Sunday 13 September 2015

वनपर्व--बदरीकाश्रम की यात्रा


बदरीकाश्रम की यात्रा

जब पाण्डवों ने गन्धमादन पर्वत पर पदार्पण किया तो बड़ा प्रचंड पवन बहने लगा। वायु के वेग से धूल और पत्ते उड़ने लगे। उन्होंने अकस्मात् पृथ्वी आकाश एव संपूर्ण दिशाओं को आच्छादित कर लिया। धूल के कारण अंधकार छा जाने से एक-दूसरे को देखना और आपस में बात करना कठिन हो गया। थोड़ी देर में जब वायु का वेग कम हुआ तो धूल उड़नी बन्द हो गयी और मूसलाधार वर्षा होने लगी। आकाश में क्षण-क्षण में बिजली चमकने लगी और वज्रपात के समान मेघों की गड़गड़ाहट होने लगी। कुछ देर पीछे यह तूफान शान्त हुआ। पवन का वेग कम हुआ, बादल फट गये और सूर्यदेव उनकी ओट से निकलकर चमकने लगे। इस स्थिति में पाण्डवलोग प्रायः एक कोस ही गये होंगे कि पांचाल राजकुमारी द्रौपदी इस बवंडर के उत्पात से थककर शिथिल हो गयी। वह सुकुमारी थी। इस प्रकार चलने का अभ्यास ही नहीं था, इसलिये वह पृथ्वी पर बैठ गयी। अब धर्मराज युधिष्ठिर ने उसे गोद में लिटाकर भीमसेन से कहा, 'भैया भीम ! अभी तो बहुत से ऊँचे-ऊँचे पर्वत आवेंगे। बर्फ के कारण उनको पार करना बड़ा ही कठिन होगा। उनपर सुकुमारी द्रौपदी कैसे चलेगी?' तब भीमसेन ने कहा, 'राजन् ! मैं स्वयं ही आपको, द्रौपदी को और नकुल-सहदेव को ले चलूँगा; आप चिन्ता न करें। इसके सिवा हिडिम्बा का पुत्र घतोत्कच भी बल में मेरे ही समान है, वह आकाश में चल सकता है। आपकी आज्ञा होने पर हम सबको ले चलेगा।' यह सुनकर धर्मराज ने कहा, 'तो भीम ! तुम उसे यहाँ बुला लो।' उनकी आज्ञा होने पर भीमसेन ने अपने राक्षस पुत्र का स्मरण किया और उनके स्मरण करते ही घतोत्कच वहाँ उपस्थित हो गया। उसने हाथ जोड़कर सबका अभिवादन किया तथा उन्होंने भी उसका यथोचित सत्कार किया। इसके पश्चात् भयंकर वीर घतोत्कच ने हाथ जोड़कर भीमसेन से कहा, 'मैं आपके स्मरण करते ही आपकी सेवा के लिये उपस्थित हो गया हूँ। कहिये, क्या आज्ञा है ?' तब भीमसेन ने उसे गले लगाकर कहा, 'बेटा ! तेरी माता द्रौपदी बहुत थक गयी है, तू इसे अपने कंधे पर चढ़ा ले। इस प्रकार धीमी चाल से चल जिससे इसे कष्ट न हो।' 
 
घतोत्कच ने कहा---'मैं अकेला ही धर्मराज, धौम्य, द्रौपदी और नकुल-सहदेव---सबको ले चल सकता हूँ; तिसपर भी मेरे साथ तो और भी सैकड़ों इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले सैकड़ों शूरवीर हैं, वे सभी को ले चलेगे।' ऐसा कहकर वीर घतोत्कच तो द्रौपदी को लेकर पाण्डवों के बीच में चलने लगा तथा दूसरे राक्षस पाण्डवों को ले चले। अतुलित तेजस्वी लोमश तो अपने तपोबल से स्वयं ही आकाशमार्ग से चलने लगे। उस समय वे दूसरे सूर्य के समान ही जान पड़ते थे। इस प्रकार वे सुरम्य वनों और उपवनों को देखते हुए बदरीकाश्रम की ओर चले। राक्षस तो बहुत तेज चलनेवाले थे, इसलिये थोड़ी ही देर में वे उन्हें बहुत दूर ले गये। मार्ग में जाते हुए उन्होंने म्लेच्छों से बसे हुए उस देश को तथा वहाँ की रत्नों की खानों और तरह-तरह की धातुओं से सम्पन्नपर्वत की तलैटियों को देखा। उस देश में अनकों विद्याधर, किन्नर, गन्धर्व और किम्पुरुष विचर रहे थे तथा जहाँ-तहाँ बहुत-से वानर,मयूर, चमरी गाय, मृग, शूकर औरलंगूर घूम रहे थे। जगह-जगह नदियाँ भी दिखाई देतीं थी। इस प्रकार उत्तर कुरुदेश को लाँघकर उन्होंने अनेकों आश्चर्यों से युक्त कैलास पर्वत को देखा। उसके पास ही श्रीनारायण के आश्रम के दर्शन किये। यह आश्रम दिव्य वृक्षों से सुशोभित था, जो सदा ही फल-फूलों से लदे रहते थे। यहाँ उन्होंने उस गोल टहनियोंवालीमनोहर बदरी के भी दर्शन किये। इसकी छाया बड़ी ही शीतल और सघन थी, तथा इसके पत्ते बड़े चिकने और कोमल थे; उसमें बहुत मीठे-मीठे फल लगे हुए थे। उस बदरी के पास पहुँचकर वे सब महानुभाव राक्षसों के कन्धों से उतर पड़े और जिसमें स्वयं श्री नर-नारायण विराजते हैं, ऐसे उस आश्रम की शोभा निहारने लगे। इस आश्रम में अन्धकार नहीं था, किन्तु वृक्षों की सघनता के कारण इसमें सूर्य की किरणों का प्रवेश भी नहीं होता था। इसी प्रकार इसमें क्षुधा-प्यास, शीत-उष्ण आदि दोषों की बाधा भी नहीं होती थी तथा इसमें प्रवेश करते ही शोक अपने-आप ही निवृत हो जाता था। यहाँ महर्षियों की भीड़ लगी रहती थी। पवित्रात्मा युधिष्ठिर अपने भाइयों सहित उन महर्षियों के पास गये। उन्होंने विधिपूर्वक धर्मराज का सत्कार किया। वहाँ स्नानादि से पवित्र हो, देवता, ऋषि और पितरों का तर्पण करके वे बड़े आनन्द के साथ अपने आश्रम में रहने लगे।
 

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