Saturday 23 February 2019

सात्यकि का कृतवर्मा के साथ युद्ध, जलसन्ध का वध तथा द्रोण और दुर्योधनादि धृतराष्ट्र_पुत्रों से घोर संग्राम

संजय ने कहा___राजन् ! अब आपने जो बात पूछी थी, वह सुनिये। जब कृतवर्मा ने पाण्डवों की सेना को भगा दिया तो सात्यकि बड़ी फुर्ती से उसके सामने आ गया। कृतवर्मा ने उस पर तीखे बाणों की वर्षा आरंभ कर दी। इस पर सात्यकि ने बड़ी फुर्ती से उस पर एक भल्ल और चार बाण छोड़े। बाणों से उसके घोड़े नष्ट हो गये तथा भल्ल से धनुष कट गया। फिर उसने अनेकों पैने बाणों से कृतवर्मा के पृष्ठरक्षक और सारथि को भी घायल कर दिया। इस प्रकार उसे रथहीन करके महावीर सात्यकि ने अपने पैने बाणों से उसकी सेना की नाक में दम कर दिया। उस बाणवर्षा से पीड़ित होकर कृतवर्मा की सेना तितर_बितर हो गयी। तब सात्यकि आगे बढ़ा और बाणों की वर्षा करता हुआ गजसेना के साथ युद्ध करने लगा। वीरवर सात्यकि के छोड़े हुए वज्रतुल्य बाणों से व्यथित होकर लड़ाके हाथी युद्ध का मैदान छोड़कर भागने लगे। उनके दाँत टूट गये, शरीर लोहूलुहान हो गया, मस्तक फट गये तथा कान मुँह और सूँड छिन्न_भिन्न हो गये। उनके महावत नष्ट हो गये, पताकाएँ कटकर गिर गयीं, सवार युद्ध में काम आ गये । सात्यकि ने नाराच, वत्सदन्त, भल्ल, क्षुरप्र और अर्धचन्द्र नामक बाणों से उन्हें बहुत ही घायल कर दिया। इससे वे चिघ्घाड़ते, खून उगलते और मल_मूत्र छोड़ते इधर_उधर भागने लगे। इसी समय एक हाथी पर सवार हुआ महाबली जलसन्ध अपना धनुष घुमाता सात्यकि पर चढ़ आया। सात्यकि ने,उसके हाथी को अकस्मात् आक्रमण करते देख अपने बाणों से रोक दिया। इस पर जलसन्ध ने बाणों द्वारा सात्यकि की छाती पर वार किया। सात्यकि बाण छोड़ना चाहता ही था कि जलसन्ध ने एक नाराच से उसका धनुष काट डाला तथा पाँच बाणों से उसे भी घायल कर दिया। परंतु महाबाहु सात्यकि बहुत_से बाणों से घायल हो जाने पर भी टस_से_मस न हुआ। उसने तुरंत ही दूसरा धनुष लिया और साठ बाणों से जलसन्ध के विशाल वक्षःस्थल पर वार किया। अब जलसन्ध ने ढाल और तलवार उठायी तथा तलवार को उठाकर सात्यकि के ऊपर फेंका। वह उसके धनुष को काटकर पृथ्वी पर जा पड़ी। तब सात्यकि ने दूसरा धनुष उठाया और उसकी टंकार करके एक पैने बाण से जलसन्ध को बींध दिया। फिर दो क्षुरप्र बाणों से उसने जलसन्ध की भुजाएँ काट डाले तथा तीसरे क्षुरप्र से उसका मस्तक उड़ा दिया।
जलसन्ध को मरा देखकर आपकी सेना में बड़ा हाहाकार मच गया। आपके योद्धा पीठ दिखाकर जहाँ_तहाँ भागने का प्रयत्न करने लगे। इतने में ही शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ आचार्य द्रोण अपने घोड़ों को दौड़ाकर सात्यकि के सामने आ गये। यह देखकर प्रधान_प्रधान कौरव भी आचार्य के साथ ही उस पर टूट पड़े। अब सात्यकि पर द्रोण ने सतहत्तर, दुर्मर्षण ने बारह, दुःसह ने दस, दुःशासन ने आठ और चित्रसेन ने दो बाण छोड़े। राजा दुर्योधन तथा अन्य महारथियों ने भी भीषण बाणवर्षा करके उसे पीड़ित करना आरम्भ किया; किन्तु सात्यकि ने अलग_अलग उन सभी केबाणों का जवाब दिया। उसने द्रोण के तीन, दुःसह के नौ, विकर्ण के पच्चीस, चित्रसेन के सात, दुर्मर्षण के बारह, विविंशति के आठ, सत्यव्रत के नौ और विजय के दस बाण मारे। फिर वह दुर्योधन पर टूट पड़ा और इस पर बाणों की गहरी चोट करने लगा। दोनों में तुमुल युद्ध छिड़ गया और दोनों ही ने अपने_अपने धनुष संभालकर बाणों की वर्षा करते हुए एक_दूसरे को अदृश्य कर दिया।  