Friday 21 February 2020

सात्यकि और दुर्योधन की युद्ध, द्रोण का घोर कर्म, ऋषियों का द्रोण को अस्त्र त्यागना की आदेश तथा अश्त्थामा की मृत्यु सुनकर द्रोण का जीवन से निराश होना

संजय कहते हैं___उस समय दुःशासन धृष्टधुम्न के साथ युद्ध करने लगा। उसने धृष्टधुम्न को अपने बाणों से खूब पीड़ित किया। तब वह भी क्रोध में भर गया और आपके पुत्र के घोडों पर बाणवर्षा करने लगा। एक ही क्षण में उसके बाणों की इतनी राशि जमा हो गयी कि दुःशासन का रथ उससे ढककर ध्वजा और सारथिसहित अदृश्य हो गया। धृष्टधुम्न के सायकों से दुःशासन को बड़ी पीड़ा होने लगी। इसलिये वह सब उसके सामने ठहर न सका___ पीठ दिखाकर भाग गया। इस प्रकार दुःशासन को विमुख करके धृष्टधुम्न हजारों बाणों की वृष्टि करता हुआ द्रोणाचार्य के पास पहुँचा। उस समय जो युद्ध हो रहा था, वह सर्वथा धर्मानुकूल था। कोई निहत्थे पर वार नहीं करता था, उस युद्ध में कर्णी, नालीक, विष का बुझाया हुआ बाण, दो फल वाला अपवित्र या टेढ़ा_ मेढ़ा बना हुआ बाण, वास्तिक, सूची, कपिश, गौ या हाथी की हड्डी का बना हुआ बाण___ इन सब का प्रहार नहीं किया जाता था। सब लोगों ने शुद्ध और सीधे_ सादे अस्त्रों को ही धारण कर रखा था।  सभी धर्ममय संग्राम करके उत्तम लोक और सुयश प्राप्त करना चाहते थे।
इतने में ही दुर्योधन तथा सात्यकि में मुठभेड़ हुई। वे दोनों निर्भीक होकर लड़ने लगे। साथ ही बचपन की बीती हुई बातों को याद कर परस्पर प्रेमपूर्वक देखते हुए बारम्बार हँसने लगते थे। राजा दुर्योधन अपने व्यवहार की निंदा करता हुआ प्यारे मित्र सात्यकि से बोला___’सखे ! क्रोध, लोभ, मोह, अमर्ष और क्षत्रिय आचार को धिक्कार है, जिसके कारण आज तुम मुझपर और मैं तुमपर प्रहार कर रहा हूँ। तुम मेरे प्राणों से भी बढ़कर प्रिय थे और मुझपर भी तुम्हारा ऐसा ही प्रेम था। पर आज इस रणभूमि में हम सबकुछ भूल गये हैं। दुर्योधन के ऐसा कहने पर सात्यकि ने कहा___’राजन् ! क्षत्रियों का व्यवहार ही ऐसा है। वे अपने गुरु से भी लड़ते हैं। यदि तुम मुझे प्रिय मानते हो तो जल्दी मार डालो, विलम्ब न करो। तुम्हारे कारण मैं पुण्यवानों के लोक में जाऊँगा। अब मैं जीवित रहकर अपने मित्रों पर पड़ी हुई आपत्ति नहीं देखना चाहता। इस प्रकार स्पष्ट उत्तर दे सात्यकि अपने प्राणों की परवा न करके तुरंत दुर्योधन के सामना करने आ गया।  तब दुर्योधन ने सात्यकि को दस बाण मारे; सात्यकि ने भी उसके ऊपर क्रमशः  पचास, तीस और दस बाणों की वर्षा की। दुर्योधन ने पुनः हँसते हुए तीस बाणों से सात्यकि को बींध डाला तथा क्षुरप्र से उसके धनुष को भी काट दिया। सात्यकि ने भी दूसरा धनुष ले हाथों की फुर्ती दिखाते हुए आपके पुत्र पर बाणों की झड़ी लगा दी। दुर्योधन ने अपने सायकों से उन बाणों के टुकड़े_ टुकड़े कर डाले और सात्यकि को तिहत्तर बाण