Tuesday 16 July 2024

अश्वत्थामा और अर्जुन का एक_दूसरे पर ब्रह्मास्त्र छोड़ना तथा नारद और व्यासजी का उन्हें शान्त करना देना


वैशम्पायनजी कहते हैं _राजन् ऐसा कहकर श्रीकृष्ण सब प्रकार के अस्त्र_शस्त्रों से सुसज्जित एक श्रेष्ठ रथ पर चढ़े। उस रथ का रंग उदय होते हुए सूर्य के समान लाल था। उसके दाहिने धुरे में शैब्य और बायें में सुग्रीव नाम का घोड़ा जुता हुआ था तथा उसे अगल_बगल से मेघपुष्प औरबलआहक नाम के घोड़े खींचते थे।उस रथ पर विश्वकर्मा का बनाया हुआ रत्न और धातुओं से विभूषित ध्वजा का डंडा उठी हुई माया भीके समान जान पड़ता था। उसकी ध्वजा पर पक्षीराज गरुड़ विराजमान थे।इस अद्भुत रथ पर भगवान् श्रीकृष्ण बैठ गये और उनके बैठने पर अर्जुन तथा राजा युधिष्ठिर उसपर सवार हो गये। उनके चढ़ जाने पर श्रीकृष्ण ने अपने तेज घोड़ों को चाबुक से हांका। घोड़े बड़ी तेजी से भीमसेन के पीछे चल दिये और तुरंत ही उनके पास पहुंच गये।इस समय भीमसेन क्रोधातुर होकर शत्रु का संहार करने के लिये तुले हुए थे; इसलिये इन महारथियों के रोकने पर भी वे रुके नहीं। वे इनके देखते_देखते अपने घोड़े दौड़ाते श्रीगंगाजी के तट पर पहुंच गये, जहां उन्होंने अश्वत्थामा को बैठा सुना था। किन्तु उस स्थान पर पहुंचकर उन्होंने गंगाजी के धार के पास ही परम यशस्वी व्यासजी को अनेकों ऋषियों के साथ बैठे देखा।उनके पास ही क्रूरकर्मा अश्वत्थामा भी मौजूद था। उसने अपने शरीर में घृत लगा रखा था और वह कुशा के वस्त्र पहने हुए था। कुन्तिनन्दन भीमसेन उसे देखते ही 'अरे ! खड़ा तो रह, इस प्रकार चिल्लाते हुए धनुष_बाण लेकर उसकी ओर दौड़े।द्रोणपुत्र अश्वत्थामा यह देखकर कि धनुर्धर भीम तथा उसके पीछे राजा युधिष्ठिर और अर्जुन भी मेरी ओर आ रहे हैं, बहुत डर गया और उसने निश्चय किया कि अब ब्रह्मास्त्र के प्रयोग का समय आ गया है।तुरंत ही अपने उस दिव्य अस्त्र का चिंतन किया और अपने बायें हाथ में एक सींक उखाड़ ली; फिर ऐसा संकल्प करके कि 'पृथ्वी पाण्डव हीन हो जाय' उसने क्रोध में भरकर संपूर्ण लोकों को मोह में डालने के लिये प्रचंड अस्त्र छोड़ दिया। इससे उस सींक में आग पैदा हो गयी और वह प्रलयकाल की अग्नि के समान मानो तीनों लोकों को भस्म करने लगी।श्रीकृष्ण अश्वत्थामा की चेष्टा देखकर ही उसके मन के भाव को ताड़ गये थे। उन्होंने अर्जुन से कहा, 'अर्जुन ! अर्जुन! आचार्य द्रोण का सिखाया हुआ दिव्य अस्त्र तो तुम्हारे हृदय में विद्यमान है, अब उसके प्रयोग का समय आ गया है। अपनी और अपने भाइयों की रक्षा के लिये तुम भी इस समय उसी का प्रयोग करो क्योंकि ब्रह्मास्त्र को ब्रह्मास्त्र के द्वारा ही रोका जा सकता है।'