Saturday 27 July 2024

पाण्डवों का द्रौपदी के पास आकर उसे मणि देना तथा श्रीकृष्ण और राजा युधिष्ठिर को अश्वत्थामा के अद्भुत पराक्रम का रहस्य बताना

वैशम्पायनजी कहते हैं_राजन् ! उसके बाद अश्वत्थामा पाण्डवों को मणि देकर उन सब के सामने ही उदास मन से वन में चला गया।   इधर पाण्डव भी श्रीकृष्ण, नारद और व्यासजी को आगे करके बड़ी तेजी से मनस्विनि के पास आये जो इस समय अन्न त्याग किये बैठी थी। वहां वे सब उसे चारों ओर से घेरकर बैठ गये।  फिर राजा युधिष्ठिर की आज्ञा से भीमसेन ने द्रौपदी को वह दिव्य मणि दी और उससे कहा, 'भद्रे ! लो यह मणि है, तुम्हारे पुत्रों का वध करनेवाले को हमने जीत लिया है। अब उठो और शोक त्यागकर क्षात्रधर्म का विचार करो। जिस समय श्रीकृष्ण संधि के लिये कौरवों के पास जा रहे थे, उस समय तुमने इनसे कहा था कि 'केशव ! आज पाण्डव लोग मेरे अपमान की बात भूलकर शत्रुओं के साथ मेल करना चाहते हैं, इससे मैं समझती हूं कि मेरे न तो पति हैं, न पुत्र हैं और न भाई ही है तथा न तुम ही मेरे हो।' सो आज अपने उन क्षत्रिय_धर्मोचित वाक्यों को याद करो। पापी दुर्योधन मारा गया, मैंने तड़पते हुए दु:शासन का रक्तपान भी कर लिया तथा द्रोणपुत्र को तो हमने जीत लिया; ब्राह्मण और गुरुपुत्र समझकर ही उसे जीता छोड़ दिया है। उसका सारा यश मिट्टी में मिल चुका है। हमने उसकी मणि छीन ली है और अस्त्र पृथ्वी पर डलवा लिये हैं।' यह सुनकर द्रौपदी ने कहा_'गुरुपुत्र तो मेरे लिये गुरु ही के समान है, मैं तो उससे केवल अपने अनिष्ट का बदला ही लेना चाहती थी। अब इस मणि को महाराज अपने मस्तक पर धारण करें। तब राजा युधिष्ठिर ने उस मणि को गुरुजी का प्रसाद समझकर द्रौपदी के कहने से उसी समय अपने मस्तक पर धारण कर लिया। उसके बाद पुत्रशोकातुरा द्रौपदी उठकर अपने स्थान पर चली गयी। राजन् ! अब महाराज युधिष्ठिर ने, रात के समय जो वीर मारे गये थे, उनके लिये शोकातुर होकर श्रीकृष्ण से कहा, 'कृष्ण ! अश्वत्थामा तो शस्त्रविद्या में विशेष कुशल भी नहीं था; फिर उसने मेरे सभी महारथी पुत्र और हजारों योद्धाओं के साथ अकेले ही लोहा लेने वाले शस्त्रविद्या विशारद द्रुपद पुत्रों को कैसे मार डाला ? उसने ऐसा कौन पुण्यकर्म किया था, जिसके प्रभाव से उसने अकेले ही हमारे सब सैनिकों को नष्ट कर दिया ? श्रीकृष्ण ने कहा_अश्त्थामा ने अवश्य ही ईश्वरों के ईश्वर देवाधिदेव अविनाशी भगवान् शिव की शरण ली थी, इसी से उसने अकेले ही अनेकों योद्धाओं को मार डाला। महादेवजी तो प्रसन्न होने पर अमरता भी दे सकते हैं और इतना पराक्रम भी देते हैं, जिससे इन्द्र को भी नष्ट किया जा सकता है। भरतश्रेष्ठ! महादेवजी के स्वरूप का मुझे अच्छी तरह ज्ञान है तथा उसके जो अनेकों प्राचीन कर्म हैं, उन्हें भी मैं जानता हूं। वे संपूर्ण भूतों के आदि मध्य और अन्त हैं। यह सारा जगत् उन्हीं के प्रभाव से चेष्टा कर रहा है। वे महान् वीर्यशाली महादेवजी ही अश्वत्थामा पर प्रसन्न हो गये थे। इसी से उसने आपके महारथी पुत्रों को और पांचालराज के अनेकों अनुयायियों को धराशायी कर दिया। अब आप उसके विषय में कोई विचार न करें। अश्वत्थामा ने यह काम महादेवजी के कृपा से ही किया है। आप तो अब आगे जो काम करना हो उसे कीजिये।

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