Tuesday 1 September 2015

वनपर्व---राजा मान्धाता का जन्मवृतान्त

राजा मान्धाता का जन्मवृतान्त


  युधिष्ठिर ने पूछा---ब्रह्मन् ! राजा युवनाश्र्व के पुत्र नृपश्रेष्ठ मान्धाता तीनों लोकों में विख्यात थे। उनका जन्म किस प्रकार हुआ था ?
  लोमशजी बोले---राजा युवनाश्र्व इक्ष्वासुवंश में उत्पन्न हुआ था। उसने एक सहस्त्र अश्वमेघ यज्ञ करके और भी बहुत से यज्ञ किये और उन सभी में बहुत बड़ी-बड़ी दक्षिणाएँ दीं। अपने मंत्रियों पर राज्य का भार छोड़कर उस मनस्वी राजा ने मनोनिग्रह करते हुए वन में ही रहना आरंभ कर दिया।एक बार महर्षि भृगु के पुत्र ने उससे पुत्र प्रप्ति के लिये यज्ञ कराया। रात्रि के समय उपवास से गला सूख जाने के कारण राजा को बड़ी प्यास लगी। उसने आश्रम के भीतर जाकर जल माँगा। किन्तु सबलोगरात्रि के जागरण से थककर ऐसी गाढ़ निद्रा में पड़े थे कि किसी ने उसकी आवाज न सुनी। महर्षि ने मंत्रपूत जल का एक बड़ा कलश रख छोड़ा था। उसे देखकर राजा ने जल्दी से उसी में से कुछ जल पीकर अपनी प्यास बुझाई और उसे वहीं छोड़ दिया। कुछ देर में तपधन भृगुपुत्र सहित सब मुनिजन उठे और उन सभी ने उस घड़े को जलसे खाली देखा। तब उन भी ने आपस में मिलकर पूछा कि यह किसका काम है। इसपर युवनाश्र्व ने सच-सच कह दिया कि 'मेरा' है।' यह सुनकर भृगुपुत्र ने कहा, राजन् ! यह काम अच्छा नहीं हुआ। तुम्हारे एक महान् बलवान् और पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हो---इसी के उद्देश्य से मैने यह जल अभिमंत्रित करके रखा था। अब जो हो गया, उसे पलटा भी नहीं जा सकता। अवश्य ही जो कुछ हुआ है, वह दैव की प्रेरणा से हुआ है। तुमने प्यास से व्याकुल होकर मंत्रपूत जल पीया है, इसलिये तुम्ही को एक पुत्र प्रसव करना होगा।' ऐसा कहकर मुनि अपने-अपने स्थानों को चले गये। फिर सौ वर्ष बीतने पर राजा की बायीं कोख फाड़कर एक सूर्य के समान अत्यन्त तेजस्वी बालक निकला। ऐसा होने पर भी यह बड़ा आश्चर्य सा हुआ कि राजा की मृत्यु नहीं हुई। उस बालक को देखने के लिये स्वयं देवराज इन्द्र उस स्थान पर आये। उनसे देवताओं ने पूछा 'किं धास्यति' यह बालक क्या पीयेगा ? इसपर इन्द्र ने उसके मुखमें अपनी तर्जनी देकर कहा, मां धाता (मेरी अँगुली पियेगा)।' इसी से देवताओं ने उसका नाम मान्धाता रखा। फिर उसके ध्यान करते ही धनुर्वेद के सहित संपूर्ण वेद और दिव्य अस्त्र उसके पास उपस्थित हो गये।साथ ही आजगव नाम का धनुष, सींगों के बने हुए बाण और अभेद कवच भी आ गये। इसके पश्चात् स्वयं इन्द्र ने ही उसका राज्यसिंहासन पर अभिषेक किया। राजा मान्धाता सूर्य के समान तेजस्वी था। इस परम पवित्र कुरुक्षेत्र प्रदेश में यह उसी का यज्ञ करने का स्थान है। राजन् ! इसी क्षेत्र में पहले प्रजापति ने एक हजार वर्ष में संपूर्ण होनेवाला इष्टीकृत नाम का याग किया था।यहीं पर राजा नाभाग के पुत्र राजा अम्बरीष ने यमुनाजी के तट पर यज्ञ के सदस्यों को दस पद्म गौएँ दान की थी तथा अनेकों यज्ञ और तपस्या करके सिद्धि प्राप्त की थी।यह देश नहुष के पुत्र पुण्यकर्मा राजा ययाति का है। यहाँ राजा ययाति ने अनेकों यज्ञ किये थे। इसी जगह महाराज भरत ने भी अश्वमेध यज्ञ करके घोड़ा छोड़ा था। राजा मरुत ने भी मुनिवर संवर्त की अध्यक्षता में इसी क्षेत्र में यज्ञ किया था। जो पुरुष इस तीर्थ में आचमन करता है वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। महर्षि लोमश की बात सुनकर भाइयों के सहित धर्मराज युधिष्ठिर ने स्नान किया।स्नान कर चुकने पर उन्होंने लोमशजी से कहा, 'हे सत्यपराक्रमी मुनिवर ! देखिये, इस तप के प्रभाव से मुझे सब लोक दिखाई दे रहे हैं। मैं यहीं से श्वेत घोड़े पर चढ़े हुए अर्जुन को देख रहा हूँ।' लोमशजी ने कहा, 'महाबाहो ! तुम्हारा कथन ठीक है। महर्षिगण इसी प्रकार स्वर्ग का दर्शन किया करते हैं।
देखो, यह परम पवित्र सरस्वती नदी है। इसमें स्नान करने से पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाता है। वह चारों ओर पाँच-पाँच कोस की विस्तारवाली प्रजापति ब्रह्मा की वेदी है। यहीं महात्मा कुरु का क्षेत्र है जो कुरुक्षेत्र नाम से विख्यात है।

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