Saturday 30 June 2018

द्रोणाचार्य की रक्षा के लिये कौरव और पाण्डववीरों का द्वन्दयुद्ध

१संजय ने कहा___महाराज ! फिर थोड़ी ही देर में पाण्डवों की सेना ने लौटकर द्रोण को घेर लिया और उनके पैरों से उठी हुई धूल ने आपकी सेना को आच्छादित कर दिया। इस प्रकार आँखों से ओझल हो जाने के कारण हमने समझा कि आचार्य मारे गये। तब दुर्योधन ने अपनी सेना को आज्ञा दी कि ‘ जैसे बने, वैसे पाण्डवों की सेना को रोको।‘ यह सुनकर आपका पुत्र दुर्मर्षण भीमसेन को देखकर उनके प्राणों का प्यासा होकर बाण बरसाता हुआ उनके आगे आया। उसने अपने बाणों से भीमसेन को ढक दिया और भीमसेन ने उसे बाणों से घायल कर दिया। इस प्रकार दोनों का भीषण युद्ध होने लगा। स्वामी की आज्ञा पाकर कौरवपक्ष के सभी बुद्धिमान और शूरवीर योद्धा अपने राज्य और प्राण का,भय छोड़कर शत्रुओं के सामने आकर डट गये। इस समय शूरवीर सात्यकि द्रोणाचार्यजी को पकड़ने के लिये आ रहा था; उसे कृतवर्मा ने रोका। क्षत्रवर्मा भी आचार्य की ओर बढ़ ही रहा था; उसे जयद्रथ ने अपने तीखे बाणों से रोक लिया। इस पर क्षत्रवर्मा ने कुपित होकर जयद्रथ के धनुष और ध्वजा को काट डाला और दस नाराचों से उसके मर्मस्थानों पर आघात किया। इस पर जयद्रथ ने दूसरा धनुष लेकर क्षत्रवर्मा पर बाणों की बौछार आरम्भ कर दी।महारथी युयुत्सु भी द्रोणाचार्यजी के पास पहुँचने के ही प्रयत्न में था। उसे सुबाहु ने रोका। किंतु युयुत्सु ने दो क्षुरप्र बाणों से सुबाहु की दोनों भुजाएँ काट डालीं। धर्मप्राण युधिष्ठिर की गति मद्रराज शल्य ने रोक ली। धर्मराज ने शल्य पर अनेकों मर्मभेदी बाण छोड़े तथा मद्रनरेश ने भी उन्हें चौंसठ बाणों से घायल करके बड़ी गर्जना की। तब युधिष्ठिर ने दो बाणों से उनके धनुष और ध्वजा को काट डाला। इसी प्रकार अपनी सेना के सहित राजा द्रुपद भी द्रोण की ओर बढ़ ही रहे थे। उन्हें राजा बाह्लीक उनकी सेना ने बाण बरसाकर रोक दिया। उन दोनों वृद्ध राजाओं का और उनकी सेनाओं का बड़ा घमासान युद्ध हुआ। अवन्तिनरेश विन्द और अनुविन्द ने अपनी सेना लेकर मत्स्यराज विराट और उनकी सेना पर धावा किया। उनका भी देवासुर_संग्राम के समान बड़ा घोर युद्ध हुआ। इसी प्रकार मत्स्यवीरों के साथ भी करारी मुठभेंड़ हुई, जिसमें अश्वारोही, गजारोही और रथी___ सभी निर्भयता से लड़ रहे थे।एक ओर नकुल का पुत्र शतानीक भी बाणों की वर्षा करता हुआ आचार्य की ओर बढ़ रहा था। उसे भूतकर्मा ने रोका। तब शतानीक ने अच्छी तरह सान पर चढ़ाये हुए तीन बाणों से भूतकर्मा के सिर और बाहुओं को काट डाला। भीमसेन का पुत्र सुतसोम बाणों की झड़ी लगाता द्रोणाचार्य पर ही आक्रमण करना चाहता था। उसे विविंशति ने रोका। किन्तु सुतसोम ने सीधे निशाने पर लगनेवाले बाणों से अपने चाचा को बींध डाला और स्वयं निश्चल खड़ा रहा। इसी समय भीमरथ ने छः पैने बाणों से शाल्व को और उसके सारथि और घोड़ों सहित यमराज के घर भेज दिया।