखें फाड़-फाड़कर उसकी ओर देखने लगा। फिर अश्त्थामा को छोड़कर उसने सहसा कर्ण पर धावा किया और निकट जाकर कहा---'कर्ण ! तू सभा में जो बहुत डींग हाँकता था कि युद्ध में मेरे समान कोई है ही नहीं, उसे सत्य करके दिखाने का आज यह अवसर प्राप्त हुआ है। मुझसे मुकाबला हुए बिना ही तू बड़ी-बड़ी बातें बना चुका है, आज इन कौरवों के बीच मेरे साथ युद्ध करके उसको सत्य सिद्ध कर। याद है, सभा के बीच दुष्टलोग द्रौपदी को कष्ट पहुँचा रहे थे और तू तमाशा देख रहा था ? आज उस अन्याय का फल भोग। उन दिनों धर्म के बन्धन में बँधे रहने के कारण मैने सबकुछ सहन कर लिया था, किन्तु आज उस क्रोध का फल इस युद्ध में मेरी विजय के रूप में तू देख।' कर्ण ने कहा---अर्जुन ! तू जो कहता है, उसे करके दिखा। बातें बहुत बढ़-बढ़कर बनाता है; पर काम जो तूने किया है, वह किसी से छिपा नहीं है। पहले जो कुछ तूने सहन किया है, उसमें तेरी असमर्थता ही कारण थी। हाँ, आज से यदि देखूँगा, तो तेरा पराक्रम भी मान लूँगा। और मुझसे लड़ने की जो तेरी इच्छा है, यह तो अभी-अभी हुई है; पुरानी नहीं जान पड़ती। अच्छा, आज तू मेरे साथ युद्ध कर और मेरा बल भी देख। अर्जुन ने कहा---राधापुत्र ! अभी थोड़ी ही देर हुई, तू मेरे सामने युद्ध से भाग गया था; इसलिये तेरी जान बच गयी, केवल तेरा छोटा भाई ही मारा गया। भला, तेरे सिवा दूसरा कौन मनुष्य होगा, जो अपने भाई को मरवाकर युद्ध छोड़कर भाग भी जाय और सत्पुरुषों के सामने खड़ा होकर ऐसी बातें भी बनावें। ऐसा कहकर अर्जुन ने कर्ण के ऊपर कवच को भी छिन्न-भिन्न कर देनेवाले बाणों का प्रहार करने लगा। कर्ण भी बाणों की वृष्टि करता हुआ मुकाबले में डट गया। अर्जुन ने पृथक्-पृथक् बाण मारकर कर्ण के घोड़ों को बींध डाला, इससे उसकी बँधी हुई मुट्ठी खुल गयी। तत्पश्चात् महाबाहु अर्जुन ने कर्ण के धनुष को काट दिया। धनुष कट जाने पर उसने शक्ति का प्रहार किया; किन्तु अर्जुन ने बाणों से उसके भी टुकड़े-टुकड़े कर दिये। यह देख कर्ण के अनुगामी योद्धाओं ने एक साथ अ्जुन पर आक्रमण किया; परन्तु गण्डीव से छूटे हुए बाणों द्वारा वे सब-के-सब यमलोक के अतिथि हो गये। इसके बाद अर्जुन ने कान तक धनुष खींचकर कई तीखे बाणों से कर्ण के घोड़ों को बींध डाला। घायल हुए घोड़े पृथ्वी पर गिरकर मर गये। फिर अर्जुन ने एक तेजस्वी बाण कर्ण की छाती में मारा। वह बाण कवच को भेदकर उसके शरीर में घुस गया। कर्ण बेहोश हो गया, उसकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया। भीतर-ही-भीतर पीड़ा सहता हुआ वह युदद्ध छोड़कर उत्तर दिशा की ओर भाग गया। महारथी अर्जुन तथा उत्तर उच्च स्वर से गर्जना करने लगे।

Thursday 19 May 2016

विराटपर्व---आचार्य कृप और द्रोण की पराजय

आचार्य कृप और द्रोण की पराजय
विराटकुमार ने रथ बढ़ाकर कृपाचार्य की प्रदक्षिणा की और फिर उनके सामने उसे ले जाकर खड़ा कर दिया। तदनन्तर, अर्जुन ने अपना नाम बताकर परिचय दिया और देवदत्त नामक बड़े भारी शंख को जोर से बजाया।  उससे इतनी ऊँची आवाज हुई, मानो पर्वत फट रहा हो। वह शंखनाद आकाश में गूँज उठा और उससे जो प्रतिध्वनि हुई, वह वज्रपात के समान जान पड़ी। युद्धार्थी महारथी कृपाचार्य ने भी अर्जुन पर कुपित हो अपना शंख जोर से बजाया। उसका शब्द तीनों लोकों में व्याप्त हो गया। फिर उन्होंने अपना महान् धनुष हाथ में ले उसकी टंकार की और अर्जुन के ऊपर दस हजार बाणों की बर्षा करके विकट गर्जना की। तब अर्जुन ने भल्ल नामक तीखा बाण मारकर कृपाचार्य का धनुष और हस्तत्राण काट दिया और कवच के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। किन्तु उनके शरीर को तनिक भी क्लेश नहीं पहुँचाया। कृपाचार्य ने दूसरा धनुष उठाया, पर अर्जुन ने उसे भी काट दिया। इस प्रकार जब कृपाचार्य के कई धनुष काट डाले तो उन्होंने प्रज्जवलित वज्र के समान दमकती हुई एक शक्ति अर्जुन के ऊपर फेंकी। आकाश से उल्का के समान अपने ऊपर आती हुई उस शक्ति को अर्जुन ने दस बाण मारकर काट डाला। फिर एक बाण से कृपाचार्य के रथ का जुआ काट दिया, चार बाण से चारों घोड़े मार दिये और छठे बाण से सारथी का सिर धड़ से अलग कर दिया। धनुष, रथ, घोड़े और सारथि के नष्ट हो जाने पर कृपाचार्य हाथ में गदा लेकर कूद पड़े और उसे अर्जुन के ऊपर फेंका। यद्यपि कृपाचार्य ने उस गदा को बहुत संभालकर चलाया था, तो भी अर्जुन ने बाण मारकर उसे उलटे लौटा दिया। तब कृपाचार्य की सहायता करनेवाले योद्धा कुन्तीनन्दन को चारों ओर से घेरकर बाण बरसाने लगे। यह देख विराटकुमार उत्तर ने घोड़ों को वामावर्त घुमाया और 'यमक' नामक मण्डल बनाकर शत्रुओं की गति रोक दी। तब वे रथहीन कृपाचार्य को साथ ले अर्जुन के निकट से भाग गये। जब कृपाचार्य रणभूमि से हटा लिये गये तो लाल घोड़ोंवाले रथ पर बैठे हुए आचार्य द्रोण धनुष-बाण से सुसज्जित हो अर्जुन के ऊपर चढ़ गये। दोनो ही अस्त्रविद्या के पूर्ण ज्ञाता, धैर्यवान् और महान् बलवान् थे; दोनो ही युद्ध में पराजित होनेवाले नहीं थे। इन दोनो गुरु-शिष्यों की आपस में मुठभेड़ होते देख भरतवंशियों की वह विशाल सेना बारम्बार काँपने लगी। महारथी अर्जुन अपना रथ द्रोणाचार्य के पास ले गया और अत्यन्त हर्ष में भरकर मुस्कराते हुए अपने गुरु को प्रणाम करके कहा---'युद्ध में सदा ही विजय पानेवाले गुरुदेव ! हमलोग आजतक तो वन में भटकते रहे हैं, अब शत्रुओं से बदला लेना चाहते हैं; आपको हमलोगों पर क्रोध नहीं करना चाहिये। जबतक आप मुझपर प्रहार नहीं करेंगे, मैं भी आपपर अस्त्र नहीं छोड़ूँगा---ऐसा मैने निश्चय कर लिया है; इसलिये पहले आप मुझपर प्रहार करें।' तब आचार्य द्रोण ने अर्जुन को लक्ष्य करके इक्कीस बाण मारे; वे बाण अभी पहुँचने भी नहीं पाये थे कि अर्जुन ने बीच में ही काट डाले। इसके बाद उन्होंने अर्जुन के रथ पर हजार बाण की वर्षा करते हुए अपना अद्भुत हस्तलाघव दिखाया, तथा उनके श्वेतवर्णवाले घोड़ों को भी घायल किया। इस प्रकार दोनो-ही-दोनो पर समान भाव से बाण-बर्षा करने लगे। दोनो ही विख्यात पराक्रमी और अत्यन्त तेजस्वी थे। दोनो का वेग वायु के समान तीव्र था और दोनो ही दिव्यास्त्रों का प्रयोग जानते थे। अतः बाणों की झड़ी लगाते हुए वे वहाँ खड़े हुए राजाओं को मोहित करने लगे। युद्ध के मुहाने पर खड़े हुए वीर विस्मय के साथ कहते थे, 'भला अर्जुन के सिवा दूसरा कौन है जो युद्ध में द्रोणाचार्यका सामना कर सके। क्षत्रिय का धर्म भी कितना कठोर है, जिसके कारण अर्जुन को गुरु के साथ लड़ना पड़ रहा है।' द्रोणाचार्य ऐन्द्र, वायव्य और आग्नेय आदि जो-जो अस्त्र अर्जुन पर छोड़ते थे, उन सबको यह दिव्यास्त्रों के द्वारा नष्ट कर देता था। आकाशचारी देवता आचार्य द्रोण की प्रशंसा करते हुए कहते, 'सब देवताओं और दैत्यों पर विजय पानेवाले प्रबल प्रतापी अर्जुन के साथ जो द्रोणाचार्य ने युद्ध किया, वह बड़ा ही दुष्कर कार्य है।' अर्जुन को युद्ध कला की अच्छी शिक्षा मिली थी; वह निशाना मारने में भी चूकता नहीं था, उसके हाथों में बड़ी फुर्ती थी और वह दूरतक अपने बाण फेंकता था। यह सब देखकर आचार्य द्रोण को भी बड़ा विस्मय होता। गाण्डीव धनुष को ऊपर उठाकर अमर्ष में भरा हुआ अर्जुन जब दोनो हाथों से खींचता, उस समय टिड्डियों के समान बाणों की बर्षा से आकाश छा जाता और देखनेवाले आश्चर्य में पड़कर धन्य-धन्य कहकर उसकी सराहना करने लगते थे। जब आचार्य के रथ के पास लाखों बाणों की वर्षा होने लगी और वे रथ सहित ढ़क गये, तब उस सेना में बड़ा हाहाकार मच गया। द्रोणाचार्य के रथ की ध्वजा कट गयी थी, कवच के टुकड़े-टुकड़े हो गये थे और उनका शरीर भी वाणों से क्षत-विक्षत हो रहा था; अतः वे जरा सा मौका मिलते ही अपने शीघ्रगामी घोड़ों को हाँककर तुरंत रणभूमि के बाहर हो गये।

