Saturday 12 September 2015

वनपर्व---पाण्डवों की गन्धमादन यात्रा

पाण्डवों की गन्धमादन यात्रा
लोमश मुनि ने कहा---राजन् ! यह मधुविला नदी दिखाई दे रही है, इसी का दूसरा नाम समंगा है। यह कर्दिल क्षेत्र है। यहाँ राजा भरत का अभिषेक किया गया था। वृत्रासुर का वध करने पर शचिपति इन्द्र जब राज्लक्ष्मी से भ्रष्ट हो गये थे , तब इस समंगा नदी में स्नान करके ही वे पापों से छुटकारा पा सके थे। यह मैनाक पर्वत के मध्यभाग में विनसन तीर्थ है।इधर एक कनखल नाम की पर्वतमाला है। इसके पास ही यह महानदी दिखाई दे रही है। पूर्वकाल में यहाँ भगवान् सनत्कुमार न सिद्धि प्राप्त की थी। राजन् ! इसमें स्नान करने से तुम सब पापों से मुक्त हो जाओगे। इसके आगे पुण्य नाम का सरोवर और भृगुतुंग नाम का पर्वत आवेगा। वहाँ तुम उष्णगंगा तीर्थ में स्नान करना। देखो, यह स्थूलशिरा मुनि का सुन्दर आश्रम दिखाई दे रहा है। वहाँ अपने मन से मान और क्रोध को निकाल देना। इधर यह रैभ्य ऋषि का श्रीसम्पन्न आश्रम सुशोभित है। वहाँ के वृक्ष सर्वदा फल-फूलों से लदे रहते हैं। यहाँ निवास करने से तुम सब पापों से मुक्त हो जाओगे। इसके आगे पुण्य नाम का सरोवर और भृगुतुंग नाम का पर्वत आवेगा। वहाँ तुम उष्णगंगा तीर्थ में स्नान करना। देखो, यह स्थूलशिरा मुनि का सुन्दर आश्रम दिखाई दे रहा है।वहाँ अपने मन से मान और क्रोध को निकाल देना। इधर यह रैभ्य ऋषि का श्रीसम्पन्न आश्रम सुशोभित है। वहाँ के वृक्ष सर्वदा फल-फूलों से लदे रहते हैं। यहाँ निवास करने से तुम सब पापों से मुक्त हो जाओगे।राजन् ! तुम उशीरबीज, मैनाक, श्वेत और काल नाम के पर्वतों को लाँघकर आगे निकल आये हो। यहाँ सात प्रकार से बहती हुई श्री भागीरथी सुशोभित है। राजन् ! यह बड़ा ही निर्मल और पवित्र स्थान है।यहाँ अग्नि सदा ही प्रज्वलित रहती है। अब वह स्थान मनुष्यों को दिखाई नहीं देता। तुम धैर्यपूर्वक समधि प्राप्त करो तब इन तीर्थों का दर्शन कर सकोगे। अब हम मन्दराचल पर्वत पर चलेंगे। वहाँ मणिभद्र नाम का यक्ष और यक्षराज कुबेर रहते हैं। राजन् इस पर्वत पर अठ्ठासी हजार गन्धर्व और किन्नर तथा उनसे चौगुने यक्ष अनेकों प्रकार के शस्त्र धारण किये यक्षराज मणिभद्र की सेवा में उपस्थित रहते हैं। ये तरह-तरहके रूप धारण कर लेते हैं। यहाँ उनका प्रभाव है, गति में तो वे साक्षात् वायु के समान हैं।उन बलवान यक्ष और राक्षसों से सुरक्षित रहने के कारण ये पर्वत बड़े दुर्गम हैं, इसलिये यहाँ तुम बहुत सावधान रहना।हमें यहाँ कुबेर के साथी जो मैत्र नाम के भयानक राक्षस हैं, उनसे सामना करना पड़ेगा। राजन् ! कैलाश पर्वत छः योजन ऊँचा है। उस पर्वत पर देवता आया करते हैं और उसी पर बद्रीकाश्रम नाम का तीर्थ भी है। अतः तुम मेरी तपस्या और भीमसेन के बल से सुरक्षित होकर इस तीर्थ में स्नान करो।'