Monday 31 August 2015

वनपर्व---राजकुमारी सुकन्या और महर्षि च्यवन

राजकुमारी सुकन्या और महर्षि च्यवन

फिर लोमश मुनि ने एक स्थान की ओर संकेत करके कहा---'राजन् ! यह महाराज शर्याति का यज्ञस्थान हैयहाँ कौशिक मुनि ने अश्विनीकुमारों के सहित स्वयं ही सोमपान किया था तथा यहीं उन्हें पत्नीरूप से राजकुमारी सुकन्या प्राप्त हुई थी। युधिष्ठिर के पूछने पर लोमशजी ने सुकन्या और महर्षि च्यवन का कथा प्रारंभ किया। महर्षि भृगु का च्यवन नाम का एक बड़ा ही तेजस्वी पुत्र था। वह इस सरोवर के तट पर तपस्या करने लगा।वह मुनिकुमार बहुत समय तक  वृक्ष के समान निश्छल रहकर एक ही स्थान पर वीरासन से बैठा रहा। धीरे-धीरे अधिक समय बीतने पर उसका शरीर तृण और लताओं से ढ़क गया। उसपर चीटियों ने अड्डा जमा लिया।ऋषि बाॅबी के रूप में दिखाई देने लगे। वे चारों ओर से केवल मिट्टी का पिण्ड जान पड़ते थे। इस प्रकार बहुत काल व्यतीत होने के बाद एक बार राजा शर्याति इस सरोवर पर क्रीड़ा करने के लिये आया। उसकी चार सहस्त्र सुन्दरी रानियाँ और एक सुन्दर भृगुटियोंवाली कन्या थी। उसका नाम सुकन्या था।वह दिव्य आभूषणों से विभूषित कन्या अपनी सहेलियों के साथ विचरती उस च्यवनजी की बाॅबी के पास पहुँच गयी। उसने उस बाॅबी के छिद्र में से च्यवनजी की चमकती हुई आँखों को देखा। इससे उसे बड़ा कुतूहल हुआ। फिर बुद्धि भ्रमित हो जाने से उसने उन्हें काँटे से छेद दिया। 

