Monday 29 February 2016

वनपर्व---धुमत्सेन और शैव्या की चिन्ता, सत्यवान् और सावित्री का आश्रम में पहुँचना तथा धुमत्सेन का राज्य पाना

धुमत्सेन और शैव्या की चिन्ता, सत्यवान् और सावित्री का आश्रम में पहुँचना तथा धुमत्सेन का राज्य पाना
मार्कण्डेयजी कहते हैं---राजन् !  इसी बीच में धुमत्सेन को पुत्र के न आने से उन्हें बड़ी चिन्ता हुई और रानी शैव्या के सहित वे उसे सब आश्रमों में घूमकर देखने लगे। फिर उनके पास समस्त आश्रमवासी आये और उन्हें धीरज बँधाकर उनके आश्रम ले गये। वहाँ बड़े-बूढ़े उन्हें प्राचीन राजाओं की तरह-तरह की कथाएँ सुनाकर धैर्य बँधाने लगे। उनमें सुवर्ण नाम का ब्राह्मण बड़ा सत्यवादी था। उसने कहा, 'सत्यवान् की स्त्री सावित्री तप, इन्द्रियसंयम और सदाचार का सेवन करनेवाली है; इसलिये वह अवश्य जीवित होगा।' जब सत्यवक्ता ऋषियों ने धुमत्सेन को इस प्रकार समझाया तो उन सबकी बात मानकर वे स्थिर हो गये। इसके कुछ देर बाद सत्यवान् के सहित सावित्री आ गयी और वे दोनो प्रसन्न होते हुए आश्रम में घुस गये। सभी के पूछने पर सावित्री ने पूरी कहानी सुना दी। ऋषियों ने कहा---साध्वी ! तू सुशीला, व्रतशीला और पवित्र आचरणवाली है। तूने उत्तम कुल में जन्म लिया है। राजा धुमत्सेन का दुःखाक्रान्त परिवार आज अन्धकारमय गड्ढ़े में डूबा जाता था, सो तूने उसे बचा लिया। मार्कण्डयी कहते हैं---राजन् ! वहाँ एकत्रित हुए ऋषियों ने इस प्रकार प्रशंसा करके स्त्रीरत्नभूता सावित्री का सत्कार किया तथा राजा और राजकुमारी की अनुमति लेकर प्रसन्नचित्त से अपने-अपने आश्रमों को चले गये। दूसरे दिन शाल्वदेश के समस्त राजकर्मचारियों ने आकर धुमत्सेन से कहा कि 'वहाँ जो राजा था उसे उसी के मंत्री ने मार डाला है तथा उसके किसी सहायक और स्वजन को भी जीवित नहीं छोड़ा है। शत्रु की सारी सेना भाग गयी है और सारी प्रजा ने आपके विषय में एकमत होकर यह निश्चय किया है कि उन्हें दीखता हो अथवा न दीखता हो, वे ही हमारे राजा होंगे। राजन् ! ऐसा निश्चय करके ही हमें यहाँ भेजा गया है। हम आपके लिये ये सवारियाँ आपकी चतुरंगिणी सेना लाये हैं।  आप प्रस्थान करने की कृपा कीजिये। नगर में आपकी जय घोषित कर दी गयी है। आप अपने बाप-दादों के राज पर चिर-काल तक प्रतिष्ठित रहें।' फिर राजा धुमत्सेन को नेत्रयुक्त और स्वस्थ शरीरवाला देखकर उन सभी के नेत्र आश्चर्य से खिल उठे और उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम किया। राजा ने आश्रम में रहनेवालों को अभिवादन किया और अपनी राजधानी को चल दिये। वहाँ पहुँचने पर पुरोहितों ने बड़ी प्रसन्नता से धुमत्सेन का राज्याभिषेक किया और उनके पुत्र महात्मा सत्यवान् को युवराज बनाया। इसके बहुत समय बाद सावित्री के सौ पुत्र हुए, जो संग्राम में पीठ न दिखानेवाले और यश की वृद्धि करनेवाले शूरवीर थे। इसी प्रकार मद्रराज अश्वपति की रानी मालवी से उसके वैसे ही सौ भाई थे। इस प्रकार सावित्री ने अपने को तथा माता-पिता, सास-ससुर और पति के कुल---इन सभी को संकट से उबार लिया। इन सभी को संकट से उबार लिया। इसी प्रकार यह सावित्री के समान शीलवती, कुलकामिनी, कल्याणी द्रौपदी भी आप सबका उद्धार करेगी। इस प्रकार मार्कण्डेयजी के समझाने से शोक और संताप से मुक्त होकर महाराज युधिष्ठिर काम्यक वन में रहने लगे। जो पुरुष इस परम पवित्र सावित्रीचरित को श्रद्धापूर्वक सुनेगा, वह समस्त मनोरथों के सिद्ध होने से सुखी होगा और कभी दुःख में न पड़ेगा।

