Friday 29 April 2016

विराटपर्व---विराट और सुशर्मा का युद्ध तथा भीमसेन द्वारा सुशर्मा का पराभव

विराट और सुशर्मा का युद्ध तथा भीमसेन द्वारा सुशर्मा का पराभव
सुशर्मा ने अपने पूर्व वैर का बदला लेने के लिये त्रिगर्त देश के सभी रथी और पदाति वीरों को लेकर कृष्णपक्ष की सप्तमी तिथि को विराट की गौएँ छीनने के लिये अग्निकोण से आक्रमण किया। दूसरे दिन समस्त कौरवों ने मिलकर दूसरी ओर से जाकर विराट की हजारों गौएँ पकड़ ली। अब छद्मवेष में छिपे हुए अतुलित तेजस्वी पाण्डवों का तेरहवाँ वर्ष भली-भाँति समाप्त हो चुका था। इसी समय सुशर्मा ने चढ़ाई करके राजा विराट की बहुत-सी गौएँ कैद कर ली। यह देखकर राजा का प्रधान गोप बड़ी तेजी से नगर में आया और फिर रथ से कूदकर राजसभा में पहुँचकर राजा को प्रणाम करके कहने लगा, 'महाराज ! त्रिगर्तदेश के योद्धा हमें युद्ध में परास्त करके आपकी एक लाख गौएँ लिये जा रहे हैं। आप उन्हें छुड़ाने का प्रबंध कीजिये। ऐसा न हो कि आपका गो धन बहुत दूर निकल जाय।' यह सुनते ही राजा ने मत्स्यदेश के वीरों की एक सेना एकत्रित की। उसमें रथ, हाथी, घोड़े और पदाति---सभी प्रकार के योद्धा थे; अनेकों ध्वजा पताकाएँ फहरा रही थीं तथा अनेकों राजा और राजपुत्र कवच पहनकर युद्ध के लिये तैयार हो गये थे। इस प्रकार सैकड़ों देवतुल्य महारथियों ने स्वेच्छा से कवच धारण कर लिये और युद्ध सामग्री से सम्पन्न सफेद रथों में सोने के साज से सजे हुए घोड़े जुतवाकर उनपर बैठ-बैठकर नगर से बाहर निकले। इस प्रकार जब सारी सेना तैयार हो गयी तो राजा विराट ने अपने छोटे भाई शतानीक से कहा, 'मेरा ऐसा विचार है कि कंक, वल्लव, तन्तिपाल और ग्रन्थिक भी बड़े वीर हैं और वे निःसंदेह युद्ध कर सकते हैं। इन्हें भी ध्वजा-पताका से सुशोभित रथ और जो ऊपर से दृढ़ किन्तु भीतर से कोमल हों, ऐसे कवच दो।' राजा विराट की बात सुनकर शतानीक ने पाण्डवों के लिये भी रथ तैयार करने की आज्ञा दी। और महारथी पाण्डवगण सुवर्णजटित रथों पर चढ़कर एक साथ ही राजा विराट के पीछे चले। वे चारों ही भाई बड़े शूरवीर और सच्चे पराक्रमी थे। उनके सिवा आठ हजार रथी, एक हजार गजारोही और साठ हजार घुड़सवार भी राजा विराट के साथ चले। विराट की वह सेना बड़ी ही भली जान पड़ती थी। वह गौओं के खुरों के चिह्न देखती आगे बढ़ने लगी। मत्स्यदेशीय वीर नगर से निकलकर व्वूहरचना की विधि से चले और उन्होंने सूर्य ढ़लते ढ़लते त्रिगर्तों को पकड़ लिया। बस, दोनों ओर के वीर परस्पर शस्त्र-संचालन करने लगे और उनमें देवासुर-संग्राम की तरह बड़ा ही भयंकर और रोमांचकारी युद्ध छिड़ गया। उस समय इतनी धूल उड़ी कि पक्षी भी अंधे से होकर पृथ्वी पर गिरने लगे और दोनो ओर से छोड़े गये वाणों की ओट में सूर्यनारायण भी दीखने बंद हो गये। रथी रथियों से, पदाति पदातियों से, घुड़सवार घुड़सवारों से और गजारोही गजारोहियों से भिड़ गये। वे क्रोध में आकर एक-दूसरे पर तलवार, पट्टिश, प्रास, शक्ति और तोमर आदि अस्त्र-शस्त्रों से प्रहार करने लगे। परन्तु परिघ के समान प्रचण्ड भुजदण्डों से प्रहार करने पर भी वे अपना सामना करनेवाले वीर को पीछे नहीं हटा पाते थे। बात-की-बात में सारी रणभूमि कटे हुए मस्तक और छिदे हुए देहों से पटी सी दिखायी देने लगी। इस प्रकार युद्ध करते-करते शतानीक ने सौ और विशालाक्ष ने चार सौ त्रिगर्त वीरों को धराशायी कर दिया। फिर वे दोनो महारथी शत्रुओं की सेना के बीच घुस गये और विपक्षी वीरों को केश पकड़-पकड़ कर पटकने लगे तथा उन्होंने बहुतों के रथों को चकनाचूर कर दिया। राजा विराट ने पाँच सौ रथी, आठ सौ घुड़सवार और पाँच महारथी मार डाले। फिर तरह-तरह से रथयुद्ध का कौशल दिखाते और सोने के रथ पर चढ़े हुए सुशर्मा से आकर भिड़ गये। उन्होंने दस वाणों से सुशर्मा को और पाँच-पाँच वाणों से उसके चारों घोड़ों को बींध डाला। तथा रणोन्मत्त सुशर्मा ने उन्हें पचास वाणों से बींध दिया।सुशर्मा बड़ा बाँकुरा वीर था, उसने मत्स्यराज की सारी सेना को अपने प्रबल पराक्रम से रौंद डाला और राजा विराट की ओर दौड़ा। उसने विराट के रथ के दोनों घोड़ों को तथा अंगरक्षक और सारथि को मारकर उन्हें जीवित ही पकड़ लिया और अपने रथ में डालकर चल दिया। यह देखकर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने भीमसेन से कहा, 'महाबाहो ! त्रिगर्तराज सुशर्मा महाराज विराट को लिये जा रहा है, तुम उन्हें झटपट छुड़ा लो; ऐसा न हो कि वे शत्रुओं के पंजे में फँस जायँ।' तब भीमसेन ने कहा, महाराज ! आपकी आज्ञा से मैं इन्हें अभी छुड़ाता हूँ। इस सामनेवाले वृक्ष की शाखाएँ बहुत अच्छी हैं, यह तो गदारूप ही जान पड़ता है; इसो उखाड़कर इसी के द्वारा मैं शत्रुओं को चौपट कर दूँगा।' युधिष्ठिर बोले, 'भीमसेन ! ऐसा साहस का काम मत करना। इस वृक्ष को खड़ा रहने दो। यदि तुम ऐसा अतिमानुष कर्म करोगे तो लोग पहचान जायेंगे कि यह तो भीम है। इसलिये तुम कोई दूसरा ही मनुष्योचित शस्त्र लो। धर्मराज के ऐसा कहने पर भीममेन ने बड़ी फुर्ती से अपना श्रेष्ठ धनुष उठाया और मेघ जैसे जल बरसाता है, वैसे ही सुशर्मा पर वाणों की वर्षा करने लगे। यह देख भाइयों सहित सुशर्मा धनुष चढ़ाकर लौट पड़ा और एक निमेष में ही रथी भीमसेन से भिड़ गये। भीमसेन ने गदा लेकर विराट के सामने ही सैकड़ों-हजारों रथी, गजारोही, अश्वारोही और प्रचंड धनुषधारी शूरवीरों को मारकर गिरा दिया तथा अनेकों पैदलों को भी कुचल डाला। ऐसा विकट युद्ध देखकर रणोन्मत्त सुशर्मा का सारा मद उतर गया, वह इस सेना के सत्यानाश के लिये चिन्तित हो उठा और कहने लगा---'हाय ! जो हर समय कान तक धनुष चढ़ाये दिखायी देता था, वह मेरा भाई तो पहले ही मर गया।' फिर वह भीमसेन पर बार-बार तीखे वाण छोड़ने लगा। यह देखकर सभी पाण्डव क्रोध में भर गये और घोड़ों को त्रिगर्तों की ओर मोड़कर उनपर दिव्य अस्त्रों की वर्षा करने लगे। राजा युधिष्ठिर ने बात-की-बात में एक हजार योद्धाओं को मार डाला, भीमसेन ने सात हजार त्रिगर्तों को धराशायी कर दिया तथा नकुल ने सात सौ और सहदेव ने तीन सौ वीों को नष्ट कर डाला। अन्त में भीमसेन सुशर्मा के पास आये और अपने पैने वाणों से उसके घोड़ों तथा अंगरक्षकों को मार डाला। फिर उसके सारथि को रथ के जुए से गिरा दिया। सुशर्मा के रथ का चक्ररक्षक मदिराक्ष भीम पर प्रहार करने चला। इतने में ही युद्ध होने पर भी राजा विराट रथ से कूद पड़े और गदा लेकर बड़े जोर से उसपर झपटे। रथहीन हो जाने से सुशर्मा प्राण लेकर भागने लगा। तब भीमसेन ने कहा, 'राजकुमार ! लौटो, तुम्हें युद्ध से पीठ दिखाना उचित नहीं है। क्या इसी पराक्रम से तुम जबरदस्ती गौओं को ले जाना चाहते थे ?' ऐसा कहकर वे झट अपने रथ से कूद पड़े और सुशर्मा के प्राणों का ग्राहक होकर उसके पीछे दौड़े। उन्होंने लपककर सुशर्मा के बाल पकड़ लिये और उसे उठाकर पृथ्वी पर पटककर रगड़ने लगे। सुशर्मा रोने-चिल्लाने लगा, तब भीमसेन ने उसके सिर पर लात मारी और उसकी छाती पर घुटने टेककर उसे ऐसा घूँसा मारा कि वह अचेत हो गया। महारथी सुशर्मा के पकड़ लिये जान पर त्रिगर्तों की सारी सेना भयभीत होकर भागने लगी। तब महारथी पाण्डवों ने समस्त गौओं को फेर लिया तथा सुशर्मा को परास्त करके उसका सारा धन छीन लिया। भीमसेन के नीचे पड़ा हुआ सुशर्मा अपने प्राण बचाने के लिये छटपटा रहा था। उसका सारा अंग धूल से भर गया था और चेतना लुप्त सी हो गयी थी। भीमसेन ने उसे बाँधकर अपने रथ पर रख लिया और महाराज युधिष्ठिर के पास ले जाकर उन्हें दिखाया। युधिष्ठिर उसे देखकर हँसे और भीमसेन से बोले, 'भैया ! इस नराधम को छोड़ दो।' भीमसेन ने सुशर्मा से कहा, 'ऱे मूढ़ ! यदि तू जीवित रहना चाहता है तो तुझे विद्वानों और राजाओं की सभा में यह कहना पड़ेगा कि मैं दास हूँ। तभी तुझे जीवनदान कर सकता हूँ।' इसपर धर्मराज ने प्रेमपूर्वक कहा, 'भैया ! यदि तुम मेरी बात मानते हो तो इस पापकर्मा सुशर्मा को छोड़ दो। अब यह महाराज विराट का दास तो हो ही चुका है।' फिर त्रिगर्तराज से कहा, 'जाओ, अब तुम दास नहीं हो; फिर कभी ऐसा साहस मत करना।' युधिष्ठिर की बात सुनकर सुशर्मा ने लज्जा से मुख नीचा कर लिया और जब भीमसेन ने उसे छोड़ दिया तो उसने राजा विराट के पास जाकर उन्हें प्रणाम किया। इसके पश्चात् वह अपने देश को चला गया। फिर मत्स्यराज विराट ने प्रसन्न होकर युधिष्ठिर से कहा, 'आईये, इस सिंहासन पर मैं आपका अभिषेक कर दूँ, अब आप ही हमारे मत्स्यदेश के स्वामी हों। इसके सिवा आपके मन में यदि कोई ऐसी चीज पाने की इच्छा हो, जो संसार में अत्यन्त दुर्लभ हो, तो वह भी मैं देने को तैयार हूँ; क्योंकि आप तो सभी पदार्थ पाने योग्य हैं।' तब युधिष्ठिर ने मत्स्यराज से कहा, 'महाराज ! आपका कथन बड़ा ही मनोहर है, मैं उसकी हृदय से सराहना करता हूँ। आप बड़े दयालु हैं, भगवान् आपको सर्वदा स प्रकार आनन्द में रखें। राजन् ! अब शीघ्र ही दूतों को नगर में भिजवाइये। वे आपके सम्बन्धियों को इस शुभ समाचार की सूचना दें और नगर में आपके विजय की घोषणा करा दें।' तब राजा ने दूतों को आज्ञा दी कि 'तुम नगर में जाकर मेरी विजय की सूचना दो।' मत्स्याज की आज्ञा सिर चढ़ाकर दूत बड़े हर्ष से नगर की ओर चले और रात-रात में रास्ता तय करके सवेरे ही नगर के समीप पहुँचकर विजय की घोषणा कर दी।
 