मारकर व्याकुल कर दिया। फिर जब वह धनुष_बाण चढ़ा रहा था, उसी समय सात्यकि ने उसके धनुष को काट डाला और अनेकों सायकों से उसे घायल भी कर दिया। दुर्योधन वेदना से कराहता हुआ दूसरे रथ पर जा बैठा। थोड़ी देर बाद जब व्यथा कुछ कम हुई तो सात्यकि के रथ पर बाण बरसाता हुआ वह पुनः आगे बढ़ा। इसी प्रकार सात्यकि भी दुर्योधन के रथ पर बाणों की वर्षा करने लगा। फिर दोनों में भयंकर युद्ध छिड़ गया। वहाँ सात्यकि को ही प्रबल होते देख कर्ण आपके पुत्र की रक्षा के लिये शीघ्र ही आ पहुँचा। महाबली भीमसेन से यह सहा नहीं गया। वे भी बाणों की वृष्टि करते हुए तुरंत वहाँ आ धमके। कर्ण ने हँसते हुए तीखे बाण मारकर भीमसेन की धनुष तथा बाण काट दिया और उनके सारथि को भी मार डाला। तब भीमसेन के क्रोध की सीमा न रही; उन्होंने गदा लेकर शत्रु के धनुष, ध्वजा, सारथि और रथ के पहिये का नाश कर डाला। कर्ण इस बात को नहीं सह सका, वह तरह_ तरह के अस्त्रों और बाणों की प्रयोग करके भीम के साथ लड़ने लगा। इसी तरह भीमसेन भी कुपित होकर कर्ण से युद्ध करने लगे। दूसरी ओर द्रोणाचार्य धृष्टधुम्न आदि पांचालों को पीड़ा देने लगे। यह आचार्य के सेनापतित्व का पाँचवाँ दिन था। वे क्रोध में भरे हुए थे और पांचाल वीरों का महान् संहार कर रहे थे। शत्रु भी बड़े धैर्यवान् थे। वे उनसे युद्ध करते हुए तनिक भी भयभीत नहीं होते थे। पांचाल वीरों को मरते और द्रोणाचार्य को प्रबल होते देख पाण्डवों को बड़ा भय हुआ। उन्होंने विजय की आशा छोड़ दी। उन्हें संदेह होने लगा___ ये महान् अस्त्रवेत्ता आचार्य कहीं हम सब लोगों का नाश तो नहीं कर डालेंगे।
कुन्ती के पुत्रों को भयभीत देख भगवान् श्रीकृष्ण कहने लगे____’पाण्डवों ! द्रोणाचार्य धनुर्धारियों में सर्वश्रेष्ठ हैं, इनके हाथ में धनुष रहने पर इन्द्र आदि देवता भी इन्हें नहीं जीत सकते। जब ये हथियार डाल दें, तभी कोई मनुष्य इनका वध कर सकता है। मैं समझता हूँ, अश्त्थामा के मारे जाने पर ये युद्ध नहीं करेंगे; अतः कोई जाकर इन्हें अश्त्थामा की मृत्यु का समाचार सुनावे।‘ महाराज ! अर्जुन को यह बात बिलकुल पसंद नहीं आयी, किन्तु और सब लोगों को भा गयी। केवल राजा युधिष्ठिर ने बड़ी कठिनाई से यह बात स्वीकार की। मालवा के राजा इन्द्रवर्मा के पास एक हाथी था, जिसका नाम था अश्त्थामा। अपनी ही सेना के उस हाथी को भीमसेन ने गदा से मार डाला और लजाते_ लजाते द्रोणाचार्य के सामने जाकर जोर_जोर से हल्ला करने लगे____’ अश्त्थामा मारा गया।‘ मन में उस हाथी का खयाल करके भीम ने यह मिथ्या बात उड़ा दी।