Saturday 27 February 2016

वनपर्व---सावित्री द्वारा सत्यवान् को जीवनदान

सावित्री द्वारा सत्यवान् को जीवनदान
जब बहुत दिन बीत गये तो अन्त में समय आ ही गया, जिस दिन कि सत्यवान् मरने वाला था। सावित्री एक-एक दिन गिनती रहती थी और उसके हृदय में नारदजी का वचन सदा ही बना रहता था। जब उसने देखा कि अब इन्हें चौथे दिन मरना है तो उसने तीन दिन का व्रत धारण किया और वह रात दिन स्थिर होकर बैठी रही । कल पतिदेव के प्राण प्रयाण करेंगे, इस चिंता में सावित्री ने बैठे-बैठे ही वह रात बितायी । दूसरे दिन यह सोचकर कि आज ही वह दिन है, उसने सूर्यदेव के चार हाथ ऊपर उठते-उठते अपने सभी आह्लिक कृत्य समाप्त किये और प्रज्जवलित अग्नि में आहुतियाँ दीं । फिर सभी बड़े-बूढ़े, सास और ससुर को क्रमशः प्रणाम कर संयम पूर्वक हाथ जोड़कर खड़ी रही । उस तपोवन में रहनेवाले सभी तपस्वियों ने उसे अवैधव्य के सूचक शुभ आशीर्वाद दिये और सावित्री ने तपस्वियों की उस वाणी को 'ऐसा ही हो' इस प्रकार ध्यान योग में स्थित होकर ग्रहण किया। इसी समय सत्यवान् के कन्धे पर कुल्हाड़ी रखकर वन से समिधा लाने को तैयार हुआ। तब सावित्री ने कहा, 'आप अकेले न जायँ, 'मैं भी आपके साथ चलूँगी।' सत्यवान् ने कहा, 'प्रिये ! तुम पहले कभी वन में गयी नहीं हो, वन का रास्ता बड़ा कठिन होता है और तुम उपवास के कारण दुर्बल हो रही हो; फिर इस विकट मार्ग में पैदल ही कैसे चलोगी ?' सावित्री बोली, 'उपवास के कारण मुझे किसी प्रकार की शिथिलता या थकान नहीं है, चलने के लिये मन में बहुत उत्साह है। इसलिये आप रोकिये मत।' सत्यवान् ने कहा 'यदि तुम्हे चलने का उत्साह है तो, जो तुम्हे अच्छा लगे, करने को तैयार हूँ; किन्तु तुम माताजी और पिताजी से भी आज्ञा ले लो। तब सावित्री ने अपने सास-ससुर को प्रणाम करके कहा, 'मेरे स्वामी फल दिलाने के लिये वन में जा रहे हैं। यदि सासजी और ससुरजी आज्ञा दें तो आज मैं भी इनके साथ जाना चाहती हूँ।' इसपर धुमत्सेन ने कहा, 'जब से पिता के कन्यादान करने पर सावित्री बहू बनकर हमारे आश्रम में रही है, तबसे मुझे इसके किसी भी बात के लिये याचना करने का स्मरण नहीं है।अतः आज इसकी इच्छा अवश्य पूरी होनी चाहिये । अच्छा, बेटी ! तू जा, मार्ग में सत्यवान् की संभाल रखना।' इस प्रकार सास-ससुर की आज्ञा पाकर यशस्विनी सावित्री अपने पतिदेव के साथ चल दी। वह ऊपर से तो हँसती सी जान पड़ती थी, किन्तु उसके हृदय में दुःख की ज्वाला धधक रही थी।वीर सत्यवान् ने पहले तो अपनी पत्नी के सहित फल बीनकर एक टोकरी भर ली और वह लकड़ियाँ काटने लगा। लकड़ी काटते-काटते परिश्रम के कारण उसे पसीना आ गया और इसी से उसके सिर में दर्द होने लगा । इस प्रकार श्रम से पीड़ित होकर उसने सावित्री के पास जाकर कहा, 'प्रिेये ! आज लकड़ी काटने के परिश्रम से मेरे सिर में दर्द होने लगा है तथा सारे अंगों में और हृदय में भी दाह सा होता है; मुझे शरीर कुछ अस्वस्थ सा जान पड़ता है और ऐसा मालूम होता है कि मा मेरे सिर में कोई बर्छी छेद रहा है । कल्याणी ! अब मैं सोना चाहता हूँ बैठने की मुझ में शक्ति नहीं है।'यह सुनकर सावित्री अपने पति के पास आयी और उसका सिर गोदी में रखकर पृथ्वी पर बैठ गयी । फिर वह नारद जी की बात याद करके उस मुहूर्त, क्षण और दिन का विचार करने लगी। इतने में ही उसे वहाँ एक पुरुष दिखाई दिया।