Monday 21 September 2015

वनपर्व---भीमसेन से हनुमानजी की भेंट और बातचीत

भीमसेन से हनुमानजी की भेंट और बातचीत

अर्जुन से मिलने की इच्छा से पाण्डवलोग उस स्थान पर छः रात रहे। इतने में ही दैवयोग से ईशानकोण की ओर से बहते हुए वायु से एक सहस्त्रदल कमल उड़ आया। वह बड़ा ही दिव्य और साक्षात् सूर्य के समान था। उसकी गन्ध बड़ी ही अनूठी और मनमोहक थी। पृथ्वी पर गिरते ही उसपर द्रौपदी की दृष्टि पड़ी। उसे देखते ही वह उस सौगन्धिक नामवाले कमल के पास आयी और मन में अत्यंत प्रसन्न होकर भीमसेन से कहने लगी---'आर्य ! मैं यह कमल धर्मराज को भेंट करूँगी। यदि आपका मेरे प्रति वास्तव में प्रेम है तो मेरे लिये ऐसे ही बहुत से पुष्प ले आइये। मैं इसे काम्यक वन में अपने आश्रम पर ले जाना चाहती हूँ।' भीमसेन से ऐसा कहकर द्रौपदी उसी समय उस फूल को लेकर धर्मराज के पास चली आयी। राजमहिषी द्रौपदी का आशय समझ महाबली भीम अपनी प्रिया का प्रिय करने की इच्छा से जिस ओर से वायु उसे उड़ाकर लाया था, उसी ओर दूसरे फूल लेने के विचार से बड़ी तेजी से चले। उन्होंने मार्ग के विघ्नों को हटाने के लिये अपना सुवर्ण की पीठवाला धनुष और विषधर सर्प के समान पैने बाण ले लिये और वे मतवाले हाथी के समान चलने लगे। मार्ग में चलते समय वे आपस में टकराते हुए बादलों के समान भीषण गर्जना करते जाते थे।उस शब्द से चौकन्ने होकर बाघ अपनी गुफाओं को छोड़कर भागने लगे, पक्षी भयभीत होकर उड़ने लगे और मृगों के झुण्ड घबराकर चौकड़ी भरने लगे। भीमसेन की गर्जना से सारी दिशाएँ गूँज उठीं। वे बराबर आगे बढ़ते गये। थोड़ी दूर आगे जाने पर उन्हें गन्धमादन की चोटी पर एक कई, योजन लम्बा-चौड़ा केले का बगीचा दिखाई दिया। महाबली भीम नृसिंह के समान गर्जना करते हुए झपटकर उसके भीतर घुस गये। इस वन में महावीर हनुमानजी रहते थे। उन्हें अपने भाई भीमसेन के उधर आने का पता लग गया। उन्होंने सोचा कि भीमसेन का इधर से होकर स्वर्ग में जाना उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा करने से संभव है मार्ग में कोई उनका तिरस्कार कर दे अथवा उन्हें शाप दे दे। यह सोचकर उनकी रक्षा करने के विचार से वे केले के बगीचे में से होकर जानेवाले सकरे मार्ग को रोककर लेट गये। वहाँ पड़े-पड़े जब ओंघ आने पर वे जँभाई लेकर अपनी पूँछ फटकारते थे तो उसकी प्रतिध्वनि सब ओर फैल जाती थी। इससे वह महापर्वत डगमगाने लगता था और उसके शिखर टूट-टूटकर लुढ़क जाते थे। वह शब्द मतवाले हाथी की गर्जना को भी दबाकर पर्वत पर सब ओर फैल रहा था। उसे सुनकर भीमसेन के रोएँ खड़े हो गये और वे उसके कारण ढ़ूँढ़ते के लिये उस केले के बगीचे में सब ओर घूमने लगे। ढ़ूँढ़ते-ढ़ूँढ़ते उन्हें उस बगीचे में मोटी शिला पर लेटे हुए वानरराज हनुमान् दिखाई दिए। वे बड़े ही तेजस्वी थे और सुनहले कदलीवृक्षों के बीच में लेटे हुए ऐसे जान पड़ते