Thursday 12 August 2021

कर्ण और शल्य का कटु सम्भाषण और दुर्योधन का उन्हें समझाना

संजय ने कहा_महाराज ! शल्य की ये अप्रिय बातें सुनकर कर्ण ने कहा_शल्य ! अर्जुन का रथ हांकनेवाले कृष्ण के बल और अर्जुन के दिव्यास्त्रों का जैसा मुझे पता है वैसा तुम नहीं जान सकते। तो भी उन दोनों के साथ मैं बेधड़क होकर संग्राम करूंगा। किन्तु विप्रवर परशुरामजी ने जो मुझे शाप दिया है, आज वह मुझे बहुत संतप्त कर रहा है। पूर्वकाल में मैं दिव्य अस्त्रों की प्राप्ति के लिये ब्राह्मण वेश धारण करके परशुरामजी के यहां रहा था। उस समय अर्जुन का हित करने के लिये वहां भी इन्द्र ने ही मेरे काम में विध्न डाला था।
एक बार गुरुजी मेरी जांघ पर सिर रखे सो रहे थे, उस समय एक बेडौल कीड़े के रूप में आकर मेरी जांघ में काटा। उसके जोर से काटने के कारण मेरे शरीर से खून की धारा बहने लगी। किन्तु गुरु जी की निद्रा न टूट जाय इस भय से मैं तनिक भी न हिला_डुला। जाने पर उन्होंने वह सब घटना देखी। मुझे ऐसा धैर्यवान् देखकर उन्होंने कहा, ‘अरे ! तू ब्राह्मण तो है नहीं, ठीक_ठीक बता, किस जाति का है ?’ तब मैंने उन्हें ठीक_ठीक बता दिया कि ‘मैं सूत हूं।‘ मेरी बात सुनकर महातपस्वी क्रोध में भर गये और मुझे शाप दिया कि ‘सूत ! तूने ब्राह्मण का वेष बनाकर यह ब्रह्मास्त्र प्राप्त किया है, इसलिये काम पड़ने पर तुझे इसका स्मरण न रहेगा।‘ इसी से भयंकर घोर संग्राम के समय मैं उसे भूल गया हूं। शल्य ! भरतवंश में उत्पन्न हुआ यह अर्जुन बड़ा ही पराक्रमी, भीषण और सबका संहार करनेवाला है। मालूम होता है, आज बड़ा तुमुल युद्ध होगा और यह अनेक क्षत्रिय वीरों को संतप्त कर डालेगा। तो भी सत्यप्रतिज्ञ अर्जुन के साथ मैं अवश्य संग्राम करूंगा और उसे मृत्यु के मुख में डालकर छोड़ूंगा। मुझे एक दूसरा अस्त्र भी मिला हुआ है, उसी से मैं संग्रामभूमि में अर्जुन के साथ मृत्यु को सामने रखकर ही युद्ध करूंगा। मेरे सिवा और ऐसा कोई वीर नहीं है जो इन्द्र के समान पराक्रमी अर्जुन के साथ अकेला रथारूढ़ होकर युद्ध कर सके। तुम तो निरे मूर्ख और मूढ़चित्त हो। तुम मुझे अर्जुन के बल पराक्रम की बातें क्या सुनाते हो ? अब मैं स्वयं ही संग्रामभूमि में उसके पराक्रम से प्रसन्न होकर क्षत्रियों की सभा  में उसका वर्णन करूंगा । जो पुरुष अप्रिय, निष्ठुर, क्षुद्र, आक्षेप करनेवाला और क्षमाशीलों का तिरस्कार करनेवाला होता है, उसके जैसे सैकड़ों को भी मैं मिट्टी में मिला देता हूं किन्तु आज केवल समय की ओर देखकर मैं तुम्हें क्षमा कर रहा हूं। मेरा तो तुम्हारे साथ बड़ी सरलता का वर्ताव है, किन्तु तुम टेढ़ी टेढ़ी बातें करते हो। तुम बड़े ही मित्रद्रोही हो। मित्रता तो सात पग साथ रहने से ही हो जाती है। यह बड़ा ही कठोर समय आ गया है। राजा दुर्योधन रणभूमि में आ गये हैं। मैं उन्ही की विजयेक्षा से यहां आया हूं। किन्तु तुम अर्जुन की ही गुणगाथा गाते जाते हो, जबकि वास्तव में उसके प्रति आपका प्रेम संबंध भी नहीं है।
