Wednesday 29 December 2021

कृपाचार्य के द्वारा शिखण्डी की पराजय, सुकेतु का वध, धृष्टद्युम्न के द्वारा कृतवर्मा और दुर्योधन का परास्त होना तथा कर्ण द्वारा पांचाल आदि महारथियों का संहार

संजय कहते हैं_राजन् ! इस प्रकार कौरव_सेना को अर्जुन की मार से पीड़ित होती देख कृतवर्मा, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, उलूक, शकुनि, दुर्योधन तथा उसके भाइयों ने आकर बताया। उस समय कुछ देर तक वहां घोर संग्राम हुआ, कृपाचार्य ने बाणों की इतनी बौछार की कि टिड्डियों के समान उन बाणों से सृंजयों की सारी सेना आच्छादित हो गयी। यह देख शिखण्डी बड़े क्रोध में भरकर उनका सामना करने के लिये गया और उनके ऊपर चारों ओर  से बाणवर्षा करने लगा। किन्तु कृपाचार्य अस्त्रविद्या के महान् पण्डित थे। उन्होंने शिखण्डी की वाणवर्षा शान्त करके उसे दस बाणों से बिंध डाला। फिर तीखे बाणों के प्रहार से उसके सारथि और घोड़ों को भी यमलोक पठा दिया। तब शिखण्डी सहसा उस रथ से कूद पड़ा और हाथों में ढ़ाल_तलवार लेकर कृपाचार्य पर झपटा। उसे अपने ऊपर आक्रमण करते देख कृपाचार्य ने अनेकों बाण मारकर ढ़क दिया। शिखण्डी ने भी बारंबार तलवार घुमाकर कृपाचार्य के बाणों को काट डाला।
तब कृपाचार्य ने अपने बाणों से शीघ्रतापूर्वक शिखण्डी की ढाल काट दी। अब वह सिर्फ तलवार लेकर ही उनकी ओर दौड़ा। कृपाचार्य अपने बाणों से उसे बार_बार पीड़ा देने लगे। उसकी यह अवस्था देखकर चित्रकेतु_नन्दन सुकेतु तुरंत वहां आ पहुंचा और बाबा कृपाचार्य पर बाणों की झड़ी लगाने लगा। शिखण्डी ने देखा कि ब्राह्मण_देवता अब सुकेतु के साथ उलझे हुए हैं, तो वह मौका पाकर तुरंत भाग निकला। तदनन्तर सुकेतु ने कृपाचार्य को पहले नौ बाणों से बींधकर फिर तिहत्तर तीरों से घायल किया। इसके बाद उनके बाणसहित धनुष को काटकर सारथि के मर्मस्थानों में भी घाव किया।
यह देख कृपाचार्य ने तीस बाणों से सुकेतु के संपूर्ण मर्मस्थानों में चोट पहुंचायी। इससे सुकेतु का सारा शरीर कांप उठा, वह बहुत व्याकुल हो गया। उसी अवस्था में कृपाचार्य ने एक क्षुरप्र मारकर उसके मस्तक को काट गिराया। सुकेतु के मारे जाने पर उसके अग्रगामी सैनिक भयभीत हो सब दिशाओं में भाग गये। दूसरी ओर धृष्टद्युम्न और कृतवर्मा लड़ रहे थे। धृष्टद्युम्न ने क्रोध में भरकर कृतवर्मा की छाती में नौ बाण मारे तथा उसके ऊपर सायकों की भयंकर बौछार की।
कृतवर्मा ने भी हजारों बाण मारकर उस शस्त्र वर्षा को शान्त कर दिया, यह देख धृष्टद्युम्न ने कृतवर्मा के निकट पहुंच कर उसे आगे बढ़ने से रोक दिया और तुरंत ही उसके सारथि को भी तीखे भाले से मारकर यमलोक का अतिथि बनाया।इस प्रकार महाबली धृष्टद्युम्न ने अपने बलवान शत्रु को जीतकर साधकों की वर्षा से कौरव_सेना का बढ़ाव रोक दिया। तब आपके सैनिक सिंहनाद करके धृष्टद्युम्न पर टूट पड़े, फिर घमासान युद्ध होने लगा। उस दिन अर्जुन संशप्तकों में, भीमसेन कौरवों में और कर्ण पांचालों में घुसकर क्षत्रियों का संहार कर रहे थे। एक ओर दुर्योधन नकुल_सहदेव से भिड़ा हुआ था। उसने क्रोध में भरकर नौ बाणों से नकुल को और चार सायकों से उसके घोड़ों को बींध डाला।
फिर एक क्षुराकार बाण से उसने सहदेव की सुवर्ण भरी ध्वजा काट दी। नकुल ने भी कुपित होकर आपके पुत्र को इक्कीस बाण मारे तथा सहदेव ने पांच बाणों से उसे घायल किया। अब तो आपका पुत्र क्रोध से आग-बबूला हो गया, उसने उन दोनों भाइयों की छाती में पांच_पांच बाण मारे। फिर दो भल्लों से उन दोनों के धनुष काट डाले। इसके बाद उन्हें इक्कीस बाणों से घायल किया। धनुष काट जाने पर उन दोनों भाइयों ने पुनः दूसरे धनुष लेकर दुर्योधन पर बड़ी भारी बाणवर्षा आरंभ कर दी। दुर्योधन भी बाणों की झड़ी लगाकर उन दोनों को रोकने लगा। उस समय उसके धनुष से निकलते हुऐ बात संपूर्ण दिशा को ढ़कयते दिखाती दे रहे थे। आकाश आच्छान्न होकर बाणमय हो रहा था।नकुल_सहदेव को उसका रूप प्रलयशीघ्रतालीन बादल के समान दिखायी देता था। ठीक उसी समय पाण्डव_सेनापति धृष्टद्युम्न वहां आ पहुंचा और नकुल_सहदेव को पीछे करके ही अपने बाणों से दुर्योधन की प्रगति रोकने लगा।
आपके पुत्र ने हंसकर धृष्टद्युम्न को पहले पच्चीस बाण मारे, फिर पैंसठ बाण मारकर सिंहनाद किया। तत्पश्चात् उसने एक तीखे क्षुरप्र से धृष्टद्युम्न के बाणसहित धनुष और दास्ताने काट दिये। तब आपके पुत्र ने धृष्टद्युम्न पर पंद्रह बाण छोड़े। वे बाण उसके कवच को छेदते हुए पृथ्वी में समा गये। इससे दुर्योधन को बहुत क्रोध हुआ।
उसने एक भल्ल मारकर धृष्टद्युम्न का धनुष काट डाला। फिर बड़ी शीघ्रता के साथ उसकी भृगुटियों में दस बाण मारे। धृष्टद्युम्न को भी अपना कटा हुआ धनुष और सोलह भल्ल अपने हाथ में लिये।
उसमें से पांच भल्लों के द्वारा उसने दुर्योधन के घोड़ों और सारथि को मार डाला, एक से उसका धनुष काट दिया और सामग्रियों सहित रथ, क्षत्र, ध्वजा, शक्ति, गदा और खड्ग आदि को नष्ट कर डाला। राजा दुर्योधन रथहीन हो गया, उसके कवच और आयुध आदि नष्ट हो गये।
यह देख उसके भाई उसकी रक्षा में आ पहुंचे। दण्डधारी नाम का राजा उसे अपने रथ में बिठाकर उसे रणभूमि से बाहर ले गया।
 तदनन्तर कर्ण ने धृष्टद्युम्न पर धावा कर दिया। उन दोनों में महान् युद्ध छिड़ गया। उस समय पाण्डवों का या हमारे पक्ष का कोई भी योद्धा पीछे पैर नहीं हटाया था। पांचाल देश के लड़ाकू वीर विजय की अभिलाषा से बड़ी फुर्ती के साथ कर्ण पर टूट पड़े। उन्हें इस प्रकार विजय के लिये प्रयत्न करते देख कर्ण उनके अग्रगामी वीरों को बाणों से मारने लगा। उसने व्याघ्रकेतु, सुशर्मा, चित्र, उग्रायुध, जय तथा सिंहसेन को अपने बाणों का निशाना बनाया। उपर्युक्त वीरों ने भी रथों से कर्ण को घेर लिया। कर्ण बड़ा प्रतापी था, उसने अपने साथ युद्ध करते हुए इन आठों वीरों को आठ तीखे बाणों से मारकर खूब घायल कर दिया। फिर की हजार योद्धाओं का सफाया कर डाला। तत्पश्चात् जिष्णु, देवापि, भद्र, दण्ड, चित्र, चित्रायुध, हरि, सिंहकेतू, रोचमान्, शलभ को तथा चेदिदेशीय महारथियों को मौत के घाट उतारा। इस युद्ध में कर्ण ने जैसा पराक्रम किया, वैसा न तो भीष्म ने, न द्रोण ने और न दूसरे योद्धाओं ने ही कभी किया था। उसने हाथी, घोड़े, रथ और पैदल_ इन सबका महान् संहार किया। कर्ण का वह पराक्रम देख मेरे मन में ऐसा विश्वास होने लगा कि अब एक भी पांचाल योद्धा जीवित नहीं बचेगा। उस महासंग्राम में कर्ण को पांचाल सेना का संहार करते देख राजा युधिष्ठिर बड़े क्रोध में भरकर उसकी ओर दौड़े। साथ ही द्रौपदी के पुत्र, धृष्टद्युम्न तथा अन्य सैकड़ों वीरों ने पहुंचकर कर्ण को चारों ओर से घेर लिया। शिखण्डी, सहदेव, नकुल, जनमेजय, सात्यकि तथा बहुत से प्रभद्रक योद्धा धृष्टद्युम्न के आगे होकर कर्ण पर अस्त्र-शस्त्रों की वृष्टि करने लगे। जैसे गरुड़ अकेला होकर भी बहुत_से सर्पों को दबोच लेता है, उसी प्रकार कर्ण अकेला ही चेदि, पांचाल और पाण्डववीरों पर प्रहार कर रहा था। जब कर्ण पाण्डवों से उलझा हुआ था उसी समय भीमसेन रण में सब ओर विचार अपने यमदण्ड के समान वाणों से वाहीक, वसातीय, मद्र तथा सिंधुदेशीय योद्धाओं का संहार कर रहे थे । भीम के बाणों से मारे गये रथियों, घुड़सवारों, सारथियों, पैदल योद्धाओं तथा हाथी_घोड़ों की लाशों से जमीन पट गयी थी। सारी सेना भीमसेन  के भय से उत्साह खो बैठी थी। किसी से कुछ करते नहीं बनता था। सब पर दैत्य जा रहा था।
कर्ण पाण्डव सेना को भगा रहा था और भीम कौरव वाहिनी को खदेड़ रहे थे_ इस प्रकार रणभूमि में विचरते हुए उन दोनों वीरों की अद्भुत शोभा हो रही थी।

Monday 22 November 2021

अर्जुन द्वारा संशप्तकों का संहार

संजय कहते हैं_महाराज ! जिस समय क्षत्रियों का संहार करनेवाला वह भयानक युद्ध चल रहा था, उसी समय दूसरी ओर बड़े जोर_जोर से गाण्डीव धनुष की टंकार सुनाई देती थी। वहां अर्जुन संशप्तकों का तथा नारायणी सेना का संहार कर रहे थे। महारथी सुशर्मा ने अर्जुन पर बाणों की बौछार की तथा संशप्तकों ने भी उन्हें अपने तीरों का निशाना बनाया। तत्पश्चात् सुशर्मा ने अर्जुन को दस बाणों से बींधकर श्रीकृष्ण की दाहिनी भुजा में भी तीन बाण मारे। फिर एक भल्ल मारकर उसने अर्जुन की ध्वजा छेद डाली। ध्वजा पर आघात लगते ही उसके ऊपर बैठे विशाल वानर ने बड़े जोर से गर्जना करके सबको भयभीत कर दिया। उसका भयंकर नाद सुनकर आपकी सेना थर्रा उठी। डर के मारे कोई हिल_डुल तक न सका। थोड़ी देर में जब उसे होश आया तो सब_के_सब अर्जुन पर बाणों की बौछार करने लगे। फिर सबने मिलकर अर्जुन के विशाल रथ को घेर लिया। यद्यपि उनपर तीखे बाणों की मार पड़ रही थी, तो भी वे रथ पकड़कर जोर_जोर से चिल्लाने लगे। किन्हीं ने घोड़ों को पकड़ा, किन्हीं ने पहियों को। कुछ लोगों ने रथ की ईषा पकड़ने का उद्योग किया। इस प्रकार हजारों योद्धा रथ को जबरदस्ती पकड़कर सिंहनाद करने लगे। कुछ लोगों ने भगवान् श्रीकृष्ण की दोनों बाहें पकड़ लीं; कई योद्धाओं ने रथ पर चढ़कर अर्जुन को भी पकड़ लिया। श्रीकृष्ण ने अपनी बांहे झटककर उन लोगों को जमीन पर गिरा दिया तथा अर्जुन ने भी अपने अपने रथ पर चढ़े हुए कितने ही पैदलों को धक्के देकर नीचे गिराया। फिर आसपास खड़े हुए संशप्तक योद्धाओं को निकट से युद्ध करने में उपयोगी बाण मारकर ढ़क दिया। तदनन्तर अर्जुन ने देवदत्त तथा श्रीकृष्ण ने पांचजन्य नामक शंख बजाया। शंखों की आवाज सुनकर संशप्तकों की सेना भय से सिहर उठी। फिर अर्जुन ने नागास्त्र का प्रयोग करके उन सबके पैर बांध दिये। पैर बांध जाने से निश्चेष्ट होकर वे पत्थर के पुतले जैसे दिखायी देने लगे। उसी अवस्था में अर्जुन ने उनका संहार आरंभ किया। जब मार पड़ने लगी तो उन्होंने रथ छोड़ दिया और अपने समस्त अस्त्र-शस्त्रों को अर्जुन पर छोड़ने का प्रयास किया; परंतु पैर बंधे होने के कारण वे हिल भी न सके। अर्जुन उनका वध करने लगे। इसी समय सुशर्मा गारुड़ास्त्र का प्रयोग किया। उससे बहुत से गरुड़ प्रकट हो_होकर सर्पों को खाने लगे। उन गरुड़ों को देख सर्पगण लापता हो गये। इस प्रकार नागपाश से छुटकारा पाने हुए योद्धा अर्जुन के रथ पर सायकों तथा अन्य अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करने लगे। तब बाणों की बौछार से उनकी अस्त्र वर्षा का निवारण करके योद्धाओं का संहार आरंभ किया। इतने में सुवर्णा ने अर्जुन की छाती में तीन बाण मारे। इससे अर्जुन को गहरी चोट लगी और वे व्यथित होकर रथ के पिछले भाग में बैठ गये। थोड़ी ही देर में जब उन्हें चेत हुआ, फिर तो उन्होंने तुरंत ही ऐन्द्रेयास्त्र को प्रकट किया। उससे हजारों बाण निकल_निकलकर चारों दिशाओं में छा गये और आपकी सेना तथा घोड़े_हाथियों का विनाश करने लगे। इस प्रकार सेना का संहार होता देख संशप्तकों तथा नारायणी सेना के ग्वालों को बड़ा भय हुआ।
उस समय वहां एक भी पुरुष ऐसा नहीं था, जो अर्जुन का सामना कर सके। सब वीरों के देखते_देखते आपकी सेना कट रही थी। वह स्वयं निश्चेष्ट हो गयी थी, उससे पराक्रम करते नहीं बनता था। यह सब मेरी आंखों देखी घटना है। अर्जुन ने वहां दस हजार योद्धाओं को मार डाला था। संशप्तकों में से जो शेष बच गये थे उन्होंने मर जाने या विजय पाने का निश्चय करके फिर से अर्जुन को घेर लिया। फिर तो वहां अर्जुन के साथ आपके सैनिकों का बड़ा भारी संग्राम हुआ।

