Saturday 8 July 2017

राजा युधिष्ठिर का भीष्म, द्रोण, कृप और शल्य के पास जाकर उन्हें प्रणाम करके युद्ध करने के लिये आज्ञा और आशीर्वाद माँगना

राजन् ! गीता स्वयं भगवान् कमलनाभ के मुखमण्डल से निकली है, इसलिये इसी का अच्छी तरह स्वाध्याय करना चाहिये। अन्य बहुत से शास्त्रों का संग्रह करने से क्या लाभ है ? गीता में सब शास्त्रों का समावेश हो जाता है, भगवान् सर्वदेवमय हैं, गंगा में सब तीर्थों का वास है तथा मनुजी सकलवेदस्वरूप हैं। गीता, गंगा, गायत्री और गोविन्द___इन आकारयुक्त चार नामों के हृदय में स्थित होने पर फिर इस संसार में जन्म नहीं लेना पड़ता। श्रीकृष्ण ने भारतामृत के आधारभूत गीता को बिलोकर उसे अर्जुन के मुख में होमा है। संजय ने कहा___ अर्जुन को बाण और गाण्डीव धनुष धारण किये देखकर महारथियों ने फिर सिंहनाद किया। उस समय पाण्डव, सोमक और उनके अनुयायी दूसरे राजालोग प्रसन्न होकर शंख बजाने लगे तथा भेरी, पेशी, क्रकच और नरसिंगों के अकस्मात् बज उठने से वहाँ बड़ा शब्द होने लगा। इस प्रकार दोनों ओर की सेना को युद्ध के लिये तैयार देख महाराज युधिष्ठिर अपने कवच और शस्त्रों को छोड़कर रथ से उतर पड़े और हाथ जोड़े हुए बड़ी तेजी से पूर्व की ओर, जहाँ शत्रु की सेना खड़ी थी, पितामह भीष्म की ओर देखते हुए पैदल ही चल दिये। उन्हें इस प्रकार जाते देख अर्जुन भी रथ से कूद पड़े और सब भाइयों के साथ उनके पीछे_पीछे चल दिये। भगवान् श्रीकृष्ण तथा दूसरे मुख्य_मुख्य राजा भी बड़ी उत्सुकता से उनके पीछे हो लिये। तब अर्जुन ने कहा, ‘राजन् ! आपका क्या विचार है ? आप हमें छोड़कर पैदल ही शत्रु की सेना में क्यों जा रहे हैं ?’ भीमसेन बोले, ‘राजन् ! शत्रुपक्ष के सैनिक कवच धारण किये हुए युद्ध के लिये तैयार खड़े हैं। ऐसी स्थिति में आप भाइयों को छोड़कर तथा कवच और शस्त्र डालकर कहाँ जाना चाहते हैं ?’ नकुल ने कहा, ‘महाराज ! आप हमारे बड़े भाई हैं, आपके इस प्रकार जाने से हमारे हृदय में बड़ा भय हो रहा है। बताइये तो सही, आप कहाँ जायेंगे ?’ सहदेव ने पूछा, ‘राजन् ! आप इस महाभयावनी रणस्थली में आ जाने पर अब आप हमें छोड़कर इन शत्रुओं की ओर कहाँ जा रहे हैं ?’ भाइयों के इस प्रकार पूछने पर भी महाराज युधिष्ठिर ने कोई उत्तर नहीं दिया। वे चुपचाप चलते ही गये। तब चतुरचूड़ाणि श्रीकृष्ण ने हँसकर कहा, ‘मैं इनका अभिप्राय समझ गया हूँ। ये भीष्म, द्रोण, कृप और शल्य आदि सब गुरुजनों से आज्ञा लेकर शत्रुओं के साथ युद्ध करेंगे। मेरा ऐसा मत है कि जो पुरुष अपने गुरुजनों का आज्ञा लिये बिना ही उनसे युद्ध करने लगता है, उसे वे स्पष्ट ही शाप दे देते हैं और जो शास्त्रानुसार उनका अभिवादन करके और उनसे आज्ञा लेकर संग्राम करता है, उसकी अवश्य विजय होती है।