Monday 16 May 2016

विराटपर्व---अर्जुन का दुर्योधन के सामने आना, विकर्ण और कर्ण को पराजित करना तथा उत्तर को कौरव वीरों का परिचय देना

अर्जुन का दुर्योधन के सामने आना, विकर्ण और कर्ण को पराजित करना तथा उत्तर को कौरव वीरों का परिचय देना
इस प्रकार जब कौरव सेना की व्यूह-रचना हो गयी तो तो तुरंत ही अर्जुन अपने रथ की घरघराहट से आकाश को गुंजायमान करते आ गये। यह सब देखकर द्रोणाचार्य ने कहा, 'वीरों ! देखो, दूर से ही वह अर्जुन की ध्वजा का अग्रभाग दीख रहा है। यह उसी के रथ की घरघराहट है और उसकी ध्वजा पर बैठा हुआ वानर ही किलकारी मार रहा है।  इस समय रथ पर बैठा हुआ यह महारथी अर्जुन ही वज्र के समान कठोर टंकार करनेवाले गाण्डीव धनुष को खींच रहा है। देखो, एक साथ ही ये दो बाण मेरे पैरों पर आकर गिरे हैं और दो मेरे कानों का स्पर्श करे हुए दूर निकल गये हैं। इस समय वह अनेकों अतिमानुष कर्म करके वनवास से लौटा है, इसलिये इनके द्वारा वह मुझे प्रणाम करता है और मुझसे कुशल समाचार पूछता है ।अपने बन्धु-बान्धवों के अत्यन्त प्रिय अर्जुन को आज हमने बहुत दिनों पर देखा है।' इधर अर्जुन ने कहा---सारथे ! तुम रथ को कौरवसेना से इतनी दूरी पर ले चलो  जितनी दूर कि एक बाण जाता है। वहाँ से मैं देखूँगा कि कुरुकुलाधम दुर्योधन कहाँ है। इसके बाद अर्जुन ने सारी सेना पर दृष्टि डालकर देखा, किन्तु उन्हें दुर्योधन कहीं दिखायी नहीं दिया। तब वे कहने लगे, मुझे दुर्योधन तो यहाँ दिखायी नहीं देता। मालूमम  होता है कि दक्षिणी मार्ग से गौएँ लेकर अपने प्राण बचाने के लिये हस्तिनापुर की ओर भाग गया है। अच्छा, इस रथसेना को तो छोड़ दो; उस ओर चलो जिस ओर दुर्योधन गया है।' अर्जुन की आज्ञा पाकर उत्तर ने उसी ओर रथ हाँक दिया, जिधर दुर्योधन गया था।दुर्योधन के पास पहुँचकर अर्जुन अपना नाम सुनाकर उसकी सेना पर टिड्डियों के समान बाण बरसाने लगे। उनके छोड़े हुए बाणों से ढ़क जाने के कारण पृथ्वी और आकाश दिखायी देने बन्द हो गये। अर्जुन के शख की ध्वनि,रथ के पहिों की  घरघराहट , गाण्डीव की टंकार और उनकी ध्वजा में रहनेवाले दिव्य प्राणियों के शब्द पृथ्वी काँप उठी तथा गौएँ पूँछ उठाकर रँभाती हुई सब ओर से लौटकर दक्षिण की ओर भागने लगी। अर्जुन धनुर्धारियों में श्रेष्ठ था, उसने शत्रुसेना को बड़े वेग से दबाकर गौओं को जीत लिया। इसके बाद युद्ध की इच्छा से वह दुर्योधन की की ओर चला। कौरव वीरों ने देखा गौएँ तो तीव्र गति से विराटनगर की ओर भाग गयीं और अर्जुन सफल होकर दुर्योधन की ओर बढ़ा आ रहा है, तो वे बड़ी शीघ्रता से वहाँ आ पहुँचे। कौरवसेना को देखकर अर्जुन ने उत्तर से कहा---राजपुत्र ! आजकल दुर्योधन का सहारा पाकर कर्ण बड़ा अभिमानी हो गया है, वह मुझसे युद्ध करना चाहता है, अतः पहले उसी के पास हमें ले चलो।' उत्तर ने अर्जुन का रथ युद्धभूमि के मध्यभाग में ले जाकर खड़ा किया। इतने में चित्रसेन, संग्रामजित्, शत्रुसह और जय आदि महारथी वीर उसके मुकाबले में आ डटे। युद्ध छिड़ गया। अर्जुन ने इनके रथों को उसी प्रकार भष्म कर दिया, जैसे आग वन को जला डालती है। अब यह भयानक संग्राम हो रहा था, उसी समय कुरुवंश के श्रेष्ठ योद्धा विकर्ण रथ पर बैठकर अर्जुन के ऊपर चढ़ आया। आते ही वह विपाठ नामक बाणों की वर्षा करने लगा। अर्जुन ने उसका धनुष काटकर रथ की ध्वजा के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। विकर्ण तो भाग गया, किन्तु 'शत्रुन्तप' नामक राजा सामने आकर अर्जुन के हाथ से मारा गया। फिर तो जैसे प्रचण्ड आँधी के वेग से बड़े-बड़े जंगलों के वृक्ष हिल उठते हैं, उसी प्रकार अर्जुन की मार खाकर कौरव सेना के वीर काँपने लगे। कितने ही आहत हो प्राण त्यागकर पृथ्वी पर गिर पड़े। इस युद्ध में इन्द्रके सान पराक्रमी वीर भी अर्जुन के द्वारा परास्त हुए। वह शत्रुओं का संहार करता हुआ युद्धभूमि  में विचर रहा था, इतने में कर्ण के भाई संग्रामजित् से उसकी मुठभेड़ हो गयी।  