Thursday 10 September 2015

वनपर्व---अष्टावक्र के जन्म और शास्त्रास्त्र का वृतांत

अष्टावक्र के जन्म और शास्त्रास्त्र का वृतांत

मुनिवर लोमश कहते हैं---राजन् ! उद्दालक के पुत्र श्र्वेतकेतु इस पृथ्वीभर में मंत्रशास्त्र में पारंगत समझे जाते थे। यह निरंतर फल-फूलों से सम्पन्न रहनेवाला आश्रम उन्हीं का है। आप इनके दर्शन कीजिये। इस आश्रममें महर्षि श्र्वेतकेतु को मानवी के रूपमें साक्षात् सरस्वती देवी के दर्शन हुए थे। लोमशजी ने कहा---उद्दालक मुनि का कहोड नाम से प्रसिद्ध एक शिष्य था। उसने अपने गुरुदेव की बड़ी सेवा की। इससे प्रसन्न होकर उन्होंने बहुत जल्द सब वेद पढ़ा दिये और अपनी कन्या सुजाता भी उससे विवाह दी। कुछ काल बीतने पर सुजाता गर्भवती हुई। वह गर्भ अग्नि के समान तेजस्वी था। एक दिन कहोड वेदपाठ कर रहे थे,उस समय वह बोला, 'पिताजी ! आप रातभर वेदपाठ करते हैं, कन्तु यह ठीक-ठीक नहीं होता।' शिष्यों के बीच में ही इस प्रकार आक्षेप करने से पिता को बहुत क्रोध हुआ और उन्होंने उस उदरस्त बालक को शाप दिया कि पेट में से ही ऐसी टेढ़ी-टेढ़ी बातें करता है, इसलिये आठ जगह से टेढ़ा उत्पन्न होगा। जब अष्टावक्र पेट में बढ़ने लगे तो सुजाता को बड़ी पीड़ा हुई और उसने एकान्त में अपने धनहीन पति से धन लाने के लिये प्रार्थना की। कहोड धन लेने के लिये राजा जनक के पास गये, किन्तु वहाँ वाद करने में कुशल बन्दी ने उन्हें शास्त्रार्थ में हरा दिया और शास्त्रार्थ के नियम के अनुसार उन्हें जल में डुबो दिया गया। जब उदालक को यह समाचार विदित हुआ तो उन्होंने सुजाता के पास जाकर उसे सब बात सुना दी और कहा कि तू अष्टावक्र से इसके विषय में कुछ मत कहना। इसी से उत्पन्न होने के पश्चात् अष्टावक्र को इसका कुछ पता न लगा। वे उद्दालक को ही अपना पिता समझते थे और उनके पुत्र श्र्वेतकेतु को अपना भाई मानते थे। एक दिन जब अष्टावक्र की आयु बारह वर्ष की थी, वे की गोदमें बैठे थे। उसी समय वहाँ श्र्वेतकेतु आये और उन्हें पिता की गोद में से खींचकर कहा, 'यह गोदी तेरे बाप की नहीं है।' श्र्वेतकेतु की इस कटुक्ति से उनके चित् पर बड़ी चोट लगी और उन्होंने घर जाकर अपनी माता से पूछा कि 'मेरे पिता कहाँ गये हैं?' इससे सुजाता को बड़ी घबराहट हुई और उसने शाप के भय से सब बात बता दी। यह सब रहस्य सुनकर अष्टावक्र ने रात्रि के समय श्र्वेतकेतु से मिलकर यह सलाह की कि 'हम दोनो राजा जनक के यज्ञ में चलें। वह यज्ञ बड़ा विचित्र सुना जाता है। वहाँ हम ब्राह्मणों के बड़े-बड़े शास्त्रास्त्र सुनेंगे।' ऐसी सलाह करके वे दोनो मामा-भानजे राजा जनक के समृद्धिसम्पन्न यज्ञ के लिये चल दिये। यज्ञशाला के द्वार पर पहुँचकर जब वे भीतर जाने लगे तो उनसे द्वारपाल ने कहा---आपलोगों को प्रणाम है। हम तो आज्ञा का पालन करनेवाले हैं, राजा के आज्ञानुसार हमारा जो निवेदन है, उसपर आप ध्यान दें। इस यज्ञशाला में बालकों को जाने की आज्ञा नहीं है, केवल वृद्ध और विद्वान् ही इसमें