Thursday 29 June 2017

श्रीमद्भगवद्गीता___मोक्षंसन्यासयोग

अर्जुन बोले___हे महाबाहो ! हे अन्तर्यामिन् ! मैं संन्यास और त्याग के तत्व को पृथक्_पृथक् जानना चाहता हूँ। श्रीभगवान् बोले___कितने ही पण्डितजन तो काम्यकर्मों के त्याग को संन्यास समझते हैं तथा दूसरे विचारकुशल पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहते हैं। कई एक विद्वान् ऐसा कहते हैं कि कर्ममात्र दोषयुक्त है, इसलिये त्यागने के योग्य हैं और दूसरे विद्वान् यह कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्यागने योग्य नहीं है। पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन ! संन्यास और त्याग, इन दोनों में से पहले त्याग के विषय में तू मेरा निश्चय सुन; क्योंकि त्याग सात्विक, राजस और तामस भेद से तीन प्रकार कहा गया है। यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करने योग्य नहीं है, बल्कि वह तो अवश्यकर्तव्य है; क्योंकि बुद्धिमान पुरुषों के यज्ञ, दान और तप___ये तीनों ही कर्म अंतःकरण को पवित्र करनेवाले हैं। इसलिये पार्थ ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी संपूर्ण कर्तव्य कर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिये___यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है। विशुद्ध और काम्यकर्मों का तो स्वरूप से त्याग करना उचित ही है, परन्तु नियत कर्म का स्वरूप से त्याग उचित नहीं है। इसलिये मोह के कारण उसका त्याग कर देना तामस त्याग कहा गया है। जो कुछ कर्म है, वह सब दुःखरूप ही है___ ऐसा समझकर यदि कोई शारीरिक क्लेशों के भय से कर्तव्यकर्मों का त्याग कर दे, तो वह ऐसा राजस त्याग करके त्याग के फल को किसी प्रकार भी नहीं पाता। अर्जुन ! जो शास्त्रविहित कर्म करना कर्तव्य है___ इसी भाव से आसक्ति और फल का त्याग करके किया जाता है, वही सात्विक त्याग माना गया है। जो मनुष्य अकुशल कर्म से से द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता, वह शुद्ध सत्वगुण से युक्त पुरुष संशयरहित, ज्ञानवान् और सच्चा त्यागी है; क्योंकि शरीरधारी किसी भी मनुष्य के द्वारा सम्पूर्णता से सब कर्मों का त्याग देना शक्य नहीं है; इसलिये जो कर्मफल का त्यागी है, वही त्यागी है___ यह कहा जाता है। कर्मफल का न त्याग करनेवाले मनुष्यों के कर्मों का तो अच्छा, बुरा और मिला हुआ___ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के पश्चात् अवश्य होता है; किन्तु कर्मफल का त्याग कर देनेवाले मनुष्यों के कर्मों का फल किसी काल में भी नहीं होता।महाबाहो ! संपूर्ण कर्मों की सिद्धि के ये पाँच हेतु कर्मों का अन्त करने के लिये उपाय बतलानेवाले सांख्यशास्त्र में रहे गये हैं; उनको तू मुझसे भली_भाँति जान। कर्मों की सिद्धि अधिष्ठान और कर्ता तथा भिन्न_भिन्न प्रकार के करण एवं नाना प्रकार की अलग_अलग चेष्टाएँ और वैसे ही पाँचवाँ हेतु दैव है। मनुष्य मन, वाणी और शरीर से शास्त्रानुकूल अथवा विपरीत जो कुछ कर्म करता है, उसके ये पाँचों कारण हैं। परंतु ऐसा होने पर भी जो मनुष्य अशुद्ध बुद्धि होने के कारण कर्मों के होने में केवल____शुद्धस्वरूप आत्मा को कर्ता समझता है। वह मलीन बुद्धिवाला अज्ञानी यथार्थ नहीं समझता। जिस पुरुष के अंतःकरण में ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और कर्मों में लिपायमान नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न पाप से बँधता है। ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय___यह तीन प्रकार की कर्म प्रेरणा है ।
