Tuesday 30 June 2015

आदिपर्व-बकासुर का वध


बकासुर का वध

कुछ रात बीत जाने पर भीमसेन राक्षस का भोजन लेकर बकासुर के वन में गये और वहाँ उसका नाम ले-लेकर पुकारने लगे। वह राक्षस विशालकाय, वेगवान् और बलशाली था। उसकी आँखें लाल, दाढी-मूँछ लाल, कान नुकीले, मुँह कान तक फटा था। देखकर डर लगता था। भीमसेन की आवाज सुनकर वह तमतमा उठा। वह भौंहें टेढी करके दाँत पीसता हुआ इस प्रकार भीमसेन की ओर दौड़ा मानो धरती फाड़ डालेगा। उसने वहाँ आकर देखा तो भीमसेन उसके भाग का अन्न खा रहे हैं। वह क्रोध से आग-बबूला हो आँखें फाड़कर बोला, अरे यह दुर्बुद्धि कौन है, जो मेरे सामने ही मेरा अन्न निगलता जा रहा है। क्या यह यमपुरी जाना चाहता है। भीमसेन हँस पड़े। उसकी कुछ भी परवा न करके मुँह फेर लिया और खाते रहे। वह दोनो हाथ उठाकर भयंकर नाद करता हुआ उन्हें मार डालने के लिये टूट पड़ा। फिर भी भीमसेन उसका तिरस्कार कर खाते ही रहे। उसने भीमसेन की पीठ पर दोनो हाथों से दो घूँसे कसकर जमाये। फिर भी वे खाते ही रहे। अब बकासुर और भी क्रोधित हो एक वृक्ष उखारकर उनपर झपटा। भीमसेन धीरे-धीरे खा-पीकर, हाथ-मुँह धोकर हँसते हुये डटकर खड़े हो गये। राक्षस ने उनपर जो वृक्ष चलाया, उसे उ्होंने बाँयें हाथ से पकड़ लिया।अब दोनो ओर से वृक्षों की मार होने लगी। घमासान लड़ाई हुई। वन के वृक्षों का विनाश सा हो गया। बक ने दौड़कर भीमसेन को पकड़ा। वे उसे हाथों में कसकर घसीटने लगे। जब वह थक गया तब भीमसेन ने जमीन में पटककर घुटनों से रगड़ने लगे। उसकी गर्दन पकड़कर दबा दी और उसकी कमर तोड़ डाली। उसके मुँह से खून गिरने लगा तथा हड्डी-पसली टूट जाने से प्राण-पखेरू उड़ गये। बकासुर की चिल्लाहट से उसके परिवार के राक्षस डर गये और अपने सेवकों के साथ बाहर निकल आये। भीमसेन ने उन्हें डर से अचेत देखकर ढाढस बँधाया और उनसे यह शर्त करायी कि अब तुमलोग कभी मनुष्य को न सताना। यदि भूल से भी ऐसा किया तो इसी प्रकार तुम्हे भी मरना पड़ेगा। राक्षसों ने भीमसेन की बात स्वीकार कर ली। भीमसेन बकासुर की लाश लेकर नगर के द्वार पर आये और वहाँ उसे पटक-कर चुपचाप चले गये। तभी से नागरिकों को कभी राक्षसों के उपद्रव का अनुभव नहीं हुआ। बकासुर के परिवारवाले भी इधर-उधर भाग गये। भीमसेन ने ब्राह्मण के घर जाकर युधिष्ठिर से वहाँ की सब घटना कह दी। इधर नगरवासी प्रातःकाल उठकर बाहर निकले तो देखते हैं कि वह पहाड़ के समान राक्षस खून से लथपथ होकर जमीन पर पड़ा है। उसे देखकर सबके रोंगटे खड़े हो गये। बात-की-बात में यह समाचार चारों ओर फैल गया। हजारों नागरिक जिसमें बड़े-बूढे और स्त्रियाँ भी थीं, उसे देखने के लिये आये। सबने यह अलौकिक कर्म देखकर आश्चर्य प्रकट किया। लोगों ने पता लगाया कि आज किसकी बारी थी। फिर ब्राह्मण के पास जाकर पूछताछ की। ब्राह्मण ने यह घटना छिपाते हुए कहा, आज मेरी बारी थी। इसलिये मैं अपने परिवार के साथ रो रहा था। तभी एक मंत्रसिद्ध ब्राह्मण ने मेरे दुःख का कारण पूछा और प्रसन्नतापूर्वक मुझे विश्वास दिलाकर बोला कि मैं उस राक्षस को अन्न पहुँचा दूँगा। वे ही राक्षस का भोजन लेकर गये थे। अवश्य ही यह उन्हीं का काम है। सभी इस घटना से प्रसन्न होकर सुख से निवास करने लगे।      

