Monday 27 May 2019

अर्जुन का अनेकों महारथियों से भीषण संग्राम तथा जयद्रथ का सिर काटना

राजा धृतराष्ट्र ने पूछा___ संजय ! भूरिश्रवा के मारे जाने पर फिर जिस प्रकार आगे युद्ध हुआ, वह मुझे सुनाओ।
संजय ने कहा___महाराज ! भूरिश्रवा  के परलोक को प्रस्थान करने पर महाबाहु अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा, ‘माधव ! अब जिधर राजा जयद्रथ है, उधर ही घोड़ों को बढ़ाइये। आज जयद्रथ के आगे तीन गतियाँ हैं___ यदि वह लड़ते_ लड़ते मारा गया तो तत्काल स्वर्ग प्राप्त करेगा, यदि पीठ दिखाकर भागते समय मेरे बाण का शिकार हो गया तो नर्क में पड़ेगा और यदि भाग गया, तो अपयश का भागी होगा। अब सूर्य बड़ी तेजी से अस्ताचल की ओर बढ़ रहा है। इसलिये आपको मेरी प्रतिज्ञा सफल कराने का प्रयत्न करना चाहिये। आप घोड़ों को ऐसी तेजी से ले चलिये जिसमें सूर्य अस्त न हो, मेरी प्रतिज्ञा पूरी हो जाय और मैं जयद्रथ को मार सकूँ।‘ अब अस्त्रविद्या में कुशल भगवान् कृष्ण ने घोड़ों को जयद्रथ के रथ की ओर हाँका। अर्जुन को जयद्रथ का वध करने के लिये बढते देख राजा दुर्योधन ने कर्ण से कहा, ‘ वीरवर ! अब थोड़ा ही दिन रह गया है। आज अपने बाणों से तुम शत्रु पर प्रहार करो। यदि किसी प्रकार आज का दिन बीत गया तो फिर निश्चय हमारी ही विजय होगी; क्योंकि सूर्यास्त तक जयद्रथ की रक्षा हो जाने पर अर्जुन की प्रतिज्ञा झूठी हो जायगी और वह स्वयं ही अग्नि में प्रवेश कर जायगा। फिर अर्जुन के न रहने पर तो इसके भाई और अनुयायी लोग एक मुहूर्त भी जीवित नहीं रह सकेंगे। इस प्रकार हम निष्कण्टक होकर पृथ्वी का राज्य भोगेंगे। अतः तुम, अश्त्थामा, कृपाचार्य, शल्य तथा मुझे और दूसरे योद्धाओं को भी साथ लेकर अर्जुन के साथ पूरी शक्ति से संग्राम करो।‘
दुर्योधन की यह बात सुनकर  कर्ण ने कहा, ‘ प्रचण्ड प्रहार करनेवाले, महान् धनुर्धर, वीरवर भीम ने,अपने बाणों से मेरे शरीर को बहुत ही जर्जरित कर दिया है। तो भी ‘युद्ध में डटा रहना चाहिये’ इस नियम के कारण मैं यहाँ खड़ा हुआ हूँ। भीम के विशाल बाणों से व्यथित होने के कारण मेरे अंगों में हिलने_डुलने की भी शक्ति नहीं है। तथापि अर्जुन जयद्रथ को न मार सके___ इस उद्देश्य से मैं यथाशक्ति युद्ध करूँगा; क्योंकि मेरा जीवन तो आपके ही लिये है।‘ जिस समय कर्ण और दुर्योधन इस प्रकार बातें कर रहे थे, अर्जुन अपने पैने बाणों से आपकी सेना का संहार करने लगे। अनेकों हाथी, घोड़े, ध्वजा, छत्र, धनुष, चँवर और योद्धाओं के सिर उनके बाणों से कट_कटकर सब ओर गिरने लगे। आग जिस प्रकार था_ फूस को जला डालती है, उसी प्रकार अर्जुन ने बात_की_बात में आपकी सेना की संहार कर डाला। इस प्रकार जब अधिकांश योद्धा मारे गये, तो वे बढ़ते_बढ़ते जयद्रथ के पास पहुँच गये। अर्जुन का यह पराक्रम आपके पक्ष के वीर न सह सके। अतः जयद्रथ की रक्षा के लिये दुर्योधन, कर्ण, वृषसेन, शल्य, अश्त्थामा, कृपाचार्य और स्वयं जयद्रथ ने भी उन्हें चारों ओर से घेर लिया। ये सब महारथी जयद्रथ को अपने पीछे रखकर श्रीकृष्ण और अर्जुन का वध करने की इच्छा से निर्भय होकर उनके चारों ओर घूमने लगे