श्रुतकर्मा भी रथ में चढ़कर द्रोण की ओर ही बढ़ रहा था। उसे चित्रसेन के पुत्र ने रोक लिया। आपके वे दोनों पौत्र एक_दूसरे को मारने की इच्छा से बड़ा घोर युद्ध करने लगे। इसी समय अश्त्थामा ने देखा कि राजा युधिष्ठिर का पुत्र प्रतिविन्ध्य द्रोण को सामने पहुँच चुका है तो उन्होंने उसे बीच में आकर रोक दिया। इस पर कुपित होकर प्रतिविन्ध्य ने  अपने पैने बाणों लो अश्त्थामा को घायल कर दिया। अब द्रौपदी के सभी पुत्र बाणों की वर्षा से अश्त्थामा को आच्छादित करने लगे। अर्जुन के पुत्र श्रुतकीर्ति को दुःशासन के पुत्र ने द्रोण की ओर जाने से रोका। किन्तु वह अपने पिता के समान ही वीर था; उसने अपने तीखे बाणों से उसके धनुष, ध्वजा और सारथि को बींध दिया और स्वयं द्रोण के सामने जा पहुँचा।राजन् ! पटच्चर राक्षस का वध करनेवाला वह वीर दोनों ही सेनाओं में बहुत माना जाता था। उसने लक्ष्मण को रोका। उसने लक्ष्मण के धनुष और ध्वजा को काटकर उस पर बड़ी बाणवर्षा की। द्रुपदपुत्र शिखण्डी को महामति विकर्ण ने रोका। उन पुरुषसिंहों का जो घमासान युद्ध हुआ, उसे देखकर सभी सैनिक वाह_वाह करने लगे। महान् धनुर्धर दुर्मुख ने पुरुजित् को उसकी भौंहों के बीच में बाण मारा। कर्ण ने पाँच केकय भाइयों को रोका। उन्होंने बड़े क्रोध में भरकर कर्ण पर बाण बरसाने आरम्भ कर दिये। कर्ण ने भी उन्हें कई बार अपने बाणजाल से बिलकुल आच्छादित कर दिया। इस प्रकार कर्ण और केकयदेशीय पाँचों राजकुमार आपस की बाणवर्षा से छिपे जाने के कारण अपने घोड़े, सारथि, धवजा और रथों के सहित दीखने भी बन्द हो गये। आपके तीन पुत्र दुर्जय, विजय और जय ने नील, काश्य और जयत्सेन को बढ़ने से रोका। इसी प्रकार क्षेमधूर्ति और बृहत्___ इन दोनों भाइयों ने द्रोण की ओर बढ़ते हुए सात्यकि को अपने तीखे तीरों से घायल कर दिया। उन दोनों के साथ सात्यकि का बड़ा अद्भुत संग्राम हुआ। राजा अम्बष्ठ अकेला ही आचार्य से युद्ध करना चाहता था। उसे चेदिराज ने बाणों की वर्षा करके रोक दिया तब अम्बष्ठ ने एक अस्थिभेदिनी शलाका से चेदिराज को घायल कर दिया। वृष्णिवंशीय वृद्धक्षेम का पुत्र बड़े क्रोध में भरकर जा रहा था। उसे आचार्य कृप ने अपने छोटे_छोटे बाणों से रोक दिया। ये दोनों ही वीर अनेक प्रकार का युद्ध करने में कुशल थे। उस समय जिन लोगों ने इनके हाथ देखे, वे ऐसे तन्मय हो गये कि उन्हें और किसी बात का होश ही नहीं रहा। सोमदत्त के पुत्र भूरिश्रवा ने द्रोण की ओर आते हुए राजा मणिमान् का मुकाबला किया। मणिमान् ने बड़ी फुर्ती से भूरिश्रवा के धनुष, तरकस, ध्वजा, सारथि और छत्र को काटकर रथ के नीचे गिरा दिया। तब भूरिश्रवा ने रथ से कूदकर बड़ी सफाई से तलवार लेकर उसके घोड़े, सारथि, ध्वजा और रथ के सहित काट डाला। फिर वह अपने रथ पर चढ़ गया और दूसरा धनुष लेकर स्वयं ही,घोड़ों रो हाँकता हुआ पाण्डवों की सेना को कुचलने लगा। इसी तरह दुर्जय वार पाण्डवों को आते देखकर उसे महाबली वृषसेन ने अपने बाणों की बौछार से रोक दिया।इसी समय द्रोणाचार्य पर धावा करने के विचार से घतोत्कच गंदा, परिघ, तलवार, पट्टिश, लोहदण्ड, पत्थर, लाठी, भुशुण्डी, प्रास, तोमर, बाण, मूसल, मुद्गर, चक्र, भिन्दीपाल, फरसा, धूल, वायु, अग्नि, जल भस्म, ढेले, तृण और वृक्षादि से सारी सेना को घायल और नष्ट करता तथा इधर_उधर भागता आगे आया। उस पर राक्षसराज अलम्बुष ने तरह_तरह के हथियारों से वार किया। उन राक्षसवीरों का बड़ा घोर युद्ध होने लगा।