अर्जुन ने उसके रथ में जुते हुए लाल-लाल घोड़ों को मारकर एक ही बाण से उसका सिर काट लिया। भाई के मारे जाने पर कर्ण अपने पराक्रम के जोश में आकर अर्जुन की ओर दौड़ा और बारह बाण मारकर उसने अर्जुन को बिंध डाला, उसके घोड़ों को छेद दिया और राजकुमार उत्तर के भी हाथ में चोट पहुँचायी। यह देख अर्जुन भी, जैसे गरुड़ नाग की ओर दौड़े उसी प्रकार, कर्ण पर टूट पड़ा। ये दोनो वीर संपूर्ण धनुर्धारियों में श्रेष्ठ, महाबली और सब शत्रुओं का प्रहार सहनेवाले थे। इनका युद्ध देखने के लिये सभी कौरव वीर ज्यों-के-त्यों खड़े हो गये। अपने अपराधी कर्ण को सामने पाकर अर्जुन क्रोध और उत्साह से भर गया और एक ही क्षण में उसने इतनी बाणवृष्टि की कि रथ, सारथि और घोड़ों सहित वह छिप गया। इसके बाद कौरवों के अन्यान्य योद्धाओं को भी रथ और हाथियों सहित बेध डाला। भीष्म आदि भी अपने रथ सहित अर्जुन के बाणों से ढ़क गये। इससे उनकी सेना में हाहाकार मच गया। इतने में कर्ण ने अर्जुन के तमाम बाणों को काट दिया और अमर्ष में भरकर उनके चारों घोड़ों तथा सारथि को बींध दिया।साथ ही रथ के ध्वजा को भी काट डाला। इसके बाद उसने अर्जुन को भी घायल किया। कर्ण के बाणों से आहत होकर अर्जुन सोते हुए सिंह के समान जाग उठा और उसके ऊपर पुनः बाणों की वर्षा करने लगा। अपने वज्र के समान तेजस्वी बाणों से उसने कर्ण के बाँह, जंघा, मस्तक, ललाट और कण्ठ आदि अंगों को बींध डाला। कर्ण का शरीर क्षत-विक्षत हो गया, उसे बड़ी पीड़ा होने लगी। फिर तो, जैसे एक हाथी से हारकर दूसरा हाथी भाग जाता है, उसी प्रकार वह युद्ध के मैदान से भाग खड़ा हुआ। कर्ण के भाग जाने पर दुर्योधन आदि वीर अपनी-अपनी सेना के साथ धीरे-धीरे अर्जुन की ओर बढ़ गये। तब अर्जुन ने हँसकर दिव्य अस्त्रों का प्रयोग करते हुए कौरव सेना पर प्रत्याक्रमण किया। उस समय उस ेना के रथ, घोड़े, हाथी और कवच आदि में से कोई भी ऐसा नहीं बचा था जिसमे दो-दो अंगल पर अर्जुन के तीखे बाणों का घाव न हुआ हो। अर्जुन के दिव्यास्त्र का प्रयोग, घोड़ं की शिक्षा, उत्तर की रथ हाँकने की कला, पार्थ के अस्त्रसंचालन का क्रम और पराक्रम देखकर शत्रु भी बड़ाई करने लगे। अर्जुन प्रलयकालीन अग्नि के समान शत्रुओं को भष्म कर रहा था; उस समय उसके तेजस्वी स्वरूप की ओर शत्रु आँख उठाकर देख भी न सके। उसके दौड़ते हुए रथ को समीप आने पर एक ही बार कोई भी शत्रु पहचान पाता था, दुबारा उसे इसका अवसर नहीं मिलता; क्योंकि अ्जुन तुरत ही उस शत्रु को रथ से गिराकर परलोक भेज देता था। समस्त कौरव सैनिकों के शरीर उसके द्वारा छिन्न-भिन्न होकर कष्ट पा रहे थे; वह अर्जुन का ही काम था, दूसरे से उसकी तुलना नहीं हो सकती थी। उसने द्रोणाचार्य को तिहत्तर, दु्स्सह को दस, अश्त्थामा को आठ, दुःशासन को बारह, कृपाचार्य को तीन, भीष्म को साठ और दुर्योधन को सौ बाणों से घायल किया। फिर कर्णि नामक बाण मारकर कर्ण का कान बींध डाला; साथ ही उसके घोड़े, सारथी तथा रथ को भी नष्ट कर दिया।  यह देखकर सारी सेना तितर-बितर हो गयी। तब विराटकुमार उत्तर ने अर्जुन से कहा---'विजय ! अब आप किस सेना में चलना चाहते हैं ?  आज्ञा दीजिये, मैं वहीं रथ ले चलूँ।' अर्जुन ने कहा---'उत्तर ! जिस रथ के लाल-लाल घोड़े हैं, जिसपर नीली पताका फहरा रही है, उस रथ पर बैठे हुए जो अत्यन्त कल्याणकारी वेष में व्याघ्रचर्मधारी महापुरुष दिखायी पड़ते हैं, वे हैं कृपाचार्य और वही है उनकी सेना। तुम मुझे उसी सेना के निकट ले चलो। और देखो ! जिनकी ध्वजा में सुवर्णमय कमण्डलु का चिह्न है, वे ही ये संपूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ आचार्य द्रोण हैं। तुम मेरे रथ से इनकी प्रदक्षिणा करो। जब ये मुझपर प्रहार करेंगे, तभी मैं भी इनपर शस्त्र छोड़ूँगा; ऐसा करने से ये मुझपर क्रोध नहीं करेंगे। इनसे थोड़ी ही दूर पर, जिसके रथ की ध्वजा में 'धनुष' का चिह्न दिखायी देता है, वह आचार् द्रोण का पुत्र महारथी अश्त्थामा है। तथा जो रथों की सनाओं में तीसरी सेना के साथ खड़ा है, सुवर्ण का कवच पहने है, जिसकी ध्वजा के ऊपर सुवर्णमय हाथी का चिह्न बना है, वही यह धृतराष्ट्रपुत्र राजा सुयोधन है। जिसकी ध्वजा के अग्रभाग में हाथी की सुन्दर श्रृंखला का चिह्न दिखायी दे रहा है, यह कर्ण है; इसे तो तुम पहले ही जान चुके हो। तथा जिनके सुन्दर रथ सुवर्णमय पाँच मण्डलवाली नीले रंग की पताका फहराती है, जो हस्तत्राण पहने हुए है, जिनका धनुष बहुत बड़ा और पराक्रम महान् है, जिनके उत्तम रथ पर सूर्य और ताराओं के चिह्नवाली अनेकों ध्वजाएँ हैं, मस्तक पर सोने का टोप और उसके ऊपर श्वेत छत्र शोभा पा रहा है, जो मेरे मन में भी उद्वेग पैदा करते रहते हैं---ये हैं हम सब लोगों के पितामह शान्तनुनन्दन भीष्मजी। इनके पास सबसे पीछे चलना चाहिये; क्योंकि ये मेरे कार्य में विघ्न नहीं डालेंगे।' अर्जुन की बातें सुनकर उत्तर सावधान हो गया और जहाँ कृपाचार्य का रथ खड़ा था, वहीं अर्जुन का रथ भी ले गया।

Sunday 15 May 2016

विराटपर्व---अर्जुन से युद्ध करने के विषय में कौरव महारथियों में विवाद

अर्जुन से युद्ध करने के विषय में कौरव महारथियों में विवाद
इस भीषण शब्द को सुनकर कौरव सेना में द्रोणाचार्य ने कहा--- वह मेघगर्जन के समान जो रथ की भीषण घरघराहट सुनाई दे रही है, जिससे पृथ्वी भी कम्प होने लगा है---इससे जान पड़ता है कि अर्जुन के सिवा कोई और नहीं है। देखो, हमारे शस्त्रों की कान्ति फीकी पड़ गयी है, घोड़े भी प्रसन्न नहीं जान पड़ते और अग्निहोत्रों की अग्नियाँ भी प्रकाशहीन सी हो रही हैं ; इससे जान पड़ता है कि कोई अच्छा परिणाम नहीं होगा। योद्धाओं के मुख निस्तेज और मन उदास दिखायी देते हैं। अतः हम गौओं को हस्तिनापुर भेजकर व्यूहरचना करके खड़े हो जायँ। अब राजा दुर्योधन ने भीष्म, द्रोण और महारथी कृपाचार्य से कहा---मैने और कर्ण ने आचार्य से यह बात कई बार कही है और फिर भी कहता हूँ, पाण्डवों से हमारी यह बात ठहरी थी कि जूए में हारने के बाद उन्हें बारह वर्ष तक वन में रहना पड़ेगा तथा एक वर्ष तक किसी नगर या वन में अज्ञातवास करना पड़ेगा। अभी इनका तेरहवाँ वर्ष पूरा नहीं हुआ है, और यदि उसके पूरे होने के पहले ही अर्जुन हमारे सामने आ गया है तो पाण्डवों को बारह वर्ष तक फिर से वन मं रहना पड़ेगा। इस बात का निर्णय पितामह भीष्म कर सकते हैं। इसके सिवा एक बात यह भी है कि इस रथ में बैठकर चाहे मत्स्यराज विराट आया हो, चाहे अर्जुन, हमें तो सबसे लड़ना ही है। ऐसी ही हमारी प्रतिज्ञा भी है। फिर ये भीष्म, द्रोण, कृप, विकर्ण और अश्त्थामा आदि महारथी इस प्रकार निरुत्साह होकर क्यों बैठे हैं ? इस समय सभी महारथी घबराये से दिखायी देते हैं। किंतु युद्ध के सिवा और कोई बात हमारे लिये हितकर नहीं है, इसलिये आप सब अपने मन को उत्साहित रखें। यदि देवराज इन्द्र और स्वयं यमराज भी संग्राम करके हमसेोधन छीन ले तो ऐसा कौन है जो हस्तिनापुर लौटकर जाना चाहेगा ? दुर्योधन की यह बात सुनकर कर्ण ने कहा---आपलोग आचार्य द्रोण को सेना के पीछे रखकर युद्ध की नीति का विधान करें। देखिये न, अर्जुन को आते देखकर ये उसकी प्रशंसा करने लगे हैं। इससे हमारी सेना पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? इसलिये ऐसी नीति से काम लेना चाहिये, जिससे हमारी सेना में फूट न पड़े। जिस समय ये अर्जुन के घोड़ों की हिनहिनाहट सुनेंगे, उसी समय इनके घबराने से सारी सेना अव्यवस्थित हो जायगी। इस समय हम विदेश में हैं और बड़े भारी जंगल में पड़े हुए हैं; इसलिये ऐसी नीति का आश्रय लेना चाहिये, जिससे हमारी सेना घबराहट में न पड़े। आचार्य तो दयालु, बुद्धिमान और हिंसा से विरुद्ध विचारवाले हुआ करते हैं। जब कोई बड़ा संकट आ पड़े तो किसी प्रकार की सलाह नहीं लेनी चाहिये। पण्डितों की शोभा तो मनोरम महलों में, सभाओं में और बगीचों में चित्र-विचित्र कथाएँ सुनने में ही है। अथवा बलिवैश्वदेवादि द्वारा अन्न का संस्कार करने में तथा कीटादि गिर जाने से उसके दूषित हो जाने पर भी पण्डितों की सम्मति काम दे सकती है। अतः शत्रु की प्रशंसा करनेवाले इन पण्डित लोगों को पीछे की ओर रखकर ऐसी नीति का आश्रय लो, जिससे शत्रु का नाश हो। सब गौओं को बीच में खड़ी कर लो। उसके चारों ओर व्यूहरचना कर दो तथा रक्षकों को नियुक्त करके रणक्षेत्र की संभाल रखो, जहाँ से कि हम शत्रुओं से युद्ध कर सकें। मैं पहले प्रतिज्ञा कर ही चुका हूँ। उसके अनुसार आज संग्रामभूमि में अर्जुन को मारकर दुर्योधन का अक्षय ऋण चुका दूँगा। यह सुनकर कृपाचार्य ने कहा---कर्ण ! युद्ध के विषय में तुम्हारी नीति सदा ही बड़ी कड़ी रहती है। तुम न तो कार्य के स्वरूप पर ध्यान देते हो और न उसके परिणाम का विचार करते हो। विचार करने पर तो यही समझ में आता है कि हमलोग अर्जुन से लोहा लेने में समर्थ नहीं हैं। देखो, उसने अकेले ही चित्रसेन गन्धर्व के सेवकों को युद्ध करके समस्त कौरवों की रक्षा की थी तथा अकेले ही अग्निदेव को तृप्त किया था। जब किरातवेष में भगवान् शंकर उसके सामने आये तो उनसे भी उसने अकेले ही युद्ध किया था। निवातकवच और कालकेय दानवों को तो देवता भी नहीं दबा सके थे। उन्हें भी उस युद्ध में अकेले ही मारा था। अर्जुन ने तो अकेले ही अनेक राजाओं को अपने अधीन कर लिया था, तुम्ही बताओ, तुमने भी अकेले रहकर ऐसी कोई करतूत करके दिखायी है ? अर्जुन के साथ युद्ध करने की सामर्थ्य तो इन्द्र में भी नहीं है, तुम जो उसके साथ भिड़ने की बात कह रहे हो, इससे मालूम होता है तुम्हारा मस्तिष्क ठिकाने नहीं है। इसकी तुम्हे दवा करानी चाहिये। हाँ, द्रोण, दुर्योधन, भीष्म, तुम, अश्त्थामा और हम---सब मिलकर अर्जुन का सामना करेंगे; तुम अकेले ही उससे भिड़ने का साहस मत करो। इसके बाद अश्त्थामा ने कहा---अभी तो हमने गौओं को जीता भी नहीं है और न हम मत्स्यराज