Monday 25 April 2016

विराटपर्व---कौरवसभा में पाण्डवों की खोज के विषय में बातचीत तथा विराटनगर पर चढ़ाई करने का निश्चय

कौरवसभा में पाण्डवों की खोज के विषय में बातचीत तथा विराटनगर पर चढ़ाई करने का निश्चय
भाइयों के सहित कीचक को अकस्मात् मारा गया देखकर सभी लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ तथा उस नगर और राष्ट्र में जहाँ तहाँ वे आपस में मिलकर ऐसी चर्चा करने लगे---'महाबली कीचक अपनी शूरवीरता के कारण राजा विराट को बहुत प्यारा था, उसने अनेकों सेनाओं का संहार किया था; किंतु साथ ही वह दुष्ट परस्त्रीगामी था, इसी से उस पापी को गन्धर्वों ने मार डाला।' शत्रुसेना का संहार करनेवाले दुर्जय वीर कीचक के विषय में देश-देश में ऐसी ही चर्चा होने लगी।  इस समय अज्ञातवास की अवस्था में पाण्डवों का पता लगाने के लिये दुर्योधन ने जो गुप्तचर भेजे थे वे अनेकों ग्राम, राष्ट्र और नगरों में उन्हें ढ़ूँढ़कर हस्तिनापुर में लौट आये। वहाँ वे राजसभा में बैठे हुए कुरुराज दुर्योधन के पास गये। उस समय वहाँ महात्मा भीष्म, द्रोण, कर्ण, कृप, त्रिगर्तदेश के राजा और दुर्योधन के भाई भी मौजूद थे। उन सबके सामने उन्होंने कहा, 'राजन् ! पाण्डवों का पता लगाने के लिये हम सदा ही बड़ा प्रयत्न करते रहे; किन्तु वे किधर से निकल गये, यह हम जान ही न सके। हमने पर्वतों के जैसे ऊँचे-ऊँचे शिखरों पर, भिन्न-भिन्न देशों में, जनता की भीड़ में तथा गाँव और नगरों में भी उनकी बहुत खोज की; परन्तु कहीं भी उनका पता नहीं लगा। मालूम होता है वे बिलकुल नष्ट हो गये; इसलिये अब तो आपके लिये मंगल ही है। हमें इतना पता अवश्य लगा है कि इन्द्सेन आदि सारथि पाण्डवों के बिना ही द्वारकापुरी में पहुँचे हैं; वहाँ न तो द्रौपदी है और न पाण्डव ही हैं। हाँ, एक बड़े आनन्द का समाचार है। वह यह कि राजा विराट का जो महाबली सेनापति कीचक था, जिसने कि अपने महान् पराक्रम से त्रिगर्त देश को दलित कर दिया था, उस पापात्मा को उसके भाइयों सहित रात्रि में गुप्तरूप से गन्धर्वों ने मार डाला है।'  दूतों की यह बात सुनकर दुर्योधन बहुत देरतक विचार करता रहा, उसके बाद उसने सभासदों से कहा---'पाण्डवों क अज्ञातवास के इस तेरहवें वर्ष में थोड़े ही दिन शेष हैं। यदि यह समाप्त हो गया तो सत्यवादी पाण्डव मदमाते हाथी और विषधर सर्पों के समान क्रोधातुर होकर कौरवों के लिये दुःखदायी हो जायेंगे। वे सभी समय का हिसाब रखनेवाले हैं, इसलिये कहीं दुर्विज्ञेय रूपमें छिपे होंगे। इसलये कोई ऐसा उपाय करना चाहिये कि वे अपने क्रोध को पीकर फिर वन में ही चले जायँ। इसलिये शीघ्र ही उनका पता लगाओ, जिससे कि हमारा यह राज्य सब प्रकार की विघ्न-बाधा और विरोधियों से मुक्त होकर चिरकाल तक अक्षुण्ण बना रहे।  यह सुनकर कर्ण ने कहा, 'भरतनन्दन ! तो शीघ्र ही दूसरे कार्यकुशल जासूस भेजे जायँ। वे गुप्त रूप से धन-धान्यपूर्ण और जनाकीर्ण देशों में जायँ तथा सुरम्य सभाओं में, सिद्ध-महात्माओं के आश्रमों में, राजनगरों में, तीर्थों में और गुफाओं में वहाँ के निवासियों से बड़े विनीत शब्दों में युक्तिपूर्वक पूछकर उनका पता लगावें। दुःशासन ने कहा, 'राजन् ! जिन दूतों पर आपको विशेष भरोसा हो, वे मार्गव्यय लेकर फिर पाण्डवों की खोज करने के लिये जायँ। कर्ण ने जो कुछ कहा है वह हमें बहुत ठीक जान पड़ता है।' तब तत्वार्थदर्शी परम पराक्रमी द्रोणाचार्य ने कहा, 'पाण्डवलोग शूरवीर, विद्वान्, बुद्धिमान्, जितेन्द्रिय, धर्मज्ञ, कृतज्ञ और अपने जेयेष्ठ भ्राता धर्मराज की आज्ञा में चलनेवाले हैं। ऐसे महापुरुष न तो नष्ट होते हैं और न किसी से तिरस्कृत ही होते हैं। उनमें धर्मराज तो बड़े ही शुद्धचित्त, गुणवान्, स्वान्, नीतिवान् पित्रात्मा और तेजस्वी हैं। उन्हें तो आँखों से देख लेने पर भी कोई नहीं पहचान सकेगा। अतः इस बात का ध्यान रखकर ही हमें सेवक, सिद्धपुरुष अथवा उन अन्य लोगों से, जो कि उन्हें पहचानते हैं, ढ़ुँढ़वाना चाहिये। इसके पश्चात् भरतवंशियों के पितामह, देश-काल के ज्ञाता और समस्त धर्मों को जाननेवाले भीष्मजी ने कौरवों के हित के लिये कहा, 'भरतनन्दन ! पाण्डवों के विषय में जैसा मेरा विचार है, वह कहता हूँ। जो नीतिवान् पुरुष होते हैं, उनकी नति को अनीतिपरायण लोग नहीं ताड़ सकते। उन पाण्डवों के विषय में विचार करके हम इस सम्बन्ध में जो कुछ कर सकते हैं, वही मैं अपनी बुद्धि तके अनुसार कहता हूँ; द्वेषवश कोई बात नहीं कहता। युधिष्ठिर की जो नीति है, उसकी मेरे जैसे पुरुष को कभी निन्दा नहीं करनी चाहिये। उसे अच्छी नीति तो कहना ही चाहिये, अनीति कहना किसी प्रकार ठीक नहीं है। राजा युधिष्ठिर जिस नगर या राष्ट्र में होंगे वहाँ की जनता भी दानशील, प्रियवादिनी, जितेन्द्रिय और लज्जाशील होगी। जहाँ वे रहते होंगे वहाँ क लोग प्रियवादी, संयमी, सत्यपरायण, हृष्ट-पुष्ट, पवित्र और कार्यकुशल होंगे। जहाँ उनकी स्थिति होगी, वहाँ के मनुष्य स्वयं ही धर्म में तत्पर होंगे तथा वे गुणों में दोष का आरोप करनेवाले, ईर्ष्यालु, अभिमानी और मत्सरी नहीं होंगे। अतः जहाँ ऐसे लक्षण पाये जायँ, वहीं पाण्डवलोग गुप्त रीति से रहते होंगे। तुम वहीं जाकर उन्हें ढ़ूँढ़ो। इसके पश्चात् महर्षि शरद्वान् के पुत्र कृप ने कहा, 'बयोवृद्ध भीष्मजी का पाण्डवों के विषय में जो कथन है, वह युक्तियुक्त और समयानुसार है। उन्हीं के अनुरूप इस विषय में मेरा भी जो कथन है, वह सुनो। तुमलोग गुप्तचरों से पाण्डवों की गति और स्थिति का पता लगवाओ और उसी नीति का आश्रय लो, जो इस समय हितकारिणी हो। यह याद रखो कि अज्ञातवास की अवधि समाप्त होते ही महाबली पाण्डवों का उत्साह बहुत बढ़ जायगा। उनका तेज तो अतुलित है ही। अतः इस समय तुम्हे अपनी सेना, कोश और नीति की संभाल रखनी चाहिये, जिससे कि समय आने पर उनके साथ यथावत् संधि कर सकें। बुद्धि से ही तुम्हे अपनी शक्ति की जाँच रहनी चाहिये और इस बात का भी पता रहना चाहिये कि तुम्हारे बलवान् और निर्बल मित्रों में निश्चित शक्ति कितनी है। इस प्रकार यदि तुम अपने कोश और सेना को बढ़ा लोगे तो ठीक-ठीक सफलता प्राप्त कर सकोगे। इसके बाद त्रिगर्त देश के राजा महाबली सुशर्मा ने कर्ण की ओर देखते हुए दुर्योधन से कहा, 'राजन् ! मत्स्यदेश के शाल्ववंशीय राजा बार-बार हमारे ऊपर आक्रमण करते रहे हैं। मत्स्यराज के सेनापति महाबली कीचक ने ही मुझे और मेरे बन्धु-बान्धवों को बहुत तंग किया था। कीचक बड़ा ही बलवान्, क्रूर, असहनशील और दुष्ट प्रकृति का पुरुष था। उसका पराक्रम जगत्विख्यात था। इसलिये उस समय हमारी दाल नहीं गली। अब उस पापकर्मा और नृशंस सूतपुत्र को गन्धर्वों ने मार डाला है। उसके मारे जाने से राजा विराट आश्रयहीन और निरुत्साह हो गया होगा। इसलिये यदि आपको, समस्त कौरवों को ठीक जान पड़े तो मेरा तो उस देश पर चढ़ाई करने का मन होता है। उस देश को जीतकर जो विविध प्रकार के रत्न, धन, ग्राम और राष्ट्र हाथ लगेंगे, उन्हें हम आपस में बाँट लेंगे।' त्रिगर्तराज की बात सुनकर कर्ण ने राजा दुर्योधन से कहा, 'राजा सुशर्मा ने बड़ी अच्छी बात कही है। यह समय के अनुसार और हमारे बड़े काम की है। अतः हम सेना सजाकर, उसे छोटी-छोटी टुकड़ियों में बाँटकर अथवा जैसी आपकी सलाह हो, वैसे ही उस देश पर तुरंत चढ़ाई कर दें। त्रिगर्तराज और कर्ण की बात सुनकर राजा दुर्योधन ने दुःशासन को आज्ञा दी, 'भाई, तुम बड़े-बूढ़ों से सलाह करके चढ़ाई की तैयारी करो। हमलोग सब कौरवों सहित एक नाके पर जायेंगे और महारथी सुशर्मा त्रिगर्तदेशीय वीर और सारी सेना के सहित पूरे मोर्चे पर। पहले सुशर्मा चढ़ाई करेंगे। उसके एक दिन बाद हमारा कूच होगा। ये ग्वालियोंपर आक्रमण करके विराट का गोधन छीन लेंगे। उसके बाद हम भी अपनी सेना को दो भागों में विभक्त करके राजा विराट की एक लाख गौएँ हरेंगे।'