Sunday 14 November 2021

भीमसेन के द्वारा धृतराष्ट्र के पुत्रों तथा कौरव योद्धाओं का भीषण संहार

धृतराष्ट्र बोले_संजय ! भीमसेन ने जो कर्ण को रथ की बैठक में गिरा दिया_यह तो उन्होंने बड़ा दुष्कर काम किया। उसी के भरोसे दुर्योधन मुझसे बार_बार कहा करता था कि’अकेले कर्ण ही पाण्डवों और सृंजयों को युद्ध में मार डालेगा।‘ अब भीम के हाथों कर्ण को पराजित देख मेरे पुत्र दुर्योधन ने क्या किया ? संजय ने कहा_महाराज ! उस महासंग्राम में कर्ण को युद्ध से विमुख होते देख दुर्योधन ने अपने भाइयों से कहा_’तुमलोग शीघ्र जाकर कर्ण की रक्षा करो। वह भीमसेन के भय के कारण अगाध संकट_समुद्र में डूब रहा है।‘ राजा की आज्ञा पाकर वे क्रोध में भर गये और जिस प्रकार पतंगे आग की ओर दौड़ते हैं, उसी प्रकार भीमसेन को मार डालने की इच्छा से उनपर टूट पड़े। श्रुतर्वा, दुर्धर, क्राथ, विवित्सु, विकट, सम निषंगी, नन्द, उपनन्द, दुष्प्रधर्ष, सुबाहु, वातवेग, सुवर्चा, धनुर्गाह, दुर्मुद, जलसन्ध, शल और सह_ ये लोग रथियों से घिरे हुए दौड़े और भीमसेन को चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये। फिर तो उन्होंने नाना प्रकार के बाणों की झड़ी लगा दी। महाबली भीमसेन उनके प्रहारों से पीड़ित हो रहे थे, तो भी  आपके पुत्रों के पांच सौ रथों की धज्जियां उड़ा दीं और पचास रथियों को यमलोक भेज दिया।। तदनन्तर क्रोध में भरे हुए भीम ने एक भल्ल मारकर विवित्सु के मस्तक को धड़ से अलग कर दिया। उसकी मृत्यु होते  सभी भाई भीम पर टूट पड़े। तब उन्होंने दो भल्लों से आपके दो पुत्र विकट और सह के प्राण ले लिये। लगे हाथ भीमसेन ने तेज किये हुए नाराच से मारकर क्राथ को भी यमलोक भेज दिया। महाराज ! इस प्रकार जब आपके वीर धनुर्धर पुत्र मारे जाने लगे तो रणभूमि में बड़े जोर का हाहाकार  मचा। उनकी सेना का संहार करके भीम ने नन्द और उपनन्द को भी मौत के घाट उतारा। अब तो आपके पुत्र भय से घबरा उठे।
वे भीम को प्रलयकालीन यमराज के समान भयंकर जानकर वहां से भाग गये। आपके इतने पुत्र मारे गये_यह देख कर्ण का मन बहुत उदास हो गया। उसकी आज्ञा से मद्रराज ने पुनः घोड़े बढ़ाये। वे घोड़े बड़े वेग से आकर भीमसेन के रथ से भिड़ गये।  फिर तो एक_दूसरे का वध चाहनेवाले कर्ण और भीमसेन में बालि_सुग्रीव की भांति भयंकर युद्ध होने लगा। कर्ण ने अपने सुदृढ़ धनुष को कानतक खींचकर तीन बाणों से भीमसेन को बींध दिया। उन्होंने भी एक भयंकर बाण हाथ में लेकर उसे कर्ण पर चलाया।
उस बाण ने कर्ण का कवच फाड़कर उसके शरीर को छेद दिया। उस प्रचंड प्रहार से कर्ण को बड़ी व्यथा हुई, वह व्याकुल होकर कांपने लगा। तदनन्तर रोष और अमर्ष में भरकर उसने  भीमसेन को पच्चीस बाण मारे। फिर अनेकों साधकों का प्रहार करके एक बाण से उनकी ध्वजा काट डाली। इसके बाद एक भल्ल से मारकर उनके सारथि को भी मौत के घाट उतार दिया। लगे हाथ धनुष भी काट डाला; फिर एक ही मुहूर्त में हंसते_हंसते उसने भीमसेन को रथहीन कर दिया। रथ के टूटते ही महाबाहु भीमसेन गदा हाथ में लिये हंसते_हंसते कूद पड़े। फिर वेग से उछलकर वे आपकी सेना में घुस गये और गदा मार_मारकर समस्त सैनिकों का संहार करने लगे। पैदल होते हुए भी उन्होंने अपनी गदा में सात सौ हाथियों को उनके सवारों, ध्वजाओं एवं अस्त्र-शस्त्रों सहित नष्ट कर डाला। इसके बाद शकुनि के अत्यन्त बलवान बावन हाथियों को मार गिराया तथा एक सौ से अधिक रथों और सैकड़ों सैनिकों का संहार कर डाला।
ऊपर से सूर्यदेव तपा रहे और सामने भीमसेन संताप दे रहे थे; इससे समस्त योद्धा भीम के डर से मैदान छोड़कर भाग निकले। इतने में ही दूसरी ओर से  पांच सौ रथियों ने आकर भीम पर चारों ओर से बाणवर्षा आरंभ कर दी। परन्तु भीम ने उन सबको गदा से मारकर यमलोक पठा दिया।
साथ ही उनकी ध्वजा_पताका और आयुधों के भी टुकड़े_टुकड़े कर डाले। तत्पश्चात् शकुनि के भेजे हुए तीन हजार घुड़सवारों ने हाथों में शक्ति, श्रष्टि और प्रकाश लेकर भीमसेन पर हमला किया। भीमसेन ने बड़े वेग से आगे बढ़कर उनका मुकाबला किया और तरह_तरह के पैंतरे बदलते हुए उन्होंने उन सबको गदा से मार डाला।
इसके बाद भीमसेन दूसरे रथ पर सवार हुए और क्रोध में भरकर कर्ण का सामना करने के लिये पहुंच गये। उस समय कर्ण और युधिष्ठिर में युद्ध चल रहा था। कर्ण ने अपने बाणों से युधिष्ठिर को आच्छादित कर दिया और उनके सारथि को भी मार गिराया। सारथि के न होने से घोड़े भाग चले। उनके रथ को पलायन करते देख महारथी कर्ण बाणों की बौछार करते हुए उनका पीछा करने लगा। कर्ण को धर्मराज का पीछा का पीछा करते देख भीमसेन क्रोध से जल गये। उन्होंने अपने बाणों से पृथ्वी और आकाश को चारों ओर से ढ़क दिया। इसके बाद कर्ण पर भी भीषण बाणवर्षा की। कर्ण लौट पड़ा। उसने भी सब ओर से तीखे बाणवर्षा करके भीम को आच्छादित कर दिया। कर्ण और भीम दोनों ही धनुर्धरों में श्रेष्ठ थे। उस समय एक_दूसरे पर विचित्र_विचित्र बाणों का प्रहार करते हुए उन दोनों ने अन्तरिक्ष में बाणों का जाल_सा बुन दिया। यद्यपि उस वक्त मध्याह्न का सूर्य तप रहा था, तो भी उन दोनों के सायक_समूहों से रुक जाने के कारण उसकी प्रखर प्रभा नीचे नहीं आने पाती थी। 
 उस समय शकुनि, कृतवर्मा, अश्वत्थामा, कर्ण और कृपाचार्य_ये पांच वीर पाण्डव_सेना से लोहा ले रहे थे। उनको डटे हुए देख भागने वाले  कौरव_योद्धा भी पीछे लौट पड़े। फिर तो दोनों पक्ष की सेनाएं एक_दूसरे से गुंथ गयीं।
उस दुपहरी में जैसा भयंकर युद्ध हुआ, वैसा मैंने न तो न कभी देखा था और न सुना ही था। एक ओर के सैनिकों का झुंड दूसरी ओर के झुंड से जा भिड़ा। भीषण मारकाट मच गयी।
छूटते हुए बाणसमूहों की आवाजें बहुत दूर तक सुनाई देने लगीं। उस समय महान् सुयश चाहनेवाले दोनों पक्ष के योद्धाओं की सिंहगर्जना एक क्षण के लिये भी बंद नहीं होती थी। दोनों दल में इतना भयानक युद्ध हुआ कि खून की नदियां बह चलीं। कितने ही क्षत्रिय उनमें डूबकर यमलोक पहुंच जाते थे। सब ओर मांसभोजी जन्तुओं का चित्कार हो रहा था। कौए, गीध और वक आदि पक्षी मंडरा रहे थे। उस भयंकर संग्राम में कौरव सेना बहुत कष्ट पाने लगी। उस समय उनकी दशा समुद्र में टूटी हुई नौका के समान हो रही थी।

Friday 22 October 2021

कर्ण और युधिष्ठिर का संग्राम, कर्ण की मूर्छा, कर्ण द्वारा युधिष्ठिर का पराभव तथा भीम के द्वारा कर्ण का परास्त होना

संजय कहते हैं_महाराज ! कर्ण ने उस सेना को चीरकर धर्मराज पर धावा किया। उस समय शत्रुओं ने उसपर नाना प्रकार के हजारों अस्त्र-शस्त्र चलाते, किन्तु उसने उन सबके टुकड़े_टुकड़े कर डाले। इतना  ही नहीं अपने भयंकर बाणों से उसने शत्रुओं को घायल भी कर डाला। उनके मस्तकों, भुजाओं तथा जंघाओं को काट गिराया।
कर्ण के बाणों से मारे जाकर बहुत_से शत्रु धराशायी हो गये। बहुतों के अंग भंग हो गये, अतः वे युद्ध छोड़कर भाग चले। रणभूमि में शत्रुपक्ष के लाखों योद्धाओं की लाशें बिछ गयीं।
उस समय कर्ण प्राणियों का अन्त करने वाले यमराज के समान क्रोध में भरा हुआ था। पांडव और पांचाल सैनिकों ने उसे रोका अवश्य, किन्तु उन सबको रौंदकर वह युधिष्ठिर के पास आ धमका। तदनन्तर कर्ण को अपने पास ही  देख युधिष्ठिर की आंखें क्रोध से लाल हो गयीं, उन्होंने उससे कहा_’सूतपुत्र ! तू युद्ध में सदा अर्जुन से लाग_डांट रखता है और दुर्योधन  की हां_में_हां मिलाकर हमलोगों को कष्ट पहुंचाया करता है।
आज तुझमें जो बल और पराक्रम हो वह सब दिखा, अपना महान् पुरुषार्थ प्रकट कर।‘ यह कहकर युधिष्ठिर ने कर्ण को दस बाणों से बींध डाला। सूतपुत्र कर्ण ने भी हंसते हंसते उन्हें दस बाणों से घायल करके तुरंत बदला चुकाया। 
तब युधिष्ठिर ने पर्वतों को भी विदीर्ण करने वाला यमदण्ड के समान भयंकर बाण धनुष पर चढ़ाया और सूतपुत्र का वध करने की इच्छा से उसे छोड़ दिया। वह वेगपूर्वक छोड़ा हुआ बाण बिजली के समान कड़ककर महारथी कर्ण की बायीं कोख में धंस  उसकी चोट से कर्ण को मूर्छा आ गयी।
उसका सारा शरीर शिथिल हो गया, धनुष हाथ से छूटकर रथ पर जा गिरा। मानो प्राण निकल गये हों, ऐसा निश्चेष्ट और अचेत होकर कर्ण शल्य के सामने ही गिर पड़ा। राजा युधिष्ठिर ने अर्जुन का हित करने की इच्छा से कर्ण पर तुरंत प्रहार नहीं किया। कर्ण को इस अवस्था में देखकर कौरव सेना में हाहाकार मच गया। थोड़ी ही देर में जब कर्ण की मूर्छा दूर हुई तो उसने विजय नामक अपना महान् धनुष तानकर तेज किये हुए बाणों से युधिष्ठिर की प्रगति रोक दी।  उस समय दो पांचाल राजकुमार युधिष्ठिर के पहियों की रक्षा कर रहे थे, उनके नाम थे चन्द्रदेव तथा दण्डाधार।
कर्ण ने उन दोनों को छुरे के समान आकारवाले दो बाणों से मार डाला। यह देख युधिष्ठिर ने कर्ण को पुनः तीस बाणों से घायल कर दिया। साथ ही सुषेण और सत्यसेन को भी तीन_तीन बाण मारे। फिर नब्बे बाणों से शल्य को और तिहत्तर से सूतपुत्र को बींध डाला तथा उसकी रक्षा करने वाले योद्धाओं को भी तीन_तीन बाणों से घायल किया। तब कर्ण ने हंसकर अपना धनुष टंकारा और एक भल्ल तथा साठ बाणों से युधिष्ठिर को आहत करके जोर से गर्जना की। फिर तो पाण्डव_पक्ष के योद्धा बड़े अमर्ष में भरकर दौड़े और युधिष्ठिर की रक्षा के लिये कर्ण को बाणों से पीड़ित करने लगे। सात्यकि, चेकितान, युयुत्सु, पाण्ड्य, धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, द्रौपदी के पुत्र, प्रभद्रक, नकुल_सहदेव, भीमसेन, धृष्टकेतू तथा करूष, मत्स्य, केकय, काशी और कोसल देश के योद्धा_ये सब_के_सब बाणों का प्रहार करने लगे।
पांचालदेशीय जन्मेजय भी उसी साधकों से बींधने लगा। पाण्डववीर सब ओर से कर्ण पर बाराहकर्ण, नारायण, नालीक, बाण, वत्सदन्त, विपाट तथा क्षुरप्र आदि नाना प्रकार के अस्त्र_शस्त्रों की वर्षा करने लगे। यह देखकर कर्ण ने ब्रह्मास्त्र प्रकट किया, उसके बाणों से संपूर्ण दिशाएं आच्छादित हो गयीं। शराग्नि की लपट में झुलसकर पाण्डववीर भस्म होने लगे। 
तदनन्तर कर्ण ने हंसकर युधिष्ठिर का धनुष काट दिया, फिर पलक मारते ही उसने तेज किये हुए नब्बे बाणों से उनका कवच छिन्न_भिन्न कर दिया। कवच कट जाने पर बाणों की मार से वे लोहूलुहान हो गये और क्रोध में भरकर उन्होंने कर्ण के रथ पर फौलाद की बनी हुई शक्ति छोड़ी किन्तु कर्ण ने सात बाण मारकर उसके टुकड़े_टुकड़े कर दिये। इसके बाद युधिष्ठिर ने कर्ण की भुजा, ललाट और मस्तक में चार तोमरों का प्रहार करके हर्षनाद किया। कर्ण के शरीर से खून की धारा बहने लगी। उसने एक भल्ल से युधिष्ठिर की ध्वजा काट डाली और तीन से उन्हें भी आहत किया। फिर तरकस काटकर रथ के भी टुकड़े_टुकड़े कर डाले। इस प्रकार पराजित होकर राजा युधिष्ठिर एक दूसरे रथ पर बैठे और रणभूमि से भाग चले। कर्ण ने पीछा करके युधिष्ठिर के कंधे पर हाथ रखा और उन्हें बलपूर्वक पकड़ लेना चाहा; इतने में ही कुन्ती के दिये हुए वचन का स्मरण हो  इधर शल्य भी बोल उठे_’कर्ण ! महाराज युधिष्ठिर को हाथ न लगाओ, मुझे भय है कि कहीं पकड़ते ही ये तुम्हें मारकर भस्म न कर डाले।‘ यह सुनकर कर्ण हंस पड़ा और पाण्डु नन्दन युधिष्ठिर का उपहास करते हुए कहने लगा_’युधिष्ठिर ! जिसका उच्चकुल में जन्म हुआ़ है, जो क्षत्रिय धर्म में स्थित है, वह भयभीत होकर प्राण बचाने के लिये युद्ध छोड़कर कैसे भाग सकता है ? मेरा तो ऐसा विश्वास है, तुम क्षत्रिय धर्म के पालन में निपुण नहीं हो सकते; क्योंकि सदा ब्राह्मणोचित स्वाध्याय और यज्ञों में ही लगे रहते हो। कुन्तीनन्दन ! आज से लड़ाई में न आना, शूरवीरों का सामना न करना तथा उनके लिये मुंह से अप्रिय बातें भी न निकालना। इतने बड़े समर में तो कभी जाने का नाम न लेना। यदि युद्ध में हम जैसे लोगों से कुछ कड़वी बात कहोगे तो  उसका यही अथवा उससे भी कठोर फल मिलेगा ! राजन् ! अपनी छावनी में जाओ अथवा श्रीकृष्ण और अर्जुन जहां हैं, वहां ही चले जाओ।‘ ऐसा कहकर कर्ण ने युधिष्ठिर को छोड़ दिया और पांडवसेना का संहार करने लगा। राजा युधिष्ठिर बहुत लज्जित होकर तुरंत वहां से हट गये और श्रुतकीर्ति के रथ पर बैठकर कर्ण का पराक्रम देखने लगे। अपनी सेना को खदेड़ी जाती हुई देख धर्मराज ने योद्धाओं से कुपित होकर कहा_’अरे ! क्यों चुप बैठे हो, मारो इन कोरवों को।‘
राजा की आज्ञा पाते ही । आदि पाण्डव_महारथी आपके पुत्रों पर टूट पड़े। उस समय रथ, हाथी और घोड़ों पर सवार हुए योद्धाओं तथा शस्त्रों का भयंकर शब्द होने लगा और उठो, मारो, आगे बढ़ो, दबोच लो_इस प्रकार कहते हुए वे आपस में मारकाट करने लगे। उन आक्रमणकारियों के प्रचण्ड वेग को सहन करने की अपने में शक्ति न देखकर आपके पुत्रों की विशाल सेना भागने लगी। यह देख दुर्योधन ने अपने योद्धाओं को सब ओर से रोकने का प्रयास किया, परन्तु वह पुकारता ही रह गया, सेना पीछे न लौटी। कर्ण की भी दृष्टि उधर पड़ी, उसने कौरव सैनिकों को मालिकों के साथ भागते हुए देख महाराज शल्य से कहा_’अब तुम भीम के रथ के पास चलो।‘ शल्य ने अपने घोड़ों को भीम की ओर बढ़ाया।
कर्ण को आते देख भीमसेन क्रोध में भर गये। उन्होंने सूतपुत्र को मार डालने का विचार करके वीरवर सात्यकि तथा धृष्टद्युम्न से कहा_’अब तुमलोग महाराज युधिष्ठिर की रक्षा करो। अभी मेरे देखते_देखते उन्हें बहुत बड़े संकट से किसी तरह छुटकारा मिला है। दुरात्मा कर्ण ने दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिये मेरे सामने ही उनकी समस्त युद्ध_सामग्री को तहस_नहस कर डाला है। इससे मुझे बड़ा दु:ख हुआ है; अब मैं उसका बदला चुकाऊंगा। आज घोर संग्राम करके या तो मैं ही कर्ण को मार डालूंगा या वहीं मेरा वध करेगा_यह मैं सच्ची बात बता रहा हूं। राजा को मैं तुम्हें धरोहर के रूप में देता हूं; उनकी रक्षा के लिय ये सब प्रकार से यत्न करना।
यों कहकर महाबाहु भीमसेन अपने महान् सिंहनाद से संपूर्ण दिशाएओं को प्रतिध्वनित करते हुए कर्ण की ओर बढ़े। उन्हें चढ़कर आते देख कर्ण ने क्रोध में भरकर उनकी छाती में नाराच का प्रहार किया। इस प्रकार सूतपुत्र के हाथों घायल होकर भीम ने उसे बाणों से ढक दिया और तेज किये हुए नौ बाण मारकर उसको घायल कर तब कर्ण ने भीम के धनुष के दो टुकड़े कर दिये। भीम ने दूसरा धनुष उठाया और कर्ण के मर्मस्थानों को बींधकर बड़ी जोर से गर्जना की। फिर सूतपुत्र का वध करने के लिये उन्होंने पर्वतों को भी विदीर्ण करनेवाला एक बाण चढ़ाया और उसे उसकी ओर छोड़ दिया। उस वज्र के समान वेगशाली बाण ने सूतपुत्र के शरीर को छेद डाला। सेनापति कर्ण रथ की बैठक में गिर पड़ा। उसे मूर्छित देखकर मद्रराज शल्य कर्ण को रणभूमि से दूर हटा लें गये। इस प्रकार कर्ण को परास्त करके भीमसेन ने कौरव सेना को मार भगाया।

Saturday 25 September 2021

कौरव_व्यूहनिर्माण, कर्ण और शल्य की बातचीत, अर्जुन द्वारा संशप्तकों का, कर्ण द्वारा पांचालों का तथा भीम द्वारा भानुसेन का संहार के और सात्यकि से वृषसेन की पराजय