की सीमा पर ही पहुँचे हैं, हस्तिनापुर भी अभी बहुत दूर है, फिर तुम ऐसे बढ़-चढ़कर बातें क्यों बनाते हो ? दुर्योधन तो बड़ा ही क्रूर और निर्लज्ज है; नहीं तो जूए में राज्य जीतकर भला, किस क्षत्रिय को संतोष होगा ? अतः तुमने जिस प्रकार जूआ खेला था, इन्द्रप्रस्थ को जीता था और द्रौपदी को बलात् सभा में बुलाया था, उसी प्रकार अब अर्जुन के साथ संग्राम करना। अरे ! काल, पवन, मृत्यु और बड़वानल जब कोप करते हैं तो कुछ-न-कुछ शेष छोड़ देते हैं; किन्तु अर्जुन तो कुपित होने पर कुछ भी बाकी नहीं छोड़ता। अतः जिस प्रकार तुमन् ध्यूतसभा में शकुनि की सलाह से जूआ खेला था, उसी प्रकार तुम मामाजी की देख-रेख में अर्जुन से लड़ लो। भाई ! और कोई भी वीर युद्ध करे, मैं तो अर्जुन से लड़ूँगा नहीं। यदि गौएँ लेने के लिये मत्स्यराज विराट आया तो उससे मैं अवश्य युद्ध करूँगा। फिर भीष्मपितामह बोले---अश्त्थामा और कृपाचार्य का विचार बहुत ठीक है। कर्ण तो क्षत्रियधर्म के अनुसार युद्ध करने पर ही तुला हुआ है। किसी भी समझदार आदमी को आचार्य द्रोण पर दोष नहीं लगाना चाहिये। और जब अर्जुन हमारे सामने आ गया है तो आपस में विरोध करने का यह अवसर तो है ही नहीं। आचार्य कृप, द्रोण और अश्त्थामा को भी इस समय क्षमा ही करना चाहिये। बुद्धिमानों ने सेना से सम्बन्ध रखनेवाले जितने दोष बताये हैं, उनमें आपस की फूट सबसे बढ़कर है। दुर्योधन ने कहा---आचार्यचरण ! इस समय क्षमा करें और शान्ति रखें। यदि इस समय गुरुदेव के चित्त में कोई अन्तर न आया, तभी हमारे आगे का काम बनना सम्भव है। तब कर्ण, भीष्म और कृपाचार्य के सहित दुर्योधन ने आचार्य द्रोण से क्षमा करने की प्रार्थना की। इससे शान्त होकर द्रोणाचार्य ने कहा, 'शान्तनुनन्दन भीष्म ने जो बात कही है, मैं तो उसे सुनकर ही प्रसन्न हो गया था। अच्छा, अब युद्ध की नीति का विधान करो। दुर्योधन को पाण्डवों के तेरहवें वर्ष के पूरे होने में संदेह है, किन्तु ऐसा हुए बिना अर्जुन कभी हमारे सामने नहीं आता। दुर्योधन ने इस विषय में कई बार शंका की है। अतः भीष्मजी इस विषय में ठीक निर्णय करके बताने की कृपा करें। इसपर भीष्म ने कहा---कला, काष्ठा, मुहूर्त, दिन, पक्ष, मास, नक्षत्र, ग्रह, ऋतु और संवत्सर---ये सब मिलकर एक कालचक्र बने हुए है। यह कालचक्र कलाकाष्ठादि के विभागपूर्वक घूमता रहता है। उनमें सूर्य और चन्द्रमा नक्षत्रों को लाँघ जाते हैं तो काल की कुछ वृद्धि हो जाती है। इसी से हर पाँचवे वर्ष दो महीने बढ़ जाते हैं। इसलिये मेरा ऐसा विचार है कि पाण्डवों को अब तेरह वर्ष से पाँच महीने और बारह दिन का समय अधिक हो गया है। पाण्डवों ने जो-जो प्रतिज्ञाएँ की थी, उनका ठीक-ठीक पालन किया है। इस समय इस अवधि का भी अच्छी तरह निश्चय करके ही अर्जुन हमारे सामने आया है। ये सभी बड़े महात्मा तथा धर्म और अर्थ के मर्मज्ञ हैं। भला, युधिष्ठिर जिनके नेता हैं वे धर्म के विषय में कोई चूक कैसे कर सकते हैं ? पाण्डवलोग निर्लोभ हैं, उन्होंने बड़ा दुष्कर कर्म किया है; इसलिये वे राज्य को किसी भी नीतिविरुद्ध उपाय से लेना नहीं चाहेंगे। पराक्रमपूर्वक राज्य लेने में तो वे वनवास के समय भी समर्थ थे, परन्तु धर्मपाश में बँधे होने के कारण वे क्षात्रधर्म से विचलित नहीं हुए। इसलिेये जो ऐसा कहेगा कि अर्जुन मिथ्याचारी है उसे मुँह की खानी पड़ेगी। पाण्डवलोग मौत को गले लगा लेंगे किन्तु असत्य वो कभी नहीं अपनायेंगे। साथ ही उनमें ऐसी वीरता भी है कि समय आने पर उनका जो हक होगा, उसे वे वज्रधर इन्द्र से सुरक्षित होने पर भी नहीं छोड़ेंगे। इसलिये राजन् युद्धोचित अथवा धर्मोचित कोई भी काम शीघ्र ही करो, क्योंकि अब अर्जुन समीप ही आ गया है। दुर्योधन ने कहा---पितामह ! पाण्डवों को राज्य तो मैं दूँगा नहीं; अतः अब तो युद्ध के लिये तैयारी करनी हो, वही शीघ्र करो। भीष्म बोले---इस विषय में मेरा जैसा विचार है, वह सुनो। तुम तो चौथाई सेना लेकर हस्तिनापुर की ओर चले जाओ। दूसरा चौथाई भाग गौओं को लेकर चला जाय। शेष आधी सेना के साथ हम अर्जुन का मुकाबला करेंगे। अर्जुन युद्ध के लिये आ रहा है; अतः मैं द्रोणाचार्य, कर्ण, अश्त्थामा और कृपाचार्य उससे यु्द्ध करेंगे। पीछे यदि राजा विराट और स्वयं इन्द्र भी आवेगा तो, जैसे तट समुद्र को रोके रहता है इसी प्रकार मैं उसे रोक लूँगा। महात्मा भीष्म की यह बात सभी को अच्छी लगी। फिर कौरवराज दुर्योधन ने वैसा ही किया। भीष्म ने पहले तो दुर्योधन और गौओं को विदा किया। उसके बाद मुख्य-मुख्य सेनानियों की व्यवस्था करके व्यूहरचना आरम्भ की। उन्होंने कहा, 'द्रोणजी ! आप तो बीच में खड़े होइये, अश्त्थामा बायीं ओर रहे, मतिमान् कृपाचार्य सेना के दाहिने पार्श्व की रक्षा करें, कर्ण कवच धारण करके सेना के आगे खड़े हों, और मैं सारी सेना के पीछे रहकर उसकी रक्षा करूँगा।