प्रवेश कर सकते हैं। तब अष्टावक्र ने कहा---द्वारपाल ! मनुष्य अधिक वर्षों की उम्र होने से, बाल पक जाने से, धन से अथवा अधिक कुटुम्ब से बड़ा नहीं माना जाता। मैं इस राजसभा में बन्दी से मिलना चाहता हूँ। तुम मेरी ओर से यह सूचना महाराज को दे दो। आज तुम हमें विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ करते देखोगे तो वाद बढ़ जाने पर बन्दी को परास्त हुआ पाओगे। द्वारपाल बोला---'अच्छा, मैं किसी उपाय से आपको सभा में ले जाने का प्रयत्न करता हूँ, किन्तु वहाँ जाकर आपको विद्वानों के योग्य काम करके दिखाना चाहिये।'ऐसा कहकर द्वारपाल उन्हें राजा के पास ले गया। वहाँ अष्टावक्र ने कहा, 'राजन् ! आप जनकवंश में प्रधान स्थान रखते हैंऔर चक्रवर्ती राजा हैं। मैने सुना है, आपके यहाँ बन्दी नाम का कोई विद्वान है। वह सभी को शास्त्रार्थ में परास्त कर देता है और फिर आपहीके आदमियों से उन्हें जल में डलवा देता है। यह बात सुनकर मैं अद्वैत ब्रह्म विषय पर उससे शास्त्रार्थ करने आया हूँ। वह बन्दी कहाँ है, मैं उससे मिलूँगा।' राजा ने कहा---'बन्दी का प्रभाव बहुत से वेदवेत्ता देख चुके हैं। तुुम उसकी शक्ति को न समझकर ही उससे जीतने की आशा कर रहे हो। सूर्य के सामने जैसे तारे फीके पड़ जाते हैं, उसी प्रकार सभी उसके सामने हतप्रभ रह जाते हैं।'इसपर अष्टावक्र ने कहा, 'मेरे जैसों से पाला नहीं पड़ा, इसी से वह सिंहके समान निर्भय होकर बातें करता है। किन्तु अब मुझसे परास्त होकर वह उसी प्रकार मूक हो जायगा,जैसे रास्ते में टूटा हुआ रथ जहाँ-का-तहाँ पड़ा रहता है।' तब राजा ने अष्टावक्र की परीक्षा करने के विचार से कहा---'जो पुरुष तीस अवयव, बारह अंश, चौबीस पर्व और तीन सौ साठ अरोंवाले पदार्थ को जानता है वह बड़ा विद्वान है।' यह सुनकर अष्टावक्र बोले---'जिसमें पक्षरूप चौबीस पर्व, ऋतुरूप छः नाभि, मासरूप बारह अंश और दिनरूप तीन सौ साठ अरे हैं वह निरंतर घूमनेवाला संवत्सररूप कालचक्र आपकी रक्षा करें।' ऐसा यथार्थ उत्तर सुनकर राजा ने ये प्रश्न किये---'सोने के समय कौन नेत्र नहीं मूँदता ? जन्म लेने के बाद किसमें गति नहीं होती ? हृदय किसमें नहीं है ? और वेग से कौन बढ़ता है ?' अष्टावक्र ने कहा, 'मछली सोने के समय नेत्र नहीं मूँदती, अण्डा उत्पन्न होकर भी चेष्टा नहीं करता, पत्थर में हृदय नहीं है और नदी वेग से बढ़ती है।' यह सुनकर राजा ने कहा, 'आप तो देवताओं के समान प्रभाववाले हैं। मैं आपको मनुष्य नहीं समझता।आप बालक भी नहीं हैं। वाद-विवाद करने में आपके समान कोई नहीं है। मैं आपको मण्डप का द्वार सौंपता हूँ और यही वह बन्दी है।' तब अष्टावक्र ने बन्दी की ओर घूमकर कहा---अपने को शास्त्रार्थविजयी माननेवाले बन्दी ! तुमने हारनेवालों को जल में डुबोने का नियम कर रखा है। किन्तु मेरे सामने तुम बोल नहीं सकोगे। अब तुम मेरे प्रश्नों का उत्तर दो और मैं तुम्हारी बातों का उत्तर देता हूँ। जब भरी सभा में अष्टावक्र ने क्रोध के साथ गरजकर इस प्रकार ललकारा तो बन्दी ने कहा---"अष्टावक्र !  