संजय कहते हैं_महाराज ! तदनन्तर कर्ण ने पाण्डवों का अनुपम व्यूह देखा, जो शत्रुसेना का आक्रमण सहने में सर्वथा समर्थ था। धृष्टद्युम्न उस व्यूह की रक्षा कर रहा था। उसे देखते हुए कर्ण सिंह के समान गर्जना करते हुए आगे बढ़ा।
अपनी युद्ध चातुरी का परिचय देते हुए उसने पाण्डवों के मुकाबले में कौरव_सेना की व्यूह रचना की और पाण्डव सैनिकों का संहार करते हुए कर्ण ने राजा युधिष्ठिर को अपने दाहिने भाग में कर दिया। धृतराष्ट्र ने पूछा_संजय ! राधानन्दन कर्ण ने पाण्डवों तथा धृष्टद्युम्न आदि महान् धनुर्धरों का सामना करने के लिये कैसा व्यूह बनाया था ?  व्यूह के दोनों बगल में तथा आस_पास कौन_कौन वीर खड़े थे ? पाण्डवों ने मेरे पुत्रों के मुकाबले कैसा व्यूह रचा था ? फिर दोनों सेनाओं का अत्यन्त दारुण युद्ध कैसे आरंभ हुआ ? उस समय अर्जुन कहां थे, जो कर्ण ने युधिष्ठिर पर चढ़ाई कर दी। यदि अर्जुन निकट होते तो युधिष्ठिर के पास कौन फटकने पाता ?
संजय ने कहा_महाराज ! आपकी सेना का व्यूह निर्माण जिस तरह हुआ था उसे सुनिये।
कृपाचार्य मगधदेश के योद्धा और कृतवर्मा_ये व्यूह के दाहिने पार्श्व में मौजूद थे। इनके पक्षपोषक थे महाराज शकुनि और उनका पुत्र उलूक। ये दोनों चमचमाते भाले लिये हुए गांधारदेशीय घुड़सवारों  तथा पर्वतीय योद्धाओं के साथ आपकी सेना का संरक्षण कर रहे थे। इसी तरह संग्राम में कुशल चौबीस हजार संशप्तक व्यूह के व्यूह के वामपक्ष की रक्षा में खड़े थे। इनके पक्षपोषक थे काम्बोज, शक और यवन। ये लोग रथ, घोड़े और पैंथरों की सेना से युक्त थे।,बीच में कर्ण था जो सेना के मुहाने की रक्षा कर रहा था। कर्ण के पुत्र कर्ण की रक्षा में खड़े थे; और पीली आंखों वाला दु:शासन हाथी पर सवार हो अनेकों सेनाओं से घिरा हुआ व्यूह के पृष्ठभाग में खड़ा था। उसके पीछे था स्वयं राजा दुर्योधन, जिसकी रक्षा के लिये उसके महाबली भाई मद्र और केकयवीरों की सेना लेकर उपस्थित थे। अश्वत्थामा, कौरवों के प्रधान महारथी, मतवाले गजराज और शूरवीर म्लेच्छ_ये दुर्योधन की रथ_सेना के पीछे चल रहे थे। इस प्रकार अनेक घुड़सवारों, रथों और हजारे हुए हाथियों से भरा हुआ वह व्यूह देवता और असुरों के व्यूह के समान शोभा पा रहा था।
तत्पश्चात् सेना के मुहाने पर कर्ण को उपस्थित देख राजा युधिष्ठिर धनंजय से कहने लगे_’अर्जुन ! देखो तो सही, संग्राम में कर्ण ने कितना विशाल व्यूह बना रखा है ? पक्ष और प्रपेक्षों से युक्त यह शत्रुसेना कैसी सुशोभित हो रही है ! इसे देखकर हमें ऐसी नीति  बर्तनी चाहिते, जिससे शत्रुओं की यह महासेना हमलोगों को परास्त न कर सके।‘
राजा के ऐसा कहने पर अर्जुन ने हाथ जोड़कर कहा_’आपने जैसी आज्ञा की है, वैसा ही किया जायगा।‘ युधिष्ठिर बोले_’तुम कर्ण के साथ, भीमसेन दुर्योधन के साथ, नकुल वृषसेन के साथ और सहदेव शकुनि के साथ युद्ध करें।
शतानीक का दु:शासन से, सात्यकि का कृतवर्मा से, धृष्टद्युम्न का अश्वत्थामा से तथा मेरा कृपाचार्य से युद्ध होगा। द्रौपदी के सभी पुत्र शिखण्डी को साथ लेकर धृतराष्ट्र के अन्य पुत्रों के साथ युद्ध करें। इस प्रकार हमारे पक्ष के प्रधान_प्रधान वीर शत्रुओं के वीरों का संहार करें। धर्मराज के ऐसा कहने पर धनंजय ने ‘तथास्तु’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार की और सैनिकों को वैसा ही करने का आदेश देकर वे स्वयं सेना के मुहाने पर चले। महारथी अर्जुन को आते देख शल्य ने रणोन्मत कर्ण से पुनः इस प्रकार कहा_’कर्ण ! तुम जिन्हें बारंबार पूछते थे, वे कुन्ती नन्दन अर्जुन आ पहुंचे। उनके रथ का तुमुलनाद सुनाई दे रहा था। इधर यह अपशकुन होने लगा। वह देखो, रोंगटे खड़े कर देनेवाला अत्यंत भयंकर कबन्धाकार केतु नामक ग्रह सूर्यमंडल को घेरकर खड़ा है। तुम्हारी ध्वजा हिल रही है, घोड़े थर_थर कांपते हैं। मुझे तो इन अपशकुनों से ऐसा जान पड़ता है कि आज सैकड़ों और हजारों राजा मरकर रणभूमि में शयन करेंगे। जिनके हाथों में शंख, चक्र, गंदा और शार्ंगधनुष शोभा पाते हैं तथा वक्ष:स्थल में कौस्तुभ मणि देदिप्यमान रहती है, वे भगवान् श्रीकृष्ण हवा से बातें करने वाले सफेद घोड़ों को हांकते हुए इधर ही आ रहे हैं। यह देखो, गाण्डीव धनुष की टंकार होने लगी। अर्जुन के छोड़े हुए तीखे बाण शत्रुओं के प्राण ले रहे हैं। 
युद्ध में डटे हुए वीर राजाओं के मस्तकों से रणभूमि पटती जा रही है। जरा अपनी सेना की ओर तो दृष्टि डालो जो अर्जुन की मार से अत्यन्त व्याकुल हो रही है ! ये पाण्डववीर दौड़-दौड़कर तुम्हारे पक्ष के राजाओं का संहार करते हैं और हाथी, घोड़े, रथी तथा पैदल के समूह का नाश कर रहे हैं। यह देखो, अब महाबली अर्जुन संशप्तकों की ललकार सुनकर उधर ही बढ़ गये हैं और उन सभी शत्रुओं का संहार कर रहे हैं। महाराज शल्य की ऐसी बातें सुनकर कर्ण ने क्रोध से भरकर कहा_’शल्य ! तुम भी देख लो संशप्तक वीरों ने क्रोध में भरकर अर्जुन को चारों ओर धावा किया है।  अब उनका यहीं खात्मा समझो, वे रण समुद्र में डूब चुके हैं। शल्य ने कहा_अरे ! जो दोनों भुजाओं से पृथ्वी को उठा ले, क्रोध आने पर संपूर्ण प्रजा को भष्म करने की शक्ति रखता हो और देवताओं को स्वर्ग से नीचे गिरा सके, वहीं अर्जुन पर विजय पा सकता है। बेचारे संशप्तकों में इतनी ताकत कहां है ? धृतराष्ट्र ने पूछा_संजय ! जब सेनाओं की मोर्चाबंदी हो गयी, उसके बाद अर्जुन ने संशप्तकों पर और कर्ण ने पाण्डवों पर कैसे धावा किया_इसका वर्णन विस्तार के साथ करो। संजय ने कहा_महाराज ! उस समय शत्रुसेना को व्यूहाकार में खड़े देख अर्जुन ने भी उसके मुकाबले में व्यूह निर्माण किया।
व्यूह के मुहाने पर धृष्टद्युम्न खड़ा था, जो सेना की शोभा बढ़ा रहा था। वह मूर्तिमान काल के समान दिखायी पड़ता था। द्रौपदी के पुत्र चारों ओर से उसकी रक्षा कर रहे थे। तदनन्तर व्यूह बना जाने पर अर्जुन संशप्तकों को देखकर क्रोध में भर गये और गांडीव धनुष टंकारते हुए उनकी ओर दौड़े। संशप्तक भी  युद्ध करते रहने का निश्चय करके मन में विजय की अभिलाषा लेकर अर्जुन का वध करने के लिये उनपर टूट पड़े तथा उनको सब ओर से पीड़ित करने लगे। हमने अर्जुन का निवातकवचों के साथ जैसा भयंकर युद्ध सुना है, संशप्तकों के साथ छिड़ा हुआ वह तुमुल संग्राम वैसा ही भयानक था। अर्जुन ने शत्रुओं के धनुष_बाण, तलवार, चक्र, बरसे, हथियारों सहित ऊपर उठी हुई भुजाएं तथा नाना प्रकार के अस्त्र_शस्त्र काट डाले और हजारों वीरों के मस्तकों को धड़ से अलग कर दिया।
उन्होंने पहले पूर्व दिशा में खड़े हुए शत्रुओं का वध करके फिर उत्तर दिशा वालों का संहार किया। इसके बाद दक्षिण और पश्चिम के सैनिकों का सफाया किया। जैसे प्रलयकाल में रुद्र समस्त प्राणियों का संहार करते हैं, उसी प्रकार क्रोध में भरे हुए अर्जुन ने शत्रुओं की सेना का विनाश कर डाला। इसी समय पांचाल, चेदि और सृंजय देश के वीरों का आपके सैनिकों के साथ अत्यंत दारुण संग्राम छिड़ा। कृपाचार्य, कृतवर्मा और शकुनि कोसल, काशी, मत्स्य, करुष, केअर तथा शूरसेनदेशीय शूरवीरों के साथ युद्ध करने लगे।
उस युद्ध में असंख्य वीरों का विनाश हो रहा था। 
दूसरी ओर दुर्योधन अपने भाइयों को साथ लिये मद्रदेशीय महारथियों तथा प्रधान_प्रधान  कौरववीरों से सुरक्षित रहकर पाण्डव, पांचाल एवं चेदिदेशीय योद्धाओं एवं सात्यकि से लड़ते हुए कर्ण की रक्षा कर रहा था। उस समय कर्ण ने तीखे बाणों से पाण्डवों की विशाल सेना का महान् संहार किया और बड़े-बड़े रथियों को रौंदते हुए उसने युधिष्ठिर को अधिक पीड़ा पहुंचायी। हजारों शत्रुओं के प्राण लिये। इसके बाद बाणों की झड़ी लगाकर  उसने प्रभद्रकों के सतहत्तर श्रेष्ठ वीरों का सफाया कर दिया। फिर पच्चीस बाणों से पच्चीस पांचाल वीरों का वध कर डाला तथा सैकड़ों और हजारों चेदिदेशीय योद्धाओं को सायकों के निशाने बनाकर यमलोक पहुंचाया। इस समय झुंड_के_झुंड पांचाल रथियों ने आकर कर्ण को चारों ओर से घेर लिया। तब कर्ण ने पांच दु:सह बाण छोड़कर भानुदेव, चित्रसेन, सेनाबिन्दु, तपन तथा शूरसेन_इन पांच पांचालों को मार डाला। इन शूरवीरों के मारे जाने पर पांचाल_सेना में हाहाकार मच गया। पांचालों के दस रथियों ने कर्ण को घेर लिया। यह देख उसने अपने बाणों से उन्हें तुरंत मार गिराया। उस समय कर्ण के पहियों की रक्षा करनेवाले उसके दुर्जय पुत्र सुषेण और सत्यसेन प्राणों का मोह छोड़कर युद्ध कर रहे थे। कर्ण का ज्येष्ठ पुत्र वृषसेन स्वयं उसके पीछे रहकर पृष्ठभाग की रक्षा करता था। तदनन्तर धृष्टद्युम्न, सात्यकि, द्रौपदी के पांचों पुत्र, भीमसेन, जनमेजय, शिखण्डी, प्रधान_प्रधान प्रभद्रक, चेदि, के केकय, पांचाल तथा मत्स्यदेशीय वीर और नकुल_सहदेव_ये कवच आदि से सुसज्जित हो कर्ण को मार डालने की इच्छा से उनकी ओर दौड़े। पास आते ही उन्होंने कर्ण पर बाणों की झड़ी लगा दी। कर्ण के पुत्रों तथा आपके पक्ष के अन्य योद्धाओं ने उस समय उन वीरों को आगे बढ़ने से रोका। सुषेण ने भल्ल मारकर भीमसेन का धनुष काट डाला और सात नारायणों से उनके हृदय में घाव करके बड़े जोर से गर्जना की तब तो भीमसेन ने दूसरा धनुष हाथ में लिया और उसकी प्रत्यंचा चढ़ाकर सुषेण का धनुष काट दिया।
साथ ही क्रोध में भरकर उन्होंने उसको दस बाणों से बींध डाला। इतना ही नहीं, भीम ने कर्ण पर भी सत्तर तीखे बाणों का प्रहार किया और दस बाणों से उसके पुत्र भानुसेन को घोड़े तथा सारथि आदि सहित यमलोक भेज दिया। तत्पश्चात् भीम ने आपकी सेना को पीड़ित करना आरंभ किया। उन्होंने कृपाचार्य और कृतवर्मा के धनुष काटकर उन दोनों को खूब घायल किया। दु:शासन को तीन और शकुनि को छ: बाणों से बींधकर उलूक और पतत्रि दोनों को रथहीन कर डाला। उसके बाद सुषेण से यह कहकर कि ‘ले, अब तुझे भी मारे डालता हूं’ उन्होंने एक सहायक को अपने हाथ में लिया; किन्तु कर्ण ने उसके भी टुकड़े_टुकड़े कर दिये और भीमसेन को मार डालने की इच्छा से उसने उसपर तिहत्तर बाणों का प्रहार किया। इधर सुषेण ने अपना धनुष लेकर नकुल की दोनों भुजाओं तथा छाती में पांच बाण मारे। तब नकुल ने बीस बाणों से सुषेण को घायल किया और भीषण सिंहनाद करके कर्ण को भी भयभीत कर डाला। यह देख सुषेण के क्रोध की सीमा न रही, उसने नकुल को साठ तथा सहदेव को सात बाणों से घायल कर दिया।
दूसरी ओर सात्यकि और वृषसेन में युद्ध छिड़ा हुआ था सात्यकि ने तीन बाणों से वृषसेन के सारथि को मारकर एक भाले से उसका धनुष काट दिया। फ़िर सात भल्लों से उसके घोड़ों का काम तमाम कर एक बाण से ध्वजा काट दी और तीन साधकों से वृषसेन की छाती में घाव किया।
उस प्रहार से वृषसेन का सारा शरीर सुन्न हो गया। एक क्षण तक बेहोश रहने के बाद वह उठा और हाथ में ढ़ोल तलवार ले सात्यकि को मार डालने की इच्छा से उसकी ओर झपटा। वृषसेन अभी कूदकर आ ही रहा था सात्यकि ने दस बाणों से उसकी ढ़ाल_तलवार के टुकड़े_टुकड़े कर दिये।
इसी समय उधर दु:शासन की दृष्टि पड़ी; उसने वृषसेन को रथ और शस्त्र से हीन देख तुरंत ही अपने रथ पर बिठा लिया और दूर ले जाकर उसे दूसरे रथ पर  इसके बाद महारथी वृषसेन ने वहां आकर द्रौपदी के  पुत्रों को तिहत्तर, सात्यकि को पांच, भीमसेन को चौंसठ, सहदेव को पांच, नकुल को तीस, शतानीक को सात, शिखंडी को दस, धर्मराज को सौ तथा अन्य वीरों को भी अनेकों बाणों से पीड़ित किया। तत्पश्चात् वह पुनः कर्ण के पृष्ठभाग की रक्षा करने लगा। सात्यकि के नये बने हुए लोहे के नौ बाणों से दु:शासन के सारथि, घोड़े, तथा रथ को नष्ट करके उसके ललाट में तीन बाण मारे। तब दु:शासन दूसरे रथ पर सवार हो कर्ण के उत्साह एवं बल को बढ़ाता हुआ पाण्डवों के साथ युद्ध करने लगा। तदनन्तर, कर्ण को धृष्टद्युम्न ने दस, द्रौपदी के पुत्रों ने तिहत्तर, सात्यकि ने सात, भीमसेन ने चौंसठ, सहदेव ने सात, नकुल ने तीस, शतानीक ने सात, शिखण्डी ने दस, धर्मराज ने सौ तथा अन्य वीरों ने भी बहुत से बाण मारे। सबलोगों ने सूतपुत्र को भली-भांति पीड़ित किया। तब कर्ण ने उनमें से प्रत्येक को दस_दस बाणों से बींध डाला। उनके घोड़े, सारथि और रथ जब कर्ण के बाणों से आच्छादित हो गये तो उन्होंने विवश होकर कर्ण को आगे बढ़ने के लिये मार्ग दे दिया। अपने बाणों की बौछार से उन महान् धनुर्धरों का मानमर्दन करता हुआ कर्ण हाथियों की सेना में बेरोक_टोक घुस गया। फिर चेदिवीरों के तीस रथियों का सफाया करके उसने राजा युधिष्ठिर पर धावा किया। उस समय , सात्यकि तथा पाण्डवलोग राजा को सब ओर से घेरकर उनकी रक्षा करने लगे। इसी प्रकार आपके पक्ष वाले शूरवीर योद्धा भी डटकर कर्ण की रक्षा करने लगे। उस समय युधिष्ठिर आदि पाण्डव और कर्ण आदि निर्भय होकर युद्ध में लग गये।

