Saturday 25 February 2023

शल्य के सेनापतित्व में युद्ध का आरंभ और नकुल द्वारा कर्ण के शेष तीन पुत्रों का वध

संजय कहते हैं_महाराज ! यह रात बीत जाने पर दुर्योधन ने आपके सब सैनिकों को आज्ञा दी_'अब सब महारथी तैयार हो जायं।' राजा की आज्ञा पाकर भारी सेना कवच आदि से सुसज्जित हो गयी। बाजे बजने लगे। योद्धाओं का सिंहनाद होने लगा। उस समय मरने से बचे हुए आपके सैनिक मौत की परवा न करके रणभूमि की ओर कूच करते दिखायी देने लगे। मद्रराज शल्य को सेना का नायक बनाकर महारथियों ने संपूर्ण सेना के कई विभाग किये और सबको युद्धभूमि में यथास्थान खड़ा किया। फिर कृपाचार्य, कृतवर्मा, अश्वत्थामा, शल्य शकुनि तथा अन्य राजाओं ने मिलकर यह शपथ ली कि 'हममें से कोई भी अकेला होकर पाण्डवों से न लड़ें, जो अकेला ही उनसे लड़ेगा अथवा जो किसी लड़ते हुए योद्धा को अकेला छोड़ देगा, उसे पांच महापातक और पांच उपपातक लगेंगे। इसलिये सब एक_दूसरे की रक्षा करते हुए साथ रहकर युद्ध करें।' इस प्रकार शपथ लेकर समस्त महारथियों ने मद्रराज को आगे किया और बड़ी शीघ्रता के साथ शत्रुओं पर चढ़ाई कर दी। इसी तरह पाण्डव भी सेना का व्यूह बनाकर युद्ध की इच्छा से कौरवों पर चढ़ आये। उनकी सेना क्षुब्ध हुए समुद्र की भांति गर्जना कर रही थी। पाण्डवों का सिंहनाद सुनकर आपके पुत्रों के मन में डर समा गया। तब मद्रराज शल्य ने उन्हें धीरज बंधाया और सर्वतोभद्र नामक व्यूह बनाकर पाण्डवों के ऊपर धावा किया। उस समय वे सिंधुदेश के घोड़ों से जुते हुए एक विशाल रथ पर विराजमान थे। उनके साथ मद्रदेश के वीर तथा कर्ण के अजेय पुत्र भी थे। उनके बाम भाग में त्रिगर्तों की सेना से घिरा हुआ कृतवर्मा था। दक्षिण भाग में शक और यवनों के साथ कृपाचार्य थे। तथा पृष्ठभाग में कम्बोजों को साथ लिए अश्वत्थामा मौजूद था। मध्यभाग में दुर्योधन था, जिसकी रक्षा में प्रधान_प्रधान कौरव खड़े थे। वहीं शकुनि भी था, जो घुड़सवारों की विशाल सेना से घिड़ा हुआ था। महारथी कैतव्य भी संपूर्ण सेना के साथ जा रहा था। उधर पाण्डवों ने भी मोर्चाबंदी कर रखी थी। उन्होंने अपनी सेना को तीन भागों में बांटा था; उन तीनों के अध्यक्ष थे_धृष्टधुम्न, शिखण्डी और सात्यकि। इन लोगों ने शल्य की सेना पर धावा किया। तत्पश्चात् राजा युधिष्ठिर भी शल्य का वध करने की इच्छा से अपनी सेना के साथ उन्हीं पर जा चढ़े। अर्जुन ने कृतवर्मा और संशप्तकों पर चढ़ाई की। भीमसेन और सोमकों का कृपाचार्य पर धावा हुआ। नकुल_सहदेव ने शकुनि तथा उलूक पर आक्रमण किया। इसी प्रकार आपके पक्ष के कई हजार सैनिक भी पाण्डवों पर जा चढ़े।
धृतराष्ट्र ने पूछा_संजय ! भीष्म, द्रोण तथा कर्ण के मारे जाने के पश्चात् मेरे पुत्रों तथा पाण्डवों के पास कितनी_कितनी सेना बच गयी थी ? संजय ने कहा_महाराज ! शल्य के सेनापतित्व में जब हमलोग युद्ध के लिये उपस्थित हुए थे, उस समय हमारे पास ग्यारह हजार रथ, दस हजार सात सौ हजार हाथी, दो लाख घोड़े तथा तीन करोड़ पैदल थे और पाण्डव के छः हजार रथ, छः हजार हाथी, दस हजार घोड़े तथा एक करोड़ पैदल मौजूद थे। बस, इतनी ही सेना बच गयी थी और यही और यही युद्ध के लिये उपस्थित थीं। प्रात:काल सूर्योदय होते ही दोनों ओर के योद्धा एक_दूसरे को मार डालने की इच्छा से आगे बढ़े।   फिर तो दोनों दलों में अत्यंत भयंकर युद्ध छिड़ गया। हज़ारों घुड़सवार, पैदल, रथी और हाथी सवार पराक्रम दिखाते हुए एक_दूसरे से भिड़ गये। महाराज ! पाण्डवों की मार पड़ने से आपकी सेना जहां_की_तहां बेहोश हो_होकर गिरने लगी। भीमसेन और अर्जुन ने आपके सैनिकों को मूर्छित करके शंख बजाये और सिंहनाद करने लगे। इसी समय धृष्टद्युम्न तथा शिखण्डी ने धर्मराज को आगे करके शल्य पर धावा किया। माद्रीकुमार नकुल और सहदेव भी आपकी सेना पर टूट पड़े। फिर पाण्डवों ने कौरव_सेना को अपने बाणों से बहुत घायल कर दिया। अब कौरव_वाहिनी आपके पुत्रों के देखते_देखते चारों ओर भागने लगी। सबको अपनी_अपनी जान बचाने की फिक्र पड़ गयी। लोगों ने अपने प्यारे पुत्रों और भाइयों को छोड़ दिया; पितामहों और मामाओं की परवा न की, भांजों तथा अन्य संबंधियों का भी ख्याल नहीं किया। सब अपने घोड़ों और हाथियों को जल्दी_जल्दी हांकते हुए भाग खड़े हुए।