Monday 9 May 2016

विराटपर्व---अर्जुन का शमीवृक्ष के पास जाकर अपने शस्त्रास्त्र से सुसज्जित होना और उत्तर को अपना परिचय देकर कौरवसेना की ओर जाना

अर्जुन का शमीवृक्ष के पास जाकर अपने शस्त्रास्त्र से सुसज्जित होना और उत्तर को अपना परिचय देकर कौरवसेना की ओर जाना
जब भीष्म, द्रोण आदि प्रधान-प्रधान कौरव महारथियों ने उस नपुंसकवेषधारी पुरुष को उत्तर को रथ में चढ़ाकर शमीवृक्ष की ओर जाते देखा तो वे अर्जुन की आशंका करके मन-ही-मन बहुत डरे। तब शस्त्रविद्याविशारद द्रोणाचार्यजी ने पितामह भीष्म से कहा, 'गंगापुत्र ! यह जो स्त्रीेषधारी दिखायी देता है, वह इन्द्र का पुत्र कपिध्वज अर्जुन जान पड़ता है। वह अवश्य ही हमें युद्ध में जीतकर गौएँ ले जायगा। इस सेना में मुझे तो इसका सामना करनेवाला कोई भी योद्धा दिखायी नहीं देता। सुनते हैं कि हिमालय पर तपस्या करते समय अर्जुन ने किरातवेषधारी भगवान् शंकर को भी युद्ध करके प्रसन्न कर लिया था।' इसपर कर्ण बोला, 'आचार्य ! आप सदा ही अर्जुन के गुण गाकर हमारी निन्दा किया करते हैं, किन्तु वह मेरे और दुर्योधन के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं है।' दुर्योधन ने कहा, 'और कर्ण ! यदि यह अर्जुन है, तब तो मेरा काम ही बन गया; क्योंकि पहचान लिये जाने के कारण अब पाण्डवोंको फिर बारह वर्ष तक वन में विचरना पड़ेगा। और यदि कोई दूसरा पुरुष नपुंसक के रूप में आया है तो मैं इसे अपने पैने वाणों से धराशायी कर ही दूँगा।' इधर अर्जुन रथ को शमीवृक्ष के पास ले गये और उत्तर से बोले, 'राजकुमार ! मेरी आज्ञा मानकर तुम शीघ्र ही इस वृक्ष पर से धनुष उतारो, ये तुम्हारे धनुष मेे बाहुबल को सहन नहीं कर सकेंगे। इस वृक्ष पर पाण्डवों के धनुष रखे हुए हैं।' यह सुनकर राजकुमार उत्तर रथ से उतर पडा और उसे विवश होकर उस वृक्ष पर चढ़ना पड़ा। अर्जुन ने रथ पर बैठ-बैठे ही फिर आज्ञा दी, 'इन्हें झटपट उतार लाओ, देरी मत करो और जल्दी ही इनके ऊपर जो वस्त्रादि लिपटे हुए हैं, उन्हे खोल दो। उत्तर पाण्डवों के उस अत्युतत्म धनुषों को लेकर नीचे उतरा और उनपर लिपटे हुए पत्तों को हटाकर उन्हे अर्जुन के आगे रखा। उत्तर को गाण्डीव के सिवा वहाँ चार धनुष और दिखायी दिये। उन सूर्य के समान तेजस्वी धनुष के खोलते ही सब ओर उनकी दिव्य कान्ति फैल गयी। तब उत्तर ने उन प्रभावपूर्ण और विशाल धनुषों को हाथ से छूकर पूछा कि 'ये किसके हैं ?" अर्जुन ने कहा---राजकुमार ! इनमें यह तो अर्जुन का सुप्रसिद्ध गाण्डीव धनुष है। यह संग्रामभूमि से शत्रुओं सेना को क्षणभर में नष्ट-भ्रष्ट कर डालता है, तीनों लोकों में इसकी सुप्रसिद्धि है और यह सभी शस्त्रों से बढ़ा-चढ़ा है। यह अकेला ह एक लाख शस्त्रों की बराबरी करनेवाला है। अर्जुन ने इसी के द्वारा संग्राम में देवता और मनुष्यों को परास्त किया था। देख, यह चित्र विचित्र रंगों से सुशोभित, लचकीला और गाँठ आदि से रहित है। आरम्भ में एक हजार वर्ष तक तो इसे ब्रह्माजी ने धारण किया था। फिर पाँच सौ तीन वर्ष तक यह प्रजापति के पास रहा। उसके बाद पचासी वर्ष तक इसे इन्द्र ने धारण किया और पाँच स वर्ष तक चन्द्रमा ने तथा सौ वर्ष तक वरुण ने अपने पास रखा। अब पैंसठ वर्षकाल अर्थात् साढ़े बत्तीस साल से यह परम दिव्य धनुष अर्जुन के पास है; उसे यह वरुण से ही प्राप्त हुआ है। दूसरा जो सोने से मँढ़ा हुआ देवता और मनुष्यों से पूजित सुन्दर पीठवाला धनुष है, वह भीमसेन का है। शत्रुदमन भीम ने इसी से सारी पूर्व दिशा जीती थी। तीसरा यह इन्द्रगोप के चिह्नोंवाला मनोहर धनुष महाराज युधिष्ठिर का है। चौथा धनुष, जिसमें सोने के बने हुए सूर्य चमचमा रहे हैं, नकुल का है तथा जिसमें सुवर्ण के फतिंगे चित्रित हैं, वह पाँचवाँ धनुष माद्रीनन्दन सहदेव का है। उत्तर ने कहा---बृहनल्ले ! जिन शीघ्रपराक्रमी महात्माओं के ये सुनहले और सुन्दर आयुध इस प्रकार चमचमा रह हैं वे पृथापुत्र अर्जुन, युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव और भीमसेन कहाँ हैं ? वे तो सभी बड़े महानुभाव और शत्रुओं का संहार करनेवाले थे। जबसे उन्होंने जूए में अपना राज्य हारा है, तबसे उनके विषय में कुछ सुनने में नहीं आया। तथा स्त्रियों में रत्नस्वरूपा पांचालकुमारी द्रौपदी भी कहाँ है ? अर्जुन ने कहा---मैं ही पृथापुत्र अर्जुन हूँ, मुख्य सभासद् कंक युधिष्ठिर हैं, तुम्हारे पिता के रसोई पकानेवाले वल्लव भीमसेन हैं, अश्वशिक्षक ग्रंथिक नकुल हैं, गोपाल तंतिपाल सहदेव हैं और जिसके लिये कीचक मारा गया है, वह सैरन्ध्री द्रौपदी है। उत्तर बोला---मैने अर्जुन के दस नाम सुने हैं। यदि तुम मुझे उन नामों के कारण सुना दो तो मुझे तुम्हारी बात में विश्वास हो सकता है। अर्जुन ने कहा---मैं सारे देशों को जीतकर उनसे धन लाकर धन ही के बीच में स्थित था, इसलिये 'धनन्जय' हुआ। मैं जब संग्राम में जाता हूँ तो वहाँ से युद्धोन्मत्त शत्रुओं को जीते बिना कभी नहीं लौटता, इसलिये 'विजय' हूँ। संग्रामभूमि में युद्ध करते समय मेरे रथ में सुनहले साजवाले श्वेत अश्व जोते जाते हैं, इसलिये मैं 'श्वेतवाहन' हूँ। मैने उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में दिन के समय हिमालय पर जन्म लिया था, इसलिये लोग मुझे 'फाल्गुण' कहने लगे। पहले बड़े-बड़े दानवों के साथ युद्ध करते समय इन्द्र ने मेरे सिर पर सूर्य के समान तेजस्वी किरीट पहनाया था, इसलिे मैं 'किरौटी' हूँ। मैं युद्ध करते समय कोई वीभत्स ( भयानक ) कर्म नहीं करता, इसी से देवता और मनुष्यों में 'वीभत्सु' नाम से प्रसिद्ध हूँ।