थे मानो केसरों के बीच में अशोक का फूल रखा हो। उनका शरीर बड़ा स्थूल था और वे स्वर्ग के मार्ग को रोककर हिमालय के समान स्थित थे। उस महान् वन में हनुमानजी को अकेले लेटे देखकर महाबली भीमसेन निर्भय उनके पास चले गये और बिजली की कड़क के समान भीषण सिंहनाद करने लगे। भीमसेन की उस गर्जना से वन के जीव-जन्तु और पक्षियों को बड़ा त्रास हुआ। महाबली हनुमानजी ने भी अपने नेत्रों को कुछ-कुछ खोलकर उपेक्षापूर्वक भीमसेन की ओर देखा और उन्हें अपने निकट पाकर मुस्कराते हुए कहने लगे---'भैया ! मैं तो रोगी हूँ,यहाँ आनन्द से सो रहा था; तुमने मुझे क्यों जगा दिया ? तुम समझदार हो, तुम्हे जीवों पर दया करनी चाहिये। तुम्हारी प्रवृति ऐसे धर्म का नाश करनेवाले तथा मन, वाणी और शरीर को दूषित करनेवाले क्रूर कर्मों में क्यों होती है ? मालूम होता है तुमने विद्वानों की सेवा नहीं की। बताओ तो, तुम कौन हो और इस वन में किसलिये आये हो ? यहाँ से आगे तो ये पर्वत अगम्य है, इसपर कोई नहीं चढ़ सकता। अतः तुम ये अमृत के समान मीठे कन्द-मूल-फल खाकर विश्राम करो और यदि मेरी बात को हितकर समझो तो यहाँ से लौट जाओ। आगे जाने में व्यर्थ अपने प्राणों को संकट में क्यों डालते हो ?' यह सुनकर भीमसेन ने कहा---वानरराज ! आप कौन हैं और इस वानर देह को आपने क्यों धारण कर रखा है ? मैं तो चन्द्रवंश के अन्तर्गत कुरुवंश में उत्पन्न हुआ हूँ। मैने माता कुन्ती के गर्भ से जन्म लिया हूँ और मैं महाराज पाण्डु का पुत्र हूँ, लोग मुझे वायुपुत्र भी कहते हैं। मेरा नाम भीमसेन है। हनुमानजी बोले---मैं तो बन्दर हूँ, तुम तो इस मार्ग से जाना चाहते हो सो मैं तुम्हें इधर होकर नहीं जाने दूँगा। अच्छा तो यही हो कि तुम यहाँ से लौट जाओ, नहीं तो मारे जाओगे।' भीमसेन ने कहा, 'मैं मरूँ या बचूँ, तुमसे तो इस विषय में नहीं पूछ रहा हूँ। तुम जरा उठकर मुझे रास्ता दे दो।' हनुमानजी बोले, 'मैं रोग से पीड़ित हूँ, यदि तुम्हे जाना ही है तो मुझे लाँघकर चले जाओ।' भीमसेन बोले, 'ज्ञान से जानने में आनेवाले निर्गुण परमात्मा समस्त प्राणियों के देह में व्याप्त होकर स्थित हैं। मैं इसलिये उनका अपमान या लंघन नहीं करूँगा। यदि शास्त्रों के द्वारा मुझे श्रीभगवान् के स्वरूप का ज्ञान न होता तो मैं तुम्ही को क्या, इस पर्वत को भी उसी प्रकार लाँघ जाता जैसे हनुमानजी समुद्र को लाँघ गये थे।' हनुमानजी ने कहा, 'यह हनुमान् कौन था, जो समुद्र को लाँघ गया था ? उसके विषय में तुम कुछ कह सकते हो तो कहो।' भीमसेन बोले, 'वे वानरप्रवर मेरे भाई हैं। वे बुद्धि, बल और उत्साह से सम्पन्न तथा बड़े गुणवान् हैं और रामायण में वे बहुत ही विख्यात हैं। वे श्रीरामचन्द्रजी की भार्या सीताजी की खोज करने के लिये एक ही छलांग में सौ योजन विस्तृत समुद्र को लाँघ गये थे। मैं भी बल-पराक्रम और तेज में उन्हीं के समान हूँ। इसलिये