।  कर्ण को रथहीन देखकर अश्त्थामा ने उसे अपने रथ पर चढ़ा लिया और फिर वह अर्जुन से भिड़ गया। इसी समय शल्य ने तीस बाणों से अर्जुन पर वार किया, कृपाचार्य ने  बीस बाणों से श्रीकृष्ण को और बारह से अर्जुन को बींधा तथा सिंधुराज ने चार से और वृषसेन  और सात बाणों से श्रीकृष्ण और अर्जुन को घायल कर दिया। इसी प्रकार अर्जुन ने भी चौंसठ बाणों से अश्त्थामा पर, सौ से शल्य पर, दस से जयद्रथ पर, तीन से वृषसेन पर और बीस से कृपाचार्य पर चोट की। फिर ये सब महारथी अर्जुन की प्रतिज्ञा भंग करने के विचार से एक साथ मिलकर उनपर टूट पड़े। उन्होंने भारी_ भारी गदाओं, लोहे के परिघों, शक्तियों तथा और भी तरह_तरह के शस्त्रों ये उनपर एक साथ चोट की। किन्तु अर्जुन इस प्रकार आक्रमण करती हुई इस कौरव_सेना को देखकर हँसे और आपके अनेकों वीरों का विध्वंस करते हुए आगे बढ़े। राजन् ! जिस समय अर्जुन अपने धनुष की डोरी खींचते थे, उस समय उससे इन्द्र के वज्र की_सी भयानक ध्वनि होती थी। उसे सुनकर आपकी सेना पागलों के समान चक्कर में पड़ जाती थी। वे इतनी फुर्ती से बाण छोड़ते थे कि यही नहीं जान पड़ता था कि वे कब बाण लेते हैं, कब उसे धनुष पर चढ़ाते हैं, कब धनुष की डोरी खींचते हैं और कब उसे छोड़ते हैं। अब उन्होंने कुपित होकर दुर्जय ऐन्द्रास्त्र का प्रयोग किया। उससे सैकड़ों_हजारों दिव्य बाण प्रकट हो गये। कौरवों ने भी शस्त्रों की वर्षा से आकाश में अन्धकार_ सा कर दिया था। उसे अपने दिव्यास्त्रों के मंत्रों से अभिमन्त्रित बाणों द्वारा अर्जुन ने नष्ट कर दिया। इस समय शूरवीरता का दम भरनेवाले आपके जो_जो वीर उनके सामने आये, वे सभी आग की लपटें पर गिरनेवाले पतंगों के समान नष्ट हो गये। इस प्रकार अनेकों शूरवीरों के जीवन और सुयश को नष्ट करते हुए वे युद्धस्थल में मूर्तिमान मृत्यु के समान विचर रहे थे। अर्जुन ने जो उस समय अति दुस्तर अस्त्रविद्या किया उसमें अनेकों अच्छे_ अच्छे वीर डूब गये। सिर कटे हुए शरीरों, बाहुहीन पिण्डों, हस्तहीन भुजाओं, बिना अंगुलियों के हाथों, सूँड़ कटे हुए हाथियों, दन्तहीन मातंगों, घायल ग्रीवावाले घोड़ों, टूटे_ फूटे रथों तथा जिनकी आँतें, पैर या दूसरे जोड़ कट गये हैं, ऐसे निश्चेष्ठ और तड़पते हुए सैकड़ों_ हजारों वीरों के कारण वह विशाल युद्धभूमि भीरु पुरुषों के लिये अत्यन्त भयावह हो रही थी। अर्जुन का ऐसा मूर्तिमान काल के समान अभूतपूर्व पराक्रम