इधर जब श्रीकृष्ण ऐसा कह रहे थे तो कौरवों सेना में बड़ा कोलाहल होने लगा और कुछ लोग दंग_से रहकर चुपचाप खड़े रहे। दुर्योधन के सैनिकों ने राजा युधिष्ठिर को आते देखा तो वे आपस में कहने लगे, ‘ओहो ! यही कुलकलंक युधिष्ठिर है। देखो, अब यह डरकर अपने भाईयों के सहित शरण पाने की इच्छा से भीष्मजी के पास आ रहा है। अरे !  इसकी पीठ पर तो अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव_जैसे वीर हैं; फिर भी इसे भय ने कैसे दबा लिया।‘ ऐसा कहकर फिर वे सैनिक कौरवों की प्रशंसा करने लगे और प्रसन्न होकर अपनी ध्वजाएँ फहराने लगे। इस प्रकार युधिष्ठिर को धिक्कार कर वे सब वीर यह सुनने के लिये कि देखें, यह भीष्मजी ये क्या कहता है और रणबाँकुरे भीमसेन तथा कृष्ण और अर्जुन इस मामले में क्या बोलते हैं___चुप हो गये। इस समय महाराज युधिष्ठिर की इस चेष्टा से दोनों ही पक्षों की सेनाएँ बड़े संदेह में पड़ गयीं। महाराज युधिष्ठिर शत्रुओं की सेना के बीच में होकर भीष्मजी के पास पहुँचे और दोनों हाथों से उनके चरण पकड़कर कहने लगे, ‘अजेय पितामह ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। मुझे आपसे युद्ध करना होगा। आप मुझे आज्ञा दीजिये और साथ ही आशीर्वाद देने की कृपा भी कीजिये।‘
भीष्म ने कहा___युधिष्ठिर ! यदि इस समय तुम मेरे पास न आते तो मैं तुम्हारी पराजय के लिये तुम्हें शाप दे देता। किंतु अब मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम युद्ध करो, तुम्हारी जय होगी और इस युद्ध में तुम्हारी और सब इच्छाएँ भी पूरी होंगी। इसके सिवा तुम्हें कोई वर माँगने की इच्छा हो तो माँग लो; क्योंकि ऐसा होने पर भी तुम्हारी पराजय नहीं हो सकेगी। राजन् ! यह पुरुष अर्थ का दास है, अर्थ किसी का भी दास नहीं है___यही सत्य है और इस अर्थ से ही कौरवों ने मुझे बाँध रखा है। इसी से मैं तुम्हारे साथ नपुंसकों की_सी बातें कर रहा हूँ। बेटा ! युद्ध तो मुझे कौरवों की ओर से ही करना पड़ेगा। हाँ, इसके सिवा तुम और जो कुछ कहना चाहो, वह कहो। युधिष्ठिर ने कहा___दादाजी ! आपको तो कोई जीत नहीं सकता। इसलिये यदि आप हमारा हित चाहते हैं तो बतलाइये, हम आपको युद्ध में कैसे जीत सकेंगे ? भीष्म बोले___कुन्तीनन्दन ! संग्रामभूमि में युद्ध करते समय मुझे जीत सके___ऐसा तो मुझे कोई दिखायी नहीं देता। अन्य पुरुष तो क्या, स्वयं इन्द्र की भी ऐसी शक्ति नहीं है। इसके सिवा मेरी मृत्यु का भी कोई निश्चित समय नहीं है। इसलिये तुम किसी दूसरे समय मुझसे मिलना। तब महाबाहु युधिष्ठिर ने भीष्मजी की यह बात सिर पर धारण की  और उन्हें फिर प्रणाम कर वे आचार्य द्रोण के रथ की ओर चले। उन्होंने आचार्य को प्रणाम करके उनकी परिक्रमा की और फिर अपने कल्याण के लिये कहा, ‘भगवन् ! मुझे आपसे युद्ध करना होगा; मैं इसके लिये आपकी आज्ञा चाहता हूँ, जिससे मुझे कोई पाप न लगे। आप यह भी बताने की कृपा करें कि मैं शत्रुओं को किस प्रकार जीत सकूँगा।‘ द्रोणाचार्य ने कहा___राजन् ! यदि तुम युद्ध का निश्चय करके फिर मेरे पास न आते तो मैं तुम्हारी पराजय के लिये शाप दे देता। किंतु तुम्हारे इस सम्मान से मैं प्रसन्न हूँ। तुम युद्ध करो, तुम्हारी जय होगी। मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूँगा। बताओ, तुम क्या चाहते हो ? इस स्थिति में अपनी ओर से युद्ध करने के सिवा तुम्हारी और जो भी इच्छा हो, वह कहो; क्योंकि पुरुष अर्थ का दास है, अर्थ किसी का दास नहीं है___यही सत्य है और इस अर्थ से ही कौरवों ने मुझे बाँध लिया है। इसी से मैं नपुंसक की तरह तुमसे कह रहा हूँ कि तुम अपनी ओर से युद्ध करने के सिवा और क्या चाहते हो। मैं युद्ध तो कौरवों की ओर से करूँगा तो भी विजय तुम्हारी ही चाहता हूँ। युधिष्ठिर ने कहा___ब्रह्मण् ! आप कौरवों की ओर से ही युद्ध करें। किन्तु मैं यही वर माँगता हूँ कि मेरी विजय चाहें और मुझे उपयोगी परामर्श दें। द्रोणाचार्य बोले___राजन् ! तुम्हारे सलाहकार स्वयं श्रीकृष्ण हैं, इसलिये तुम्हारी विजय तो निश्चित है। मैं तुम्हें युद्ध के लिये आज्ञा देता हूँ। तुम रणांगण में शत्रुओं का संहार करोगे। जहाँ धर्म रहता है, वहीं श्रीकृष्ण रहते हैं और जहाँ श्रीकृष्ण रहते हैं, वहीं जय रहती है। कुन्तीनन्दन ! अब तुम जाओ, युद्ध करो और तुम्हें जो पूछना हो, पूछो; मैं तुम्हें क्या सलाह दूँ ? युधिष्ठिर ने कहा___ आचार्य ! आपको प्रणाम करके मैं यही पूछता हूँ कि आपके वध का क्या उपाय है। द्रोणाचार्य बोले___राजन् ! संग्रामभूमि में रथ पर आरूढ़ हो जब मैं क्रोध में भरकर बाणों की वर्षा करूँगा, उस समय मुझे मार सके___ऐसा कोई शत्रु दिखायी नहीं देता। हाँ, जब मैं शस्त्र छोड़कर जंग में खड़ा रहूँ उस समय कोई योद्धा मुझे मार सकता है__यह मैं तुमसे सच_सच कहता हूँ। एक सच्ची बात तुम्हें बताता हूँ__तूू किसी विश्वासपात्र व्यक्ति के मुख से मुझे कोई अत्यन्त अप्रिय बात सुनायी देती है तो मैं संग्रामभूमि में अस्त्र त्याग देता हूँ। द्रोणाचार्य की यह बात सुनकर राजा युधिष्ठिर उनकी आज्ञा ले आचार्य कृप के पास आये और उन्हें प्रणाम और प्रदक्षिणा करके कहने लगे, ‘गुरुजी ! मुझे आपसे युद्ध करना होगा; इसके लिये मैं आपसे आज्ञा माँगता हूँ, जिससे मुझे कोई पाप न लगे। इसके सिवा आपकी आज्ञा होने पर मैं शत्रुओं को भी जीत सकूँगा।‘ कृपाचार्य ने कहा___राजन् ! युद्ध का निश्चय होने पर यदि तुम मेरे न आते को मैं तुझे  शाप दे देता। पुरुष अर्थ का दास है, अर्थ किसी का दास नहीं है___ यही सत्य है और इस अर्थ से ही कौरवों ने मुझे बाँध रखा है; सो युद्ध तो मुझे,उन्हीं की ओर से करना पड़ेगा ___ऐसा मेरा निश्चय है। इसी से  नपुंसक का तरह मुझे यह कहना पड़ता कि अपनी ओर से युद्ध करने के लिये कहने के सिवा और तुम्हारी जो इच्छा हो, वह माँग लो। युधिष्ठिर ने कहा___ आचार्य ! सुनिये, इसी से मैं आपसे पूछता हूँ……………………। इतना कहकर धर्मराज व्यथित होकर अचेत_से हो गये और कोई शब्द न बोल सके। तब उनका अभिप्राय समझकर कृपाचार्यजी ने कहा, ‘राजन् ! मुझे कोई भी मार नहीं सकता। किन्तु कोई चिन्ता नहीं; तुम युद्ध करो, जीत तुम्हारी होगी। तुम्हारे इस समय यहाँ आने से मुझे प्रसन्नता हुई है। मैं नित्यप्रति उठकर तुम्हारी विजयकामना करूँगा___यह मैं तुमसे ठीक_ठीक कहता हूँ।
कृपाचार्य की बात सुनकर राजा युधिष्ठिर उनकी आज्ञा लेकर महाराज शल्य के पास गये तथा उन्हें प्रणाम और प्रदक्षिणा करके अपने हित के लिये उनसे कहा, ‘राजन् ! मुझे आपके साथ युद्ध करना है। इसके लिये मैं आपसे आज्ञा माँगता हूँ, जिससे मुझे कोई पाप न लगे तथा आपकी आज्ञा होने पर मैं शत्रुओं को भी जीत सकूँगा।