आज विजय प्राप्त करने के लिये मैं अर्जुन पर अपना अप्रमेय और अजेय ब्रम्हास्त्र छोड़ूंगा। इस दिव्य अस्त्र के प्रभाव से मैं दण्डपाणि यम, पाशहस्त वरुण, गदाधर कुबेर और वज्रपाणि इन्द्र से तथा किसी अन्य आततायी शत्रु से भी नहीं डरता हूं; अतः मुझे श्रीकृष्ण और अर्जुन से भी किसी प्रकार का भय नहीं है। परंतु मुझे एक भय अवश्य है_एक बार की बात है, मैं विजय के उद्देश्य से अस्त्र पाने के लिये घूम रहा था। उस समय अनेकों भीषण बाणों को चलाने का अभ्यास करते_करते मैं भूल से एक होमधेनु के बछड़े को बाण मार दिया। बेचारा बछड़ा निर्जन वन में चल रहा था। यह देखकर उसके स्वामी ब्राह्मण ने कहा, चूंकि तुमने होमधेनु के बछड़े को मारा है, इसलिये संग्राम में लड़ते_लड़ते तुम्हारे रथ का पहिया गड्ढे में फंस जायगा और तुम बड़ी आपत्ति में फंस जाओगे। ब्राह्मण के उस प्रबल शाप से मुझे आज भी भय बना हुआ है। उस ब्राह्मणको मैंने हजार गौएं और छ: सौ बैल देने चाहे, परंतु मैं उसे प्रसन्न न कर सका। मैं बड़े सत्कार पूर्वक उस ब्राह्मण को अपना भरा_पूरा घर और भोगसामग्रियों के सहित सारी सम्पत्ति देनी चाही किन्तु उसने उसे लेना स्वीकार न किया। इस प्रकार जब मैं प्रयत्न पूर्वक अपना अपराध क्षमा कराने लगा तो उस ब्राह्मण ने कहा, ‘सूतपुत्र ! मैंने जो बात कही है वह तो बदल नहीं सकती। मिथ्याभाषण प्रजा का नाश करनेवाला होता है। यदि मैं अपने कथन को मिथ्या कर दूंगा तो मुझे पाप लगेगा। अतः धर्म की रक्षा के लिये मैं झूठ तो बोल नहीं सकता। मुझसे झूठ बोलवा कर तुम मेरी ब्राह्मी गति का उच्छेद न करो।   मेरी बात मिथ्या नहीं हो सकता। अतः अब तुम शान्त हो जाओ। ‘इस प्रकार यद्यपि मेरा तिरस्कार किया है तो भी मैंने सौहार्दवश तुम्हें यह प्रसंग सुना दिया है। अब तुम चुप रहो और आगे की बात पर ध्यान दो। तुम मेरे साथी, स्नेही और मित्र हो। इन तीनों कारणों से ही अबतक जीवित बचे हुए हो। इस समय मेरे सामने राजा दुर्योधन का बड़ा भारी काम है और इसकी जिम्मेदारी भी मेरे ही ऊपर है। मैं तुम्हारे कठोर वचनों को क्षमा करने की प्रतिज्ञा कर चुका हूं। शत्रुओं पर विजय तो तुम जैसे हजारों शल्यों की सहायता के बिना भी मैं पा सकता हूं। किन्तु मित्र से द्रोह करना बड़ा पाप है, इसी से तुम अबतक बचे हुए हो। शल्य ने कहा_ कर्ण ! तुम अपने शत्रुओं के विषय में जो कुछ कह रहे हो वह सब तो तुम्हारा विवाद