इस प्रकार आँखें फूट जाने से च्यवन ऋषि को बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने शर्याति की सेना के मल-मूत्र बंद कर दिये। मल-मूत्र रुक जाने से सेना को बड़ा कष्ट हुआ। यह दशा देखकर राजा ने पूछा, 'यहाँ निरंतर तपस्या में निरत वयोवृद्ध महात्मा च्यवन रहते हैं। वे स्वभाव से बड़े क्रोधी हैं। इनका जानबूझकर अथवा बिना जाने किसने अपकार किया है ? जिससे भी ऐसा हुआ हो ,वह बिना विलंब किये तुरत बता दे।जब सुकन्या को ये सब बातें मालूम हुईं तो उसने का, 'मैं घूमती-घूमती एक बाँबी के पास गयी थी। उसमें मुझे एक चमकता हुआ जीव दिखाई दिया। वह जुगनू-का-सा जान पड़ता था। मैने उसे बिंध दिया।यह सुनकर शर्याति तुरंत ही बाँबी के पास गया। वहाँ उसे तपोवृद्ध और वयोवृद्ध च्यवन मुनि दिखाई दिये और उसने उनसे हाथ जोड़कर सेना को क्लेशमुक्त करने की प्रार्थना की और कहा कि 'भगवन् ! अज्ञानवश इस बालिका से जो अपराध बन गया हैउसे क्षमा करने की कृपा करें।तब भृगुनन्दन च्यवन ने राजा से कहा, 'इस गर्वीली छोकरी ने अपमान करने के लिये ही मेरी आँखें फोड़ी हैं। अब मैं इसे पाकर ही क्षमा कर सकता हूँ।यह बात सुनकर राजा शर्याति ने बिना कोई विचार किये महात्मा च्यवन को अपनी कन्या दे दी। उस कन्या  पाकर च्यवन मुनि प्रसन्न हो गये और उनकी कृपा से क्लेशमुक्त हो राजा सेना के सहित अपने नगर को लौट आया। सती सुकन्या भी अपने तप और नियमों का पालन करती हुई प्रेमपूर्वक अपने तपस्वी पति की परिचर्या करने लगी।एक दिन सुकन्या स्नान करके अपने आश्रम में खड़ी थी। उस समय उसपर अश्विनीकुमारों की दृष्टि पड़ी। वह साक्षात् देवराज की कन्या के समान मनोहर अंगोंवाली थी। तब अश्विनीकुमारों ने उसके समीप आकर कहा, 'सुन्दरी ! तुम किसकी पुत्री एवं किसकी भार्या हो और इस वन में क्या करती हो ?' यह सुनकर सुकन्या ने सलज्ज भाव से कहा, 'मैं महाराज शर्याति की कन्या और महर्षि च्यवन की भार्या हूँ।तब अश्विनीकुमार बोले, 'हम देवताओं के वैद्य हैं और तुम्हारे पति को युवा और रूपवान कर सकते हैं। तुम हमारी यह बात अपने पतिदेव से जाकर कहो।उनकी यह बात सुनकर सुकन्या च्यवन मुनि के पास गयी और उन्हें यह बात सुना दी। मुनि ने उसे अपनी स्वीकृति दे दी। तब उसने अश्विनीकुमारों को वैसा करने के लिये कहा। अश्विनीकुमारों ने कहा, 'मुनि इस सरोवर में प्रवेश करें।महर्षि च्यवन रूपवान होनेको उत्सुक थे। उन्होंने तुरंत ही जल में प्रवेश किया। उनके साथ अश्विनीकुमारों ने भी उनमें गोता लगाया। फिर एक मुहूर्त बीतने पर वे तीनों उस सरोवर से बाहर निकले। वे सभी दिव्यरूपधारी ,युवा और समान आकृतिवाले थे।उन तीनों को ही देखकर चित्त में अनुराग की वृद्धि होती थी। उन तीनों ने ही कहा, 'सुन्दरी ! तुम हममें से किसी भी एक को वर लो।वे तीनों ही समान रूपवाले थे। सुकन्या एक बार तो सहम गयीपरन्तु फिर उसने मन और बुद्धि से निश्चय कर अपने पति को पहचान लिया और उसी को वरा। इस प्रकार अपनी पत्नी और मनमाना रूप एवं यौवन पाकर च्यवन ऋषि बहुत प्रसन्न हुए एवं अश्विनीकुमारों से बोले, 'मैं वृद्ध थातुमने ही मुझे रूप और यौवन दिया है। इसलिये मैं भी तुम्हे सोमपान का अधिकार दिलाऊँगा।'यह सुनकर अश्विनीकुमार स्वर्ग को चले गये तथा च्यवन और सुकन्या उस आश्रम में देवताओं के समान विहार करने लगे।जब शर्याति ने सुना कि च्यवन मुनि युवा हो गये हैं तो उसे बड़ी प्रसन्नता हुई और वह अपनी सेना के सहित उनके आश्रम नें आया।उसने देखा कि च्यवन और सुकन्या साक्षात् देव-दम्पतिसे जान पड़ते हैं। इससे राजा और रानी को ऐसा हर्ष हुआ मानो उन्हें सारी पृथ्वी का ही राज्य मिल गया हो। फिर च्यवन मुनि ने राजा से कहा, 'राजन् ! मैं आपसे यज्ञ कराऊँगाआप सब सामग्री एकत्रित कीजिये।राजा ने बड़ी प्रसन्नता से उनकी यह बात स्वीकार कर ली। जब यज्ञ के लिये समस्त कामनाओं की पूर्ति करने वाला शुभ दिन उपस्थित हुआ तो राजा शर्याति ने एक सुन्दर यज्ञमण्डप तैयार कराया। उसी में भृगुनन्दन महर्षि च्यवन ने राजा के यज्ञानुष्ठान का आयोजन किया। इस यज्ञ में कुछ नयी बाते हुईं।जिस समय च्यवन मुनि ने अश्विनीकुमारों को यज्ञ का भाग दियातब इन्द्र ने उन्हें रोकते हुए कहा, 'मेरे विचार से दोनो ही अश्विनीकुमार यज्ञभाग लेने के अधिकारी नहीं हैं।च्यवन ने कहा, 'ये दोनो कुमार बड़े ही उत्साहीउदारहृदयरूपवान् और धनवान हैं। भलातुम्हारे और दूसरे देवताओं के सामने इनका सोमपान में अधिकार क्यों नहीं है ?' इन्द्र ने कहा, 'ये चिकित्साकार्य करते हैं और मनमाना रूप धारण कर मृत्युलोक में विचरते रहते हैं। इन्हें सोमपान का अधिकार कैसे हो सकता है ?' जब च्यवन ऋषि ने देखा कि देवराज बार-बार उसी बात पर जोर दे रहे हैं तो उन्होंने उनकी उपेक्षा कर अश्विनीकुमारों को देने के लिये उत्तम सोमरस लिया।