वह लाल वस्त्र पहने था, उसके सिर पर मुकुट था और अत्यन्त तेजस्वी होने के कारण वह मूर्तिमान सूर्य के समान जान पड़ता था । उसका शरीर श्याम और सुन्दर था, नेत्र लाल-लाल थे, हाथ में पाश था और देखने में वह बड़ा भयानक जान पड़ता था। वह सत्यवान् के पास खड़ा हुआ उसी की ओर देख रहा था। उसे देखते ही सावित्री ने धीरे से पति का सिर भूमि पर रख दिया और सहसा खड़ी हो गयी। उसका हृदय धड़कने लगा और उसने अत्यन्त आर्त होकर उससे हाथ जोड़कर कहा, 'मैं समझती हूँ आप कोई देवता हैं, क्योंकि आपका यह शरीर मनुष्य का –सा नहीं है। यदि आपकी इच्छा हो तो बताइये आप कौन हैं और क्या करना चाहते हैं ? 'यमराज ने कहा---सावित्री ! तू पतिव्रता और तपस्विनी है, इसलिये मैं तुझसे सम्भाषण कर लूँगा। तू मुझे यमराज जान। तेरे पति इस राजकुमार सत्यवान् की आयु समाप्त हो चुकी है, अब मैं इसे पाश में बाँध कर ले जाऊँगा। यही मैं करना चाहता हूँ। सावित्री ने कहा---भगवन् ! मैने ऐसा सुना है कि मनुष्यों को लेने के लिये आपके दूत आया करते हैं। यहाँ स्वयं आप ही कैसे पधारे ? यमराज बोले---सत्यवान् धर्मात्मा, रूपवान् और गुणों का समुद्र है। यह मेरे दूतों द्वारा ले जाने योग्य नहीं है। इसी से मैं स्वयं आया हूँ। इसके बाद यमराज ने बलात् सत्यवान् के शरीर में से पाश में बँधा हुआ अंगुष्ठमात्र परिमाणवाला जीव निकाला। उसे लेकर वे दक्षिण की ओर चल दिेये। तब दुःखातुरा सावित्री भी यमराज के पीछे ही चल दी। यह देखकर यमराज ने कहा, 'सावित्री ! तू लौट जा और इसका दैहिक संस्कार कर। तू पतिसेवा के ऋण से मुक्त हो गयी है। पति के पछे भी तुझे जहाँ तक आना था, वहाँ तक आ चुकी है।' सावित्री बोली---मेरे पतिदेव जहाँ भी ले जाया जायगा अथवा जहाँ वे स्वयं जायेंगे, वहीं मुझे भी जाना चाहिये यही सनातन धर्म है। तपस्या, गरुभक्ति, पतिप्रेम, व्रताचरण और आपकी कृपा से मेरी गति कहीं भी रुक नहीं सकती। यमराज बोले---सावित्री ! तेरी स्वर, अक्षर, व्यंजन एवं युक्तियों से युक्त बात सुनकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। तू सत्यवान् के जीवन के  सिवा कोई भी वर माँग ले। मैं तुझे सब प्रकार का वर देने को तैयार हूँ। सावित्री ने कहा---मेरे ससुर राज्यभ्रष्ट होकर वन में रहने लगे हैं और उनकी आँखें भी जाती रही हैं। सो वे आपकी कृपा से नेत्र प्राप्त करें, बलवान हो जायँ और अग्नि तथा सूर्य के समान तेजस्वी हो जायँ। यमराज बोले---साध्वी सावित्री ! मैं तुझे यह वर देता हूँ। तूने जैसा कहा है, वैसा ही होगा। तू मार्ग चलने से शिथिल सी जान पड़ती है। अब तू लौट जा, जिससे तुझे विशेष थकान न हो। सावित्री ने कहा---पतिदेव के समीप रहते हुए मुझे श्रम कैसे हो सकता है। जहाँ मेरे प्राणनाथ रहेंगे, वहीं मेरा आश्रम होगा। देवेश्वर ! जहाँ आप पतिदेव को ले जा रहे हैं, वहाँ मेरी भी गति होनी चाहिये। इसके सिवा मेरी एक बात और सुनिये। सत्पुरुषों का तो एक बार का समागम भी अत्यन्त अभीष्ट होता है। उससे भी बढ़कर उनके साथ प्रेम हो जाना है। संतमागम निष्फल कभी नहीं होता, अतः सर्वदा सत्पुरुषों के ही साथ रहना चाहिये। यमराज बोले---सावित्री ! तूने जो हित की बात कही है, वह मेरे मन को बड़ी ही प्रिय जान पड़ी है। उससे विद्वानों की भी बुद्धि का विकास होगा ! अतः इस सत्यवान् के जीवन के सिवा तू कोई भी दूसरा वर माँग ले। सावित्री ने