Wednesday 29 May 2024

राजा युधिष्ठिर और द्रौपदी का मृत पुत्रों के लिये शोक तथा द्रौपदी की प्रेरणा से भीमसेन का अश्वत्थामा को मारने के लिये जाना

वैशम्पायनजी कहते हैं_वह रात बीतने पर धृष्टद्युम्न के सारथि ने राजा युधिष्ठिर को शिविर सोये हुए वीरों के संहार की सूचना दी। उसने कहा, 'महाराज ! महाराजा द्रुपद के पुत्रों सहित सब द्रौपदी पुत्र शिविर में निश्चिंत होकर बेखबर सोये हुए थे। वे सभी मार डाले गये। आज रात्रि में क्रूर कृतवर्मा, कृपाचार्य और पापी अश्वत्थामा ने आपके सारे शिविर को नष्ट कर डाला है।  इन्होंने प्रास, शक्ति और‌ फरसों से हजारों योद्धा तथा हाथी_घोड़े को काटकर आपकी सेना का संहार कर डाला है। कृतवर्मा कुछ व्यग्रचित्त था, इसलिये सारी सेना में से एक मैं ही किसी प्रकार बचकर निकल आया हूं।' सारथि की यह अमंगल वाणी सुनकर कुन्तिनन्दन युधिष्ठिर पुत्र शोक से व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। उस समय सात्यकि, भीमसेन, अर्जुन और नकुल_सहदेव ने उसे संभाला। चेत होने पर वे विलाप करते हुए कहने लगे, 'हाय ! हम तो शत्रुओं को जीत चुके थे, किन्तु आज उन्होंने हमें जीत लिया। हमने भाई, समवयस्क, पिता, पुत्र, मित्र, बंधु, मंत्री और पौत्रों की हत्या करके तो जय प्राप्त की; किन्तु इस प्रकार जीतकर भी आज हम जीत लिये गये। कभी_कभी अनर्थ अर्थ सा जान पड़ता है और अर्थ_सी दिखाई देनेवाली वस्तु अनर्थ के रूप में परिणत हो जाती है। इसी प्रकार हमारी यह विजय पराजय_सी हो गयी है और शत्रुओं की पराजय भी विजय_सी हो गयी। इस मनुष्य लोक में प्रमाद से बढ़कर मनुष्य की कोई और मृत्यु नहीं है। प्रमादी मनुष्य को अर्थ सब प्रकार त्याग देते हैं तथा उसे अनर्थ सब ओर से घेर लेते हैं। वह विद्या, तप, वैभव और यश किसी प्रकार प्राप्त नहीं कर सकता। जिस प्रकार कोई व्यापारियों का बेड़ा समुद्र को पार करके किसी छोटी_सी नदी में डूब जाय उसी प्रकार आज हमारे प्रमाद से ही ये इन्द्र के तुल्य राजाओं के पुत्र_पौत्र सहज ही में मारे गये हैं। शत्रुओं ने अधर्म वश जिसे सोते हुए ही मार डाला है वे तो नि:संदेह स्वर्ग सिधार गये हैं। परन्तु मुझे तो द्रौपदी की चिन्ता है; क्योंकि जिस समय वह अपने भाइयों, पुत्रों और बूढ़े पिता पांचालों द्रुपद की मृत्युओं का समाचार सुनेगी उस समय उनके शोकजनित दु:ख को कैसे सह सकेगी ? उसके हृदय में तो आग_सी लग जायगी।'इस प्रकार अत्यन्त दीनता से विलाप करते _करते वे नकुल से कहने लगे_'भैया ! तुम जाओ और मन्दभागिनि द्रौपदी को उसके मातृ पक्ष की स्त्रियों सहित यहां लिवा लाओ।' धर्मराज की आज्ञा पाकर नकुल रथ पर सवार हो उस डेरे की ओर गया जहां पांचालराज की महिलाएं और महारानी द्रौपदी थी। नकुल को भेजकर महाराज युधिष्ठिर शोकाकुल सुहृदों के सहित रोते_रोते उस स्थान पर गये जहां उनके पुत्र मरे पड़े थे। उस भीषण स्थान में पहुंचकर उन्होंने अपने खून में लथपथ सुहृदों और सखाओं को पृथ्वी पर पड़े देखा। उनके अंग_प्रत्यंग कटे हुए थे और बहुतों के सिर भी काट लिये गये थे। उन्हें देखकर महाराज