गाण्डीव को खींचने में मेरे दोनो हाथ कुशल हैं, इसलिये देवता और मनुष्य मुझे 'सव्यसाची' नाम से पुकारते हैं। चारों समुद्रपर्यन्त पृथ्वी में मेरे जैसा शुद्ध-वर्ण दुर्लभ है, और मैं शुद्ध ही कर्म करता हूँ, इसलिये लोग मुझे 'अर्जुन' नाम से जानते हैं। मैं दुर्जय, दमन करनेवाला और इन्द्र का पुत्र हूँ; इसलिये देवता और मनुष्यों में 'विष्णु' नाम से विख्यात हूँ। मेरा दसवाँ नाम 'कृष्ण' पिताजी का रखा हुआ है, क्योंकि मैं उज्जवल कृष्णवर्ण तथा लाडला बालक होने के कारण चित्त को आकर्षित करनेवाला था। यह सुनकर विराटपुत्र ने अर्जुन को प्रणाम किया और कहा, 'मैं भूमिंजय नाम का राजकुमार हूँ और मेरा नाम उत्तर भी है। आज मेरा बड़ा सौभाग्य है जो मैं पृथापुत्र अर्जुन का दर्शन कर रहा हूँ। मैने आपको न पहचानने के कारण जो अनुचित शब्द कहे हैं, उनके लिये आप मुझे क्षमा करें। आप इस सुन्दर रथ में सवार होइये। मैं आपका सारथी बनूँगा और जिस सेना में आप चलने को कहेंगे, उसी में मैं आपको ले चलूँगा। अर्जुन ने कहा---पुरुषश्रेष्ठ ! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ; तुम्हारे लिये कोई खटके की बात नहीं है, मैं संग्राम में तुम्हारे सब शत्रुओं के पैर उखाड़ दूँगा। तुम शान्त रहो और इस संग्राम में शत्रुओं के साथ लड़ते हुए मैं जो भीषण कर्म करूँ, वह देखते रहो। जिस समय मैं गाण्डीव धनुष लेकर रणभूमि में रथ पर सवार होऊँगा, उस समय शत्रुओं की सेना मुझे जीत नहीं सकेगी। अब तुम्हारा भय दूर हो जाना चाहिये। उत्तर ने कहा---अब मैं इनसे नहीं डरता; क्योंकि मैं अच्छी तह जानता हूँ कि आप संग्रामभूमि भगवान् श्रीकृष्ण और साक्षात् इन्द्र के सामने भी डट सकते हैं। अब तो मुझे आपकी सहायता मिल गयी है, इसलिेये मैं युद्धक्षेत्र में देवताओं से भी मुकाबला कर सकता हूँ। मेरा सारा भय भाग चुका है; बताइये, मैं क्या करूँ ? पुरुषश्रेष्ठ ! मैने अपने पिताजी से सारथि का काम सीखा था। इसलिये मैं आपके रथ के घोड़ों को अच्छी तरह संभाल लूँगा। इसके बाद अर्जुन ने शुद्धतापूर्वक रथ पर पूर्वाभिमुख बैठकर एकाग्रचित्त से समस्त अस्त्रों का स्मरण किया। उन्होंने प्रकट होकर हाथ जोड़कर कहा, 'पाण्डुकुमार ! आपके दास हम सब उपस्थित हैं।' अर्जुन ने कहा, 'तुम सब मेरे मन में निवास करो।' इस प्रकार अस्त्रों को ग्रहण करके अर्जुन का चेहरा प्रसन्नता से खिल गया और उन्होंने गाण्डीव धनुष परडरी चढ़ाकर उसकी टंकार की। तब उत्तर ने कहा, 'पाण्डवश्रेष्ठ ! आप तो अकेले ही हैं, इन शस्त्रास्त्र के पराक्रमी अनेकों महारथियों को संग्राम में कैसे जीत सकेंगे---यह सोचकर तो आपके सामने मैं भी बहुत भयभीत हो रहा हूँ।' यह सुनकर अर्जुन खिलखिलाकर हँसने लगे और कहने लगे, 'वीर ! डरो मत। बताओ, कौरवों की घोषयात्रा के समय जब मैने महाबली गन्धर्वों से युद्ध किया था उस मय मेरा सहायक कौन था ? देवराज के लिये निवातकवच और पौलोम दैत्यों के साथ युद्ध करते समय मेरा कौन साथी था ? द्रौपदी के स्वयंवर में जब मझे अनेकों राजाओं का सामना करना पड़ा था, उस समय किसने मेरी सहायता की थी ? मैं गुरुवर द्रोणाचार्य, इन्द्र, कुबेर, यमराज, वरुण, अग्निदेव, कृपाचार्य, लक्ष्मीपति श्रीकृष्ण और भगवान् शंकर---इन सबका आश्रय पा चुका हूँ। फिर भला, इनसे युद्ध क्यों नहीं कर सकूँगा। तुम इन मानसिक भयों को छोड़कर जल्दी से रथ हाँको।' इस प्रकार उत्तर को अपना सारथि बनाकर अर्जुन ने शमीवृक्ष की परिक्रमा की और अपने सब अस्त्र-शस्त्र लेकर अग्निदेव के दिये हुए रथ का ध्यान किया। ध्यान करते ही आकाश से एक ध्वजा-पताका से सुशोभित दिव्य रथ उतरा। अर्जुन ने उसकी प्रदक्षिणा की और इस वानर की ध्वजावाले रथ में बैठकर धनुष-बाण धारण किये उत्तर की ओर प्रस्थान किया। फिर उन्होंने अपना महान् शंख बजाया, जिसका भीषण घोष सुनकर शत्रुओं के रोंगटे खड़े हो गये। राजकुमार उत्तर को भी बड़ा भय मालूम हुआ और वह रथ के भीतरी भाग में घुसकर बैठ गया। तब अर्जुन ने रासें खींचकर घोड़ों को खड़ा किया और उत्तर को हृदय से लगाकर आश्वासन देते हुए कहा, 'राजपुत्र ! डरो मत। आखिर, तुम क्षत्रिय ही हो; फिर शत्रुओं के बीच में आकर घबराते क्यों हो ?' उत्तर ने कहा---मैने शंख और भेरिों के शब्द तो बहुत सुने हैं तथा सेना की मोर्चेबन्दी से खड़े हुए हाथियों की चिग्घाड़ सुनने का भी मुझे कई बार अवसर मिला है; किन्तु ऐसा शंख का शब्द तो मैने पहले कभी नहीं सुना। इसी से इस शंख के शब्द, धनुष की टंकार, ध्वजा में रहनेवाले अमानुषी भूतों की हुंकार और रथ की घरघराहट से मेरा मन बहुत ही घबरा रहा है। इस प्रकार बात करते-करते एक मुहूर्त तक आगे चलते रहने पर अर्जुन ने उत्तर से कहा, 'अब तुम रथ पर अच्छी तरह से बैठकर अपनी टाँगों से बैठने के स्थान को जकड़ लो तथा रासों को सावधानी से संभाल लो, मैं फिर शंख बजाता हूँ।' तब अर्जुन ने ऐसे जोर से शंखध्वनि की, मानो वे पर्वत, गुफा, दिशा और चट्टानों को विदीर्ण कर देंगे। उससे भयभीत होकर उत्तर फिर रथ के भीतर घुसकर बैठ गया। उस शंखध्वनि, गाण्डीव की टंकार और रथ की घरघराहट से धरती दहल उठी। अर्जुन ने उत्तर को फिर धैर्य बँधाया।