सेना को इस तरह भागती देख प्रतापी मद्रराज ने अपने सारथि से कहा_'मेरे घोड़ों को शीघ्रता पूर्वक आगे बढ़ाओ और जहां ये राजा युधिष्ठिर खड़े हैं, वहीं मुझे ले चलो। आज संग्राम में ये मेरे सामने ठहर नहीं सकते।' सेनापति की आज्ञा से सारथि ने उनके रथ को राजा युधिष्ठिर के पास पहुंचा दिया। वहां पहुंचकर बड़े वेग से आक्रमण करती हुई पाण्डवों की विशाल सेना को शल्य ने अकेले ही रोक लिया। उस समय महाराज को समरभूमि में डटे हुए देख भागने वाले कौरव योद्धा भी मृत्यु की परवा न करके लौट आये। इसी बीच में नकुल ने चित्रसेन पर धावा किया। वे दोनों योद्धा एक_दूसरे पर बाणों की वर्षा करने लगे। दोनों ही अस्त्र विद्या के ज्ञाता, बलवान् और रथ द्वारा युद्ध करने में प्रवीण थे। दोनों एक_दूसरे का वध करने के लिये प्रयत्नशील होकर परस्पर प्रहार करने का अवसर ढूंढ़ रहे थे। इतने में ही चित्रसेन ने एक भल्ल मारकर नकुल का धनुष काट दिया। फिर तीन बाणों से उसके ललाट को बींधकर अनेकों तेज किये हुए बाणों से उसके घोड़ों को यमलोक भेज दिया। जब धनुष कटा और रथ टूट गया तो वीरवर नकुल ढ़ाल तलवार लेकर रथ से उतर पड़ा। अब उसने पैदल ही चित्रसेन पर आक्रमण किया। उस समय चित्रसेन उसके ऊपर बाणों की बौछार करने लगा। किन्तु नकुल बिचित्र प्रकार से युद्ध करने वाला था, उसने चित्रसेन के बाणों को ढाल पर ही रोककर नष्ट कर दिया तथा संपूर्ण सेना के सामने ही चित्रसेन के रथ पर चढ़कर उसने उसके कुण्डल और मुकुट से सुशोभित मस्तक को धड़ से अलग कर दिया।  चित्रसेन का मस्तक रथ के पिछले भाग में गिर पड़ा। उसको मरा हुआ देख पाण्डव_महारथी सिंहनाद कटकपंरने लगे किन्तु कर्ण के महारथी पुत्र सुषेण और सत्यसेन तीखे बाणों की वर्षा करते हुए नकुल पर टूट पड़े। उनके बाणों से नकुल का सारा शरीर बिंध गया, तो भी वह नया धनुष ले दूसरे रथ पर सवार हो क्रोध में भरे हुए यमराज की भांति समय में डट गया। अब वे दोनों भाई नकुल के रथ के टुकड़े_टुकड़े कर डालने की चेष्टा में लगे। यह देख नकुल ने हंसते_हंसते चार बाणों से सत्यसेन के चारों घोड़ों को मार गिराया। फिर एक नारायण मारकर उसका धनुष भी काट डाला। तब सत्यसेन ने दूसरा धनुष और दूसरा रथ लेकर अपने भाई पर ही धावा किया और बाणों की झड़ी लगाकर उसे सब ओर से ढक दिया। नकुल ने भी उनके बाणों को रोककर दो दो बाणों से दोनों को अलग_अलग बींध डाला। फिर उन दोनों ने भी नकुल को घायल किया और तीखे साधकों से उसके सारथि को भी बिंध डाला। अब सत्यसेन ने दो पृथक्_पृथक् बाण मारकर नकुल का धनुष और उसके रथ का हरसा काट डाला। तब नकुल ने रथशक्ति हाथ में ली और बहुत ऊंचे उठाकर सत्यसेन पर दे मारी। उसकी चोट से सत्यसेन की छाती के सैकड़ों टुकड़े हो गयेऔर वह प्राचीन होकर जमीन पर जा पड़ा। भाई को मरा देख सुषेण क्रोध में भर गया और नकुल के ऊपर बाणों की वृष्टि करने लगा। उसने चार सायकों से नकुल के चारों घोड़ों को मार डाला, पांच से रथ की ध्वजा काट दी और तीन से सारथि को भी यमलोक पठा दिया। नकुल को रथहीन देख द्रौपदीकुमार सुतसोम दौड़कर वहां आ पहुंचा। कुल उसके रथ पर बैठ गया और दूसरा धनुष लेकर सुषेण से युद्ध करने लगा। तदनन्तर सुषेण ने नकुल को तीन और सुतसोम को उसकी भुजाओं तथा छाती में बीस बाण मारे। तब तो नकुल ने क्रोध में भरकर बाणों की मार से सुषेण को सब ओर से ढंक दिया और एक अर्धचन्द्राकार बात से उसका मस्तक काट गिराया। यह देख कौरव सेना भयभीत होकर भागने लगी।

Wednesday 15 February 2023

राजा शल्य का सेनापति के पद पर अभिषेक और भगवान् श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को शल्य से लड़ने के लिये आदेश