ही है। मैं सहस्त्रों कर्मों की सहायता के बिना भी युद्ध में शत्रुओं को जीत सकता हूं। मद्रराज के इस प्रकार कहने पर कर्ण उनसे दूने कटु वाक्य कहने लगा। वह बोला, ‘मद्रराज ! मैं जो बात कहता हूं उसे ध्यान देकर सुनो। इस बात की चर्चा मैंने महाराज धृतराष्ट्र के पास सुनी थी। एक बार उनके महल में  ब्राह्मण अनेकों अद्भुत देशों और प्राचीन वृतांतों का वर्णन कर रहे थे। वहां एक बूढ़े ब्राह्मण ने वाहीक और मद्रदेश की निंदा करते हुए कहा था_’जो हिमालय, गंगा, सरस्वती, यमुना और कुरुक्षेत्र से बाहर तथा सिंधु और उसकी पांच सहायक नदियों के बीच में स्थित है वह बाहीक देश धर्मशास्र और अपवित्र है। उससे सर्वदा दूर रहना चाहिते। मैं एक गुप्त कार्यवश कुछ दिन वाहीक देश में रहा था। उस समय मैंने उनके आचार_विचार के विषय में बहुत सी बातें जान ली थीं। जहां शाकाल नाम का नगर और आपगा नाम की नदी है वहां जर्तिका नाम के वाहीक रहते हैं। उनका चरित्र बड़ा निंदनीय  होता है। ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो उन दुश्चरित्र, संस्कारहीन और दुरात्मा वाहीकों के साथ मुहूर्त भर भी रहना पसंद करेगा।‘ उन ब्राह्मण ने वाहीकों को ऐसा दुराचारी बताया था। उनमें धर्म कैसे रह सकता है ? वाहीक देश के लोग उपनयन आदि संस्कारों से रहित होने के कारण पतित समझे जाते हैं; उनकी स्त्रियां घर के नौकरों से उन्हें उत्पन्न करती हैं। वे धर्मभ्रष्ट तथा यज्ञ के अधिकार से वंचित होते हैं। इन्हीं सब कारणों से उनके दिये हुए भव्य, कव्य और दान को देवता, पितर तथा ब्राह्मणलोग नहीं स्वीकार करते_यह बात लोगों में खूब प्रसिद्ध है।
एक विद्वान ब्राह्मण ने तो यहां तक कहा था कि ‘वाहीकलोग काठ और मिट्टी की बनी हुई कुंडियों में भोजन करते हैं। उनमें शराब लिपटा रहता है, कुत्ते उन बर्तनों को चाटते रहते हैं, तो भी उनमें खाते  समय उन्हें तनिक भी घृणा नहीं होती। वे भेड़, ऊंटनी और गदही के दूध पीते हैं तथा उस दूध के दही, मक्खन और छाछ आदि भी खाते_पीते हैं। इतना ही नहीं, वे वर्णसंकर सन्तान उत्पन्न करनेवाले और दुराचारी होते हैं। शुद्ध_अशुद्ध का विचार छोड़कर सब तरह का अन्न खा लेते हैं। इसलिेए विद्वानों को चाहिये कि 'आरट्ट' नाम से प्रसिद्ध उन बाहीकों का संसर्ग त्याग दे। ‘इसी प्रकार कारस्कर, मासिक, कलिंग, वीरक और दुर्धर्म आदि देशों का भी त्याग करना उचित है। प्रस्थल, मद्र, गांधार, आरट्ट, खश, वसाति, सिंधु तथा सौवीर देश प्रायः निंदित और अपवित्र माने गये हैं। पांचाल देश के लोग वेदों का स्वाध्याय करते हैं, कुरु देश के निवासी धर्म का आश्रय लेते हैं। मत्स्य देश के लोग सत्यवादी और शूरसेन निवासी यज्ञ करनेवाले होते