वैशम्पायनजी कहते हैं_वह रात बीतने पर धृष्टद्युम्न के सारथि ने राजा युधिष्ठिर को शिविर सोये हुए वीरों के संहार की सूचना दी। उसने कहा, 'महाराज ! महाराजा द्रुपद के पुत्रों सहित सब द्रौपदी पुत्र शिविर में निश्चिंत होकर बेखबर सोये हुए थे। वे सभी मार डाले गये। आज रात्रि में क्रूर कृतवर्मा, कृपाचार्य और पापी अश्वत्थामा ने आपके सारे शिविर को नष्ट कर डाला है। इन्होंने प्रास, शक्ति और फरसों से हजारों योद्धा तथा हाथी_घोड़े को काटकर आपकी सेना का संहार कर डाला है। कृतवर्मा कुछ व्यग्रचित्त था, इसलिये सारी सेना में से एक मैं ही किसी प्रकार बचकर निकल आया हूं।' सारथि की यह अमंगल वाणी सुनकर कुन्तिनन्दन युधिष्ठिर पुत्र शोक से व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। उस समय सात्यकि, भीमसेन, अर्जुन और नकुल_सहदेव ने उसे संभाला। चेत होने पर वे विलाप करते हुए कहने लगे, 'हाय ! हम तो शत्रुओं को जीत चुके थे, किन्तु आज उन्होंने हमें जीत लिया। हमने भाई, समवयस्क, पिता, पुत्र, मित्र, बंधु, मंत्री और पौत्रों की हत्या करके तो जय प्राप्त की; किन्तु इस प्रकार जीतकर भी आज हम जीत लिये गये। कभी_कभी अनर्थ अर्थ सा जान पड़ता है और अर्थ_सी दिखाई देनेवाली वस्तु अनर्थ के रूप में परिणत हो जाती है। इसी प्रकार हमारी यह विजय पराजय_सी हो गयी है और शत्रुओं की पराजय भी विजय_सी हो गयी। इस मनुष्य लोक में प्रमाद से बढ़कर मनुष्य की कोई और मृत्यु नहीं है। प्रमादी मनुष्य को अर्थ सब प्रकार त्याग देते हैं तथा उसे अनर्थ सब ओर से घेर लेते हैं। वह विद्या, तप, वैभव और यश किसी प्रकार प्राप्त नहीं कर सकता। जिस प्रकार कोई व्यापारियों का बेड़ा समुद्र को पार करके किसी छोटी_सी नदी में डूब जाय उसी प्रकार आज हमारे प्रमाद से ही ये इन्द्र के तुल्य राजाओं के पुत्र_पौत्र सहज ही में मारे गये हैं। शत्रुओं ने अधर्म वश जिसे सोते हुए ही मार डाला है वे तो नि:संदेह स्वर्ग सिधार गये हैं। परन्तु मुझे तो द्रौपदी की चिन्ता है; क्योंकि जिस समय वह अपने भाइयों, पुत्रों और बूढ़े पिता पांचालों द्रुपद की मृत्युओं का समाचार सुनेगी उस समय उनके शोकजनित दु:ख को कैसे सह सकेगी ? उसके हृदय में तो आग_सी लग जायगी।'इस प्रकार अत्यन्त दीनता से विलाप करते _करते वे नकुल से कहने लगे_'भैया ! तुम जाओ और मन्दभागिनि द्रौपदी को उसके मातृ पक्ष की स्त्रियों सहित यहां लिवा लाओ।' धर्मराज की आज्ञा पाकर नकुल रथ पर सवार हो उस डेरे की ओर गया जहां पांचालराज की महिलाएं और महारानी द्रौपदी थी। नकुल को भेजकर महाराज युधिष्ठिर शोकाकुल सुहृदों के सहित रोते_रोते उस स्थान पर गये जहां उनके पुत्र मरे पड़े थे। उस भीषण स्थान में पहुंचकर उन्होंने अपने खून में लथपथ सुहृदों और सखाओं को पृथ्वी पर पड़े देखा। उनके अंग_प्रत्यंग कटे हुए थे और बहुतों के सिर भी काट लिये गये थे। उन्हें देखकर महाराज युधिष्ठिर बहुत ही खिन्न हुए और फूट_फूटकर रोने लगे। अपने पुत्र, पौत्र और मित्रों को संग्राम में मरे देखकर वे अत्यंत दु:खातुर हो गये। उनके आंखों में आंसुओं