देवी गंगे ! मैं कानचनमय पर्वत से उतरती हुई आपकी कलकल ध्वनि सुन रहा हूँ। आप इन नरेन्द्र युधिष्ठिर की रक्षा करें।' इस प्रकार गंगाजी से प्रार्थना करके लोमशजी ने युधिष्ठिर को सावधान होकर आगे बढ़ने का आदेश दिया। तब महाराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों से कहा---भाइयों ! महर्षि लोमशजी इस देश को अत्यंत भयंकर मानते हैं। इसलिये तुमलोग द्रौपदी को संभाल रखो, इसमें प्रमाद न हो। यहाँ मन, वाणी और शरीर से भी बहुत पवित्र रहना। भीमसेन ! मुनिवर ने कैलास के विषय में जो बात कही है, तुमने भी सुनी ही है। अब जरा विचार लो इसपर द्रौपदी कैसे बढ़ेगी। नहीं तो, एक काम करो सहदेव ! भगवान् धौम्य, रसोइयों, पुरवासियों, रथ, घोड़ों, नौकर-चाकर और रास्ते का कष्ट न सहनेवालों विद्वानों को लेकर तुम लौट जाओ। मैं नकुल और भगवान लोमशजी---तीन ही अल्पाहार का नियम रखते हुए इस पर्वत पर चढेंगे।मैं नकुल और भगवान लोमशजी---तीन ही अल्पाहार का नियम रखते हुए इस पर्वत पर चढेंगे।मेरे लौटकर आनेतक तुम सावधान से हरिद्वार में रहो और जबतक मैं न आऊँ, द्रौपदी की भली-भाँति देख-रेख करते रहो। भीमसेन ने कहा---राजन् ! इस पर्वत पर राक्षसों की भरभार है। यों ही यह बड़ा दुर्गम और बीहड़ है। सौभाग्यवती द्रौपदी भी आपके बिना लौटना नहीं चाहती। इसी तरह यह सहदेव भी सदा आपके पीछे ही रहना चाहता है। मैं इसके मन की बात खूब जानता हूँ, यह भी कभी नहीं लौटेगा। इसके सिवा सभी लोग अर्जुन को देखने के लिये उत्सुक हो रहे हैं, इसीलिये सब आपके साथ ही चलेंगे। यदि अनेकों गुहाओं के कारण इस पर्वत पर रथों से यात्रा करना संभव न हो तो हम पैदल ही चलेंगे। और आप चिंता न करें; जहाँ-जहाँ द्रौपदी पैदल न चल सकेगी, वहाँ-वहाँ मैं इसे कंधे पर चढ़ाकर ले चलूँगा। ये माद्रीकुमार नकुल और सहदेव भी सुकुमार हैं; जहाँ कहीं दुर्गम स्थान में इन्हें चलने की शक्ति न होगी, वहाँ इन्हें भी मैं पार लगा दूँगा। यह सुनकर युधिष्ठिर ने कहा--- 'तुम द्रौपदी और नकुल, सहदेव को भी ले चलने का साहस दिखा रहे हो , यह बड़ी प्रसन्नता की बात है। किसी दूसरे से ऐसी आशा नहीं की जा सकती। भैया ! तुम्हारा कल्याण हो और तुम्हारे बल, धर्म और सुयश की वृद्धि हो।' फिर द्रौपदी ने भी हँसकर कहा, राजन् ! मैं आपके साथ ही चलूँगी, आप मेरे लिये चिन्ता न करें।' लोमशजी बोले---कुन्तीनन्दन ! इस गन्धमादन पर्वत पर तप के प्रभाव से ही चढ़ा जा सकता है, इसीलिये हम सभी को तपस्या करनी चाहिये। तप के द्वारा ही हम, तुम तथा नकुल, सहदेव और भीमसेन अर्जुन को देख सकेंगे।लोमशजी बोले---कुन्तीनन्दन ! इस गन्धमादन पर्वत पर तप के प्रभाव से ही चढ़ा जा सकता है, इसीलिये हम सभी को तपस्या करनी चाहिये। तप के द्वारा ही हम, तुम तथा नकुल, सहदेव और भीमसेन अर्जुन को देख सकेंगे। इस प्रकार बातचीत करके वे आगे बढ़े तो उन्हें राजा सुबाहु का विस्तृत देश दिखाई दिया। वहाँ हाथी-घोड़ों की बहुतायत थी तथा सैकड़ों किरात, तंगण और पुलिंद जाति के लोग रहते थे। जब पुलिंद देश के राजा को पता लगा कि पाण्डव आये हैं तो उसने बड़े प्रेम से उनका सत्कार किया। उससे पूजित होकर वे बड़े आनन्द से वहाँ रहे; दूसरे दिन सूर्योदय होने पर उन्होंने बर्फीले पहाड़ों की ओर प्रस्थान किया। उन्होंने इन्द्रसेन आदि सेवकों को, रसोइयों को तथा द्रौपदी के सामान को पुलिन्दराज के यहाँ छोड़ दिया और पैदल ही आगे बढ़े। फिर युधिष्ठिर कहने लगे कि अर्जुन को देखने के लिये ही हमलोग गन्धमादन पर्वत पर चढ़ ऱहे हैं। इस देश में कोई सवारी पर बैठकर नहीं चल सकता और न क्रूर, लोभी और अशान्तचित्त ही यहाँ की यात्रा कर सकते हैं। जो लोग असंयमी होते हैं उन्हीं को यहाँ मक्खी, मच्छर, सिंह, व्याघ्र और सर्पादि सताते हैं; संयमियों के तो ये सामने भी नहीं आते। अतः हमें संयतचित्त और अल्पाहारी होकर इस पर्वत पर चढ़ना चाहिये