इस प्रकार आपकी और पाण्डवों की सेना के रथी, गजारोही, अश्वारोही और पदाति सैनिकों की सैकड़ों काश्मीरी बिछ गयीं। इस समय द्रोण को मरने से बचाने के लिये जैसा युद्ध हुआ, वैसा इससे पहले न तो देखा था और न सुना ही था। राजन् ! वहाँ जहाँ_तहाँ के अनेकों युद्ध हो रहे थे; उसमें कोई घोर था, कोई भयानक था और कोई बड़ा विचित्र था।

Monday 25 June 2018

द्रोणाचार्य द्वारा पाण्डवों का पराभव तथा वृक सत्यजित्, शतानीक,वसुदान और क्षत्रदेव आदि का वध

संजय ने कहा___राजन् !  इस प्रकार संशप्तकों के साथ लड़ने के लिये अर्जुन के चले जाने पर आचार्य द्रोण अपनी सेना की व्यूह_रचना कर युधिष्ठिर को पकड़ने के विचार से युद्धक्षेत्र की ओर चले। महाराज युधिष्ठिर ने आचार्य की सेना का गरुड़व्यूह देखकर उसके मुकाबले में मण्डलार्धव्यूह बनाया। कौरवों के गरुड़व्यूह के मुखस्थान पर महारथी द्रोण थे। शिरःस्थान में भाइयों के सहित राजा दुर्योधन था, नेत्र_स्थान में कृतवर्मा और कृपाचार्य थे। ग्रीवास्थान में भूतशर्मा, क्षेमशर्मा, करकाक्ष तथा कलिंग, सिंहल, पूर्वदेश, शूर, आभीर, दशेरक, शक, यवन, काम्बोज, हंसपथ, शूरसेन, दरद, मद्र और केकय आदि देशों के वीर हथियारों से लैस होकर हाथी, घोड़े, रथ और पदातिसेना को रूप में खड़े थे। दायीं ओर अक्षौहिणी सेना के सहित भूरिश्रवा, शल्य, सोमदत्त और बाह्लीक थे। बायीं ओर अवन्तिनरेश विन्द और अनुविन्द एवं कम्बोजनरेश सुदक्षिण थे। इनके पीछे द्रोणपुत्र अश्त्थामा डटे हुए थे। पृष्ठस्थान में कलिंग, अम्बष्ठ, मगध, पौण्ड्र, मद्र, गंधार, शकुन, पूर्वदेश, पर्वतीय प्रदेश और बसाति आदि देशों के वीर थे। पूँछ की जगह अपने पुत्र तथा जाति और कुटुम्ब के लोगों के सहित भिन्न_भिन्न देशों की सेना लिये कर्ण खड़ा था तथा हृदयस्थान में जयद्रथ, संपाति, ऋषभ, जय, भूमिंजय, वृष, क्रौथ और निषधराज बहुत बड़ी सेना के साथ खड़े थे। इस प्रकार पदाति, अश्वारोही, गजारोही और रथी सेना से आचार्य द्रोण का बनाया हुआ वह गरुड़व्यूह वायु के झकोरों से,उछलते हुए समुद्र के समान जान पड़ता था। इसके मध्यभाग में हाथी पर चढ़े हुए महाराज भगदत्त बालसूर्य के समान सुशोभित हो रहे थे। इस अजेय और अतिमानुष व्यूह को देखकर राजा युधिष्ठिर ने धृष्टधुम्न से कहा, ‘वीर ! आज तुम ऐसा प्रयत्न करो, जिससे मैं द्रोणाचार्यकेे हाथ में न पड़ूँ।‘
धृष्टधुम्न ने कहा___ महाराज ! द्रोणाचार्य कितना ही प्रयत्न करें, वे आपको अपने काबू में नहीं कर सकेंगे। आज उन्हें और उनके अनुयायियों को मैं रोकूँगा। मेरे जीवित रहते आप किसी प्रकार की चिंता न करें। द्रोणाचार्य संग्राम में मुझे किसी प्रकार नहीं जीत सकते।