आदिपर्व-आर्त ब्राह्मण परिवार पर कुन्ती की दया

आर्त ब्राह्मण परिवार पर कुन्ती की दया

युधिष्ठिर आदि पाँचों भाई अपनी माता कुन्ती के साथ एकचक्र नगरी में रहकर तरह-तरह के दृश्य देखते हुये विचरने लगे। वे भिक्षावृति से अपना जीवन-निर्वाह करते थे। नगरनिवासी उनके गुणों से मुग्ध होकर उनसे बड़ा प्रेम करने लगे। वे सायंकाल होने पर दिनभर की भिक्षा लाकर माता के पास रख देते थे।माता की अनुमति से आधा भीमसेन खाते और आधे में सब लोग। इस प्रकार बहुत दिन बीत गये। एक दिन और सब लोग तो भिक्षा के लिये चले गये थे,परन्तु किसी कारणवश भीमसेन माता के पास ही रह गये थे।उसी दिन ब्राहण के घर करुण क्रंदन होने लगा।यह सुनकर कुन्ती का सौहार्दपूर्ण हृदय दया से द्रवित हो गया। उन्होंने भीमसेन से कहा,बेटा,हमलोग ब्राहण के घर में रहते हैं और ये हमारा बहुत सत्कार करते हैं। मैं प्रायः यह सोचा करती हूँ कि इस ब्राह्मण का कुछ-न-कुछ उपकार करना चाहिये। कृतज्ञता ही मनुष्य का जीवन है। जितना कोई अपना उपकार करे, उससे बढकर उसका करना चाहिये। अवश्य ही इस ब्राह्मण पर कोई विपत्ति आ पड़ी है।यदि हम इसकी कुछ सहायता कर सकें तो उऋण हो जायँ। भीमसेन ने कहा,माँ,तुम ब्राह्मण के दुःख और दुःख के कारण का पता लगाओ।मैं उनके लिये कठिन-से-कठिन काम करूँगा।कुन्ती जल्दी से ब्राह्मण के घर गयी। उन्होंने देखा कि ब्राह्मण अपनी पत्नी और पुत्र के साथ मुँह लटकाकर बैठा है और कह रहा है----धिक्कार है मेरे इस जीवन को,क्योंकि यह सारहीन, व्यर्थ, दुःखी और परधीन है। जीव अकेला ही धर्म, अर्थ और काम का भोग करना चाहता है। इसका वियोग होना ही उसके लिये महान दुःख है। अवश्य ही मोक्ष सुखस्वरुप है। परन्तु मेरे लिये उसकी कोई सम्भावना नहीं है। इस आपत्ति से छूटने का न तो कोई उपाय दीखता है और न मैं अपनी पत्नी और पुत्र के साथ भाग सकता हूँ। तुम मेरी जितेन्द्रिय एवं धर्मात्मा सहचरी हो। देवताओं ने तुम्हे मेरी सखी और सहारा बना दिया है। मैंने मंत्र पढकर तुमसे विवाह किया है। तुम कुलीन शीलवती और बच्चों की माँ हो। तुम सती-साध्वी और मेरी हितैषिणी हो। राक्षस से अपने जीवन की रक्षा के लिये मैं तुम्हे उसके पास नहीं भेज सकता। पति की बात सुनकर ब्राह्मणि ने कहा, स्वामी, आप सधारण मनुष्य के समान शोक क्यों कर रहे हैं। एक-न-एक दिन सभी मनुष्यों को मरना ही पड़ता है। फिर इस अवश्यमभावी बात के लिये शोक क्यों किया जाय। पत्नी, पुत्र अथवा पुत्री सब अपने ही लिये होते हैं। आप विवेक के बल से चिन्ता छोड़िये। मैं स्वयं उसके पास चली जाऊँगी। पत्नी के लिये सबसे बढकर यही सनातन कर्तव्य है कि वह प्राणों को न्योछावर करके पति की भलाई करे। आप राक्षस के भोजन के लिये मुझे ही जाने दें। माँ-बाप की दुःखभरी बात सुनकर कन्या बोली, आपलोग दुःखी न हों। धर्म के अनुसार आपलोग मुझे एक-न-एक दिन तो छोड़ ही देंगे। इसलिये आज ही मुझे छोड़कर अपनी रक्षा क्यों नहीं कर लेते। कन्या की बात सुनकर माँ-बाप रोने लगे। सबको रोते देखकर नन्हा ब्राह्मण-शिशुने एक तिनका उठाकर हँसते हुए कहा, मैं इसी से राक्षस को मार डालूँगा। बच्चे की इस बात से इस दुःख की घड़ी में तनिक प्रसन्नता प्रफुल्लित हो उठी। कुन्ती यह सब देख-सुन रही थी। वे अपने को प्रकट करने का अवसर देखकर पास चली गयीं और मुर्दों पर मानो अमृत की धारा उड़ेलते हुए बोलीं, ब्राह्मण देवता आपके दुःख का क्या कारण है। उसे जानकर यदि हो सकेगा तो मिटाने की चेष्टा करूँगी। ब्राह्मण ने कहा, तपस्विनी आपकी बात सज्जनों के अनुरूप है। परन्तु मेरा दुःख मनुष्य नहीं मिटा सकता। इस नगर के पास ही एक बक नाम का राक्षस रहता है। उस बलवान् राक्षस के लिये एक गाड़ी अन्न तथा दो भैंसें प्रतिदिन दिये जाते हैं। जो मनुष्य लेकर जाता है उसे भा वह खा जाता है। प्रत्येक गृहस्थ को यह काम करना पड़ता है। परन्तु इसकी बारी बहुत वर्षों के बाद आती है।जो उससे छूटने का यत्न करते हैं वह उनके सारे कुटुम्ब को खा जाता है। यहाँ का राजा यहाँ से थोड़ी दूर वेत्रकीयगृह नाक स्थान में रहता है। वह अन्यायी हो गया है और इस विपत्ति में प्रजा की रक्षा नहीं करता। आज हमारी बारी आ गयी है। मुझे उसके भोजन के लिये अन्न और एक मनुष्य देना पड़ेगा। मेरे पास इतना धन नहीं है कि किसी को खरीदकर दे दूँ। कुन्ती ने कहा, आप न डरें और न शोक करें, उससे छुटकारे का उपाय मैं समझ गई। आपके तो एक ही पुत्र और एक ही कन्या है। आप दोनो में से किसी का जाना भी मुझे ठीक नहीं लगता। मेरे पाँच लड़के हैं, उनमें से एक पापी राक्षस का भोजन लेकर चला जायगा । ब्राह्मण ने कहा, मैं अपने जीवन के लिये अतिथी की हत्या नहीं कर सकता। अवश्य ही आप बड़ी कुलीन और धर्मात्मा हैं, तभी तो हमलोगों की रक्षा के लिये अपने पुत्र का भी त्याग करना चाहती हैं। मैं अपने -आप तो मरना चाहता नहीं। दूसरा कोई मुझे मार डालता है तो इसका पाप मुझे नहीं लगेगा। चाहे कोई भी हो जो अपने घर आया, शरण में आया, जिसने रक्षा की याचना की, उसे मरवा डालना बड़ी नृशंसता है। आपत्तिकाल में भी निंदित और क्रूर कर्म नहीं करना चाहिये। मैं स्वयं अपनी पत्नी के साथ मर जाऊँ वह श्रेष्ठ है। कुन्ती ने कहा, मेरा यह दृढ निश्चय है कि मुझे आपलोगों की रक्षा करनी है। मैं अपने पुत्र का अनिष्ट नहीं चाहती हूँ। परंतु बात यह है कि राक्षस मेरे बलवान्, मंत्रसिद्ध और तेजस्वी पुत्र का अनिष्ट नहीं कर सकता। वह राक्षस को भोजन पहुँचाकर भी अपने को छुड़ा लेगा, ऐसा मेरा दृढ निश्चय है। अबतक न जाने कितने बलवान और विशालकाय राक्षस इसके हाथों मारे गये हैं। एक बात है, इसकी सूचना आप किसी को न दें, क्योंकि लोग यह विद्या जानने के लिये मेरे पुत्रों को तंग करेंगे। कुन्ती की बात से ब्राह्मण-परिवार को बड़ी प्रसन्नता हुई। कुन्ती ने ब्राह्मण के साथ जाकर भीमसेन से कहा कि,तुम यह काम कर दो। भीमसेन ने बड़ी प्रसन्नता के साथ माता का बात स्वीकार कर ली। जिस समय भीमसेन ने यह काम करने की प्रतीज्ञा की, उसी समय युधिष्ठिर आदि भिक्षा लेकर लौटे। युधिष्ठिर ने भीमसेन के आकार से ही सबकुछ समझ लिया। उन्होंने एकान्त में बैठकर अपनी माता से पूछा, माँ, भीमसेन क्या करना चाहते हैं। यह उनकी स्वतंत्र इच्छा है या आपकी आज्ञा। कुन्ती बोली, मेरी आज्ञा। युधिष्ठिर ने कहा, माँ, आपने दूसरे के लिये अपने पुत्र को संकट में डालकर बड़े साहस का काम किया है। कुन्ती ने कहा, बेटा, भीमसेन की चिन्ता मत करो। मैने विचार की कमी से ऐसा नहीं किया है। हमलोग यहाँ इस ब्राह्मण के घर में आराम से रहते हैं। उससे उऋण होने का यही उपाय है। मनुष्य-जीवन की सफलता इसी में हैं कि वह कभी उपकारी के उपकार को न भूले। उसके उपकार से भी बढकर उसका उपकार कर दे। भीमसेन पर मेरा विश्वास है। पैदा होते ही वह मेरी गोद से गिरा था। उसके शरीर से टकराकर चट्टान चूर-चूर हो गयी। मेरा निश्चय विशुद्ध धार्मिक है। इसका प्रत्युपकार तो होगा ही, धर्म भी होगा। युधिष्ठिर बोले, माता, आपने जो कुछ सझ-बूझकर किया है, वह सब उचित है। अवश्य ही भीमसेन राक्षस को मार डालेंगे।          