दुर्योधन के बाणों ने सात्यकि को बहुत ही घायल कर दिया तथा सात्यकि ने भी अपने बाणों से आपके पुत्रों को बींध डाला। आपके दूसरे पुत्रों ने भी आवेश में भरकर सात्यकि पर बाणों की झड़ी लगा दी। किन्तु उसने प्रत्येक पर पहले पाँच_पाँच बाण छोड़कर फिर सात_सात बाणों से वार किया और फिर बड़ी फुर्ती से आठ बाणों द्वारा दुर्योधन पर चोट की। इसके पश्चात् उसने उसके धनुष और ध्वजा को काटकर गिरा दिया। फिर चार तीखे बाणों से चारों घोड़ों को मारकर एक बाण से सारथि का भी काम तमाम कर दिया। अब दुर्योधन के पैर उखड़ गये। वह भागकर चित्रसेन के रथ पर चढ़ गया। इस प्रकार अपने राजा को सात्यकि द्वारा पीड़ित होते देख सब ओर हाहाकार होने लगा। उस कोलाहल को सुनकर बड़ी फुर्ती से महारथी कृतवर्मा सात्यकि के सामने आया। उसने छब्बीस बाणों से सात्यकि को, पाँच से उसके सारथि को और चार से चारों घोड़ों को घायल कर डाला। इसपर सात्यकि ने बड़ी तेजी से उस पर अस्सी बाण छोड़े। उनकी चोट से अत्यंत घायल होकर कृतवर्मा काँप उठा। इसके बाद सात्यकि ने तिरसठ बाणों से उसके चारों घोड़ों को और सात से सारथि को बींध डाला। फिर एक अत्यन्त तेजस्वी बाण कृतवर्मा पर छोड़ा। वह उसके कवच को फोड़कर खून में लथपथ हुआ पृथ्वी पर गिर गया। उसकी चोट से कृतवर्मा का शरीर लोहूलुहान हो गया, उसके हाथ से धनुष_बाण गिर गये और वह अत्यंत पीड़ित होकर घुटनों के बल रथ की बैठक में गिर गया।
इस प्रकार कृतवर्मा को परास्त करके सात्यकि आगे बढ़ा। अब द्रोणाचार्य उसके आगे आकर बाणों की वर्षा करने लगे। उन्होंने तीन बाणों से सात्यकि के ललाट पर चोट की तथा और भी अनेक बाणों से उस पर वार किया। परंतु सात्यकि ने दो_दो बाण मारकर उन सभी को काट दिया। इस पर आचार्य ने हँसकर पहले तीस और फिर पचास बाण छोड़े। इससे सात्यकि का क्रोध भड़क उठा। उसने नौ पैने बाणों से द्रोण पर वार किया तथा उनके सामने ही सौ बाणों से उनके सारथि और ध्वजा को बींध डाला। सात्यकि की ऐसी फुर्ती देखकर आचार्य ने सत्तर बाणों से उसके सारथि को बींधकर तीन से उसके घोड़ों पर चोट की। फिर एक बाण से रथ की ध्वजा काटकर दूसरे से उसका धनुष काट डाला। इस पर सात्यकि ने एक भारी गदा उठाकर द्रोण के ऊपर छोड़ी। उसे सहसा अपने ऊपर आते देख आचार्य ने बीच में ही अनेकों बाणों से काटकर गिरा दिया।
फिर उसने दूसरा धनुष ले उससे बहुत_से बाण बरसाकर द्रोण की दाहिनी भुजा को घायल कर दिया। इससे उन्हें बड़ी पीड़ा हुई और एक अर्धचन्द्र बाण से सात्यकि का धनुष काटकर एक शक्ति से उसके सारथि को मूर्छित कर दिया। इस समय सात्यकि ने बड़ा ही अतिमानुष कर्म किया। वह द्रोणाचार्य से युद्ध करता रहा और साथ ही घोड़ों की लगाम भी संभाले रहा। फिर उसने एक बाण से द्रोण के सारथि को पृथ्वी पर गिराकर उसके घोड़ों को बाणों द्वारा इधर_उधर भगाना आरम्भ किया। वे उनके रथ को लेकर रणांगण में हजारों चक्कर काटने लगे। उस समय सभी राजा और राजकुमार कोलाहल मचाने लगे। किन्तु सात्यकि के बाणों से पीड़ित होकर आचार्य के घोड़े हवा हो गये और उन्होंने फिर उसे व्यूह के द्वार पर ही लाकर खड़ा कर दिया। आचार्य ने पाण्डव और पांचालों केप्रयत्न से अपने व्यूह को टूटा हुआ देखकर फिर सात्यकि का ओर जाने का विचार छोड़ दिया और पाण्डव और पांचालों को आगे बढ़ने से रोककर व्यूह ही रक्षा करने लगे।

Sunday 17 February 2019

कौरवसेना के पराभव के विषय में राजा धृतराष्ट्र और संजय का संवाद तथा कृतवर्मा के पराक्रम की वर्णन