कहा---पहले मेरे मतिमान् ससुरजी का जो राज्य छीन लिया गया है, वह उन्हें स्वयं ही प्राप्त हो जाय और वे अपने धर्म का त्याग न करें--यह मैं आपसे दूसरा वर माँगती हूँ। यमराज बोले---राजा धुमत्सेन शीघ्र ही अपने आप राज्य प्राप्त करेंगे और वे अपने धर्म का भी त्याग नहीं करेंगे। अब तेरी इच्छा पूरी हो गयी; तू लौट जा, जिससे तुझे व्यर्थ श्रम न हो। सावित्री ने कहा---देव ! इस सारी प्रजा का आप नियम से संयम करते हैं और उसका नियमन करके उसे अभीष्ट फल भी देते हैं; इसी से आप 'यम' नाम से विख्यात हैं। अतः मैं जो बात कहती हूँ, उसे सुनिये।  मन, वचन और कर्म से समस्त प्राणियों के प्रति अद्रोह, सब पर कृपा करना और दान देना---यह सत्पुरुषों का सनातन धर्म है। और इस प्रकार का तो प्रायः यह सभी लोक है---सभी मनुष्य अपनी शक्ति के अनुसार कोमलता का वर्ताव करते हैं। किन्तु जो सत्पुरुष हैं, वे तो अपने पास आये शत्रुओं पर भी दया करते हैं। यमराज बोले---कल्याणी ! प्यासे आदमी को जैसे जल पाकर आनन्द होता है, तेरी यह बात वैसी ही प्रिय लगनेवाली है। इस सत्यवान् के जीवन के सिवा तू फिर कोई अभीष्ट वर माँग ले। सावित्री ने कहा---मेरे पिता राजा अश्वपति पुत्रहीन हैं; उनके अपने कुल की वृद्धि करनेवाले सौ पुत्र हों---यह मैं तीसरा वर माँगती हूँ। यमराज बोले---राजपुत्री ! तेरे पिता के कुल की वृद्धि करनेवाले सौ तेजस्वी पुत्र होंगे। अब तेरी इच्छा पूर्ण हो गयी, तू लौट जा; अब बहुत दूर आ गयी है। सावित्री ने कहा---पतिदेव की सन्निधि के कारण यह कुछ दूरी नहीं जान पड़ती। मेरा मन तो बहुत दूर-दूर की दौड़ लगाता है। अतः अब मैं जो बात कहती हूँ, उसे भी सुनने की कृपा करें। आप सूर्य के प्रतापी पुत्र हैं, इसलिये पण्डितजन आपको 'वैवस्वत' कहते हैं। आप शत्रुमित्रादि के भेदभाव को छोड़कर सबका समान रूप से न्याय करते हैं, इसी से सब प्रजा धर्म का आचरण करती है और आप 'धर्मराज' कहलाते हैं। इसके सिवा मनुष्य सत्पुरुषों का सा जैसा विश्वास करता है, वैसा अपना भी नहीं करता। इसलिये वह सबसे ज्यादा सत्पुरुषों में ही प्रेम करना चाहता है। और विश्वास सभी जीवों को सुहृदता की अधिकता के कारण हुआ करता है; अतः सुहृदता की अधिकता के कारण ही सब लोग संतों में विशेषरूप से विश्वास किया करते हैं। यमराज बोले---सुन्दरी ! तूने जैसी बात कही है, वैसी मैने तेरे सिवा और किसी के मुँह से नहीं सुनी। इससे मैं बहुत प्रसन्न हूँ। तू इस सत्यवान् के जीवन के सिवा कोई भी चौथा वर माँग ले और यहाँ से लौट जा। सावित्री ने कहा---मेरे सत्यवान् के द्वारा कुल की वृद्धि करनेवाले बड़े बलवान् और पराक्रमी सौ पुत्र हों।--यह मैं चौथा वर माँगती हूँ। यमराज बोले---अबले ! तेरे बल और पराक्रम से सम्पन्न सौ पुत्र होंगे, जिनसे तुझे बड़ा आनन्द प्रात्त होगा। राजपुत्री ! अब तू लौट जा, जिससे तुझे थकान न हो। तू बहुत दूर आ गयी है। सावित्री ने कहा---सत्पुरुषों की वृति निरन्तर धर्म में ही रहा करती है, वे कभी दुःखित या व्यथित नहीं होते। सत्पुरुषों के साथ जो सत्पुरुषों का समागम होता है, वह कभी निष्फल नहीं होता और संतों से कभी संतों को कभी भय भी नहीं होता। सत्पुरुष सत्य के बल से सूर्य को भी अपने समीप बुला लेते हैं, वे अपने तप के प्रभाव से पृथ्वी को धारण किये हुए हैं। संत ही भूत और भविष्यत् के आधार हैं, उनके बीच में रहकर सत्पुरुषों को कभी खेद नहीं