Friday 22 April 2016

विराटपर्व---कीचक और उसके भाइयों का वध और राजा का सैरन्ध्री को संदेश

कीचक और उसके भाइयों का वध और राजा का सैरन्ध्री को संदेश
इसे बाद भीमसेन रात्रि के समय नृत्यशाला में जाकर छिपकर बैठ गये और इस प्रकार कीचक की प्रतीक्षा करने लगे, जैसे सिंह मृग की घात में बैठा रहता है। इस समय पांचाली के साथ समागम होने की आशा से कीचक भी मनमानी तरह से सज-धजकर नृत्यशाला में आया। वह संकेतस्थान सझकर नृत्यशाला के भीतर चला गया। उस समय वह भवन सब ओर अन्धकार से व्याप्त था। अतुलित पराक्रमी भीमसेन तो वहाँ पहले से ही मौजूद थे और एकान्त में एक शैय्या पर लेटे हुए थे। दुर्मति कीचक भी वहीं पहुँच गया और उन्हें हाथ से टटोलने लगा। द्रौपदी के अपमान के कारण भीम इस मय क्रोध से जल रहे थे। काममोहित कीचक ने उनके पास पहुँचकर हर्ष से उन्मत्त चित्त हो मुस्कुराकर कहा---'सुभ्रू ! मैने अनेक प्रकार से जो अनन्त धन संचित किया है, वह सब मैं तुम्हे भेंट करता हूँ। तथा मेरा जो धन-रत्नादि से सम्पन्न सैकड़ों दासियों से सेवित, रूप-लावण्यमयी रमणीरत्नों से विभूषित और क्रीड़ा एवं रति की सामग्रियों से सुशोभित भवन है, वह भी तुम्हारे लिये ही निछावर करके मैं तुम्हारे पास आया हूँ। मेरे अन्तःपुर की नारियाँ अकस्मात् मेरी प्रशंसा करने लगती हैं कि आपके समान सुन्दर वेष-भूषा से सुसज्जित और दर्शनीय कोई दूसरा पुरुष नहीं है। भीमसेन ने कहा---आप दर्शनीय हैं---यह बड़ी प्रसन्नता की बात है, किन्तु आपने ऐसा स्पर्श पहले कभी नहीं किया होगा। ऐसा कहकर महाबाहु भीमसेन सहसा उछलकर खड़े हो गये और उससे हँसकर कहने लगे, 'रे पापी ! तू पर्वत के समान बड़े डील-डौलवाला है; परन्तु सिंह-जैसे विशाल गजराज को घसीटता है, उसी प्रकार आज मैं तुझे पृथ्वी पर मसलूँगा और तेरी बहिन यह सब देखेगी। इस प्रकार जब तू मर जायगा तो सैरन्ध्री बेखटके बिचरेगी तथा उसके पति भी आनन्द से अपने दिन बितावेंगे। तब महाबली भीम ने उसके पुष्पगुम्फित केश पकड़ लिये। कीचक भी बड़ा बलवान् था। उसने अपने केश छुड़ा लिये और बड़ी फुर्ती से दोनों हाथों से भीमसेन को पकड़ लिया। फिर उन क्रोधित पुरुषसिंहों में परस्पर बाहुयुद्ध होने लगा। दोनो ही बड़े वीर थे। उनकी भुजाओं की रगड़ से बाँस फटने की कड़क के समान बड़ा भारी शब्द होने लगा। फिर जिस प्रकार प्रबल आँधी वृक्ष को झझोड़ डालती है, उसी प्रकार भीमसेन कीचक को धक्के देकर सारी नृत्यशाला में घुमाने लगे। महाबली कीचक ने भी अपने घुटनों की चोट से भीमेन को भूमि पर गिरा दिया। तब भीमसेन दण्डपाणि यमराज के समान बड़े वेग से उछलकर खड़े हो गये। भीम और कीचक दोनो ही बड़े बलवान् थे। इस समय स्पर्धा के कारण वे और भी उन्मत्त हो गये तथा आधी रात के समय उस निर्जन नाट्यशाला में एक-दूसरे को रगड़ने लगे। वे क्रोध में भरकर भीषण गर्जना कर रहे थे, इससे वह भवन बार-बार गूँज उठता था। अन्त में भीमसेन ने क्रोध में भरकर उसके बाल पकड़ लिये और उसे थका देखकर इस प्रकार अपनी भुजाओं में कस लिया, जैसे रस्सी से पशु को बाँध देते हैं। अब कीचक फूटे हुए नगारे के समान जोर-जोर से डकराने और उनकी भुजाओं से छूटने के लिये छटपटाने लगा। किन्तु भीमसेन ने उसे कई बार पृथ्वी पर घुमाकर उसका गला पकड़ लिया और कृष्णा के कोप को शान्त करने के लिये उसे घोंटने लगे। इस प्रकार जब उसके सब अंग चकनाचूर हो गये और आँखों ी पुतलियाँ बाहर निकल आयीं तो उन्होंने उसी पीठ पर अपने दोनो घुटने टेक दिेये और उसे अपनी भुजाओं से मरोड़कर पशु की मौत मार डाला। कीचक को मारकर भीमसेन ने उसके हाथ, पैर, सिर और गरदन आदि अंगों को पिण्ड के भीतर ही घुसा दिया। इस प्रकार उसके सब अंगों को तोड़-मरोड़कर उसे मांस का लोदा बना दिया और द्रौपदी को दिखाकर कहा, 'पांचाली ! जरा यहाँ आकर देखो तो इस कान के कीड़े की क्या गति बनायी है।' ऐसा कहकर उन्होंने दुरात्मा कीचक के पिण्ड को पैरों से ठुकराया और द्रौपदी से कहा, 'भीरु ! जो कोई तुम्हारे ऊपर कुदृष्टि डालेगा, वह मारा जायगा और उसकी यही गति होगी। इस प्रकार कृष्णा की प्रसन्नता के लिये उन्होंने यह दुष्कर कर्म किया। फिर जब उनका क्रोध ठंडा पड़ गया तो वे द्रौपदी से पूछकर पाकशाला में चले गये। कीचक का वध कराकर द्रौपदी बड़ी प्रसन्न हुई, उसका सारा संताप शान्त हो गया। फिर उसने उस नृत्यशाला की रखवाली करनेवालों से कहा, देखो, यह कीचक पड़ा हुआ है; मेरे पति गन्धर्वों ने उसकी यह गति की है। तुमलोग वहाँ जाकर देखो तो सही। द्रौपदी की यह बात सुनकर नाट्यशाला के सहस्त्रों चौकीदार मशालें लेकर वहाँ आ गये। फिर उन्होंने उसे खून से लथपथ और प्राणहीन अवस्था में पृथ्वी पर पड़े देखा। उसे बिना हाथ पाँव का देखकर उन सबको बड़ी व्यथा हुई। उसे उस स्थिति में देखकर सभी को बड़ा विस्मय हुआ। उसी समय कीचक के सब बन्धु-बान्धव वहाँ एकत्रित हो गे और उसे चारों ओर से घेरकर विलाप करने लगे। उसकी ऐसी दुर्गति देखकर सभी के रोंगटे खड़े हो गये। उसके सारे अवयव शरीर में घुस जाने के कारण वह पृथ्वी पर निकालकर रखे हुए कछुए के समान जान पड़ता था। फिर उसके सगे-संबंधी उसका दाह-संस्कार करने के लिये नगर से बाहर ले जाने की तैयारी करने लगे। उनकी दृष्टि लाश से थोड़ी ही दूरी पर एक खम्भे का सहारा लिये खड़ी हुई द्रौपदी पर पड़ी। जब सब लोग इकट्ठे हो गये तो उन उपकीचकों ( कीचक के भाइयों ) ने कहा, 'इस दुष्टा को अभी मार डालना चाहिये, इसी के कारण कीचक की हत्या हुई है। अथवा मारने की भी क्या आवश्यकता