उस अप्रिय वचन को सुनकर आचार्य द्रोण सहसा सूख गये। उनका सारा शरीर शिथिल हो गया। परंतु वे,अपने पुत्र के बल को जानते थे, अतः संदेह हुआ कि यह बात झूठी है। फिर तो धैर्य से विचलित न होकर उन्होंने धृष्टधुम्न के ऊपर धावा किया और उसके ऊपर एक हजार बाणों की वर्षा की। यह देख बीस हजार पांचाल महारथियों ने चारों ओर से बाणों की झड़ी लगाकर द्रोणाचार्य को ढक दिया। द्रोण ने उनके बाणों का नाश करके उनका भी संहार करने के लिये ब्रह्मास्त्र प्रकट किया। वह अस्त्र पांचालों के गर्दन और भुजाएँ काट_काटकर गिराने लगा। पृथ्वी पर मरे हुए वीरों की लाशें बिछ गयीं। आचार्य ने उन बीसों हजार महारथियों का सफाया कर डाला। फिर वसुदान का सिर धर से अलग कर दिया। इसके बाद पाँच सौ मत्स्यों, छः हजार सृंजयों, दस हजार हाथियों तथा दस हजार घोड़ों की संहार कर डाला। इस प्रकार द्रोणाचार्य को क्षत्रियों का अन्त करने के लिये खड़ा देख अग्निदेव को आगे करके विश्वामित्र, जमदग्निनन्दन, भरद्वाज, गौतम, वशिष्ठ, कश्यप और अत्रि ऋषि उन्हें ब्रह्मलोक में ले जाने के लिये वहाँ पधारे। साथ ही सिकत, पिश्रि, गर्ग, वालखिल्य, भृगु और अंगिरा आदि भी थे। ये सभी सूक्ष्मरूप धारण किये हुए थे। महर्षियों ने द्रोणाचार्य से कहा___’ द्रोण ! हथियार रख दो और यहाँ खड़े हुए हमलोगों की ओर देखो। अब तक तुमने अधर्म से युद्ध किया है। अब तुम्हारी मृत्यु का समय आया है। अबसे भी इस अत्यंत क्रूरतापूर्ण कर्म का त्याग करो। तुम वेद और वेदांगों का विद्वान हो। सत्य और धर्म में तत्पर रहनेवाले हो। सबसे बड़ी बात यह है कि तुम ब्राह्मण हो। तुम्हारे लिये यह काम शोभा नहीं देता अपने सनातन धर्म में स्थित हो जाओ। तुम्हारा इस मनुष्यलोक में रहने का समय पूरा हो चुका है। जो लोग ब्रह्मास्त्र से दग्ध किया है; तुम्हारा यह काम अच्छा नहीं हुआ। फेंक दो ये अस्त्र_ शस्त्र, अब फिर ऐसा पापकर्म न करो।‘
आचार्य ने ऋषियों की यह बात सुनी। भीमसेन के कथन पर भी विचार किया और धृष्टधुम्न को सामने देखा; इन सब कारणों से वे बहुत उदास हो गये। अब उन्हें अश्त्थामा के मरने का संदेह हुआ। वे व्यथित होकर युधिष्ठिर से पूछने लगे___’ वास्तव में मेरा पुत्र मारा गया या नहीं ?’ द्रोण के मन में यह निश्चय था कि युधिष्ठिर तीनों लोकों का राज्य पाने के लिये भी किसी तरह झूठ नहीं बोलेंगे। बचपन से ही सच्चाई में आचार्य का विश्वास था। इधर भगवान् श्रीकृष्ण ने यह सोचा कि आचार्य द्रोण अब पृथ्वी पर पाण्डवों का नामनिशान भी नहीं रहने देंगे, तो उन्होंने धर्मराज से कहा___’यदि द्रोण क्रोध में भरकर आधे दिन और युद्ध करते रहे तो मैं सच कहता हूँ तुम्हारी सेना का सर्वनाश हो जायगा। अतः तुम द्रोण से हमलोगों को बचाओ। दूसरों की प्राण_रक्षा के लिये यदि कदाचित् असत्य बोलना पड़े तो उससे बोलनेवाले को पातक नहीं लगता।‘ वे दोनों इस प्रकार बातें कर ही रहे थे कि भीमसेन बोल उठे___’महाराज ! द्रोण के वध का उपाय सुनकर मैंने आपकी सेना में विचरनेवाले मालवनरेश इन्द्रवर्मा के अश्त्थामा नामक हाथी को मार डाला है। उसके बाद द्रोण से जाकर कहा है___’अश्त्थामा मारा गया।