उन्हें इस प्रकार आग्रहपूर्वक सोम लेते देखकर इन्द्र ने कहा, 'यदि तुम हमारे लिये तैयार हुए सोमरस को इस प्रकार अश्विनीकुमारों के लये स्वयं ग्रहण करोगे तो मैं तुमपर अपना भयंकर वज्र छोड़ दूँगा।'ऐसा कहने पर भी च्यवन मुनि ने मुस्कराते हुए अश्विनीकुमारों के लिये सोम ले लिया। तब तो इन्द्र उनपर अपना भयंकर वज्र छोड़ने के लिये उद्यत हुए। वे जैसे ही प्रहार करने लगे कि च्यवन ने उनकी भुजा को स्तंभित कर दिया। और अपने तपोबल से अग्निकुण्ड में से 'मदनामक एक अत्यंत भयंकर राक्षस उत्पन्न किया जो अपनी भयंकर गर्जना से त्रिभुवन को त्रस्त करता हुआ इन्द्र को निगल जाने के लिये उनकी ओर दौड़ा।इससे इन्द्र को बड़ी ही व्यथा हुई और उन्होंने पुकार-पुकारकर कहा, 'आज से अश्विनीकुमार सोमपान के अधिकारी हुए। अब आप मेरे ऊपर कृपा करें,आप जैसा चाहेंगे वही होगा।'इन्द्र ने जब ऐसा कहा तब भृगुनन्दन महात्मा च्यवन का क्रोध शान्त हो गया और उन्होंने इन्द्र को उसी समय दुःख से मुक्त कर दिया। लोमशजी युधिष्ठिर को कहते हैंराजन् ! यह झिलमिलाता हुआ द्विजसंघुष्ट नाम का सरोवर उन्हीं च्यवन मुनि का है।इस तीर्थ में स्नान करनेवालों को कलियुग का स्पर्श नहीं होता। यह सब पापों का नाश करनेवाला है। इसमें स्नान करो।इसके आगे आर्चीक पर्वत है। यहाँ अनेकों मनीषी महर्षिगण निवास करते हैं। इसपर अनेक प्रकार के देवस्थान हैं। यह चन्द्रमा का तीर्थ है। यहाँ वालखिल्य नाम के तेजस्वी और वायुभोजी वानप्रस्थ रहते हैं। यहाँ तीन शिखर और तीन झरने हैं। ये बड़े ही पवित्र हैं। इसके पास ही यमुनाजी बह रही हैं। स्वयं श्रीकृष्ण ने भी यहाँ तपस्या की थी।नकुलसहदेवभीमसेनद्रौपदी और हमसब भी तुम्हारे साथ इसी स्थान पर चलेंगे। इसी जगह महान् धनुर्धर मान्धाता ने भी यज्ञ किया था।