Tuesday 3 May 2016

विराटपर्व---कौरवों की चढ़ाई, उत्तर का वृहनल्ला को सारथि बनाकर युद्ध में जाना और कौरव सेना को देखकर डर से भागना

कौरवों की चढ़ाई, उत्तर का वृहनल्ला को सारथि बनाकर युद्ध में जाना और कौरव सेना को देखकर डर से भागना
जब मत्स्यराज विराट गौओं को छुड़ाने के लिये त्रिगर्त की ओर गये तो दुर्योधन भी मौका देखकर अपने मंत्रियों के सहित विराटनगर पर चढ़ आया। भीष्म, द्रोण, कर्ण, कृप, अश्त्थामा, शकुनि, दुःशासन, विविंशति, विकर्ण, चित्रसेन, दुर्मुख, दुःशल तथा और भी अनेकों महारथी दुर्योधन के साथ थे। ये सब कौरव वीर विराट की साठ हजार गौओं को सब ओर से रथों की पंक्ति से रोककर ले चले। उन्हें रोकने पर जब मारपीट होने लगी तो ग्वालिये उन महारथियों के सामने न ठहर सके और उनकी मार खाकर जोर-जोर से चिल्लाने लगे। तब ग्वालियों का सरदार रथ पर चढ़कर अत्यन्त दीन की तरह रोता-चिल्लाता नगर में आया। वह सीधा राजमहल के दरवाजे पर पहुँचा और रथ से उतरकर भीतर चला गया। वहाँ उसे विराट का पुत्र भूमिंजय ( उत्तर ) मिला। गोपराज ने उसी को सारा समाचार सुना दिया और कहा, "राजकुमार ! आपकी साठ हजार गौओं को कौरव लिये जा रहे हैं। आप राज्य के बड़े हितचिंतक हैं; इस समय अपनी अनुपस्थिति में महाराज आपको ही यहाँ का प्रबंध सौंप गये हैं और सभा में आपकी प्रशंसा करे हुए यह भी कहा करते हैं कि 'मेरा यह कुलदीपक पुत्र ही मेरे अनुरूप और बड़ा शूरवीर है।' अतः इस समय आप तुरंत ही गौओं को छुड़ाने के लिये जाइये और महाराज के कथन को सत्य करके दिखाइये।" राजकुमार अन्तःपुर में स्त्रियों के बीच बैठा था। जब उससे ग्वालिये ने ये बातें कहीं तो वह अपनी बड़ाई करते हुए कहने लगा, 'भाई ! आज मैं जिस ओर गौएँ गयी हैं, उधर अवश्य जाऊँगा। मेरा धनुष तो काफी मजबूत है; किन्तु किसी ऐसे सारथि की आवश्यकता है, जो घोड़े चलाने में बहुत निपुण हो। इस समय मेरी निगाह में कोई ऐसा आदमी नहीं है, जो मेरा सारथि बन सके। अतः तुम शीघ्र ही मेरे लिे कोई कुशल सारथि तलाश करो। फिर तो, इन्द्र जैसे दानवों को भयभीत कर देते हैं उसी प्रकार दुर्योधन, भीष्म, कर्ण, कृपाचार्य, द्रोण और अश्त्थामा---इन सभी महान धनुर्धरों के छक्के छुड़ाकर एक क्षण में ही अपनी गौओं को लौटा लाऊँगा। जिस समय युद्ध में वे मेरा पराक्रम देखेंगे, उस समय उन्हें यही कहना पड़ेगा कि यह साक्षात् पृथापुत्र अर्जुन ही तो हमें तंग नहीं कर रहा है।' जब राजपुत्र ने स्त्रियों के बीच में बार-बार अर्जुन का नाम लिया तो द्रौपदी से रहा न गया। वह स्त्रियों में से उठकर उत्तर के पास आयी और उससे कहने लगी, 'यह जो हाथी के समान विशालकाय और दर्शनीय युवक वृहनल्ला नाम से विख्यात है, पहले अर्जुन का सारथि ही था। यदि यह आपका सारथि हो जाय तो आप निश्चय ही सब कौरवों को जीतकर अपनी गौएँ लौटा लायेंगे।' सैरन्ध्री के ऐसा कहने पर उसने अपनी बहिन उत्तरा से कहा, 'बहिन ! तू शीघ्र जाकर बृहनल्ला को लिवा ला।' भाई के कहने से उत्तरा तुरंत ही नृत्यशाला में पहुँची। बृहनल्ला ने अपनी सखी राजकुमारी उत्तरा को देखकर पूछा, 'कहो, राजकन्ये ! कैसे आना हुआ ?' तब राजकन्या ने बड़ी विनय दिखाते हुए कहा, 'बृहनल्ले ! कौरव लोग हमारे राष्ट्र की गौओं को लिये जा रहे हैं, उन्हे जीतने के लिेये मेरा भाई धनुष धारण करके जा रहा है। तुम मेरे भाई के सारथि बन जाओ और कौरवलोग गौओं को दूर लेकर जायँ, उससे पहले ही रथ उनके पास पहुँचा दो।' कुमारी उत्तरा के इस प्रकार कहने पर अर्जुन उठे और राजकुमार उत्तर के पास आये। बृहनल्ला को दूर ही से आते देखकर राजकुमार ने कहा, 'बृहनल्ले ! जिस समय मैं गौओं को बचाने के लिये कौरवों के साथ युद्ध करूँ, उस समय मेरे घोड़ों को उसी प्रकार काबू में रखना जिस प्रकार पहले से रखते आये हो। मैने सुना है पहले तुम अर्जुन के प्रिय सारथि थे और तुम्हारी सहायता से ही अर्जुन ने सारी पृथ्वी को जीता था।' इसे पशचात् उत्तर ने सूर्य के समान चमचमाता हुआ बढ़िया कवच धारण किया तथा अपने रथ पर सिंह की ध्वजा लगाकर बृहनल्ला को सारथि बनाया। फिर बहुमूल्य धनुष और बहुत से उत्तम वाण लेकर उसने युद्ध के लिये कूच किया। इस समय बृहनल्ला की सखी उत्तरा और दूसरी कन्याओं ने कहा, 'बृहनल्ले ! तुम संग्रामभूमि में आये हुए भीष्म, द्रोण आदि कौरवों को जीतकर हमारी गुड़ियों के लिये रंग-बिरंगे महीन और कोमल वस्त्र लाना।' इसपर अर्जुन ने हँसकर कहा, 'यदि ये राजकुमार उत्तर रणभूमि में उन महारथियों को परास्त कर देंगे तो मैं अवश्य उनके दिव्य और सुन्दर वस्त्र लाऊँगी।' अब राजकुमार उत्तर राजधानी से निकलकर  बाहर आया और अपने सारथि से बोला, 'तुम जिधर कौरवलोग गये हैं, उधर ही रथ ले चलो। यहाँ जो कौरवलोग विजय की आशा से आकर इकट्ठे हुए हैं, उन सब को जीतकर और उनसे गौएँ लेकर मैं बहुत जल्द लौट आऊँगा।' तब पाण्डुनन्दन अर्जुन ने उत्तर के उत्तम जाति के घोड़ों की लगाम ढ़ीली कर दी। अर्जुन के हाँकने से वे हवा से बात करने लगे और ऐसे दिखायी देने लगे मानो आकाश में उड़ रहे हों। थोड़ी ही दूर जाने पर उत्तर और अर्जुन को महाबली कौरवों की सेना दिखायी दी। वह विशाल वाहिनी हाथी, घोड़े और रथों से भरी हुई थी।  कर्ण, दुर्योधन, कृपाचार्य, भीष्म और अश्त्थामा के सहित महान् धनुर्धर द्रोण उसकी रक्षा कर रहे थे। उसे देखकर उत्तर के रोंगटे खड़े हो गये और उसने भय से व्याकुल होकर अर्जुन से कहा, 'मेरी ताब नहीं है कि मैं कौरवों के साथ लोहा ले सकूँ; देखते नहीं हो, मेरे सारे रोंगटे खड़े हो गये हैं ? इस सेना में तो अगणित वीर दिखायी दे रहे हैं। यह तो बड़ी ही विकट है, देवतालोग भी इसका सामना नहीं कर सकते। मैं तो अभी बालक ही हूँ, शस्त्रास्त्र का भी विशेष अभ्यास नहीं किया है; फिर मैं अकेला ही इन शस्त्रविद्या के पारगामी महावीरों में कैसे लड़ूँगा। इसलिये बृहनल्ले ! तुम लौट चलो।' बृहनल्ला ने कहा---राजकुमार ! तुमने स्त्री-पुरुषों के सामने अपने पुरुषार्थ की बड़ी प्रशंसा की थी और तुम शत्रु से लड़ने के लिये ही घर से निकले हो, फिर अब युद्ध क्यों नहीं करते ? यदि तुम इन्हें परास्त किये बिना घर लौट चलोग तो सब स्त्री-पुरुष आपस में मिलकर तुम्हारी हँसी करेंगे। मुझसे भी सैरन्ध्री ने तुम्हारा सारध्य करने को कहा था, इसलिये अब बिना गौएँ लिये नगर की ओर जाना मेरा काम नहीं है।  उत्तर बोला---बृहनल्ले ! कौरव लोग मत्स्यराज की बहुत-सी गौएँ लिये जाते हैं तो ले जायँ और स्त्री-पुरुष मेरी हँसी करते हैं तो करते रहें, किन्तु अब युद्ध करना मेरे वश की बात नहीं है। ऐसा कहकर राजकुमार उत्तर रथ से कूद पड़ा और सारी मान-मर्यादा को तिलांजली देकर धनुष-बाण फेंककर भागा। यह देखकर बृहनल्ला ने कहा, 'शूरवीरों की दृष्टि में युद्धस्थल से भागना क्षत्रियों का धर्म नहीं है। क्षत्रियों के लिये तो युद्ध में मरना ही अच्छा है, डरकर पीठ दिखाना अच्छा नहीं है।' ऐसा कहकर कुन्तीनन्दन अर्जुन भी रथ से कूद पड़े और भागते हुए राजकुमार के पीछे दौड़े और बड़ी तेजी से सौ ही कदम पर उसके बाल पकड़ लिये। अर्जुन द्वारा पकड़ लिये जाने पर उत्तर कायरों की तरह दीन होकर रोने लगा और बोला, 'कल्याणी बृहनल्ले ! सुनो, तुम जल्दी ही रथ लौटा ले चलो। देखो, जिंदगी रहेगी तो अच्छे दिन भी देखने को मिल जायंगे।' उत्तर इसी प्रकार घबराकर बहुत अनुनय-विनय करता रहा, किन्तु अर्जुन हँसते-हँसते उसे रथ के पास ले आये और कहने लगे, 'राजकुमार ! यदि शत्रुओं से युद्ध करने की तुम्हारी हिम्मत नहीं है तो लो, तुम घोड़ों की रास सभालो; मैं युद्ध करता हूँ। तुम इस रथियों की सेना में चले चलो, डरना मत, मैं अपने बाहुबल से तुम्हारी रक्षा करूँगा। और तुम डरते क्यों हो, आखिर हो तो क्षत्रिय के ही बालक। फिर शत्रुओं के सामने जाकर घबराना कैसा ? देखो, मैं इस दुर्जय सेना में घुसकर कौरवों से लड़ूँगा और तुम्हारी गौएँ छुड़ाकर लाऊँगा। तुम जरा मेरे सारथि का काम कर दो।' इस प्रकार महावीर अर्जुन ने युद्ध से डरकर भागते हुए उत्तर को समझाया और उसे फिर रथ पर चढ़ा लिया।