ऐसा कहकर महाबली धृष्टधुम्न बाणों की वर्षा करता हुआ स्वयं ही द्रोणाचार्य के मुकाबले में,आ गया। यह अपशकुन ( धृष्टधुम्न के हाथ से ही द्रोण का वध होनेवाला था, इसलिये आरम्भ में ही उसका सामने आना उन्हें अपशकुन जान पड़ा ) देखकर आचार्य कुछ खिन्न हो गये। तब आपके पुत्र दुर्मुख ने धृष्टधुम्न को रोका। बस, दोनों वीरों में बड़ा भयंकर युद्ध होने लगा। जिस समय वे दोनों युद्ध में संलग्न थे, द्रोणाचार्य ने अपने बाणों से युधिष्ठिर की सेना को अनेक प्रकार से छिन्न_भिन्न कर दिया। इससे कहीं_कहीं से पाण्डवों का व्यूह टूट गया। अब वह युद्ध पागलों के समान मर्यादाहीन हो गया। उस समय आपस में अपने_पराये का पता नहीं लगता था। इस प्रकार जब बड़ा ही घमासान और भयंकर युद्ध चल रहा था, आचार्य ने सब वीरों को चक्कर में डालकर युधिष्ठिर पर आक्रमण किया। राजा युधिष्ठिर आचार्य को अपने समीप पहुँचा देखकर निर्भयता से बाण बरसाते हुए उनका सामना करने लगे। इसी प्रकार महाबली सत्यजित् उन्हें बचाने के लिये आचार्य का ओर बढ़ा। उसने अपना अस्त्रकौशल दिखाते हुए एक तीखी नोकवाले बाण से आचार्य को घायल कर दिया। फिर पाँच बाण मारकर उनके सारथि को मूर्छित किया, दस बाणों से घोड़ों को घायल कर डाला, दस_दस बाणों से दोनों पार्श्वरक्षकों को बींध दिया और अन्त में उनकी ध्वजा भी काट डाली। तब द्रोण ने दस मर्मभेदी  बाणों से सत्यजित् को घायल करके उसके धनुष_बाण भी काट डाले। सत्यजित् ने तुरंत ही दूसरा धनुष लेकर आचार्य पर तीस बाणों से वार किया। इस प्रकार द्रोण को सत्यजित् के काबू में पड़ा देख पांचालदेशीय वृक ने भी उन पर सौ बाणों की चोट की। यह देख पाण्डवलोग हर्षनाद करने लगे। इसी समय वृक ने अत्यन्त क्रोध में भरकर द्रोण की छाती में साठ बाण मारे। तब आचार्य ने सत्यजित् और वृक के धनुषों को काटकर केवल छः बाणों से वृक को, उसके सारथि और घोड़ों के सहित मार डाला। इस पर सत्यजित् ने दूसरा धनुष लेकर द्रोणाचार्यजी को उनके सारथि और घोड़ों के सहित मार डाला। इस पर सत्यजित् ने दूसरा धनुष लेकर द्रोणाचार्यजी को उनके सारथि और घोड़ों के सहित घायल कर दिया तथा उनकी ध्वजा भी काट डाली। जब सत्यजित् के हाथ से आचार्य बहुत पीड़ित होने लगे तो उन्हें सहन नहीं हुआ और उन्होंने उसे मारने के लिये बाणों की झड़ी लगा दी। उन्होंने उसके घोड़े, ध्वजा, धनुष, मूठ, सारथि और दोनों पार्श्वरक्षकों पर हजारों बाण छोड़े। किन्तु सत्यजित् बार_बार धनुष कट जाने पर आचार्य के सामने डटा ही रहा। युद्धभूमि में उसका ऐसा उत्साह देखकर आचार्य ने एक अर्धचन्द्राकार बाण से उसका सिर उड़ा दिया। उस पांचाल महारथी के मारे जाने पर धर्मराज द्रोणाचार्य के भय से अपने घोड़े को बहुत तेजी से हँकवाकर युद्ध के मैदान से,भाग गये।  