राजा धृतराष्ट्र ने कहा___ संजय ! हमारी सेना अनेक प्रकार के गुणों से सम्पन्न और सुव्यवस्थित है। उसकी व्यूहरचना भी विधिवत् की जाती है। हम सर्वदा उसका अच्छी तरह सत्कार करते रहते हैं तथा उसका  भी हमारे प्रति अच्छा भाव है। उसमें कोई बूढ़ा या बालक, अधिक दुबला या मोटा अथवा बौना पुरुष भी नहीं है। सभी सबल और स्वस्थ शरीरवाले हैं। हमने किसी को भी फुसलाकर, उपकार करके अथवा संबंध के कारण भर्ती नहीं किया। इनमें ऐसा कोई भी नहीं है, जो बिना बुलाये अथवा बेगार में पड़कर लाया गया हो। हमने अनेकों महारथी योद्धाओं को चुन_चुनकर ही भर्ती किया है तथा उनमें से किसी को यथायोग्य वेतन देकर और किन्ही को प्रिय भाषण करके संतुष्ट किया है। हमारी सेना में ऐसा योद्धा एक भी नहीं है, जिसे थोड़ा वेतन मिलता हो,अथवा वेतन मिलता ही न हो। मैंने, मेरे पुत्रों ने तथा हमारे बन्धु_बान्धवों ने सभी का दान, मान और आसनादि से सत्कार किया है। किन्तु फिर भी श्रीकृष्ण और अर्जुन सही_सलामत हमारी सेना में घुस गये, कोई उनका बाल भी बाँका नहीं कर सका। यहाँ तक कि सात्यकि ने भी उन्हें कुचल डाला। इसमें भाग्य के सिवा और किसे दोष दिया जाय। अच्छा, जब दुर्योधन ने अर्जुन को जयद्रथ के सामने खड़ा देखा और सात्यकि को निर्भयता से अपनी सेना में घुसते पाया, तो उसने उस समय पर अपना क्या कर्तव्य निश्चय किया ? मैं तो यही समझता हूँ कि अर्जुन और सात्यकि को अपनी सेना लाँघते और कौरव योद्धाओं को युद्धस्थल से भागते देखकर मेरे पुत्र  बड़ी चिन्ता में पड़ गये होंगे। इस समय सात्यकि के सहित श्रीकृष्ण और अर्जुन के अपनी सेना में प्रवेश की बात सुनकर मैं भी बड़ी घबराहट में पड़ गया हूँ। अच्छा, जब द्रोणाचार्य  ने पाण्डवों को व्यूह के द्वार पर रोक लिया तो वहाँ उनके साथ किस प्रकार युद्ध हुआ___यह सुनाओ और यह भी बताओ कि अर्जुन ने सिंधुराज जयद्रथ का वध करने के लिये क्या उपाय किया ? संजय ने कहा___राजन् ! यह सारी विपत्ति आपके अपराधसेे ही आयी है; इसलिये अन्य साधारण पुरुषों के समान आप इसके लिये चिन्ता न करें। पहले जब आपके बुद्धिमान सुहृद् विदुर आदि ने कहा था कि आप पाण्डवों को राज्य से च्युत न करें, तो आपने उनकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया। जो पुरुष अपने हितैषी सुहृदों की बात पर ध्यान नहीं देता, वह भारी आपत्ति में पड़कर आपही की तरह चिंता किया करता है। श्रीकृष्ण ने भी सन्धि के लिये आपसे बहुत प्रार्थना की थी; किन्तु आपसे उनका भी मनोरथ सिद्ध नहीं हुआ। इससे आपकी गुणहीनता, पुत्रों के प्रति पक्षपात, धर्म पर अविश्वास, पाण्डवों के प्रति मत्सर और कुटिल भाव जानकर तथा आपके मुख से बहुत_सी बेबसीकी_सी बातें सुनकर ही सर्वलोकेश्वर श्रीकृष्ण ने कौरव_पाण्डव में यह भारी युद्ध खड़ा किया है। यह भीषण संहार आपके ही अपराध से हो रहा है। मुझे तो आगे_पीछे या मध्य में भी आपका कोई पुण्यकृत्य दिखायी नहीं देता। मेरे विचार से तो इस पराजय की जड़ आप ही हैं। अतः आप सावधान होकर जिस प्रकार यह भीषण संग्राम हुआ था, वह सुनिये।
जब सत्यपराक्रमी सात्यकि आपकी सेना में घुस गया तो भीमसेन आदि पाण्डववीर भी आपके सैनिकों पर टूट पड़े। उन्हें बड़े क्रोध से धावा करते देख महारथी कृतवर्मा ने अकेले ही आगे बढ़ने से रोक दिया। इस समय हमने कृतवर्मा का बड़ा ही अद्भुत पराक्रम देखा। सारे पाण्डव मिलकर भी युद्ध में उसे नीचा न दिखा सके। तब महाबाहु भीम ने तीन, सहदेव ने बीस, धर्मराज ने पाँच, नकुल ने सौ, धृष्टधुम्न ने तीन और द्रौपदी के पुत्रों ने सात_सात बाणों से घायल किया तथा विराट, द्रुपद और शिखण्डी ने पाँच_पाँच बाण मारकर फिर बीस बाणों से उस पर और भी वार किया। कृतवर्मा ने इन सभी को पाँच_पाँच बाणों से बींधकर भीमसेन पर सात बाण छोड़े तथा उसके धनुष और ध्वजा को काटकर रथ से नीचे गिरा दिया।