है, कामासक्त कीचक के साथ इसे भी जला दो; ऐसा करने से मर जाने पर भी सूतपुत्र का प्रिय ही होगा।' यह सोचकर उन्होंने राजा विराट से कहा, 'कीचक की मृत्यु सैरन्ध्री के कारण ही हुई है, अतः हम इसे कीचक के साथ ही जला देना चाहते हैं; आप इसके लिये आज्ञा दे दीजिये।' राजा ने सूतपुत्रों के पराक्रम की ओर देखकर सैरन्ध्री को कीचक के साथ जला डालने की सम्मति दे दी। बस, उपकीचकों ने भय से अचेत हुई कमलनयनी कृष्णा को पकड़ लिया और उसे कीचक की रथी पर डालकर बाँध दिया। इस प्रार वे रथी उठाकर मरघट की ओर चले। कृष्णा सनाथा होने पर भी सूतपुत्रों के चंगुल में पड़कर अनाथा की तरह विलाप करने लगी और सहायता के लिये चिल्ला-चिल्लाकर कहन लगी, 'जय, जयंत, विजय, जयत्सेन और जयद्वल मेरी टेर सुनें। ये सूतपुत्र मुझे लिये जा रहे हैं। जिन वेगवान् गन्धर्वों के धनुष की प्रत्यंचा का भीषण शब्द संग्रामभूमि में वज्राघात के समान सुनायी देता है और जिनके रथों का घोष बड़ा ही प्रबल है, वे मेरी पुकार सुनें; हाय ! ये सूतपुत्र मुझे लिये जा रहे हैं।' कृष्णा की यह दीन वाणी और विलाप सुनकर भीमसेन बिना कोई विचार किये अपनी शैय्या से खड़े हो गये और कहने लगे, 'सैरन्ध्री ! तू जो कुछ कह रही है, वह मैं सुन रहा हूँ; इसलिये अब इन सूतपुत्रों से तेरे लिये कोई भय की बात नहीं है।' ऐसा कहकर वे नगर के परकोटा लाँघकर बाहर आये और बड़े तेजी से श्मशान की ओर चले। चिता के समीप उन्हें तार के समान एक दस व्याम ( दोनो हाथों को फैलाने से जितनी लम्बाई होती है, उसे एक व्याम कहते हैं ) लम्बा वृक्ष दिखाई दिया। उसकी शाखाएँ मोटी-मोटी थीं तथा ऊपर से वह सूखा हुआ था।उसे भीमसेन ने भुजाओं में भरकर हाथी के मान जोर लगाकर उखाड़ लिया और उसे कन्धे पर रखकर दण्डपाणि यमराज के समान सूतपुत्रों की ओर चले। इस सय उनकी जंघाओं से टकराकर वहाँ अनेकों बड़, पीपल और ढ़ाक के वृक्ष गिर गये। भीमसेन को सिंह के समान क्रोधपूर्वक अपनी ओर आते हुए देखकर सब सूतपुत्र डर गये और भय और विषाद से काँपते हुए कहने लगे, 'अरे ! देखो, यह बलवान् गन्धर्व वृक्ष उठाये बड़े क्रोध से हमारी ओर आ रहा है; जल्दी ही इस सैरन्ध्री को छोड़ो, इसी के कारण हमें यह भय उपस्थित हुआ है।' अब तो भीमेनको वृक्ष उठाये देखकर वे सब-के-सब सैरन्ध्री को छोड़कर नगर की ओर भागने लगे। उन्हें भागते देखकर पवननन्दन भीमसेन ने, जैसे इन्द्र दानवं का वध करते हैं उसी प्रकार, उस वृक्ष से एक सौ पाँच उपकीचकों को यमराज के घर भेज दिया। उसके पश्चात् उन्होंने द्रौपदी को बन्धन से छुड़ाकर ढ़ाढ़स दिया। इस समय पांचाली के नेत्रों से निरन्तर आँसुओं की धारा बह रही थी और वह अत्यन्त दीन हो रही थी। उससे दुर्जय वीर भीमसेन ने कहा, 'कृष्णे ! तेरा कोई अपराध न होने पर भी जो लोग तुझे तंग करेंगे, वे इसी प्रकार मारे जायेंगे। अब तू नगर को चली जा, तेरे लिये कोई भय की बात नहीं है। मैं दूसरे रास्ते से राजा विराट के रसोईघर की ओर जाऊँगा।' जब नगरनिवासियों ने सारा काण्ड देखा तो उन्होंने राजा विराट के पास जाकर निवेदन किया कि गन्धर्वों ने महाबली सूतपुत्रों को मार डाला है और सैरन्ध्री उनके हाथ से छूटकर राजभवन की ओर जा रही है। उनकी यह बात सुनकर राजा विराट ने कहा, 'आपलोग सूतपुत्रों की अन्त्येष्टि क्रिया करें। बहुत से सुगंधित पदार्थ और रत्नों के साथ सब कीचकों को एक ही प्रज्जवलित चिता में जला दो।' फिर कीचकों के वध से भयभीत हो जाने के कारण महारानी सुदेष्णा के पास जाकर कहा, "जब सैरन्ध्री यहाँ आवे तो तुम मेरी ओर से उससे यह कह देना कि 'सुमुुखि ! तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम्हारी जहाँ इच्छा हो वहाँ चली जाओ; महाराज गन्धर्वों के तिरस्कार से डर गये हैं।"  राजन् ! जब द्रौपदी सिंह से डरी हुई मृगी के समान अपने शरीर और वस्त्रों को धोकर नगर में आयी तो उसे देख पुरवासी लोग गन्धर्वों से भयभीत होकरगन्धर्वों से भयभीत होकरइधर-उधर भागने लगे तथा किन्ही-किन्ही ने नेत्र ही मूँद लिये। रास्ते में द्रौपदी नृत्यशाला में अर्जुन से मिली, जो इन दिनों राजा विराट की कन्या को नाचना सिखाते थे। उन्होंने कहा, 'सैरन्ध्री ! तू उन पापियों के हाथ से कैसे छूटी और वे कैसे मारे गये ? मैं सब बातें तेरे मुख से ज्यों-की-त्यों सुनना चाहती हूँ।' सैरन्ध्री ने कहा, 'बृहनल्ले !  अब तुम्हे सैरन्ध्री से क्या काम है ? क्योंकि तुम तो मौज में इन कन्याओं के अन्तःपुर में रहती हो। आजकल सैरन्ध्री पर जो-जो दुःख पड़े हैं, उनसे तुम्हे क्या मतलब है। इसी से मेरी हँसी करने के लिये तुम इस प्रकार पूछ रही हो।' बृहनल्ला ने कहा, 'कल्याणी ! इस नपुंसक योनि में पड़कर बृहनल्ला भी जो महान् दुःख पा रही है, उसे क्या तू नहीं समझती ? मैं तेरे साथ रही हूँ और तू भी हम सबके साथ रहती रही है। भला, तेरे ऊपर दुःख पड़ने पर किसको दुःख न होगा ?' इसके बाद कन्याओं के काथ ही द्रौपदी राजभवन में गयी और रानी सुदेष्णा के पास जाकर खड़ी हो गयी। तब सुदेष्णा ने राजा विराट के कथनानुसार उससे कहा, 'भद्रे ! महाराज को गन्धर्वों से तिरस्कृत होने का भय है। तू भी तरुणी है और संसार में तेरे समान कोई रूपवती भी दिखायी नहीं देती। पुरुषों को विषय तो स्वभाव से ही प्रिय होता है और तेरे गन्धर्व बड़े क्रोधी हैं। अतः जहाँ तेरी इच्छा हो, वहाँ चली जा।' सैरन्ध्री ने कहा, 'महारानीजी ! तेरह दिन के लिये महाराज मुझे और क्षमा करें। इसके पश्चात् गन्धर्वगण मुझे स्वयं ही ले जायेंगे और आपका भी हित करेंगे।