आदिपर्व-हिडिम्बा के साथ भीमसेन का विवाह, घतोत्कच की उत्पत्ति और पाण्डवों का एकचक्र नगरी में प्रवेश

हिडिम्बा के साथ भीमसेन का विवाह, घतोत्कच की उत्पत्ति और पाण्डवों का एकचक्र नगरी में प्रवेश

राक्षसी को पीछे आते देख भीम ने कहा, हिडिम्बे, मैं जानता हूँ कि राक्षस मोहिनी माया के सहारे पहले वैर का बदला लेते हैं। इसलिये जा, तू भी अपने भाई का रास्ता नाप। युधिष्ठिर ने कहा, राम, राम, क्रोधवश होकर भी स्त्री पर हाथ नहीं छोड़ना चाहिये। हमारे शरीर की रक्षा से भी बढकर धर्म की रक्षा है। तुम धर्म की रक्षा करो। जब इसके भाई को तुमने मार डाला, तब यह हमलोगों का क्या बिगाड़ सकती है। इसके बाद हिडिम्बा कुन्ती और युधिष्ठिर को प्रणाम करके हाथ जोड़कर कुन्ती से बोली, आर्ये, मैने अपने सगे-सम्बन्धी, कुटुम्बी और धर्म को तिलांजली देकर आपके पुत्र को पति के रुपमें वरण किया है। मैं आप और आपके पुत्र दोनो की स्वीकृति प्राप्त करने योग्य हूँ। यदि आपलोग मुझे स्वीकार न करेंगे तो मैं अपने प्राण त्याग दूँगीयह बात मैं सत्य-सत्य शपथपूर्वक कहती हूँ। आप मुझपर कृपा कीजिये। मैं, मूढ, भक्त या सेवक जो कुछ हूँ, आपकी हूँ। मैं आपके पुत्र को लेकर जाऊँगी और थोड़े ही दिनों में लौट आऊँगी। आप मेरा विश्वास कीजिये। जब आपलोग याद करेंगे, मैं आ जाऊँगी। आप जहाँ कहेगे पहँचा दूँगी। बड़ी-से-बड़ी कठिनाई और आपत्ति के समय मैं आपलोगों को बचाऊँगी। आपलोग कहीं जल्दी पहुँचना चाहें तो मैं पीठ पर ढोकर शीघ्र-से-शीघ्र पहुँचा दूँगी। जो आपत्तकाल में भी अपने धर्म की रक्षा करता है, वह श्रेष्ठ धर्मात्मा है। युधिष्ठिर ने कहा, हिडिम्बे, तुम्हारा कहना ठीक है। सत्य का कभी उल्लंघन मत करना। प्रतिदिन सूर्यास्त के पूर्व तक तुम पवित्र होकर भीमसेन की सेवा में रह सकती हो। भीमसेन दिनभर तुम्हारे साथ रहेंगे, सायंकाल होते ही तुम इन्हें मेरे पास पहुँचा देना। राक्षसी के स्वीकार कर लेने पर भीमसेन ने कहा, मेरी एक प्रतिज्ञा है, जबतक पुत्र नहीं होगा, तभी तक मैं तुम्हारे साथ जाया करुँगा। पुत्र हो जाने पर नहीं। हिडिम्बा ने यह भी स्वीकार कर लिया। इसके बाद वह भीमसेन को साथ लेकर आकाशमार्ग से उड़ गयी। अब हिडिम्बा अत्यंत सुन्दर रुप धारण करके दिव्य आभूषणों से आभूषित हो मीठी-मीठी बातें करती हुईं पहाड़ों की चोटियों पर, जंगलों में, तालाबों में, गुफाओं में और दिव्य भूमियों में भीमसेन के साथ विहार करने लगी। समय आने पर उसे एक पुत्र हुआ। विकट नेत्र, विशाल मुख, नुकीले कान, भीषण शब्द, लाल होंठ, बड़ी-बड़ी बाँहें, विशाल शरीर, अपरिमित शक्ति और मायाओं का खजाना। वह क्षणभर में ही बड़े-बड़े राक्षसों से भी बढ गया और तत्काल ही जवान, सर्वस्त्रविद् और वीर हो गया। हिडिम्बा के बालक के सिर पर बाल नहीं थे। उसने धनुष धारण किये माता-पिता के पास आकर प्रणाम किया। माता-पिता ने उसके घट अर्थात् सिर को उत्कच यानि केशहीन देखकर उसका घतोत्कच नाम रख दिया। घतोत्कच पाण्डवों के प्रति बड़ी ही श्रद्धा और प्रेम रखता और वे भी उसके प्रति बड़ा स्नेह रखते। हिडिम्बा ने सोचा कि अब भीमसेन की प्रतीज्ञा का समय पूरा हो गया। इसलिये वह वहाँ से चली गयी। घतोत्कच ने माता कुन्ती और पाण्डवों को नमस्कार करके कहा, आपलोग हमारे पूजनीय हैं। आप निःसंकोच बताइये कि मैं आपकी क्या सेवा करूँ। कुन्ती ने कहा, बेटा तू कुरुवंश में उत्पन्न हुआ है और स्वयं भीमसेन के समान है। इन पाँचों के पुत्रों मे तू सबसे बड़ा है। इसलिये समय पर इनकी सहायता करना। कुन्ती के इस प्रकार कहने पर घतोत्कच ने कहा, मैं रावण और इन्द्रजीत के सामन पराक्रमी तथा विशालकाय हूँ। अब आपलोगों को कोई आवश्यकता हो तो मेरा स्मरण करें। मैं आ जाऊँगा। यह कहकर उसने उत्तर की ओर प्रस्थान किया। देवराज इन्द्र ने कर्ण की शक्ति का आघात सहन करने के लिये घतोत्कच को उत्पन्न किया था। आगे चलकर पाण्डवों ने सिर पर जटाएँ रख लीं और वृक्षों की छाल तथा मृगचर्म पहन लिये। इस प्रकार तपस्वियों का वेष धारण करके वे अपनी माता के साथ विचरने लगे। कहीं-कहीं माता को पीठ चढा लेते तो कहीं धीरे-धीरे मौज से चलते। एक बार वे शास्त्रों के स्वाध्याय में लग रहे थे, उसी समय भगवान् श्रीवेदव्यास उनके पास आये। उन्होंने कहा, युधिष्ठिर मुझे तुमलोगों की यह विपत्ति पहले ही मालूम हो गयी थी। मैं जानता था कि दुर्योधन आदि ने अन्याय करके तुम्हे राजधानी से निर्वासित कर दिया है। मैं तुमलोगों का हित करने के लिये ही आया हूँ। तुम इस विषादमयी परिस्थिति से दुःखी मत होना। यह सब तुम्हारे सुख के लिये ही हो रहा है। इसमें सन्देह नहीं कि मेरे लिये तुमलोग और धृतराष्ट्र के लड़के समान ही हैं फिर भी तुमलोगों की दीनता और बचपन देखकर अधिक स्नेह होता है। इसलिये मैं तुम्हारे हित की बात कहता हूँ। यहाँ से पास ही एक बड़ा रमणीय नगर है। वहाँ तुमलोग छिपकर रहो और मेरे आने की बाट जोहो। पाण्डवों को इस प्रकार आश्वासन देकर और उन्हें साथ लेकर वे एकचक्र नगरी की ओर चले। वहाँ पहुँचकर उन्होंने कुन्ती से कहा, कल्याणी, तुम्हारे पुत्र युधिष्ठिर बड़े धर्मात्मा हैं। वे धर्म के अनुसार सारी पृथ्वी जीतकर समस्त राजाओं पर शासन करेंगे। तुम्हारे और माद्री के सभी पुत्र महारथी होंगे और अपने राज्य में बड़ी प्रसन्नता के साथ जीवन निर्वाह करेंगे। व्यासजीने इस प्रकार कहकर कुन्ती और पाण्डवों को एक ब्राहमण के घर में ठहरा दिया और जाते-जाते कहा, एक महीने बाद मैं आऊँगा।  