एक ही अग्नि अनेक प्रकार से प्रकाशित होता है, एक सूर्य सारे जगत् को प्रकाशित कर रहा है, शत्रुओं को नाश करनेवाला देवराज इन्द्र एक ही वीर है तथा पितरों का ईश्वर यमराज भी एक ही है।" अष्टावक्र---"इन्द्र और अग्नि--ये दो देवता हैं, नारद और पर्वत---ये देवर्षि भी दो हैं, दो ही अश्विनीकुमार हैं, रथ के पहिये भी दो होते हैं और विधाता ने पति और पत्नी---ये सहचर भी दो ही बनाये हैं।" बन्दी---"यह संपूर्ण प्रजा कर्मवश तीन प्रकार से जन्म धारण करती है; सब कर्मों का प्रतिपादन भी तीन वेद ही करते हैं, कर्मानुसार प्राप्त होनेवाले भोगों के लिये स्वर्ग, मृत्यु और नरक---ये लोक भी तीन ही हैं तथा वेद में कर्मजन्य ज्योतियाँ भी तीन प्रकार की ही हैं।" अष्टावक्र---"आश्रम चार हैं, वर्ण भी चार ही यज्ञों द्वारा अपना-अपना निर्वाह करते हैं, मुख्य दिशाएँ भी चार ही हैं और वाणी भी चार प्रकार की कही गयी है।" बन्दी---"यज्ञ की अग्नियाँ पाँच हैं, इन्द्रियाँ भी पाँच हैं, वेद में पंचशिखावाली अप्सराएँ भी पाँच हैं तथा संसार में पवित्र नद भी पाँच ही प्रसिद्ध हैं।" अष्टावक्र---"कालचक्र में ऋतुएँ छः होती हैं, मन सहित ज्ञानेन्द्रियाँ भी छः ही हैं, कृतिकाएँ भी छः ही हैं।" बन्दी---"भाग्य पशु सात हैं, वन्य पशु भी सात ही हैं, ऋषि सात हैं, वीणा के तार भी सात ही हैं।" अष्टावक्र---"तौल करने वाले तोल के गुण आठ होते हैं, सिंह का नाश करने वाले शरभ के चरण भी आठ ही होते हैं,देवताओं में वसु नामक देवता आठ ही हैं।" बन्दी---"सृष्टि में प्रकृति के विभाग नौ किये गये हैं, बृहति छन्द के अक्षर नौ हैं और एक से लेकर अंक भी नौ ही हैं।" अष्टावक्र---" संसार में दिशाएँ दस हैं, सहस्त्र की संख्या भी सौ को दस बार गिनने से होती है, गर्भवती स्त्री भी गर्भधारण दस मास ही करती है।" बन्दी---"पशुओं के शरीरों में ग्यारह विकारोंवाली इन्द्रियाँ ग्यारह होती हैं, यज्ञ के स्तंभ ग्यारह होते हैं,प्राणियों के विकार भी ग्यारह हैं।" अष्टावक्र---" एक वर्ष में महीने बारह होते हैं, प्राकृत यज्ञ बारह दिन का कहा गया है और धीर पुरुषों ने आदित्य भी बारह ही कहे हैं।" बन्दी---" तिथियों में त्रयोदशी को उत्तम कहा गया है। और पृथ्वी भी तेरह द्वीपोंवाली बतलायी गयी है।'…. इस प्रकार बन्दी के आधा श्लोक ही कहकर चुप हो जाने पर अष्टावक्रजी शेष आधे श्लोक को पूरा करते हुए कहने लगे---'अग्नि, वायु और सूर्य---ये तीनों देवता तेरह दिनों के यज्ञों में व्यापक हैं और वेदों में भी तेरह आदि अक्षरों वाले अतिछन्द कहे गये हैं।' इतना सुनते ही बन्दी का मुख नीचा हो गया और वह बड़े विचार में पड़ गया। परन्तु अष्टावक्र के मुख से वाणी की झरी लगी ही रही। अष्टावक्र ने कहा, 'राजन् ! यह बन्दी शास्त्रार्थ में अनेकों विद्वान को परास्त कर जल में डुबवा चुका है। अब इसकी भी तुरंत वही गति होनी चाहिये।'