संजय कहते हैं_महाराज ! हिमालय की तराई में विश्राम करने के समय सभी प्रधान_प्रधान योद्धा एक स्थान पर इकट्ठे हुए। शल्य, चित्रसेन, शकुनि, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, कृतवर्मा, सुसेन, अरिष्टसेन, धृतसेन तथा जयत्सेन आदि राजाओं ने भी वहीं रात्रि बितायी थी। इन सब लोगों ने एकत्रित होकर राजा शल्य के पास बैठे हुए राजा दुर्योधन का विधिवत् पूजन किया और युद्ध के लिये प्रयत्नशील होकर कहा_'राजन् ! तुम किसी को सेनापति बनाकर शत्रुओं के साथ युद्ध करो; क्योंकि सेनापति के संरक्षण में रहकर ही हम अपने वैरियों पर विजय पा सकते हैं।' तब राजा दुर्योधन रथ पर सवार हो महारथी अश्वत्थामा के पास गया। अश्वत्थामा युद्ध की संपूर्ण कलाओं का ज्ञाता, संग्राम में तो वह यमराज के समान जान पड़ता था। सूर्य के समान तेजस्वी और शुक्राचार्य के समान बुद्धिमान था। उसमें सभी प्रकार के शुभ लक्षण थे, वह प्रत्येक कार्य में निपुण और वैदिक ज्ञान का समुद्र था। शत्रुओं को वेग से जीतने वाला वह स्वयं अजेय था। धनुर्वेद के ( व्रत, प्राप्ति, धृति, पुष्टि, स्मृति, क्षेप, अभिरेदन, चिकित्सा, उद्दीपन और कृष्टि_ इन )दस अंगों तथा ( दीक्षा, शिक्षा, आत्मरक्षा और इनका साधन_इन ) चार पादों को ठीक_ठीक जानता था। छ: अंगों सहित चारों वेदों तथा इतिहास_पुराणरूप पंचम वेद का भी उसे पूर्ण ज्ञान था। उस महातपस्वी ने कठोर व्रतों का पालन करके बड़े यत्न से शंकरजी की अराधना की थी। उसके पराक्रम और रूप की कहीं भी तुलना नहीं थी। वह संपूर्ण विद्याओं का पारगामी, गुणों का समुद्र तथा सबकी प्रशंसा का पात्र था। उसके पास पहुंचकर दुर्योधन ने कहा_'आप हमारे गुरु के पुत्र हैं, हम सब लोगों को आपका ही भरोसा है; अतः: आप आज्ञा करें, हम किसे सेनापति बनावें ? अश्वत्थामा ने कहा_ हमलोगों में राजा शल्य भी अब ऐसे हैं, जो उत्तम कुल, पराक्रम, तेज, यश, लक्ष्मी तथा समस्त सद्गुणों से सम्पन्न हैं। ये ही हमारे सेनापति होने योग्य हैं। राजन् ! इन्हीं को सेनाध्यक्ष बनाकर हम शत्रुओं पर विजय पा सकते हैं। द्रोण कुमार के ऐसा कहने पर सभी योद्धा राजा शल्य को घेरकर खड़े हो गये और उनकी जय_जयकार करने लगे। अब उन्होंने बड़े आवेश में भरकर युद्ध का निश्चय किया। राजा शल्य द्रोण तथा भीष्म के समान पराक्रमी थे, वे एक उत्तम रथ पर बैठे हुए थे। दुर्योधन रथ से उतरकर उनके सामने भूमि पर खड़ा हो गया और हाथ जोड़कर बोला_मित्रवत्सल ! आप शूरवीर हैं, इसलिये हमारी सेना के अध्यक्ष बनिये।' राजा शल्य ने कहा_कुरुराज ! यदि तुम मुझे सेनापति का सम्मान दे रहे हो, तो मैं तुम्हारे कथनानुसार सब कुछ करुंगा। मेरे प्राण, राज्य और धन सब कुछ तुम्हारा प्रिय करने के लिये है। दुर्योधन बोला_मैं आपको अपना सेनापति स्वीकार करता हूं। जैसे स्वामी कार्तिकेय ने युद्ध में देवताओं की रक्षा की थी, उसी प्रकार आप भी मेरी रक्षा कीजिये। शल्य ने कहा_ दुर्योधन ! मेरी बात सुनो_रथ पर बैठे हुए जिन श्रीकृष्ण और अर्जुन को तुम महारथियों में श्रेष्ठ समझते हो, वे दोनों बाहुबल में किसी तरह मेरी समानता नहीं कर सकते। यदि देवता, असुर और मनुष्यों सहित सारा भूमंडल ही मेरे विपक्ष में उठकर आ जाय तो मैं अकेला ही सबसे युद्ध कर सकता हूं, फिर पाण्डवों की तो बात ही क्या है ? नि: संदेह मैं तुम्हारी सेना का संचालक बनूंगा और ऐसा व्यूह बनाऊंगा, जिसे शत्रु नहीं लांघ सकते। तदनन्तर, राजा दुर्योधन ने शास्त्रीय विधि के अनुसार शल्य का सेनापति के पद पर अभिषेक किया। उनका अभिषेक होते ही आपकी सेना में महान् सिंहनाद होने लगा। तरह_तरह के बाजे बज उठे और मद्रदेश के महारथी बड़े हर्ष में भरकर राजा शल्य की स्तुति करने लगे_'राजन् ! तुम्हारी जय हो, तुम चिरंजीवी रहो और सामने आते हुए समस्त शत्रुओं का संहार करो। तुम देवता, असुर और मनुष्य_सबको युद्ध में परास्त कर सकते हो। इन मरणधर्मी सोमकों और सृंजयों की तो बात ही क्या है ?'  