विराटपर्व---द्रौपदी और भीमसेन की बातचीत

द्रौपदी और भीमसेन की बातचीत
सेनापति कीचक ने जबसे लात मारी थी, तभी से यशस्विनी राजकुमारी द्रौपदी उसके वध की बात सोचा करती थी। इस कार्य की सिद्धि के लिये उसने भीमसेन का स्मरण किया और रात्रि के समय अपनी शय्या से उठकर उनके भवन में गयी। उस समय उसके मन में अपमान का बड़ा दुःख था। पाकशाला में प्रवेश करते ही उसने कहा---'भीमसेन ! उठो, उठो; मेरा वह शत्रु महापापी सेनापति मुझे लात मारकर अभी तक जीवित है, तो तुम यहाँ निश्चिन्त होकर कैसे सो रहे हो ?' द्रौपदी के जगाने पर भीमसेन अपने पलंग पर उठ बैठे और उससे बोले---'प्रिय ! ऐसी क्या आवश्यकता आ पड़ी कि तुम उतावली-सी होकर मेरे पास चली आयी ? देखता हूँ, तुम्हारे शरीर का रंग अस्वाभाविक हो गया है, तुम दुर्बल और उदास हो रही हो। क्या कारण है ? पूरी बात बताओ, जिससे मैं सबकुछ जान सकूँ।' द्रौपदी ने कहा---मेरा दुःख क्या तुमसे छिपा है ? सबकुछ जानकर भी क्यों पूछते हो ? क्या उस दिन की बात भूल गये हो जबकि प्रतिकामी मुझे 'दासी' कहकर भरी सभा में घसीट ले गया था ? उस अपमान की आग में मैं सदा ही जलती रहती हूँ। संसार में मेरे सिवा दूसरी कौन राजकन्या है, जो ऐसा दुःख भोगकर भी जीवित हो ? वनवास के समय दुरात्मा जयद्रथ ने जो मेरा स्पर्श किया, वह मेे लिये दूसरा अपमान था; पर उसे भी सहना ही पड़ा। अबकी बार पुनः यहाँ के धूर्त राजा विराट की आँखों के सामने उस दिन कीचक के द्वारा अपमानित हुई। इस प्रकार बारम्बार अपमान का दुःख भोगनेवाली मेरी जैसी कौन स्त्री अपने प्राण धारण कर सकती है ? ऐसे अनेकों कष्ट सहती रहती हूँ, पर तुम भी मेरी सुध नहीं लेते; अब मेरे जीने से क्या लाभ है ?  यहाँ कीचक नाम का एक सेनापति है जो नाते में राजा विराट का साला होता है। वह बड़ा ही दुष्ट है। प्रतिदिन सैरन्ध्री के वेष में मुझे राजमहल में देखकर कहता है---'तुम मेरी स्त्री हो जाओ।' रोज-रोज उसके पापपूर्ण प्रस्ताव सुनते-सुनते मेरा हृदय विदीर्ण हो रहा है। इधर धर्मात्मा युधिष्ठिर को जब अपनी जीविका के लिये दूसरे राजा की उपासना करते देखती हूँ तो बड़ा दुःख होता है। जब पाकशाला में भोजन तैयार होने पर तुम विराट की सेवा में उपस्थित होते और अपने को वल्लव-नामधारी रसोइया बताते हो, उस समय मेरे मन में बड़ी वेदना होती है। यह तरुण वीर अर्जुन, जो अकेले ही रथ में बैठकर देवताओं और मनुष्यों पर विजय पा चुका है, आज विराट की कन्याओं को नाचना सिखा रहा है ! धर्म में, शूरता में और सत्यभाषण में जो संपूर्ण जगत् के लिये एक आदर्श था, उसी अर्जुन को स्त्री के वेष में देखकर आज मेर हृदय में कितनी व्यथा हो रही है ! तुम्हारे छोटे भाई सहदेव को जब मैं गौओं के साथ ग्वालों के वेष में आते देखती हूँ तो मेरे शरीर का रक्त सूख जाता है। मुझे याद है, जब वन को आने लगी उस समय माता कुन्ती ने रोकर कहा था---'पांचाली ! सहदेव मुझे बड़ा प्यारा है; वह मधुरभाषी, धर्मात्मा तथा सब भाइयों का आदर करनेवाला है। किन्तु है बड़ा संकोची; तुम इसे अपने हाथ से भोजन कराना, इसे कष्ट न होने पाये।' यह कहते-कहते उन्होंने सहदेव को छाती से लगा लिया था। आज उसी सहदेव को देखती हूँ---रात-दिन गौओं की सेवा में जुटा रहता है और रात को बछड़ों के चमड़े बिछाकर सोता है। यह सब दुःख देखकर भी मैं किसलिये जीवित रहूँ ? समय का फेर तो देखो---जो सुन्दर रूप, अस्त्र-विद्या और मेधा-शक्ति---इन तीनों से सदा सम्पन्न रहता है, वह नकुुल आज विराट के घर घोड़ों की सेवा करता है। उनकी सेवा में उपस्थित होकर घोड़ों की चालें दिखाता है। क्य यह सब देखकर भी मैं सुख से रह सकती हूँ ? राा युधिष्ठिर को जूए का व्यसन है और उसी के कारण मुझे इस राजभवन में सैरन्ध्री के रूप में रहकर रानी सुदेष्णा की सेवा करनी पड़ती है। पाण्डवों की महारानी और द्रुपदनरेश की पुत्री होकर भी आज मेरी यह दशा है ! इस अवस्था में मेरे सिवा कौन स्त्री जीवित रहना चाहेगी ?  मेरे इस क्लेश से कौरव, पाण्डव तथा पांचालवंश का भी अपमान हो रहा है। तुम सब लोग जीवित हो और मैं इस अयोग्य अवस्था में पड़ी हूँ। एक दिन समुद्र के पास तक की सारी पृथ्वी जिसके अधीन थी, आज वही द्रौपदी सुदेष्णा के अधीन हो उसके भय से डरी रहती है। कुन्तीनन्दन ! इसके सिवा एक और असह्य दुःख, जो मुझपर आ पड़ा है, सुनो ! पहले मैं माता कुन्ती को छोड़कर और किसी के लिये, स्वयं अपने लिये भी कभी उबटन नहीं पीसती थी; परन्तु अब राजा के लिये चन्दन घिसना पड़ता है; देखो ! मेरे हाथों में घट्ठे पड़ गये हैं, पहले ऐसे नहीं थे।ऐसा कहकर द्रौपदी ने भीमसेन को अपने हाथ दिखाये। फिर वह सिसकती हुई बोली---' न जाने देवताओं का मैने कौन सा अपराध किया है, जो मेरे लिये मौत भी नहीं आती। भीम ने उसके पतले-पतले हाथों को पकड़कर देखा, सचमुच काले-काले दाग पड़ गये थे। फिर आन्तरिक क्लेश से पीड़ित होकर भीमसेन कहने लगे---'कृष्णे ! मेरे बाहुबल को धिक्कार है, जो तुम्हारे लाल-लाल कमल हाथ आज काले पड़ गये ! उस दिन सभा में मैं विराट का सर्वनाश कर डालता अथवा ऐश्वर्य के मद से उन्मत्त हुए कीचक का मस्तक पैरों से कुचल डालता; परन्तु धर्मराज ने रुकावट डाल दी, उन्होंने कनखियों से देखकर मुझे मना कर दिया। इसी प्रकार राज्य से च्युत होने पर भी जो कौरवों का वध नहीं किया गया, दुर्योधन, कर्ण, शकुनि और दुःशासन का सिर नहीं काट लिया गया---इसके कारण आज भी मेरा शरीर क्रोध से जलता रहता है; वह भूल अब भी हृदय में काँटे की तरह कसकती रहती है। सुन्दरी ! तुम अपना धर्म न छोड़ो। बुद्धिमती हो, क्रोध का दमन करो। पूर्वकाल में बहुत सी स्त्रियों ने पतियों के साथ कष्ट उठाया है। भृगुवंशी च्यवन मुनि जब तपस्या कर रहे थे, उस समय उनके शरीर पर दीमकों की बाँबी जम गयी थी। उनकी स्त्री हुई राजकुमारी सुकन्या। उसने उनकी बड़ी सेवा की।