‘ उन्होंने मेरी बात पर विश्वास नहीं किया, इसीलिये आपसे पूछते हैं। अतः आप श्रीकृष्ण की बात मानकर द्रोण से कह दीजिये कि ‘ अश्त्थामा मारा गया’। आपके कहने से फिर वे युद्ध नहीं करेंगे; क्योंकि आप सत्यवादी हैं__ यह बात तीनों लोकों में प्रसिद्ध है।‘ महाराज ! भीम की बात सुनकर और श्रीकृष्ण की प्रेरणा से युधिष्ठिर वैसा करने को तैयार हो गये। वे असत्य के भय में डूबे हुए थे तो भी विजय में आसक्ति होने के कारण द्रोणाचार्य से ‘अश्त्थामा मारा गया’ यह वाक्य उच्च स्वर से बोलकर धीरे से बोले ‘किन्तु हाथी’। इसके पहले  युधिष्ठिर का रथ पृथ्वी से चार अंगुल ऊँचा रहा करता था, उस दिन वह असत्य मुँह से निकालते ही रथ जमीन से सट गया। महारथी द्रोण युधिष्ठिर के मुँह से वह बात सुनकर पुत्रशोक से पीड़ित हो जीवन से निराश हो गये तथा ऋषियों के कथनानुसार अपने को पाण्डवों का अपराधी मानने लगे।



Monday 10 February 2020

दोनों दलों का द्वन्दयुद्ध; विराट, सपौत्र द्रुपद और केकयादि का वध; दुर्योधन और दुःशासन की पराजय; भीम_ कर्ण तथा अर्जुन द्रोण का युद्ध

संजय कहते हैं___महाराज ! जब रात्रि के तीन भाग बीत गये और एक ही भाग शेष रह गया, उस समय कौरव तथा पाण्डवों में बड़े उत्साह के साथ युद्ध होने लगा। थोड़ी देर बाद चन्द्रमा की प्रभा फीकी पड़ गयी और पूर्व के आकाश में लाली घेरता हुआ अरुणोदय हुआ। उस समय दोनों सेनाओं के योद्धा अपनी_ अपनी सवारी छोड़कर सन्ध्या_वन्दन के लिये उतर पड़े और सूर्य के सम्मुख जप करते हुए हाथ जोड़कर खड़े हो गये।इसके बाद  कौरव_सेना फिर दो भागों में विभक्त हो गयी और द्रोणाचार्य ने दुर्योधन को साथ लेकर सोमक, पाण्डव तथा पांचाल योद्धाओं पर आक्रमण किया। कौरवसेना को दो भागों में विभक्त देखकर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा___’धनंजय ! शत्रुओं को बायीं ओर करके आचार्य द्रोण को दाहिने रखो।‘ अर्जुन ने भगवान् की आज्ञा स्वीकार करके वैसा ही किया। भगवान् का अभिप्राय भीमसेन समझ गये और बोले___’अर्जुन ! अर्जुन ! मेरी बात सुनो। क्षत्रिय माता जिस काम के लिये पुत्र को जन्म देती है, उसे कर दिखाने का अवसर आ गया है। इसलिये अब पराक्रम करके सत्य, लक्ष्मी, धर्म और यश का उपार्जन करो इस शत्रुसेना का संहार कर डालो। तब अर्जुन ने कर्ण और द्रोण को लाँघकर शत्रुओं के चारों ओर से घेरा डाल दिया। वे सेना के मुहाने पर खड़े हो  बड़े_बड़े क्षत्रियों को अपनी शराग्नि से दग्ध करने लगे, किन्तु उन्हें कोई भी आगे बढ़ने से रोक न सका। इतने में ही दुर्योधन, कर्ण और शकुनि ने अर्जुन पर बाण बरसाना आरम्भ किया; किन्तु उन्होंने अपने अस्त्रों से उनके अस्त्रों का निवारण करके प्रत्येक को दस_दस बाणों से बींध डाला। उस समय बाणवृष्टि के साथ ही धूल की भी वर्षा होने