देखकर कौरवों में बड़ी सनसनी फैल गयी। इस प्रकार भयानक कर्म द्वारा अपनी भीषणता की छाप लगाकर वे बड़े_ बड़े महारथियों को लाँघकर आगे बढ़ गये। अर्जुन को जयद्रथ की ओर बढ़ते देखकर कौरवयोद्धा उसके जीवन से निराश होकर संग्रामभूमि से लौटने लगे। इस समय आपके पक्ष का जो वीर अर्जुन के सामने आता था, उसी के शरीर पर उनका प्राणान्तक बाण गिरता था। महारथी अर्जुन ने आपकी सारी सेना को कबन्धों से व्याप्त कर दिया। इस प्रकार आपकी चतुरंगिणी सेना को व्याकुल करके वे जयद्रथ के सामने आये। उन्होंने अश्त्थामा को पचास, वृषसेन को तीन, कृपाचार्य को नौ, शल्य को सोलह, कर्ण को बत्तीस और जयद्रथ को चौंसठ बाणों से बींधकर बड़ा सिंहनाद किया। जयद्रथ से अर्जुन के बाण न सहे गये। वह अंकुश खाये हुए हाथी के समान अत्यन्त क्रोध में भर गया। अतः उसने तीन बाणों से श्रीकृष्ण को और छः से अर्जुन को बींधकर आठ बाणों से उनके घोड़ों को घायल कर डाला तथा एक बाण उनकी ध्वजा पर छोड़ा। किन्तु अर्जुन ने उसके छोड़े हुए बाणों को व्यर्थ करके एक ही साथ दो बाण मारकर उसके सारथि के सिर और ध्वजा को काट डाला। इसी समय सूर्य को बड़ी तेजी से अस्ताचल के समीप जाते देख श्रीकृष्ण ने कहा, ‘पार्थ ! इस समय जयद्रथ को छः महारथियों ने अपने बीच में कर रखा है। अतः संग्राम में इन छहों को परास्त किये बिना जयद्रथ को मारना संभव नहीं है। इसलिये इस समय में सूर्य को छिपाने के लिये एक ऐसा उपाय करूँगा, जिससे जयद्रथ को साफ_साफ यही मालूम होगा कि सूर्य अस्त हो गया । इससे वह हर्षित होकर तुम्हें मारने के लिये बाहर निकल आवेगा और अपनी रक्षा के लिये किसी प्रकार का प्रयत्न नहीं करेगा। उस अवसर पर तुम उसपर प्रहार करना, सूर्य अस्त हो गया है___यह  समझकर उपेक्षा मत करना।‘ इस पर अर्जुन ने कहा, ‘आप जैसा कहते हैं, वही किया जायगा। तब योगीश्वर श्रीकृष्ण ने योगयुक्त होकर सूर्य को ढकने के लिये अन्धकार उत्पन्न कर दिया। अन्धकार फैलते ही आपके योद्धा यह समझकर कि सूर्य अस्त हो गया है अर्जुन के नाश की सद्भावना से बड़ी खुशी में भर गये। खुशी के मारे उन्हें सूर्य की ओर देखने का भी ध्यान नहीं रहा। इसी समय राजा जयद्रथ सिर ऊँचा करके सूर्य की ओर देखने लगा। तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन से फिर कहा, ‘ वीर ! देखो, सिंधुराज तुम्हारा भय छोड़कर सूर्य की ओर देख रहा है; इस दुष्ट को मारने की यही सबसे अच्छा अवसर है। फौरन ही इसका सिर उड़ाकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो।‘ श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर प्रतापी पाण्डुनन्दन अपने प्रचंड बाणों से आपकी सेना का संहार करने लगे। उन्होंने कर्ण और वृषसेन के धनुष काटकर एक भल्ल से शल्य के सारथि को रथ से नीचे गिरा दिया तथा कृप और अश्त्थामा दोनों ही माना_भानजों को बहुत घायल कर डाला।