की बाढ़ _सी आ गयी, शरीर कांपने लगा और बार_बार मूर्छा आने लगी। तब उनके सुहृदगण अत्यंत उदास होकर उन्हें धीरज बंधाने लगे। इसी समय शोकाकुल द्रौपदी को रथ में लेकर वहां नकुल पहुंचा। वह उपलव्य नामक स्थान में गयी हुई थी। जिस समय उसने अपने पुत्रों के मारे जाने का अशुभ समाचार सुना, वह तो बहुत ही दु:खी हुई। उसका मुख शोक से बिलकुल फीका पड़ गया और वह राजा युधिष्ठिर के पास पहुंचकर पृथ्वी पर गिर पड़ी। द्रौपदी को गिरते देख महापराक्रमी भीमसेन ने लपककर अपनी दोनों भुजाओं में पकड़ लिया और उसे ढ़ाढ़स बंधाया। वह रो_रोकर राजा युधिष्ठिर से कहने लगी 'राजन् ! अपने वीर पुत्रों को क्षात्रधर्म के अनुसार मारा गया सुनकर आप तो उपलव्य नगर में मेरे साथ रहकर याद भी नहीं करेंगे। परन्तु पापी अश्वत्थामा ने उन्हें सोते हुए ही मार डाला_यह सुनकर मुझे तो उनका शोक आग की तरह जला रहा है। यदि आप आज ही साथियों के सहित उस पापी के जीवन का अंत नहीं कर देंगे और वह कुकर्म का फल नहीं पायेगा तो याद रखिये मैं यहीं आजीवन अनशन व्रत आरंभ कर दूंगी।' ऐसा कहकर यशस्विनी द्रौपदी महाराज युधिष्ठिर के समीप ही बैठ गयी। तब धर्मराज ने अपनी प्रिया को पास ही बैठे देखकर कहा, 'धर्मज्ञे ! तुम्हारे पुत्र और भाई धर्मपूर्वक युद्ध करके वीरगति को प्राप्त हुए हैं। तुम्हें उनके लिये शोक नहीं करना चाहिये। अश्वत्थामा तो यहां से बहुत दूर दुर्गम वन में चला गया है। उसे मार भी डाला जाय तो तुम्हें यह बात कैसे मालूम होगी ?द्रौपदी ने कहा_'राजन् ! मैंने सुना है कि अश्वत्थामा के सिर में जन्म के साथ उत्पन्न हुई एक मणि है। सो संग्राम में उस पापी का वध करके उस मणि को ले आना चाहिए। मेरा यही विचार है कि उसे आपके सिर पर धारण कराकर ही मैं जीवन धारण करूंगी। धर्मराज से ऐसा कहकर फिर द्रौपदी ने भीमसेन के पास आकर कहा, 'भीमसेन ! आप क्षात्रधर्म देखकर मेरी रक्षा करें। इन्द्र ने जैसे शम्बरासुर को मारा था, उसी प्रकार आप उस पापी का वध करें। यहां आपके समान पराक्रमी और कोई पुरुष नहीं है। वारणावत में जब पाण्डवों पर बड़ा संकट आ पड़ा था, तब आप ही ने इन्हें सहारा दिया था। हिडिम्बासुर से पाला पड़ने पर आपसी इनके रक्षक हुए थे। विराटनगर में जब कीचक ने मुझे बहुत तंग किया था, तब भी आपही ने मुझे उस दु:ख से उद्धार किया था। आपने जिस प्रकार ये बड़े _बड़े काम किये हैं, उसी प्रकार इस द्रोणपुत्र को मारकर भी प्रसन्न होइये। द्रौपदी का यह तरह_यरह का विलाप और भीषण दु:ख देखकर भीमसेन सह न पाये। वे अश्वत्थामा को मारने का निश्चय कर एक सुन्दर धनुष लेकर रथ पर सवार हो गये तथा नकुल को अपना सारथि बनाया। उन्होंने बाण चढ़ाकर धनुष की टंकार की और शीघ्र ही घोड़े को हंकवा दिया। छावनी से निकलकर उन्होंने अश्वत्थामा के रथ का चिह्न देखते हुए बड़ी तेजी से उसका पीछा किया।
Wednesday 29 May 2024
Friday 10 May 2024
अश्वत्थामादि का दुर्योधन को सब समाचार सुना तथा दुर्योधन की मृत्यु