बन्दी ने कहा---'महाराज ! मैं जलाधीश वरुण का पुत्र हूँ। मेरे पिता के यहाँ भी आपकी ही तरह बारह बर्षों में पूर्ण होनेवाला यज्ञ हो रहा है। उसी के लिये मैंने जल में डुबाने के बहाने चुने हुए श्रेष्ठ विद्वानों को वरुणलोक भेज दिया है, वे सभी अभी लौट आवेंगे। अष्टावक्रजी मेरे पूजनीय हैं, इनकी कृपा से जल में डूबकर मैं भी अपने पिता वरुणदेव से शीघ्र मिलने का सौभाग्य प्राप्त करूँगा। राजा को बन्दी की बातों में फँसते देखकर अष्टावक्र कहने लगे---राजन् ! मैं कई बार कह चुका,फिर भी तुम इस चापलूस की बातों में आ गये हो। जनक ने कहा---देव ! मैं आपकी दिव्य वाणी सुन रहा हूँ, आप साक्षात् दिव्य पुरुष हैं। आपने शास्त्रास्त्र में बन्दी को परास्त कर दिया है। मैं आपके इच्छानुसार अभी-अभी इसके दण्ड की व्यवस्था करता हूँ। बन्दी ने कहा---राजन् ! वरुण का पुत्र होने से मुझे डूबने में कुछ भी भय नहीं है। ये अष्टावक्र भी बहुत दिनों से डूबे हुए अपने पिता कहोड का अभी दर्शन करेंगे। राजन् ! उद्दालक के पुत्र श्र्वेतकेतु इस पृथ्वीभर में मंत्रशास्त्र में पारंगत समझे जाते थे। यह निरंतर फल-फूलों से सम्पन्न रहनेवाला आश्रम उन्हीं का है। आप इनके दर्शन कीजिये। इस आश्रममें महर्षि श्र्वेतकेतु को मानवी के रूपमें साक्षात् सरस्वती देवी के दर्शन हुए थे। लोमशजी ने कहा---उद्दालक मुनि का कहोड नाम से प्रसिद्ध एक शिष्य था। उसने अपने गुरुदेव की बड़ी सेवा की। इससे प्रसन्न होकर उन्होंने बहुत जल्द सब वेद पढ़ा दिये और अपनी कन्या सुजाता भी उससे विवाह दी। कुछ काल बीतने पर सुजाता गर्भवती हुई। वह गर्भ अग्नि के समान तेजस्वी था। एक दिन कहोड वेदपाठ कर रहे थे,उस समय वह बोला, 'पिताजी ! आप रातभर वेदपाठ करते हैं, कन्तु यह ठीक-ठीक नहीं होता।' शिष्यों के बीच में ही इस प्रकार आक्षेप करने से पिता को बहुत क्रोध हुआ और उन्होंने उस उदरस्त बालक को शाप दिया कि पेट में से ही ऐसी टेढ़ी-टेढ़ी बातें करता है, इसलिये आठ जगह से टेढ़ा उत्पन्न होगा। जब अष्टावक्र पेट में बढ़ने लगे तो सुजाता को बड़ी पीड़ा हुई और उसने एकान्त में अपने धनहीन पति से धन लाने के लिये प्रार्थना की। कहोड धन लेने के लिये राजा जनक के पास गये, किन्तु वहाँ वाद करने में कुशल बन्दी ने उन्हें शास्त्रार्थ में हरा दिया और शास्त्रार्थ के नियम के अनुसार उन्हें जल में डुबो दिया गया। जब उदालक को यह समाचार विदित हुआ तो उन्होंने सुजाता के पास जाकर उसे सब बात सुना दी और कहा कि तू अष्टावक्र से इसके विषय में कुछ मत कहना। इसी से उत्पन्न होने के पश्चात् अष्टावक्र को इसका कुछ पता न लगा। वे उद्दालक को ही अपना पिता समझते थे और उनके पुत्र श्र्वेतकेतु को अपना भाई मानते थे। एक दिन जब अष्टावक्र की आयु बारह वर्ष की थी, वे की गोदमें बैठे थे। उसी समय वहाँ श्र्वेतकेतु आये और उन्हें पिता की गोद में से खींचकर कहा, 'यह गोदी तेरे बाप की नहीं है।' श्र्वेतकेतु की इस कटुक्ति से उनके चित् पर बड़ी चोट लगी और उन्होंने घर जाकर अपनी माता से पूछा