Sunday 16 June 2024

श्रीकृष्ण का अश्वत्थामा के संबंध में एक पूर्व प्रसंग सुनाना

वैशम्पायनजी कहते हैं_जन्मेजय ! भीमसेन के चले जाने पर यदुश्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्ण ने धर्मराज से कह, 'राजन् ! आपके भाई भीमसेन पुत्र शोक के कारण अश्वत्थामा को संग्राम में मारने के लिये अकेले ही जा रहे थे। ये आपको अपने सब भाइयों से अधिक प्रिय हैं। फिर इस कठिनाई के समय आप उनकी सहायता का उद्योग क्यों नहीं करते ? आचार्य द्रोण ने अपने पुत्र को जिस ब्रह्मास्त्र की शिक्षा दी है, वह सारी पृथ्वी को भी भष्म कर सकता है। वहीं परमास्र उन्होंने प्रसन्न होकर अर्जुन को भी दिया है। अश्वत्थामा बड़ा असहनशील है। उसने तो अकेले अपने आप को ही इसे सिखाने की प्रार्थना की थी। आचार्य इसकी चपलता ताड़ गये थे और उन्होंने इसे आदेश दिया था कि 'भैया ! बहुत बड़ी आपत्ति में पड़ जाने पर भी तुम इसका प्रयोग मत करना। विशेषतः मनुष्यों पर तो तुम इसे छोड़ना ही मत; क्योंकि मैं देखता हूं तुम सत्पुरुषों के मार्ग पर स्थिर रहनेवाले नहीं हो।' पिता के ये वचन सुनकर दुरात्मा अश्वत्थामा सब प्रकार के सुख की आशा छोड़कर बड़े शोक से पृथ्वी पर विचरने लगा। एक बार जिस समय आप लोग वन में थे, वह द्वारका में आकर वृष्णिवंशियों के साथ रहा था और उन्होंने इसका बड़ा सत्कार किया था। एक दिन इसने एकान्त में मेरे पास अकेले ही आकर कहा, 'कृष्ण ! मेरे पिताजी ने बड़ी भीषण तपस्या करके अगस्त्य जी से जो ब्रह्मास्त्र प्राप्त किया था, वह इस समय जैसा उनके पास है वैसा ही मेरे पास भी है। सो यदुश्रेष्ठ ! आप मुझसे वह दिव्य अस्त्र लेकर अपना चक्र मुझे दे दीजिये।'तब मैंने कहा, ' देखो ! ये मेरे धनुष, शक्ति, चक्कर और गंद पड़े हैं। तुम इनमें से जो_जो अस्त्र लेना चाहो, वहीं मैं तुम्हें देता हूं। तुम जिसे उठा सको और जिसका युद्ध में प्रयोग कर सको, वहीं अस्त्र ले लो और मुझे जो देना चाहते हो, वह भी मत दो।' तब इसने मेरे साथ स्पर्धा रखते हुए एक हजार अरोंवाला और वज्र के नाभिवाला मेरा लोहे का चक्र लेना चाहा। मैंने कहा_' ले लो।' इसने उछलकर बायें हाथ से ही उसे उठाने का प्रयत्न किया। किन्तु उस स्थान से उसे टस_से_मस भी नहीं कर सका। फिर उसने दायें हाथ से उठाने की चेष्टा करने लगा। किन्तु पूरा_पूरा प्रयत्न करने पर भी जब वह उसे उठाने और चलाने में समर्थ न हुआ तो अत्यंत उदास होकर हट गया।जब अपने उद्देश्य में असफल होकर यह निराश हो गया और इसे बहुत खेद हुआ तो मैंने पास बुलाकर कहा, 'जिसकी ध्वजा में वानर का चिन्ह सुशोभित है वह गाण्डीवधारी अर्जुन देवता और मनुष्य_सभी में सम्मानित है। उसने द्वन्द्वयुद्ध में देवाधिदेव नीलकंठ उमापति भगवान शंकर को भी संतुष्ट कर दिया था। उससे बढ़कर संसार में मुझे कोई भी पुरुष प्रिय नहीं है। किन्तु जैसा तुम कह रहे हो, वैसी बात तो कभी उसने भी मुंह से नहीं निकाली। मैंने बारह वर्ष तक कठोर ब्रह्मचर्य_व्रत का पालन करते हुए हिमालय में भीषण तपस्या करके यह अस्त्र पाया था। साक्षात् सनत्कुमारजी ही प्रद्युम्नरूप से मेरी सहधर्मिणी रुक्मिणी के गर्भ से उत्पन्न हुए हैं।किन्तु जिस चक्र को तुम मांग रहे हो, उसे तो कभी उन्होंने भी नहीं मांगा। महाबली बलरामजी तथा गंद और साम्ब ने भी इसे लेने की इच्छा कभी प्रकट नहीं की। तुम भरतवंश के आचार्य द्रोण के पुत्र हो और सभी यादव तुम्हारा सम्मान करते हैं।क्षफिर इस चक्र को लेकर तुम किसके साथ युद्ध करना चाहते हो ? मैंने इस प्रकार कहा तो अश्वत्थामा कहने लग, 'कृष्ण ! मैं आपका पूजन करके फिर आपके ही साथ युद्ध करूंगा। भगवन् ! मैं सच कहता हूं, मैंने आपके इस देवता और दानवों से पूजित चक्र को इसलिये मांगा है जिससे मैं अजेय हो जाऊं। किन्तु  अब मैं अपनी दुर्लभ कामना को पूर्ण किये बिना ही यहां से चला जाऊंगा, आप केवल इतना कह दीजिये कि 'तेरा कल्याण हो'।  इस भयंकर चक्र को वीर शिरोमणि आपही ने धारण कर रखा है। इसके समान संसार में कोई दूसरा चक्र नहीं हैऔर इसे धारण करने की शक्ति भी आपके सिवा और किसी में नहीं है।' ऐसा कहकर अश्वत्थामा मुझसे रथ में जोतने योग्य घोड़े और तरह_तरह के रत्न लेकर चला गया। यह बड़ा क्रोधी, दुष्ट चंचल और क्रूर स्वभाववाला है तथा इसे ब्रह्मास्त्र का भी ज्ञान है। इसलिये इस समय भीमसेन की रक्षा करना बहुत आवश्यक है।

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