राजा जनक की पुत्री सीता का नाम तो तुमने सुना ही होगा; वह घोर वन में पति श्रीरामचन्द्रजी की सेवा में रहती थी। एक दिन उसे राक्षस हरकर लंका ले गया और तरह-तरह के कष्ट देने लगा; तो भी उसका मन श्रीरामचन्द्रजी में लगा रहा और अन्त में वह उनकी सेवा में पहुँच भी गयी। इसी प्रकार लोपामुद्रा ने सांसारिक सुखों का त्याग करके अगस्त्य मुनि का अनुगमन किया था।सावित्री तो अपने पति सत्यवान् के पीछे यमलोक तक गयी थी। इन रूपवती पतिव्रता स्त्रियों का जैसा महत्व बताया गया है, वैसी ही तुम भी हो; तुममें भी वे सभी सद्गुण मौजूद हैं। कल्याणी ! अब तुम्हे अधिक दिनों तक प्रतीक्षा नहीं करनी है। वर्ष पूरा होने में सिर्फ डेढ़ महीना रह गया है। तेरहवाँ वर्ष पूर्ण होते ही तुम राजरानी बनोगी। द्रौपदी बोली---नाथ ! इधर बहुत कष्ट सहना पड़ा है, इसलिये आर्त होकर मैंने आँसू बहाये हैं, उलाहना नहीं दे रही हूँ। अब इस समय जो कार्य उपस्थित है, उसके लिये उद्यत हो जाओ। पापी कीचक सदा मेरे आगे प्रार्थना किया करता है। एक दिन मैने उससे कहा---'कीचक ! तू काम से मोहित होकर मृत्यु के मुख में जाना चाहता है, अपनी रक्षा कर। मैं पाँच गन्धर्वों की रानी हूँ, वे बड़े वीर और साहस के काम करनेवाले हैं। तुझे अवश्य मार डालेंगे।' मेरी बात सुनकर उस दुष्ट ने कहा---'सैरन्ध्री ! मैं गन्धर्वों से तनिक भी नहीं डरता। संग्राम में यदि लाख गन्धर्व भी आवें तो मैं उनका संहार कर डालूँगा। तुम मुझे स्वीकार करो।' इसके बाद उसने रानी सुदेष्णा से मिलकर उसे कुछ सिखाया। सुदेष्णा अपने भाई के प्रेमवश मुझसे कहने लगी---'कल्याणी ! तुम कीचक के घर जाकर मेरे लिये मदिरा लाओ। मैं गयी; पहले तो उसने अपनी बात मानने के लिये समझाया। किन्तु जब मैने उसकी प्रार्थना ठुकरा दी, तो उसने कुपित होकर बलात्कार करना चाहा। उस दुष्ट का मनोभाव मुझसे छिपा न रहा; इसलिये बड़े वेग से भागकर मैं राजा की शरण में गयी। वहाँ भी पहुँचकर उसने राजा के सामने ही मेरा स्पर्श किया और पृथ्वी पर गिराकर लात मारी। कीचक राजा का सारथि है, राजा और रानी दोनो ही उसे बहुत मानते हैं। परन्तु है वह बड़ा ही पापी और क्रूर। प्रजा रोती-चिल्लाती रह जाती है और वह उसका धन लूट लाता है। सदाचार और धर्म के मार्ग पर तो वह कभी चलता ही नहीं। उसका भाव मेरे प्रति खराब हो चुका है; जब मुझे देखेगा, कुत्सित प्रस्ताव करेगा और ठुकराने पर मुझे मारेगा। इसलिये अब मैं अपने प्राण दे दूँगी। वनवास का समय पूरा होने तक यदि चुप रहोगे तो इस बीच में पत्नी से हाथ धोना पड़ेगा। क्षत्रिय का सबसे मुख्य धर्म है शत्रु का नाश करना। परन्तु धर्मराज के और तुम्हारे देखते-देखते कीचक ने मुझे लात मारी और तुमलोगों ने कुछ भी नहीं किया। तुमने जटासुर से मेरी रक्षा की है, मुझे हरकर ले जानेवाले जयद्रथ को भी पराजित किया है। अब इस पापी को भी मार डालो। यह बराबर मेरा अपमान कर रहा है। यदि यह सूर्योदय तक जीवित रह गया, तो मैं विष घोलकर पी जाऊँगी। भीमसेन ! इस कीचक के अधीन होने की अपेक्षा तुम्हारे सामने प्राण देना मैं अच्छा समझती हूँ। यह कहकर द्रौपदी भीमसेन के वक्ष पर गिर पड़ी और फूट-फूटकर रोने लगी। भीम ने उसे हृदय से लगाकर आश्वासन दिया, उसके आँसुओं से भीगे हुए मुख को अपने हाथ से पोंछा और कीचक के प्रति कुपित होकर कहा---'कल्याणी ! तुम जैसा कहती हो वही करूँगा; आज कीचक को उसके बन्धु-बान्धवों सहित मार डालूँगा। तुम अपना दुःख और शोक दूरकर आज सायंकल में उससे मिलने का संकेत कर दो।राजा विराट ने जो नयी नृत्यशाला बनवायी है, उसमें दिन में तो कन्याएँ नाचना सीखती हैं, परन्तु रात में अपने घर चली जाती हैं। वहाँ एक बहुत सुन्दर मजबूत पलंग भी बिछा रहता है। तुम ऐसी बात करो , जिससे कीचक यहाँ आ जाय। वहीं मैं उसे यमपुरी भेज दूँगा।' इस प्रकार बातचीत करके दोनो ने शेष रात्रि बड़ी विकलता से व्यतीत की और अपने उग्र संकल्प को मन में ही छिपा रखा। सवेरा होने पर कीचक पुऩः राजमहल में गया और द्रौपदी से कहने लगा---'सैरन्ध्री ! सभा में राजा के सामने ही तुझे गिराकर लात लगा दी ! देखा मेरा प्रभाव ? अब तुम मुझ जैसे बलवान् वीर के हाथों में पड़ चुकी हो। कोई तुम्हे बचा नहीं सकता। विराट तो कहने मात्र के लिये मत्स्यदेश का राजा है; वास्तव में तो मैं ही यहाँ का सेनापति और स्वामी हूँ। इसलिये भलाई इसी में है कि तुम खुशी-खुशी मुझे स्वीकार कर लो। फिर तो मैं तुम्हारा दास हो जाऊँगा।' द्रौपदी बोली---कीचक ! यदि ऐसी बात है तो मेरी एक शर्त स्वीकार करो। हम दोनों के मिलन की बात तुम्हारे भाई और मित्र भी न जानने पावें। कीचक ने कहा---सुन्दरी ! तुम जैसा कह रही हो, वही करूँगा।द्रौपदी बोली---राजा ने जो नृत्यशाला बनवायी है, वह रात में सूनी रहती है; अतः अंधेरा हो जाने पर तुम वहीं आ जाना। इस प्रकार कीचक के साथ बात करते समय द्रौपदी को आधा दिन भी एक महीने के समान भारी मालूम हुआ। तत्पश्चात् 'वह दर्प में भरा हुआ अपने घर गया। उस मूर्ख को ह पता न था कि सैरन्ध्री के रूप में मेरी मृ्यु आ गयी है। इधर द्रौपदी पाकशाला में जाकर अपने पति भीम से मिली और बोली---'परन्तप ! तुम्हारे कथनानुसार मैने कीचक से नृत्यशाला में मिलने का संकेत कर दिया है। वह रात्रि के समय उस सूने घर में अकेले आवेगा, अतः आज अवश्य उसे मार डालो।' भीम ने कहा---'मैं धर्म, सत्य तथा भाइयों की शपथ खाकर कहता हूँ कि इन्द्र ने जिस प्रकार वृत्रासुर को मार डाला था, उसी प्रकार मैं भी कीचक का प्राण ले लूँगा। यदि मत्स्य देश के लोग उसकी सहायता में आयेंगे तो उन्हें भी मार डालूँगा; इसके बाद दुर्योधन को मारकर पृथ्वी का राज्य प्राप्त करूँगा।' द्रौपदी बोली---नाथ ! तुम मर लिये सत्य का त्याग न करना। अपने को छिपाे हुए ही कीचक को मार डालना। भीमसेन ने कहा---भीरु ! तुम जो कुछ कहती हो, वही करूँगा; आज कीचक को मैं उसके बन्धुओं सहित नष्ट कर दूँगा।
 