लोमश मुनि बोले---यह शीतल और पवित्र जलवाली अलकनंदा नदी बह रही है। यह बदरीकाश्रम से ही निकली है। गंगाद्वार में भगवान् शंकर ने इसी नदी का जल अपनी जटाओं में धारण किया था। तुम विशुद्ध भाव से इस भगवती भागीरथी के पास जाकर प्रणाम करो। महामुनि लोमश की यह बात सुनकर पाण्डवों ने अलकनन्दा के पास जाकर प्रणाम किया। और फिर बड़े आनंद से समस्त ऋषियों के सहित चलने लगे। लोमशजी ने कहा---सामने जो यह कैलाश पर्वत के शिखर के समान सफेद-सफेद पहाड़ सा दिखाई दे रहा है, वह नरकासुर की हड्डियाँ हैं। पूर्वकाल में देवराज इन्द्र का हित करने के लिये इसी स्थान पर भगवान् विष्णु ने उस दैत्य का वध किया था। उस दैत्य ने दस हजार वर्ष तक कठोर तपस्या करके इन्द्रासन लेना चाहा। अपने तपोबल एवं बाहुबल के कारण वह देवताओं के लिये अजेय हो गया था और उन्हें सदा ही तंग करता रहता था। इससे इन्द्र को बड़ी घबराहट हुई और वे मन-ही-मन भगवान विष्णु का चिन्तन करने लगे।
भगवान ने प्रसन्न होकर दर्शन दिये। तब सभी देवता और ऋषियों ने उनकी स्तुति की और अपना सारा कष्ट सुना दिया। इसपर भगवान् ने कहा, 'देवराज ! तुम्हे नरकासुर से भय है यह मैं जानता हूँ और यह बात भी मुझसे छिपी नहीं है कि वह अपने तप के प्रभाव से तुम्हारा स्थान छीनना चाहता है। सो तुम निश्चिन्त रहो। वह तपस्या से भले ही सिद्ध हो गया हो, तो भी मैं शीघ्र ही उसे मार डालूँगा।' देवराज से ऐसा कहकर उन्होंने एक ही तमाचे से उसके प्राण ले लिये और वह चोट खाये हुए पर्वत के समान पृथ्वी पर गिर गया। इस प्रकार भगवान् के द्वारा मारे हुए उस दैत्य के हड्डियों का ढ़ेर ही यह सामने दिखायी दे रहा है। इसके सिवा श्रीविष्णुभगवान् का एक और कर्म भी प्रसिद्ध है। सतयुग में आदिदेव श्रीनारायण यम का काम करते थे। उस समय मृत्यु न होने के कारण सभी प्राणी बढ़ गये थे। उनके भार से आक्रांत पृथ्वी जल के भीतर सौ योजन घुस गयी और श्रीनारायण की शरण में जाकर कहने लगी---'भगवन् ! आपकी कृपा से मैं बहुत समय तक स्थिर रही; परन्तु अब बोझा बहुत बढ़ गया है, इसलिये मैं ठहर नहीं सकूँगी। मेरे इस भार को आप दूर कर सकते हैं। मैं शरणागता हूँ, आप मुझपर कृपा कीजिये।' पृथ्वी के ये वचन सुनकर श्रीभगवान् ने कहा---'पृथ्वी ! तू भार से पीड़ित है---यह ठीक है, किन्तु भय की कोई बात नहीं है। मैं अब ऐसा उपाय करूँगा, जिससे तू हल्की हो जायगी।' ऐसा कहकर भगवान् ने पृथ्वी को विदा कियाऔर स्वयं एक सींगवाले बराह का रूप धारण किया। फिर भूमि को उसी एक सिंग पर रखकर सौ योजन नीचे से पानी के बाहर ले आये। इस अद्भुतकथा को सुनकर पाण्डव बड़े प्रसन्न हुए और लोमशजी के बताये हुए मार्ग से जल्दी-जल्दी चलने लगे।



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