इस प्रकार आपके सब महारथियों को अत्यंत व्याकुल कर उन्होंने एक दिव्यास्त्रों से अभिमन्त्रित तथा गन्ध और पुष्पादि से पीड़ित करके वज्र के समान प्रचण्ड बाण निकाला।  उसे विधिवत् वज्रास्त्र से अभिमन्त्रित कर बड़ी फुर्ती से गाण्डीव पर चढ़ाया। इस समय श्रीकृष्ण ने जल्दी करने का संकेत करते हुए फिर कहा, ‘धनंजय ! सूर्य अस्ताचल पर पहुँचने ही वाला है, दुष्ट जयद्रथ की सिर फौरन काट डालो। देखो, इसके वध के विषय में तुम्हें एक बात सुनाता हूँ। इसका पिता सुप्रसिद्ध राजा वृहद्धक्षत्र था। उसे आयु का बहुत अधिक भाग बीत जाने पर यह पुत्र प्राप्त हुआ था। इसके विषय में राजा वृद्धक्षत्र को यह आकाशवाणी हुई कि ‘राजन् ! आपका यह पुत्र कुल, शूल और जम आदि गुणों में सूर्य और चन्द्रवंशियों के समान होगा। इस क्षत्रियप्रवर का लोक में शूरवीर लोग सर्वदा सत्कार करेंगे। किन्तु संग्राम में युद्ध करते समय एक क्षत्रियश्रेष्ठ अचानक इसका सिर काट डालेगा।‘ यह सुनकर सिंधुराज वृद्धक्षत्र बहुत देर तक सोचता रहा, फिर उसने पुत्रस्नेह के पराभूत होकर अपने जातिबन्धुओं से कहा___ ‘जो पुरुष मेरे पुत्र का सिर पृथ्वी पर गिरावेगा, उसके मस्तक के भी अवश्य ही सौ टुकड़े हो जायेंगे।‘ ऐसा कहकर वह जयद्रथ का राज्याभिषेक कर वन को चला गया और बड़ी उग्र तपस्या करने लगा। इस समय वह समन्पंचक क्षेत्र के बाहर बड़ी घोर तपस्या कर रहा है। इसलिये तुम दिव्यास्त्र से इसका सिर काटकर वृद्धक्षत्र की गोद में गिरा दो। यदि तुमने इसे पृथ्वी पर गिराया तो निःसंदेह तुम्हारे सिर के भी सौ टुकड़े हो जायँगे। श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर अर्जुन ने वह वज्रतुल्य बाण छोड़ दिया।। वह सिन्धुराज के मस्तक को काटकर उसे बाज की तरह लेकर आकाश में उड़ा और समन्तपंचक क्षेत्र से बाहर ले गया। इस समय आपके समधी राजा वृद्धक्षत्र संध्योपासन कर रहे थे। उस बाण ने वह सिर उनकी गोद में डाल दिया और उन्हें इसका पतातक न चला। जब वृद्धक्षत्र जप करके उठे, तो वह सिर उनकी गोद से पृथ्वी पर गिर गया और उसके गिरते ही उनके सिर के भी सौ टुकड़े हो गये।
राजन् ! इस प्रकार जब अर्जुन जयद्रथ को मार डाला, तो श्रीकृष्ण ने वह अन्धकार दूर कर दिया। अब आपके पुत्रों को मालूम हुआ कि यह सब तो,श्रीकृष्ण की रची हुई माया ही थी। इस प्रकार अर्जुन ने आठ अक्षौहिणी सेना का संहार करके आपके दामाद जयद्रथ का वध किया। जयद्रथ को मरा देखकर आपके पुत्र दुःख से आँसू बहाने लगे और अपनी विजय के विषय में निराश हो गये। इधर जयद्रथ का वध होने पर श्रीकृष्ण, अर्जुन, भीमसेन, सात्यकि, युधामन्यु और उत्तमौजा ने अपने_ अपने शंख बजाये। उस महान् शंखनाद