श्रीकृष्ण के इस प्रकार कहते ही अर्जुन धनुष_बाण लेकर तुरंत रथ से कूद पड़े । उन्होंने पहले 'आचार्यपुत्र का मंगल हो' और फिर 'मेरा और मेरे भाइयों का मंगल हो' ऐसा कहकर देवता और गुरुजनों को नमस्कार किया। उसके बाद ' इस ब्रह्मास्त्र से शत्रु का ब्रह्मास्त्र शान्त हो जाय' ऐसा संकल्प करके संपूर्ण लोक के मंगल की कामना से अपना ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया।तब वह अर्जुन का छोड़ा हुआ अस्त्र रयआनल के समान अग्नि की बड़ी _बड़ी शालाओं से प्रज्वलित हो उठा।इसी प्रकार महातेजस्वी अश्वत्थामा का अस्त्र भी तेजोमंडल से घिरकर आग की भीषण लपटें उगलने लगा। उनके आपस में टकराने से बड़ी भारी गर्जना होने लगी और सभी प्राणियों को बड़ा भय मालूम होने लगा। आकाश में बड़ा शब्द होने लगा और सर्वत्र अग्नि की लपटें फैल गयी तथा पर्वत, वन और वृक्षों के सहित सारी पृथ्वी डगमगाने लगी।इस प्रकार उन दोनों अस्त्रों के तेज समस्त लोकों को संतप्त करने लगे। यह देख अर्जुन और अश्वत्थामा को शान्त करने के लिये वहां देवर्षि नारद और महर्षि व्यास ने एक साथ दर्शन दिया।  दोनों मुनिश्रेष्ठ देवता और मनुष्यों के पूजनीय और अत्यन्त यशस्वी हैं। ये संपूर्ण लोकों के हित की कामना से उन दोनों अस्त्रों को शान्त कराने के लिये उनके बीच में आकर खड़े हो गये और कहने लगे, 'पूर्वकाल में जो तरह _तरह शस्त्रों को जाननेवाले महारथी हो गये हैं, उन्होंने इन अस्त्रों का प्रयोग मनुष्यों पर कभी नहीं किया। फिर वीरों ! तुम दोनों ने यह महान् अनिष्टकारी साहस क्यों किया है ?'उन अग्नि के समान तेजस्वी महर्षियों को देखते ही अर्जुन बड़ी फुर्ती से अपना दिव्य अस्त्र लौटाने लगा।फिर उसने हाथ जोड़कर कहा, 'भगवन् ! मैंने तो इसी उद्देश्य से यह अस्त्र छोड़ा था कि इसके द्वारा शत्रु का छोड़ा हुआ ब्रह्मास्त्र शान्त हो जाय। अब इस अस्त्र के लौटा लेने पर तो पापी अश्वत्थामा अवश्य ही अपने अस्त्र के प्रभाव से हम सबको भष्म कर देगा। इसलिये जैसा करने से हमारा और सब लोगों का हित हो, उसी के लिये आप हमें सलाह दें।'ऐसा कहकर अर्जुन ने उस ब्रह्मास्त्र को वापस लौटा लिया। उसे लौटा लेना तो देवताओं के लिये भी कठिन था। संग्राम में एक बार छोड़ देने पर उसे लौटाने में तो अर्जुन के सिवा स्वयं इन्द्र भी समर्थ नहीं था। वह अस्त्र ब्राह्मतेज से प्रकट हुआ था। असंयमी पुरुष उसे छोड़ तो सकता था किन्तु उसे लौटाने का सामर्थ्य ब्रह्मचारी के सिवा और किसी में नहीं था।यदि कोई ब्रह्मचर्य हीन पुरुष उसे एक बार छोड़कर फिर लौटाने का प्रयत्न करता तो वह अस्त्र कुटुम्बभर उस व्यक्ति का सिर ही काट लेता था। अर्जुन ब्रह्मचारी और व्रती था; उसने दुष्प्राप्य होने पर भी यह परमास्र प्राप्त कर लिया था। परंतु बड़ी भारी विपत्ति पड़ने के सिवा और किसी समय वह इसका प्रयोग नहीं करता था। अर्जुन सत्यवादी, शूरवीर, ब्रह्मचारी और गुरु की आज्ञा का पालन