गुणों की संख्या करनेवाले शास्त्र में ग्यान और कर्म तथा कर्ता भी गुणों के भेद से तीन_तीन प्रकार के कहे गये हैं, उनको भी तू मुझसे भली_भाँति सुन। जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक्_पृथक् सब भूतों में एक अविनाशी परमात्मभाव को विभागसहित समभाव से स्थित देखता है, उस ज्ञान को तू सात्विक जान और जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य संपूर्ण भूतों में भिन्न_भिन्न प्रकार के नाना भावों को अलग_अलग जानता है, उस ज्ञान को तू राजस जान और जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीर में ही आसक्त है तथा जो बिना युक्तिवाला, तात्विक अर्थ से रहित और तुच्छ है___वह तामस कहा गया है। जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ और अभिमान से रहित हो तथा फल न चाहनेवाले पुरुष द्वारा बिना राग_द्वेष के किया गया हो, वह सात्विक कहा जाता है और जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त होता है तथा भोगों को चाहनेवाले पुरुष द्वारा अहंकारयुक्त पुरुष द्वारा किया जाता है, वह कर्म राजस कहा गया है। जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न विचारकर केवल अज्ञान से आरम्भ किया जाता है, वह तामस कहा जाता है।
जो क्रिया आसक्ति से रहित, अहंकार के वचन न बोलनेवाला, धैर्य और उत्साह से युक्त तथा कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष_शोकादि विचारों से रहित है, वह सात्विक कहा जाता है। जो कर्ता आसक्ति से युक्त , कर्मों के फल को चाहनेवाला  है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाववाला, अशुद्धाचारी और हर्ष_शोक से लिपायमान है, वह राजस कहा गया है। जो कर्ता अयुक्त, शिक्षा से रहित, घमण्डी, धूर्त और दूसरों की जीविका का नाश करनेवाला तथा शोक करनेवाला, आलसी और दीर्घसूत्री है, वह तामस कहा जाता है। धनन्जय ! अब तू बुद्धि का और धृति का भी गुणों के अनुसार तीन प्रकार का भेद मेरे द्वारा सम्पूर्णता से विभागपूर्वक कहाजाने वाला सुन। पार्थ ! जो बुद्धि प्रवृत्तिमार्ग और निवृतिमार्ग को, कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय अभय को तथा बन्धन और मोक्ष को यथार्थ जानती है वह बुद्धि सात्विकी है। पार्थ ! मनुष्य जिस बुद्धि के द्वारा धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ नहीं जानता, वह बुद्धि राजसी है। अर्जुन ! जो तमोगुण से घिरी हुई बुद्धि अधर्म को भी ‘यह धर्म है' ऐसा मान लेती है तथा इसी प्रकार अन्य सम्पूर्ण पदार्थों को भी विपरीत मान लेती है, वह बुद्धि तामसी है। पार्थ ! जिस अव्यभिचारिणी धारणशक्ति से मनुष्य ध्यानयोगसेे मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को धारण करता है, वह कृति सात्विकी है और पृथापुत्र अर्जुन ! फल की इच्छावाला मनुष्य जिस धारणशक्ति के द्वारा अत्यन्त आसक्ति से धर्म, अर्थ और कामों को धारण किये रहता है, वह धारणशक्ति राजसी है। पार्थ ! दुष्ट बुद्धिवाला मनुष्य जिस कार्य के द्वारा निद्रा, भय, चिन्ता और दुःख को तथा उन्मत्तता को भी नहीं छोड़ता, वह धारणशक्ति तामसी है।भरतश्रेष्ठ ! अब तीन प्रकार के सुख को भी तू मुझसे सुन। जिस सुख में साधक मनुष्य भजन, ध्यान और के अभ्यास से रमण करता है और जिससे दुःखों के अन्त को प्राप्त हो जाता है___जो ऐसा सुख है, वह प्रथम यद्यपि विष के तुल्य प्रतीत होता है, परंतु परिणाम में अमृत के तुल्य है; इसलिये वह परमात्मविषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होनेवाला सुख सात्विक कहा गया है। जो सुख विषय और  इन्द्रियों के संयोग से होता है, वह पहले___भोगकाल में अमृत के तुल्य प्रतीत होने पर भी परिणाम में विष के तुल्य है; इसलिये वह सुख राजस कहा गया है। जो भोगकाल में और परिणाम में भी आत्मा को मोहित करनेवाला है, वह निद्रा, आलस्य और प्रसाद से उत्पन्न हुआ सुख तामस कहा गया है। पृथ्वी में या आकाश में अथवा देवताओं में तथा इनके सिवा और कहीं भी ऐसा कोई  नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो। परंतप ! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किये गये हैं। अन्तःकरण का निग्रह करना; इन्द्रियों का दमन करना; धर्मपालन के लिये कष्ट सहना; बाहर_भीतर से शुद्ध रहना; दूसरों के अपराधों को क्षमा करना; मन, इन्द्रिय और शरीर को सरल रखना; वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्धा रखना; वेद_शास्त्रों का अध्ययन_ अध्यापन करना और परमात्मा के तत्व का अनुभव करना___ये सब_के_सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं। शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागना, दान देना और स्वामिभाव___ये सब_के_सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं। खेती, गोपालन और क्रय_विक्रयरूप सत्य व्यवहार___ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं तथा सब वर्णों की सेवा करना शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है। अपने_अपने स्वाभाविक कर्मों में तत्परता से लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार से कर्म करके परम सिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू सुन।
जिस परमेश्वर से संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे वह समस्त जगत् व्याप्त है, उस परमेश्वर का अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। अच्छी प्रकार आचरण किये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है; क्योंकि स्वभाव से नियत किये हुए स्वधर्म रूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता। अतएव कुन्तीपुत्र ! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिए; क्योंकि धूएँ से अग्नि की भाँति सभी कर्म किसी_न_किसी दोष से ढके हुए हैं। सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धिवाला, स्पृहारहित और जीते हुए अंतःकरणवाला पुरुष सांख्ययोग के द्वारा भी परम नैष्कर्म्यसिद्धि को प्राप्त होता है। कुन्तीपुत्र ! अंतःकरण की शुद्धिरूप सिद्धि को प्राप्त हुआ मनुष्य जिस प्रकार से सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त होता है, जो ज्ञानयोग की परा निष्ठा है, उसको तू संक्षेप में ही जान।
विशुद्ध बुद्धि से युक्त तथा हल्का, सात्विक और नियमित भोजन करनेवाला, शब्दादि विषयों का त्याग करके एकान्त और शुद्ध देश का सेवन करनेवाला, सात्विक धारणशक्ति के द्वारा अंतःकरण और इन्द्रियों का संयम करके मन, वाणी और शरीर को वश में करनेवाला, राग_द्वेष को सर्वथा नष्ट करके भली_भाँति दृढ़ वैराग्य का आश्रय लेनेवाला तथा अहंकार, बल, कुंड, काम, क्रोध और परिग्रह का त्याग करके निरन्तर ध्यानयोग के नारायण रहनेवाला, ममतारहित और अर्जुन बोले___हे महाबाहो ! हे अन्तर्यामिन् ! मैं संन्यास और त्याग के तत्व को पृथक्_पृथक् जानना चाहता हूँ। श्रीभगवान् बोले___कितने ही पण्डितजन तो काम्यकर्मों के त्याग को संन्यास समझते हैं तथा दूसरे विचारकुशल पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहते हैं। कई एक विद्वान् ऐसा कहते हैं कि कर्ममात्र दोषयुक्त है, इसलिये त्यागना के योग्य हैं और दूसरे विद्वान् यह कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्यागने योग्य नहीं है। पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन ! संन्यास और त्याग, इन दोनों में से पहले त्याग के विषय में तू मेरा निश्चय सुन; क्योंकि त्याग सात्विक, राजस और तामस भेद से तीन प्रकार कहा गया है। यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करने योग्य नहीं है, बल्कि वह तो अवश्यकर्तव्य है; क्योंकि बुद्धिमान पुरुषों के यज्ञ, दान और तप___ये तीनों ही कर्म अंतःकरण को पवित्र करनेवाले हैं।