इस प्रकार सम्मान पाकर मद्रराज शल्य फूले नहीं समाये। उन्होंने दुर्योधन से कहा_'राजन् ! आज मैं पाण्डवों सहित समस्त पांचालों का संहार कर डालूंगा अथवा स्वयं ही मरकर स्वर्गलोक को चला जाउंगा। आज संपूर्ण पाण्डव, श्रीकृष्ण, सात्यकि, द्रौपदी के पुत्र, धृष्टद्युम्न, शिखंडी तथा पांचाल, चेदि एवं प्रभद्रक योद्धा मेरे पराक्रम पर दृष्टिपात करें, मेरे धनुष का महान् बल देखें। आज मैं पाण्डव सेना को चारों ओर भगा दूंगा। तुम्हारा प्रिय करने के लिये द्रोणाचार्य, भीष्म तथा कर्ण से भी अधिक पराक्रम दिखाता हुआ रणभूमि में विचरूंगा।' महाराज ! जब शल्य का सेनापति के पद पर अभिषेक हो गया उस समय सभी सैनिक कर्ण का दु:ख भूलकर प्रसन्नचित्त हो गये। आपकी सेना का हर्षनाद सुनकर युधिष्ठिर ने सब क्षत्रियों के सामने ही भगवान् श्रीकृष्ण से कहा_'माधव ! दुर्योधन ने महाराज शल्य को सेनापति बनाया है और सब सेनाओं के बीच उनका सम्मान किया है। यह जानकर आप जो उचित समझिये, कीजिये; क्योंकि आप ही मेरे नेता और रक्षक हैं। यह सुनकर श्रीकृष्ण बोले_'भारत ! मैं आर्तायन के पुत्र शल्य को बहुत अच्छी तरह जानता हूं। वे अत्यन्त पराक्रमी और महान् तेजस्वी हैं, युद्ध करने के लिये विचित्र_विचित्र ढ़ंग उन्हें मालूम है। मेरा तो ऐसा ख्याल है कि भीष्म, द्रोण और कर्ण जैसे योद्धा थे वैसे ही महाराज शल्य भी हैं। युद्ध में उनके जोड़ का दूसरा योद्धा मुझे आपके सिवा कोई दिखाती नहीं देता। इस भूमण्डल की कौन कहे, देवलोक में भी आपके सिवा दूसरा और कोई वीर नहीं है, जो क्रोध में भरे हुए मद्रराज शल्य को युद्ध में मार सके। दुर्योधन ने जिनका सत्कार किया है, वे शल्य अजेय वीर हैं, उनके मारे जाने पर आप कौरवों की विशाल सेना को मरी हुई ही समझिये। मेरी बात मानकर आप इस समय महारथी शल्य पर चढ़ाई कीजिये। मामा समझकर उनपर दया करने की आवश्यकता नहीं है, क्षत्रिय धर्म को सामने रखकर उन्हें मार ही डालिये। आज के संग्राम में आप अपना तपोबल और क्षात्रबल दिखाइये। महारथी शल्य को अवश्य मार डालिये।'  यह कहकर भगवान् श्रीकृष्ण पाण्डवों से सम्मानित हो विश्राम के लिये शिविर में चले गये। उनके जाने के बाद राजा युधिष्ठिर ने सब भाइयों, पांचालों और सोमकों को भी विदा किया। फिर सबने अपने_अपने शिविर में सोकर रात बितायी।



Thursday 9 February 2023

शल्यपर्व _____ धृतराष्ट्र का विषाद; कृपाचार्य का दुर्योधन को संधि लिये समझाना, किन्तु दुर्योधन का युद्ध के लिये ही निश्चय करना

नारायणन नमस्कृत्यं नरं चैन नरोत्तम्। देवीं सरस्वतीं व्यासं त्यों जयमुदीरयेत्।।
अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण, उनके नित्य सखा नरस्वरूप नररत्न अर्जुन, उनकी लीला प्रकट करनेवाली भगवती सरस्वती और उसके वक्ता महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके आसुरी सम्पत्तियों पर विजयप्राप्तिपूर्वक अन्त:कर्ण को शुद्ध करनेवाले महाभारत ग्रंथ का पाठ करना चाहिये। 

धृतराष्ट्र ने पूछा_संजय ! कौरव_सेना का संचालन करनेवाले सूतपुत्र के मारे जाने पर मेरे पुत्रों ने क्या किया ? क्या कारण है कि मेरे पुत्र जिस_जिस को सेनापति बनाते हैं, उसी_उसी को पाण्डव_लोग थोड़े ही समय में मार डालते हैं ? तुम लोगों को देखते_देखते भीष्म मारे गये, द्रोण की भी यही दशा हुई और अब प्रतापी कर्ण भी जाता रहा। महात्मा विदुर ने मुझसे पहले ही कह दिया था कि 'दुर्योधन के अपराध से प्रजा का नाश हो जायगा।' उन्होंने जो कुछ कहा वह ज्यों का त्यों आज सच हो रहा है। उस वक्त प्रारब्धवश मेरी बुद्धि मारी गरी थी, इसलिए मैंने उनके कहने के अनुसार काम नहीं किया। संजय ! अब मेरे उस अन्याय के फल का पुनः वर्णन करो। कर्ण के मारे जाने पर कौन मेरी सेना का प्रधान बना ? किस महारथी ने श्रीकृष्ण तथा अर्जुन का सामना किया ? संजय ने कहा_महाराज ! कौरव और पाण्डवों के आपस में भिड़ने से जो महान् जनसंहार हुआ, उसकी कथा सावधान होकर सुनिये। नौका से व्यापार करनेवाले व्यापारी जैसे अगाध जल में नाव टूट जाने पर घबरा जाते हैं, उसी प्रकार कौरवों के आश्रयभूत कर्ण के मारे जाने पर आपके सैनिक थर्रा उठे। वे अनाथ की भांति रक्षक ढ़ूंढ़ने लगे। संध्या के समय अर्जुन से परास्त होकर जब हमलोग छावनी में लौटे, उस समय कर्ण की मृत्यु से भरकर आपके सभी पुत्र भाग रहे थे। उनके कवच नष्ट हो गये थे। किस दिशा में जाना है, इसका भी उन्हें पता नहीं था; वे सुध_बुध को बैठे थे। वे आपस में एक_दूसरे को ही मारने लगे। बहुत_से महारथी भय के कारण घोड़ों, हाथियों और रथों पर सवार होकर इधर_उधर भागने लगे। उस भयंकर संग्राम में हाथियों ने रथ तोड़ डाले, महारथियों ने घुड़सवारों को मार डाला तथा रणभूमि से भागने वाले पैदलों को घोड़ों ने कुचला डाला।