तुम खड़े हो जाओ और मुझे रास्ता दे दो। यदि मेरी आज्ञा नहीं मानोगे तो मैं तुम्हे यमपुरी भेज दूँगा। इसपर हनुमानजी ने कहा, 'हे अनघ ! तुम रोष न करो, बुढ़ापे कारण मुझमें उठने की शक्ति नहीं है। इसलिये कृपा करके मेरी पूँछ हटाकर निकल जाओ। यह सुनकर भीमसेन अवज्ञापूर्वक हँसकर अपने बाएँ हाथ से हनुमानजी की पूँछ उठाने लगे, किन्तु वे उसे टस-से-मस न कर सके। फिर उन्होंने उसे दोनो हाथों से उठाना चाहा,किन्तु वे इसमें भी असमर्थ रहे। तब तो उन्होंने लज्जा से मुख नीचा कर लिया और दोनो हाथ जोड़कर प्रणाम कर उनसे कहा, 'वानरराज ! आप मुझपर प्रसन्न होइये और मैने जो कटु वचन कहे हैं, उसके लिये मुझे क्षमा कीजिये। मैं आपका परिचय पाना चाहता हूँ, इसलिये कृपा करके बताइये कि इस प्रकार वानर का रूप धारणकरनेवाले आप कौन हैं ? कोई सिद्ध हैं, देवता हैं अथवा गन्धर्व हैं ? यदि वह कोई गुप्त रखने योग्य बात न हो और मेरे सुनने योग्य हो तो मैं आपक शरणागत हूँ और शिष्यभाव से पूछता हूँ, अवश्य बताने की कृपा करें।' तब हनुमानजी ने कहा, "कमलनयन भीम ! मैं वानरराज केसरी के क्षेत्र में जगत् के प्राणस्वरूप वायु से उत्पन्न हुआ हनुमान नाम का वानर हूँ। अग्नि की जैसे वायु के साथ मित्रता है, उसी प्रकार मेरी मित्रता सुग्रीव से थी। किसी कारण से बाली ने अपने भाई सुग्रीव को निकाल दिया था। तब बहुत दिनों तक वे मेरे साथ ऋष्यमूक पर्वत पर रहे थे। उस समय दशरथनन्दन भगवान् श्रीराम पृथ्वीतल पर विचर रहे थे। वे मानवरूपधारी साक्षात् विष्णु ही थे। अपने पिता की आज्ञा का पालन करने के लिये वे सीता और लक्ष्मण सहित दण्डकारण्य में आये। जिस समय वे जनस्थान में रहते थे, उन पुरुषश्रेष्ठ को माया से रत्नजटित सुवर्णमय मृग का रूप धारण करनेवाले मारीच राक्षस के द्वारा धोखे में डालकर राक्षसराज दुरात्मा रावण छलपूर्वक बलात् सीता को हर ले गया। इस प्रकार स्त्री का अपहरण होने पर उसे भाई के साथ खोजते-खोजते भगवान् श्रीराम की ऋष्यमूक पर्वत पर वानरराज सुग्रीव से भेंट हुई। फिर उन दोनो की आपस में मित्रता हो गयी और श्रीराम ने बाली को मारकर किष्किन्धा के राज्य पर सुग्रीव को अभिषिक्त कर दिया। अपना राज्य पाकर सुग्रीव ने साताजी की खोज के लिये सहस्त्रों वानर भेजे। उस समय एक करोड़ वानरों के साथ मैं भी दक्षिण की ओर गया। तब गीधराजसंपाति ने बताया कि सीताजी तो रावण के यहाँ हैं।  इसलिये श्रीरामजी का कार्य पूरा करने के लिये मैने सहसा सौ योजन विस्तार वाला समुद्र पार किया। उस मगर और ग्राहादि से भरे हुए समुद्र को अपने पराक्रम से पार कर मैं रावण के नगर में जनकनन्दिनी श्रीसीताजी से मिला और फिर लंकापुरी को