को सुनकर धर्मपुत्र युधिष्ठिर को निश्चय हो गया कि अर्जुन ने सिंधुराज को मार डाला है। तब उन्होंने बाजे बजवाकर अपने योद्धाओं को हर्षित किया तथा संग्राम में द्रोणाचार्य से युद्ध करने के लिये उनपर आक्रमण किया। अब सूर्यास्त के बाद सोमकों के साथ आचार्य का बड़ा रोमांचकारी युद्ध होने लगा। वे सब द्रोण के प्राणों के ग्राहक होकर उनके साथ लड़ने लगे। इधर वीरवर अर्जुन ने भी अपनी प्रतिज्ञा पूरी करके सब ओर से आपके योद्धाओं का संहार करने लगे।

Sunday 12 May 2019

सात्यकि और भूरिश्रवा का भीषण युद्ध तथा सात्यकि द्वारा भूरिश्रवा का वध

संजय कहते हैं___ राजन् ! रणदुर्मद सात्यकि को आते देख भूरिश्रवा क्रोध में भरकर उसकी ओर दौड़ा तथा उससे कहने लगा, ‘ अहा ! आज इस संग्रामभूमि में मेरी बहुत दिनों की इच्छा पूरी हुई। अब यदि तुम मैदान छोड़कर न भागे तो जीवित नहीं बच सकोगे।‘ इस पर सात्यकि ने हँसकर कहा, ‘ कुरुपुत्र ! मुझे युद्ध में तुमसे तनिक भी भय नहीं है। केवल बातें बनाकर मुझको कोई नहीं डरा सकता। इसलिये व्यर्थ बकवाद से क्या लाभ है ? जरा काम करके दिखाओ। वीरवर तुम्हारी गर्जना सुनकर तो मुझे हँसी आती है। मेरा मन तो तुम्हारे साथ दो हाथ करने को बहुत ही उतावला हो रहा है। आज तुम्हें मारे बिना मैं युद्ध के मैदान से पीछे नहीं हटूँगा।‘
इस प्रकार एक_दूसरे को खड़ी_खोटी सुनाकर वे दोनों वीर क्रोध में भरकर युद्ध करने लगे। भूरिश्रवा ने सात्यकि को अपने बाणों से आच्छादित करके उसका काम तमाम करने के विचार से उसे दस बाणों से घायल किया और फिर अनेकों तीखे तीरों की झड़ी लगा दी। किन्तु सात्यकि ने अपने अस्त्रकौशल से उन्हें बीचही में काट डाला। इसके बाद वे आपस में तरह_तरह के शस्त्रों की वर्षा करने लगे। दोनों ही ने दोनों के घोड़ों को मार डाला और धनुषों को काट दिया। इस प्रकार दोनों ही रथहीन हो गये तथा ढ़ाल_तलवार लेकर आपस में पैंतरे बदलने लगे। वे यशस्वी वीर भ्रांत, उद्भ्रांत, आविद्ध, सूर, संभ्रांत और समुदीर्ण आदि अनेकों प्रकार की गतियाँ दिखाते मौका पाकर एक_दूसरे पर तलवारों के वार करने लगे। दोनों ही अपनी शिक्षा, फुर्ती, सफाई और कुशलता का परिचय देकर एक_दूसरे को नीचा दिखाना चाहते थे। अन्त में दोनों ही ने तलवारों की चोटों से एक_दूसरे की ढालें काट डाले और फिर आपस में बाहुयुद्ध करने लगे। दोनों ही मल्लयुद्ध में निष्णात थे, उनकी छातियाँ चौड़ी और भुजाएँ लम्बी थीं। अत: वे अपनी लौददण्ड के समान सुदृढ़ भुजाओं से आपस में गुथ गये। मल्लयुद्ध में दोनों की ही शिक्षा ऊँचे दर्जे की थी और दोनों ही खूब बलसम्पन्न थे। इसलिये उनके खम ठोंकने, लपेट लगाने और हाथ पकड़ने के कौशल को देखकर योद्धाओं को बडी प्रसन्नता होती थी। उस समय संग्रामभूमि में भिड़े हुए उन