कि 'मेरे पिता कहाँ गये हैं?' इससे सुजाता को बड़ी घबराहट हुई और उसने शाप के भय से सब बात बता दी। यह सब रहस्य सुनकर अष्टावक्र ने रात्रि के समय श्र्वेतकेतु से मिलकर यह सलाह की कि 'हम दोनो राजा जनक के यज्ञ में चलें। वह यज्ञ बड़ा विचित्र सुना जाता है। वहाँ हम ब्राह्मणों के बड़े-बड़े शास्त्रास्त्र सुनेंगे।' ऐसी सलाह करके वे दोनो मामा-भानजे राजा जनक के समृद्धिसम्पन्न यज्ञ के लिये चल दिये। यज्ञशाला के द्वार पर पहुँचकर जब वे भीतर जाने लगे तो उनसे द्वारपाल ने कहा---आपलोगों को प्रणाम है। हम तो आज्ञा का पालन करनेवाले हैं, राजा के आज्ञानुसार हमारा जो निवेदन है, उसपर आप ध्यान दें। इस यज्ञशाला में बालकों को जाने की आज्ञा नहीं है, केवल वृद्ध और विद्वान् ही इसमें प्रवेश कर सकते हैं। तब अष्टावक्र ने कहा---द्वारपाल ! मनुष्य अधिक वर्षों की उम्र होने से, बाल पक जाने से, धन से अथवा अधिक कुटुम्ब से बड़ा नहीं माना जाता। मैं इस राजसभा में बन्दी से मिलना चाहता हूँ। तुम मेरी ओर से यह सूचना महाराज को दे दो। आज तुम हमें विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ करते देखोगे तो वाद बढ़ जाने पर बन्दी को परास्त हुआ पाओगे। द्वारपाल बोला---'अच्छा, मैं किसी उपाय से आपको सभा में ले जाने का प्रयत्न करता हूँ, किन्तु वहाँ जाकर आपको विद्वानों के योग्य काम करके दिखाना चाहिये।'ऐसा कहकर द्वारपाल उन्हें राजा के पास ले गया। वहाँ अष्टावक्र ने कहा, 'राजन् ! आप जनकवंश में प्रधान स्थान रखते हैंऔर चक्रवर्ती राजा हैं। मैने सुना है, आपके यहाँ बन्दी नाम का कोई विद्वान है। वह सभी को शास्त्रार्थ में परास्त कर देता है और फिर आपहीके आदमियों से उन्हें जल में डलवा देता है। यह बात सुनकर मैं अद्वैत ब्रह्म विषय पर उससे शास्त्रार्थ करने आया हूँ। वह बन्दी कहाँ है, मैं उससे मिलूँगा।' राजा ने कहा---'बन्दी का प्रभाव बहुत से वेदवेत्ता देख चुके हैं। तुुम उसकी शक्ति को न समझकर ही उससे जीतने की आशा कर रहे हो। सूर्य के सामने जैसे तारे फीके पड़ जाते हैं, उसी प्रकार सभी उसके सामने हतप्रभ रह जाते हैं।'इसपर अष्टावक्र ने कहा, 'मेरे जैसों से पाला नहीं पड़ा, इसी से वह सिंहके समान निर्भय होकर बातें करता है। किन्तु अब मुझसे परास्त होकर वह उसी प्रकार मूक हो जायगा,जैसे रास्ते में टूटा हुआ रथ जहाँ-का-तहाँ पड़ा रहता है।' तब राजा ने अष्टावक्र की परीक्षा करने के विचार से कहा---'जो पुरुष तीस अवयव, बारह अंश, चौबीस पर्व और तीन सौ साठ अरोंवाले पदार्थ को जानता है वह बड़ा विद्वान है।' यह सुनकर अष्टावक्र बोले---'जिसमें पक्षरूप चौबीस पर्व, ऋतुरूप छः नाभि, मासरूप बारह अंश और दिनरूप तीन सौ साठ अरे हैं वह निरंतर घूमनेवाला संवत्सररूप कालचक्र आपकी रक्षा करें।' ऐसा यथार्थ उत्तर सुनकर राजा ने ये प्रश्न किये---'सोने के समय कौन नेत्र नहीं मूँदता ? जन्म लेने के बाद किसमें गति नहीं होती ? हृदय किसमें नहीं है ? और वेग से कौन बढ़ता है ?' अष्टावक्र ने कहा, 'मछली सोने के समय नेत्र नहीं मूँदती, अण्डा उत्पन्न होकर भी चेष्टा नहीं करता, पत्थर में हृदय नहीं है और नदी वेग से बढ़ती है।' यह सुनकर राजा ने कहा, 'आप तो देवताओं के समान प्रभाववाले हैं। मैं आपको मनुष्य नहीं समझता।