Saturday 9 April 2016

विराटपर्व---द्रौपदी पर कीचक की आसक्ति और उसके द्वारा द्रौपदी का अपमान

द्रौपदी पर कीचक की आसक्ति और उसके द्वारा द्रौपदी का अपमान

पाण्डवों के मत्स्यनरेश की राजधानी में रहते हुए दस महीने बीत गये। द्रौपदी,जो स्वयं स्वामिनी की भाँति सेवा के योग्य थी, रानी सुदेष्णा की सुश्रूषा करती हुई बड़े कष्ट से समय व्यतीत करती थी। जब वर्ष पूरा होने में कुछ ही समय बाकी रह गया, तब की बात है। एक दिन राजा विराट के सेनापति महाबली कीचक की दृष्टि उस द्रौपदी पर पड़ी, जो राजमहल में देवकन्या के समान विचर रही थी। वह कीचक राजा विराट का साला था, वह सैरन्ध्री को देखते ही कामवाण से पीड़ित होकर उसे चाहने लगा। कामना की आग में जलता हुआ कीचक अपनी बहिन रानी सुदेष्णा के पास गया और हँस-हँसकर कहने लगा---'सुदेष्णे ! यह सुन्दरी, जो मुझे अपने रूप से उन्मत्त बना रही है, पहले तो कभी इस महल मं नहीं देखी गयी थी। देवांगना के समान यह मन को मोहे लेती है। बताओ यह कौन है ? किसकी स्त्री है ? और कहाँ से आयी है ? मेरा चित्त इसके अधीन हो चुका है; अब इसकी प्राप्ति के सिवा दूसरी कोई औषधि नहीं है, जो मेरे हृदय को शान्ति दे सके।  बड़े आश्चर्य की बात है कि यह तुम्हारे यहाँ दासी का काम कर रही है; यह कार्य कदापि इसके योग्य नहीं है। मैं तो इसे अपनी तथा अपने सर्वस्व की स्वामिनी बनाना चाहता हूँ।'  इस प्रकार रानी सुदेष्णा से कहकर कीचक राजकुमारी द्रौपदी के पास आकर बोला---'कल्याणी ! तुम कौन हो ? किसकी कन्या हो और कहाँ से आयी हो ? ये सब बातें मुझे बताओ । तुम्हारा यह  सुन्दर रूप, यह दिव्य छवि और यह सुकुमारता संसार में सबसे बढ़कर है। और यह उज्जवल मुख तो अपनी कमनीय कान्ति से चन्द्रमा को भी लज्जित कर रहा है। तुम जैसी मनोहारिणी स्त्री इस पृथ्वी पर मैंने आज से पहले कभी नहीं देखी थी। सुमुखी ! बताओ तो तुम कमलों में वास करनेवाली लक्ष्मी हो या साकार विभूति ? लज्जा, श्री, कीर्ति और कान्ति---इन देवियों में से तुम कौन हो ? यह स्थान तुम्हारे रहने के लायक नहीं है। मैं तुम्हें सर्वोत्तम सुख-भोग समर्पण करना चाहता हूँ, स्वीकार करो। इसके बिना तुम्हारा रूप और सौन्दर्य व्यर्थ जा रहा है। सुन्दरी ! यदि तुम आज्ञा दो तो मैं अपनी पहली स्त्रियों को त्याग दूँ अथवा उन्हें तुम्हारी दासी बनाकर रखूँ। मैं स्वयं भी सेवक के समान तुम्हारे अधीन रहूँगा। द्रौपदी ने कहा---मैं परायी स्त्री हूँ, मुझसे ऐसा कहना उचित नहीं है। जगत् के सभी प्राणी अपनी स्त्री से प्रेम करते हैं, तुम भी धर्म का विचार करके ऐसा ही करो। दूसरे की स्त्री की ओर कभी किसी प्रकार मन नहीं चलाना चाहिये। सत्पुरुषों का यह नियम होता है कि वे अनुचित कर्मों का सर्वथा त्याग कर देते हैं। सैरन्ध्री की यह बात सुनकर कीचक बोला---'सुन्दरी ! तुम मेरी प्रार्थना को इस तरह मत ठुकराओ। मैं तुम्हार लिये बड़ा कष्ट पा रहा हूँ; मुझे अस्वीकार करके तुम्हे बड़ा पछतावा होगा। इस संपूर्ण राज्य पर मेरा ही शासन है, मैं किसी को भी उजारने-बसाने की शक्ति रखता हूँ। शारीरिक बल में भी मेरे समान इस पृथ्वी पर कोई नहीं है। मैं अपना सारा राज्य तुमपर निछावर कर रहा हूँ; पटरानी बनो और मेरे साथ सर्वोत्तम भोग भोगो।' सैरन्ध्री बोली---सूतपुत्र ! तू इस प्रकार मोह के फंदे में पड़कर अपनी जान न गँवा। याद रख, पाँच गन्धर्व मेरे पति हैं; वे बड़े भयानक हैं और सदा मेरी रक्षा करते हैं। अतः इस कुत्सित विचार को त्याग दे; नहीं तो मेरे पति कुपित होकर तुम्हे मार डालेंगे। क्यों अपना सर्वनाश कराना चाहता है ? कीचक ! मुझपर कुदृष्टि डालकर तू आकाश, पाताल या समुद्र से भी छिपे तो मेरे आकाशचारी पतियों के हाथ से जीवित नहीं बच सकता। जैसे कोई रोगी कष्ट पाकर मौत को बुलावे, उसी प्रकार तू भी कालरात्री के समान मुझसे क्यों याचना कर रहा है ? राजकुमारी द्रौपदी के ठुकराने पर कीचक कामसंतप्त हो सुदेष्णा के पास जाकर बोला, 'बहिन ! जिस उपाय से भी सैरन्ध्री मुझे स्वीकार करे, सो करो; नहीं तो उसके मोह में मैं प्राण दे दूँगा।' इस प्रकार विलाप करते हुए कीचक की बात सुनकर रानी ने कहा---'भैया ! मैं सैरन्ध्री को एकान्त में तुम्हारे पास भेज दूँगी; वहाँ यदि सम्भव हो तो उसे अपने इच्छानुसार समझा-बुझाकर प्रसन्न कर लेना।' अपनी बहिन की बात मानकर कीचक वहाँ से चला गया और किसी पर्व के दिन अपने घर पर उसने खाने-पीने की  बहुत उत्तम सामग्री तैयार करवायी। तत्पश्चात् सुदेष्णा को उसने भोजन के लिये आमनंत्रित किया। सुदेष्णा ने सैरन्ध्री को बुलाकर कहा---'कल्याणी ! मुझे बड़े जोर की प्यास लग रही है। तुम कीचक के घर जाओ और वहाँ से पीने योग्य  रस ले आओ।' सैरन्ध्री बोली ---रानी ! मैं उसके घर नहीं जाऊँगी। आप तो जानती ही हैं कि वह कितना निर्लज्ज है ! मैं आपके यहाँ व्यभिचारिणी होकर नहीं रहूँगी। जिस समय मेरा इस महल में प्रवेश हुआ था, उस समय की प्रतिज्ञा तो आपको याद होगी ही। फिर मुझे क्यों भेज रही हैं ? मूर्ख कीचक काम से पीड़ित हो रहा है, देखते ही मेरा अपमान कर बैठेगा। आपे यहाँ और भी बहुत सी दासियाँ हैं, उन्हीं में से किसी को भेज दीजिये। मैं तो अपमान के डर से वहाँ नहीं जाना चाहती। सुदेष्णा ने कहा---'मैं तुम्हे यहाँ से भेज रही हूँ, अतः वह कदापि अपमान नहीं कर सकता।' यह कहकर उसने उसके हाथ में ढ़क्कनसहित एक सुवर्णमय पात्र दे दिया। द्रौपदी उसे लेकर रोती और डरती हुई कीचक के घर की ओर चली। अपने सतीत्व की रक्षा के लिये मन-ही-मन भगवान् सूर्य की शरण में गयी। सूर्य ने उसकी देख-रेख के लिये गप्तरूप से एक राक्षस भेजा, जो सब अवस्थाओं में साथ रहकर उसकी रक्षा करने लगा। द्रौपदी भयभीत हुई हरिणी के समान डरते-डरते उसके पास गयीं। उसे देखते ही वह आनन्द में भरकर खड़ा हो गया और बोला---'सुन्दरी ! तुम्हारा स्वागत है, मेरे लिये आज की रात्रि का प्रभात बड़ा मंगलमय होगा। मेरी रानी ! तुम मेरे घर आ गयी; अब मेरा प्रिय काम करो।' द्रौपदी बोली---'मुझे महारानी सुदेष्णा ने यह कहकर भेजा है कि शीघ्र जाकर पीनेयोग्य रस ले आओ, प्यास सता रही है।' कीचक ने कहा---'कल्याणी ! उसकी मँगायी हुई चीजें दूसरी दासियाँ पहुँचा देंगी।' यह कहकर उसने द्रौपदी का दाहिना हाथ पकड़ लिया। द्रौपदी बोली---'पापी ! यदि मैने आजतक कभी मन से भी अपने पतियों के विरुद्ध आचरण नहीं किया हो तो देखूँगी कि तू शत्रु से पराजित होकर पृथ्वी पर घसीटा जा रहा है।' इस प्रकार कीचक का तिरस्कार करती हुई द्रौपदी पीछे हट रही थी और वह उसे पकड़ना चाहता था। वह झटके देकर अपने को छुड़ाने का उद्योग कर ही रही थी कि कीचक ने सहसा झपटकर उसके दुपट्टे का छोर पकड़ लिया। अब वह बड़े वेग से उसे काबू में लाने का प्रयोग करने लगा। बेचारी द्रौपदी बार-बार लम्बी साँसे लेने लगी। फिर संभलकर उसने कीचक को बड़े जोर का धक्का दिया, जिससे वह पापी जड़ से कट हुए वृक्ष की भाँति धम्म से जमीन पर जा गिरा। उसे गिराकर वह काँपती हुई दौड़कर राजसभा की शरण में आ गई। कीचक ने उठकर भागती हुई द्रौपदी का पीछ किया और उसके केश पकड़ लिये। फिर राजा के सामने ही उसे पृथ्वी पर गिराकर लात मारी। इतने में सूर्य के द्वारा नियुक्त राक्षस ने कीचक को पकड़कर आँधी के समान वेग से दूर फेंक दिया। कीचक का सारा शरीर काँप उठा और वह निष्चेष्ट होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। उस समय राजसभा में युधिष्ठिर और भीमसेन भी बैठे थे, उन्होंने द्रौपदी का वह अपमान अपनी आँखों से देखा। यह अन्याय उनसे सहा नहीं गया, दोनो भाई आमर्ष से भर गये। भीम तो उस दुरात्मा कीचक को मार डालने की इच्छा से क्रोध के मारे दाँत पीसने लगे। उनकी आँखों के सामने धुआँ छा गया, भौंहें टेढ़ी हो गयीं और ललाट से पसीना निकलने लगा। वे क्रोधावेश में उठना ही चाहते थे कि युधिष्ठिर ने अपना गुप्त रहस्य प्रकट हो जाने के डर से अपने अंगूठे से उनका अंगूठा दबाकर रोक दिया। इतने में द्रौपदी राजभवन के द्वार पर आ गयी और मत्स्यराज से सुनाकर कहने लगी---'मेरे पति संपूर्ण जगत् को मार डालने की शक्ति रखते हैं, किन्तु वे धर्म के पाश में बँधे हुए हैं; मैं उनकी सम्मानित ऱ्मपत्नी हूँ, तो भी आज एक सूतपुत्र ने मुझे लात मारी है। हाय ! जो शरणार्थिों को सहारा देनेवाले हैं और इस जगत् में गुप्तरूप से विचरते रहते हैं, वे मेरे पति महारथी वीर आज कहाँ हैं ? अत्यन्त बलवान् और तेजस्वी होते हुए भी अपनी इस प्रियतमा और पतिव्रता पत्नी को एक सूत के द्वारा अपमानित होते देख कैसे कायरों की भाँति बर्दाश्त कर रहे हैं ? यहाँ का राजा विराट भी धर्म को दूषित करनेवाला है। भला, इसके रहते हुए मैं अपने इस अपमान का बदला क्योंकर ले सकती हूँ ? यह राजा होकर भी कीचक के प्रति राजोचित न्याय नहीं कर रहा है ! मत्स्यराज ! तुम्हारा यह लुटेरों का सा धर्म इस राजसभा में शोभा नहीं देता। तुम्हारे निकट आकर भी कीचक के द्वारा मेरे प्रति जो व्यवहार हुआ है, वह कभी उचित नहीं कहा जा सकता। वह स्वयं तो पापी है ही, इस मत्स्यनरेश को भी धर्म का ज्ञान नहीं है। साथ ही ये सभासद् भी धर्म को नहीं जानते, तभी तो धर्म को न जाननेवाले इस राजा की सेवा करते हैं।' इस प्रकार आँखों में आँसू भरे द्रौपदी ने बहुत सी बातें कहकर राजा विराट को उलाहना दिया। फिर सभासदों के पूछने पर उसने कलह का कारण बताया। इस रहस्य को जानकर सभी सदस्यों ने द्रौपदी के सत्साहस की प्रशंसा की और कीचक को बारंबार धिक्कारते हुए कहा---'यह साध्वी जिस पुरुष की धर्मपत्नी है, उसे जीवन में बहुत बड़ा लाभ मिला है। मनुष्यजाति में तो ऐसी स्त्री का मिलना कठिन ही है। हम तो इसे मानवी नहीं, देवी मानते हैं।' इस प्रकार सब सभासद् लोग द्रौपदी की प्रशंसा कर रहे थे, युधिष्ठिर ने उससे कहा---'सैरन्ध्री ! अब यहाँ खड़ी न हो, रानी सुदेष्णा के महल में चली जा। तेरे पति गन्धर्व अभी अवसर नहीं देखते, इसलिये नहीं आ रहे हैं। वे अवश्य ही तेरा प्रिय कार्य करेंगे और जिसने तुम्हें कष्ट दिया है, उसे नष्ट कर डालेंगे।'द्रौपदी चली गयी, उसके बाल खुले हुए थे और आँखें क्रोध से लाल हो रही थीं। रानी सुदेष्णा ने उसे रोते और आँसू बहाते देखकर पूछा---'कल्याणी ! तुम्हें किसने मारा है ? क्यों रो रही हो ? किसके भाग्य से आज सुख उठ गया, जिसने तुम्हारा अप्रिय किया है ?' द्रौपदी ने कहा---'आज दरबार में राजा के सामने ही कीचक ने मुझे मारा है।' सुदेष्णा बोली---'सुन्दरी ! कीचक काम से मतवाला होकर बारम्बार तुम्हारा अपमान कर रहा है; तुम्हारी राय हो तो मैं आज ही उसे मरवा डालूँ।' द्रौपदी ने कहा---'वह जिनका अपराध कर रहा है, वे ही लोग उसका वध करेंगे। अब अवश्य ही वह यमलोक की यात्रा करेगा।'