‘ शल्य ने कहा___ राजन् ! युद्ध का निश्चय कर लेने पर यदि तुम मेरे पास न आते तो मैं तुम्हारी पराजय के लिये तुम्हें शाप दे देता। इस समय आकर तुमने मेरा सम्मान क्या है, इसलिये मैं तुमपर प्रसन्न हूँ। तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो। मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ; तुम युद्ध करो, जय तुम्हारी ही होगी। तुम्हारी कोई भी अभिलाषा हो तो मुझसे कहो। पुरुष अर्थ का दास है; अर्थ किसी का दास नहीं है____यही बात सत्य है और इस अर्थ से ही कौरवों ने,मुझे बाँध लिया है। इसी से मुझे नपुंसक की तरह पूछना पड़ता है कि अपनी ओर से युद्ध कराने के सिवा तुम और क्या चाहते हो। तुम मेरे भानजे हो। तुम्हारी जो इच्छा होगी, वह मैं पूर्ण करूँगा। युधिष्ठिर ने कहा___मामाजी ! मैंने सैन्यसंग्रह का उद्योग करते समय आपसे जो प्रार्थना की थी, वही मेरा वर है। कर्ण से हमारा युद्ध होते समय आप उसके तेज का नाश करते रहें। शल्य बोले___कुन्तीनन्दन ! तुम्हारी यह इच्छा पूर्ण होगी। जाओ, निश्चिन्त होकर युद्ध करो। मैं तुम्हारी बात पूरी  करने की प्रतिज्ञा करता हूँ। संजय कहते हैं___राजन् ! मद्रराज शल्य से आज्ञा लेकर राजा युधिष्ठिर अपने भाइयों सहित  उस विशाल वाहिनी से बाहर आ गये। इस बीच में श्रीकृष्ण कर्ण के पास गये और उससे कहा कि ‘मैंने सुना है, भीष्मजी से द्वेष होने के कारण तुम युद्ध नहीं करोगे। यदि ऐसा है तो जबतक भीष्म नहीं मारे जाते, तब तक तुम हमारी ओर आ जाओ। उनके मारे जाने  पर फिर तुम्हें दुर्योधन की सहायता करनी ही उचित जान पड़े तो फिर हमारे मुकाबले में आकर युद्ध करना।‘ कर्ण ने कहा___केशव ! मैं दुर्योधन का अप्रिय कभी नहीं करूँगा। आप मुझे प्राणपन से दुर्योधन का हितैषी समझें। कर्ण की बात सुनकर श्रीकृष्ण वहाँ से लौट आये और पाण्डवों में आ मिले। इसके बाद महाराज युधिष्ठिर ने सेना के बीच में खड़े होकर उच्च स्वर से कहा____’जो वीर हमारा साथ देना चाहे, अपनी सहायता के लिये  मैं उसका स्वागत करने को तैयार हूँ।‘ यह सुनकर युयुत्सु बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने पाण्डवों की ओर देखकर धर्मराज युधिष्ठिर से कहा, ‘महाराज ! यदि आप मेरी सेवा स्वीकार करें तो मैं इस महायुद्ध में आपकी ओर से कौरवों के साथ युद्ध करूँगा।‘ युधिष्ठिर ने कहा___युयुत्सो ! आओ, आओ, हम सब मिलकर तुम्हारे मूर्ख भाइयों से युद्ध करेंगे। महाबाहो ! मैं तुम्हारा स्वागत करता हूँ। तुम हमारी ओर से संग्राम करो। मालूम होता है धृतराष्ट्र का वंश भी तुमसे ही चलेगा और तुमसे ही उन्हें पाखण्ड मिलेगा। राजन् ! फिर युयुत्सु दुंदुभियों के साथ तुम्हारे पुत्रों को छोड़कर पाण्डवों की सेना में चला गया। तब धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों के सहित प्रसन्नतापूर्वक पुनः कवच धारण किया। सब लोग अपने_ अपने रथों पर चढ़ गये और फिर सैकड़ों दुंदुभियों का घोष होने लगा और योद्धाओं तरह_तरह से सिंहनाद करने लगे। पाण्डवों को रथ में बैठे देखकर धृष्टधुम्नादि सब राजाओं को बड़ा हर्ष हुआ। पाण्डवों ने माननीयों का मान करने का गौरव प्राप्त क्या है___ यह देखकर राजाओं ने उनका बड़ा सत्कार किया और अपने बन्धु_बान्धवों के प्रति उनकी सुहृदता, कृपा और दया की बड़ी चर्चा करने लगे।