हैं। पूरब के लोग दासवृति करते हैं, दक्षिणी लोगों का वर्ताव शूद्रों के समान होता है। वाहीक लोग चोर तथा सौराष्ट्र निवासी वर्णशंकर होते हैं। मगधदेश के लोग इशारे से ही बात समझ लेते हैं, कोसल की प्रजा दृष्टि के संकेत को समझती है, कुरु और पांचाल के लोग आधी बात कह देने पर पूरी समझ पाते हैं तथा शाल्व देश के निवासी पूरी बात कहने से ही उसे हृदयंगम करते हैं।
शिवि देश की प्रजा पहाड़ी लोग की तरह मूर्ख होती है। यवनलोग सब बातों को अनायास ही समझ लेते और विशेषतः शूरवीर होते हैं। म्लेच्छ जाति के लोग अपने संकेत के अनुसार वर्ताव करते हैं। दूसरे सभी लोग पूरी बात कहें बिना उसे नहीं समझ पाते। वाहीक और मद्रदेश के मनुष्य तो पूरे गंवार होते हैं। वे किसी रथी का मुकाबला नहीं कर सकते। शल्य ! तुम भी ऐसे ही हो। तुममें उत्तर देने की योग्यता नहीं है । मैं तो डंके की चोट कहता हूं_मद्रदेश पृथ्वी के समस्त देशों का मल है। ऐसा समझकर तुम अपनी जबान बंद करो, मेरा विरोध न करो; नहीं तो पहले तुम्हारा ही वध करके पीछे श्रीकृष्ण और अर्जुन को मरूंगा।‘ 
शल्य ने कहा_कर्ण ! तुम जिस देश के राजा बने बैठे हो उस अंग देश में क्या होता है ? अपने ही सगे_संबंधी जब लोग से पीड़ित हो जाते हैं तो उनका त्याग कर दिया जाता है। अपनी ही स्त्री और बच्चों को वहां के लोग सरे बाजार बेचते हैं।
उस दिन रथी और अतिरथियों की गणना करते समय भीष्मजी ने तुम्हें जो कुछ कहा था, अपने उन दोषों पर ध्यान दो और क्रोध छोड़कर शान्त हो जाओ। सभी देशों में ब्राह्मण हैं, सर्वत्र क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं तथा सब जगह सुन्दर व्रत का पालन करनेवाली सती साध्वी स्त्रियां भी हैं। सब देशों में अपने_अपने धर्म का पालन करने वाले राजालोग हैं, जो दुष्टों को दण्ड देते हैं। इसी प्रकार धार्मिक मनुष्य भी सर्वत्र होते हैं। किसी देश के सभी निवासी पाप ही करते हों_यह बात ठीक नहीं है;उसी देश में ऐसे_ऐसे सच्चरित्र और सदाचारी मनुष्य भी होते हैं, जिनकी बराबरी देवता भी नहीं कर सकते। कर्ण ! दूसरों के दोष बताने में सभी लोग बड़े प्रवीण होते हैं, किन्तु उन्हें अपने दोषों का पता नहीं रहता। अथवा अपने दोष जानते हुए भी वे ऐसे भोले बने रहते हैं, मानो उन्हें कुछ पता ही न हो। इस प्रकार कर्ण और शल्य को परस्पर विवाद करते देख राजा दुर्योधन ने उन दोनों को रोका। उसने कर्ण को मित्रभाव से समझाया तथा शल्य के सामने हाथ जोड़कर प्रार्थना की। उसके मना करने से कर्ण मान गया और उसने शल्य की बात का कोई जवाब नहीं दिया। शल्य ने भी शत्रुओं की ओर अपना मुंह फेर लिया। तब राधानन्दन कर्ण ने हंसकर शल्य को तुरंत रथ आगे बढ़ाने की आज्ञा दी।