इसके बाद उसने क्रोध में भरकर बड़ी तेजी से सत्तर बाणों द्वारा उसकी छाती पर चोट की। कृतवर्मा के बाणों से अत्यंत घायल हो जाने से वे काँपने लगे तथा अचेत_से हो गये; थोड़ी देर बाद जब होश हुआ तो भीमसेन ने उसकी छाती में पाँच बाण मारे। इससे कृतवर्मा के सब अंग लोहूलुहान हो गये। तब उसने क्रोध में भरकर तीन बाणों से भीमसेन पर वार किया तथा अन्य सब महारथियों को भी तीन_तीन बाणों से बींध दिया। इस पर उन सबने भी उसपर सात_सात बाण छोड़े। कृतवर्मा ने एक क्षुरप्र बाण से शिखण्डी का धनुष काट दिया। इससे कुपित होकर शिखण्डी ने ढाल_तलवार उठा ली तथा तलवार को घुमाकर कृतवर्मा के रथ पर फेंका। वह उसके धनुष और बाण को काटकर पृथ्वी पर जा पड़ी। कृतवर्मा ने तुरंत ही दूसरा धनुष लेकर प्रत्येक पाण्डव को तान_तीन बाणों से बींध दिया तथा शिखण्डी को आठ बाणों से घायल कर डाला। शिखण्डी ने भी दूसरा धनुष लेकर अपने तीखे बाणों से कृतवर्मा को रोक दिया। इससे क्रोध में भरकर वह शिखण्डी के ऊपर टूट पड़ा। इस समय अपने पैने बाणों से एक_दूसरे को व्यथित करते हुए वे महारथी प्रलयकालीन सूर्योंकेे समान जान पड़ते थे। कृतवर्मा ने महारथी शिखण्डी पर तिहत्तर  बाणों से वार करके फिर उसे सात बाणों द्वारा घायल कर डाला। इससे वह मूर्छित हो गया और उसके हाथ से धनुष_बाण गिर गये। यह देखकर उसका सारथि बड़ी फुर्ती से रथ को रणांगण के बाहर ले गया। शिखण्डी को रथ के पिछले भाग में अचेत पड़ा देखकर अन्य पाण्डववीरों ने कृतवर्मा को अपने रथों से घेर लिया; किन्तु इस समय कृतवर्मा ने बड़ा ही अद्भुत पराक्रम दिखाया। उसने अकेले ही उन सब वीरों को उनकी सेना के सहित परास्त कर दिया। पाण्डवों को जीतकर उसने पांचाल, सृंजय और केकयवीरों के भी दाँत खट्टे कर दिये। अन्त में कृतवर्मा की बाणवर्षा से व्यथित होकर वे सभी महारथी युद्ध का मैदान छोड़कर भाग गये।

सात्यकि का कौरवसेना में प्रवेश

संजय ने कहा___राजन् ! जब सात्यकि युद्ध करने के लिये आपकी सेना में घुसा तो अपनी सेना के सहित महाराज युधिष्ठिर ने सात्यकि का पीछा करते हुए द्रोणाचार्यजी को रोकने के लिये उनके रथ पर आक्रमण किया। उस समय रणोन्मत्त धृष्टधुम्न और राजा वसुदान ने पाण्डवों की सेना को पुकारकर कहा, ‘अरे ! आओ, आओ, जल्दी दौड़ो। शत्रुओं पर चोट करो, जिससे कि सात्यकि सहज ही में आगे बढ जायँ। देखो, अनेकों महारथी इन्हें परास्त करने का प्रयत्न कर रहे हैं।‘ ऐसा कहते हुए अनेकों महारथी बड़े वेग से हमारे ऊपर टूट पड़े तथा उन्हें पीछे हटाने के विचार से हमने उन पर आक्रमण किया। इसी समय सात्यकि के रथ की ओर बड़ा कोलाहल होने लगा। उस महारथी के बाणों की बौछार से आपके पुत्र की सेना के सैकड़ों टुकड़े हो गये और वह तितर_बितर हो इधर_उधर भागने लगी। उसके छिन्न_भिन्न होते ही सात्यकि ने सेना के मुहाने पर खड़े हुए सात वीरों को मार डाला। इसके बाद और भी अनेकों राजाओं को अपने अग्निसदृश बाणों से यमराज के घर भेज दिया। वह एक बाण से सैकड़ों वीरों को,और सैकड़ों बाणों से एक_एक वीर को बींध देता था। जिस प्रकार पशुपति पशुओं का संहार करते हैं, उसी प्रकार वह हाथीसवार और हाथियों को, घुड़सवार और घोड़ों को तथा सारथि और घोड़ोंके सहित रथों को चौपट कर रहा था। इस