Wednesday 24 June 2015

आदिपर्व-हिडिम्बासुर का वध


हिडिम्बासुर का वध
जिस वन में वे सो रहे थे वहाँ एक शाल-वृक्ष था। उसपर हिडिम्बासुर बैठा हुआ था। वह बड़ा क्रूर,पराक्रमी एवं माँसभक्षी था। उसके शरीर का रंग एकदम काला, आँखें पीली एवं आकृति बड़ी भयानक थी। दाढी-मूँछ और सिर के बाल लाल-लाल थे। बड़ी-बड़ी डाढों के कारण उसका मुख अत्यंत भीषण था। उस समय उसे भूख लगी थी। मनुष्य की गन्ध पाकर उसने पाण्डवों को देखा और फिर अपनी बहिन हिडिम्बा से कहा,बहिन आज बहुत दिनों बाद मुझे अपना प्रिय मनुष्य मांस मिलने का सुयोग दीखता है। जीभ पर बार-बार पानी आ रहा है। आज मैं अपनी डाढें इनके शरीर में डुबा दूँगा और ताजा-ताजा गरम खून पीऊँगा। तुम इन मनुष्यों को मारकर मेरे पास ले आओ।तब हम दोनो इन्हें खायेंगे और ताली बजा-बजाकर नाचेंगे। अपने भाई की आज्ञा मानकर वह राक्षसी बहुत जल्दी-जल्दी पाण्डवों के पास पहुँची। उसने जाकर देखा कि कुन्ती और युधिष्ठिर आदि सो रहे हैं, लेकिन महाबली भीमसेन जग रहे हैं। भीमसेन विशाल शरीर और परम सुन्दर रुप को देखकर हिडिम्बा का मन बदल गया और वह सोचने लगी--इनका वर्ण श्याम है, बाँहें लम्बी हैं, सिंह के समान कंधे हैं, शंख की तरह गर्दन और कमल से सुकुमार नेत्र हैं। रोम-रोम में छवि छिटक रही है। अवश्य ही ये मेरे पति होने योग्य हैं। मैं अपने भाई की क्रूरतापूर्ण बात नहीं मानूँगी। क्योंकि भातृ-प्रेम से बढकर पति-प्रेम है। यदि इन्हें मारकर खाया जाय तो थोड़ी देर तक हम दोनो तृप्त रह सकते हैं, परन्तु इनको जीवित रखकर मैं बहुत वर्षों तक सुख कर सकती हूँ। यह सोचकर हिडिम्बा ने मानुषी स्त्री का रुप धारण किया और धीरे-धीरे भीमसेन के पास गयी। दिव्य गहने और वस्त्रों से भूषित सुन्दरी हिडिम्बा ने कुछ संकोच के साथ मुस्कराते हुए पूछा, आप कौन हैं और कहाँ से आये हैं। ये लोग इस घोर जंगल में घर की तरह निःशंक होकर सो रहे हैं। इन्हें पता नहीं कि इसमें बड़े-बड़े राक्षस रहते हैं और हिडिम्ब राक्षस तो पास ही है। मैं उसी की बहिन हूँ। आपलोगों का माँस खाने की इच्छा से ही उसने मुझे यहाँ भेजा है। मैं आपके देवोपम सौन्दर्य को देखकर मोहित हो गयी हूँ। मैं आपसे शपथपूर्वक सत्य कहती हूँ कि आपके अतिरिक्त और किसी को अब अपना पति नहीं बना सकती। आप धर्मज्ञ हैं। जो उचित समझें करें।मैं आपसे प्रेम करती हूँ। आप भी मुझसे प्रेम कीजिये। मैं इस नरभक्षी राक्षस से आपकी रक्षा करूँगी और हम दोनों सुख से पर्वतों की गुफा में निवास करेंगे। मैं स्वेच्छानुसार आकाश में विचर सकती हूँ। आप मेरे साथ अतुलनीय आनंद का उपभोग कजिेये। भीमसेन ने कहा, अरी राक्षसी, मेरी माँ, बड़े भाई और छोटे भाई सुख से सो रहे हैं। मैं इन्हें तो छोड़कर राक्षस का भोजन बना दूँ और तेरे साथ चलूँ। यह भला कैसे हो सकता है। हिडिम्बा ने कहा, आप जैसे प्रसन्न होंगे, मैं वही करूँगी। आप इन लोगों को जगा दीजिये, मैं राक्षस से बचा लूँगी। मैं अपने सुख से सोये हुये भाइयों और माँ को दुरात्मा राक्षस के भय से जगा दूँ। जगत् का कोई भी राक्षस और गन्धर्व मेरे सामने ठहर नहीं सकता। सुन्दरी, तुम जाओ या रहो, मुझे इसकी कोई परवा नहीं है। उधर राक्षसराज हिडिम्ब ने सोचा कि मेरी बहिन को गये बहुत देर हो गयी। इसलिये उस वृक्ष से उतरकर वह पाण्डवों की ओर चला। उस भयंकर राक्षस को आते देखकर हिडिम्बा ने भीमसेन ने कहा, देखिये, देखिये, यह राक्षस क्रोधित होकर इधर आ रहा है। आप मेरी बात मानिये। मैं स्वेच्छानुसार चल सकती हूँ। मुझमें राक्षसबल भी है। मैं आपको और इन सबको लेकर आकाशमार्ग से उड़ चलूँगी। भीमसेन