Thursday 12 August 2021

कर्ण और शल्य का कटु सम्भाषण और दुर्योधन का उन्हें समझाना

संजय ने कहा_महाराज ! शल्य की ये अप्रिय बातें सुनकर कर्ण ने कहा_शल्य ! अर्जुन का रथ हांकनेवाले कृष्ण के बल और अर्जुन के दिव्यास्त्रों का जैसा मुझे पता है वैसा तुम नहीं जान सकते। तो भी उन दोनों के साथ मैं बेधड़क होकर संग्राम करूंगा। किन्तु विप्रवर परशुरामजी ने जो मुझे शाप दिया है, आज वह मुझे बहुत संतप्त कर रहा है। पूर्वकाल में मैं दिव्य अस्त्रों की प्राप्ति के लिये ब्राह्मण वेश धारण करके परशुरामजी के यहां रहा था। उस समय अर्जुन का हित करने के लिये वहां भी इन्द्र ने ही मेरे काम में विध्न डाला था।
एक बार गुरुजी मेरी जांघ पर सिर रखे सो रहे थे, उस समय एक बेडौल कीड़े के रूप में आकर मेरी जांघ में काटा। उसके जोर से काटने के कारण मेरे शरीर से खून की धारा बहने लगी। किन्तु गुरु जी की निद्रा न टूट जाय इस भय से मैं तनिक भी न हिला_डुला। जाने पर उन्होंने वह सब घटना देखी। मुझे ऐसा धैर्यवान् देखकर उन्होंने कहा, ‘अरे ! तू ब्राह्मण तो है नहीं, ठीक_ठीक बता, किस जाति का है ?’ तब मैंने उन्हें ठीक_ठीक बता दिया कि ‘मैं सूत हूं।‘ मेरी बात सुनकर महातपस्वी क्रोध में भर गये और मुझे शाप दिया कि ‘सूत ! तूने ब्राह्मण का वेष बनाकर यह ब्रह्मास्त्र प्राप्त किया है, इसलिये काम पड़ने पर तुझे इसका स्मरण न रहेगा।‘ इसी से भयंकर घोर संग्राम के समय मैं उसे भूल गया हूं। शल्य ! भरतवंश में उत्पन्न हुआ यह अर्जुन बड़ा ही पराक्रमी, भीषण और सबका संहार करनेवाला है। मालूम होता है, आज बड़ा तुमुल युद्ध होगा और यह अनेक क्षत्रिय वीरों को संतप्त कर डालेगा। तो भी सत्यप्रतिज्ञ अर्जुन के साथ मैं अवश्य संग्राम करूंगा और उसे मृत्यु के मुख में डालकर छोड़ूंगा। मुझे एक दूसरा अस्त्र भी मिला हुआ है, उसी से मैं संग्रामभूमि में अर्जुन के साथ मृत्यु को सामने रखकर ही युद्ध करूंगा। मेरे सिवा और ऐसा कोई वीर नहीं है जो इन्द्र के समान पराक्रमी अर्जुन के साथ अकेला रथारूढ़ होकर युद्ध कर सके। तुम तो निरे मूर्ख और मूढ़चित्त हो। तुम मुझे अर्जुन के बल पराक्रम की बातें क्या सुनाते हो ? अब मैं स्वयं ही संग्रामभूमि में उसके पराक्रम से प्रसन्न होकर क्षत्रियों की सभा  में उसका वर्णन करूंगा । जो पुरुष अप्रिय, निष्ठुर, क्षुद्र, आक्षेप करनेवाला और क्षमाशीलों का तिरस्कार करनेवाला होता है, उसके जैसे सैकड़ों को भी मैं मिट्टी में मिला देता हूं किन्तु आज केवल समय की ओर देखकर मैं तुम्हें क्षमा कर रहा हूं। मेरा तो तुम्हारे साथ बड़ी सरलता का वर्ताव है, किन्तु तुम टेढ़ी टेढ़ी बातें करते हो। तुम बड़े ही मित्रद्रोही हो। मित्रता तो सात पग साथ रहने से ही हो जाती है। यह बड़ा ही कठोर समय आ गया है। राजा दुर्योधन रणभूमि में आ गये हैं। मैं उन्ही की विजयेक्षा से यहां आया हूं। किन्तु तुम अर्जुन की ही गुणगाथा गाते जाते हो, जबकि वास्तव में उसके प्रति आपका प्रेम संबंध भी नहीं है।
आज विजय प्राप्त करने के लिये मैं अर्जुन पर अपना अप्रमेय और अजेय ब्रम्हास्त्र छोड़ूंगा। इस दिव्य अस्त्र के प्रभाव से मैं दण्डपाणि यम, पाशहस्त वरुण, गदाधर कुबेर और वज्रपाणि इन्द्र से तथा किसी अन्य आततायी शत्रु से भी नहीं डरता हूं; अतः मुझे श्रीकृष्ण और अर्जुन से भी किसी प्रकार का भय नहीं है। परंतु मुझे एक भय अवश्य है_एक बार की बात है, मैं विजय के उद्देश्य से अस्त्र पाने के लिये घूम रहा था। उस समय अनेकों भीषण बाणों को चलाने का अभ्यास करते_करते मैं भूल से एक होमधेनु के बछड़े को बाण मार दिया। बेचारा बछड़ा निर्जन वन में चल रहा था। यह देखकर उसके स्वामी ब्राह्मण ने कहा, चूंकि तुमने होमधेनु के बछड़े को मारा है, इसलिये संग्राम में लड़ते_लड़ते तुम्हारे रथ का पहिया गड्ढे में फंस जायगा और तुम बड़ी आपत्ति में फंस जाओगे। ब्राह्मण के उस प्रबल शाप से मुझे आज भी भय बना हुआ है। उस ब्राह्मणको मैंने हजार गौएं और छ: सौ बैल देने चाहे, परंतु मैं उसे प्रसन्न न कर सका। मैं बड़े सत्कार पूर्वक उस ब्राह्मण को अपना भरा_पूरा घर और भोगसामग्रियों के सहित सारी सम्पत्ति देनी चाही किन्तु उसने उसे लेना स्वीकार न किया। इस प्रकार जब मैं प्रयत्न पूर्वक अपना अपराध क्षमा कराने लगा तो उस ब्राह्मण ने कहा, ‘सूतपुत्र ! मैंने जो बात कही है वह तो बदल नहीं सकती। मिथ्याभाषण प्रजा का नाश करनेवाला होता है। यदि मैं अपने कथन को मिथ्या कर दूंगा तो मुझे पाप लगेगा। अतः धर्म की रक्षा के लिये मैं झूठ तो बोल नहीं सकता। मुझसे झूठ बोलवा कर तुम मेरी ब्राह्मी गति का उच्छेद न करो।   मेरी बात मिथ्या नहीं हो सकता। अतः अब तुम शान्त हो जाओ। ‘इस प्रकार यद्यपि मेरा तिरस्कार किया है तो भी मैंने सौहार्दवश तुम्हें यह प्रसंग सुना दिया है। अब तुम चुप रहो और आगे की बात पर ध्यान दो। तुम मेरे साथी, स्नेही और मित्र हो। इन तीनों कारणों से ही अबतक जीवित बचे हुए हो। इस समय मेरे सामने राजा दुर्योधन का बड़ा भारी काम है और इसकी जिम्मेदारी भी मेरे ही ऊपर है। मैं तुम्हारे कठोर वचनों को क्षमा करने की प्रतिज्ञा कर चुका हूं। शत्रुओं पर विजय तो तुम जैसे हजारों शल्यों की सहायता के बिना भी मैं पा सकता हूं। किन्तु मित्र से द्रोह करना बड़ा पाप है, इसी से तुम अबतक बचे हुए हो। शल्य ने कहा_ कर्ण ! तुम अपने शत्रुओं के विषय में जो कुछ कह रहे हो वह सब तो तुम्हारा विवाद ही है। मैं सहस्त्रों कर्मों की सहायता के बिना भी युद्ध में शत्रुओं को जीत सकता हूं। मद्रराज के इस प्रकार कहने पर कर्ण उनसे दूने कटु वाक्य कहने लगा। वह बोला, ‘मद्रराज ! मैं जो बात कहता हूं उसे ध्यान देकर सुनो। इस बात की चर्चा मैंने महाराज धृतराष्ट्र के पास सुनी थी। एक बार उनके महल में  ब्राह्मण अनेकों अद्भुत देशों और प्राचीन वृतांतों का वर्णन कर रहे थे। वहां एक बूढ़े ब्राह्मण ने वाहीक और मद्रदेश की निंदा करते हुए कहा था_’जो हिमालय, गंगा, सरस्वती, यमुना और कुरुक्षेत्र से बाहर तथा सिंधु और उसकी पांच सहायक नदियों के बीच में स्थित है वह बाहीक देश धर्मशास्र और अपवित्र है। उससे सर्वदा दूर रहना चाहिते। मैं एक गुप्त कार्यवश कुछ दिन वाहीक देश में रहा था। उस समय मैंने उनके आचार_विचार के विषय में बहुत सी बातें जान ली थीं। जहां शाकाल नाम का नगर और आपगा नाम की नदी है वहां जर्तिका नाम के वाहीक रहते हैं। उनका चरित्र बड़ा निंदनीय  होता है। ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो उन दुश्चरित्र, संस्कारहीन और दुरात्मा वाहीकों के साथ मुहूर्त भर भी रहना पसंद करेगा।‘ उन ब्राह्मण ने वाहीकों को ऐसा दुराचारी बताया था। उनमें धर्म कैसे रह सकता है ? वाहीक देश के लोग उपनयन आदि संस्कारों से रहित होने के कारण पतित समझे जाते हैं; उनकी स्त्रियां घर के नौकरों से उन्हें उत्पन्न करती हैं। वे धर्मभ्रष्ट तथा यज्ञ के अधिकार से वंचित होते हैं। इन्हीं सब कारणों से उनके दिये हुए भव्य, कव्य और दान को देवता, पितर तथा ब्राह्मणलोग नहीं स्वीकार करते_यह बात लोगों में खूब प्रसिद्ध है।
एक विद्वान ब्राह्मण ने तो यहां तक कहा था कि ‘वाहीकलोग काठ और मिट्टी की बनी हुई कुंडियों में भोजन करते हैं। उनमें शराब लिपटा रहता है, कुत्ते उन बर्तनों को चाटते रहते हैं, तो भी उनमें खाते  समय उन्हें तनिक भी घृणा नहीं होती। वे भेड़, ऊंटनी और गदही के दूध पीते हैं तथा उस दूध के दही, मक्खन और छाछ आदि भी खाते_पीते हैं। इतना ही नहीं, वे वर्णसंकर सन्तान उत्पन्न करनेवाले और दुराचारी होते हैं। शुद्ध_अशुद्ध का विचार छोड़कर सब तरह का अन्न खा लेते हैं। इसलिेए विद्वानों को चाहिये कि 'आरट्ट' नाम से प्रसिद्ध उन बाहीकों का संसर्ग त्याग दे। ‘इसी प्रकार कारस्कर, मासिक, कलिंग, वीरक और दुर्धर्म आदि देशों का भी त्याग करना उचित है। प्रस्थल, मद्र, गांधार, आरट्ट, खश, वसाति, सिंधु तथा सौवीर देश प्रायः निंदित और अपवित्र माने गये हैं। पांचाल देश के लोग वेदों का स्वाध्याय करते हैं, कुरु देश के निवासी धर्म का आश्रय लेते हैं। मत्स्य देश के लोग सत्यवादी और शूरसेन निवासी यज्ञ करनेवाले होते हैं। पूरब के लोग दासवृति करते हैं, दक्षिणी लोगों का वर्ताव शूद्रों के समान होता है। वाहीक लोग चोर तथा सौराष्ट्र निवासी वर्णशंकर होते हैं। मगधदेश के लोग इशारे से ही बात समझ लेते हैं, कोसल की प्रजा दृष्टि के संकेत को समझती है, कुरु और पांचाल के लोग आधी बात कह देने पर पूरी समझ पाते हैं तथा शाल्व देश के निवासी पूरी बात कहने से ही उसे हृदयंगम करते हैं।
शिवि देश की प्रजा पहाड़ी लोग की तरह मूर्ख होती है। यवनलोग सब बातों को अनायास ही समझ लेते और विशेषतः शूरवीर होते हैं। म्लेच्छ जाति के लोग अपने संकेत के अनुसार वर्ताव करते हैं। दूसरे सभी लोग पूरी बात कहें बिना उसे नहीं समझ पाते। वाहीक और मद्रदेश के मनुष्य तो पूरे गंवार होते हैं। वे किसी रथी का मुकाबला नहीं कर सकते। शल्य ! तुम भी ऐसे ही हो। तुममें उत्तर देने की योग्यता नहीं है । मैं तो डंके की चोट कहता हूं_मद्रदेश पृथ्वी के समस्त देशों का मल है। ऐसा समझकर तुम अपनी जबान बंद करो, मेरा विरोध न करो; नहीं तो पहले तुम्हारा ही वध करके पीछे श्रीकृष्ण और अर्जुन को मरूंगा।‘ 
शल्य ने कहा_कर्ण ! तुम जिस देश के राजा बने बैठे हो उस अंग देश में क्या होता है ? अपने ही सगे_संबंधी जब लोग से पीड़ित हो जाते हैं तो उनका त्याग कर दिया जाता है। अपनी ही स्त्री और बच्चों को वहां के लोग सरे बाजार बेचते हैं।
उस दिन रथी और अतिरथियों की गणना करते समय भीष्मजी ने तुम्हें जो कुछ कहा था, अपने उन दोषों पर ध्यान दो और क्रोध छोड़कर शान्त हो जाओ। सभी देशों में ब्राह्मण हैं, सर्वत्र क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं तथा सब जगह सुन्दर व्रत का पालन करनेवाली सती साध्वी स्त्रियां भी हैं। सब देशों में अपने_अपने धर्म का पालन करने वाले राजालोग हैं, जो दुष्टों को दण्ड देते हैं। इसी प्रकार धार्मिक मनुष्य भी सर्वत्र होते हैं। किसी देश के सभी निवासी पाप ही करते हों_यह बात ठीक नहीं है;उसी देश में ऐसे_ऐसे सच्चरित्र और सदाचारी मनुष्य भी होते हैं, जिनकी बराबरी देवता भी नहीं कर सकते। कर्ण ! दूसरों के दोष बताने में सभी लोग बड़े प्रवीण होते हैं, किन्तु उन्हें अपने दोषों का पता नहीं रहता। अथवा अपने दोष जानते हुए भी वे ऐसे भोले बने रहते हैं, मानो उन्हें कुछ पता ही न हो। इस प्रकार कर्ण और शल्य को परस्पर विवाद करते देख राजा दुर्योधन ने उन दोनों को रोका। उसने कर्ण को मित्रभाव से समझाया तथा शल्य के सामने हाथ जोड़कर प्रार्थना की। उसके मना करने से कर्ण मान गया और उसने शल्य की बात का कोई जवाब नहीं दिया। शल्य ने भी शत्रुओं की ओर अपना मुंह फेर लिया। तब राधानन्दन कर्ण ने हंसकर शल्य को तुरंत रथ आगे बढ़ाने की आज्ञा दी।