इसी समय कृपाचार्य जी आकर दुर्योधन से बोले_'राजन् ! मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूं, उसे ध्यान देकर सुनो और अच्छा लगे तो उसके अनुसार काम करो। पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण, महारथी कर्ण, जयद्रथ, तुम्हारे बहुत से भाई, तुम्हारा पुत्र लक्ष्मण_ये सब तो मारे जा चुके; अब कौन बच गया है, जिसका हम आश्रय ग्रहण करें ? जिन वीरों पर युद्ध का भार रखकर हम राज्य पाने की आशा करते थे, वे तो शरीर छोड़कर वेदवेत्ता ओन की गति को प्राप्त हो गये। हमने भी बहुत से राजाओं को मरवाकर अपने गुणवान महारथियों को खो दिया है। उनके बिना अब हम अकेले रह गये हैं, ऐसी अवस्था में हमें दीनतापूर्ण वर्ताव करना पड़ेगा। जब सब लोग जीवित थे, तब भी अर्जुन किसी के द्वारा परास्त नहीं हुए। कृष्ण जैसे सारथि के होते हुए उन्हें देवता भी नहीं जीत सकते। उनकी वानर की चिह्नवाली ध्वजा देखकर हमारी विशाल सेना थर्रा उठती है। भीमसेन का सिंहनाद, पांचजन्य की भयंकर आवाज और गाण्डीव धनुष की टंकार सुनकर हमलोगों का दिल बैठ जाता है। अर्जुन के हाथ में डोलता हुआ सुवर्ण से जटित महान् धनुष चारों दिशाओं में इस प्रकार दिखाई देता है, जैसे मेघ की घटाओं में बिजली। जिस प्रकार वायु की प्रेरणा से बादल उड़ते फिरते हैं, उसी तरह भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा हांके हुए घोड़े, जो सुनहले साजों से सजे रहते हैं, अर्जुन की सवारी में दौड़ते हैं। अर्जुन अस्त्र विद्या में कुशल हैं; इन्होंने तुम्हारी सेना को उसी प्रकार भस्म किया है, जैसे भयंकर आग घास की ढ़ेरी को जला डालती है। वे धनुष की टंकार से हमारे योद्धाओं को उसी प्रकार भयभीत करते हैं जैसे सिंह मृगों को। आज इस भयंकर संग्राम को प्रारंभ हुए सत्रह दिन बीत गये। महासागर में हवा के थपेड़े खाकर डगमगाती हुई नौका की तरह आपकी सेना को अर्जुन ने कंपा डाला है। उस दिन जयद्रथ को अर्जुन के बाणों का निशाना बनते देखकर भी तुम्हारा कर्ण कहां चला गया था ? अपने अनुयायियों के साथ आचार्य द्रोण, मैं, तुम, कृतवर्मा तथा भाइयों सहित दु:शासन_ये लोग कहां गये थे ? सब वहीं तो थे, पर अर्जुन पर किसी का जोर चला ? तुम्हारे संबंधियों, भाइयों, सहायकों तथा मामाओं को उन्होंने अपने पराक्रम से जीत लिया और तुम्हारे देखते_देखते सबके सबके सिर पर पैर रखकर जयद्रथ को मार डाला ! अब हम किसका भरोसा करें ? यहां कौन ऐसा पुरुष है जो अर्जुन पर विजय पा सकेगा ? उनके पास नाना प्रकार के दिव्य अस्त्र हैं। उनके गाण्डीव की टंकार सुनकर हमलोगों का धैर्य छूट जाता है। जैसे चन्द्रमा के बिना रात्रि अंधकारमयी हो जाती है, उसी प्रकार हमारी यह सेना सेनापति के मारे जाने से श्रीहीन हो रही है। सभी योद्धा घबराये हुए हैं। उधर सात्यकि और भीमसेन का जो वेग है, वह समस्त पर्वतों को विदीर्ण कर सकता है, समुद्रों को सुखा सकता है। राजन् ! ध्यूत_सभा में भीमसेन ने जो बात कही थी, उसे उन्होंने सत्य करके दिखा दिया; आगे भी वे ऐसा ही करेंगे। पाण्डव सज्जन हैं, किन्तु तुमलोगों ने उनके साथ अकारण ही बहुत से अनुचित व्यवहार किये; उन्हीं का अब फल मिल रहा है। तुमने यत्न करके सारे जगत् के लोगों को अपनी रक्षा के लिये एकत्रित किया था, किन्तु तुम्हारा ही जीवन संदेह में पड़ा हुआ है। दुर्योधन ! अब तुम अपने को बचाओ। बृहस्पतिजी की बताई हुई यह नीति है कि 'जब अपना बल कम अथवा बराबर जान पड़े तो शत्रु के साथ संधि कर लेनी चाहिये। लड़ाई तो उस वक्त छेड़नी चाहिये, जब अपनी शक्ति शत्रु से बढ़_चढ़कर हो।' बल और शक्ति में हम पाण्डवों से कम हो गये हैं, अतः: मेरी राय में तो अब उनसे संधि कर लेना ही उचित है। जो राजा अपनी भलाई का बात नहीं जानता और श्रेष्ठ पुरुषों का अपमान किया करता है, वह शीघ्र ही राज्य से भ्रष्ट हो जाता है; उसका भला भी नहीं होता। यदि राजा युधिष्ठिर के सामने झुकने से हमलोग राज्य पा जायं तो इसी में अपनी भलाई है। मूर्खतावश हार जाने में कोई लाभ नहीं है। राजा धृतराष्ट्र और भगवान् श्रीकृष्ण के कहने