दोनों वीरों का वज्र और पर्वत की टकराहट के समान बड़ा घोर शब्द हो रहा था। उन्होंने भुजाओं को लपेटकर, सिर से सिर अड़ाकर, पैर खींचकर, तोमर अंकुश और लासन नाम के पेंट दिखाकर, पेट में घुटना टेककर, पृथ्वी पर घुमाकर, आगे_पीछे हटकर, धक्का देकर, गिराकर और ऊपर उछलकर खूब ही युद्ध किया। मल्लयुद्ध के जो बत्तीस दाँव हैं, उन सभी को दिखाते हुए उन्होंने जमकर कुश्ती की।अन्त में सिंह जैसे हाथी को खदेड़ता है, उसी प्रकार कुरुश्रेष्ठ भूरिश्रवा ने सात्यकि को पृथ्वी पर घसीटते हुए एकदम उठाकर पटक दिया। फिर छाती पर वार मारकर उसके बाल पकड़ लिये और म्यानों में से तलवार निकाली।  अब वह सात्यकि के कुण्डलमण्डित मस्तक को काटने की तैयारी में था तथा सात्यकि भी उसके पंजे से छूटने के लिये कुम्हार जैसे डंडे से ताक घुमाता है इसी प्रकार केशों को पकड़ने वाले भूरिश्रवा के हाथों के सहित अपने मस्तक को घुमा रहा था, कि इसी समय श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा___’महाबाहो ! देखो, तुम्हारा शिष्य सात्यकि इस समय भूरिश्रवा के चंगुल में फँस गया है। यह धनुर्विद्या में तुमसे कम नहीं है। आज यदि भूरिश्रवा सत्यपराक्रमी सात्यकि से बढ़ जाता है तो उसका पराक्रम अयथार्थ माना जायगा।‘ श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर महाबाहु अर्जुन ने मन_ही_मन भूरिश्रवा के पराक्रम की प्रशंसा की और फिर श्रीवसुदेवनन्दन से कहा, ‘माधव ! इस समय मेरी दृष्टि जयद्रथ पर लगी हुई है, इसलिये मैं सात्यकि को नहीं देख रहा हूँ। तो भी इस यदुश्रेष्ठ की रक्षा के लिये मैं एक दुष्कर कर्म करता हूँ।‘ ऐसा कहकर श्रीकृष्ण की बात मानते हुए उन्होंने गाण्डीव धनुष पर एक पैना बाण चढ़ाया और उससे भूरिश्रवा का उस भुजा को काट डाला, जिसमें वह तलवार लिये हुए था। यह देखकर सभी प्राणियों को बड़ा दुःख हुआ। भूरिश्रवा सात्यकि को छोड़कर अलग खड़ा हो गया और अर्जुन की निंदा करने लगा। उसने कहा, ‘ अर्जुन ! मैं दूसरे से युद्ध करने में लगा हुआ था, तुम्हारी ओर तो मेरी दृष्टि भी नहीं थी। ऐसी स्थिति में मेरा हाथ काटकर तुमने बड़ा ही क्रूर कर्म किया है। जब धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर पूछेंगे, तो क्या तुम उनसे यही कहोगे कि ‘मैंने संग्रामभूमि में सात्यकि के साथ युद्ध करने में लगे हुए भूरिश्रवा को मार डाला है ?’ तुम्हें यह अस्त्रनीति साक्षात् इन्द्र ने सिखायी है या महादेवजी अथवा द्रोणाचार्य ने ? तुम तो संसार में अस्त्रधर्म के सबसे बड़े ज्ञाता माने जाते हो। फिर भला,  दूसरे के साथ युद्ध करते समय तुमने मुझपर क्यों प्रहार किया ? मनस्वी लोग मतवाले, डरे हुए, रथहीन, प्राणों की भिक्षा माँगनेवाले या दुःख में पड़े हुए पुरुष पर कभी वार नहीं करते। फिर तुमने यह नीच पुरुषों के योग्य अत्यन्त दुष्कर पापकर्म क्यों किया ? सत्पुरुष तो ऐसा कभी नहीं करते। सत्पुरुषों के लिये तो उन्ही कामों का करना आसान बताया गया है, जिन्हें भले आदमी किया करते हैं; उनसे दुष्टों द्वारा किये जानेवाले काम होने तो कठिन ही हैं। मनुष्य जहाँ_जहाँ जिन_जिन लोगों की संगति में बैठता है, उसपर उन्हीं का रंग बहुत जल्द चढ़ जाता है। यही बात तुममें भी देखी जाती है। तुम राजवंश में और विशेषतः कुरुवंश में उत्पन्न हुए हो, साथ ही सदाचारी भी हो; फिर भी इस समय क्षात्रधर्म से कैसे डिग गये ? अवश्य ही तुमने यह काम श्रीकृष्ण की सम्मति से किया होगा; सो तुम्हें ऐसा करना उचित नहीं था।
अर्जुन ने कहा___राजन् ! सचमुच बूढ़े होने के साथ मनुष्य की बुद्धि भी बुढ़िया जाती है। इसी से आपने  ये सब बिना सिर_पैरकी बातें कही हैं। आप श्रीकृष्ण को अच्छी तरह जानते हैं, फिर भी उनकी और मेरी निंदा कर रहे हैं। आप युद्धधर्म को जाननेवाले और समस्त शास्त्रों के मर्मज्ञ हैं तथा मैं भी कोई अधर्म नहीं कर सकता___ यह बात जानकर भी आप ऐसी बहकी_ बहकी बातें क्यों कर रहे हैं ? क्षत्रिय लोग  अपने भाई, पिता, पुत्र संबंधी एवं बन्धु_बान्धवों के सहित ही संग्राम किया करते हैं। ऐसी स्थिति में मैं अपने शिष्य और संबंधी सात्यकि की रक्षा क्यों न करता ? यह तो मेरे दायें हाथ के समान है और अपने प्राणों की भी परवा न करके हमारे लिये जूझ रहा है। संग्रामभूमि में केवल अपनी ही रक्षा नहीं करनी चाहिये; बल्कि जिसके लिये जो लड़ रहा है; उसे उसकी रक्षा का ध्यान भी अवश्य रखना चाहिये। उसकी रक्षा होने से संग्राम में राजा की ही रक्षा होती है। यदि मैं संग्रामभूमि में सात्यकि को अपने सामने मरते देखता तो मुझे मुझे पाप लगता; इसी से मैंने उसकी रक्षा की है। आप जो यह कहकर मेरी निंदा करते हैं कि दूसरों के साथ युद्ध में लगे होने पर मैंने आपको धोखा दिया है, सो यह आपका बुद्धिभ्रम ही है। जिस समय अपने और पराये पक्ष के सब योद्धा लड़ रहे थे और आप सात्यकि से भिड़ गये थे, उसी समय तो मैंने यह काम क्या है। भला इस सैन्य_ समुद्र में एक योद्धा का एक ही के साथ संग्राम होना कैसे संभव है ? आपको तो अपनी ही निंदा करनी चाहिये; क्योंकि जब आप अपनी ही रक्षा नहीं कर सकते तो अपने आश्रितों की कैसे करेंगे? अर्जुन के ऐसा कहने पर भूरिश्रवा ने सात्यकि को छोड़कर मरणपर्यन्त उपवास करने का नियम ले लिया। उसने बायें हाथ से बाण बिछाकर ब्रह्मलोक में जाने की इच्छा से प्राणों को वायु में, नेत्रों को सूर्य में और मन को स्वच्छ जल में होम दिया तथा महोपनिषद्संग्यक ब्रह्म का ध्यान करते हुए योगमुक्त होकर उन्होंने मुनिव्रत धारण कर लिया। इस समय सेना के सब लोग श्रीकृष्ण और अर्जुन की निंदा करने