Sunday 11 July 2021

राजा शल्य का कर्ण को एक हंस और कौए का उपाख्यान सुनाना

संजय ने कहा_राजन् ! कर्ण के ये वचन सुनकर राजा शल्य ने उसे एक दृष्टांत सुनाते हुए कहा_कुलकलंक कर्ण ! मैं तुम्हें एक दृष्टांत सुनाता हूं।
कहते हैं, समुद्र के तट पर किसी धर्म प्रधान राजा के राज्य में एक धन-धान्य संपन्न वैश्य रहता था। वह यज्ञ_यागादि करने वाला, दानी, क्षमाशील, अपने कर्मों में स्थित, पवित्रात्मा और समस्त जीवों पर दया करनेवाला था। उसके कई अल्पवयस्क पुत्र थे। वे एक कौए को अपना जूठा भात, दही, दूध और खीर आदि दे दिया करते थे। उस उच्छिष्ट को खा_खाकर वह खूब हृष्ट_पुष्ट हो गया और घमंड में भरकर अपने साथियों और अपने से श्रेष्ठ पक्षियों का अपमान करने लगा।
एक बार उस समुद्रतट पर गरुड़ के समान लंबी_लंबी उड़ानें भरनेवाले मानसरोवर वासी हंस आये। तब उस घमंडी कौए ने जो सबसे श्रेष्ठ जान पड़ता था उस हंस से कहा, ‘आओ, आज हमारी_तुम्हारी उड़ान हो जाय।‘ यह सुनकर वहां आते हुए सभी हंस हंस पड़े और उस बातूनी कौए से कहने लगे, ‘हम मानसरोवर में रहने वाले हंस हैं और इस सारी पृथ्वी पर उड़ते फिरा करते हैं। हमारी लम्बी उड़ान के कारण सभी पक्षी हमारा सम्मान करते हैं। भैया ! तुम तो एक कौआ ही हो न ? फिर किसी बलिष्ठ हंस को उड़ान के लिये क्यों चुनौती देते हो ? बताओ तो सही, तुम हमारे साथ कैसे उड़ सकोगे ?’ हंस की यह बात सुनकर कौए ने उसे बार_बार दुत्कारा और स्वयं क्षुद्र जाति का होने  के कारण अपनी  बड़ाई करते हुए कहने लगा, मैं एक सौ एक प्रकार की उड़ानें उड़ सकता हूं। उनमें से प्रत्येक उड़ान सौ_सौ योजन की होती है और वे सभी बड़ी अद्भुत और भांति_भांति की होती है। उनमें से कुछ उड़ानों के नाम इस प्रकार हैं_उड्डीन (  उड़ना ); अवडीन ( नीचा उड़ना ), प्रवीन ( चारों ओर उड़ना ),  ( साधारण उड़ना ), निडीन ( धीरे_धीरे उड़ना ), संडीन ( ललित गति से उड़ना ), तिर्यग्डीन ( तिरछा उड़ना ), विडीन ( दूसरों की चाल की नकल करते हुए उड़ना ),  परीडिन ( सब ओर उड़ना ),  पराडीन ( पीछे की ओर उड़ना ),
सुडीन ( स्वर्ग की ओर उड़ना ), अभिडीन ( सामने की ओर उड़ना ), महाडीन ( बहुत वेग से उड़ना ), निर्डीन (परों को हिलाते बिना ही उड़ना ), अतिडीन ( प्रचंडता से उड़ना ), संगीन डीन डीन ( सुन्दर गति से आरंभ करके फिर चक्कर काटकर नीचे की ओर उड़ना ), संडीनोड्डीनडीन ( सुन्दर गति से आरंभ करके फिर चक्कर काटकर नीचे की ओर उड़ना ), डीनविडीन ( एक प्रकार की उड़ान में दूसरी उड़ान दिखाना ), संपात ( क्षणभर सुन्दरता से उड़कर फिर पंख फड़फड़ाना ), समुदीष ( कभी ऊपर की ओर और कभी नीचे की ओर उड़ना ), व्यतिरिक्तक ( किसी लक्ष्य का संकल्प करके उड़ाना ), गतागत ( किसी लक्ष्य तक उड़कर फिर लौट आना )  और प्रतिगत ( पलटा खाना ) इत्यादि। मैं तुम्हारे सामने ये सब गतियां दिखाउंगा; तब तुम्हें मेरी शक्ति का पता लगेगा। इनमें से किसी भी गति से मैं आकाश में उड़ सकता हूं। तुम जैसा उचित समझो कहो  और बताओ कि मैं किस गति से उड़ू ?’ कौए के इस प्रकार कहने पर एक हंस ने हंसकर कहा, ‘काक ! तुम अवश्य एक सौ एक प्रकार की उड़ानें जानते होगे; और सब प्रकार के पक्षी तो एक प्रकार की उड़ान ही जानते हैं। मैं भी एक प्रकार की गति से ही उड़ूंगा। अन्य किसी गति का मुझे ज्ञान नहीं है। तुम्हें जो उड़ान पसंद हो उसी से उड़ो।‘ यह सुनकर वहां जो दूसरे कौए थे वे हंस पड़े और कहने लगे, ‘भला यह हंस एक ही उड़ान से सौ प्रकार की उड़ानों को कैसे जीत सकेगा ?’
अब वह कौआ और हंस होड़ लगाकर उड़े। कौआ सौ प्रकार की उड़ानों से दर्शकों को चकित करने लगा और हंस अपनी एक ही प्रकार की मृदुल गति से उड़ रहा था। कौए की अपेक्षा उसकी गति बहुत मंद थी। यह देखकर कौए हंसों का तिरस्कार करते हुए इस प्रकार कहने लगे, ‘यह हंस उड़ा तो सही, किन्तु कौए के सामने इसकी गति तो इतनी मंद है। यह सुनकर हंस ने उत्तरोत्तर वेग बढ़ाते हुए पश्चिम की ओर समुद्र के ऊपर उड़ान लगायी। इस यात्रा में कौआ उड़ ते_उड़ते थक गया। उसे विश्राम करने के लिये कोई टापू या वृक्ष दिखायी नहीं देता था। इससे उसे बड़ा भय हुआ और सोचने लगा कि ‘मैं थककर कहीं इस समुद्र में ही तो न गिर पड़ूंगा ?’
अन्त में वह अत्यंत श्रमित होकर हंस के पास आया। उसकी ऐसी गिरी अवस्था देखकर हंस ने सत्पुरुषों के व्रत का स्मरण करते हुए उसे बचा लेने के विचार से कहा, ‘क्योंजी ! तुमने अपनी अनेक प्रकार की उड़ानों का बखान किया, परंतु उसका वर्णन करते समय अपनी इस गुह्य गति का उल्लेख नहीं किया। भला इस समय तुम किस उड़ान से उड़ रहे हो, जो बार_बार तुम्हारी चोंच और डैने जल से लग जाते हैं।‘ कर्ण ! तब उस कौए ने हंस से कहा, ‘भाई हंस ! हम तो कौए हैं, व्यर्थ कांव_कांव किया करते हैं। मैं अपने प्राण तुम्हें सौंपता हूं, तुम मुझे किसी प्रकार इस जल के तीर तक ले चलो।‘ ऐसा कहकर वह अपनी चोंच और डैनों से जल को स्पर्श करते हुए समुद्र में गिर गया। यह देखकर हंस ने कहा, ‘काक ! तुम तो शेखी बघारते हुए कहा रहे थे कि मैं एक सौ एक प्रकार की उड़ानें जानता हूं। फिर इस समय इस प्रकार थककर क्यों गिर रहे हो ?’  इसपर कौए ने दु:ख से पीड़ित होकर कहा, ‘हंस ! मैं जूठन खा_खाकर ऐसा घमंडी हो गया था कि अपने को साक्षात् गरुड़ के समान समझने लगा था। इसी से मैंने अनेकों कौओं और दूसरे पक्षियों का भी बहुत अपमान किया था। किन्तु अब मैं तुम्हारी शरण हूं, तुम मुझे किसी टापू के तट पर पहुंचा दो। भैया ! यदि मैं जीता_जागता फिर अपने देश पहुंच गया तो किसी का निरादर नहीं करूंगा। अब किसी प्रकार तुम मुझे इस आपत्ति से उबार लो।’ इस प्रकार दीन वचन कहकर वह वह अचेत_सा होकर विलाप करने लगा। उसे कांव_कांव करते और समुद्र में डूबते देखकर हंस को दया आ गयी और उसने उसे पंजों से पकड़कर धीरे_से अपनी पीठ पर चढ़ा लिया। फिर वह उसी स्थान पर आ गया, जहां से कि शर्त लगाकर वे पहले उड़े थे। वहां पहुंच कर उसने कौए को नीचे उतारकर बहुत ढ़ाढ़स बंधाया और इच्छानुसार किसी दूसरे देश को चला गया। कर्ण ! इस प्रकार जूठन से पुष्ट हुआ वह कौआ अपने बल और वीर्य का घमण्ड भूलकर शान्त हुआ। जैसे पूर्वकाल में वह कौआ वैश्यों का जूठन खाता था, उसी प्रकार तुम्हें भी धृतराष्ट्र के पुत्रों ने अपनी जूठन खिला_खिलाकर पाला है, इसी से तुम अपने समकक्ष और अपनी अपेक्षा श्रेष्ठ पुरुषों का भी अपमान करते हो। विराट नगर में तो द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, भीष्म तथा और सब कौरव भी तुम्हारी रक्षा कर रहे थे; उस समय तुमने अकेले अर्जुन का काम तमाम क्यों नहीं कर डाला ? उस समय तुम्हारा पराक्रम कहां चला गया था ?
जब संग्राम भूमि ने अर्जुन ने तुम्हारे भाई का वध किया था उस समय समस्त कौरव योद्धाओं के सामने सबसे पहले तो तुम्ही भागे थे। इसी प्रकार द्वैतवन में गन्धर्वों के आक्रमण करने पर सारे कौरवों को छोड़कर पहले तुम्ही ने पीठ दिखाई थी। उस समय भी अर्जुन ने चित्रसेनादि गंधर्वों को युद्ध में परास्त करके दुर्योधन और उसकी रानियों को छुड़ाया था। परशुरामजी ने राजाओं की सभा में श्रीकृष्ण और अर्जुन का जो पुरातन प्रभाव कहा था वह तो तुमने सुना ही था। इसके सिवा भीष्म और द्रोण भी राजाओं के आगे इन दोनों की अवध्यता का वर्णन करते रहते थे। उनकी बातें तुम बार बार सुनते ही रहे हो। मैं तुम्हें ऐसी कौन कौन सी बातें बताऊं जिन्हें देखते हुए अर्जुन तुम्हारी अपेक्षा कहीं बढ़_चढ़कर है। अब तुम शीघ्र ही वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण और कुन्ती कुमार अर्जुन  को अपने श्रेष्ठ रथ में बैठकर आते देखो।
अतः जिस प्रकार कौए ने बुद्धिमानी से हंस की शरण ले ली थी उसी प्रकार तुम भी श्री कृष्ण और अर्जुन का आश्रय ले लो। जिस समय तुम एक ही रथ पर चढ़े हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन को युद्ध में पराक्रम दिखाते देखोगे, उस समय ऐसी बातें नहीं कह सकोगे।, जैसे जुगनू सूर्य और चन्द्रमा का तिरस्कार करें उसी प्रकार तुम मूर्खता से उनका अपमान मत करो। महात्मा श्रीकृष्ण और पुरुषों में श्रेष्ठ हैं, तुम उनका तिरस्कार न करो और इस प्रकार बढ़_चढ़कर बातें बनाना छोड़ दो।

Sunday 13 June 2021

शल्य के सारथ्य में कर्ण का युद्धभूमि में प्रस्थान और दोनों का कटु संभाषण

संजय ने कहा_महाराज ! जब महान् धनुर्धर कर्ण युद्ध के लिये तैयार हो गया तो उसे देखकर समस्त कौरववीर हर्षध्वनि करने लगे।
कर्ण के प्रस्थान करते ही आपके पक्ष के सब वीरों ने मृत्यु का भय छोड़कर दुन्दुभि और भेरियों के शब्द के साथ युद्धभमि के लिये कूच किया। उस समय सारी पृथ्वी डगमगाने लगी तथा सबके घोड़े पृथ्वी पर गिर गये। कौरवों के विनाश की सूचना देनेवाले वहां ऐसे ही और भी अनेकों उत्पात हुए। किन्तु दैववश सबकी बुद्धि पर ऐसा मोहजाल छा गया कि उन्होंने उनकी कुछ भी परवाह नहीं की।
कर्ण के कूच करने पर सब राजाओं ने जयघोष किया। तब कर्ण ने राजा शल्य को सम्बोधन करके कहा, ‘इस समय मैं अस्त्र-शस्त्र धारण किये रथ में बैठा हूं, अब मुझे क्रोध में भरे हुए वज्रधर इन्द्र से भी भय नहीं है। इन भीष्मादि योद्धाओं को युद्ध में सोते हुए देखकर मेरा साहस बहुत बढ़ गया है। वास्तव में अर्जुन का मुकाबला रणभूमि में मेरे सिवा और कोई नहीं कर सकता। वह साक्षात् उग्ररूप मृत्यु के ही समान है। आचार्य द्रोण में शस्त्र संचालन की कुशलता, बल, धैर्य और विनय आदि सभी गुण थे, उनके पास बड़े_बड़े अस्त्र-शस्त्र भी थे, जब वे ही काल के गाल में चले गये तो सबको भी मैं और कमजोर समझता हूं। अस्त्र, बल, पराक्रम, क्रिया, नीति और बढ़िया_बढ़िया हथियार भी मनुष्य को सुख पहुंचाने में समर्थ नहीं है। देखो, गुरु द्रोणाचार्य इन सब बातों के रहते हुए भी शत्रुओं के हाथ से मारे गये। वे अग्नि  सूर्य के समान तेजस्वी, विष्णु और इन्द्र के समान पराक्रमी, वृहस्पति और इन्द्र के समान नितिकुशल और बड़े ही दु,:सह थे, तो भी अस्त्र-शस्त्र उनकी रक्षा नहीं कर सके। इस समय दुर्योधन का उत्साह ढ़ीला पड़ गया है; ऐसी स्थिति में मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह समझता हूं।  अब आप शत्रुओं के सेना ओर रथ बढ़ाइये। जहां सत्यप्रतिज्ञ राजा युधिष्ठिर मौजूद हैं, जहां भीमसेन, अर्जुन, श्रीकृष्ण, सात्यकि, सृंजयवीर और नकुल_सहदेव युद्ध के मैदान में डटे हुए हैं, वहां मेरे सिवा और कौन योद्धा इन सब वीरों से टक्कर ले सकता है ? इसलिेए मद्रराज ! आप शीघ्र ही रणभूमि में पांचाल, पाण्डव और सृंजयवीरों की ओर रथ ले चलिये। मैं उनके साथ चार हाथ करके या तो उन्हीं को मार डालूंगा या आचार्य द्रोण के मार्ग से स्वयं ही यमराज के पास चला जाऊंगा। धृतराष्ट्रनंदन दुर्योधन सर्वदा ही मेरे  के लिये प्रयत्न करते रहे हैं। उनके लिये मैं अपने प्रिय भोग और दुस्त्यज प्राणों को भी निछावर कर सकता हूं। मुझे यह श्रेष्ठ रथ भगवान् परशुरामजी ने दिया था; इसकी धूरी जरा भी शब्द नहीं करती। इसमें तरह_तरह के धनुष, ध्वजा, गदा, बाण, खड्ग और अनेकों बढ़िया_बढ़िया हथियार रखें हुए हैं। जिस समय यह चलता है, इससे वज्रपात के समान  भीषण घरघराहट होने लगती है। इसमें सफेद घोड़े जुते हुए हैं तथा अच्छे_अच्छे तरकस सुशोभित हैं। इस श्रेष्ठ रथ में बैठकर मैं अवश्य ही अर्जुन को मार डालूंगा। यदि स्वयं काल भी अर्जुन को बचाना चाहेगा तो मैं उसे भी नष्ट कर डालूंगा। अथवा भीष्म के समान स्वयं ही यमलोक चला जाऊंगा। अधिक क्या कहूं, यदि उसकी रक्षा के लिये यम, वरुण, कुबेर और इन्द्र भी अपने अनुयायियों सहित एक साथ मिलकर युद्धभूमि में आयेंगे तो मैं उसे उन सबके सहित परास्त कर दूंगा।‘ जब युद्ध के जोश में भरे हुए कर्ण ने ऐसी बातें कहीं तो उन्हें सुनकर मद्रराज हंसे और उसका तिरस्कार कर बीच में ही रोककर कहने लगे, ‘कर्ण ! बस अब चुप रहो। 
तुम जोश में आकर बहुत बढ़ी_चढ़ी बातें कह गये हों। भला, कहां नरश्रेष्ठ अर्जुन और कहां नराधम तुम। यह तो बताओ, अर्जुन के सिवा और ऐसा कौन है जो साक्षात्  विष्णु भगवान से सुरक्षित यादवों के राजभवन को बलात् नीचा दिखाकर स्वयं पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण की छोटी बहिन का हरण कर सके तथा तीनों लोकों के अधीश्वरों के भी  ईश्वर भगवान् शंकर को युद्ध के लिये ललकार सके।  जब विराटनगर में गोहरण के समय पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन ने तुम्हें सारी सेना और द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा एवं भीष्म के सहित परास्त किया था, उस समय तुमने उन्हें क्यों नहीं जीत लिया ? अब आज तुम्हारे वध के लिये ही यह दूसरा युद्ध उपस्थित हुआ है। यदि तुम शत्रु के डर से भाग न डरें तो अवश्य ही मारे जाओगे।‘
मद्रराज के इस प्रकार कटु भाषण करने पर कौरवसेनापति कर्ण अत्यन्त क्रोध में भर गया और उनसे कहने लगा, ‘रहने दो, रहने दो, इस प्रकार क्यों बड़बड़ाते हो, अब तो मेरा और अर्जुन का युद्ध होनेवाला है। यदि वह संग्राम में मुझे परास्त कर दे तो तुम्हारी ही बात सच मानी जायेगी। इसपर मद्रराज ने ‘ऐसा ही हो’ इतना कहकर और कोई उत्तर नहीं दिया। तब कर्ण ने युद्ध के लिये उत्सुक होकर उनसे कहा ‘शल्य ! रथ बढ़ाओ !’ युद्ध के लिये कूच करके कर्ण ने अपनी सेना को उत्साहित करने के लिये पाण्डवों के एक_एक वीर से मिलने पर कहा, ‘आज तुममें से जो कोई मुझे श्वेतवाहन अर्जुन से मिलवायेगा उसे मैं यथेच्छ धन दूंगा। यदि उतने से भी उसकी तृप्ति न हुई तो उसे रत्नों से भरा हुआ एक छकड़ा और दूंगा। यदि इससे भी संतोष न हुआ तो उसे सौ हाथी, सौ गांव, सौ सुवर्णमय रथ, सौ सुशिक्षित और हृष्ट_पुष्ट घोड़े तथा  सुवर्ण से मढ़े हुए सींगों वाली चार सौ दुधारु गौएं दूंगा। यदि इन सब को पाकर भी वह प्रसन्न न हुआ तो जो चीज वह स्वयं लेना चाहेगा वहीं उसे दूंगा। मेरे पास पुत्र, स्त्री तथा दूसरे जो भी भोगों के साधन हैं वह सब तथा और भी जिस वस्तु की वह इच्छा करेगा वही उसे दूंगा। जो पुरुष मुझे श्रीकृष्ण और अर्जुन का पता बतावेगा, उन दोनों को मारकर उनका सारा धन मैं उसी को दे दूंगा।‘ युद्धक्षेत्र में खड़े हुए कर्ण ने ऐसी ही अनेकों बातें कहीं तथा अपना श्रेष्ठ शंख बजाया। इन्हें सुनकर दुर्योधन तथा उसके अनुयायी बड़े प्रसन्न हुए। सब ओर दुंदुभि तथा मृदंगों का शब्द होने लगा तथा योद्धालोग सिंह के समान गरजने लगे। तब मद्रराज शल्य हंसकर कहा, ‘सूतपुत्र ! तुम्हें हाथी के समान बलवान् छः बैलों से जुता हुआ सोने का रथ देने की आवश्यकता नहीं है; अर्जुन तुम्हें स्वयं ही दीख जायेगा। तुम मूर्खता से ही कुबेर की तरह धन लुटाना चाहते हो, आज अर्जुन को तो तुम बिना यत्न के ही देख लोगे। तुम जो बुद्धिहीन पुरुषों के समान अपना सारा धन देने को तैयार हुए हो, इससे मालूम होता है कि अपात्र को धन देने में जो दोष है उनका तुम्हें पता नहीं है। तुम जो अपार धन देना चाहते हो उससे तो यज्ञादि करो। तुम मोहवश वृथा ही कृष्ण और अर्जुन को मारने की इच्छा करते हो। हमने यह बात तो कभी नहीं सुनी कि किसी गीदड़ ने युद्ध में सिंह को मार दिया हो। तुम्हें करने योग्य और न करने योग्य काम के विषय में कुछ भी विवेक नहीं है। नि:संदेह तुम्हारा काल आ पहुंचा है। कोई भी जीवित रहने वाला पुरुष भला ऐसी उटपटांग बातें कैसे कर सकता है ? तुम जो काम करना चाहते हो वह ऐसा है जैसे कोई अपनी भुजाओं के बल से समुद्र को पार करना चाहे अथवा पहाड़ की चोटी से कूदना चाहे। जब सव्यसाची अर्जुन अपना दिव्य धनुष लेकर सेना को पीड़ित करता हुआ तुम्हे पैने बातों से पीड़ित करेगा उस समय तुम्हे पछताना ही पड़ेगा। जिस प्रकार कोई माता की गोद में सोया हुआ बालक चन्द्रमा को पकड़ना चाहे, उसी प्रकार तुम अज्ञान से ही रथ में चढ़े हुए अर्जुन को परास्त करने की बात सोचते हो।
जिस प्रकार कोई घर के भीतर बैठा हुआ कुत्ता वन में रहने वाले सिंह की ओर भूंके, उसी प्रकार तुम पुरुषसिंह अर्जुन के लिये बड़बड़ा रहे हो। कर्ण ! वन में खरगोशों के साथ रहनेवाला गीदड़ भी जबतक सिंह को नहीं देखता तबतक अपने को सिंह ही समझता रहता है। इसी प्रकार जबतक तुम रथ पर चढ़े हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन को नहीं देखते हो तभी तक अपने को सिंह समझ रहे हो। जिस समय तुम्हारी दृष्टि अर्जुन पर पड़ेगी, तुम तत्काल ही गीदड़ बन जाओगे। जिस तरह अपनी_अपनी योग्यता के अनुसार लोक में चूहा और बिल्ली, कुत्ता और बाघ, गीदड़ और सिंह, खरगोश और हाथी, मिथ्या और सत्य, तथा विष और अमृत प्रसिद्ध हैं उसी प्रकार सब लोग तुम्हें और अर्जुन को भी समझते हैं। शल्य के इस प्रकार तिरस्कार करने पर उनके शल्यसदृश वाक्यों पर विचार करके कर्ण ने अत्यन्त कुपित होकर कहा, ‘शल्य ! गुणवानों के गुणों को तो गुणी जन ही परख सकते हैं, गुणहीनों को उनका पता नहीं लग सकता। तुममें कोई गुण तो है नहीं; इसलिेए तुम्हें गुणागुण का ज्ञान क्या हो सकता है ? अजी ! अर्जुन के बड़े_बड़े अस्त्र, क्रोध, पराक्रम, धनुष, बाण और वीरता को जैसा मैं जानता हूं, वैसा तुम नहीं समझ सकते। मेरा यह भयंकर बाण मनुष्य, घोड़े और हाथियों का संहार करनेवाला, अत्यन्त भीषण और कवच एवं अस्थियों को भी फोड़ डालनेवाला है। मैं रोष में भरने पर इससे पर्वतराज मेरु को भी तोड़ सकता हूं। किन्तु अर्जुन और श्रीकृष्ण को छोड़कर मैं किसी अन्य पुरुष पर इसका प्रयोग कभी नहीं करूंगा; क्योंकि संपूर्ण वृष्णिवंशियों की लक्ष्मी श्रीकृष्ण के आश्रित है और समस्त पाण्डवों की विजय का आधार अर्जुन है। मेरे सिवा और ऐसा कौन है जो इन दोनों से मुकाबला होने पर इन्हें संग्राम से पीछे हटा सके। अर्जुन के पास गाण्डीव धनुष है और श्रीकृष्ण के पास सुदर्शन चक्र। किन्तु ये भीरुपुरुषों को ही डराने वाली चीजें हैं, मुझे तो इनसे हर्ष ही होता है। तुम तो दुष्ट स्वभाव, मूर्ख और बड़ी_बड़ी लड़ाइयों से अनभिज्ञ हो। इस समय भय से पीड़ित हो और डर के कारण ही बहुत सी अनर्गल बातें बना रहे हो। अरे पापी देश में उत्पन्न हुए क्षत्रियकुलकलंक दुर्बुद्धि शल्य ! मैं इन दोनों को मारकर आज भाई_बन्धुओं के सहित तुम्हारा भी काम तमाम कर दूंगा। तुम हमारे शत्रु होकर भी सुहृद्_से बनकर मुझे श्रीकृष्ण और अर्जुन से डरा रहे हो, सो मैंने यह बात पहले ही सुन रखी है कि मद्रदेश का आदमी दुष्ट चित्त, असत्य भाषी और कुटिलचित्त होता है तथा उस देश के लोग मरते दम तक दुष्टता नहीं छोड़ते। यह असभ्यलोग मदिरापान करके हंसते और चिल्लाते रहते हैं, उटपटांग गीत गाते हैं, मनमाना आचरण करते हैं और आपस में अश्लील बातें किया करते हैं। उनमें भला धर्म कैसे रह सकता है ? ये लोग अपने घमंड और नीच कर्म के लिये प्रसिद्ध है। इसलिये इनके साथ वैर या मित्रता कभी नहीं करनी चाहिये। इनमें स्नेह नाम की कोई चीज है ही नहीं। जब किसी मनुष्य को बिच्छू काटता है तो गुणी लोग उसका विष उतारने के लिये यह मन्त्र पढ़ा करते हैं_’अरे बिच्छू ! जिस प्रकार मद्रदेश के लोगों से मित्रता नहीं हो सकती उसी प्रकार अब तेरा विष नष्ट हो गया है, क्योंकि मैंने अथर्ववेद के मंत्र से उसकी शान्ति कर दी है।‘ सो यह बात ठीक ही जान पड़ती है। मद्रदेश की स्त्रियां भी बड़ी स्वेच्छाचारिणी होती हैं। अतः उन्हीं के गर्भ से जन्म लेकर तुम धर्म की बात कैसे कह सकते हो ? ‘मैं मतिमान् दुर्योधन का प्रिय मित्र हूं। मेरे प्राण और सारी सम्पत्ति उन्हीं के लिये है। किन्तु मालूम होता है कि तुम्हे पाण्डवों ने अपनी ओर लिया है। इसी से तुम हमारे साथ सब प्रकार शत्रुका_सा बर्ताव कर रहे । पर याद रखो, जिस प्रकार नास्तिक लोग किसी धर्मज्ञ पुरुष को धर्मपथ से विचलित नहीं कर सकते, उसी प्रकार तुम जैसे सैकड़ों पुरुष भी मुझे संग्राम से विमुख नहीं कर सकते। गुरुवर परशुरामजी ने संग्राम में पीठ न दिखाकर देहत्याग करने वाले पुरुष सिंह की जो सद्गति होती है, वह मुझे बतलाई थी। उसका मुझे आज भी स्मरण है। मैं तो ऐसा समझता हूं कि तीनों लोकों में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो मुझे इस काम से हटा सके। इसलिये तुम चुप रहो। मैं तुम्हें मारकर मांसाहारी जीवों के हवाले कर देता; परंतु एक तो मुझे अपने मित्र दुर्योधन और राजा धृतराष्ट्र के काम का खयाल है, दूसरे तुम्हें मारने से निंदा होगी, तीसरे मैंने क्षमा करने का वचन दिया है_इन तीन कारणों से ही तुम अभी तक जीवित हो। किन्तु फिर यदि ऐसी बातें कहोगे तो मैं अपनी वज्रतुल्य गदा से तुम्हारा सिर पृथ्वी पर गिरा दूंगा। इसके बाद कर्ण फिर बेधड़क होकर कहा, ‘चलो, रथ बढ़ाओ।