लगी। चारों ओर घोर अंधकार छा गया, जिससे हमलोग एक_दूसरे को पहचान नहीं पाते थे। नाम बताने से ही योद्धा परस्पर युद्ध करते थे। कितने ही रथी रथ टूट जाने पर एक_दूसरे के केश, कवच और बाँहें पकड़कर जूझ रहे थे। कितने ही मरे हुए घोड़ों और हाथियों पर सटे हुए प्राण खो बैठे थे। इस समय द्रोणाचार्य संग्राम में उत्तर दिशा की ओर जाकर खड़े हुए। उन्हें देखते ही पाण्डवसेना थर्रा उठी। कितनों पर आतंक छा गया, कुछ भाग चले और कुछ मन उदास किये खड़े रहे। कितने हतोत्साह हो गये। कितने ही आश्चर्यचकित होकर देखने लगे। उनमें जो वीर थे, वे क्रोध और अमर्ष में भर गये। कुछ ओजस्वी वीर प्राणों का परवा न करके द्रोणाचार्य पर टूट पड़े। पांचाल राजाओं पर द्रोणाचार्य के सायकों की अधिक मार पड़ी। वे अत्यन्त वेदना सहकर भी युद्ध में डटे हुए थे। इतने में राजा विराट और द्रुपद ने द्रोण पर चढ़ाई की। द्रुपद के तीन पौत्रों और चेदिदेशिय योद्धाओं ने भी उनका साथ दिया। यह देख द्रोणाचार्य ने तीन तीखे बाणों से द्रुपद के तीनों पौत्रों के प्राण ले लिये। इसके बाद उन्होंने चेदि, केकय, सृंजय तथा मत्स्यदेशीय महारथियों को भी परास्त किया। तब राजा द्रुपद और विराट क्रोध में भरकर द्रोण पर बाणों की वृष्टि करने लगे। द्रोण ने उनकी बाणवर्षा रोक दी और अपने सायकों से उन दोनों को आच्छादित कर दिया। अब उन दोनों के क्रोध की सीमा न रही। वे भी द्रोण को बाणों से बींधने लगे। यह देख द्रोण ने क्रोध और अमर्ष में भरकर दो अत्यन्त तीखे भल्लसे उन दोनों के धनुष काट दिये। धनुष कट जाने पर विराट ने दस तोमर चलाये और द्रुपद वे भयंकर शक्ति का प्रहार किया। द्रोण ने भी तीखे भल्लों से उन दसों तोमरों को काटकर सायकों से द्रुपद की शक्ति भी काट गिरायी। फिर दो भालों से विराट और द्रुपद दोनों का काम तमाम कर दिया। इस प्रकार विराट, द्रुपद, केकय, चेदि, मत्स्य, पांचाल और तीनों द्रुपद_पौत्रों के मारे जाने पर द्रोण का पराक्रम देख धृष्टधुम्न को बड़ा क्रोध हुआ, साथ ही दुःख भी। उसने महारथियों के बीच में यह शपथ दिलायी कि ‘आज जो द्रोण को जीवित छोड़कर लौटे या द्रोण से अपमानित होकर बदला न ले, वह यज्ञ_ यागादि करने तथा कुआँ, बावली बनवाने आदि के पुण्य को खो बैठे; उसका क्षत्रियत्व और ब्रह्मतेज नष्ट हो जाय।‘ संपूर्ण धनुर्धारियों के बीच ऐसी घोषणा करके धृष्टधुम्न अपनी सेना के साथ द्रोण पर चढ़ आया। पाण्डव और पांचाल एक ओर से द्रोण पर बाणवर्षा करने लगे तथा दूसरी ओर दुर्योधन, कर्ण और शकुनि आदि प्रधान वीर उनकी रक्षा में खड़े हो गये। पांचालों ने भी अपने सभी महारथियों के साथ द्रोण को दबाने का पूरा प्रयत्न किया, किन्तु वे उनकी ओर आँख उठाकर देख भी न सके। उस समय भीमसेन क्रोध में भरकर अपने बाणों से आपकी वाहिनी में भगदड़ मचाते हुए द्रोण की सेना में घुस गये। साथ ही धृष्टधुम्न भी द्रोण के पास जा पहुँचा। फिर तो घमासान युद्ध होने लगा। बड़ा भीषण संहार मचा। रथियों के झुंड_के_झुंड एक दूसरे से सटकर लोहा लेने लगे। जो लोग विमुख होकर भागते, उनकी पीठ पर और बगल में मार पड़ती थी। इस प्रकार वह घमासान युद्ध चल रहा था, इतने में ही सूर्यभगवान् का उदय हो गया। उस समय दोनों ओर के सैनिकों ने कवच पहने हुए सूर्योपस्थान किया। फिर पूर्ववत् युद्ध होने लगा। सूर्योदय के पहले जो जिनके साथ लड़ते थे, उनका उन्हीं के साथ पुनः द्वन्दयुद्ध छिड़ गया। दोनों पक्ष के योद्धा बहुत समीप से सटकर मुकाबला कर रहे थे; इसलिये तलवार, तोमर और फरसों की मार से वहाँ का दृश्य बड़ा भयावह हो गया था। हाथी और घोडों की कटी हुई लाशों से रक्त की नदी बह रही थी। महाराज ! उस समय द्रोणाचार्य और अर्जुन को छोड़कर बाकी समस्त सेना विक्षिप्त, व्याकुल, भयभीत एवं आतुर हो रही थी। द्रोण और अर्जुन ही अपने_अपने पक्ष के रक्षक और घबराये हुए लोगों के आधार थे। शत्रुपक्ष के लोग उन्हीं दोनों के सामने आकर यमलोक की राह लेते थे। कौरव और पांचालों की सेनाएँ अत्यंत उद्विग्न हो गयी थीं। एक तो सारी सेना गुत्थमगुत्थ हो रही थी, दूसरे धूल उड़_उड़कर सबको ढक देती थी; इसलिये हमलोग उस महासंहार में कर्ण, द्रोण, अर्जुन, युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल_सहदेव, धृष्टधुम्न, सात्यकि, दुःशासन, अश्त्थामा, दुर्योधन, शकुनि, कृप, शल्य, कृतवर्मा तथा और किसी वीर को नहीं देख पाते थे। पृथ्वी, आकाश या अपना शरीर तक नहीं सूझता था। ऐसा जान पड़ता था, फिर रात हो गयी। कौन कौरव है और कौन पाण्डव या पांचाल, इसकी पहचान नहीं हो पाती थी। उस समय दुर्योधन और दुःशासन नकुल_सहदेव के साथ भिड़े हुए थे। कर्ण भीमसेन से लड़ता था और अर्जुन द्रोणाचार्य से लोहा ले रहे थे। इन उग्र स्वभाववाले महारथियों का अलौकिक संग्राम चलने लगा। ये विचित्र गतियों से अपने रथों का संचालन करते थे। वह युद्ध इतना भयंकर और आश्चर्यजनक था कि सभी रथी चारों ओर खड़े होकर उसका तमाशा देखने लगे। माद्रीनन्दन नकुल ने आपके पुत्र को दाहिने कर दिया और उसपर सैकड़ों बाणों की झड़ी लगा दी। फिर तो वहाँ बड़ा कोलाहल हुआ। दुर्योधन भी नकुल को दाहिनी ओर लाने का उद्योग करने लगा, मगर नकुल से उसकी एक न चली। उसने बाणवर्षा से पीड़ित कर उसे सामने से भगा दिया। दूसरी ओर क्रोध में भरे हुए दुःशासन ने सहदेव पर धावा किया था। उसके आते ही माद्रीनन्दन ने एक भल्ल मारकर उसके सारथि का मस्तक उड़ा दिया। यह काम इतनी जल्दी में हुआ कि किसी सैनिक या दुःशासन तक को पता न चला। जब बागडोर संभालनेवाला न होने से घोड़े स्वच्छंद होकर भागने लगे, तब दुःशासन को मालूम हुआ कि मेरा सारथि मारा गया है, उसने स्वयं घोड़ों की रास ली और रणभूमि में युद्ध करने लगा। सहदेव ने उन