जलाकर वहाँ राम नाम की घोषणा कर लौट आया। हनुमानजी ने कहा, मेरी बात मानकर भगवान् श्रीराम तुरत ही करोड़ों वानर के साथ चले और समुद्र पर पुल बाँधकर लंकामें पहुँचे। वहाँ उन्होंने संग्राम में समस्त राक्षसों को और संपूर्ण लोकों को रुलानेवाले रावण उसके बंधु-बांधवों के सहित मारा और भक्त विभिषण को लंका के राज्य पर अभिषिक्त किया। फिर नष्ट हुई वैदिक श्रुति के समान अपनी भार्या को ले आये और उसके साथ राजधानी अयोध्यापुरी में लौट आये। वहाँ जब उनका राज्याभिषेक हुआ तो मैने उनसे वर माँगा कि 'हे शत्रुदमन् ! जबतक इस भूमण्डल पर आपकी कथा रहे, तबतक मैं जीवित रहूँ।' इसपर उन्होंने कहा, ऐसा ही हो।' भीमसेन ! श्रीसीताजी की कृपा से यहाँ रहते हुए ही मुझे इच्छानुसार दिव्य भोग प्राप्त हो जाते हैं। श्रीरामजी ने ग्यारह सहस्त्र वर्ष तक पृथ्वी पर राज किया, फिर वे अपने धाम को चले गये। हे अनघ ! इस स्थान पर गन्धर्व और अप्सराएँ उनके चरित सुना-सुनाकर मुझे आनन्दित करते रहते हैं। इस मार्ग में देवतालोग रहते हैं, मनुष्यों के लिये यह अगम्य है; इसी से मैने इसे रोक लिया था। सम्भव है, इसमें कोई तुम्हारा तिरस्कार कर देता अथवा तुम्हें शाप दे देता; क्योंकि यह दिव्य मार्ग देवताओं के लिये ही है, इसमें मनुष्य नहीं जाते। तुम जहाँ जाने के लिये आये हो वह सरोवर तो यहीं है। हनुमानजी के ऐसा कहने पर महाबाहु भीमसेन बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने बड़े प्रेम से अपने भाई वानरराज हनुमानजी को प्रणाम करके कोमल वाणी से कहा, 'आज मेरे समान कोई बड़भागी नहीं है, क्योंकि आज मुझे अपने ज्येष्ठ बन्धु के दर्शन हुए हैं। आपने बड़ी कृपा की। आपके दर्शनों से मुझे बड़ा ही सुख मिला है। किन्तु मेरी एक इच्छा है, वह आपको अवश्य पूरी करनी होगी। वीरवर ! समुद्र लाँघते समय आपने जो अनुपम रूप धारण किया था, उसे मैं देखना चाहता हूँ। इससे मुझे संतोष भी होगा और आपके वचनों में विश्वास भी हो जायगा। भीमसेन के ऐसा कहने पर हनुमानजी ने हँसकर कहा, 'भैया ! तुम उस रूप को देख नहीं सकोगे और न कोई अन्य पुरुष ही उसे देख सकता है। उस समय की बात ही दूसरी थी, अब वह है ही नहीं। सत्ययुग का समय दूसरा था तथा त्रेता और द्वापर का दूसरा ही है। काल तो निरंतर क्षय करनेवाला ही है, अब मेरा वह रूप है ही नहीं। पृथ्वी, नदी, वृक्ष, पर्वत, सिद्ध, देवता और महर्षि---ये सभी काल का अनुसरण करते हैं। प्रत्येक युग के अनुसार इनके देह, बल और प्रभाव में न्यूनाधिकता होती रहती है। इसलिये तुम उस रूप को देखने का आग्रह छोड़ दो। मुझमें तो युग-युग के अनुसार बल-विक्रम रहता है, क्योंकि काल का अतिक्रमण करना किसी के वश की बात नहीं है।' भीमसेन ने कहा---आप मुझे युगों की संख्या एवं प्रत्येक युग के आचार, धर्म, अर्थ और काम के रहस्य, कर्मफल का स्वरूप तथा उत्पत्ति और विनाश सुनाइये। हनुमानजी बोले---भैया ! सबसे पहला कृतयुग है। उसमें सनातन धर्म की पूर्ण स्थिति रहती है तथा किसी का भी कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता। उस