Monday 3 May 2021

शल्य को सारथि बनाकर कर्ण का युद्ध के लिये प्रयाण

राजा दुर्योधन ने कहा_वीरवर ! सारथि तो रथी से भी बढ़कर होना चाहिये। इसलिये आप संग्रामभूमि में कर्ण के घोड़ों का नियंत्रण कीजिये। जिस प्रकार त्रिपुरों के नाश के लिये देवताओं ने कोशिश करके ब्रह्माजी को भगवान् शंकर का सारथि बनाया था उसी प्रकार हम कर्ण से भी श्रेष्ठ आपको उसका सारथि बनाना चाहते हैं। शल्य ने कहा_राजन् ! जिस प्रकार ब्रह्माजी ने महादेवजी का सारथ्य किया था और जिस प्रकार एक ही बाण से सम्पूर्ण दैत्यों का संहार हुआ था वह सब मुझे मालूम है। यह प्रसंग श्रीकृष्ण को भी विदित ही है। वे भूत, भविष्य सब बातों को पूरी तरह जानते हैं। यह सब जानकर ही उन्होंने अर्जुन का सारथ्य ग्रहण किया है। यदि किसी प्रकार कर्ण ने अर्जुन को मार डाला तो उसे मरा देखकर श्रीकृष्ण स्वयं युद्ध करने लगेंगे और जब वे कोप करेंगे तो तुम्हारी सेना का कोई भी राजा शत्रुओं की सेना का सामना नहीं कर सकेगा। संजय ने कहा_राजन् ! जब मद्रराज शल्य ने ऐसा कहा तो दुर्योधन कहने लगा, ‘महाराज ! आप कर्ण का अपमान न करें। वह समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ और संपूर्ण अस्त्रविद्या में पारंगत हैं। यह बात प्रत्यक्ष ही है कि उस रात्रि में घतोत्कच ने सैंकड़ों मायाएं रची थीं, तब उसे कर्ण ने ही मारा था। इन दिनों में अर्जुन भी डर के मारे कभी डटकर कर्ण के सामने खड़ा नहीं हुआ है। महाबली भीम को भी कर्ण ने धनुष की नोक से युद्ध के लिये उत्तेजित किया था और उसे ‘ओ मूढ़ ! ओ पेट पाल !’ ऐसा कहकर संबोधन किया था।
उसने माद्रीपुत्र शूरवीर नकुल को भी संग्राम में परास्त कर दिया था और किसी विशेष कारण से ही उसे नहीं मारा था। कर्ण ने ही वृष्णिकुलतिलक सात्यकि को युद्ध में परास्त किया था और उसे बलात् रथहीन कर दिया था। उसने धृष्टद्युम्नादि सृंजय वीरों को तो संग्रामभूमि में हंसते_हंसते ही नीचा दिखाया था। भला, ऐसे महारथी कर्ण को पाण्डवलोग कैसे परास्त कर सकते हैं। कर्ण तो कुपित होने पर वज्रधर इन्द्र को भी मार सकता है। आप भी संपूर्ण अस्त्रों के ज्ञाता और संपूर्ण विद्याओं में पारंगत हैं। पृथ्वी में आपके समान किसी का भी बाहुबल नहीं है। आप शत्रुओं के लिये शल्य के समान हैं, इसी से आप ‘शल्य' नाम से प्रसिद्ध हैं। सारे यदुवंशी मिलकर भी आपके बाहुपाश में पड़ने पर छुटकारा नहीं पा सकते।
राजन् ! कृष्ण क्या आपके बाहुबल से भी बल में चढ़े_बढ़े हैं ? जिस प्रकार अर्जुन के मारे जाने पर श्रीकृष्ण पाण्डव सेना की रक्षा करेंगे उसी  यदि कर्ण मारा गया तो आपको हमारी विशाल वाहिनी की रक्षा करनी होगी। महाराज ! मैं तो आपके बल से ही अपने भाइयों और समस्त राजाओं के ऋण से मुक्त होना चाहता हूं।‘ कर्ण ने कहा_मद्रराज ! जिस प्रकार ब्रह्माजी भगवान् शंकर के और श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथि बनकर हित करते रहे हैं, उसी प्रकार आप सर्वदा हमारे हित में तत्पर रहें। शल्य बोले_अपनी या दूसरे की निंदा अथवा स्तुति करना श्रेष्ठ पुरुषों का काम नहीं है तो भी तुम्हारे विश्वास के लिये मैं अपने विषय में जो प्रशंसा की बातें कहता हूं वह सुनो।
मैं सावधानी से घोड़ों  को हांकने, उनके गुण_दोषों के जानने तथा उनकी चिकित्सा करने में इन्द्र के सारथि मातली के समान हूं। अतः तुम चिंता न करो। अर्जुन के साथ युद्ध करते समय मैं तुम्हारा रथ हांकूंगा। दुर्योधन ने कहा_कर्ण ! महाराज शल्य श्रीकृष्ण से भी बड़े सारथि हैं। अब ये तुम्हारा सारथ्य करेंगे। मातलि जैसे इन्द्र के रथ को हांकता है, उसी प्रकार ये तुम्हारे रथ के घोड़ों को हांकेंगे। अब तुम निःसंदेह पाण्डवों को नीचा दिखा सकते हो। राजन् ! तब कर्ण ने प्रसन्न होकर अपने सारथि से कहा_’सूत ! तुम फौरन मेरा रथ तैयार करके लाओ।‘ सारथि ने कर्ण के विजयी रथ को विधिवत् सजाकर ‘महाराज की जय हो !’ ऐसा कहकर निवेदन किया। कर्ण ने शास्त्रविधि से उस श्रेष्ठ रथ का पूजन किया और उसकी परिक्रमा करके सूर्यदेव की स्तुति की। फिर उसने पास ही खड़े मद्रराज से कहा, ‘राजन् ! रथ पर बैठिये।‘ महातेजस्वी शल्य रथ के अग्रभाग में बैठे। इसके बाद कर्ण भी उसपर सवार हुआ। 
उस समय वहां दोनों तेजस्वी वीरों का स्तुतिगान हो रहा था। महाराज शल्य ने घोड़ों की रासें संभालीं और कर्ण रथ पर बैठकर धनुष की टंकार करने लगा। तब दुर्योधन ने कर्ण से कहा_’वीरवर ! मैं समझता था कि महारथी भीष्म और द्रोण अर्जुन और भीमसेन को मार डालेंगे। किन्तु वे इस कर्म को नहीं कर सके। अब तुम या तो धर्मराज को कैद कर कर लो, या अर्जुन, भीमसेन और नकुल_सहदेव को मार डालो। अच्छा, तुम युद्ध के लिये प्रस्थान करो। तुम्हारी जय हो, कल्याण हो। तुम पाण्डवपुत्रों की सारी सेना को भस्म कर दो।‘ कर्ण ने दुर्योधन की बात स्वीकार करके राजा शल्य से कहा_’महाबाहो ! घोड़ों को बढ़ाते, जिससे कि मैं अर्जुन, भीम, नकुल_सहदेव और युधिष्ठिर को मार सकूं। आज पाण्डवों के नाश और दुर्योधन की विजय के लिये मैं हजारों तीखे बाण छोड़ूंगा।‘ शल्य बोले_सूतपुत्र ! तुम पाण्डवों का अपमान  क्यों करते हो ? वे तो समस्त शास्त्रों के पारगामी, महान् धनुर्धर, रण में पीठ न दिखाने वाले, अजेय और अत्यन्त पराक्रमी हैं। वे साक्षात् इन्द्र को भी भयभीत कर सकते हैं। जिस समय तुम गाण्डीव धनुष की वज्र के समान भीषण टंकार सुनोगे उस समय इस प्रकार गाल बजाना भूल जाओगे।
जिस समय भीमसेन हाथियों का दांत उखाड़_उखाड़कर हाथियों की सेना का संहार करेगा उस समय तुम इस प्रकार बातें न बना सकोगे। जिस समय तुम धर्मराज युधिष्ठिर और नकुल_सहदेव को अपने पैने बातों से शत्रुओं का संहार करते देखोगे उस समय ऐसी कोई बात नहीं कह सकोगे। संजय ने कहा_राजन् ! तब मद्रराज की इन सब बातों की उपेक्षा करके कर्ण ने उनसे कहा, ‘अच्छा, अब रथ बढ़ाइये।'