अब आचार्य के सामने मत्स्यराज विराट का छोटा भाई शतानीक आया। वह छः तीखे बाणों से सारथि और घोड़ों के सहित द्रोण को बींधकर बड़ी गर्जना करने लगा। फिर उसने उन पर और भी सैकड़ों बाण छोड़े। तब उसे बहुत गरजते देख आचार्य ने बड़ी फुर्ती से एक बाण मारकर उसका कुण्डलमण्डलित मस्तक काट डाला। यह देखकर मत्स्यदेश के सब वीर भागने लगे। इस प्रकार मत्स्यवीरों को जीतकर द्रोणाचार्य ने चेदि, करूष, केकय, पांचाल, संजय और पाण्डववीरों को भी बार_बार परास्त किया। आग जैसे जंगल को जला डालती है, उसी प्रकार क्रोध में भरे हुए आचार्य को सेनाओं का विध्वंस करते देखकर सब संजयवीर काँप उठे। जब युधिष्ठिर आदि ने देखा कि आचार्य हमारी सेनाओं को भस्म किये डालते हैं तो वे उन पर चारों ओर से टूट पड़े। फिर उनमेंसेे शिखण्डी ने पाँच, क्षत्रवर्मा ने बीस, वसुदान मे पाँच, उत्तमौजा ने तीन, क्षत्रदेव ने सात, सात्यकि ने सौ, युधामन्यु ने आठ, युधिष्ठिर ने बारह, धृष्टधुम्न ने दस और चेकितान ने तीन बाणों से उन पर चोट की। तब द्रोण ने सबसे पहले दृढ़सेन को धराशायी किया। फिर नौ बाणों से राजा क्षेम को घायल किया। इससे वह मरकर रथ से नीचे गिर गया। इसके पश्चात् उन्होंने बारह बाणों से शिखण्डी को और बीस से उत्तमौजा को घायल किया तथा एक भल्ल-बाण से वसुदान को यमराज के घर भेज दिया। फिर अस्सी बाणों से क्षत्रवर्मा पर छब्बीस से सुदक्षिण पर वार किया तथा एक भल्ल से क्षत्रदेव को रथ से नीचे गिरा दिया। तदनन्तर चौंसठ बाणों से युधामन्यु और तीस से सात्यकि को बींधकर वे फुर्ती से धर्मराज युधिष्ठिर के सामने आ गये। यह देखकर युधिष्ठिर अपने घोड़ों को तेजी से हँकवाकर युद्धक्षेत्र से भाग गये और अब आचार्य के सामने एक पांचालराजकुमार आकर डट गया। आचार्य ने फौरन ही उसका धनुष काट दिया तथा सारथि और घोड़ों के सहित उसका भी काम तमाम कर दिया। उस राजकुमार के मारे जाने पर सेना में चारों ओर से ‘द्रोण को मारो, द्रोण को मारो’ ऐसा कोलाहल होने लगा। किन्तु उन अत्यन्त क्रोधातुर पांचाल, मत्स्य, केकय, संजय और पाण्डववीरों को द्रोणाचार्य ने घबराहट में डाल दिया। उन्होंने कौरवों से सुरक्षित होकर सात्यकि, चेकितान, धृष्टधुम्न, शिखण्डी, वृद्धक्षेम और चित्रसेन के पुत्र, सेनाविन्दु और सुवर्चा___ इन सभी वीर  और दूसरे राजाओं को युद्ध में परास्त कर दिया तथा आपके पक्ष के योद्धा भी उस महासमर में विजय पाकर सब ओर पाण्डवपक्ष के वीरों को कुचलने लगे।






Tuesday 19 June 2018

अर्जुन के वध के लिये संशप्तक वीरों की प्रतिज्ञा और अर्जुन का उनके साथ युद्ध

संजय ने कहा___ राजन् ! उन दोनों पक्षों की सेनाओं ने अपनी_अपनी योग्यता और सेना को लौटाने के पश्चात् आचार्य द्रोण ने अत्यंत खिन्न होकर बड़े संकोच से दुर्योधन की ओर देखते हुए कहा, ‘मैंने यह पहले ही कहा था कि अर्जुन की उपस्थिति में युधिष्ठिर को देवतालोग भी कैद नहीं कर सकते। आज युद्ध में तुमलोग प्रयत्न करने पर भी अर्जुन ने यह बात करके दिखा दी। मैं जो कुछ कहता हूँ, उसमें शंका मत करना। ये कृष्ण और अर्जुन तो अजेय है। यदि तुम किसी उपाय से अर्जुन को दूर ले जा सको तो महाराज युधिष्ठिर तुम्हारे काबू में आ सकते हैं। कोई वीर उसे युद्ध के लिये ललकारकर दूसरी ओर ले जाय तो वह तो वह उसे परास्त किये बिना कभी नहीं लौटेगा। इस बीच में अर्जुन के न रहने पर तो मैं धृष्टधुम्न के सामने ही सारी सेना को हटाकर युधिष्ठिर को पकड़ लूँगा। अर्जुन के न रहने पर यदि युधिष्ठिर मुझे अपनी ओर आते देखकर युद्ध का मैदान छोड़कर भाग न गये तो उन्हें पकड़ा ही समझो।