समय धर्म की तनिक भी क्षति नहीं होती और पिता के सामने पुत्र कभी नहीं मरते। फिर कालचक्र से उसमें गौणता आ जाती है। कृतयुग में कोई व्याधि न थी और न इन्द्रियों में ही दुर्बलता आती थी। उस समय कोई किसी की निंदा नहीं करता था, किसी को दुःख से रोना नहीं पड़ता था और न किसी में घमंड या कपट ही था। आपस के झगड़े, आलस्य, द्वेष, चुगली, भय, संताप, ईर्ष्या और मत्सर का तो उस युग में नाम भी नहीं था। सबके आश्रय एक परमात्मा थे। आचार और ज्ञान भी सबका एक ही था।  उस समय भगवान् का शुक्ल वर्ण था। सभी शम-दमादि लक्षणों से सम्पन्न रहते थे तथा प्रजा अपने-अपने कर्मों में तत्पर रहती थी। सबके पृथक्-पृथक् धर्म होने पर भी वे एक वेद को ही माननेवाले थे और एक ही धर्म का अनुसरण करते थे। त्रेता युग में भगवान् रक्तवर्ण हो जाते हैं। लोगों की प्रवृति सत्य में रहती है तथा उन्हें अपने संकल्प और भाव के अनुसार कर्म और दान के फल मिलते हैं। वे अपने धर्म से नहीं डिगते और धर्म, तप और दानादि करने में तत्पर रहते हैं। इसके बाद द्वापरमें धर्म के केवल दो पाद रह जाते हैं। विष्णु-भगवान् का पीतवर्ण हो जाता है और वेद के चार भाग हो जाते हैं। उस समय कोई लोग तो चारों वेद पढ़ते हैं तथा कोई तीन, कोई दो और कोई एक वेद का ही स्वाध्याय करते हैं और कोई वेद पढ़ते ही नहीं हैं।  इस प्रकार शास्त्रों के भिन्न-भिन्न हो जाने से कर्म में भी भेद हो जाता है तथा प्रजा तप और दान---इन दो धर्मों में ही प्रवृत होकर राजसी हो जाती है। उस समय एक वेद का ज्ञान न रहने से वेदों के अनेक भेद हो जाते हैं तथा सत्वगुण ह्रास हो जाने से सत्य में किसी-किसी की ही स्थिति रहती है। सत्य से च्युत होने के कारण उस समय व्याधियाँ और कामनाएँ अनेकों हो जाती है तथा बहुत से दैवी उपद्रव होने लगते हैं। उनसे अत्यंत पीड़ित होकर लोग तप करने लगते हैं। इस प्रकार द्वापर युग में अधर्म के कारण प्रजा क्षीण होने लगती है। फिर कलियुग में तो धर्म केवल एक ही पाद में स्थित रहता है। इस तमोगुणी युग आने पर भगवान् श्याम वर्ण हो जाते हैं, वैदिक आचारनष्ट हो जाते हैं तथा धर्म, यज्ञ और क्रिया का ह्रास हो जाता है। इस प्रकार द्वापर युग में अधर्म के कारण प्रजा क्षीण होने लगती है। फिर कलियुग में तो धर्म केवल एक ही पाद में स्थित रहता है। इस तमोगुणी युग आने पर भगवान् श्याम वर्ण हो जाते हैं, वैदिक आचारनष्ट हो जाते हैं तथा धर्म, यज्ञ और क्रिया का ह्रास हो जाता है। जब लोक की स्थिति गिर जाती है, तब उसके प्रवर्तक भावों का भी क्षय हो जाता है। अब शीघ्र ही कलियुग आनेवाला है। इसलिये तुम्हें जो मेरा पूर्व रूप देखने का कौतूहल हुआ है, वह ठीक नहीं है। समझदार लोग व्यर्थ बातों के लिये आग्रह नहीं किया करते। भीमसेन ने कहा---मैं आपके पूर्वरूप को देखे बिना यहाँ से किसी प्रकार नहीं जा सकता। यदि आपकी मेरे ऊपर कृपा है तो मुझे उसके दर्शन अवश्य कराइये। भीमसेन के इस प्रकार कहने पर हनुमानजी ने अपना वह रूप दिखाया, जो उन्होंने समुद्र लाँघते वक्त धारण किया था।