Sunday 28 March 2021

त्रिपुरों की उत्पत्ति और उनके नाश का प्रसंग

दुर्योधन ने कहा_महाराज शल्य ! पूर्वकाल में महर्षि मार्कण्डेय ने मेरे पिताजी से एक उपाख्यान कहा था। वह सब कथा मैं आपको सुनाता हूँ। उसे सुनिये और मैंने जो प्रार्थना की है, उसके विषय में किसी प्रकार का विचार न कीजिये।
पहले तारकामय नाम का एक संग्राम हुआ था । उसमें देवताओं ने दैत्यों को परास्त कर दिया। उस समय तारक दैत्यों को परास्त कर दिया। उस समय तारक दैत्य के ताराक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली नाम के तीन पुत्र थे। उन्होंने कठोर नियमों का पालन करते हुए बड़ी भीषण तपस्या की और अपने शरीरों को बिलकुल सुखा दिया। उनके संयम, तप, नियम और समाधि से पितामह ब्रह्माजी प्रसन्न हो गये और उन्हें वर देने के लिये पधारे। उन तीनों दैत्यों ने सर्वलोकेश्वर श्रीब्रह्माजी को प्रणाम किया और और उनसे कहा, ‘पितामह ! आप हमें ऐसा वर दीजिये कि हम तीन नगरों में बैठकर इस सारी पृथ्वी पर आकाशमार्ग  से विचरते रहें। इस प्रकार एक हजार वर्ष बीतने पर हम एक जगह मिलें। उस समय जब हमारे तीनों पुर बनकर एक हो जायँ तो उस समय जो देवता उन्हें एक ही बाण से नष्ट कर सके, वही हमारी मृत्यु का कारण हो।‘ इसपर ब्रह्माजी ‘ऐसा ही हो’ यह कहकर अपने लोक को चले गये। ब्रह्माजी से ऐसा वर पाकर वे दैत्य बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने आपस में सलाह करके मय दानव के पास जाकर तीन नगर बनाने को कहा। मतिमान् मय ने अपने तप के प्रभाव से तीन पुर तैयार किये। उनमें से एक सोने का, एक चाँदी का और एक लोहे का था। सोने का नगर स्वर्ग में, चाँदी का अंतरिक्ष में और लोहे का पृथ्वी में रहा। ये तीनों किसी नगर इच्छानुसार आ_जा सकते थे। इनमें से प्रत्येक की लम्बाई-चौड़ाई सौ-सौ योजन थी। इनमें आपस में सटे हुए बड़े-बड़े भवन और खुली हुई सड़कें थीं तथा अनेकों  प्रासादों और राजद्वारों से इनकी बड़ी शोभा हो रही थी। इन नगरों के अलग-अलग राजा थे। सुवर्णमय नगर तारकाक्ष का था, रजतमय कमलाक्ष का और लोहमय विद्युन्माली का। इन दैत्यों के पास जहां_तहां से करोड़ों दानव योद्धा आकर एकत्रित हो गये। इन तीनों पुरोों में रहनेवाला जो पुरुष जैसी इच्छा करता, उसकी उस कामना को मायासुर अपनी माया से उसी समय पूरी कर देता था। तारकाक्ष के हरि नाम का एक महाबली पुत्र था। उसने बड़ी कठोर तपस्या की। इससे ब्रह्माजी उसपर प्रसन्न हो गयेे। उन्हें संतुष्ट देखकर हरि ने यह वर मांगा कि हमारे नगर में ऐसी बावड़ी बन जाय कि जिसमें डालने पर शस्त्र से घायल हुए योद्धा और भी अधिक बलवान हो जायं। इस प्रकार ब्रह्माजी से वर पाकर तारकाक्ष के पुत्र हरि ने अपने नगर में एक मुर्दों को जीवित कर देनेवाली बावड़ी बनवायी। दैत्य लोग जिस रूप और जिस वेष में मरते थे उस बावड़ी में डालने पर उसी रूप, उसी वेष में जीवित होकर निकल आते थे। इस प्रकार उस बावड़ी को पाकर वे सारे लोकों को कष्ट देने लगे तथा अपनी घोर तपस्या से सिद्धि पाकर वे  देवताओं के भय की वृद्धि करने लगे। युद्ध में उनका किसी भी प्रकार नाश नहीं हो सकता था।
 अब तो वे लोभ और मोह से अंधे होकर एकदम मतवाले हो गये‌। उन्होंने लज्जा को एक ओर रख दिया और सब ओर लूट_मार करने लगे। वरदान के मद में चूर होकर वे समय_समय पर जहां_तहां देवताओं को भगाकर स्वेच्छा से विचरने लगे। उन मर्यादाहीन दुष्ट दानवों ने देवताओं के प्रिय उद्यान और ऋषियों के पवित्र आश्रम को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। इस प्रकार जब सब लोक पीड़ित होने लगे तो मरुद्गन को साथ लेकर देवराज इन्द्र ने चढ़ाई कर दी और उन नगरों पर वे सब ओर वज्र_प्रहार करने लगे। किंतु जब वे ब्रह्माजी के वर के प्रभाव से उन अभेद्य नगरों को तोड़ने में समर्थ न हुए तो भयभीत होकर अनेकों देवताओं को साथ ले ब्रह्माजी के पास गये और उन्हें दैत्यों के कारण मिलने वाले अपने कष्टों की कहानी सुनायी।
इस प्रकार सारा हाल सुनाकर उन्होंने प्रणाम करके ब्रह्माजी से उसके वध का उपाय पूछा। देवताओं की सब बातें सुनकर भगवान ब्रह्माजी से कहा, ‘जो दैत्य तुमलोगों को दुख दे रहा है, वह तो मेरा अपराध करने भी नहीं चूकता। इसमें संदेह नहीं, मैं सब प्राणियों के लिये समान हूं। परन्तु मेरा नियम है कि अधर्मियों का तो नाश ही करना चाहिये। इसके लिये उन तीनों नगरों को एक ही बाण से तोड़ना होगा। किन्तु इस काम को करने में श्रीमहादेवजी के सिवा कोई समर्थ नहीं हैं। इसलिए तुम सब उनके पास जाकर यह वर मांगो। वे अवश्य उन दैत्यों को मार डालेंगे।
ब्रह्माजी की यह बात सुनकर इन्द्रादि देवता उन्हीं के नेतृत्व में श्री महादेवजी की शरण में गये। भगवान् शंकर अपने शरणापन्नों के भय के समय अभयदान करनेवाले और सबके आत्मस्वरूप हैं। उनके पास जाकर वे  सब उनकी स्तुति करने लगे। तब उन्हें तेजोराशि पार्वतीपति श्रीमहादेवजी का दर्शन हुआ। सभी ने पृथ्वी पर सिर रखकर उन्हें प्रणाम किया और महादेवजी ने आशीर्वाद द्वारा सत्कार करके सबको उठाया। फिर वे मुस्कराते हुए कहने लगे, ‘कहो, कहो, तुम्हारी क्या इच्छा है ?’ भगवान की आज्ञा पाकर देवता लोग स्वस्थचित्त होकर कहने लगे, ‘देवाधिदेव ! आपको नमस्कार है। प्रजापति भी आपकी स्तुति करते हैं और सबने आपकी स्तुति भी की है; आप सभी की स्तुति के पात्र हैं और सभी आपकी स्तुति करते हैं। शम्भो ! हम सब आपको नमस्कार करते हआ। आप सबके आश्रय_स्थान और सभी का संसार करनेवाले हैं। ऐसे ब्रह्मस्वरूप आपको हम नमस्कार करते हैं। आप सभी के अधीश्वर और नियन्ता हैं तथा वनस्पति, मनुष्य, गौ और यज्ञों के पति हैं। देव ! हम मन, वाणी और कर्मों से आपके शरणापन्न हैं; आप हमपर कृपा कीजिए।‘ तब भगवान् शंकर ने प्रसन्न होकर उनका स्वागत_सत्कार करते हुए कहा, ‘देवगण ! भय को छोड़िये और बताते, मैं आपका क्या काम करूं ?’ इस प्रकार जब महादेव जी देवता, ऋषि और पितृगण को अभयदान दिया तो ब्रह्माजी ने उनका सत्कार करके संसार के हित के लिए कहा, ‘सर्वेश्वर ! आपकी कृपा से इस प्रजापति के पद पर प्रतिष्ठित होकर मैंने दानवों को एक महान् वर दे दिया था। उसके कारण उन्होंने सब प्रकार की मर्यादा तोड़ दी है। अब आपके सिवा उनका कोई संहार नहीं कर सकता। देवतालोग आपकी शरण में आकर यही प्रार्थना कर रहे हैं, हो आप इनपर कृपा कीजिये। तब महादेवजी ने कहा, ‘देवताओं ! मैं धनुष_बाण धारण करके रथ में सवार हो संग्रामभूमि में तुम्हारे शत्रुओं का संहार करूंगा। अतः तुम मेरे लिये एक ऐसा रथ और धनुष_बाण तलाश करो, जिनके द्वारा मैं इन नगरों को पृथ्वी पर गिरा सकूं।‘ देवताओं ने कहा_’देवेश्वर ! हम तीनों लोकों के तत्वों को जहां_तहां से इकट्ठे करके आपके लिये एक तेजोमय रथ तैयार करेंगे।‘ ऐसा कहकर उन्होंने विश्वकर्मा के रचे हुए एक विशाल रथ को महादेवजी के लिये तैयार किया। उन्होंने विष्णु, चन्द्रमा और अग्नि को बाण बनाया तथा बड़े_बड़े नगरों से भरी हुई पर्वत, वन और द्वीपों से व्याप्त वसुन्धरा को ही उनका रथ बना दिया। इन्द्र, वरुण, यम और कुबेर आदि लोकपालों को घोड़े बनाया एवं मन को आधार भूमि बनाया। इस प्रकार जब वह श्रेष्ठ रथ तैयार हो गया तो महादेवजी ने उसमें अपने आयुध रखें।
ब्रह्मदण्ड, कालदण्ड, रुद्रदण्ड और ज्वर_ये सब ओर मुख किते उस रथ की रक्षा में नियुक्त हुए; अथर्वा और अंगिरा उनके चक्र रक्षक बने; ऋग्वेद, सामवेद और समस्त पुराण के उस रथ के आगे चलनेवाले योद्धा हुए; इतिहास और यजुर्वेद पृष्ठरक्षक बने तथा दिव्यवाणी और विद्याएं पार्श्वरक्षक बने। स्तोत्र तथा वषट्कार और ओंकार रथ के अग्रभाग में सुशोभित हुए। उन्होंने छहों ऋतुओं से सुशोभित संवत्सर को अपना धनुष बनाया तथा अपनी छाया को धनुष की अखंड प्रत्यंचा के स्थान में रखा। इस प्रकार रथ को तैयार देख वे कवच और धनुष धारण कर विष्णु, सोम और अग्नि से बने हुए दिव्य बाण को लेकर युद्ध के लिये तैयार हो गये। तब देवताओं ने सुगन्ध युक्त वायु को उनके लिखे हवा करने को नियुक्त किया। तब महादेवजी समस्त युद्धसज्जा से सुशोभित हो पृथ्वी को कंपायमान करते रथ पर सवार हुए। बड़े_बड़े ऋषि, गन्धर्व, देवता और अप्सराओं के समूह उनकी स्तुति करने लगे। इस समय भगवान शंकर खड्ग, बाण और धनुष धारण करके बड़ी शोभा पा रहे थे। उन्होंने हंसकर कहा, ‘मेरा सारथि कौन बनेगा ?  देवताओं ने कहा, ‘देवेश्वर ! आप जिसे आज्ञा देंगे, वहीं आपका सारथि बन जायगा_इसमें आप तनिक भी संदेह न करें।‘ तब भगवान् ने कहा, ‘तुम स्वयं ही विचार करके जो मुझसे श्रेष्ठ हो, उसे मेरा सारथि बना दो।,' यह सुनकर देवताओं ने पितामह ब्रह्माजी के पास जाकर उन्हें प्रसन्न करके कहा, ‘भगवन् ! आपने हमसे पहले ही कहा था कि मैं तुम्हारा हित करूंगा, हो अपना वह वचन पूरा कीजिये। देव ! हमने जो रथ तैयार किया है, वह बड़ा ही दुर्धर्ष है; भगवान् शंकर उसके योद्धा नियुक्त किये गये हैं, पर्वतों के सहित पृथ्वी ही रथ है तथा नक्षत्रमाला ही उसका वरूथ है। किन्तु उसका कोई सारथि दिखाई नहीं देता।
सारथि इन सबके अपेक्षा बढ़_चढ़कर होना चाहिये; क्योंकि रथ तो उसी के अधीन रहता है। हमारी दृष्टि में आपके सिवा और कोई भी इसका सारथि बनने योग्य नहीं है। आप सर्वगुण सम्पन्न और सब देवताओं में श्रेष्ठ हैं। अतः अब आप ही बैठकर घोड़ों की रास संभालिये।‘ ब्रहमाजी ने कहा_देवताओं ! तुम जो कुछ कहते हो, उसमें कोई बात झूठ नहीं है। अतः जिस समय भगवान् शंकर युद्ध करेंगे, मैं अवश्य उनके घोड़े हत
तब देवताओं ने संपूर्ण लोक के स्रष्टा ब्रह्माजी को श्रीमहादेवजी का सारथि बनाया। जिस समय वे वे उस विश्र्ववन्द्य रथ पर बैठे, उसके घोड़ों ने पृथ्वी पर सिर टेककर उसे प्रणाम किया।
परम तेजस्वी भगवान् ब्रह्मा उस रथ पर चढ़कर घोड़ों की रास और कोड़ा संभाला और श्रीमहादेव जी से कहा, ‘देवश्रेष्ठ ! रथ पर सवार होइये।‘
तब भगवान् शंकर, विष्णु, सोम और अग्नि से उत्पन्न हुआ बाण लेकर अपने धनुष से शत्रुओं को कम्पायमान करते रथ पर चढ़े। भगवान् शिव रथ पर बैठकर अपने तेज से तीनों लोकों को देदिप्यमान करने लगे। उन्होंने इन्द्रादि देवताओं से कहा, ‘तुमलोग ऐसा संदेह मत करना कि यह बाण इन पुलों को नष्ट नहीं कर सकेगा; अब तुम इस बाण से इन असुरों का अन्त हुआ ही समझो।‘
देवताओं ने कहा, ‘आपका कथन बिलकुल ठीक है। अब इन दैत्यों का अंत हुआ ही समझना चाहिये। आपका कथन किसी प्रकार मिथ्या नहीं हो सकता।‘ इस प्रकार विचार करके देवता लोग बड़े प्रसन्न हुए। इसके बाद देवाधिदेव महादेवजी उस विशाल रथ पर चढ़कर सब देवताओं के साथ चले। उनके इस प्रकार कूच करने पर सारा संसार और देवतालोग प्रसन्न हो गये। ऋषिगण अनेकों स्रोतों से उनकी स्तुति करने लगे और करोड़ों गन्धर्वगण तरह_तरह के बाजे बजाने लगे।
अब भगवान् शंकर ने मुस्कराकर कहा, ‘प्रजापते! चलिये, जिधर वे दैत्यगण है, उधर ही घोड़े बढ़ाइये।‘ तब ब्रह्माजी ने अपने मन और वायु के समान वेगवान् घोड़ों को दैत्य और दानवों से रहित उन तीनों पुत्रों की ओर बढ़ाया।
इस समय नन्दीश्वर ने बड़ी भारी गर्जना की, जिससे सारी दिशाएं गूंज उठी। उनका यह भीषण नाद सुनकर तारकासुर के अनेक दैत्य नष्ट हो गये। उनके सिवा जो शेष रहे वे युद्ध के लिये उनके सामने आ गये। अब त्रिशूलमणि भगवान् शंकर ने क्रोध में रौंदा चढ़ाया और उसपर बाण चढ़ाकर उसे पशुपतास्त्र से युक्त किया। फिर वे तीनों पुरों  के इकट्ठे होने का चिंतन करने लगे।
इस प्रकार जब वे धनुष चढ़ाकर तैयार हो गये तो उसी समय तीनों नगर मिलकर एक हो गये। यह देखकर देवतालोग बड़ी हर्षध्वनि करने लगे तथा सिद्ध और महर्षियों के सहित उनकी स्तुति करने लगे। इस प्रकार जब असह्य तेजस्वी भगवान् शंकर असुरों का संहार करने की तैयारी कर रहे थे, उनके सामने तीनों पुर एकत्रित हो कर प्रकट हुए। उन्होंने तुरंत ही अपना दिव्य धनुष खींच कर उनपर वह त्रिलोकी का सारभूत बाण छोड़ा। 
उस बाण के छूटते ही तीनों पुर नष्ट हो कर गिर गये। उस समय बड़ा ही आर्तनाद हुआ। महादेवजी ने उन असुरों को भस्म करके पश्चिम समुद्र में डाल दिया। इस प्रकार त्रिलोकहितकारी भगवान् शिव ने कुपित होकर उस त्रिपुर का नाश किया और दैत्यों को निर्मूल कर दिया। फिर अपने क्रोध से उत्पन्न हुई अग्नि को रोककर उन्होंने कहा, ‘तू त्रिलोकी को भष्म न कर।‘
इस प्रकार दैत्यों का नाश हो जाने पर समस्त देवता, ऋषि और लोक प्रफुल्लित हो गये तथा बड़े श्रेष्ठ वचनों से भगवान् शंकर की स्तुति करने लगे। फिर भगवान् की आज्ञा पाकर ब्रह्मादि आदि सभी देवगण सफल मनोरथ होकर अपने_अपने स्थानों  को चले गये। इस तरह श्रीमहादेवजी ने समस्त लोकों का कल्याण किया था। उस समय जिस प्रकार जगत्कर्ता ब्रह्माजी  उनका सारथ्य किया था उसी प्रकार आप भी वीरवर कर्ण के अश्वों का संचालन कीजिये। राजन् ! इसमें संदेह नहीं कि आप श्रीकृष्ण, कर्ण और अर्जुन से भी श्रेष्ठ हैं। कर्ण युद्ध करने में श्रीमहादेवजी के समान है तो आप रथ हांकने में साक्षात् ब्रह्माजी के सदृश हैं।  अतः, आप दोनों मिलकर मेरे शत्रुओं को उन दैत्यों के समान ही परास्त कर सकते हैं। महाराज ! अब आप ऐसा उपाय कीजिये जिससे आज कर्ण संग्रामभूमि में अर्जुन का वध कर सके। कर्ण की, हमारी और हमारे राज्य की स्थिति अब आप ही के ऊपर निर्भर है। हमारी विजय भी आपपर ही अवलम्बित है। अतः आप कर्ण के घोड़ों का नियंत्रण कीजिये।
महाराज ! कर्ण को स्वयं श्रीपरशुरामजी ने धनुर्विद्या सिखायी है। यदि इसमें कोई दोष होता तो इसे कभी दिव्य अस्त्र न देते। मैं तो कर्ण को क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुआ कोई देवपुत्र ही समझता हूं। यह कवच और कुण्डल पहने उत्पन्न हुआ है तथा विशालबाहु और महारथी है; इसलिये इसका जन्म सूतकुल में होना किसी प्रकार संभव नहीं है।


Friday 29 January 2021

कर्ण के प्रस्ताव और दुर्योधन के आग्रह से शल्य का आनाकानी के बाद कर्ण का सारथि बनना स्वीकार करना