प्रकार फुर्तीले सात्यकि ने बाणों की झड़ी लगा दी थी, उस समय आपके सैनिकों में से किसी को भी उसके सामने जाने का साहस नहीं होता था। उसकी बाणवर्षा से घायल होकर वे ऐसे डर गये कि उसे देखते ही मैदान छोड़कर भागने लगे। सात्यकि के तेज से वेे ऐसे चक्कर में पड़ गये कि उस अकेले को ही अनेक रूपों में देखने लगे। वे जिधर जाते थे, उधर ही उन्हें सात्यकि दिखायी देता था। इस प्रकार आपके बहुत_से सैनिकों को मारकर और सेना को अत्यन्त छिन्न_भिन्न करके वह उसमें घुस गया। फिर जिस मार्ग से अर्जुन गये थे, उसी से उसने भी जाने का विचार किया। किन्तु इतने में ही द्रोण ने उसे आगे बढ़ने से रोका और पाँच मर्मभेदी बाणों से घायल कर दिया। इस पर सात्यकि ने भी आचार्य पर सात तीखे बाणों की चोट की। तब द्रोण ने सारथि और घोड़ों के सहित सात्यकि पर छः बाण छोड़े। आचार्य का यह पराक्रम सात्यकि सह न सका। उसने भीषण सिंहनाद करते हुए उन्हें क्रमशः दस, छः और आठ बाणों से घायल कर दिया। इसके बाद दस बाण छोड़े तथा एक से उनके सारथि को, चार से चारों घोड़ों को और एक से उनकी ध्वजा को बींध दिया। इस पर द्रोण ने बड़ी फुर्ती से टिड्डीदल के समान बाणों की वर्षा करके उसे सारथि, रथ, ध्वजा और घोड़ों के सहित एकदम ढक दिया। तब आचार्य ने कहा, ‘अरे ! तेरा गुरु तो कायरों की तरह मेरे सामने से युद्ध करना छोड़कर भाग गया था। मैं तो युद्ध में लगा हुआ था, इतने ही में वह मेरी प्रदक्षिणा करने लगा। अब तू यदि मेरे साथ युद्ध करता रहा तो जीता बचकर नहीं जा सकेगा।‘ सात्यकि ने कहा___’ब्रह्मन् ! आपका कल्याण हो। मैं तो धर्मराज की आज्ञा से अर्जुन के पास ही जा रहा हूँ। इसलिये यहाँ मेरा समय नष्ट नहीं होना चाहिये।  शिष्यों तो सर्वदा अपने गुरुओं के मार्ग का ही अनुकरण करते आये हैं। अतः जिस प्रकार मेरे गुरुजी गये हैं, उसी प्रकार मैं भी अभी जाता हूँ।‘
राजन् ! ऐसा कहकर सात्यकि द्रोणाचार्यजी को छोड़कर तुरंत ही वहाँ से चल दिया। उसे बढ़ते देख आचार्य को बड़ा क्रोध हुआ और वे अनेकों बाण छोड़ते हुए उसके पीछे दौड़े। किन्तु सात्यकि पीछे न लौटा। वह अपने पैने बाणों से कर्ण की विशाल वाहिनी को बींधकर कौरवों की अपार सेना में घुस गया। जब सेना इधर_उधर भागने लगी और सात्यकि उसके भीतर घुस गया तो कृतवर्मा ने उसे घूरा। उसे सामने आया देख सात्यकि ने चार बाणों से उसके चारों घोड़ों को घायल कर दिया और फिर सोलह बाणों से उसकी छाती पर वार किया  इसपर कृतवर्मा ने कुपित होकर सात्यकि की छाती में वत्सदन्त नाम का एक बाण मारा। वह उसके कवच और शरीर को छेदकर खून से लथपथ हो पृथ्वी में घुस गया। फिर उसने अनेकों बाणों से सात्यकि के धनुष और बाण भी काट डाले। सात्यकि ने तुरंत ही दूसरा धनुष चढ़ाया और उससे सहस्त्रों बाण छोड़कर कृतवर्मा और उसके रथ को बिलकुल ढक दिया। फिर एक भल्ल से उसके सारथि का सिर भी उड़ा दिया। सारथि न रहने से घोड़े भाग उठे। इससे कृतवर्मा भी घबराहट में पड़ गया। किन्तु थोड़ी ही देर में सावधान होकर उसने स्वयं ही घोड़ों की बागडोर संभाल ली और निर्भयतापूर्वक शत्रुओं को संतप्त करने लगा। इतने में ही सात्यकि कृतवर्मा की सेना से निकलकर काम्बोजसेना की ओर बढ़ गया। वहाँ भी अनेकों वीरों ने उसे आगे बढ़ने से रोका।

सात्यकि और द्रोण का युद्ध तथा राजा युधिष्ठिर का सात्यकि को अर्जुन के पास भेजना

धृतराष्ट्र ने पूछा___ संजय ! अब तुम मुझे यह वृतांत ठीक_ठीक सुनाओ कि संग्रामभूमि में द्रोणाचार्यजी को सात्यकि ने कैसे रोका था ?
