Monday 13 November 2023

भगवान् श्रीकृष्ण का हस्तिनापुर जाना और धृतराष्ट्र तथा गान्धारी को सांत्वना देकर वापस आना

जनमेजय ने पूछा _विप्रवर ! धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण को गान्धारी के पास क्यों भेजा ? जब पहले वे संधि कराने के लिये कौरवों के पास गये थे, उस समय तो उनकी  इच्छा पूरी हुई नहीं, जिसके कारण वह युद्ध हुआ। अब जब सारे योद्धा मारे गये, दुर्योधन गिर गया और पाण्डव शत्रुहीन हो गये, तब ऐसी क्या आवश्यकता आ पड़ी, जिसके लिये भगवान् श्रीकृष्ण को फिर वहां जाना पड़ा! मुझे तो ऐसा जान पड़ता है, इसमें कोई छोटा_मोटा कारण नहीं होगा। वैशम्पायनजी ने कहा_राजन् ! तुमने जो प्रश्न किया है वह ठीक ही है; मैं इसका यथार्थ कारण बताता हूं, सुनो। भीमसेन ने गदायुद्ध के नियम का उल्लंघन करके महाबली दुर्योधन को मारा था_यह देखकर महाराज युधिष्ठिर को बड़ा भय हुआ। उन्होंने सोचा 'दुर्योधन की माता गांधारी बड़ी तपस्विनी है, उन्होंने जीवनभर घोर तपस्या की हैं। वे चाहे तो तीनों लोकों को भस्म कर सकती हैं, इसलिये सबसे पहले उन्हें ही शान्त करना चाहिये। अन्यथा हमलोगों के द्वारा जब वे अपने पुत्र का अन्यायपूर्वक वध सुनेंगी तो क्रोध में भरकर  अपने मन से अग्नि प्रकट करके हमें भष्म कर डालेंगी।' यह सब सोच_विचारकर धर्मराज ने श्रीकृष्ण से कहा_'गोविन्द ! आपकी ही कृपा से मैंने अकण्टक राज्य पाया है, अपने पुरुषार्थ से हम उसे पाने की बात भी नहीं सोच सकते थे। आपने ही सारथि बनकर हमारी सहायता और रक्षा की है। यदि आप इस युद्ध में अर्जुन के कर्णधार न होते, तो ये समुद्र जैसी कौरव_सेना को जीतकर उसके पार कैसे पहुंच पाते ? हमलोगों के लिये आपने कौन_कौन_सा कष्ट नहीं उठाया ? गदआओं के प्रहार, परिघों की मार, शक्ति, भिंदीपाल तोमर और परसों की चोटें सहीं तथा शत्रुओं की कठोर बातें भी सुनी। किन्तु दुर्योधन के मारे जाने से सब सफल हो गया। इस प्रकार यद्यपि हमलोगों की विजय हुई है, तथापि अभी हमारा चित्त संदेह के झूले में झूल रहा है। माधव ! जरा, आप गान्धारी के क्रोध का तो ख्याल कीजिये; वे नित्य कठोर तपस्या में संलग्न रहने के कारण दुर्बल हो गयी हैं, अपने पुत्र_पौत्रों का वध सुनकर निश्चय ही हमें भस्म कर डालेंगी। इसलिये इस समय उन्हें प्रसन्न करना आवश्यक है। पुरुषोत्तम! जब वे पुत्र के शोक से पीड़ित हो क्रोध से लाल_लाल आंखें करके देखेंगी, उस समय आपके सिवा दूसरा कौन उनकी ओर दृष्टि डालने का साहस करेगा ? अतः उन्हें शांत करने के लिये एक बार आपका वहां जाना उचित मालूम होता है। आपसी से इस जगत् का प्रादुर्भाव होता है और आपही में प्रलय। अतः आप ही यथार्थ कारणों से युक्त समयोचित बात कहकर गांधारी को शीघ्र शांत कर सकेंगे। बाबा व्यासजी भी वहीं होंगे। आपको पाण्डवों के हित की दृष्टि से हरेक उपाय करके गांधारी का क्रोध शान्त कर देना चाहिए।'