होता। यह सनातन सदाचार सत्पुरुषों द्वारा सेवित है--ऐसा जानकर सत्पुरुष सदाचार करते हैं और प्रत्युपकार की ओर कभी दृष्टि नहीं डालते। यमराज बोले---पतिव्रते ! जैसे-जैसे तू मुझे गम्भीर अर्थ से युक्त एवं चित्त को प्रिय लगनेवाली धर्मानुकूल बातें सुनाती जाती है, वैसे-वैसे ही तेरे प्रति मेरी अधिकाधिक श्रद्धा होती जाती है। अब तू मुझसे कोई अनुपम वर माँग ले। सावित्री ने कहा---हे मानद ! आपने जो मुझे पुत्र-प्राप्ति का वर दिया है, वह बिना दाम्पत्य-धर्म के पूर्ण नहीं हो सकता। अतः अब मैं यही वर माँगती हूँ कि ये सत्यवान् जीवित हो जायँ। इससे आपही का वचन सत्य होगा, क्योंकि पति के बिना तो मैं मौत के मुख में ही पड़ी हुई हूँ। पति के बिना मुझे कैसा ही सुख मिले, मुझे उसकी इच्छा नहीं है; पति के बिना मुझे स्वर्ग की भी कामना नहीं है; पति के बिना यदि लक्ष्मी आवे तो मुझे उसकी भी आवश्यकता नहीं है तथा पति के बिना तो मैं जीवित रहना भी नहीं चाहती। आपही ने मुझे सौ पुत्र होने का वर दिया है, और फिर भी आप मेरे पतिदेव को लिे जा रहे हैं ! अतः मैं जो यह वर माँग रही हूँ कि यह सत्यवान् जीवित हो जाय, इससे भी आपका ही वचन सत्य होगा।यह सुनकर सूर्यपुत्र यम बड़े प्रसन्न हुए और 'ऐसा ही हो' कहते हुए सत्यवान् का बन्धन खोल दिया। इसके बाद वे सावित्री से कहने लगे, 'हे कुलनन्दिनी कल्याणी !' ले मैं तेरे पति को छोड़ता हूँ। अब यह सर्वथा निोग हो जायगा। तू इसे घर ले जा, इसके सभी मनोरथ पूरे होंगे। यह तेरे सहित चार सौ वर्षों तक जीवित रहेगा तथा धर्मपूर्वक यज्ञानुष्ठान करके लोक में कीर्ति प्राप्त करेगा। इससे तेरे गर्भ से सौ पुत्र उत्पन्न होंगे।' इस प्रकार सावित्री को वर देकर और उसे लौटाकर प्रतापी धर्मराज अपने लोक को चल गये। यमराज के चले जाने पर सावित्री अपने पति को पाकर उस स्थान पर आयी, जहाँ सत्यवान् का शव पड़ा था। पति को पृथ्वी पर पड़ा देखकर वह उसके पास बैठ गयी और उसका सिर उठाकर गोद में रख लिया। थोड़ी ही देर में सत्यवान् के शरीर में चेतना आ गयी और वह सावित्री की ओर बार-बार प्रेमपूर्वक देखता हुआ इस प्रार बातें करने लगा मानो बहुत दिनों के प्रवास के बाद लौटा हो। वह बोला, 'मैं बड़ी देर तक सोता रहा, तुमने जगाया क्यों नहीं ? यह काले रंग का मनुष्य कौन था, जो मुझे खींचे लिये जाता था ?' सावित्री ने कहा, 'पुरुषश्रेष्ठ ! आप बड़ी देर से मेरी गोद में सोये पड़े हैं। वे श्यामवर्ण के पुरुष प्रजा का नियंत्रण करनेवाले देवश्रेष्ठ भगवान् यम थे। अब वे अपने लोक में चले गये हैं। देखिये, सूर्य अस्त हो चुका है और रात्रि गाढ़ी होती जा रही है; इसलिये ये सब बातें तो जैसे-तैसे हुईं हैं, कल सुनाऊँगी। इस समय तो आप उठकर माता-पिता के दर्शन कीजये। सत्यवान् ने कहा---ठीक है, चलो। देखो, अब मेरे सिर में दर्द नहीं है और न मेरे किसी और अंग में पीड़ा ही है। मेरा सारा शरीर स्वस्थ प्रतीत होता है। मैं चाहता हूँ तुम्हारी कृपा से शीघ्र ही अपने वृद्ध माता-पिता के दर्शन करूँ। प्रिये ! मैं किसी दिन भी देर करके आश्रम में नहीं जाता था। सन्ध्या होने से पहले ही मेरी माता मुझे बाहर जाने से रोक देती थी। दिन में भी, जब मैं आश्रम से बाहर जाता तो मेरे माता-पिता मेरे लिये चिन्ता में डूब जाते थे और अधीर होकर आश्रमवासियों को साथ ले मुझे ढ़ूँढ़ने को चल देते थे। अतएव कल्याणी ! मुझे इस समय अपने अंधे पिता