आचार्य की यह बात सुनकर त्रिगर्तराज और उनके भाइयों ने कहा, ‘राजन् !  अर्जुन हमें हमेशा नीचा दिखाता रहा है। उन बातों को याद करके हम रात_दिन क्रोध की ज्वाला में जला करते हैं। हमें रात में नींद तक नहीं आती। इससिये यदि सौभाग्यवश वह हमारे सामने आ गया तो हम उसे अलग ले जाकर मार डालेंगे। हम आपसे सच्ची प्रतिज्ञा करके कहते हैं कि ‘अब पृथ्वी में या तो अर्जुन नहीं रहेगा या त्रिगर्त ही नहीं रहेंगे। हमारे इस कथन में कोई फेर_फार नहीं हो सकता।‘राजन् ! सत्यरथ, सत्यवर्मा, सत्यव्रत, सत्येषु और सत्यवर्मा___ ये पाँचों भाई ऐसी प्रतिज्ञा कर दस हजार रथी सैनिकों को लेकर वहाँ से चल दिये। इसी तरह तीस हजार रथों के सहित मालव और तुण्डिकेर वीर तथा दस हजार रथी और मावेल्लक, ललित्थ एवं मद्रकवीरों को लेकर अपने भाइयों के सहित त्रिगर्तदेशीय प्रस्थलेश्वर सुशर्मा भी रणक्षेत्र को चला। इसके बाद भिन्न_भिन्न देशों के दस हजार चुने हुए रथी भी शपथ करने के लिये आगे आये। उन्होंने सब लोगों को सुनाते हुए उच्च स्वर से कहा, ‘यदि हम संग्रामभूमि में अर्जुन को न मारकर उसके हाथ से पीड़ित होने पर पीठ दिखाकर लौट आवें तो ब्रह्मघाती, ब्राह्मणों का धन चुरानेवाले, राजा का धन हरनेवाले, शरणागत की उपेक्षा करनेवाले, घर में आग लगानेवाले, गोहत्यारे, अपकारी, ब्राह्मणद्रोही, श्राद्ध के दिन भी मैथुन करनेवाले, प्रतिज्ञा भंगकरनेवाले, नपुंसक से युद्ध करनेवाले, नीच पुरुषों का अनुसरण करनेवाले, नास्तिक, माता_पिता और अग्नियों को त्याग देनेवाले तथा अनेक प्रकार के पाप करनेवाले पुरुषों को जो लोक मिलते हैं, वे ही हमें भी प्राप्त हों और यदि हम संग्रामभूमि में अर्जुन का वधरूप दुष्कर कर्म कर लें तो निःसंदेह इष्टलोक प्राप्त करें।‘ राजन् ! ऐसा कहकर वे युद्ध के लिये अर्जुन को ललकारते हुए दक्षिण की ओर चल दिये। उन वीरों के पुकारने पर अर्जुन ने उसी समय धर्मराज युधिष्ठिर से कहा, ‘महाराज ! मेरा यह नियम है कि पुकारे जाने पर मैं पीछे कदम नहीं रखता और इस समय संशप्तक योद्धा मुझे युद्ध के लिये ललकार रहे हैं। देखिये अपने भाइयों के सहित यह सुशर्मा मुझे युद्ध के लिये चुनौती दे रहा है। इसलिये आप मुझे सेना के सहित इसका संहार करने का आदेश दीजिये। मैं इनकी इस चुनौती को सह नहीं सकता। आप सच मानें कि, ये सब मरने ही वाले हैं। युधिष्ठिर ने कहा___भैया ! द्रोण ने जो प्रतिज्ञा की है, वह तुम सुन ही चुके हो। अब तुम वही उपाय करो, जिससे वह पूरी न होने पावे। द्रोणाचार्य बलवान और शूरवीर हैं, वे शस्त्रविद्या में भी पारंगत हैं तथा युद्ध में परिश्रम को तो वे कुछ भी नहीं समझते। उन्होंने मुझे पकड़ने की प्रतिज्ञा की है।