बोले, सुन्दरी तुम डरो मत, मेरे रहते कोई राक्षस इनका बाल भी बाँका नहीं कर सकता। मैं तेरे सामने उसे मार डालूँगा। देख मेरी यह बाँह और मेरी यह जाँघ। यह क्या, कोई भी राक्षस इनसे घिस जायगा। मुझे मनुष्य समझकर तू मेरा तिरस्कार न कर। इस तरह की बातें हो ही रही थी कि उन्हें सुनता हुआ हिडिम्ब वहाँ आ पहुँचा। उसने देखा कि मेरी बहिन तो मनुष्यों का सा सुन्दर रुप धारणकर खूब बन-ठन और सज-धज कर भीमसेन को अपना पति बनाना चाहती है। वह क्रोध से तिलमिला उठा और बड़ी-बड़ी आँखें फड़कर कहने लगा, अरे हिडिम्बा, मैं इनका माँस खाना चाहता हूँ और तू इसमें विघ्न डाल रही है। धिक्कार है तूने हमारे कुल में कलंक लगा दिया। जिनके सहारे तूने इतनी हिम्मत की है, देख मैं तेरे सहित उन्हें अभी मार डालता हूँ। यह कहकर हिडिम्ब दाँत पीसता हुआ अपनी बहिन और पाण्डवों की ओर झपटा। भीमसेन ने उसे आक्रमण करते देखकर डाँटते हुए कहा, ठहर जा, ठहर जा, मूर्ख तू इन सोते हुए भाइों को क्यों जगाना चाहता है। तेरी बहिन ने ही ऐसा क्या अपराध कर दिया है। हिम्मत हो तो मेरे सामने आ। तेरे लिये मैं अकेला ही काफी हूँ, तू स्त्री पर हाथ न उठा। भीमसेन ने बलपूर्वक हँसते हुए उसका हाथ पकड़ लिया और उसको वहाँ से बहुत दूर घसीट ले गये। इसी प्रकार एक-दूसरे को कसकते-मसकते तनिक और दूर चले गये और वृक्ष उखाड़- उखाड़कर गरजते हुए लड़ने लगे। उनकी गर्जना से कुन्ती और पाण्डव की नींद खुल गयी। उनलोगों ने आँख खुलते ही देखा कि सामने परम सुन्दरी हिडिम्बा खड़ी है। उसके रुप सौन्दर्य से विस्मित होकर कुन्ती ने बड़ी मिठास के साथ धीरे-धीरे कहा, सुन्दरी तुम कौन हो, यहाँ किसलिये आई हो। हिडिम्बा ने कहा, यह जो काला-काला घोर जंगल है वही मेरा और मेरे भाई हिडिम्ब का वास-स्थान है। उसने मुझे तुमलोगों को मार डालने के लिये भेजा था।यहाँ आकर मैंने तुम्हारे परम सुन्दर पुत्र को देखा और मोहित हो गयी। मैने मन-ही-मन उनको अपना पति मान लिया और उन्हें यहाँ से ले जाने की चेष्टा की, परन्तु वे विचलित नहीं हुए। मुझे देर करते देख मेरा भाई स्वयं यहाँ चला आया और उसे तुम्हारा पुत्र घसीटते हुए बहुत दूर ले गये हैं। देखो, इस समय वे दोनो गरजते हुए एक-दूसरे को रगड़ रहे हैं। हिडिम्बा की यह बात सुनते ही चारों पाण्डव उठकर खड़े हो गये और देखा कि दोनो एक-दूसरे को परास्त करने की अभिलाषा से भिड़े हुए हैं। भीमसेन को कुछ दबते देखकर अर्जुन ने कहा, भाईजी, कोई डर नहीं। नकुल और सहदेव माँ की रक्षा करते हैं। मैं अभी इस राक्षस को मार डालता हूँ। भीमसेन बोले भैया अर्जुन, चुपचाप खड़े रहकर देखो, घबराओ मत। मेरी बाँहों के भीतर आकर यह बच नहीं सकता। अब भीमसेन ने क्रोध से जल-भुनकर आँधी की तरह झपटकर उसे उठा लिया और अंतरिक्ष में सौ बार घुमाया। भीमसेन ने कहा, रे राक्षस, तू व्यर्थ के मांस से झूठ-मूठ इतना हट्ठा-कट्ठा हो गया था। तेरा बढना व्यर्थ और तेरा विचरना व्यर्थ। जब तेरा जीवन ही व्यर्थ है। इस प्रकार कहकर भीमसेन ने उसे जमीन पर दे मारा। उसके प्राण-पखेरू उड़ गये। अर्जुन ने भीमसेन का सत्कार करके कह, भाईजी यहाँ से वारणावत नगर कुछ बहुत दूर नहीं है। चलिये यहाँ से जल्दी निकल चलें। कहीं दुर्योधन को हमारा पता न चल जाय। इसके बाद माता के साथ सब लोग वहाँ से चलने लगे। हिडिम्बा राक्षसी भी उनके पीछे-पीछे चल रही थी । 

Tuesday 23 June 2015

आदिपर्व-पाण्डवों का गंगापार होना,कौरवों के द्वारा उनकी अन्त्येष्टिक्रिया और वन में भीमसेन का विषाद

पाण्डवों का गंगापार होना,कौरवों के द्वारा उनकी अन्त्येष्टिक्रिया और वन में भीमसेन का विषाद