करनेवाला था। इसलिये उसने फिर भी उसे लौटा दिया। अश्वत्थामा ने भी जब उन ऋषियों को अपने अस्त्र के सामने खड़े देखा तो उसे लौटाने का बड़ा प्रयत्न किया, किन्तु वह वैसा कर न सका। तब वह मन में अत्यन्त व्याकुल होकर श्री व्यासजी से कहने लगा, 'मुने ! मैं भीमसेन के भय से बहुत बड़ी आपत्ति में पड़ गया था, तब अपने प्राणों को बचाने के लिये ही मैंने यह अस्त्र छोड़ा है। भीमसेन ने दुर्योधन का वध करने के उद्देश्य से संग्रामभूमि में नियम विरुद्ध आचरण करके अधर्म किया था। इसी से संयमी न होने पर भी मैंने यह अस्त्र छोड़ दिया है। अब इसे लौटाने में तो मैं समर्थ नहीं हूं।
मैंने अग्निमंत्र से अभिमंत्रित करके यह दउर्दम्य दिव्य अस्त्र पाण्डवों का नाश करने के लिये छोड़ा है। अतः आज यह सभी पाण्डवों का प्राण ले लेगा। इस प्रकार क्रोध में भरकर पाण्डवों के वध के लिये यह अस्त्र छोड़कर अवश्य ही मैंने बड़ा पाप किया है।' व्यासजी ने कहा_भैया ! ब्रह्मास्त्र का ज्ञान तो अर्जुन को भी प्राप्त है। किन्तु उसने क्रोध में भरकर या तुम्हें मारने के लिये उसे नहीं छोड़ा है। उसने तो अपने ब्रह्मास्त्र से तुम्हारे ब्रह्मास्त्र को शान्त करने के लिये ही उसका प्रयोग किया है और अब उसे लौटा दिया है।ब्रह्मास्त्र को पाकर भी तुम्हारे पिताजी का उपदेश मानकर महाबाहु अर्जुन क्षात्रधर्म से विचलित नहीं हुआ। यह ऐसा धीर, वीर, साधु और सब प्रकार के अस्त्र_शस्त्र को जाननेवाला है; फिर भी तुम्हें इसे भाइयों के सहित मार डालने की कुबुद्धि क्यों हुई है ? देखो, जिस देश में एक ब्रह्मास्त्र को दूसरे ब्रह्मास्त्र को दबा दिया जाता है, वहां बारह वर्ष तक वर्षा नहीं होती। इसी से प्रजा का हित करने के लिये अर्जुन ने तुम्हारे ब्रह्मास्त्र को नष्ट नहीं किया है। तुम्हें पाण्डवों की, अपनी और राष्ट्र की रक्षा करनी चाहिये। इसलिये अब तुम इस दिव्य अस्त्र को लौटा लो। अब तुम्हारा क्रोध शान्त हो जाना चाहिये और पाण्डवों को भी स्वस्थ रहने चाहिये। राजर्षि युधिष्ठिर किसी को अधर्म से जीतना नहीं चाहते। तुम्हारे सिर में जो मणि है, वह तुम इन्हें दे दो और उसे लेकर पाण्डव लोग तुम्हें प्राणदान दे दें। अश्वत्थामा बोला_पाण्डवों ने कौरवों का जितना धन और जो_जो रन प्राप्त किये हैं, मेरी यह मणि उन सबसे कीमती है। इसे बांध लेने पर शस्त्र_व्याधि या क्षुधा से अथवा देवता, दानव, नाग, राक्षस या चोरों से होनेवाला किसी भी प्रकार का भय नहीं रहअद्भुत प्रभाव है, इसलिये मुझे इसका त्याग तो किसी भी प्रकार नहीं करना चाहिये। तो भी आपने जो कुछ आदेश मुझे दिया है वह तो मुझे करना ही होगा। किन्तु मेरा छोड़ा हुआ यह दिव्य अस्त्र व्यर्थ तो नहीं हो सकता। इसे एक बार छोड़कर फिर लौटाने की मुझे सामर्थ्य नहीं है। इसलिये अब मैं इस अस्त्र को उत्तरा के गर्भ पर छोड़ता हूं। आपकी आज्ञा का मैं कभी उल्लंघन न करता; परन्तु क्या करूं, इसे लौटाना तो मेरे वश की बात नहीं है। व्यासजी बोले_अच्छा ऐसा ही करो; चित्त में और किसी प्रकार का विचार मत रखो, इस अस्त्र को पाण्डवों के गर्भ पर छोड़कर शान्त हो जाओ।