इसपर अर्जुन ने कहा___राजन् ! आज यह सत्यजित् संग्राम में आपकी रक्षा करेगा। इस पांचालराजकुमार के रहते आचार्य अपना मनोरथ पूर्ण नहीं कर सकेंगे। यह पुरुषसिंह युद्ध में काम आ जाय तो सब वीरों के आसपास रहने पर भी आप संग्रामभूमि में किसी प्रकार न टिके। तब महाराज युधिष्ठिर ने अर्जुन को जाने की आज्ञा दी, उन्हें गले लगाया और प्रेमभरी दृष्टि से देखकर आशीर्वाद दिया। इस प्रकार उनसे विदा होकर अर्जुन त्रिगर्तों की ओर चले। अर्जुन के चले जाने से दुर्योधन की सेना को बड़ा हर्ष हुआ और वह बड़े उत्साह से महाराज युधिष्ठिर को पकड़ने का उद्योग करने लगी। फिर वे दोनों सेनाएँ वर्षाकाल में उमड़ी हुई गंगा_यमुना के समान आपस में भिड़ गयीं। संशप्तकों ने एक चौरस मैदान में अपने रथों को चन्द्राकार खड़ा करके मोर्चा जमाया। जब उन्होंने अर्जुन को अपनी ओर आते देखा, तो वे हर्ष में भरकर बड़े ऊँचे स्वर से कोलाहल करने लगे। वह शब्द संपूर्ण दिशा_विदिशा और आकाश में फैल गया। उन्हें अत्यन्त आह्लादित देखकर अर्जुन ने कुछ मुस्कराकर श्रीकृष्ण से कहा, ‘देवकीनन्दन ! आज इन मरणासन्न त्रिगर्तवीरों को देखिये, ये रोने के समय खुशी मनाने चले हैं।‘ श्रीकृष्ण से इतना कहकर महाबाहु अर्जुन त्रिगर्तों की व्यूहबद्ध सेना के समीप पहुँचे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने अपना देवदत्त शंख बजाकर उसके गंभीर शब्द से सारी दिशाओं को गुँजा दिया। उस शब्द से भयभीत होकर संशप्तकों की सेना पत्थर की तरह निश्चेष्ट हो गयी। उनके घोडों की आँखें फट गयीं, कान और केश खड़े हो गये, पैर सुन्न हो गये और बहुत_सा खून उगलने और मूत्र त्यागने लगे। थोड़ी देर में उन्हें चेत हुआ तो उन्होंने सेना को संभालकर एक साथ ही अर्जुन पर बहुत_से बाण छोड़े। किन्तु अर्जुन ने अपने दस_पाँच बाणों से ही उन हजारों बाणों को बीच में ही काट डाला। फिर उन्होंने अर्जुन पर दस_दस बाण छोड़े और अर्जुन ने उनमें ये प्रत्येक को तीन_तीन बाणों से घायल किया। इसके पश्चात् उन्होंने अर्जुन को पाँच_पाँच  बाणों से घायल किया। इसके पश्चात् उन्होंने अर्जुन को पाँच_पाँच बाणों ले बींधा और पराक्रमी अर्जुन ने उन्हें दो_दो बाणों से बींधकर जवाब दिया।
अब सुबाहु ने तीस बाणों से अर्जुन के मुकुट पर वार किया। इस पर अर्जुन ने एक बाण से समर्थ के दास्ताने को काट दिया और फिर बाणों की वर्षा करके उसे मानो बिलकुल ढक दिया। अब सुशर्मा, समर्थ, सुधर्मा, सुधन्वा और सुबाहु ने उन पर दस_दस बाणों ले चोट की। उन बाणों को अर्जुन ने अलग_अलग काट डाला तथा इनकी ध्वजाओं को भी काटकर गिरा दिया। फिर उन्होंने सुधन्वा के धनुष को काटकर उसके,घोड़ों को भी मार गिराया तथा उसका शीर्षत्राण_सुशोभित सिर भी काटकर धर से अलग कर दिया। वीर सुधन्वा के मारे जाने से उनके सब अनुयायी डर गये और अत्यन्त भयभीत होकर दुर्योधन की सेना की ओर भागने लगे। अर्जुन अपने पैने बाणों से त्रिगर्तों को नष्ट कर रहे थे। इसलिये वे मृगों की तरह डरकर जहाँ_के_तहाँ अचेत हो जाते थे। तब त्रिगर्तराज ने क्रोध में भरकर अपने महारथियों से कहा, ‘ शूरवीरों ! बस भागना बंद करो; डरो मत। तुमने सारी सेना के सामने कठोर प्रतिज्ञा की है। अब भला, दुर्योधन की सेना के पास इसी मुख से क्या कहोगे ? संग्राम में ऐसी करतूत करने पर भला, संसार में तुम्हारी हँसी क्यों न होगी ? इसलिये लौटो, हम सब मिलकर अपनी शक्ति के अनुसार पराक्रम करें।