इसलिये पार्थ ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी संपूर्ण कर्तव्य कर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिये___यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है। विशुद्ध और काम्यकर्मों कोटा तो स्वरूप से त्याग करना उचित ही है, परन्तु नियत कर्म का स्वरूप से त्याग उचित नहीं है। इसलिये मोह के कारण उसका त्याग कर देना तामस त्याग कहा गया है। जो कुछ कर्म है, वह सब दुःखरूप ही है___ ऐसा समझकर यदि कोई शारीरिक क्लेशों के भय से कर्तव्यकर्मों का त्याग कर दे, तो वह ऐसा राजस त्याग करके त्याग के फल को किसी प्रकार भी नहीं पाता। अर्जुन ! जो शास्त्रविहित कर्म करना कर्तव्य है___ इसी भाव से आसक्ति और फल का त्याग करके किया जाता है, वही सात्विक त्याग माना गया है। जो मनुष्य अकुशल कर्म से से द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता, वह शुद्ध सत्वगुण से युक्त पुरुष संशयरहित, ज्ञानवान् और सच्चा त्यागी है; क्योंकि शरीरधारी किसी भी मनुष्य के द्वारा सम्पूर्णता से सब कर्मों का त्याग देना शक्य नहीं है; इसलिये जो कर्मफल का त्यागी है, वही त्यागी है___ यह कहा जाता है। कर्मफल का न त्याग करनेवाले मनुष्यों के कर्मों का तो अच्छा, बुरा और मिला हुआ___ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के पश्चात् अवश्य होता है; किन्तु कर्मफल का त्याग कर देनेवाले मनुष्यों के कर्मों का फल किसी काल में भी नहीं होता।
महाबाहो ! संपूर्ण कर्मों की सिद्धि के ये पाँच हेतु कर्मों का अन्त करने के लिये उपाय बतलानेवाले सांख्यशास्त्र में रहे गये हैं; उनको तू मुझसे भली_भाँति जान। कर्मों की सिद्धि अधिष्ठान और कर्ता तथा भिन्न_भिन्न प्रकार के करण एवं नाना प्रकार की अलग_अलग चेष्टाएँ और वैसे ही पाँचवाँ हेतु दैव है। मनुष्य मन, वाणी और शरीर से शास्त्रानुकूल अथवा विपरीत जो कुछ कर्म करता है, उसके ये पाँचों कारण हैं। परंतु ऐसा होने पर भी जो मनुष्य अशुद्ध बुद्धि होने के कारण कर्मों रे होने में केवल____शुद्धस्वरूप आत्मा को कर्ता समझता है। वह मलीन बुद्धिवाला अज्ञानी यथार्थ नहीं समझता। जिस पुरुष के अंतःकरण में ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और कर्मों में लिपायमान नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न पाप से बँधता हो। ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय___यह तीन प्रकार की कर्म प्रेरणा है और तुर्की, करण और क्रिया___यह तीन प्रकार का कर्मसंग्रह है।
गुणों की संख्या करनेवाले शास्त्र में ग्यान और कर्म तथा कर्ता भी गुणों के भेद से तीन_तीन प्रकार के कहे गये हैं, उनको भी तू मुझसे भली_भाँति सुन। जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक्_पृथक् सब भूतों में एक अविनाशी परमात्मभाव को विभागसहित समभाव से स्थित देखता है, उस ज्ञान को तू सात्विक जान और जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य संपूर्ण भूतों में भिन्न_भिन्न प्रकार के नाना भावों को अलग_अलग जानता है, उस ज्ञान को तू राजस जान और जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीर में ही सम्पूर्ण के सदृश आसक्त है तथा जो बिना युक्तिवाला, तात्विक