वैशम्पायनजी कहते हैं _ तब अश्वत्थामा ने वह अस्त्र उत्तरा के गर्भ पर छोड़ दिया। यह देखकर भगवान् कृष्ण बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने अश्वत्थामा से कहा, 'कुछ दिन हुए विराट पुत्री उत्तरा से, जब वह उपलव्य नगर में थी, एक तपस्वी ब्राह्मण ने कहा था कि कौरवों का परिचय होने पर एक बालक होगा। उस ब्राह्मण का वह वचन सत्य होगा। वह परिक्षित ही इन पाण्डवों के वंश को चलानेवाला बालक होगा।'
श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर अश्वत्थामा ने क्रोध में भरकर कहा, 'केशव ! तुम पाण्डवों का पक्ष लेकर जो बात कह रहे हो, वह कभी नहीं हो सकती। मेरा वाक्य झूठा नहीं होगा। मेरा यह भयानक अस्त्र अवश्य ही उसके गर्भ पर गिरेगा।      
 श्रीभगवान् ने कहा_ इस दिव्य अस्त्र का वार तो अवश्य अमोघ ही होगा। किन्तु वह गर्भ मरा हुआ उत्पन्न होने पर भी फिर दीर्घ जीवन प्राप्त करेगा।हां, तुम्हें अवश्य सभी समझदार, पापी और कायर ही समझते हैं; क्योंकि तुम बार_बार पाप ही बटोरते हो और बालकों की हत्या करते हो।इसीलिए तुम्हें इस पाप का फल भोगना ही पड़ेगा। तुम तीन हजार वर्ष तक इस पृथ्वी में भटकते रहोगे और किसी भी जगह किसी पुरुष से तुम्हारी बातचीत नहीं हो सकेगी। तुम्हारे शरीर में से पीब और लहू की गन्ध निकलेगी। इसलिये तुम मनुष्यों के बीच में नहीं रह सकोगे। दुर्गम वनों में ही पड़े रहोगे। परिक्षित तो दीर्घायु प्राप्त करके वेदव्रत धारण करेगा और फिर आचार्य कृप से सब प्रकार के अस्त्र_शस्त्रों का ज्ञान प्राप्त करेगा। इस प्रकार उत्तम_उत्तम अस्त्रों का ज्ञान प्राप्त करके वह क्षात्रधर्म का अनुसरण करते हुए साठ वर्षों तक पृथ्वी का राज्य करेगा। दुरात्मन् ! देखना, यह परीक्षित नाम का राजा तुम्हारी आंखों के सामने ही कुरुवंश की गद्दी पर बैठेगा।। वह तुम्हारे शस्त्र की ज्वाला से जल अवश्य जायगा, परन्तु मैं उसे पुनः जीवित कर दूंगा। नराधम ! उस समय तुम मेरे तप और सत्य का प्रभाव देख लेना।
व्यासजी कहने लगे_द्रोणपुत्र ! तुमने मेरी भी बात न मानकर ऐसा क्रूर कर्म किया है और ब्राह्मण होकर भी तुम्हारा आचरण ऐसा खोटा है इसलिये देवकीनन्दन श्रीकृष्ण ने जो बात कही है, वह अवश्य ठीक होगी, क्योंकि इस समय तुमने स्वधर्म को छोड़कर क्षात्रधर्म स्वीकार कर रखा है।
अश्वत्थामा बोला_ब्रह्मन् ! भगवान् कृष्ण की बात ठीक हो। अब मैं मनुष्यों में केवल आपके ही साथ रहूंगा।

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