Friday 23 August 2024

स्त्रीपर्व_ शोकाकुल धृतराष्ट्र को संजय और विदुर का समझाना

नारायणं नमस्यकृत्यं नरंचैव नरोत्तम्। देवीं सरस्वतीं व्यासं तो जयमुदीययेत्।।_अर्थ_ अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण, उनके नित्य सखा नरस्वरूप नवरत्न अर्जुन, उनकी लीला प्रकट करनेवाली भगवती सरस्वती और उसके वक्ता महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके आसुरी सम्पत्तियों पर विजयप्राप्तिपूर्वक अन्त:करण को शुद्ध करनेवाले महाभारत ग्रंथ का पाठ करना चाहिए।

राजा जनमेजय ने पूछा _मुनिवर ! दुर्योधन और उसकी सारी सेना का संहार हो जाने पर इस समाचार को सुनकर राजा धृतराष्ट्र ने क्या किया ? इसी प्रकार कुराज युधिष्ठिर और कृपाचार्य आदि तीनों महारथियों ने भी इसके बाद क्या किया ? वैशम्पायनजी बोले_राजन् ! अपने सौ पुत्रों का संहार हो जाने से महाराज धृतराष्ट्र बड़े दु:खी हुए; पुत्रशोक से उनका हृदय जलने लगा और वे चिंता में डूब गये।  उस समय संजय ने उनके पास जाकर कहा, 'महाराज ! आप चिंता क्यों करते हैं ? शोक को कोई बंटा तो सकता नहीं। राजन् ! इस युद्ध में अठारह अक्षौहिणी सेना मारी गयी, यह पृथ्वी निर्जन होकर सूनी हो गयी है। अब आप क्रमश: अपने चाचा_ताऊ, बेटों_पोतों, संबंधियों _सुहृदों और गुरुजनों की प्रेतक्रिया कराइये।' संजय की यह दु:खमयी वाणी सुनकर राजा धृतराष्ट्र बेटे_पोतों के वध से व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। फिर सावधान होने पर वे बोले, 'मेरे पुत्र, मंत्री और सभी सुहृदजन मर चुके हैं। अब तो इस पृथ्वी पर भटक_भटककर मेरे लिये दु:ख ही उठाना बाकी रह गया है। ऐसी जिंदगी से pmला, मुझे क्या लाभ है  मेरा राज्य नष्ट हो गया, भाई_बन्धु सब युद्ध में काम आ गये और आंखें तो पहले ही से नहीं हैं। हाय ! मैंने अपने हितैषी परशुरामजी, नारदजी और भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायन की बात नहीं सुनी। श्रीकृष्ण ने सारी सभा के बीच में मेरे भले के लिये ही कहा था कि 'राजन् ! व्यर्थ वैर मत बांधो, अपने बेटे को रोको।'किन्तु मैं ऐसा मूर्ख हूं कि मैंने उनकी बात हीं मानी।  इसी से आज बुरी तरह पछताना पड़ रहा है। संजय ! इस जन्म में किया हुआ कोई ऐसा पाप आज याद तो नहीं आता, जिसके कारण मुझे यह फल भोगना चाहिये था। अवश्य ही पूर्वजन्मों में मुझसे कोई बड़ा अपराध हुआ है। इसी से विधाता ने मुझे इन दु:खमय कर्मों में नियुक्त कर दिया। अब मेरी आयु ढल चुकी है, सब भाई_बन्धु समाप्त हो चुके हैं। भला, अब संसार में मुझसे बढ़कर दु:खी और कौन होगा? अतः पाण्डव लोग मुझे आज ही ब्रह्मलोक के खुले हुए मार्ग पर बढ़ते देखें।' इस प्रकार  राजा धृतराष्ट्र ने अत्यंत शोक प्रकट करते हुए अनेकों बातें कही। तब संजय ने राजा के शोक को शान्त करने के लिये ये शब्द कहे, राजन् ! आपका पुत।