संजय ने कहा___राजन् ! जब आचार्य ने देखा कि महापराक्रमी सात्यकि हमारी सेना को कुचल रहा है, तो वे स्वयं ही उसके सामने आकर डट गये। उन्हें सहसा अपने सामने आया देखकर सात्यकि ने उन पर पच्चीस बाण छोड़े। तब आचार्य ने बड़ी फुर्ती से उसे पाँच तीखे बाणों से बींध दिया। वे उसके कवच को फोड़कर फिर पृथ्वी पर जा पड़े। इससे सात्यकि ने कुपित होकर द्रोण को पचास बाणों से घायल कर दिया तथा आचार्य ने भी अनेकों बाणों से उसे बींध डाला। इस समय आचार्य की चोटों से वह ऐसा व्याकुल हो गया कि उसे अपना कर्तव्य भी नहीं सूझता था। उसका चेहरा उतर गया। यह देखकर आपके पुत्र और सैनिक प्रसन्न होकर बार_बार सिंहनाद करने लगे। उनका भीषण नाद सुनकर और सात्यकि को संकट में देखकर राजा युधिष्ठिर ने धृष्टधुम्न से कहा, ‘द्रुपदपुत्र ! तुम भीमसेन आदि सभी वीरों को साथ लेकर सात्यकि के रथ की ओर जाओ। तुम्हारे पीछे मैं भी सब सैनिकों को लेकर आता हूँ। इस समय सात्यकि की उपेक्षा मत करो, वह काल के जाल में पहुँच चुका है।‘ ऐसा कहकर राजा युधिष्ठिर सात्यकि की रक्षा के लिये सारी सेना लेकर द्रोणाचार्य पर चढ़ आये। किन्तु आचार्य अपनी बाणवर्षा से उन सभी महारथियों को पीड़ित करने लगे। उस समय पाण्डव और सृंजयवीरों को अपना कोई भी रक्षक दिखायी नहीं देता था। द्रोणाचार्य पांचाल और पाण्डवों की सेना के प्रधान_प्रधान वीरों की संहार कर रहे थे। उन्होंने सैकड़ों_हजारों पांचाल, सृंजय, मत्स्य और केकय वीरों को परास्त कर दिया। उनके बाणों से बिंधे हुए योद्धाओं का बड़ा आर्तनाद हो रहा था। उस समय देवता, गन्धर्व और पितरों के मुख से भी ये ही शब्द निकल रहे थे कि ‘देखो, ये पांचाल और पाण्डव महारथी अपने सैनिकों के सहित भागे जा रहे हैं।‘
जिस समय यह वीरों का संहार हो रहा था, उसी समय राजा युधिष्ठिर के कानों में पांचजन्य शंख की ध्वनि पड़ी। इससे वे उदास होकर विचारने लगे, ‘जिस प्रकार यह पांचजन्य की ध्वनि हो रही है और कौरव लोग हर्ष में भरकर बार_बार कोलाहल करते हैं, उससे मालूम होता है कि अर्जुन पर कोई आपत्ति आ पड़ी है।‘ इस विचार के उठने से उनका हृदय व्याकुल हो उठा और उन्होंने गद्गद् होकर सात्यकि से कहा, ‘शिनिपुत्र ! पूर्वकाल में सत्पुरुषों ने संकट के समय मित्र का जो धर्म निश्चय किया है, इस समय उसे दिखाने का अवसर आ गया है। मैं सब योद्धाओं की ओर देखकर विचार करता हूँ, तो तुमसे बढ़कर मुझे अपना कोई हितू दिखाई नहीं देता और मेरा ऐसा विचार है कि संकट के समय उसी से काम लेना चाहिये, जो अपने से प्रीति रखता हो और सर्वदा अपने अनुकूल भी रहता हो। तुम श्रीकृष्ण के समान पराक्रमी हो और उन्हीं की तरह पाण्डवों के आश्रय भी हो। अतः मैं तुम्हारे ऊपर एक भार रखना चाहता हूँ, उसे तुम ग्रहण करो। इस समय तुम्हारे बन्धु, सखा और गुरु अर्जुन पर संकट है; तुम संग्रामभूमि में उनके पास जाकर सहायता करो। जो पुरुष अपने मित्र के लिये जूझता हुआ प्राण त्याग देता है और जो ब्राह्मणों को पृथ्वीदान करता है, वे दोनों समान ही हैं। मेरी दृष्टि में मित्रों को अभय देनेवाले एक तो श्रीकृष्ण हैं और दूसरे तुम हो। वे भी मित्रों के लिये अपने प्राण समर्पण कर सकते हैं। देखो, जब एक पराक्रमी वीर विजयश्री की लालसा से संग्राम में जूझने लगता है तो वीर पुरुष ही उसकी सहायता कर सकता है, अन्य साधारण पुरुषों का यह काम नहीं है। अतः ऐसे भीषण युद्ध में अर्जुन की रक्षा करनेवाला तुम्हारे सिवा कोई नहीं है। अर्जुन ने भी तुम्हारे सैकड़ों कर्मों की प्रशंसा करते हुए मुझसे कई बार कहा था कि ‘सात्यकि मेरा मित्र और शिष्य है। मैं उसे प्रिय हूँ और वह मेरा प्यारा है। मेरे साथ रहकर वही कौरवों का संहार करेगा। उसके समान मेरा सहायक कोई दूसरा नहीं हो सकता।