उसी समय विदुर का भेजा एक विश्वासपात्र मनुष्य पाण्डवों के पास आया। उसने पाण्डवों को विदुर का बतलाया हुआ संकेत सुनाया और कहा, मैं विदुरजी का विश्वासपात्र सेवक हूँ। मैं अपने कर्तव्य को ठीक-ठीक समझता हूँ। आप विदुरजी के कथनानुसार शत्रुओं पर अवश्य विजय प्राप्त करेंगे।यह नौका तैयार है। आप इसपर चढकर गंगापार हो जाइये। जब पाण्डव अपनी माता के साथ नाव में बैठ गये तब उसने कहा, विदुरजी ने बड़े प्रेम से कहा है कि आपलोग निर्विघ्न अपने मार्ग पर बढते चलें। घबरायें बिलकुल नहीं। उसने गंगापार पहुँचाकर पाण्डवों का जय-जयकार किया और उनका कुशल संदेश लेकर विदुर के पास चला गया तथा पाण्डव भी गंगापार होकर लुकते छिपते बड़े वेग से आगे बढने लगे। इधर वारणावत में पूरी रात बीत जाने पर सारे पुरवासी पाण्डवों को देखने के लिये आये। आग बुझाते-बुझाते उनलोगों को मालूम हुआ कि यह घर लाख का बना है और मंत्री पुरोचन भी इसी में जल गया है। उन्होंने निश्चय किया कि पापी दुर्योधन का ही यह षडयंत्र है। अवश्य ही यह बात धृतराष्ट्र की जानकारी में हुई है। भीष्म विदुर और दूसरे कौरव भी धर्म का पक्ष नहीं ले रहे हैं। आओ हमलोग धृतराष्ट्र के पास संदेश भेज दें कि तुम्हारा मनोरथ पूरा हो गया।अब तुम्हारी करतूत से पाण्डव जलकर मर गये। जब सब लोग आग हटाकर देखने लगे तो अपने पाँचों पुत्रों के साथ मरी भीलनी मिली।उन लोगों ने उन्हें पाँच पाण्डव और कुन्ती समझा। सुरंग खोदनेवाले मनुष्य ने घर साफ करते-करते राख से सुरंग पाट दी। इसलिये किसी को भी उसका पता न चल सका।पुरवासियों ने यह संदेश धृतराष्ट्र के पास हस्तिनापुर भेज दिया।यह अशुभ समाचार सुनकर धृतराष्ट्र ने ऊपर-ऊपर से बहुत दुःख प्रकट किया। उन्होंने कौरवों को आज्ञा दी कि तुमलोग शीघ्र-से-शीघ्र वारणावत में जाकर पाण्डवों और उनकी माता का विधिपूर्वक अन्त्येष्टि-संस्कार करो। विदुर ने सब हाल मालूम होने पर भी थोड़ी-बहुत सहानुभूति प्रकट की। इधर पाण्डव नाव से उतरने के बाद दक्षिण दिशा की ओर बढने लगे। उस समय नींद के मारे सबकी आँखें बन्द हो रही थी। सभी थके और प्यासे थे।घना जंगल था। दिशाओं का पता नहीं चलता था। यद्यपि पुरोचन जल गया था फिर भी उन्हें छिपकर ही जाना था। इसलिये युधिष्ठिर की आज्ञा से भीमसेन ने सबको पूर्ववत् लाद लिया और तेजी के साथ चलने लगे। भीमसेन इतने वेग से चल रहे थे कि सारा वन काँपता हुआ सा जान पड़ता था। इस समय पाण्डव लोग प्यास, थकावट और नींद से बेचैन हो रहे थे। उन्हें आगे बढना कठिन हो रहा था। वे ऐसे घोर वन में जा पहुँचे, जहाँ पानी का कहीं पता न था। इस समय कुन्ती ने तृषातुर होकर जल की इच्छा प्रकट की। तब भीमसेन ने उन सबको एक वट-वृक्ष के नीचे उतारकर कहा, तुमलोग थोड़ी देर यहाँ विश्राम करो। मैं जल लाने के लिये जा रहा हूँ। निश्चय ही यहाँ से थोड़ी दूर पर कोई बड़ा जलाशय है। तभी तो जल में रहनेवालों सारस पक्षियों की मधुर ध्वनि सुनाई पड़ रही है। युधिष्ठिर की आज्ञा मिलने पर सारस पक्षियों की ध्वनि के आधार से भीमसेन तालाब के पास जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने जल पीया, स्नान किया और उनलोगों के लिये अपने दुपट्टे में पानी भरकर ले आये। वट-वृक्ष के नीचे पहुँचकर भीमसेन ने देखा कि माता और सब भाई सो गये हैं। वे दुःख और शोक से भरकर उन्हें बिना जगाये मन-ही-मन कहने लगे ----मेरे लिये इससे बढकर और कष्ट की बात क्या होगी कि आज मैं अपने उन भाइयो को, जिन्हें बहुमूल्य सुकोमल सेज पर भी नींद नहीं आती थी, खुली जमीन पर सोते देख रहा हूँ। मेरी माता वसुदेव की बहिन और कुन्तिभोज की पुत्री है, महात्मा पाण्डु की पत्नी और हमारे जैसे पुत्रों की माता है। फिर भी खुली धरती पर लुढक रही है। मेरे लिये इससे बढकर और दुःख की बात क्या होगी कि जिन्हें धर्मपालन के फलस्वरुप तीनों लोकों का शासक होना चाहिये, वे युधिष्ठिर थककर सधारण मनुष्य की भाँति जमीन पर लेटे हुए हैं। हाय, हाय, आज मैं अपनी आँखों से अर्जुन, नकुल और सहदेव को आश्रयहीन की तरह वृक्ष के नीचे नींद लेते देख रहा हूँ। दुरात्मा दुर्योधन ने हमलोगों को घर से निकाल दिया और जलाने का प्रयत्न किया। किन्तु भाग्यवश हमलोग बच गये। आज हम वृक्ष के नीचे हैं। उनलोगों को थके-माँदे सोते देखकर उन्होंने उन्हें नहीं जगाया और स्वयं जागकर पहरा देने लगे।

आदिपर्व-पाण्डवों का लाक्षागृह में रहना, सुरंग का खोदा जाना और आग लगाकर निकल भागना