राजा धृतराष्ट्र ने पूछा_संजय ! इसके बाद दुर्योधन ने क्या किया ? वह मंदबुद्धि तो कर्ण का सहारा पाकर पाण्डवों को उनके पुत्र और श्रीकृष्ण के सहित परास्त करने का दम भरता था। किन्तु बड़े ही खेद की बात है कि कर्ण अपने पराक्रम से पाण्डवों से पार नहीं पा सका। निःसंदेह जय_पराजय दैवाधीन ही है। मालूम होता है, अब जूए का परिणाम समीप ही आ गया है। हाय ! इस दुर्योधन के कारण मुझे काँटे के समान अनेकों तीव्रतर कष्ट सहने पड़ेंगे। मैं नित्यप्रति अपने पुत्रों के ही मारे जाने और परास्त होने की बात सुनता रहा हूँ। क्या पाण्डवों को रोकनेवाला हमारी सेना में कोई भी वीर नहीं है? संजय ने कहा_राजन् ! जो पुरुष बीती हुई बात के लिये पीछे से सोच_विचार करता है, उसका वह काम तो नहीं बनता, हाँ, चिन्ता उसे अवश्य खाती रहती है।
अब आपको इस कार्य में सफलता मिलनी तो बड़े दूर की बात है; क्योंकि पहले जानबूझकर भी आपने इसके औचित्य_अनौचित्य के विषय में विचार नहीं किया। महाराज! पाण्डवों ने तो आपसे बार_बार कहा था कि लड़ाई मत ठानिये, किन्तु आपने मोहवश सुना ही नहीं। आपने पाण्डवों के ऊपर बड़े_बड़े जुल्म किये हैं। इस समय भी आपही के कारण यह राजाओं का घोर संहार हो रहा है। परन्तु जो बात बीत गयी, उसके विषय में आप चिन्ता न करें। अब जिस प्रकार यह भयंकर संहार हुआ, वह सुनिये। वह रात बीतने पर कर्ण राजा दुर्योधन के पास आया और उससे कहने लगा, ‘राजन् ! आज मेरी अर्जुन के साथ मुठभेड़ होगी; इसमें या तो मैं उस वीर का काम तमाम कर दूँगा या वह मुझे मार डालेगा।
मैं इन्द्र की दी हुई शक्ति खो बैठा हूँ; इसलिये अर्जुन आज मेरे ऊपर अवश्य धावा करेगा। अब जो काम की बात है वह सुनिये। मेरे और अर्जुन के दिव्य अस्त्रों का प्रभाव तो समान ही है; किन्तु शत्रु के पराक्रम को कुचलने में,  हाथ की सफाई में, युद्धकौशल में और अस्त्र संचालन में अर्जुन मेरे समान नहीं है। इसके सिवा बल, वीर्य, विज्ञान, पराक्रम और निशाना साधने में वह मेरी बराबरी नहीं कर सकता। मेरा जो यह विजय नाम का धनुष है, इसे विश्वकर्मा ने इन्द्र के लिये बनाया था। इसी के द्वारा इन्द्र ने दैत्यों पर विजय प्राप्त की थी। इन्द्र ने यह श्रेष्ठ धनुष परशुरामजी को दिया था और उन्होंने मुझे दिया। यह परशुरामजी का दिया हुआ प्रचण्ड धनुष गाण्डीव से भी बढ़कर है। इसी के द्वारा परशुरामजी ने इक्कीस बार पृथ्वी को जीता था। इसी से अर्जुन के साथ मेरे दो हाथ होंगे। आज संग्राम में विजयी वीर अर्जुन को धराशायी करके मैं आपको और आपके बन्धु_बान्धवों को आनन्दित करूँगा।
जिस प्रकार धर्म में पूर्ण अनुराग रखनेवाले संयमी पुरुष का कार्य में सफलता पाना स्वाभाविक ही है, उसी प्रकार ऐसा कोई काम नहीं है जिसे मैं आपके लिये न कर सकूँ। परंतु जिस बात में मैं अर्जुन से कम हूँ, वह भी मुझे अवश्य बता देनी चाहिये। उसके धनुष की डोरी दिव्य है, तरकस अक्षय हैं तथा उसके पास अग्निदेव का दिया हुआ दिव्य रथ है, जो किसी भी ओर से तोड़ा नहीं जा सकता। इसके सिवा उसके घोड़े मन के समान वेगवान् हैं, ध्वजा भी दिव्य और दीप्तिमती है तथा उसपर बड़ा ही विस्मय में डालनेवाला एक वानर बैठा हुआ है। इससे भी बढ़कर यह बात है कि जगत् की रचना करनेवाले स्वयं श्रीकृष्ण उसके सारथि एवं रक्षक हैं। इन सब बातों की मेरे पास कमी है; तो भी मैं अर्जुन के साथ युद्ध करना चाहता हूँ। हमारे पक्ष में महाराज शल्य अवश्य श्रीकृष्ण की बराबरी कर सकते हैं। यदि वे मेरे सारथि बन जायँ तो निश्चय ही आपकी विजय हो सकती है। अतः आप इन्हें मेरा सारथ्य करने के लिये तैयार कर लीजिये। इसके सिवा कई छकड़े मेरे बाण लेकर चलें बाण लेकर चलें तथा बढ़िया घोड़ों से जुते हुए कई उत्तम रथ मेरे पीछे पीछे चले जिससे कि आवश्यकता होने पर मैं तुरंत दूसरा रथ बदल सकूँ। महाराज शल्य श्रीकृष्ण के समान ही अश्वविद्या के मर्मज्ञ हैं। यदि ये मेरे सारथि हो जायँ तो मेरा रथ श्रीकृष्ण के रथ से भी बढ़ जाय। फिर तो इन्द्र के सहित देवताओं का भी मेरे सामने आने का साहस नहीं होगा। बस, मैं आपसे इतना प्रबंध कराना चाहता हूँ। फिर मैं संग्रामभूमि में जो काम करके दिखाऊँगा, वह आप देखेंगे ही। अजी ! फिर तो जो भी पाण्डव वीर संग्राम में मेरे सामने आवेंगे, उन्हें मैं सर्वथा परास्त करके ही छोड़ूँगा।‘ संजय ने कहा_ जब कर्ण ने आपके पुत्र से इस प्रकार कहा तो उसने प्रसन्न चित्त से उसकी प्रशंसा करते हुए कहा, ‘कर्ण ! तुम्हारा जैसा विचार है, मैं वैसा ही करूँगा। छकड़े तुम्हारे बाण लेकर चलेंगे तथा हम सब तुम्हारे पीछे_पीछे चलेंगे। राजन् ! कर्ण से ऐसा कहकर आपका पुत्र बड़ी विनय से महारथी शल्य के पास गया और उनसे प्रेमपूर्वक कहने लगा, मद्रेश्वर ! आप सत्यव्रत, महाभाग और वक्ताओं में अग्रगण्य हैं। मैं सिर झुकाकर अत्यन्त विनय के साथ आपसे एक प्रार्थना करता हूँ।
आप अर्जुन के नाश और मेरे हित के लिये केवल प्रेम के ही नाते कर्ण का सारथ्य करना स्वीकार कर लीजिये। आपके सारथि बन जाने पर  राधापुत्र कर्ण मेरे शत्रुओं को परास्त कर देगा।
आपके सिवा कर्ण के घोड़ों की रास पकड़ने योग्य कोई दूसरा व्यक्ति नहीं है। आप संग्राम में साक्षात् श्रीकृष्ण के समान हैं। अतः जिस प्रकार त्रिपुर युद्ध के समय ब्रह्माजी ने भगवान् शंकर की सहायता की थी तथा जैसे श्रीकृष्ण संपूर्ण आपत्तियों में अर्जुन की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप कर्ण की रक्षा कीजिये। आरंभ में ही शत्रुओं की सैन्यशक्ति कम होने पर भी उन्होंने हमारी बहुत सी सेना को नष्ट कर डाला था, फिर इस समय की तो बात ही क्या है? इसलिये अब आप ऐसा उपाय कीजिये, जिससे पाण्डवलोग मेरी रही सही सेना का संहार न कर सके। पहले संग्रामभूमि में अर्जुन इस प्रकार शत्रुओं का संहार नहीं कर सकता था, परंतु अब श्रीकृष्ण का साथ हो जाने से उसकी इतनी शक्ति बढ़ गयी है।
अब पाण्डवों की सेना में आपके और कर्ण के हिस्से का ही भाग रह गया है, उसे आप कर्ण के साथ मिलकर आज एक साथ नष्ट कर दीजिये। आप कोई ऐसी युक्ति कीजिये, जिससे पांचाल और सृंजयों के सहित कुन्ती के पुत्र अति शीघ्र नष्ट हो जायँ। कर्ण रथियों में श्रेष्ठ है और आप सारथियों में सर्वोत्तम हैं। आप दोनो का_सा संयोग संसार में न कभी हुआ है और न होगा ही। जिस प्रकार श्रीकृष्ण सब अवस्थाओं में अर्जुन की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप कर्ण की रक्षा कीजिये।  आपके सारथि बन जाने पर भी कर्ण इन्द्र और समस्त देवताओं के लिये भी अजेय हो जायगा, फिर पाण्डवों की तो बात ही क्या है?’
दुर्योधन की यह बात सुनकर शल्य एकदम क्रोध में भर गये। उनकी भौंहों में बल पड़ गये तथा हाथ बार_बार काँपने लगे। उन्हें अपने कुल, ऐश्वर्य, विद्या और बल का बड़ा गर्व था। इसलिये उन्होंने क्रोध से आँखें लाल करके कहा, ‘दुर्योधन ! अवश्य ही तुम या तो मेरा अपमान कर रहे हो या तुम्हे मेरे प्रति संदेह है। इसी से तुम मुझे सारथि का काम करने की आज्ञा दे रहे हो। तुम कर्ण को हमारी अपेक्षा भी श्रेष्ठ समझकर उसकी प्रशंसा करते हो। किन्तु मैं उसे संग्राम में अपने समान नहीं समझता। तुम जो बड़े_से_बड़ा वीर हो, उसे मेरे हिस्से में कर दो; मैं उसे संग्राम में जीतकर अपने घर चला जाऊँगा। अथवा आज मैं अकेला ही युद्ध करूँगा। तब तुम शत्रुओं का संहार करते समय मेरा पराक्रम देख लेना। जरा मेरी इस वज्र के समान मोटी और गँठीली भुजाओं को तो देखो तथा मेरे विचित्र धनुष, सर्प के सदृश बाण और सुवर्णपत्र से मढ़ी हुई गदा पर तो दृष्टि डालो। मैं अपने तेज से सारी पृथ्वी को फोड़ सकता हूँ, पर्वतों को छिन्न_भिन्न कर सकता हूँ और समुद्रों को सुखा सकता हूँ। इस प्रकार शत्रुओं का दमन करने में पूर्णतया समर्थ होने पर भी तुम मुझे इस नीच सूतपुत्र के सारथ्य का काम करने की आज्ञा कैसे दे रहे हो? मैं इस नीच की अपेक्षा सभी प्रकार श्रेष्ठ हूँ, इसलिये उसका दासत्व करने को कभी तैयार नहीं हो सकता। जो पुरुष प्रेमवश अपने आश्रित हुए किसी श्रेष्ठ व्यक्ति को नीच पुरुष के अधीन कर देता है, उसे उच्च को नीच और नीच को उच्च करने का पाप लगता है। ब्रह्मा ने ब्राह्मणों को अपने मुख से, क्षत्रियों को भुजाओं से, वैश्यों को जंघाओं से तथा शुद्रों को पैरों से उत्पन्न किया है_ऐसा श्रुति का मत है। इनमें क्षत्रिय जाति सब वर्णों की रक्षा  करनेवाली, सबसे कर लेनेवाली और दान देनेवाली। ब्राह्मणों का काम यहज्ञ कराना, पढ़ाना और विशुद्ध दान लेना है। कृषि, गो पालन, और धर्मानुसार दान देना वैश्यों का कर्म है तथा शूद्रलोग ब्राह्मण, क्षत्रियों और वैश्यों की सेवा के काम में नियुक्त किये गये हैं। यह बात तो मैंने बिलकुल नहीं सुनी कि क्षत्रिय शुद्र की सेवा करे। मैंने राजर्षियों के वंश में जन्म लिया है, मेरे मस्तक पर शास्त्रानुसार राज्याभिषेक किया गया है, लोग मुझे महारथी कहते हैं और बन्दीजन मेरी स्तुति किया करते हैं। ऐसा होकर भी मैं सूतपुत्र का सारथ्य करूँ_यह मेरे वश की बात नहीं है। इस प्रकार अपमानित होकर तो मैं किसी प्रकार युद्ध नहीं कर पाऊँगा। इसलिये अब मैं अपने घर जाने के लिये तुमसे आज्ञा माँगता हूँ।‘ पुरुषसिंह शल्य ऐसा कहकर उठ खड़े हुए और वहाँ जो राजा बैठे थे, क्रोधपूर्वक उसके बीच से जाने लगे। तब आपके पुत्र ने बड़े प्रेम और मान से उन्हें रोका और बड़े मीठे शब्दों में उन्हें समझाते हुए कहने लगा, ‘राजन्! आप अपने विषय में जैसा समझते हैं, निःसंदेह यह बात ऐसी ही है। परंतु मेरे कथन का जो अभिप्राय है, जरा उसे भी सुनने की कृपा करें। आपके पूर्वपुरुष सदा सत्यभाषण ही करते रहे हैं; मैं समझता हूँ , इसी से आप ‘आर्तायनि’ कहलाते हैं। तथा आप अपने शत्रुओं के लिये शल्य ( काँटे ) के समान हैं, इसी से पृथ्वीतल में ‘शल्य’ नाम से विख्यात हैं। आप धर्मज्ञ हैं और मेरा प्रिय करने का वचन दे चुके हैं; अतः अब अपने उसी वचन का पालन करने की कृपा कीजिये। आपकी अपेक्षा न तो कर्ण बलवान् है और न मैं ही हूँ; तो भी अश्वविद्या के सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता होने के कारण मैं आपसे ऐसी प्रार्थना कर रहा हूँ। कर्ण शस्त्रविद्या में अर्जुन से श्रेष्ठ है और आप अश्वविद्या में श्रीकृष्ण से बढ़_चढ़कर हैं।‘ इसपर राजा शल्य ने कहा_’दुर्योधन ! तुम सब सेना के सामने मुझे श्रीकृष्ण से बढ़कर बता रहे हो, इसी से मैं तुम्हारे ऊपर प्रसन्न हूँ। अच्छा लो, मैं कर्ण का सारथ्य करना स्वीकार किये लेता हूँ। किन्तु कर्ण के साथ मेरी एक शर्त रहेगी। वह यह कि युद्ध के समय मैं उससे  चाहे जैसी भी बात कह सकूँगा; उसमें वह किसी प्रकार की आपत्ति न करे।‘ इसपर कर्ण और आपके पुत्र ने ‘बहुत अच्छा’ ऐसा कहकर शल्य की शर्त स्वीकार कर ली।


Monday 4 January 2021

दुर्योधन और कर्ण का राजा युधिष्ठिर, अर्जुन एवं सात्यकि के साथ संग्राम

राजा धृतराष्ट्र ने पूछा_संजय ! तुमने कहा कि युधिष्ठिर ने महारथी दुर्योधन को रथहीन कर दिया था, सो उसके बाद उन दोनों का किस प्रकार युद्ध हुआ ? इसके सिवा तीसरे पहर का रोमांचकारी युद्ध भी कैसे कैसे हुआ ? यह सब वृतांत तुम मुझे सुनाओ। संजय ने कहा_राजन् ! जब दोनों ओर की सेनाएँ आपस में भिड़ गयीं तो आपका पुत्र एक दूसरे रथ में चढ़कर संग्रामभूमि में आया। उसने अपने सारथि से कहा ‘सूत ! चल, चल जल्दी से; जहाँ राजा युधिष्ठिर हैं, वहीं मुझे ले चल।‘! तब सारथि तुरंत ही उस रथ को हाँककर धर्मराज के सामने ले गया। दुर्योधन ने फौरन ही एक पैने बाण से उनका धनुष काट डाला। इसपर महाराज युधिष्ठिर ने दूसरा धनुष लेकर उन्हें घायल कर डाला। इस प्रकार वे दोनों वीर अत्यन्त क्रोध में भरकर एक_दूसरे पर शस्त्रों की वर्षा करने लगे, दोनों ही एक_दूसरे पर वार करने का मौका देखने लगे, दोनों ही बाणों की चोटों से घायल हो गये तथा दोनों ही बार_बार सिंह के समान गर्जना और शंखध्वनि करने लगे।
राजा युधिष्ठिर ने तीन वज्र के समान वेगवान् और दुर्धर्ष बाणों से दुर्योधन की छाती पर चोट की। इसके बदले में आपके पुत्र ने उन्हें पाँच तीक्ष्ण बाणों से घायल कर दिया। इसके बाद उसने उनपर एक अत्यन्त तीक्ष्ण लोहमयी शक्ति छोड़ी। उसे आते देख राजा युधिष्ठिर ने तीन पैने बाणों से उसके टुकड़े_टुकड़े कर दिये तथा पाँच बाणों से दुर्योधन को भी घायल कर दिया। अब दुर्योधन गदा उठाकर बड़े वेग से धर्मराज की ओर दौड़ा। यह देखकर उन्होंने आपके पुत्र पर एक अत्यन्त देदिप्यमान शक्ति छोड़ी। उसने उसके कवच को को तोड़कर छाती पर चोट पहुँचायी। इससे वह अत्यन्त व्याकुल होकर गिर पड़ा और मूर्छित हो गया। इसी समय भीमसेन ने अपनी प्रतिज्ञा याद करके धर्मराज से कहा, ‘महाराज ! इसे आप न मारें।‘ यह सुनकर धर्मराज वहाँ से हट गये।
अब आपके पक्ष के योद्धा कर्ण को आगे करके पाण्डवसेना पर टूट पड़े और उनके साथ युद्ध करने लगे। कर्ण ने अनेकों चमचमाते हुए बाण सात्यकि पर छोड़े। इसपर सात्यकि ने फौरन ही उसे तथा उसके रथ, सारथि और घोड़ों को अनेकों तीखे तीरों से छा दिया। कर्ण को इस प्रकार सात्यकि के बाणों से व्यथित देख आपके पक्ष के अनेकों अतिरथी हाथी, घोड़े, रथी और पैदल सेनाएँ लेकर दौड़े। उनका सामना द्रुपद के पुत्र आदि अनेकों वीरों ने किया। इससे वहाँ हाथी, घोड़े, रथ और सैनिकों का बड़ा भारी संहार होने लगा। इसी समय पुरुषप्रवर श्रीकृष्णऔर अर्जुन अपने नित्यकर्म से निपटकर तथा शास्त्रानुसार भगवान् शंकर का पूजन कर युद्धक्षेत्र में आये। अर्जुन ने गाण्डीव धनुष चढ़ाकर सारी दिशा_विदिशाओं को बाणों से व्याप्त कर दिया; शत्रुओं के अनेकों रथ, आयुध, ध्वजा और सारथियों को नष्ट कर डाला तथा बहुत_से हाथी, महावत, घुड़सवार घोड़े और पैदलों को यमराज के घर भेज दिया। यह देखकर राजा दुर्योधन अकेला ही बाणों की वर्षा करता हुआ अर्जुन पर टूट पड़ा। अर्जुन ने सात ही बाणों की वर्षा करता अर्जुन पर टूट पड़ा। अर्जुन ने सात बाणों से उसके धनुष, सारथि, ध्वजा और घोड़ों को नष्ट करके एक बाण से उसका छत्र काट डाला। 
इसके बाद ज्योंही उन्होंने दुर्योधन पर एक नवाँ प्राणघातक बाण छोड़ा कि अश्त्थामा ने बीच में ही उसके सात टुकड़े कर दिये। इसपर अर्जुन ने अपने बाणों से अश्त्थामा के धनुष, रथ और घोड़ों को नष्ट कर दिया तथा कृपाचार्य के प्रचण्ड कोदण्ड को भी टूक_टूक कर डाला।
इसके बाद वे कृतवर्मा के धनुष, ध्वजा और घोड़ों नष्ट करके तथा दुःशासन का भी धनुष काटकर कर्ण के सामने आये। कर्ण भी फौरन ही सात्यकि को छोड़कर अर्जुन के सामने आया और उन्हें तीन तथा श्रीकृष्ण को बीस बाणों से घायल कर बार_बार बाणों की वर्षा करने लगा।
इतने में ही सात्यकि भी आ गया। उसने कर्ण पर पहले निन्यानबे और फिर सौ बाणों की चोट की। इसके बाद पाण्डवपक्ष के अन्यान्य योद्धा भी कर्ण पर वार करने लगे। युधामन्यु, शिखण्डी, द्रौपदी के पुत्र, प्रभद्रकवीर, उत्तमौजा, युयुत्सु, नकुल_सहदेव, धृष्टधुम्न, चेदि, करूष, मत्स्य और केकय देश के वीर तथा चेकितान और धर्मराज युधिष्ठिर_इन सभी शूरवीरों ने बहुत_सी बलवती सेना लेकर उसे चारों ओर से घेर लिया तथा उसपर तरह_तरह के अस्त्र_शस्त्रों की वर्षा करने लगे। परंतु कर्ण ने अपने पैने बाणों से उस सारी शस्त्रवृष्टि को छिन्न_भिन्न कर डाला।बात_की_बात में कर्ण की अस्त्रशक्ति से आक्रान्त होकर पाण्डवों की सेना शस्त्रहीन और घायल होकर भागने लगी। अर्जुन ने हँसते_हँसते अपने अस्त्रों से कर्ण के अस्त्रों को नष्ट करके संपूर्ण दिशाओं, आकाश और पृथ्वी को बाणों से व्याप्त कर दिया। उसके बाण मूसल और परिघों के समान गिर रहे थे तथा कोई शतध्नी और व्रजों के समान जान पड़ते थे। इस प्रकार आपके और पाण्डवों के पक्ष के योद्धा विजय की लालसा में युद्ध में जुटे हुए थे कि इसी समय सूर्यदेव अस्ताचल के शिखर पर जा पहुँचे। सब ओर अन्धकार फैलने लगा तथा बड़े_बड़े धनुर्धर अपने_अपने योद्धाओं के सहित छावनी की ओर चलने लगे। कौरवों को जाते देख विजयी पाण्डव भी अपने शिविरों की ओर चल दिये। सब वीर बाजे_गाजे के साथ सिंहनाद और गर्जना करते तथा अपने शत्रुओं की हँसी एवं श्रीकृष्ण और अर्जुन की स्तुति करते जाते थे। इस प्रकार उन्होंने छावनी में जाकर रातभर विश्राम किया।