‘ जिस समय मैं तीर्थाटन करता हुआ द्वारका पहुँचा था, उस समय भी मैंने अर्जुन के प्रति तुम्हारा अद्भुत भक्तिभाव देखा था। इस समय द्रोण से कवच बँधवाकर दुर्योधन अर्जुन की ओर गया है।। दूसरे कई महारथी तो वहाँ पहले ही पहुँचे हुए हैं। इसलिये तुम्हें बहुत जल्द जाना चाहिये। भीमसेन और हम सब लोग सैनिकों के सहित तैयार खड़े हैं। यदि द्रोणाचार्य ने तुम्हारा पीछा किया तो हम उन्हें यहीं रोक लेंगे। देखो, हमारी सेना संग्रामभूमि से भागने लगी है। रथी, घुड़सवार और पैदल सेना के इधर_उधर भागने से सब ओर धूल उड़ रही है। मालूम होता है अर्जुन को सिंधुसौवीर देश के वीरों ने घेर लिया है। ये सब जयद्रथ के लिये अपने प्राण देने को तैयार हैं, इसलिये इन्हें परास्त किये बिना जयद्रथ को भी नहीं जीता जा सकेगा। आज महाबाहु अर्जुन ने सूर्योदय के समय कौरवों की सेना में प्रवेश किया था। अब दिन ढल रहा है। पता नहीं, अबतक वह जीवित भी है या नहीं। कौरवों की सेना समुद्र के समान अपार है, संग्राम में एकाएकी देवतालोग भी इसके सामने नहीं टिक सकते। इसमें अर्जुन ने अकेले ही प्रवेश किया है। उसकी चिंता के कारण आज युद्ध करने में मेरी बुद्धि कुछ भी काम नहीं कर रही है। जगत्पति श्रीकृष्ण तो दूसरों की भी रक्षा करनेवाले हैं। इसलिये उनकी मुझे कोई चिंता नहीं है। मैं तुमसे सच कहता हूँ, यदि तीनों लोक मिलकर भी श्रीकृष्ण से लड़ने आये तो उन्हें भी वे संग्राम में जीत सकते हैं; फिर इस धृतराष्ट्रपुत्र की अत्यंत  बलहीन सेना की तो बात ही क्या है ? किन्तु अर्जुन में यह बात नहीं है। उसे यदि बहुत से योद्धाओं ने मिलकर पीड़ा पहुँचायी तो वह प्राण छोड़ देगा। अत: जिस मार्ग से अर्जुन गया है, उसी से तुम भी बहुत जल्द उसके पास जाओ। आजकल वृष्णिवंशी वीरों में तुम और महाबाहु प्रद्युम्न___ दो ही अतिरथी समझे जाते हो। तुम अस्त्रसंचालन में साक्षात् नारायण के समान हो। अतः मैं तुम्हें जो काम सौंप रहा हूँ, उसे पूरा करो। इस समय प्राणों की परवा छोड़कर संग्रामभूमि में निर्भय होकर विचरो। भैया ! देखो, अर्जुन तुम्हारा गुरु है और श्रीकृष्ण तुम्हारे और अर्जुन दोनों के ही गुरु हैं। इस कारण से भी मैं तुम्हें जाने का आदेश दे रहा हूँ। तुम मेरे कथन को टाल मत देना; क्योंकि मैं भी तुम्हारे गुरु का गुरु हूँ और इसमें श्रीकृष्ण का, अर्जुन का और मेरा एक ही मत है। इसलिये तुम मेरी आज्ञा मानकर अर्जुन के पास जाओ।‘
धर्मराज के इस प्रेमयुक्त, मधुर, समयोचित और युक्तियुक्त कथन को सुनकर सात्यकि ने कहा, ‘राजन् ! आपने अर्जुन की सहायता के लिये मुझसे जो न्याययुक्त बात कही है, वह मैंने सुनी। वैसा करने से मेरा यश ही बढ़ेगा। अर्जुन के लिये मुझे अपने प्राणों को बचाने का तनिक भी लोभ नहीं है और आपकी आज्ञा होने पर तो इस संग्रामभूमि में ऐसा कौन काम है, जो मैं न करूँ। इस दुर्बल सेना का तो बात ही क्या, आपके कहने पर तो मैं देवता, असुर और मनुष्यों के सहित तीनों लोकों से संग्राम कर सकता हूँ। मैं आपसे सच कहता हूँ, आज इस दुर्योधन की सेना से मैं सभी ओर युद्ध करूँगा और इसे परास्त कर दूँगा।  मैं कुशलपूर्वक अर्जुन के पास पहुँच जाऊँगा और जयद्रथ का वध होने पर फिर आपके पास लौट आऊँगा। किन्तु मतिमान् अर्जुन और श्रीकृष्ण ने मुझसे जो बात कह रखी है, वह भी मैं आपकी सेवा में अवश्य निवेदन कर देना चाहता हूँ। अर्जुन ने सारी सेना के बीच में श्रीकृष्ण के सामने ही मुझसे बहुत जोर देकर कहा था कि ‘जबतक मैं जयद्रथ को मार आउँ, तबतक तुम बड़ी सावधानी से महाराज की रक्षा करना। मैं तुमपर या महारथी प्रद्युम्न पर ही महाराज की रक्षा का भार सौंपकर निश्चिन्तता से जयद्रथ के पास जा सकता हूँ। तुम द्रोण को जानते ही हो। वे कौरवपक्ष के सभी वीरों में श्रेष्ठ हैं। उन्होंने धर्मराज को पकड़ने की प्रतिज्ञा कर रखी है; अतः  वे इसी ताक में हैं और उन्हें पकड़ने की उनमें शक्ति भी है। परन्तु याद रखना, यदि किसी प्रकार सत्यवादी युधिष्ठिर उनके हाथ में पड़ गये तो हम सबको अवश्य ही पुनः वन में जाना पड़ेगा। इसलिये आज तुम विजय, कीर्ति और मेरी प्रसन्नता के लिये संग्रामभूमि में महाराज की रक्षा करते रहना।