संजय ने कहा_राजन् ! वे तीनों वीर संपूर्ण पांचालवीरों और द्रौपदी के पुत्रों को मारकर जहां राजा दुर्योधन मरणासन्न अवस्था में पड़ा था, उस स्थान पर आये। उन्होंने जाकर देखा तो इस समय उसमें कुछ ही प्राण शेष था। वह जैसे_तैसे अपने प्राण बचाये हुए था। उसके मुंह से रक्त का वमन होता था तथा उसे चारों ओर से अनेकों भेड़िये और दूसरे हिंसक जीव घेरे हुए थे। वे सब उसे चट कर जाना चाहते थे और वह बड़ी कठिनता से उन्हें रोक रहा था। इस समय उसे बड़ी ही वेदना हो रही थी। दुर्योधन को इस प्रकार अनुचित रीति से पृथ्वी पर पड़े देखकर उन तीनों वीरों को असह्य कष्ट हुआ और वे फूट_फूटकर रोने लगे। उन्होंने अपने हाथों से दुर्योधन के मुंह का खून पोंछा और फिर दीन होकर विलाप करने लगे। कृपाचार्य ने कहा_हाय ! विधाता के लिये कोई भी काम कठिन नहीं है। आज ग्यारह अक्षौहिणी सेना के स्वामी राजा दुर्योधन इस प्रकार खून से लथपथ हुआ पृथ्वी पर पड़ा है। महलों में जिस प्रकार महारानी शयन करती थी, उसी प्रकार वह सोने के पत्थर से मढ़ी हुई गदा वीर दुर्योधन के साथ सोयी हुई है। काल की कुटिलता तो देखो_ जो शत्रुसूदन सम्राट किसी समय राजाओं के आगे_आगे चलता था, आज वही भूमि पर पड़ा धूल फांक रहा है। जिसके आगे सैकड़ों राजा लोग भय से सिर झुकाते थे, वही आज वीर शैय्या पर पड़ा हुआ है, पहलेजिसे अनेकों ब्राह्मण अर्थ प्राप्ति के लिये घेरे रहते थे, उसी को आज मांस के लोभ से मांसाहारी प्राणियों ने घेर रखा है। अश्वत्थामा बोला_राजश्रेष्ठ ! आपको समस्त धनुर्धरों में श्रेष्ठ कहा जाता था। आप साक्षात् भगवान संकर्षण के शिष्य और युद्ध में कुबेर के समान थे, तो भी भीमसेन को किस प्रकार आपपर प्रहार करने का अवसर मिल गया ? आप सब धर्मों के जाननेवाले हैं। क्षुद्र और पापी भीमसेन ने किस प्रकार आपको धोखे से घायल कर दिया ? अवश्य ही काल की गति से पार पाना कठिन है। भीमसेन ने आपको धर्मयुद्ध के लिये बुलाया था, फिर अधर्म पूर्वक गदा से आपकी जांघें तोड़ डालीं। इस प्रकार अधर्म से मारकर जब भीमसेन ने आपको ठुकराया, तब भी कृष्ण और युधिष्ठिर ने उस क्षुद्र से कुछ नहीं कहा ! धिक्कार है उन्हें ! भीम ने आपको कपट से गिराया है। इसलिए जबतक प्राणियों की स्थिति रहेगी, तब तक योद्धालोग उसकी निंदा ही करेंगें। महर्षियों ने क्षत्रियों के लिये जो उत्तम गति बतायी है, युद्ध में मारे जाने के कारण आपने वह प्राप्त कर ली है।
राजन् ! आपके लिये मुझे चिंता नहीं है; मुझे तो आपके पिता और माता गांधारी के लिये खेद है, जिनके सभी पुत्र काल के गाल में चले गये हैं। हाय ! अब वे भिखारी बनकर दर_दर भटकेंगे और हर समय उन्हें पुत्रों का शोक सताता रहेगा। वृष्णिवंशी कृष्ण और दुष्टबुद्धि अर्जुन को धिक्कार है जिन्होंने मारते समय कोई रोक_टोक नहीं की। ये निर्लज्ज पाण्डव भी किस प्रकार कहेंगे कि हमने ऐसे ऐसे दुर्योधन को मारा था।