धर्मराज की बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने दारुक को बुलाया और उसे रथ तैयार करने की आज्ञा दी। दारुक ने बड़ी फुर्ती से रथ सजाया और उसे जोतकर भगवान् की सेवा में ला खड़ा किया। भगवान् उसपर सवार हो तुरंत हस्तिनापुर को चल दिये और रथ की घरघराहट से नगर को गुंजाते हुए वहां जा पहुंचे। नगर में प्रवेश करके रथ से उतरे और धृतराष्ट्र को अपने आने की सूचना देकर उनके महल में गये। जाते ही व्यासजी का दर्शन हुआ, जो पहले से ही वहां पधारे हुए थे। श्रीकृष्ण ने व्यासजी तथा राजा धृतराष्ट्र के चरण छूए और गान्धारी को भी प्रणाम किया। फिर वे धृतराष्ट्र का हाथ अपने हाथ में ले फूट_फूटकर रोने लगे। उन्होंने दो घड़ी तक शोक के आंसू बहाये। फिर जल से आंखें धोकर विधिवत् आचमन किया और धृतराष्ट्र से कहा_'भारत ! आप वृद्ध हैं। इसलिये काल के द्वारा जो कुछ संघटित हुआ है और हो रहा है, वह आपसे छिपा नहीं है। पाण्डव सदा से ही आपके इच्छानुसार वर्ताव करते हैं। उन्होंने बहुत चाहा कि आपके कुल का नाश न हो। वे सर्वथा निर्दोष थे; तो भी उन्हें कपटपूर्वक जूए में हराकर वनवास दिया गया। नाना प्रकार के वेष बनाकर उन्होंने अज्ञातवास का कष्ट भोगना। इसके अलावा भी उन्हें असमर्थ पुरुषों की तरह बहुत_से क्लेश सहने पड़े। जब युद्ध छिड़ने का अवसर आया, तो मैं स्वयं आपकी सेवा में उपस्थित हुआ और यह झगड़ा मिटाने के लिये मैंने सब लोगों के सामने आपसे केवल पांच गांव मांगे थे। किन्तु काल की प्रेरणा से आप भी लोभ में फंस गये और मेरी प्रार्थना ठुकरा दी गयी। इस तरह आपके अपराध से संपूर्ण क्षत्रियों का संहार हुआ है। भीष्म, सोमदत्त, बाह्लीक, कृप, द्रोण, अश्वत्थामा और विदुर जी भी आपसे सर्वथा सन्धि के लिये प्रार्थना करते रहे; किन्तु आपने किसी का कहना नहीं माना। सच है, जिसके मन पर काल का प्रभाव होता है, वह मोह में पड़ ही जाता है। जब युद्ध की तैयारी शुरू हुई, उस समय आपकी भी बुद्धि मारी गयी! इसे काल का प्रभाव या प्रारब्ध के सिवा और क्या कहा जा सकता है ? वास्तव में यह जीवन प्रारब्ध के ही अधीन है। महाराज! आप पाण्डवों पर दोषारोपण मत कीजियेगा, उन बेचारों का तनिक भी अपराध नहीं है। वे न कभी धर्म से गिरे हैं न न्याय से। आपके प्रति उनका स्नेह भी कम नहीं हुआ है और अब तो आपको और गान्धारी देवी पाण्डवों से ही पिण्डा_पानी मिलनेवाला है। उन्हीं से आपका वंश बढ़ेगा। पुत्र से मिलने वाला सारा फल अब पाण्डवों से ही मिलेगा। इसलिये आप लोग पाण्डवों के प्रति मन में मैल न रखें, उनकी बुराई न सोचें। अपना ही अपराध या भूल समझकर उनका कल्याण मनावें, उनकी रक्षा करें। महाराज! आप तो जानते ही हैं, धर्मराज युधिष्ठिर की आपके चरणों में कितनी भक्ति है। कितना स्वाभाविक स्नेह है ! उन्होंने अपनी बुराई करनेवाले शत्रुओं