से युधिष्ठिर तुम्हें राज्य दे सकते हैं। श्रीकृष्ण, युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन से जो कुछ कहेंगे उसे वे सब लोग मान लेंगे_इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। मेरा विश्वास है कि श्रीकृष्ण धृतराष्ट्र की बात नहीं टालेंगे और युधिष्ठिर श्रीकृष्ण की आज्ञा के विरुद्ध नहीं करेंगे। इसलिये मैं सन्धि करने में ही कुशल देखता हूं, पाण्डवों के साथ लड़ने में कोई लाभ नहीं है। तुम यह नहीं समझना कि मैं कायरतावश या प्राण बचाने के लिये ऐसी बात कह रहा हूं। मैं तो तुम्हारे ही भले के लिये कहता हूं। यदि इस समय मेरा कहना नहीं मानोगे तो मरते समय तुम्हें मेरी याद आयेगी। कृपाचार्य के इस प्रकार कहने पर दुर्योधन जोर_जोर से गर्म उसांस खींचता हुआ कुछ देर तक चुपचाप बैठा रहा। फिर थोड़ी देर तक सोचने_विचारने के बाद उसने कहा_'विप्रवर ! एक हितैषी को जो कुछ कहना चाहिये, वह सब अपने कह सुनाया। यही नहीं, प्राणों का मोह छोड़कर युद्ध करते हुए आपने मेरी भलाई के लिये सबकुछ किया है। यद्यपि हितचिंतक होने के नाते आपने मेरे भले के लिये ही यह बात बतायी है, तब भी मुझे यह पसंद नहीं आती_ठीक उसी तरह, जैसे मरने वाले रोगी को दवा अच्छी नहीं लगती। राजा युधिष्ठिर महान् धनी थे, मैंने उन्हें जूए में जीतकर दर_दर का भिखारी बनाया और राज्य से बाहर निकाल दिया; अब वे मुझपर कैसे विश्वास करेंगे ? मेरी बातों पर उन्हें क्योंकर एतबार होगा ? श्रीकृष्ण मेरे यहां दूत बनकर आये थे, किन्तु मैंने उनके साथ धोखा किया; अब वे भी मेरी बात कैसे मानेंगे ? सभा में बलात् लाती हुई द्रौपदी ने जो विलाप किया था तथा पाण्डवों का जो राज्य छीन लिया गया था, उसके लिखे श्रीकृष्ण को अबतक अमर्ष बना हुआ है। श्रीकृष्ण और अर्जुन, दो शरीर एक प्राण हैं; वे दोनों एक_दूसरे के अवलम्ब हैं। पहले तो यह बात मैंने केवल सुनी थी, किन्तु अब इसे प्रत्यक्ष देख रहा हूं। जबसे उन्होंने अपने भांजे अभिमन्यु का मरण सुना है, तब से वे सुख की नींद नहीं लेते। हमलोग उनके अपराधी हैं, फिर वे हमें क्षमा कैसे कर सकते हैं ? महाबली भीमसेन का स्वभाव भी बड़ा कठोर है, उसने बड़ी भयंकर प्रतिज्ञा की है। सूखे काठ की तरह वह टूट भले ही जाय, झुक नहीं सकता। नकुल और सहदेव यमराज के समान भयंकर हैं, वे दोनों भी मुझसे वैर मानते हैं। धृष्टद्युम्न और शिखंडी का भी मेरे साथ वैर है, फिर वे मेरे हित के लिये क्यों यत्न करेंगे ? द्रौपदी एक वस्त्र पहने हुई थी, रजस्वला थी, उस अवस्था में वह सभा में लाती गयी और दु:शासन ने सबके सामने उसे क्लेश पहुंचाया। उसके वस्त्र का उतारा जाना_उसकी वह दीनावस्था पाण्डवों को आज भी याद है। अब उन्हें युद्ध से रोका नहीं जा सकता। जबसे द्रौपदी को क्लेश दिया गया, तभी से वे मेरे विनाश का संकल्प लेकर मिट्टी की वेदी पर सोया करती है। जबतक वैर का पूरा बदला न चुका लिया जाय, जबतक के लिये उसने यह व्रत ले रखा है। इस प्रकार वैर की आग पूर्ण रूप से प्रज्वलित हो उठी है, अब वह किसी तरह बुझ नहीं सकती। अभिमन्यु का नाश करने के बाद अर्जुन के साथ मेरा मेल कैसे हो सकता है ? जब मैं समुद्रपर्यन्त पृथ्वी का एकछत्र राजा होकर पूरा उपभोग कर चुका हूं तो इस समय पाण्डवों का कृपापात्र बनकर कैसे राज्य कर सकूंगा ? समस्त राजाओं का सिरमौर होकर अब दास की भांति युधिष्ठिर के पीछे_पीछे कैसे चलूंगा ? दीनतापूर्वक जीवन क्योंकर व्यतीत करूंगा ? मैं आपकी बातों का खण्डन या तिरस्कार नहीं करता; क्योंकि आपने स्नेहवश मेरे हित के लिये वे बातें कही हैं। मैं तो केवल अपना विचार प्रकट कर रहा हूं। मेरे मन में यही आता है कि अब संधि का अवसर नहीं रहा। इस समय संधि की चर्चा चलाना किसी तरह उचित नहीं जान पड़ता। मुझे अब युद्ध में ही सुंदर नीति दिखाई दे रही है। यह समय भयभीत होकर कायरता दिखाने का नहीं, उत्साह के साथ युद्ध करने का है। मैं पाण्डवों के सामने दीनतापूर्वक वचन नहीं कह सकता। संसार में कोई भी सुख सदा रहनेवाला नहीं है, फिर राष्ट्र और यश भी कैसे रह सकते हैं ? यहां तो कीर्ति का ही उपार्जन करना चाहिये और कीर्ति युद्ध के