आप बालक भी नहीं हैं। वाद-विवाद करने में आपके समान कोई नहीं है। मैं आपको मण्डप का द्वार सौंपता हूँ और यही वह बन्दी है।' तब अष्टावक्र ने बन्दी की ओर घूमकर कहा---अपने को शास्त्रार्थविजयी माननेवाले बन्दी ! तुमने हारनेवालों को जल में डुबोने का नियम कर रखा है। किन्तु मेरे सामने तुम बोल नहीं सकोगे। अब तुम मेरे प्रश्नों का उत्तर दो और मैं तुम्हारी बातों का उत्तर देता हूँ। जब भरी सभा में अष्टावक्र ने क्रोध के साथ गरजकर इस प्रकार ललकारा तो बन्दी ने कहा---"अष्टावक्र !  एक ही अग्नि अनेक प्रकार से प्रकाशित होता है, एक सूर्य सारे जगत् को प्रकाशित कर रहा है, शत्रुओं को नाश करनेवाला देवराज इन्द्र एक ही वीर है तथा पितरों का ईश्वर यमराज भी एक ही है।" अष्टावक्र---"इन्द्र और अग्नि--ये दो देवता हैं, नारद और पर्वत---ये देवर्षि भी दो हैं, दो ही अश्विनीकुमार हैं, रथ के पहिये भी दो होते हैं और विधाता ने पति और पत्नी---ये सहचर भी दो ही बनाये हैं।" बन्दी---"यह संपूर्ण प्रजा कर्मवश तीन प्रकार से जन्म धारण करती है; सब कर्मों का प्रतिपादन भी तीन वेद ही करते हैं, कर्मानुसार प्राप्त होनेवाले भोगों के लिये स्वर्ग, मृत्यु और नरक---ये लोक भी तीन ही हैं तथा वेद में कर्मजन्य ज्योतियाँ भी तीन प्रकार की ही हैं।" अष्टावक्र---"आश्रम चार हैं, वर्ण भी चार ही यज्ञों द्वारा अपना-अपना निर्वाह करते हैं, मुख्य दिशाएँ भी चार ही हैं और वाणी भी चार प्रकार की कही गयी है।" बन्दी---"यज्ञ की अग्नियाँ पाँच हैं, इन्द्रियाँ भी पाँच हैं, वेद में पंचशिखावाली अप्सराएँ भी पाँच हैं तथा संसार में पवित्र नद भी पाँच ही प्रसिद्ध हैं।" अष्टावक्र---"कालचक्र में ऋतुएँ छः होती हैं, मन सहित ज्ञानेन्द्रियाँ भी छः ही हैं, कृतिकाएँ भी छः ही हैं।" बन्दी---"भाग्य पशु सात हैं, वन्य पशु भी सात ही हैं, ऋषि सात हैं, वीणा के तार भी सात ही हैं।" अष्टावक्र---"तौल करने वाले तोल के गुण आठ होते हैं, सिंह का नाश करने वाले शरभ के चरण भी आठ ही होते हैं,देवताओं में वसु नामक देवता आठ ही हैं।" बन्दी---"सृष्टि में प्रकृति के विभाग नौ किये गये हैं, बृहति छन्द के अक्षर नौ हैं और एक से लेकर अंक भी नौ ही हैं।" अष्टावक्र---" संसार में दिशाएँ दस हैं, सहस्त्र की संख्या भी सौ को दस बार गिनने से होती है, गर्भवती स्त्री भी गर्भधारण दस मास ही करती है।" बन्दी---"पशुओं के शरीरों में ग्यारह विकारोंवाली इन्द्रियाँ ग्यारह होती हैं, यज्ञ के स्तंभ ग्यारह होते हैं,प्राणियों के विकार भी ग्यारह हैं।" अष्टावक्र---" एक वर्ष में महीने बारह होते हैं, प्राकृत यज्ञ बारह दिन का कहा गया है और धीर पुरुषों ने आदित्य भी बारह ही कहे हैं।" बन्दी---" तिथियों में त्रयोदशी को उत्तम कहा गया है। और पृथ्वी भी तेरह द्वीपोंवाली बतलायी गयी है।'