अपने भाई को प्रसन्न करने के लिये उन्होंने अपने शरीर को बहुत बड़ा कर दिया और वह लम्बाई-चौड़ाई में बहुत अधिक बढ़ गया। उस समय अतुलित कीर्तिमान् हनुमानजी के विशाल विग्रह से दूसरे वृक्षों के सहित वह केलों का बगीचा आच्छादित हो गया। भीमसेन अपने भाई का वह विशाल रूप देखकर बड़े विस्मित हुए और उनके शरीर में रोमांच हो आया।  श्रीहनुमानजी का यह विग्रह तेज में सूर्य के समान था और सोने के पहाड़ सा जान पड़ता था। उसे देखते ही भीमसेन ने आँखें बन्द कर लीं। विन्ध्याचल के समान उस विचित्र और अत्यन्त भयानक देह को देखकर भीमसेन को रोमान्च हो आया और वे उनसे हाथ जोड़कर कहने लगे, 'समर्थ हनुमानजी ! मैने आपके इस शरीर का महान् विस्तार देख लिया। अब आप अपने इस स्वरूप को समेट लीजिये। आप तो साक्षात् उदित होते हुए सूर्य के समान हैं और मैनाक पर्वत के समान अपरिमित और दुराधर्ष जान पड़ते हैं। मैं आपकी ओर देख नहीं सकता। हे वीर ! मेरे मन में तो आज यही बड़ा आश्चर्य है कि आपके समीप रहते हुए भी श्रीरामजी को रावण से स्वयं युद्ध करना पड़ा। उस लंका को तो उसके योद्धा और वाहनों सहित आप ही अपने बाहुबल से सज में नष्ट कर सकते थे। पवननंदन ! ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो आपको प्राप्त न हो; रावण तो अपने परिकर के सहित अकेले आपसे ही लड़ने में समर्थ नहीं था। भीमसेन के इस प्रकार कहने पर कपिश्रेष्ठ हनुमानजी ने बड़े गम्भीर और मधुर स्वर में कहा---भारत ! तुम जैसा कहते हो, ठीक ही है; वह अधम राक्षस वास्तव में मेरा सामना नहीं कर सकता था। किन्तु सारे लोकों को काँटे के समान सालनेवाले उस रावण को यदि मैं मार डालता तो श्रीरामजी को यह कीर्ति कैसे मिलती, इसी से मैने उसकी उपेक्षा कर दी थी। वीरवर श्रीरघुनाथजी ने सेना के सहित उस राक्षसाधम का वध किया और सीताजी को अपनी पुरी में ले आये। इससे लोगों में उनका सुयश भी फैल गया। अच्छा, बुद्धिमन ! अब तुम जाओ। देखो, यह सामनेवाला मार्ग सौगन्धिक वन को जाता है। वहाँ तुम्हें यक्ष और राक्षसों से सुरक्षित कुबेर का बगीचा मिलेगा। तुम स्वयं ही जल्दी से पुष्पचयन मत करने लगना। मनुष्यों को तो विशेषरूप से देवताओं का मान करना ही चाहिये। भैया ! तुम साहस मत कर बैठना, अपने धर्मका पालन करना। अपने धर्म में स्थित रहकर तुम श्रेष्ठ धर्म का ज्ञान सम्पादन करो और उसी प्रकार व्यवहार करो। क्योंकि धर्म को जाने बिना और बड़ों की सेवा किये बिना तुम वृहस्पति के समान होते हुए भी तुम धर्म और अर्थ के तत्व को नहीं जान सकते।