की और उनकी सेवा में लगी हुई दुर्बल शरीर अपनी माता की जितनी चिन्ता हो रही है, उतनी अपने शरीर की भी नहीं है। मेरे परम पूज्य पवित्रतम माता-पिता मेरे लिये आज कितना संताप सह रहे होंगे ! जबतक मेरे माता-पिता जीवित हैं, तभी तक मैं जीवन धारण किये हुए हूँ।' पति की बात सुनकर सावत्री खड़ी हो गयी। उसने सत्यवान् को उठाया, अपने बायें कन्धे पर उसका हाथ रखा और दायाँ हाथ उसकी कमर में डालकर उसे ले चली। तब सत्यवान् ने कहा, 'भीरु ! इस रास्ते में आने-जाने का अभ्यास होने के कारण मैं इससे अच्छी तरह परिचित हूँ, और अब वृक्षों के बीच में होकर चन्द्रमा की चाँदनी भी फैलने लगी है। हम कल जिस रास्ते पर फल बीन रहे थे, वही आ गया है; इसलिये अब सीधे इस मार्ग से चली चलो, कुछ और सोच विचार मत करो। मैं भी अब स्वस्थ और सबल हो गया हूँ और माता-पिता को देखने की भी मुझे जल्दी है। ऐसा कहकर वह जल्दी-जल्दी आश्रम की ओर चलने लगा।

Monday 22 February 2016

वनपर्व---सावित्री चरित्र---सावित्री का जन्म और विवाह

सावित्री चरित्र---सावित्री का जन्म और विवाह


युधिष्ठिर ने पूछा---मुनिवर ! इस द्रौपदी के लिये मुझे जैसा शोक होता है, इन भाइयों के लिये और राज्य छिन जाने के लिये ही। यह जैसी पतिव्रता है, वैसी क्या कोई दूसरी भाग्यवती नारी भी आपने पहले कभी देखी या सुनी है ? मार्कण्डेयजी ने कहा---राजन् ! राजकन्या सावित्री ने जिस प्रकार यह कुलकामिनियों का परम सौभाग्यरूप पातिव्रत्य का सुयश प्राप्त किया था, वह मैं कहता हूँ; सुनो। 
मद्रदेश में अश्वपति नाम का एक बड़ा ही धार्मिक और ब्राह्मणसेवी राजा था। वह अत्यन्त उदारहृदय, सत्यनिष्ठ, जितेन्द्रिय, दानी, चतुर, पुरवासी और देशवासियों का प्रिय, समस्त प्राणियों के हित में तत्पर रहनेवाला और क्षमाशील था। उस नियमनिष्ठ राजा की धर्मशीला ज्येष्ठा पत्नी को गर्भ रहा यथासमय उसके एक कमलनयनी कन्या उत्पन्न हुई। राजा ने प्रसन्न होकर उस कन्या के जातकर्मादि सब संस्कार किये। वह कन्या सावित्री के मन्त्र द्वारा हवन करने पर सावित्री देवी ने ही प्रसन्न होकर दी थी; इसलिये ब्राह्मणों ने और राजा ने उसका नाम 'सावित्री' रखा। मूर्तिमति लक्ष्मी के समान वह कन्या धीरे-धीरे बढ़ने लगी। यथासमय उसने युवावस्था में प्रवेश किया। कन्या को युवती हुई देखकर महाराज अश्वपति बड़े चिन्तित हुए। उन्होंने सावित्री से कहा, 'बेटी ! अब तू विवाह के योग्य हो गयी है, इसलिये स्वयं ही अपने योग्य कोई वर खोज ले। धर्मशास्त्र की ऐसी आज्ञा है कि विवाह के योग्य हो जाने पर जो कन्यादान नहीं करता, वह पिता निन्दनीय है; ऋतुकाल में जो पति स्त्रीसमागम नहीं करता, वह पति निन्दा का पात्र है और पति के मर जाने पर उस विधवा माता का जो पालन नहीं करता वह पुत्र निन्दनीय है। अतः तू शीघ्र ही वर की खोज कर ले और ऐसा कर, जिससे मैं देवताओं की दृष्टि में अपराधी बनूँ।' पुत्री से ऐसा कहकर उन्होंने अपने बूढ़े मंत्रियों को आज्ञा दी कि 'आपलोग सवारी लेकर सावित्री के साथ जायँ।' तपस्विनी सावित्री ने कुछ सकुचाते हुए पिता की आज्ञा स्वीकार की और उनके चरणों में नमस्कार कर सुवर्ण के रथ में चढ़कर बूढ़े मंत्रियों के साथ रथ में चढ़कर बूढ़े मंत्रियों के साथ वर की खोज करने चल दी। वह राजर्षियों के रमणीय तपोवन में गयी और उन माननीय वृद्ध पुरुषों के चरणों की वन्दना कर फिर क्रमशः अन्य सब वनों में विचरती रही। इस तरह वह सभी तीर्थों में श्रेष्ठ ब्राह्मण को धन दान करती विभिन्न देशों में घूमती रही।