‘  राजा के ऐसा रहने पर वे वीर परस्पर हर्ष प्रकट करते हुए शंखध्वनि और कोलाहल करने लगे। फिर वे संशप्तक और नारायणसंज्ञक जोर मरने पर भी पीछे न हटने का निश्चय करके मैदान में आ गये। संशप्तकों को फिर लौटा हुआ देखकर अर्जुन ने,भगवान् श्रीकृष्ण ले कहा, ‘हृषिकेश ! घोड़ों को फिर संशप्तकों की ओर ले चलिये। मालूम होता है, ये शरीर में प्राण रहते युद्ध का मैदान नहीं छोड़ेंगे। आज आप मेरा अस्त्रबल और धनुष तथा भुजाओं का पराक्रम देखिये। भगवान् शंकर जैसे प्राणियों का संहार करते हैं, उसी प्रकार आज मैं इन्हें धराशायी कर दूँगा।‘ अब नारायणी सेना के वीरों ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर अर्जुन को चारों ओर से बाणजाल से घेर दिया और एक क्षण में ही श्रीकृष्ण के सहित अर्जुन को अदृश्य सा कर दिया। इससे अर्जुन की क्रोधाग्नि भड़क गयी। उन्होंने गाण्डीव धनुष संभालकर शंखध्वनि की और उन पर विश्वकर्मास्त्र छोड़ा। उससे अर्जुन और श्रीकृष्ण के अलग_अलग हजारों रूप प्रकट हो गये। अपने प्रतिद्वंद्वियों के उन अनेकों रूपों को देखकर नारायणीसेना के वीर बड़े चक्कर में पड़े और एक_दूसरे को अर्जुन समझकर ‘यह अर्जुन है, यह कृष्ण है' ऐसा कहकर आपस में मार_धाड़ करने लगे। इस प्रकार इस दिव्य अस्त्र की माया में फँसकर वे आपस में ही लड़कर मर गये। उनके छोड़े हुए हजारों बाणों को भस्म करके वह अस्त्र उन सभी को यमलोक में ले गया। अब अर्जुन हँसकर अपने बाणों से ललित्थ, मालव, मावेल्लक और त्रिगर्तवीरों को पीड़ित करना आरम्भ किया। तब काल की प्रेरणा से उन क्षत्रिय वीरों ने भी अर्जुन पर अनेक प्रकार के बाण छोड़े। उनकी भीषण बाणवर्षा सो बिलकुल ढक जाने के कारण वहाँ न अर्जुन दिखायी देते थे और न रथ या श्रीकृष्ण ही दीख रहे थे। इस प्रकार अपना लक्ष्य सिद्ध हुआ समझकर वे वीर बड़े हर्ष से कहने लगे कि श्रीकृष्ण और अर्जुन मारे गये तथा हजारोंभेेरी, मृदंग और शंख बजाकर भीषण सिंहनाद भी करने लगे। इसी समय श्रीकृष्ण ने पुकारकर कहा, ‘अर्जुन ! तुम कहाँ हो।‘ श्रीकृष्ण का यह वाक्य सुनकर अर्जुन ने बड़ी फुर्ती से वायव्यास्त्र छोड़ा। उससे उनकी बाणवर्षा छिन्न_भिन्न हो गयी तथा वायुदेव संशप्तक वीरों को भी उनके घोड़े, हाथी और रथों के सहित सूखे पत्तों के समान उड़ा लो गये। इस प्रकार व्याकुल करके उन्होंने हजारों संशप्तकों को अपने पैने बाणों से मार डाला। प्रलयकाल में जैसे भगवान् रुद्र की संहारलीला होती है, उसी प्रकार इस समय संग्रामभूमि में अर्जुन बड़ा ही बीभत्स और भीषण काण्ड कर रहे थे। अर्जुन की मार से व्याकुल होकर त्रिगर्तों के हाथी, घोड़े और रथ उन्हीं की ओर दौड़ते थे और फिर संग्रामभूमि में गिरकर इन्द्र के अतिथि हो जाते थे। इस प्रकार वह सारी भूमि मरे हुए महारथियों के कारण सब ओर लोथों से भर गयी।