र दुर्योधन बड़ी ही खोटी बुद्धिवाला था। दु:शासन, शकुनि, कर्ण, चित्रसेन और शल्य, जिन्होंने सारे संसार को कण्टकाकीर्ण कर दिये थे_ये सब उसके सलाहकार थे। अरे ! उसने पितामह भीष्म, माता गांधारी, चाचा विदुर, गुरु द्रोण, आचार्य कृत, और महामति नारदजी की बात भी नहीं सुनी। यहां तक कि उसने दूसरे_दूसरे ऋषि और अतुलित तेजस्वी व्यासजी का भी कहा नहीं किया। उसे सदा युद्ध की ही लगन रही। इसकै कारण उसने कभी आदरपूर्वक धर्मानुष्ठान नहीं किया और न कभी क्षत्रियों के ही किसी धर्म का आदर किया। उसने तो व्यर्थ ही क्षत्रियों का संहार कराया। आपमें सब प्रकार की सामर्थ्य थी, तथापि इस विषय में आपने भी कुछ नहीं कहा। आपकी बात कोई टाल नहीं सकता था, तथापि आपने निष्पक्ष होकर दोनों ओर के बोझे को तराजू पर नहीं तौला। मनुष्य को यथाशक्ति पहले ही ऐसा काम करना चाहिए जिसमें अपने पिछले कर्म के लिये उसे पछताना न पड़े। आपने तो पुत्र स्नेह में फंसकर उसी का प्रिय करना चाहा, इसी से अब आपको पश्चाताप करना पड़ रहा है; अतः इसके लिये कोई शोक नहीं करना चाहिये। शोक करने से जन तो धन मिलता है, न फल प्राप्त होता है, न ऐश्वर्य मिलता है और न परमात्मा की ही प्राप्ति होती है। जो पुरुष स्वयं अग्नि पैदा करके उसे कपड़े में लपेटकर जलने गया है और फिर पछतावा करने बैठता है, वह बुद्धिमान नहीं कहा जा सकता।
इस समय आपके पुत्रों और आपने ही पाण्डव रूप अग्नि को अपने वाक्य रूप वायु से सुलगाया था और उसमें लोभरूप घृत छोड़कर प्रज्वलित किया था। जब वह आग धधक उठी तो उसमें आपके पुत्र पतंगों की तरह गिरने लगे और उसकी बाणरूप ज्वालाओं में लेकर भष्म हो गये। अतः आपको उनके लिए शोक नहीं करना चाहिये। इस समय अश्रुपात के कारण आपका मुख अत्यन्त मलिन हो गया है। शास्त्र दृष्टि से ऐसा होना अच्छा नहीं है और समझदार लोग इसे अच्छा भी नहीं कहते। ये शोक के आंसू आग की चिनगारियों के समान मनुष्य को जलाया करते हैं। आप बुद्धि के द्वारा मन को सावधान करके रोष और शोक को छोड़ दीजिये।
वैशम्पायनजी कहते हैं _ इस प्रकार महात्मा संजय ने राजा धृतराष्ट्र को धैर्य बंधाया। इसके बाद विदुरजी अपने अमृत के समान मीठे वाक्यों से उन्हें शान्त्वना देते हुए कहने लगे, 'राजन् ! आप पृथ्वी पर क्यों पड़े हैं ; उठकर बैठ जाइये और विचारपूर्वक मन को सावधान कीजिये।  संसार में सब जीवों की अन्त में यही तो गति होती है। जितने संजय हैं, उनका पर
अवसान क्षय में ही होगा, सारी भौतिक उन्नतियों का अन्त पतन में ही होना है; सारे संयोग वियोग में ही समाप्त होने वाले हैं। इसी प्रकार जीवन का अन्त भी मरण में ही होना है।जब यमराज शूरवीर और डरपोक दोनों ही को अपनी ओर खींचते हैं तब वे क्षत्रिय युद्ध क्यों न करते । राजन् ! समय आने पर कोई बच नहीं सकता। जो युद्ध नहीं करता, वह भी मरता ही है और कभी-कभी युद्ध करनेवाला भी बच ही जाता है।मृत्यु आने पर तो कोई नहीं जी सकता। जितने प्राणी हैं आरम्भ में वे नहीं थे और अन्त में भी नहीं रहेंगे, केवल बीच में ही दिखाई देते हैं। इसलिये उनके वलिये शोक करने की आवश्यकता नहीं है। शोक करने से मनुष्य न तो मरनेवाले के साथ जा सकता है और न मर ही सकता है।। इस प्रकार जब लोक की यही स्वाभाविक स्थिति है तो आप किसलिए शोक करते हैं ? 'इसके सिवा राजन् !  