कुछ अन्य तीर्थों
का वर्णन एवं राजा उशीनर की कथा
लोमशजी बोले---राजन् ! यह विनशन तीर्थ है। यहाँ सरस्वती नदी
अदृश्य हो जाती है। यह स्थान निषाद देश का द्वार है। यहाँ इस विचार से
कि निषादलोग मुझे न देखें सरस्वती भूमि में समा गयी है। इसके आगे यह चमसोध्देद नाम
का स्थान है, जहाँ सरस्वती फिर प्रकट हो जाती है और इसमें समुद्र में मिलनेवाली सब
पवित्र नदियाँ मिल जाती हैं। यह सिन्धुनदी का बहुत बड़ा तीर्थ-स्थान है, इसी जगह
अगस्त्यजी से समागम होनेपर लोपामुद्रा ने उन्हें पतिरूप से वरण किया था। यह विष्णुपद
नाम का पवित्र तीर्थ दिखाई दे रहा है और यह विपाशा नाम की पवित्र नदी है। यह सबसे पवित्र
काश्मीर मण्डल है। यहाँ अनेकों महर्षि निवास करते हैं। ये यमुना की ओर से आनेवाली जला
और उपजला नाम की नदियाँ हैं। इन्हीं के तट पर यज्ञानुष्ठान करके राजा उशीनर इन्द्र से भी बढ़ गये थे। राजन् ! एक बार इन्द्र
और अग्नि उनकी परीक्षा करने के लिये आये। इन्द्र ने बाज का और अग्नि ने कबूतर का रूप
धारण किया। इस प्रकार वे यज्ञशाला में महाराज उशीनर के पास पहुँचे। तब बाज के भय से
डरकर कबूतर अपनी रक्षा के लिये राजा की गोद में छिप गया। तब बाज ने कहा, राजन् ! समस्त
राजागण केवल आपको ही धर्मात्मा बताते हैं, सो आप यह संपूर्ण धर्मों के विरुद्ध कर्म
कैसे करना चाहते हैं ? मैं भूख से मर रहा हूँ और यह कबूतर मेरा आहार है। आप धर्म के
लोभ से इसकी रक्षा न करें।' राजा ने कहा, 'महापक्षिन् ! यह पक्षी तुमसे डरकर भयभीत
हुआ अपने प्राण बचाने के लिये मेरी शरण में आया है। इसने अभय पाने के लिये ही मेरा
आश्रय लिया है। यदि मैं इसे तुम्हारे चंगुल में न पड़ने दूँ तो इसमें तुम्हे धर्म क्यों
नहीं जान पड़ता ? देखो, यह घबराहट के मारे कैसा काँप रहा है। इसने प्राणों की रक्षा
के लिये ही मेरी शरण ली है। ऐसी स्थिति में इसे त्यागना तो बड़ी बुराई की बात है। जो
पुरुष गौ का वध करता है और जो शरणागत को त्यागता है---उन्हें समान पाप लगता है।' बाज
बोला, 'राजन् ! सब प्राणी आहार से ही उत्पन्न होते हैं और आहार से ही उनकी वृद्धि होती
है तथा आहार से ही वे जीवित रहते हैं। जिस धन को त्यागना अत्यन्त कठिन माना जाता है,
उसके बिना भी मनुष्य बहुत दिनों तक जीवित रह सकता है ; किन्तु भोजन को त्यागकर कोई
भी अधिक सय तक नहीं टिक सकता। आज आपने मुझे भोजन से वंचित कर दिया है, इसलिये मैं जी
नहीं सकूँगा। और जब मैं मर जाऊँगा तो मेरे स्त्री-बच्चे भी नष्ट हो ही जायेंगे। इस
प्रकार आप इस कबूतर को बचाकर आप कई प्राणियों की जान के ग्राहक हो जायेंगे। जो धर्म
दूसरे धर्म का बाधक हो वह धर्म नहीं, कुधर्म ही है ; धर्म तो वही है , जिससे किसी दूसरे
धर्म का विरोध न हो। जहाँ दो धर्म में विरोध हो, वहाँ छोटे-बड़े का विचार कर जिसका किसी
से विरोध न हो, उसी धर्म का आचरण करें। अतः राजन् ! आप भी धर्म और अधर्म के निर्णय
में गौरव और लाघव पर दृष्टि रखकर जिसमें विशेष पण्य हो, उसी धर्म के आचरण का निश्चय
करें। इसपर राजा ने कहा---पक्षिप्रवर
! आप बहुत अच्छी बातें कह रहे हैं, क्या आप साक्षात् पक्षिराज गरुड़ हैं ? इसमें तो
संदेह नहीं, आप धर्म के मर्म को अच्छी तरह समझते हैं। आप जो बातें कह रहे हैं वे बड़ी
ही विचित्र एवं धर्मसम्मत हैं। मैं यह भी देखता हूँ कि ऐसी कोई बात नहीं है, जो आपको
मालूम न हो। किन्तु शरणार्थी के परित्याग
को आप कैसे अच्छा मानते हैं ? पक्षिवर ! आपका यह सारा प्रयत्न आहार के लिये ही जान
पड़ता है, सो आपको आहार तो इससे भी अधिक दिया जाता है। लीजिये, मैं आपको शिबि प्रदेश
का समृद्धिशाली राज्य देता हूँ। किन्तु इस शरण में आये हुए पक्षी को नहीं त्याग सकता।
विहगवर ! जिस काम के करने से इसे आप छोड़ सकें, वह मुझे बताइये।मैं वही करूँगा किन्तु
इस कबूतर को तो नहीं दूँगा। बाज बोला---नृपवर ! यदि
आपका इस कबूतर पर स्नेह है तो इसी के बराबर अपना माँस काटकर तराजू में रखिये। जब वह
तौल में इस कबूतर के बराबर हो जाय तो वही मुझे दे दीजिये। उसी से मेरी तृप्ति हो जायगी। फिर परम धर्मज्ञ उशीनर ने अपना माँस काटकर तौलना आरंभ
किया। दूसरे पलड़े में रखा हुआ कबूतर उनके माँस से भारी निकला, तो उन्होंने फिर अपना
माँस काटकर रखा। इस प्रकार कई बार करने पर जब माँस कबूतर के बराबर न हुआ तो वह स्वयं
ही तराजू पर बैठ गया। यह देखकर बाज बोला, 'हे धर्मज्ञ ! मैं इन्द्र हूँ और ये अग्निदेव
हैं ; हम आपकी धर्मनिष्ठा की परीक्षा लेने के लिये ही यज्ञशाला में आये थे। राजन्
! जबतक संसार में लोगों को आपका स्मरण रहेगा, तबतक आपका सुयश निश्चल रहेगा, और आप पुण्यलोक
का भोग करेंगे।' राजा से ऐसा कहकर वे दोनो देवलोक को चले गये। मुनिवर लोमश कहते हैं---यह
आश्रम उसी राजा उशीनर का है। यह बड़ा ही पवित्र और पापों का नाश करनेवाला है।
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