युधिष्ठिर बहुत ही खिन्न हुए और फूट_फूटकर रोने लगे। अपने पुत्र, पौत्र और मित्रों को संग्राम में मरे देखकर वे अत्यंत दु:खातुर हो गये। उनके आंखों में आंसुओं की बाढ़ _सी आ गयी, शरीर कांपने लगा और बार_बार मूर्छा आने लगी। तब उनके सुहृदगण अत्यंत उदास होकर उन्हें धीरज बंधाने लगे। इसी समय शोकाकुल द्रौपदी को रथ में लेकर वहां नकुल पहुंचा। वह उपलव्य नामक स्थान में गयी हुई थी। जिस समय उसने अपने पुत्रों के मारे जाने का अशुभ समाचार सुना, वह तो बहुत ही दु:खी हुई। उसका मुख शोक से बिलकुल फीका पड़ गया और वह राजा युधिष्ठिर के पास पहुंचकर पृथ्वी पर गिर पड़ी। द्रौपदी को गिरते देख महापराक्रमी भीमसेन ने लपककर अपनी दोनों भुजाओं में पकड़ लिया और उसे ढ़ाढ़स बंधाया। वह रो_रोकर राजा युधिष्ठिर से कहने लगी 'राजन् ! अपने वीर पुत्रों को क्षात्रधर्म के अनुसार मारा गया सुनकर आप तो उपलव्य नगर में मेरे साथ रहकर याद भी नहीं करेंगे। परन्तु पापी अश्वत्थामा ने उन्हें सोते हुए ही मार डाला_यह सुनकर मुझे तो उनका शोक आग की तरह जला रहा है। यदि आप आज ही साथियों के सहित उस पापी के जीवन का अंत नहीं कर देंगे और वह कुकर्म का फल नहीं पायेगा तो याद रखिये मैं यहीं आजीवन अनशन व्रत आरंभ कर दूंगी।' ऐसा कहकर यशस्विनी द्रौपदी महाराज युधिष्ठिर के समीप ही बैठ गयी। तब धर्मराज ने अपनी प्रिया को पास ही बैठे देखकर कहा, 'धर्मज्ञे ! तुम्हारे पुत्र और भाई धर्मपूर्वक युद्ध करके वीरगति को प्राप्त हुए हैं। तुम्हें उनके लिये शोक नहीं करना चाहिये। अश्वत्थामा तो यहां से बहुत दूर दुर्गम वन में चला गया है। उसे मार भी डाला जाय तो तुम्हें यह बात कैसे मालूम होगी ?द्रौपदी ने कहा_'राजन् ! मैंने सुना है कि अश्वत्थामा के सिर में जन्म के साथ उत्पन्न हुई एक मणि है। सो संग्राम में उस पापी का वध करके उस मणि को ले आना चाहिए। मेरा यही विचार है कि उसे आपके सिर पर धारण कराकर ही मैं जीवन धारण करूंगी। धर्मराज से ऐसा कहकर फिर द्रौपदी ने भीमसेन के पास आकर कहा, 'भीमसेन ! आप क्षात्रधर्म देखकर मेरी रक्षा करें। इन्द्र ने जैसे शम्बरासुर को मारा था, उसी प्रकार आप उस पापी का वध करें। यहां आपके समान पराक्रमी और कोई पुरुष नहीं है। वारणावत में जब पाण्डवों पर बड़ा संकट आ पड़ा था, तब आप ही ने इन्हें सहारा दिया था। हिडिम्बासुर से पाला पड़ने पर आपसी इनके रक्षक हुए थे। विराटनगर में जब कीचक ने मुझे बहुत तंग किया था, तब भी आपही ने मुझे उस दु:ख से उद्धार किया था। आपने जिस प्रकार ये बड़े _बड़े काम किये हैं, उसी प्रकार इस द्रोणपुत्र को मारकर भी प्रसन्न होइये। द्रौपदी का यह तरह_यरह का विलाप और भीषण दु:ख देखकर भीमसेन सह न पाये। वे अश्वत्थामा को मारने का निश्चय कर एक सुन्दर धनुष लेकर रथ पर सवार हो गये तथा नकुल को अपना सारथि बनाया। उन्होंने बाण चढ़ाकर धनुष की टंकार की और शीघ्र ही घोड़े को हंकवा दिया। छावनी से निकलकर उन्होंने अश्वत्थामा के रथ का चिह्न देखते हुए बड़ी तेजी से उसका पीछा किया।

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