अर्थ से रहित और तुच्छ है___वह तामस कहा गया है। जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ और कप्तान के अभिमान से रहित हो तथा फल न चाहनेवाले पुरुष द्वारा बिना राग_द्वेष के किया गया हो, वह सात्विक कहा जाता है और जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त होता है तथा भोगों को चाहनेवाले पुरुष द्वारा अहंकारयुक्त पुरुष द्वारा किया जाता है, वह कर्म राजस कहा गया है। जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न विचारकर केवल अज्ञान से आरम्भ किया जाता है, वह तामस कहा जाता है।
जो क्रिया आसक्ति से रहित, अहंकार के वचन न बोलनेवाला, धैर्य और उत्साह से युक्त तथा कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष_शोकादि विचारों से रहित है, वह सात्विक कहा जाता है। जो कर्ता आसक्ति से युक्त , कर्मों के फल को चाहनेवाला और वोरा है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाववाला, अशुद्धाचारी और हर्ष_शोक से लिपायमान है, वह राजस कहा गया है। जो कर्ता अयुक्त, शिक्षा से रहित, घमण्डी, धूर्त और दूसरों की जीविका का नाश करनेवाला तथा शोक करनेवाला, आलसी और दीर्घसूत्री है, वह तामस कहा जाता है। धनन्जय ! अब तू बुद्धि का और धृति का भी गुणों के अनुसार तीन प्रकार का भेद मेरे द्वारा सम्पूर्णता से विभागपूर्वक कहाजाने वाला सुन। पार्थ ! जो बुद्धि प्रवृत्तिमार्ग और निवृतिमार्ग को, कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय अभय को तथा बन्धन और मोक्ष को यथार्थ जानती है वह बुद्धि सात्विकी है। पार्थ ! मनुष्य जिस बुद्धि के द्वारा धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ नहीं जानता, वह बुद्धि राजसी है। अर्जुन ! जो तमोगुण से घिरी हुई बुद्धि अधर्म को भी ‘यह धर्म है' ऐसा मान लेती है तथा इसी प्रकार अन्य सम्पूर्ण पदार्थों को भी विपरीत मान लेती है, वह बुद्धि तामसी है। पार्थ ! जिस अव्यभिचारिणी धारणशक्ति से मनुष्य ध्यानयोग के मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को धारण करता है, वह कृति सात्विकी है और पृथापुत्र अर्जुन ! फल की इच्छावाला मनुष्य जिस धारणशक्ति के द्वारा अत्यन्त आसक्ति से धर्म, अर्थ और कामों को धारण किये रहता है, वह धारणशक्ति राजसी है। पार्थ ! दुष्ट बुद्धिवाला मनुष्य जिस कार्यक्रम के द्वारा निद्रा, भय, चिन्ता और दुःख को तथा उन्मत्तता को भी नहीं छोड़ता, वह धारणशक्ति तामसी है।
भरतश्रेष्ठ ! अब तीन प्रकार के सुख को भी तू मुझसे सुन। जिस सुख में साधक मनुष्य भजन, ध्यान और स्वादिष्ट के अभ्यास से रमण करता है और जिससे दुःखों के अन्त को प्राप्त हो जाता है___जो ऐसा सुख है, वह प्रथम यद्यपि विष के तुल्य प्रतीत होता है, परंतु परिणाम में अमृत के तुल्य है; इसलिये वह परमात्मविषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होनेवाला सुख सात्विक कहा गया है। जो सुख विषय और  इन्द्रियों के संयोग से होता है, वह पहले___भोगकाल में अमृत के तुल्य प्रतीत होने पर भी परिणाम में विष के तुल्य है; इसलिये वह सुख राजस कहा गया है। जो भोगकाल में और परिणाम में भी आत्मा को मोहित करनेवाला है, वह निद्रा, आलस्य और प्रसाद से उत्पन्न हुआ सुख तामस कहा गया है। पृथ्वी में या आकाश में अथवा देवताओं में तथा इनके सिवा और कहीं भी ऐसा कोई भी सर्व नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो। परंतप ! ब्राह्मण, क्षत्रिय और मवेशियों के तथा सूत्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किये गये हैं। अन्तःकरण का निग्रह करना; इन्द्रियों का दमन करना; धर्मपालन के लिये कष्ट