का ही संहार किया है; तो भी वे उनके शोक में दिन_रात जलते रहते हैं, उन्हें तनिक भी चैन नहीं मिलता ! आप और गान्धारी के लिए तो वे बहुत शोक करते हैं, उनके हृदय में शान्ति नहीं है। लज्जा के मारे उन्हें आपके सामने आने की हिम्मत नहीं पड़ती। राजा धृतराष्ट्र से इस प्रकार कहकर श्रीकृष्ण शोक से दुर्बल हुई गान्धारी देवी से बोले_'कल्याणी ! मैं तुमसे भी जो कह रहा हूं, उसे ध्यान देकर सुनो। आज संसार में तुम्हारे जैसी तपस्विनी स्त्री दूसरी कोई नहीं है। तुम्हें याद होगा, उस दिन सभा में मेरे सामने ही तुमने दोनों पक्षों के हित करनेवाला धर्म और अर्थ से संयुक्त वचन कहा था; किन्तु तुम्हारे पुत्रों ने उसे नहीं माना। दुर्योधन विजय का अभिलाषी था, उससे तुमने रुखाई के साथ कहा_'ओ मूर्ख ! जिधर धर्म होता है, उसी पक्ष की जीत होती है।' राजकुमारी! तुम्हारी वहीं बात आज सत्य हुई है, ऐसा समझकर मन में शोक न करो। तुममें तपस्या का बहुत बड़ा बल है, तुम अपनी क्रोध भरी दृष्टि से चराचर जगत् को भस्म कर डालने की शक्ति रखती हो; तो भी तुम्हें पाण्डवों के नाश का विचार कभी मन में लाना न चाहिये।' श्रीकृष्ण की बात सुनकर गांधारी ने कहा_'केशव ! तुम्हारी बात बिलकुल ठीक है। अबतक मेरे मन में बड़ी व्यथा थी, मैं चिंता की आग में जल रही थी; इसलिये मेरी बुद्धि विचलित हो गयी थी_मैं पाण्डवों के अनिष्ट की बात सोच रही थी। किन्तु अब तुम्हारी बातें सुनने से मेरी बुद्धि स्थिर हो गयी_क्रोध का आवेश जाता रहा। जनार्दन! ये राजा अंधे हैं, बूढ़े हैं और इनके पुत्र मारे गये पसंद नकहैं_इसके कारण शोक से पीड़ित भी हैं; अब वीरवर पाण्डवों के साथ तुम्हीं इनको सहारा देनेवाले हो।' इतना कहते-कहते गांधारी अंचल से मुंह ढांपकर फूट_फूटकर रोने लगी। पुत्रों के शोक सेसे उसे बड़ा संताप होने लगा। उस समय श्रीकृष्ण ने कितने ही कारण बताकर कितनी ही युतियां देकर गांधारी को शान्तवना दी_धीरज बंधाया।धृतराष्ट्र तथा गांधारी को आश्वासन देने के पश्चात् भगवान् ने अश्वत्थामा के भीषण संकल्प का स्मरण किया, फिर तो वे तुरंत खड़े हो गये और व्यासजी के चरणों में मस्तक झुकाकर राजा धृतराष्ट्र से बोले_'महाराज !  अब मैं यहां से जाने की आज्ञा चाहता हूं, आप शोक न करें। इस समय अश्वत्थामा के मन में पापपूर्ण विचार ओ़ोल काजाग्रत हुआ है, इसलिये सहसा उठ पड़ा हूं। उसने आज की रात पाण्डवों को मार डालने का निश्चय कर लिया है। यह सुनकर धृतराष्ट्र और गांधारी ने कहा_'जनार्दन ! यदि ऐसी बात है, तो जल्दी जाओ और पाण्डवों की रक्षा करो। हम फिर तुमसे शीघ्र मिलेंगे। तदनन्तर, भगवान् श्रीकृष्ण दारुक के साथ तुरंत चल दिये। उनके जाने के बाद महात्मा व्यासजी धृतराष्ट्र को आश्वासन देने लगे। छावनी के पास पहुंचकर श्रीकृष्ण पाण्डवों से मिले और हस्तिनापुर का सारा समाचार उन्हें कह सुनाया।