Tuesday 5 April 2016

विराटपर्व----भीमसेन के हाथ जीमूत नामक मल्ल का वध

भीमसेन के हाथ जीमूत नामक मल्ल का वध
पाण्डवों को धृतराष्ट्र के पुत्रों से सदा शंका बनी रहती थी; इसलिये वे द्रौपदी की देख-रेख रखते हुए बहुत छिपकर रहते थे, मानो पुनः माता के गर्भ में निवास कर रहे हों। इस प्रकार जब तीन महीने बीत गये और चौथे महीने का आरम्भ हुआ,उस समय मत्स्यदेश में ब्रह्ममहोत्सव का बहुत बड़ा समारोह हुआ। उसमें सभी दिशाओं से हजारों पहलवान जुटे थे। वे सब-के-सब बड़े बलवान् थे और राजा उनका विशेष सम्मान किया करते थे। उनके कन्धे, कमर और ग्रीवा सिंह के समान थे; शरीर का रंग गोरा था। राजा के निकट अनेकों बार अखाड़े में विजय पायी थी। उन सब पहलवानों में भी एक सबसे बड़ा था। उसका नाम था---जीमूत। उसने अखाड़े में उतरकर एक-एक करके सबको लड़ने के लिये बुलाया; परन्तु उसे कूदते और पैंतरे बदलते देख किसी को भी उसके पास आने की हिम्मत नहीं होती थी। जब सभी पहलवान उत्साहहीन और उदास हो गये, तब मत्स्यनरेश ने अपने रसोइये को उसके साथ भिड़ने की आज्ञा दी। राजा का सम्मान रखने के लिये भीमसेन ने सिंह के समान धीमी चाल चलकर रंगभूमि में प्रवेश किया; फिर उन्हें लंगोटा कसते देख वहाँ की जनता ने हर्षध्वनि की। भीमेन ने युद्ध के लिये तैयार होकर वृत्रासुर के समान महान पराक्रमी जीमूत को ललकारा। दोनो में ही लड़ने का उत्साह था, दोनो ही भयानक पराक्रम दिखानेवाले थे और दोनो के ही शरीर साठ वर्ष के मतवाले हाथी के समान ऊँचे और हृष्ट-पुष्ट थे। पहले उन दोनो ने एक दूसरे की बाँहें मिलायीं, फिर वे परस्पर जय की इच्छा से खूब उत्साह से युद्ध करने लगे। जैसे पर्वत और वज्र के टकराने से घोर शब्द होता है, उी प्रकार उनके पारस्परिक आघात से भयानक चटचट शब्द होता था। एक-दूसरे का कोई अंग जोर से दबाता तो दूसरा उसे छुड़ा लेता। दोनो अपने हाथों से मुठ्ठी बाँध परस्पर प्रहार करते।  दोनो दोनो के शरीर से गुँथ जाते और फिर धक्के देकर एक दूसरे को दूर हटा देते। कभी एक-दूसरे को पटककर जमीन पर रगड़ता तो दूसरा नीचे से ही कुलाँचकर ऊपरवाले को दूर फेंक देता।  दोनो दोनो को बलपूर्वक पीछे हटाते और मुक्कों से छाती पर चोट करते। कभी एक को दूसरा अपने कंधे पर उठा लेता और उसका मुँह नीचे कर घुमाकर पटक देता, जिससे बड़े जोर का शब्द होता। कभी परस्पर वज्रपात के समान शब्द करनेवाले चाँटों की मार होती। कभी हाथ की अँगुलियाँ फैलाकर एक-दूसरे को थप्पर मारते। कभी नखों से बकोटते। कभी पैों में उलझाकर एक-दूसरे को गिरा देते, कभी घुटने और सिर से टक्कर मारते, जिससे बिजली गिरने के समान शब्द होता। कभी प्रतिपक्षी को गोद में घसीट लाते, कभी खेल में ही उसे सामने खींच लेते, कभी दायें-बायें पैंतरे बदलते और कभी एकबारगी पीछे ढ़केलकर पटक देते थे। इस प्रकार दोनों दोनों को अपनी ओर खींचते और घुटनों से प्रहार करते थे। केवल बाहुबल, शरीरबल और प्राणबल से ही उन वीरों का भयंकर युद्ध होता रहा। किसी ने भी शस्त्र का उपयोग नहीं किया। तदनन्तर जैसे सिंह हाथी को पकड़ लेता है, उसी प्रकार भीमसेन ने उछलकर जीमूत को दोनो हाथों से पकड़ लिया और ऊपर उठाकर उसे घुमाना आरम्भ किया। उनका यह पराक्रम देखकर सभी पहलवानों और मत्स्य देश के दर्शक लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। भीम ने उसे सौ बार घुमाया, जिससे वह शिथिल और बेहोश हो गया; इसके बाद उन्होंने पृथ्वी पर पटककर उसका कचूमर निकाल डाला। इस प्रकार भीम के हाथ से उस जगत् प्रसिद्ध पहलवान को मारे जाने से राजा विराट को बड़ी खुशी हुई। इस तरह अखाड़े में बहुत से पहलवानों को मार-मारकर भीमसेन राजा विराट के स्नेहभाजन बन गये थे। जब उन्हें युदध करने के लिये अपने मान कोई पुरुष नहीं मिलता, तो हाथियों और सिंहों से लड़ा करते थे। अर्जुन भी अपने नाचने और गाने की कला से राजा तथा उनके अंतःपुर की स्त्रियों को प्रसन्न रखते थे। इसी प्रकार नकुल भी अपने द्वारा सिखलाये हुए वेग से चलनेवालों घोड़ों की तरह-तरह की चालें दिखाकर मत्स्यनरेश को संतुष्ट करते थे। सहदेव के सिखाये हुए बैलों को देखकर भी राजा बड़े प्रसन्न रहते थे। इस प्रकार सभी पाण्डव वहाँ छिपे रहकर राजा विराट का कार्य करते थे।

Sunday 3 April 2016

विराटपर्व---सहदेव, अर्जुन और नकुल का विराट के भवन में प्रवेश

सहदेव, अर्जुन और नकुल का विराट के भवन में प्रवेश
तदनन्तर सहदेव भी ग्वाले का वेष बनाकर वैसी ही भाषा बोलता हुआ राजाविराट की गोशाला के निकट आया। उस तेजस्वी पुरुष को बुलाकर राजा स्वयं उसके समीप गये और पूछने लगे---'तुम किसके आदमी हो, कहाँ से आये हो ? कौन सा काम करना चाहते हो ? ठीक-ठीक बताओ।' सहदेव ने कहा---'मैं जाति का वैश्य हूँ, मेरा नाम अरिष्टनेमि है; पहले मैं पाण्डवों के यहाँ गौओं की संभाल लिये रहता था, परन्तु अब तो वे पता नहीं कहाँ चले गये। बिना काम किये जीविका नहीं चल सकती और पाण्डवों के सिवा दूसरा कोई राजा मुझे पसंद नहीं है, जिसके यहाँ नौकरी करूँ।' राजा विराट ने कहा---तुम्हे किस काम का अनुभव है ? किस शर्त पर यहाँ रहना चाहते हो ? और इसके लिये तुम्हे क्या वेतन देना पड़ेगा ? सहदेव बोले---मैं यह बता चुका हूँ कि पाण्डवों की गौओं को संभालने का काम करता था।  वहाँ लोग मुझे 'तन्तिपाल' कहते थे। चालीस कोस के अन्दर जितनी गौएँ रहती हैं उनकी भूत, भविष्य और वर्तमान काल की संख्या मुझे सदा मालूम रहती हैं; कितनी गौएँ थीं, कितनी हैं और कितनी होंगी---इसका मुझे ठीक-ठीक ज्ञान रहता है। जिन उपायों से गौओं की बढ़ती होती रहे, उन्हें कोई रोग-व्याधि न सतावे---उन सबको मैं जानता हूँ। इसके सिवा मैं उत्तम लक्षणोंवाले बैलों की भी पहचान रखता हूँ, जिनका मूत्र सूँघनेमात्र से वन्ध्या स्त्री को गर्भ रह जाता है।  विराट ने कहा---मेरे पास एक ही रंग के एक लाख पशु हैं, उनमें सभी उत्म गुणों का सम्मिश्रण है। आज से उन पशुओं और उनके रक्षकों को मैं तुम्हारे अधिकार में सौंपता हूँ। मेरे पशु अब तुम्हारे ही अधीन रहेंगे, इस प्रकार राजा से परिचय करके सहदेव वहाँ सुख से रहने लगे; उन्हें भी कोई पहचान न सका। राजा ने उनके भरण-पोषण का उचित प्रबंध कर दिया। तदनन्तर वहाँ एक बहुत सुन्दर पुरुष दीख पड़ा, जो स्त्रियों के समन आभूषण पहने हुए था, उसके कानों में कुण्डल तथा हाथों में शंख तथा सोने की चूड़ियाँ थीं। उसे लम्बे-लम्बे केश खुले हुए थे। भुजाएँ बड़ी-बड़ी और हाथी के समान मस्तानी चाल थी। मानो वह अपने एक-एक पग से पृथ्वी को कँपाता चलता था। वह वीरवर अर्जुन था। राजा विराट की सभा पहुँचकर उसने अपना परिचय दिया---महाराज ! मैं नपुंसक हूँ, मेरा नाम बृहन्नला है। मैं नाचता-गाता और बाजे बजाता हूँ। नृत्य और संगीत की कला में बहुत प्रवीण हूँ। आप मुझे उत्तरा को इस कला की शिक्षा देने के लिये रख लें। मैं महारानी के यहाँ नाचने का काम करूँगा। विराट ने कहा---बृहन्नले ! तुम्हारे जैसे पुरुष से तो यह काम लेना मुझे उचित नहीं जान पड़ता; तथापि मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूँ, तुम मेरी बेटी उत्तरा तथा राजपरिवार की अन्य कन्याओं को नृत्यकला की शिक्षा दिया करो। यह कहकर मत्स्यनरेश ने बृहनल्ला की संगीत, नृत्य और बाजा बजाने की कलाओं में परीक्षा की। इसके बाद अपने मंत्रियों से यह सलाह ली कि इसे अन्तःपुर में रखना चाहिये या नहीं ! फिर तरुणी स्त्रियाँ भेजकर उनके नपुंसकपने की जाँच करायी। जब सब तरह से उनका नपुंसक होना प्रमाणित हो गया, तब उसे कन्या के अन्तःपुर में रहने की आज्ञा मिली। वहाँ रहकर अर्जुन उत्तरा और उसकी सखियों तथा अन्य दासियों को भी गाने, बजाने और नाचने की शिक्षा देने लगे; इससे वे उन सबके प्रिय हो गये। कपटवेष में  कन्याओं के साथ रहते हुए भी अर्जुन सदा अपने मन को पूर्णरूप से वश में रखते थे। इससे बाहर या भीतर का कोई भी उन्हे पहचान न सका। इसके बाद नकुल अश्वपाल का वेष धारण किये राजा विराट के यहाँ उपस्थित हुआ और राजभवन के पास इधर-उधर घूम-फिरकर घोड़े देखने लगा। फिर राजा के दरबार में आकर उसने कहा---'महाराज ! आपका कल्याण हो। मैं अश्वों को शिक्षा देने में निपुण हूँ, बड़े-बड़े राजाओं के यहाँ आदर पा चुका हूँ। मेरी इच्छा है कि मैं आपके यहाँ घोड़ों को शिक्षा देने का काम करूँ।' विराट ने कहा---मैं तुम्हे रहने के लिये घर, सवारी और बहुत सा धन दूँगा। तुम हमारे हाँ घोड़ों की शिक्षा देने का काम कर सकते हो। किन्तु पहल यह तो बताओ तुम्हे अश्वसम्बन्धी किस कला का विशेष ज्ञान है। साथ ही अपना परिचय भी दो। नकुल ने कहा---महाराज ! मैं घोड़ों की जाति और स्वभाव पहचानता हूँ, उन्हें शिक्षा देकर सीधा कर सकता हूँ। दुष्ट घोड़ों को ठीक करने का उपाय भी जानता हूँ। इसके सिवा घोड़ों की चिकित्सा का भी मुझे पूरा ज्ञान है। मेरी सिखायी हुई घोड़ी भी नहीं बिगड़ती, फिर घोड़ों की तो बात ही क्या है ? मैं पहले राजा युधिष्ठिर के यहाँ काम करता था, वहाँ वे तथा दूसरे लोग भी मुझे ग्रन्थिक नाम से पुकारते थे। विराट बोले---मेरे यहाँ जितने घोड़े और वाहन हैं, उन सबको मैं आजसे  तुम्हारे अधीन करता हूँ। घोड़े जोतनेवाले पुराने सारथि लोग भी तुम्हारे अधिकार में रहेंगे। तुमसे मिलकर आज मुझे उतनी ही प्रसन्नता हुई है, जितनी राजा युधिष्ठिर के दर्शन से होती थी। इस प्रकार राजा विराट से सम्मानित होकर नकुल वहाँ रहने लगे। नगर में घूमते समय भी उस सुन्दर युवक को कोई पहचान नहीं पाता था। जिनके दर्शनमात्र से ही पापों का नाश हो जाता है, वे समुद्रपर्यन्त पृथ्वी के स्वामी पाण्डवलोग इस तरह अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार अज्ञातवास की अवधि पूरी करने लगे।