किसी समय अधर्म धर्म हो जाता है और धर्म अधर्म हो जाता है। अतः धर्म और अधर्म का अलग-अलग ज्ञान होना चाहिये, बुद्धिहीन लोग इसमें मोहित हो जाते हैं। धर्म आचार से होता है, धर्म से वेद प्रतिष्ठित है, वेदों से यज्ञों की प्रवृति हुई है और यज्ञों में देवताओं की स्थिति है। देवताओं की आजीविका वेदाचार के विधान से बतलाये हुए यज्ञों पर है और मनुष्यों का आधार बृहस्पति और शुक्र की बनायी हुई नीतियाँ हैं। राजा को साम, दाम, दण्ड, भेद और उपेक्षा---इन पाँच साधनों में एकसाथ या अलग-अलग प्रयोग द्वारा अपने काम बना लेने चाहिये। हे भरतश्रेष्ठ ! सारी नीतियों का मूल गुप्त विचार है; इसलिये जिस विचार से कार्य की सिद्धि हो, उसी की मंत्रणा विद्वानों के साथ करें। परामर्श उन विद्वानों के साथ करना चाहिये; जो सामर्थ्यवान् हों, उनसे कार्य कराना चाहिये जो हितैषी हों। मूर्खों को सभी कामों से अलग रखना चाहिये। इस तरह बहुत उपदेश देने के बाद वानरराज हनुमानजी अपनी इच्छा से बढ़ाये हुए शरीर को सिकोड़कर दोनो भुजाओं से भीमसेन को छाती से लगाया। इससे तत्काल ही भीमसेन की सारी थकावट जाती रही और सब प्रकार की अनुकूलता का अनुभव होने लगा। उन्हें ऐसा जान पड़ा कि मैंबड़ा बलवान हूँ और मेरे समान कोई भी महान् नहीं है। फिर हनुमानजी ने आँखों में आँसू भरकर सौहार्द से गद्गद् कण्ठ हो भीमसेन से कहा, 'भैया ! अब तुम जाओ, कभी कोई चर्चा चले तो मेरा स्मरण कर लेना। और मैं इस स्थान पर रहता हूँ---यह बात किसी से मत कहना। अब कुबेर के भवन से भेजी हुई देवांगनाओं और अप्सराओं के यहाँ आने का समय हो गया है। तुम्हारे मानवी शरीर का स्पर्श होने से मुझे भी संसार के हृदय को प्रफुल्लित करनेवाले भगवान् श्रीराम का स्मरण हो आया। अब तुम्हें भी मेरे दर्शनों का कुछ फल प्राप्त होना चाहिये। तुम भ्रातृत्व के नाते मुझसे कोई वर माँगो। यदि तुम्हारी  इच्छा हो कि मैं हस्तिनापुर में जाकर तुच्छ धृतराष्ट्र पुत्रों को मार डालूँ तो यह भी मैं कर सकता हूँ तथा तुम चाहो तो पत्थरों से उस नगर को नष्ट कर दूँ अथवा अभी दुर्योधन को बाँधकर तुम्हारे पास ले आऊँ। हनुमानजी की यह बात सुनकर भीमसेन बड़े प्रसन्न हुए और उनसे कहने लगे, 'वानरराज ! आपका मंगल हो; मेरे ये सब काम तो आप कर ही चुके---अब इनके होने में कोई संदेह नहीं है। आप हमारे रक्षक हैं, इसलिये अब पाण्डवलोग सनाथ हो गये। आपके ही प्रताप से हम शत्रुओं को जीत लेंगे।' भीमसेन के ऐसा कहने पर उनसे हनुमान् जी ने कहा, 'भाई और सुहृद होने के नाते ही मैं तुम्हारा प्रिय करूँगा। जिस सय तुम शक्ति और वाणों से व्याप्त शत्रु की सेना में घुसकर सिंहनाद करोगे, उस समय मैं अपने शब्द से तुमहारी गर्जना को बढ़ा दूँगा तथा अर्जुन की ध्वजा पर बैठे हुए ऐसी भीषण गर्जना करूँगा, जिससे शत्रुओं के प्राण सूख जायेंगे और तुम उन्हें सुगमता से मार सकोगे।' ऐसा कहकर हनुमानजी ने उन्हें मार्ग दिखाया और वहीं अन्तर्धान हो गये।

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