Monday 28 September 2015

वनपर्व---जटासुर वध

जटासुर वध


दैवयोग से एक समय धर्मराज के पास एक राक्षस आया और 'मैं समस्त शास्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ और मन्त्रविद्या में कुशल विद्वान हूँ।' ऐसा कहकर वह सर्वदा पाण्डवों के धनुष और तरकस तथा द्रौपदी को उड़ा ले जाने की ताक में उन्हीं के पास रहने लगा। उस दुष्ट का नाम जटासुर था। एक समय भीमसेन वन में गये हुए थे तथा लोमशादि महर्षिगण स्नान करने चले गये थे। उस समय जटासुर भयानक रूप धारण कर तीनों पाण्डव, द्रौपदी और सारे अस्त्रों को उठा ले चला। उनमं से सहदेव किसी प्रकार पराक्रम  करके छूट गये और राक्षस से अपनी कौशिकी नाम की तलवार छीनकर जिस ओर भीमसेन गये थे, उस ओर आवाज लगाने लगे। फिर जिन्हें राक्षस हरे लिये जाता था, उन धर्मराज युधिष्ठिर ने उस से कहा, 'रे मूर्ख ! इस प्रकार चोरी करने से तो तेरे धर्म का नाश होता है, तू इसका कुछ भी विचार नहीं करता। तुझे सब प्रकार धर्म का विचार करके ही काम करना चाहिये। प्रामाणिक प्राणियों को गुरु, मित्र और  विश्वास करनेवालों से तथा जिसका अन्न खाया हो तथा जिन्होंने आश्रय दिया हो,उससे द्रोह नहीं करना चाहिये। तू हमारे यहाँ बड़े सम्मान से सुखपूर्वक रहा है। अरे दुर्बुद्धि ! हमारा अन्न खाकर तू हमें ही कैसे हरना चाहता है ? इस प्रकार तो तेरा आचार, आयु और बुद्धि---सभी निष्फल हो गये। अरे राक्षस ! आज तूने इस मानवी का स्पर्श क्या किया है मानो घड़े में रखे विष को ही हिलाकर पिया है।' ऐसा कहकर युधिष्ठिर उसके लिये भारी हो गये, उनके भार से दबकर उसकी गति उतनी तेज नहीं रही। तब धर्मराज ने नकुल और द्रौपदी से कहा, तुम इस मूढ़ राक्षस से डरो मत, 'मैने इसकी गति को कुण्ठित कर दिया है। यहाँ से थोड़ी दूर महाबाहु भीमसेन होगा। बस, वह आता ही होगा, फिर इस राक्षस का कहीं नाम निशान भी नहीं रहेगा।' तदनन्तर उस मूढ़बुद्धि राक्षस को देखकर सहदेव ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा, 'राजन् ! यह देश और काल ऐसा है कि हम इससे युद्ध करें। यदि इस युद्ध में इसे मार डालें तो विजय पावेंगे और यदि हम ही मारे गये तो सद्गति प्राप्त करेंगे।' फिर उन्होंने राक्षस को ललकारते हुए कहा, 'अरे ओ राक्षस ! जरा खड़ा रह। तू या तो मुझे मारकर द्रौपदी को ले जाना, नहीं तो मेरे हाथ से मारा जाकर अभी यहाँ शयन करेगा।' माद्रीकुमार सहदेव ऐसा कह ही रहे थे कि अकस्मात् वज्रधारी इन्द्र के समान गदाधारी भीमसेन दिखाई दिये। उन्होंने देखा कि राक्षस उनके भाइयों और द्रौपदी को लिये जाता है। यह देखकर से क्रोध से भर गये और उस राक्षस से बोले, "रे पापी ! मैने तो तुझे पहले ही शस्त्रों की परीक्षा करते समय पहचान लिया था। परन्तु तू हमारे यहाँ मनुषय-वेष में रहता था, इसलिये मैं तुझे कैसे मारता ? 'यह राक्षस है' ऐसा जान लिया जाय तो भी बिना अपराध के मारना उचित नहीं है और जो बिना अपराध के मारता है, वह नरक में जाता है। मालूम होता है आज तेरी मौत आ गई है, इसी से तुझे ऐसी कुबुद्धि उपजी है। अवश्य अद्भुतकर्मा काल ने तुझे कृष्णा को हरण करने की बात सुझाय है। अब तू जहाँ जाना चाहता है, वहाँ नहीं जा सकता ; बल्कि तुझे बक और हिडिम्ब के रास्ते से जाना होगा। भीमसेन के ऐसा कहने पर काल की प्रेरणा से वह राक्षस डर गया और उन सबको छोड़कर वह युद्ध करने के लिये तैयार हो गया। क्रोध से उसके होंठ काँपने लगे और उसने भीमसेन से कहा, 'अरे पापी ! तुमने जिन-जिन राक्षसों को युद्ध में मारा है, उनके नाम मैने सुने हैं; आज तेरे ही खून से मैं उसका तर्पण करूँगा।' फिर उन दोनो में बड़ा भयंकर बाहुयुद्ध होने लगा। तब दोनो माद्रीकुमार भी क्रोध से भरकर उसपर टूट पड़े। परंतु भीमसेन ने हँसकर उन्हें रोक दिया और कहा कि 'मैं अकेला ही इसके लिये बहुत हूँ, तुम अलग रहकर हमारा युद्ध देखो।' बस, वे दोनो वीर आपस में होड़ बंदकर बाह्य-युद्ध करने लगे। जैसे देव और दानव एक-दूसरे की बुद्धि सहन न होने से भिड़ जाते हैं, उसी प्रकार भीमसेन और जटासुर भी एक-दूसरे पर चोट करने लगे। दोनो में वृक्षयुद्ध होने लगा जिससे वहाँ के अनेकों वृक्ष उजड़ गये। फिर उन्होंने वज्र के समान वेगवाली शिलाओं से लड़ना आरंभ किया। अन्त में वे आपस में एक-दूसरे पर घूसों की वर्षा करने लगे। इसी समय भीमसेन ने जटासुर की गर्दन पर बड़े वेग से मुक्का मारा। उससे वह राक्षस बहुत ढ़ीला पड़ गया। उसे थका हुआ देख भीमसेन ने पृथ्वी पर दे मारा और उसके सारे अंग चूर-चूर कर दिये। फिर कोहनी की चोटसे उसका सिर धर से अलग कर दिया। इस प्रकार उस राक्षस का वधकर भीमसेन युधिष्ठिर के पास आये। उस समय मरुद्गण जैसे इन्द्र की सतुति करते हैं उसी प्रकार विद्वान लोग भीमसेन की प्रशंसा करने लगे।


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