‘ राजन् ! इस प्रकार सव्यसाची पार्थ ने द्रोणाचार्य से  सर्वदा सशंक रहने को कारण आज आपकी रक्षा का भार मुझे सौंपा था। मुझे भी संग्रामभूमि में इनका सामना करनेवाला प्रद्युम्न के सिवा और कोई दिखाई नहीं देता। यदि आज यहाँ कृष्णकुमार प्रद्युम्नजी होते, तो मैं उन्हें आपकी रक्षा का भार सौंप देता और वे अर्जुन के समान ही आपकी रक्षा कर लेते; किन्तु अब यदि मैं चला जाऊँगा तो आपकी रक्षा कौन करेगा ? और अर्जुन की ओर से तो आप कोई चिंता न करें। ये कोई भी भार अपने ऊपर लेकर फिर उससे कभी नहीं घबराते।  आपने जिन सौवीर सिन्धुदेशीय, उत्तरीय और दक्षिणात्य योद्धाओं की बात कही हौ तथा जिन कर्ण आदि रथियों का नाम लिया है, वे सब तो रणांगण में कुपित हुए अर्जुन के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं हैं। यदि पृथ्वी के देवता, असुर, मनुष्य, राक्षस, किन्नर और नाग आदि चराचर जीव पार्थ से युद्ध करने को तैयार हो जायँ, तो वे सब भी उनके सामने नहीं ठहर सकते। इन सब बातों पर विचार करके आपको अर्जुन के विषय में आपको कोई आशंका नहीं करनी चाहिये। जहाँ महापराक्रमी वीरवर श्रीकृष्ण और अर्जुन हैं,  वहाँ काम में किसी प्रकार की अड़चन नहीं पड़ सकती। आप अपने भाई की दैवी शक्ति, शस्त्रकुशलता, योग, सहनशीलता, कृतज्ञता और दया पर ध्यान दीजिये और मैं उनके पास चला जाऊँगा जो उस समय द्रोणाचार्य जिन विभिन्न अस्त्रों का प्रयोग करेंगे, उनके विषय में भी विचार कर लीजिये। राजन् ! अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा के लिये आचार्य आपको पकड़ने को बहुत उत्सुक हैं। अतः आप अपने बचाव का उपाय कर लीजिये। यह सोच लीजिये कि मेरे जाने पर आपकी रक्षा कौन करेगा। यदि इस बात का मुझे पूरा भरोसा हो जाय तो मैं अर्जुन के पास जा सकता हूँ।‘ युधिष्ठिर बोले___ सात्यकि ! तुम जैसा कहते हो, ठीक ही है; किन्तु जब मैं अपनी रक्षा के लिये तुम्हें रखने और अर्जुन की सहायता के लिये भेजने के विषय में विचार करता हूँ तो मुझे तुम्हारा जाना ही अधिक अच्छा मालूम होता है। अतः अब तुम अर्जुन के पास पहुँचने का प्रयत्न करो। मेरी रक्षा तो,भीमसेन कर लेंगे। इसके सिवा भाइयों के सहित धृष्टधुम्न, अनेकों महाबली राजालोग, द्रौपदी के पुत्र, पाँच केकयराजकुमार, राक्षस घतोत्कच, विराट, द्रुपद, महारथी शिखण्डी, महाबली धृष्टकेतू, कुन्तिभोज, नकुल, सहदेव तथा पांचाल और सृंजयवीर भी सावधानी से मेरी रक्षा करेंगे। इसके कारण अपनी सेना के सहित द्रोण और कृतवर्मा मेरे पास तक पहुँचने या मुझे कैद करने में समर्थ नहीं होंगे। किनारा जैसे समुद्र को रोके रहता है, वैसे ही धृष्टधुम्न आचार्य को रोक देगा। इसने कवच, बाण, खड्ग, धनुष और आभूषण धारण किये द्रोण की नाश करने के लिये ही जन्म लिया है। इसलिये तुम इसके ऊपर पूरा भरोसा रखकर चले जाओ, किसी प्रकार की चिंता मत करो।
सात्यकि ने कहा___यदि आपके विचार से आपकी रक्षा का प्रबंध हो गया है तो मैं अर्जुन के पास अवश्य जाऊँगा और आपकी आज्ञा का पालन करूँगा। मैं सच कहता हूँ___तीनों लोकों में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है, जो मुझे अर्जुन से अधिक प्रिय हो तथा मेरे लिये जितना उनका वचन मान्य है, उससे भी अधिक आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। श्रीकृष्ण और अर्जुन___ ये दोनों भाई आपके हित में तत्पर रहते हैं और मुझे आप उनके प्रियसाधन में तत्पर समझिये। मैं अभी इस दुर्भेद्य सेना को पार कर पुरुषसिंह पार्थ के पास जाऊँगा। जिस स्थान पर उनसे भयभीत होकर जयद्रथ अपनी सेना के सहित अश्त्थामा, कृप और कर्ण की रक्षा में खड़ा है तथा पार्थ उसके वध करने के लिये गये हुए हैं, उसे मैं यहाँ से तीन योजन दूर समझता हूँ, तो भी मुझे पूरा भरोसा है कि मैं जयद्रथ का वध होने से पहले ही उनके पास पहुँच जाऊँगा। अब आप आज्ञा दे रहे हैं तो मुझ सरीखा कौन पुरुष है जो युद्ध न करेगा ? राजन् ! जिस स्थान पर मुझे जाना है, उसका मुझे अच्छी तरह पता है। मैं हल, शक्ति, गदा, प्रास,ढाल, तलवार,ऋष्टि, तोमर, बाण तथा अन्यान्य अस्त्र_शस्त्र से भरे हुए इस सैन्यसमुद्र को झकझोर डालूँगा। इसके पश्चात् महाराज युधिष्ठिर की आज्ञा से सात्यकि अर्जुन से मिलने के लिये आपकी सेना में घुस गया।