युद्ध में मारे जानेवाले वीरों के लिये तो आपको शोक करना ही नहीं चाहिये। यदि शास्त्र ठीक है तो उन सभी ने परम गति पायी है। इस युद्ध में मरनेवाले सभी वीर स्वाध्यायशील और सदाचारी थे तथा वे सभी शत्रु के सामने डटे रहकर वीरगति को प्राप्त हुए हैं। इसलिए उनके लिए शोक का अवसर ही कहां है ? जन्म से पूर्व ये सभी लोग अदृश्य थे और सब फिर अदृश्य हो गये हैं। न तो वे आपके थे और न आप ही उनके हैं। फिर इसमें शोक करने का क्या कारण है ? युद्ध में जो_जो मनुष्य मारा जाता है, उसे स्वर्ग मिलता है और जो मारता है उसे कीर्ति मिलती है। इस प्रकार हमारी दृष्टि से तो दोनों ही प्रकार का बड़ा भारी लाभ है, युद्ध में निष्फलता तो है ही नहीं। मनुष्य दक्षिणायुक्त यज्ञ और तपस्या से भी उतनी सुगमता से स्वर्ग नहीं प्राप्त कर सकते जैसे कि युद्ध में मारे जाने पर शूरवीर लोग प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार क्षत्रिय के लिये तो इस लोक में धर्मयुग से बढ़कर और कोई साधन नहीं हैं। अतः आप अपने मन को शान्त करके शोक छोड़िये। इस प्रकार शोकाकुल होकर आपको अपने शरीर का त्याग नहीं कर देना चाहिये। संसार में बार_बार जन्म लेकर आप हजारों माता_पिता और स्त्री_पुत्रादि का संग कर चुके हैं। परंतु वास्तव में किसके वे हुए और किसके हम। शोक के हजारों स्थान हैं और भय के भी सैकड़ों स्थान हैं। किन्तु इनका सर्वदा मूर्ख पुरुषों पर ही प्रभाव पड़ता है बुद्धिमानों पर नहीं। 'कुरुश्रेष्ठ ! काल का तो न कोई प्रिय है न अप्रिय और न किसी के प्रति उसका उदासीन भाव ही है। वह तो सभी को मृत्यु की ओर खींचकर ले जाता है। काल ही प्राणियों को बूढ़ा करता है और काल ही उन्हें नष्ट कर देता है। जब सब जीव सो जाते हैं, उस समय भी काल जागता रहता है। नि:संदेह काल से पार पाना बड़ा ही कठिन है। यौवन, रूप, जीवन, धन का संग्रह, आरोग्य और प्रियजनों का सहवास _ये सभी अनित्य हैं। बुद्धिमान पुरुष को इसमें फंसना नहीं चाहिये। यह दु:ख तो सारे ही देश से संबंध रखता है। इसके लिये आप अकेले शोक
यद्यपि प्रियजनों का अभाव होने पर दु:ख दबाता ही है। तथापि शोक करने से वह दूर नहीं होता; क्योंकि चिंतन करने पर दु:ख कभी नहीं घटता, इससे तो वह और भी बढ़ जाता है। जो लोग थोड़ी बुद्धिवाले होते हैं, वे ही अनिष्ट की प्राप्ति और इष्ट का वियोग होने पर मानसिक दु:ख से जला करते हैं। है। तथापि शोक करने से वह दूर नहीं होता; क्योंकि चिंतन करने पर दु:ख कभी नहीं घटता, इससे तो वह और भी बढ़ जाता है। जो लोग थोड़ी बुद्धिवाले होते हैं, वे ही अनिष्ट की प्राप्ति और इष्ट का वियोग होने पर मानसिक दु:ख से जला करते हैं। शोक करने से मनुष्य कर्तव्यविमूढ़ हो जाता है तथा अर्थ, धर्म और कामरूप त्रिवर्ग से भी वंचित रहता है। भिन्न _भिन्न धार्मिक स्थितियों में पड़ने पर असंतोषी पुरुष तो घबरा जाते हैं किन्तु विचारवानों को सभी अवस्थाओं में संतोष रहता है। मनुष्य को चाहिए कि मानसिक दु:ख को विचार से और शारीरिक कष्ट को औषधियों से दूर करें। इसे ही विज्ञान का बल कहते हैं। उसे मूर्खों का_सा व्यवहार नहीं करना चाहिए। मनुष्य का पूर्वकृत कर्म उसके सोने पर सो जाता है, उठने पर उठ बैठता है और दौड़ने पर भी उसके साथ लगा रहता है। वह जिस_जिस अवस्था में जैसा_जैसा भी शुभ या अशुभ कर्म करता है, उसी_उसी अवस्था में उसका फल भी पा लेता है। मनुष्य आप ही अपना बंधु है, आप ही अपना शत्रु है और आप ही अपने पाप_पुण्य का साक्षी है। वह शुभ कर्म से सुख पाता है और पाप से दु:ख भोगता है। इस प्रकार सर्वदा किये हुए कर्म का फल मिलता है, बिना किये का नहीं।

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