पाण्डवों का लाक्षागृह में रहना, सुरंग का खोदा जाना और आग लगाकर निकल भागना

पाण्डवों के शुभागमन का समाचार सुनकर वारणावत के नागरिक शास्त्र-विधि के अनुसार मंगलमयी वस्तुओं की भेंट लेकर प्रसन्नता और उत्साह के साथ सवारियों पर चढकर उनकी आगवानी के लिये आये। उनके जयजयकार और मंगल-घ्वनि से दिशाएँ गूँज उठीं। स्वागत करनेवालों का अभिनन्दन करके माता कुन्ती के साथ पाण्डवों ने वारणावत नगर में प्रवेश किया।पुरोचन ने उनके लिये नियत वासस्थान पर आदर के साथ उन्हें ठहराया और भोजन, पलंग, आसन आदि सामग्रियों से उन्हें संतुष्ट करने की चेष्टा की। पाण्डवलोग सुखपूर्वक वहाँ रहने लगे। पुरवासियों की भीड़ प्रायः लगी ही रहती। दस दिन बीत जाने पर पुरोचन ने पाण्डवों से उस सुन्दर नाम वाले किन्तु अमंगल भवन की चर्चा की। उसकी प्रेरणा से पाण्डव सामग्रियों के साथ वहाँ रहने लगे। धर्मराज युधिष्ठिर ने घर के चारों ओर से देखकर भीमसेन से कहा, भाई भीम, देखते हो न, इस घर का एक-एक कोना आग भड़कानेवाली सामग्रियों से बना है। घी, लाख और चर्बी की मिश्रित गंध से ही प्रमाणित होता है। शत्रु के कारीगरों ने बड़ी चतुराई से सन, सर्जरस, मूँज घास, बाँस आदि को घी से तर करके इसका निर्माण किया है। निश्चय ही पुरोचन का विचार है कि जब हमलोग इसमें बेखटके रहने लगें तब वह आग लगाकर इसे जला दे। विदुर ने पहले ही यह बात ताड़ ली थी। तभी तो उन्होंने स्नेहवश इसकी सूचना दे दी। भीमसेन ने कहा, भाईजी, यदि ऐसी बात है तो हमलोग अपने पहले ही स्थान पर क्यों न लौट चलें। युधिष्ठिर ने कहा, भैया भीम, हम बड़ी सावधानी के साथ अपनी जानकारी छिपाकर यहीं रहना चाहिये। हमारे चेहरे-मोहरे या रंग-ढंग से किसी को शंका-संदेह न हो। हमलोग निकलने की घात ढूँढ लें। यदि हमारी भाव-भंगी से पुरोचन से पता चल गया तो वह बलपूर्वक भी हमे जला सकता है। उसे लोकनिन्दा अथवा अधर्म की परवा नहीं है। यदि हम मर ही गये तो फिर पितामह भीष्म तथा दूसरे लोग कौरवों पर किसलिये रुष्ट होंगे। उस समय का क्रोध भी तो व्यर्थ ही जायगा। यदि हम डरकर यहाँ से भागेंगे तो दुर्योधन अपने गुप्तचरों से पता लगा कर हमें मरवा देगा। इस समय वह अधिकारी है। उसके पास सहायक और खजाना है। हमारे पास तीनों ही बातें नहीं हैं। आओ हमलोग यहाँ रहकर वन में खूब घूमें फिरें, रास्तों का पता लगा रखें। सुरक्षित सुरंग बन जाने पर हम यहाँ से भाग निकलें और किसी को कानोंकान इस बात की खबर न हो कि पाण्डव जीते बच गये हैं। भीमसेन ने बड़े भाई की बात मान ली। एक सुरंग खोदनेवाला विदुर का बड़ा विश्वासपात्र था। उसने पण्डवों के पास आकर कहा, मैं खुदाई के काम में बड़ा निपुण हूँ। विदुर की आज्ञा से आपके पास आया हूँ। विदुर ने संकेत के तौर पर मुझे बतलाया है कि चलते समय मैने युधिष्ठिर से म्लेच्छ भाषा में कुछ कहा था और उन्होंने 'मैने आपकी बात भली-भाँति समझ ली' यह कहा था। पुरोचन जल्दी ही आग लगानेवाला है। मैं आपकी क्या सेवा करुँ। युधिष्ठिर ने कहा, भैया , मैं तुमपर पूरा विश्वास करता हूँ। हमारे जैसे हितचिंतक विदुर हैं, वैसे ही तुम भी हो। हमें अपना ही समझ और जैसे वे हमारी रक्षा करते हैं, वैसे ही तुम भी करो। इस आग के भय से तुम हमें बचा लो। इस घर में चारों ओर ऊँची दीवारें हैं,एक ही दरवाजा है। तब सुरंग खोदनेवाला कारीगर युधिष्ठिर को आश्वासन देकर खाई की सफाई करने के बहाने अपने काम पर डट गया। उसने उस घर के बीचोबीच एक बड़ी भारी सुरंग बनायी और जमीन के बराबर ही किवाड़ लगा दिये। पुरोचन उस घर के दरवाजे पर ही सर्वदा रहता था। कहीं वह आकर देख न ले, इसलिये सुरंग का मुँह बिलकुल बन्द रखा गया। पाण्डव अपने साथ शस्त्र रखकर बड़ी सावधानी से उस महल में रात बिताते थे। दिनभर शिकार खेलने के बहाने  जंगलों में घूमा करते। विश्वास न होने पर भी वे ऐसी ही चेष्टा करते मानो पूरे विश्वासी हैं। उस खोदनेवाले कारीगर के अतिरिक्त पाण्डवों की इस स्थिति का पता किसी को नहीं था। पुरोचन ने देखा कि एक वर्ष के लगभग हो गया, पाण्डव इसमें बड़े विश्वास से निःशंक रह रहे हैं। उसे बड़ी प्रसन्नता हुई। उसकी प्रसन्नता देखकर युधिष्ठिर ने भाइयों से कहा, पापी पुरोचन समझ रहा है कि ये ठग लिये। यह भुलावे में आ गया है। अतः यहाँ से निकल चलना चाहिये। शस्त्रागार और पुरोचन को भी जलाकर अलक्षितरूप से भाग निकलना चाहिये। एक दिन कुन्ती ने दान देने के लिये ब्राह्मण-भोजन कराया। बहुत सी स्त्रियाँ भी आयीं थीं। जब-सब खा-पीकर चले गये, तब संयोगवश एक भील की स्त्री अपने पाँच पुत्रों के साथ वहाँ भोजन माँगने के लिये आयी। वे सब शराब पीकर मस्त थे, इसलिये बेहोश होकर लाक्षाभवन में ही सो रहे।सब लोग सो चुके थे। आँधी चल रही थी, भयंकर अंधकार था। भीमसेन उस स्थान पर पहुँचे जहाँ पुरोचन सो रहा था। भीमसेन ने पहले उस मकान के दरवाजे पर आग लगायी और फिर चारों तरफ आग भभका दी। बात-की-बात में विकराल लपटें उठने लगीं। पाँचों भाई अपनी माता के साथ सुरंग में घुस चले। अब आग की असह्य गर्मी और उत्कट उजाला चारों ओर फैल गया और इमारत के चटचटाने तथा गिरने से धाँय-धाँय ध्वनि होने लगी, सब पुरवासी जगकर वहाँ दौड़े आये। उस घर की भयानक दुर्दशा देखकर सब कहने लगे कि दुरात्मा दुर्योधन की प्रेरणा से पुरोचन ने यह जाल रचा होगा। हो-न-हो यह उसी की करतूत है। धृतराष्ट्र की इस स्वार्थपरता को धिक्कार है। हाय-हाय, उन्होंने सीधे और सच्चे पाण्डवों को जलाकर मार डाला। पुरोचन को भी अच्छा फल मिला। वह निर्दयी भी इसी में जलकर राख का ढेर हो गया। इस तरह वारणावत के नागरिक रोते-कलपते रातभर उस महल को घरे रहे।पाण्डव माता कुन्ती को साथ लिये सुरंग से बाहर एक वन में निकले। सब चाहते थे कि यहाँ से जल्दी भाग चलें, परन्तु नींद और डर के मारे सब लाचार थे। माता कुन्ती के कारण फुर्ती से चलना असभव हो रहा था। तब भीमसेन माता को कंधे पर और नकुल सहदेव को गोद में बैठाकर युधिष्ठिर और अर्जुन को दोनो हाथों का सहारा देते जल्दी-जल्दी ले चले। उस समय भीमसेन बड़ी तेज गति से चलकर गगाजी के तट पर पहुँच गये।   