लगे, किन्तु उन्होंने बदले में कोई कड़वी बात नहीं कही। यद्यपि अर्जुन को उनकी और भूरिश्रवा की बातें सहन न हुईं। उन्होंने किसी प्रकार का क्रोध प्रकट न करते हुए कहा, ‘ मेरे इस व्रत को यहाँ सभी राजालोग जानते हैं कि यदि कोई हमारे पक्ष का मनुष्य मेरे बाण के पहुँच के अन्दर होगा, तो कोई पुरुष उसे मार न सकेगा। भूरिश्रवाजी ! मेरे इस नियम पर विचार करके आपको मेरी निंदा नहीं करनी चाहिये। धर्म का मर्म बिना समझे ही दूसरे की निंदा करना अच्छी बात नहीं है। मैंने आपकी सशस्त्र भुजा को काटकर कोई अधर्म नहीं किया है। बालक अभिमन्यु के पास तो कोई भी हथियार नहीं था और उसके रथ और कवच भी टूट चुके थे; फिर भी आपलोगों ने उसे मिलकर मार डाला। इस कर्म को कौन धर्मात्मा पुरुष अच्छा कहेगा ?’ अर्जुन की यह बात सुनकर भूरिश्रवा ने अपना सिर पृथ्वी से लगाया और मुख नीचा किये चुपचाप बैठा रहा।
तब अर्जुन ने कहा___मेरा जो प्रेम धर्मराज, महाबली भीमसेन और नकुल_सहदेव के प्रति है, वही आपमें भी है। मैं और महात्मा श्रीकृष्ण आपको आज्ञा देते हैं कि आप उशीनर के पुत्र शिवि के समान पुण्यलोकों को प्राप्त हों।श्रीकृष्ण ने कहा___राजन् ! तुम निरन्तर अग्निहोत्र करने वाले हो। जो लोक सर्वदा प्रकाशमान हैं तथा ब्रह्मादि देवगण भी जिनके लिये लालायित रहते हैं, उनमें तुम मेरे ही समान गरुड़ पर चढ़कर जाओ।
इसी समय सात्यकि उठा और उसने निर्दोष भूरिश्रवा की सिर काटने के लिये तलवार उठायी। उसे श्रीकृष्ण, अर्जुन, भीमसेन, युधामन्यु, उत्तमौजा, अश्त्थामा, कृपाचार्य, कर्ण, वृषसेन और जयद्रथ___ सभी ने रोका। किन्तु सबके चिल्लाते रहने पर भी उसने अनशन_ व्रतधारी भूरिश्रवा का मस्तक काट डाला। फिर उसने अपनी निंदा करनेवालों कौरवों को ललकारकर कहा, ‘ अरे धर्मिष्ठता का ढोंग रचनेवाले पापियों ! तुम जो धर्म की दुहाई देकर मुझसे कह रहे हो कि मुझे भूरिश्रवा को नहीं मारना चाहिये था, सो जिस समय तुमलोगों ने सुभद्रा के पुत्र शस्त्रहीन बालक अभिमन्यु की हत्या की थी उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ चला गया था। मेरी तो यह प्रतिज्ञा है कि यदि कोई पुरुष संग्राम में मेरा तिरस्कार करके मुझे जमीन पर घसीटकर जीवित अवस्था में ही लात मारेगा वह फिर मुनिव्रत धारण करके ही क्यों न बैठ जाय, उसे मैं अवश्य मार डालूँगा।‘
राजन् ! सात्यकि के ऐसा कहने पर फिर कौरवों में से किसी ने कुछ नहीं कहा। परन्तु मुनियों के समान वनवासी यशस्वी भूरिश्रवा का इस प्रकार वध करना किसी को अच्छा नहीं लगा। भूरिश्रवा ने अपने जीवन में सहस्त्रों दान दिया था और उसका कई बार मन्त्रपूत जल से अभिषेक हुआ था। अतः वह देह त्यागकर परम पुण्य के तेज से संपूर्ण पृथ्वी और आकाश को आलोकित करता ऊर्ध्वलोकों में चला गया।