राजन् ! एक दिन मद्रराज अश्वपति अपनी सभा में बैठे हुए देवर्षि नारद से बातें कर रहे थे। उसी समय मंत्रियों के सहित सावित्री समस्त तीर्थों में विचरकर अपने पिता के घर पहुँची। वहाँ पिता को नारद के साथ बैठे देखकर उसने दोनो ही के चरणों में प्रणाम किया।उसे देखकर नारदजी ने पूछा, 'राजन् ! आपकी यह पुत्री कहाँ गयी थी और अब कहाँ से रही है ? यह युवती हो गयी है, फिर भी आप किसी वर के साथ इसका विवाह क्यों नहीं करते ?' अश्वपति ने कहा, 'इसे मैने किसी काम के लिये भेजा था और यह आज ही लौटी है। आपइसी से पूछिये इसने किस वर को चुना है।' तब पिता के यह कहने पर कि तू अपना वृतान्त सुना दे, सावित्री ने उनकी बात मानकर कहा---'शाल्वदेश में धुमत्सेन नाम से विख्यात एक बड़े धर्मात्मा राजा थे। पीछे वे अन्धे हो गये थे। इस प्रकार आँखें चले जाने से और पुत्र की पुत्र की बाल्यावस्था होने से अवसर पाकर उसके पूर्वशत्रु एक पड़ोसी राजा ने उनका राज्य हर लिया। अपने बालक पुत्र और भार्या के सहित वे वन में चले गे और बड़े-बड़े व्रतों का पालन करते हुए तपस्या करने लगे। उनके कुमार सत्यवान्, जो अब वन में रहते हुए बड़े हो गये हैं, मेरे अनुरूप हैं और मैने मन से उन्हीं को अपने पतिरूप से वरण किया है।' यह सोचकर नारदजी ने कहा---राजन् ! बड़े खेद की बात है। हाय ! सावित्री से तो बड़ी भूल हो गयी, जो इसने बिना जाने ही गुणवान् समझकर सत्यवान् को वर लिया ! इस कुमार के पिता सत्य बोलते हैं और माता भी सत्यभाषण ही करती है। इसीलिये इसका नाम 'सत्यवान्' रखा गया है। राजा ने पूछा---अच्छा, इस समय अपने पिता का लाड़ला राजकुमार सत्यवान् तेजस्वी, बुद्धिमान्, क्षमावान् और शूरवीर तो है ? नारदजी बोले---वह धुमत्सेन का वीर पुत्र सूर्य के समान तेजस्वी, वृहस्पति के मान बुद्धिमान्, इन्द्र के समान वीर, पृथ्वी के समान क्षमाशील, रन्तिदेव के समान दाता, उशीनर के पुत्र शिबि के समान सत्यवादी, ययाति के समान उदार, चन्द्रमा के समान प्रियदर्शन और अश्विनीकुमारों के समान अद्वितीय रूपवान हैं। वे जितेन्द्रिय हैं, मृदुलस्वभाव हैं, शूरवीर हैं, सत्यवादी हैं, मिलनसार हैं, ईर्ष्याहीन हैं, लज्जाशील हैं और तेजस्वी हैं। तप और शील में बढ़े हुए ब्राह्मणलोग संक्षेप में उसके विषय में ऐसा कहते हैं कि उसमें सरलता का निरन्तर निवास रहता है और उसमें उसकी अविचल स्थिति हो गयी है।अश्वपति ने कहा--भगवन् ! आप तो उसे सभी गुणों से सम्पन्न बता रहे हैं।अब यदि उसमें कोई दोष हो तो वे भी मुझे बताइये। नारदजी ने कहा---उसमें केवल एक ही दोष है; किन्तु उससे उसके सारे गुण दबे हुए हैं तथा किसी प्रयत्न द्वारा भी उसे निवृत किया नहीं जा सकता। उसके सिवा उसमें और कोई दोष नहीं है।वह दोष यह है कि आज से एक वर्ष बाद सत्यवान की आयु समाप्त हो जायगी और वह देह-त्याग कर देगा। तब राजा ने सावित्री से कहा---सावित्री ! यहाँआ।देख, तू फिर जा और किसी दूसरे वर की खोज कर। देवर्षि नारद मुझस कहतेहैं कि सत्यवान् तो अल्पायु है, वह एक वर्ष पीछे ही देह-त्याग कर देगा।सावित्री ने कहा---पिताजी ! काष्ठ-पाषाणादि का टुकड़ा एक बार ही उससे अलग होता है, कन्यादान एक बार ही किया जाता है और 'मैनेदिया' ऐसा संकल्प भी एक बार ही होता है ये तीन बातें एक-एक बार ही हुआ करती हैं।