…. इस प्रकार बन्दी के आधा श्लोक ही कहकर चुप हो जाने पर अष्टावक्रजी शेष आधे श्लोक को पूरा करते हुए कहने लगे---'अग्नि, वायु और सूर्य---ये तीनों देवता तेरह दिनों के यज्ञों में व्यापक हैं और वेदों में भी तेरह आदि अक्षरों वाले अतिछन्द कहे गये हैं।' इतना सुनते ही बन्दी का मुख नीचा हो गया और वह बड़े विचार में पड़ गया। परन्तु अष्टावक्र के मुख से वाणी की झरी लगी ही रही। अष्टावक्र ने कहा, 'राजन् ! यह बन्दी शास्त्रार्थ में अनेकों विद्वान को परास्त कर जल में डुबवा चुका है। अब इसकी भी तुरंत वही गति होनी चाहिये।'बन्दी ने कहा---'महाराज ! मैं जलाधीश वरुण का पुत्र हूँ। मेरे पिता के यहाँ भी आपकी ही तरह बारह बर्षों में पूर्ण होनेवाला यज्ञ हो रहा है। उसी के लिये मैंने जल में डुबाने के बहाने चुने हुए श्रेष्ठ विद्वानों को वरुणलोक भेज दिया है, वे सभी अभी लौट आवेंगे। अष्टावक्रजी मेरे पूजनीय हैं, इनकी कृपा से जल में डूबकर मैं भी अपने पिता वरुणदेव से शीघ्र मिलने का सौभाग्य प्राप्त करूँगा। राजा को बन्दी की बातों में फँसते देखकर अष्टावक्र कहने लगे---राजन् ! मैं कई बार कह चुका,फिर भी तुम इस चापलूस की बातों में आ गये हो। जनक ने कहा---देव ! मैं आपकी दिव्य वाणी सुन रहा हूँ, आप साक्षात् दिव्य पुरुष हैं। आपने शास्त्रास्त्र में बन्दी को परास्त कर दिया है। मैं आपके इच्छानुसार अभी-अभी इसके दण्ड की व्यवस्था करता हूँ। बन्दी ने कहा---राजन् ! वरुण का पुत्र होने से मुझे डूबने में कुछ भी भय नहीं है। ये अष्टावक्र भी बहुत दिनों से डूबे हुए अपने पिता कहोड का अभी दर्शन करेंगे।लोमशजी कहते हैं---सभा में इस प्रकार बातचीत हो ही रही थी कि समुद्र में डुबाये हुए सभी विद्वान वरुणदेव से सम्मानित होकर जल से बाहर निकल आये और राजा जनक की सभा में आ पहुँचे। उनमें से कहोड ने कहा, 'मनुष्य ऐसे ही कामों के लिये पुत्रों के लिये कामना करते हैं। जिस काम को मैं नहीं कर सका था, वही मेरे पुत्र ने करके दिखा दिया। राजन् ! कभी-कभी दुर्बल मनुष्य के भी बलवान् और मूर्ख के भी विद्वान पुत्र उत्पन्न हो जाता है।' इसके पश्चात् बन्दी भी राजा जनक की आज्ञा लेकर समुद्र में कूद पड़ा। तदनन्तर विद्वानों ने अष्टावक्र की पूजा की और अष्टावक्र ने अपने पिता का पूजन किया। फिर अपने मामा श्र्वेतकेतु के सहित वे अपने आश्रम को चले। वहाँ पहुँचकर कहोड ने अष्टावक्र से कहा, 'तुम इस समंगा नदी में प्रवेश करो।' बस, अष्टावक्र ने जैसे ही उसमें डुबकी लगायी कि उसके अंग सीधे हो गये। उनके संसर्ग से यह नदी भी पवित्र हो गयी। जो इस नदी में स्नान करता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है। राजन् ! तुम भी द्रौपदी और भाइयों सहित स्नान और आचमन करने के लिेए इसमें प्रवेश करो।
 


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