आदिपर्व-वारणावत में लाक्षाभवन, पाण्डवों की यात्रा, विदुर का गुप्त संदेश

वारणावत में लाक्षाभवन, पाण्डवों की यात्रा, विदुर का गुप्त संदेश

जब धृतराष्ट्र ने पाण्डवों को वारणावत जाने की आज्ञा दे दी, तब दुरात्मा दुर्योधन को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने अपने मंत्री पुरोचन को एकान्त में बुलाया और उसका दाहिना हाथ पकड़कर कहा, भाई पुरोचन, तुम्हारे सिवा मेरा ऐसा कोई विश्वासपात्र और सहायक नहीं है, जिसके साथ मैं इतनी गुप्त सलाह कर सकूँ। मैं तुम्हें यह काम सौंपता हूँ कि मेरे शत्रुओं की जड़ उखाड़ फेंको।होशियारी से काम करना, किसी को मालूम न हो। पिताजी के आज्ञानुसार पाण्डव कुछ दिन तक वारणावत रहेंगे। तुम पहले ही वहाँ चले जाओ। वहाँ नगर के किनारे पर सन, सर्जरस और लकड़ी आदि से ऐसा भवन बनवाओ जो आग से भड़क उठे। उसकी भीतों पर घी, तेल चर्बी और लाख मिली हुई मिट्टी का लेप करा देना। पाण्डवों को परीक्षा करनेपर भी इस बात का पता न चले। उसी में कुन्ती, पाण्डव और उनके मित्रों को रखना। वहाँ दिव्य आसन, वाहन और शैय्या सजा देना। फिर वे विश्रामपूर्वक निश्चिन्त होकर सो जायँ तो दरवाजे पर आग लगा देना। इस प्रकार जब व अपने रहने के घर में ही जल जायेंगे तो हमारी निन्दा भी न होगी। पुरोचन ने वैसा ही करने की प्रतीज्ञा ली जैसा दुर्योधन ने कहा और वारणावत के लिये प्रस्थान किया। वहाँ जाकर उसने दुर्योधन के आज्ञानुसार महल तैयार कराया। समय आने पर पाण्डवों ने यात्रा के लिये शीघ्रगामी और श्रेष्ठ घोड़ों को रथ में जुड़वाया। उनलोगों ने बड़े दीन भाव से बड़े-बूढों के चरणों का स्पर्श किया और यात्रा की। उस समय कुरु-वंश के बहुत से बड़े-बूढे, बुद्धिमान विदुर और सारी प्रजा युधिष्ठिर के पीछे-पीछे चलने लगी। पाण्डवों को उदास देखकर निर्भय ब्राह्णों ने आपस में कहा, राजा धृतराष्ट्र की बुद्धि मन्द हो गयी है। तभी तो वे अपने लड़कों का पक्षपात करते हैं। उनकी धर्मदृष्टि लुप्त हो रही है। पाण्डवों ने किसी का कुछ बिगाड़ा नहीं है। अपने पिता का ही राज्य उन्हें प्राप्त हो रहा है, फिर धृतराष्ट्र इसे भी क्यों नहीं सहते। पता नहीं, धर्मात्मा भीष्म यह अन्याय कैसे सह रहे हैं। हमलोग यह सब नहीं चाहते। सह भी नहीं सकते। हम सब अब हस्तिनापुर को छोड़कर वहीं चलेंगे जहाँ राजा युधिष्ठिर रहेंगे। पुरवासियों की बात सुनकर तथा उसका दुःख जानकर युधिष्ठिर ने कहा, पुरवासियों, राजा धृतराष्ट्र हमारे पिता, परम मान्य और गुरु हैं। वे जो कुछ कहेंगे वह हम निःशंकभाव से करेंगे। यह हमारी प्रतिज्ञा है। यदि आपलोग हमारे हितैषी और मित्र हैं तो लौट जाइये।जब हमारे काम में कोई अड़चन पड़ेगी,तब आपलोग हमारा प्रिय और हित कीजियेगा। युधिष्ठिर की धर्मसंगत बात सुनकर सभी पुरवासी आशीर्वाद देते हुए नगर लौट गये। सबके लौट जाने पर अनेक भाषाओं के ज्ञाता विदुर ने युधिष्ठिर से सांकेतिक भाषा में कहा, नीतिज्ञ पुरुष को शत्रु का मनोभाव समझकर उससे अपनी रक्षा करनी चाहिये।एक ऐसा अस्त्र है,जो लोहे का तो नहीं है, परंतु शरीर को नष्ट कर सकता है। आग घास-फूस और सारे जंगल को जला डालती है। परंतु बिल में रहने वाले जीव उससे अपनी रक्षा कर लेते हैं। (अर्थात् शत्रुओं ने तुम्हारे लिये एक ऐसा भवन तैयार किया है जो आग से भड़क उठनेवाले पदार्थों से बना है) अन्धे को रास्ता और दिशाओं का ज्ञान नहीं होता। (अर्थात् उससे बचने के लिये तुम एक सुरंग तैयार करा लेना) बिना धैर्य के समझदारी नहीं आती। मेरी बात को भली-भाँति समझ लो। शत्रुओं के दिये हुए बिना लोहे के हथियार को जो स्वीकार करता है वह स्याही के बिल में घुसकर आग से बच जाता है। (अर्थात् दिशा आदि का ज्ञान पहले से ही ठीक कर लेना जिससे रात में भटकना पड़े) घूमने-फिरने से रास्ते का ज्ञान हो जाता है।नक्षत्रों से दिशा का पता लग जाता है। (अर्थात् उस सुरंग से यदि तुम बाहर निकल जाओगे तो उस भवन की आग में जलने से बच जाओगे) जिसकी पाँचों इन्द्रियाँ वश में है, शत्रु उसकी कुछ भी हानि नहीं कर सकते। (अर्थात् यदि तुम पाँचों भाई एकमत रहोगे तो शत्रु तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा) विदुर का संकेत सुनकर युधिष्ठिर ने कहा, मैंने आपकी बात भली-भाँति समझ ली है। विदुर हस्तिनापुर लौट आये। यह घटना फाल्गुन शुक्र अष्टमी,रोहिणी नक्षत्र की है।