अब तो जिसे मैने एक बार वरण कर लिया --वह दीर्घायु हो अथवा अल्पायु तथा गुणवान् होअथवा गुणहीन--वही मेरा पति होगा; किसी अन्य पुरुष को मैं नहीं वर सकती।पहले मन से निश्चय करके फिर वाणी से कहा जाता है और उसके बाद कर्म द्वारा किया जाता है। अतः मेरे लिये तो मन ही परम प्रमाण है ।नारदजी बोले---राजन् ! तुम्हारी पुत्री सावित्री की बुद्धि निश्चयात्मिका है। इसलिये इसे किसी भी प्रकार इसे धर्म से विचलित नहीं किया जा सकता। सत्यवान् में जो-जो गुण हैं, वे किसी दूसरे पुरुष में हैं भी नहीं ।अतः मुझे भी यही अच्छा जान पड़ता है कि आप उसे कन्यादान कर दें राजा ने कहा---आपने जो बात ही है, वह बहुत ठीक है और किसी प्रकार टाली नहीं जा सकती।अतः मैं ऐसा ही करूँगा मेरे तो आप ही गुरु हैं फिर कन्यादान के विषय में नारदजी की आज्ञा को ही शिरोधार्य समझ राजा अश्वपति ने सब वैवाहिक सामग्री एकत्रित करायी और वृद्ध पुरोहित के सहित सभी ऋत्वजों को बुलाकर शुभ दिन में कन्या के सहित प्रस्थान किया।जब एक पवित्र वन में राजा धुमत्सेन के आश्रम पर पहुँचे तो ब्राह्मणों के साथ पैदल ही उन राजर्षि के पास गये। वहाँ उन्होंने नेत्रहीन राजा धुमत्सेन को सालवृक्ष के नीचे एक कुश के आसन पर बैठे देखा।राजा अश्वपति ने राजर्षि धुमत्सेन की यथायोग्य पूजा की और विनीत शब्दों में उन्हे अपना परिचय दिया।धर्मज्ञ राजर्षि ने अर्ध्य और आसन देकर राजा का सत्कार किया और पूछा, 'कहिये, किस निमित्त से पधारने की कृपा की ?' तब अश्वपति ने कहा, 'राजर्षे ! मेरी यह सावित्री नाम की रूपवति कन्या है।इसे अपने धर्म के अनुसार आप अपनी पुत्रवधू के रूप में स्वीकार कीजिये।' धुमत्सेन ने कहा---हम राज्य से भ्रष्ट हो चुके हैं और यहाँ वन में रहकर संयम पूर्वक तपस्वियों का जीवन व्यतीत करते हैं।आपकी कन्या तो यह सब कष्ट सहन योग्य नहीं है। वह यहाँ आश्रम में वनवास के दुःख को सहन करती हुई कैसे रहेगी ?अश्वपतिनेकहा---राजन् ! सुखऔरदुःखतोआने-जानेवालेहैं, इस बात को मैं और मेरी पुत्री दोनो जानते हैं। मेरे-जैसे आदमी से आपको ऐसी बात नहीं करनी चाहिये, मैं तो सब प्रकार निश्चय करके ही आपके पास आया हूँ। धुमत्सेन बोले---राजन् ! मैं तो पहले ही आपके साथ सम्बन्ध करना चाहता था, किन्तु राजच्युत होने के कारण मैने अपना विचार छोड़ दिया था।अब यदि मेरी पहले की अभिलाषा स्वयं ही पूर्ण होना चाहती है तो ऐसा ही हो।आप तो मेरे अभीष्ट अतिथि हैं।तदनन्तर उस आश्रम में रहनेवाले सभी बाराह्मणों को बुलाकर दोनो राजाओं ने विधिवत् विवाह संस्कार कराया और यथायोग्य रीति से वर-कन्या को आभूषण आदि भी दिये।इसके पश्चात् राजा अश्वपति बड़े आनन्द से अपने भवन को लौट आये।उस सर्वगुणसम्पन्न भार्या को पाकर सत्यवान् को बड़ी प्रसन्नता हुई और अपना मनमाना वर पाकर सावित्री को भी बड़ा आनन्द हुआ।पिता के चले जाने पर सावित्री ने सब आभूषण उतार दिये और वल्कल वस्त्र तथा गेरुये कपड़े पहन लिये।उसकी सेवा, विनय, गुण, संयम और सबके मनके अनुसार काम करने से सभी को बहुत संतोष हुआ।उसने शारीरिक सेवा और सब प्रकार के वस्त्राभूषणों के द्वारा सासको और देवता के समान सत्कार करते हुए अपनी वाणी का संयम करके ससुरजी को संतुष्ट किया इसी प्रकार मधुरभाषण, कार्यकुशलता, शान्ति और एकान्त में सेवा करके पतिदेव को प्रसन्न किया। इस प्रकार उस आश्रम में रहकर तपस्या करते हुए उन्हें कुछ समय बीता