गान्धारीनन्दन ! आप धन्य है जो युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। महारथी कृपाचार्य, कृतवर्मा और मुझे धिक्कार है, जो आप_जैसे महाराज के साथ स्वर्ग नहीं सिधार रहे हैं। हम जो आपका अनुकरण नहीं कर रहे हैं_इससे यही जान पड़ता है कि एक दिन आपके सुकृत्यों का स्मरण करते_करते हम यों ही मर जायेंगे, स्वर्ग या अर्थ _इनमें से कोई भी हमारे हाथ नहीं लगेगा। न जाने हमारा ऐसा कौन सा कर्म है, जो हमें आपका साथ देने से रोक रहा है। तब तो नि: संदेह हमें बड़े दु:ख से इस पृथ्वी पर अपने दिन काटने पड़ेंगे।राजन् ! आपके न रहने पर हमें शान्ति और सुख कैसे मिल सकते हैं ? आप स्वर्ग सिधार रहे हैं। वहां सब महारथियों से आपकी भेंट होगी ही। उन सबकी ज्येष्ठता और श्रेष्ठता के अनुसार आप मेरी ओर से पूजा करें। पहले आप समस्त धनुर्धरों के ध्वजआरूप आचार्य जी का पूजन करें और उन्हें सूचना दें कि आज अश्वत्थामा ने धृष्टद्युम्न को मार डाला है। फिर महाराज बाह्लीक, महारथी जयद्रथ, सोमदत्त, भूरिश्रवा तथा और भी जो_जो वीर पहले स्वग पहुंच चुके हैं, उनका मेरी ओर से आलिंगन करें और कुशल पूछें। राजन् ! यदि आपमें कुछ प्राणशक्ति मौजूद हो तो मेरी एक बात सुनिये। इससे आपके कानों को बड़ा आनन्द मिलेगा। अब पाण्डवों के पक्ष में वे पांचों भाई, श्रीकृष्ण और सात्यकि_ये सात वीर बचे हैं और मैं, कृतवर्मा और आचार्य कृप_ये तीन बाकी हैं। द्रौपदी के सब पुत्र, धृष्टद्युम्न के बच्चे तथा समस्त पांचाल और युद्ध से बचें हुए मत्स्य वीरों का सफाया कर दिया गया है। पाण्डवों को जो बदला चुकाया गया है, उसपर ध्यान दीजिये। अब उनके वे बच्चे भी मार दिये गये हैं। आज उनके शिविर में जितने योद्धा और हाथी_घोड़े थे, उन सभी को मैंने तहस_नहस कर दिया है। आज पापी धृष्टद्युम्न को मैंने पशु की तरह पीट_पीटकर मार डाला है। दुर्योधन ने जब अश्वत्थामा की यह मन को प्यारी लगने वाली बात सुनी तो उसे कुछ चेत हो गया और वह कहने लगा, 'भाई ! आज आचार्य कृप और कृतवर्मा के सहित जो काम तुमने किया है वह तो भीष्म, कर्ण और तुम्हारे पिताजी भी नहीं कर सके। तुमने शिखण्डी के सहित सेनापति धृष्टद्युम्न को मार डाला, इससे आज निश्चय ही मैं अपने को इन्द्र के समान समझता हूं। तुम्हारा भला हो, अब स्वर्ग में ही हमारी_तुम्हारी भेंट होगी। ऐसा कहकर मनस्वी दुर्योधन चुप हो गया और अपने सुहृदों को दुख में छोड़कर उसने अपने प्राण त्याग दिये। उसने स्वयं पुण्यधाम स्वर्गलोक में प्रवेश किया और उसका शरीर पृथ्वी पर पड़ा रहा। राजन् ! इस प्रकार आपके पुत्र दुर्योधन की मृत्यु हुई। वह रणांगण में सबसे पहले गया था और सबसे पीछे शत्रुओं द्वारा मारा गया। मरने के पहले दुर्योधन ने तीनों वीरों को गले लगाया और उन्होंने भी उनका आलिंगन किया। अश्वत्थामा के मुख से यह करुणाजनक संवाद सुनकर मैं शोकाकुल होकर दिन निकलते ही नगर में चला गया। इस प्रकार आपकी ही खोटी सलाह से यह पांडवों और कौरवों का भीषण संहार हुआ है। आपके पुत्र का स्वर्गवास होने से मैं अत्यन्त शोकार्त हो गया हूं। अब व्यासजी की कृपा से प्राप्त मेरी दिव्यदृष्टि नष्ट हो गयी है। वैशम्पायनजी कहते हैं _राजन् ! महाराज धृतराष्ट्र इस प्रकार पुत्र की मृत्यु का समाचार सुनकर एकदम चिंता में डूबा गये और लम्बे _लम्बे गर्म सांस लेने लगे।
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