सहना; बाहर_भीतर से शुद्ध रहना; दूसरों के अपराधों को क्षमा करना; मन, इन्द्रिय और शरीर को सरल रखना; वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्धा रखना; वेद_शास्त्रों का अध्ययन_ अध्यापन करना और परमात्मा के तत्व का अनुभव करना___ये सब_के_सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं। शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागना, दान देना और स्वामिभाव___ये सब_के_सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं। खेती, गोपालन और क्रय_विक्रयरूप सत्य व्यवहार___ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं तथा सब वर्णों की सेवा करना शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है। अपने_अपने स्वाभाविक कर्मों में तत्परता से लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार से कर्म करके परम सिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू सुन।
जिस परमेश्वर से संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे वह समस्त जगत् व्याप्त है, उस परमेश्वर का अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। अच्छी प्रकार आचरण किये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है; क्योंकि स्वभाव से नियत किये हुए स्वधर्म रूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता। अतएव कुन्तीपुत्र ! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिए; क्योंकि धूएँ से अग्नि की भाँति सभी कर्म किसी_न_किसी दोष से ढके हुए हैं। सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धिवाला, स्पृहारहित और जीते हुए अंतःकरणवाला पुरुष सांख्ययोग के द्वारा भी परम नैष्कर्म्यसिद्धि को प्राप्त होता है। कुन्तीपुत्र ! अंतःकरण की शुद्धिरूप सिद्धि को प्राप्त हुआ मनुष्य जिस प्रकार से सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त होता है, जो ज्ञानयोग की परा निष्ठा है, उसको तू संक्षेप में ही जान।
विशुद्ध बुद्धि से युक्त तथा हल्का, सात्विक और नियमित भोजन करनेवाला, शब्दादि विषयों का त्याग करके एकान्त और शुद्ध देश का सेवन करनेवाला, सात्विक धारणशक्ति के द्वारा अंतःकरण और इन्द्रियों का संयम करके मन, वाणी और शरीर को वश में करनेवाला, राग_द्वेष को सर्वथा नष्ट करते भली_भाँति दृढ़ वैराग्य का आश्रय लेनेवाला तथा अहंकार, बल, काम, क्रोध का त्याग करके निरन्तर ध्यानयोग के परायण रहनेवाला, ममतारहित और शान्तियुक्त पुरुष सच्चिदानन्द ब्रह्म में एकीभाव से स्थित, प्रसन्न मनवाला योगी न तो किसी के लिये शोक करता है और न किसी की आशंका ही करता है। ऐसा समस्त प्राणियों में समभाववाला योगी मेरी पराभक्ति को प्राप्त हो जाता है। उस पराभक्ति के द्वारा वह मुझ परमात्मा को, मैं जो हूँ और जितना हूँ, ठीक वैसा_का_वैसा तत्व से जान लेता है तथा उस भक्ति से मुझको तत्व से जानकर तत्काल ही मुझमें प्रविष्ट हो जाता है।मेरे परायण हुआ कर्मयोगी तो संपूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परम पद को प्राप्त हो जाता है। सब कर्मों को मन से मुझमें अर्पण करके तथा समत्वबुद्धियरूप योग को अवलम्बन करके मेरे परायण और निरन्तर मुझमें चित्तवाला हो। उपर्युक्त प्रकार से मुझमें चित्तवाला होकर तू मेरी कृपा से समस्त संकटों को अनायास ही पार कर जायगा और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को न सुनेगा तो नष्ट हो जायगा। जो तू अहंकार का आश्रय लेकर यह मान रहा है कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’, तेरा यह निश्चय मिथ्या है; क्योंकि तेरा स्वभाव जबर्दस्ती युद्ध में लगा देगा। कुन्तीपुत्र ! जिस कर्म को तू मोह के कारण करना नहीं चाहता, उसको भी अपने पूर्वकृत स्वाभाविक कर्म से बँधा हुआ परवश होकर करेगा। अर्जुन ! शरीररूप यंत्र में आरूढ हुए संपूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण करता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है। भारत ! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में जा। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शान्ति को तथा सनातन परम धाम को प्राप्त होगा।इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुझसे कह दिया। अब तू इस रहस्ययुक्त ज्ञान को पूर्णतया भली_भाँति विचारकर जैसे चाहता है वैसे ही कर। संपूर्ण गोपनीयों से अति गोपनीय मेरे परम रहस्ययुक्त वचन को तू फिर भी सुन। तू मेरा अतिशय प्रिय है, इससे यह परम प्रचारक वचन मैं तुझसे कहूँगा। अर्जुन ! तू मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करनेवाला हो और मुझको प्रणाम कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा। यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ; क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है। सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में आ जा। मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर।तुझे यह गीतारूप रहस्यमय उपदेश किसी भी काल में न तो तपरहित मनुष्य से कहना चाहिये, न भक्तिरहित से और न बिना सुनने की इच्छावाले से ही कहना चाहिये तथा जो मुझमें दोषदृष्टि रखता है, उससे भी कभी नहीं कहना चाहिये। जो पुरुष मुझमें परम प्रेम करके इस परम रहस्ययुक्त गीता_शास्त्र को मेरे भक्तों में कहेगा, वह मुझको ही प्राप्त होगा___इसमें कोई संदेह नहीं है। मेरा उससे बढ़कर प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है तथा मेरा उससे बढ़कर प्रिय भविष्य में दूसरा कोई होगा भी नहीं। तथा जो पुरुष इस धर्ममय हम दोनों के संवादरूप गीताशास्त्र को पढ़ेगा, उसके द्वारा मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊँगा___ऐसा मेरा मत है। जो पुरुष श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टि से रहित होकर इस गीताशास्त्र का श्रवण भी करेगा, वह भी पापों से मुक्त होकर उत्तम कर्म करनेवालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होगा। पार्थ ! क्या मेरे द्वारा कहे हुए इस उपदेश को तूने एकाग्रचित्त से श्रवण किया ? और धनंजय ! क्या तेरा अज्ञानजनित मोह नष्ट हो गया ?अर्जुन बोले___ अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है; अब मैं संशयरहित होकर स्थित हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूँगा। संजय बोले___इस प्रकार मैंने श्रीकृष्ण और अर्जुन के इस अद्भुत रहस्ययुक्त, रोमांचकारक संवाद को सुना। श्रीव्यासजी की कृपा से दिव्यदृष्टि पाकर मैंने इस परम गोपनीय रहस्य को अर्जुन के प्रति कहते हुए स्वयं योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण से प्रत्यक्ष सुना है। राजन् ! भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन के इस रहस्ययुक्त, कल्याणकारक और अद्भुत संवाद को पुनः_पुनः स्मरण करके मैं बारम्बार हर्षित हो रहा हूँ। राजन् ! शारीरिक के उस अत्यन्त विलक्षण रूप को भी पुनः_पुनः स्मरण करके मेरे चित्त में महान् आश्चर्य होता है और बारम्बार हर्षित हो रहा हूँ। राजन् ! जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण भगवान् हैं और जहाँ गाण्डीव धनुर्धारी अर्जुन हैं, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है___ ऐसा मेरा मत है।