सिवा दूसरे उपाय से नहीं मिल सकती। घर में खाट पर सोकर मरना क्षत्रिय के लिये बहुत बड़ा पाप है। जो बड़े_बड़े यज्ञ करके वन में या संग्राम में शरीर त्याग करता है, वहीं महत्व को प्राप्त होता है। जिसका बुढ़ापे के कारण शरीर जर्जर हो गया हो, रोग पीड़ा दे रहा हो, परिवार के लोग आसपास बैठकर रोते हो, उस अवस्था में दीनतायुक्त वचन बोलकर विलाप करते_करते प्राण त्यागने वाला क्षत्रिय 'मर्द' कहलाने योग्य नहीं हैं। अतः जिन्होंने नाना प्रकार के भोगों का परित्याग करके उत्तम गति प्राप्त की है, इस समय मैं युद्ध के द्वारा उनके ही लोक में जाऊंगा। जिनके आचरण श्रेष्ठ हैं, जो संग्राम में पीठ नहीं दिखानेवाले, शूरवीर, सत्यप्रतिज्ञ तथा नाना प्रकार के यज्ञ करनेवाले हैं, जिन्होंने शस्त्र की धारा में अवभृथ ( यज्ञान्त ) स्नान किया है, उनका स्वर्ग में निवास होता है। देवताओं की सभा में वे बड़े सम्मान की दृष्टि से देखें जाते हैं। देवता तथा संग्राम में पीठ नहीं दिखानेवाले शूरवीर जिस मार्ग से जाते हैं, उसी से मैं भी जाऊंगा। मित्रों, भाइयों और दादाओं को मरवाकर यदि मैं अपने प्राणों की रक्षा करूं तो निश्चय ही सारा संसार मेरी निंदा करेगा। भला, मित्रों और भाइयों से हीन होकर पाण्डवों के पैरों पर पड़ने से जो राज्य मिलेगा, वह मेरे लिये किस काम का होगा ? इसलिये अब मैं अच्छी तरह युद्ध करके स्वर्ग को ही प्राप्त करूंगा, इसके सिवा मुझे कुछ नहीं चाहिये।'
दुर्योधन की यह बात सुनकर सब क्षत्रियों ने उसकी प्रशंसा की और उसे बहुत धन्यवाद दिया। सबने अपनी पराजय का शोक छोड़कर मन_ही मन पराक्रम करने की ठान ली। युद्ध करने के विषय में सबको एक निश्चय हो गया। सबके हृदय में उत्साह भर आया। तत्पश्चात् सब योद्धाओं ने अपने_अपने वाहनों को विश्राम दे आठ कोस से कुछ कम दूरी पर जाकर डेरा डाला। वहां रात्रि बिछाकर दूसरे दिन काल की प्रेरणा से वे तुरत रणभूमि की ओर लौटे।


Wednesday 1 February 2023

कर्णवध के समाचार से प्रसन्न हुए युधिष्ठिर द्वारा श्रीकृष्ण और अर्जुन की प्रशंसा, राजा धृतराष्ट्र और गांधारी का शोक तथा कर्णपर्व के श्रवण का माहात्म्य

संजय कहते हैं_राजन् ! इस प्रकार जब कर्ण मारा गया और कौरव_सेना भाग खड़ी हुई तो भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को छाती से लगाकर बड़े हर्ष के साथ कहा_'पार्थ ! इन्द्र ने वृत्रासुर को मारा था और तुमने कर्ण को मार गिराया है। आज से संसार के लोग वृत्रासुर_वध की तरह कर्ण_वध की कथा कहे_सुनेंगे। तुम बहुत दिनों से युद्ध में कर्ण का वध करना चाहते थे, आज वह अभीष्ट पूरा हुआ; अतः धर्मराज से यह शुभ समाचार बताकर तुम उनसे उऋण हो जाओ। तुममें और कर्ण में जब महासंग्राम छिड़ा हुआ था, उस समय वे भी युद्ध देखने के लिये आए थे; मगर बहुत अधिक घायल होने के कारण देरतक यहां ठहर नहीं सके, फिर छावनी में ही चले गये। अतः हमें उन्हीं के पास चलना चाहिये।
अर्जुन ने 'बहुत अच्छा' कहकर आज्ञा स्वीकार की; फिर भगवान् ने अपना रथ उधर ही मोड़ दिया। छावनी पर पहुंच कर वे अर्जुन को साथ ले राजा युधिष्ठिर से मिले। राजा उस समय सोने के पलंग पर सो रहे थे। श्रीकृष्ण और अर्जुन ने प्रसन्नतापूर्वक उनके चरणों में प्रणाम किया। उन दोनों की प्रसन्नता देख कर्ण को मरा समझकर युधिष्ठिर उठ बैठे और आनंदातिरेक से आंसू बहाने लगे। फिर उन दोनों को छाती से लगाकर मिले और बारंबार युद्ध का समाचार पूछने लगे। तब भगवान श्रीकृष्ण ने रणभूमि में जो कुछ घटना घटित हुई थी, सब कह सुनायी; अन्त में कर्ण के मरने की भी बात बतायी। इसके बाद भगवान् कुछ कुछ मुस्कराते हुए हाथ जोड़कर बोले_'महाराज ! बड़े सौभाग्य की बात है कि आप, भीमसेन, अर्जुन तथा नकुल_सहदेव भी कुशल से हैं। महारथी कर्ण मारा गया तथा आपकी विजय तथा अभिवृद्धि हो रही है_यह भी बड़े आनन्द की बात है। आज सूतपुत्र के सारे शरीर में बाण चुभे हुए हैं और वह भूतल पर पड़ा हुआ है; इस अवस्था में आप अपने शत्रु को चलकर देखिये। महाबाहो ! अब आप पृथ्वी का अकंटक राज्य भोगिये।' भगवान् श्रीकृष्ण का वचन सुनकर धर्मराज बहुत प्रसन्न हुए और बोले_'देवकीनन्दन ! यह बड़े आनन्द की बात हुई। आप सारथि थे, तभी अर्जुन कर्ण को मार सके हैं। यह आपकी बुद्धि का ही प्रसाद है, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है।' यह कहकर युधिष्ठिर श्रीकृष्ण की दाहिनी हाथ पकड़ ली। फिर दोनों से कहा_'नारदजी ने मुझे बताया था कि अर्जुन और श्रीकृष्ण पुरातन नर_नारायण ऋषि हैं।' तत्वज्ञानी श्रीव्यासजी ने भी कई बार इस बात की चर्चा की थी। कृष्ण ! आपकी ही कृपा से ये पाण्डुनन्दन अर्जुन शत्रुओं का सामना करके विजय पाते गये हैं। जिस दिन युद्ध में आपने अर्जुन का सारथि होना स्वीकार किया उसी दिन यह निश्चय हो गया था कि हमारे पक्ष की विजय ही होगी, पराजय नहीं। जब भीष्म, द्रोण तथा कर्ण जैसे वीर आपकी बुद्धि से मारे जा चुके हैं तो बाकी लोगों को, जो उन्हीं के अनुयायी हैं, मैं मरे हुए के समान ही मानता हूं।'
यों कहकर राजा युधिष्ठिर सोने से सजाये हुए रथ पर बैठकर श्रीकृष्ण तथा अर्जुन के साथ रणभूमि देखने चले। वहां पहुंच कर उन्होंने देखा कि नररत्न कर्ण सैकड़ों बाणों से बिंधा हुआ पृथ्वी पर पड़ा है। उस समय सुगंधित तेल से भरकर हजारों सोने के दीपक जलाये गये। उन्हीं के प्रकाश में सबलोगों ने कर्ण के शरीर पर दृष्टिपात किया। उसका कवच छिन्न_भिन्न हो गया था और शरीर बाणों से विदीर्ण हो चुका था। कर्ण को पुत्र सहित मरा हुआ देख राजा युधिष्ठिर  पुनः श्रीकृष्ण और अर्जुन की प्रशंसा करते हुए कहने लगे_'गोविन्द ! आप वीर और विद्वान होने के साथ ही मेरे स्वामी हैं; आपसे सुरक्षित रहकर आज सचमुच ही मैं  भाइयों सहित राजा हो गया। राधानन्दन कर्ण को मारा गया सुनकर दुरात्मा दुर्योधन अब राज्य और जीवन दोनों से निराश हो जायगा। पुरुषोत्तम ! आपकी कृपा से हमलोग कृतार्थ हो गये। बड़ी खुशी की बात है कि गाण्डीव धारी अर्जुन की विजय हुई।'
इस प्रकार राजा युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण और अर्जुन की प्रशंसा की। उस समय नकुल, सहदेव, भीमसेन, सात्यकि योद्धाओं ने 'महाराज का अभ्युदय हो' ऐसा कहकर युधिष्ठिर का सम्मान किया। फिर श्रीकृष्ण और अर्जुन का गुणगान करते हुए वे बड़ी प्रसन्नता के साथ शिविर की ओर चले गये। राजा धृतराष्ट्र ! आपके ही अन्याय से यह रोमांचकारी संहार हुआ है; अब क्यों बारंबार सोच कर रहे हैं ?
वैशम्पायनजी कहते हैं_जनमेजय ! यह अप्रिय समाचार सुनते ही राजा धृतराष्ट्र मूर्छित होकर जड़ से कटे हुए वृक्ष की भांति जमीन पर गिर पड़े। इसी तरह दूर तक सोचने वाली गांधारी देवी पछाड़ खाकर गिरीं और बहुत विलाप करके कर्ण की मृत्यु के शोक में डूब गयीं। उस समय गांधारी को विदुर जी ने और राजा को संजय ने संभाला। फिर दोनों मिलकर धृतराष्ट्र को समझाने_बुझाने लगे। और राजमहल की स्त्रियों ने आकर गांधारी को उठाया। राजा को लड़ी व्यथा हुई, उनकी विवेक शक्ति नष्ट हो गयी, वे चिंता और शोक में डूब गये। मोहाचच्छन्न होने के कारण उन्हें किसी भी बात की सुध न रही। विदुर और संजय के बहुत आश्वासन देने पर प्रारब्ध और भवितव्यता को ही प्रधान मानकर वे चुपचाप बैठे रहे गये।
जो मनुष्य कर्ण और अर्जुन के इस युद्ध_यज्ञ का स्वाध्याय करता है अथवा इसे सुनता है, उसे विधिवत किये हुए यज्ञ का फल प्राप्त होता है। सनातन भगवान् विष्णु यज्ञस्वरूप हैं; अग्नि, वायु, चन्द्रमा और सूर्य भी यज्ञ के ही रूप हैं। अतः: जो मनुष्य दोषदृष्टि का त्याग करके इस युद्ध_यज्ञ का वर्णन सुनता या पढ़ता है वह समस्त लोकों में पहुंच सकने वाला और सुखी होता है तथा उसके ऊपर भगवान् विष्णु, ब्रह्मा और शंकरजी संतुष्ट होते हैं। इस पर्व के स्वाध्याय से ब्राह्मण को वेद_पाठ का फल मिलता है, क्षत्रियों को बल तथा युद्ध में विजय की प्राप्ति होती है, वैश्यों का धन बढ़ता है एवं शूद्र निरोग एवं स्वास्थ्य संपन्न होते हैं। इसमें सनातन भगवान् विष्णु की महिमा का गान हुआ है, इसलिये इसके पाठ से मनुष्य की कामनाएं पूर्ण होती हैं और वह सुखी होता है। लगातार एक वर्ष तक बछड़ोंसहित कपिला गौओं को दान करने का जो फल मिलता है, वह कर्णपर्व के एक बार सुनने मात्र से प्राप्त हो जाता है।

कर्णपर्व_समाप्त।