घोड़ों को तीखे बाणों से मारना आरम्भ किया। बाणों की मार से पीड़ित हुए घोड़े इधर_उधर भागने लगे। दुःशासन जब घोड़ों की रास लेता तो धनुष रख लेता और जब धनुष लेता तो रास छोड़ देता था। इसी बीच में मौका पाकर सहदेव उसे बींधता रहा। यह देख कर्ण उसकी रक्षा के लिये बीच में कूद पड़ा। तब भीमसेन भी सावधान हो गये और तीन भल्लों से कर्ण की भुजाओं तथा छाती में घाव करके गर्जना करने लगे। कर्ण भी तीखे बाणों की वर्षा करते हुए भीमसेन को रोक दिया। फिर उन दोनों में तुमुल संग्राम होने लगा। भीमसेन ने गदा मारकर कर्ण के रथ को तोड डाला, उसके सैकड़ों टुकड़े हो गये। कर्ण ने भीम का ही गदा उठा ली और उसे घुमाकर उन्हीं के रथ पर फेंका। किन्तु भीम ने दूसरी गदा से उस गदा को तोड़ डाला। फिर उन्होंने कर्ण पर एक बहुत भारी गदा छोड़ी, परन्तु उसने बहुत से बाण मारकर उस गदा को लौटा दी। लौटकर वह गदा पुनः भीम के रथ पर ही गिरी, उसके आघात से उनके रथ की विशाल ध्वजा टूटकर गिर पड़ी और सारथि को भी मूर्छा आ गयी।
इससे भीमसेन का कोर बढ़ गया और उन्होंने अपने सायकों से कर्ण की ध्वजा, धनुष और भाथा काट डाले। कर्ण ने पुनः दूसरा धनुष लिया और तीखे तीरों से उनके घोड़े, पार्श्वरक्षक तथा सारथि को मार डाला। रथहीन हो जाने पर भीमसेन नकुल के रथ पर जा बैठे। इसी प्रकार महारथी द्रोण तथा अर्जुन भी विचित्र प्रकार से युद्ध करने लगे। वे सेना के बीच रथ का विचित्र गतियों से संचालन करते हुए एक_दूसरे को दायीं ओर लाने का प्रयत्न कर रहे थे।  उस समय सभी योद्धा उन दोनों का पराक्रम देखकर चकित हो रहे थे। अर्जुन को जीतने के लिये आचार्य द्रोण जिस_जिस उपाय को काम में लाते थे, अर्जुन हँसते हुए उस_उसका तुरंत प्रतिकार कर देते थे। तब द्रोणाचार्य ने क्रमशः ऐन्द्र, पाशुपत, त्वाष्ट्र, वायव्य और वारुणास्त्र अस्त्र को प्रकट किया; किन्तु अर्जुन ने द्रोण के धनुष से छूटते ही उन अस्त्रों को दिव्यास्त्र द्वारा शान्त कर दिया। यह देख द्रोण ने अर्जुन की मन_ही_मन प्रशंसा की और उनके जैसे शिष्य को पात्र तथा अपने को सभी शस्त्रवेत्ताओं से श्रेष्ठ समझा। उन दोनों की युद्ध देखने के लिये आकाश में हजारों देवता, गन्धर्व, ऋषि और सिद्धों के समूह एकत्रित थे। द्रोण और अर्जुन की प्रशंसा से भरी हुई उनकी बातें भी सुनाई देती थीं। तदनन्तर द्रोणाचार्य ने ब्रह्मास्त्र प्रकट किया, यह अर्जुन तथा अन्य प्राणियों को संताप देने लगा।  उस अस्त्र के प्रकट होते ही पर्वत, वन और वृक्षोंसहित करती डोलने लगी। समुद्र में तूफान आ गया। दोनों ओर की सेनाएँ भयभीत हो गयीं। परन्तु अर्जुन इससे तनिक भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने ब्रह्मास्त्र से ही उस अस्त्र का नाश कर दिया। फिर सारे उपद्रव शान्त हो गये। इसके बाद द्रोण और अर्जुन में घोर युद्ध होने लगा।