Thursday 24 September 2015

वनपर्व---भीम के सौगन्धिक वन में पहुँचने पर यक्ष-राक्षसों से युद्ध होना तथा युधिष्ठिरादि का भी वहाँ पहुँच जाना और सबका वापस लौटना

भीम के सौगन्धिक वन में पहुँचने पर यक्ष-राक्षसों से युद्ध होना तथा युधिष्ठिरादि का भी वहाँ पहुँच जाना और सबका वापस लौटना
कपिवर हनुमानजी के अन्तर्धान हो जाने पर महाबली भीमसेन उनके बताये हुए मार्ग से गन्धमादन पर्वत पर बढ़ने लगे। मार्ग में वे हनुमानजी के विशाल वग्रह और अलौकिक शोभा का तथा दशरथनन्दन भगवान् श्रीराम के महात्म्य और प्रभाव का चिन्तन करते जाते थे। सौगन्धिक वन को देखने की इच्छा से जाते हुए उन्होंने मार्ग के रमणीय वन और उपवन देखे तथा तरह-तरह के पुष्पित वृक्षों से सुशोभित सरोवर और नदियाँ देखीं। इसी प्रकार और आगे बढ़ने पर वे कैलास पर्वत के समीप कुबेर के राजभवन के पास एक सरोवर के निकट पहुँचे। भीमसेन ने वहाँ पहुँचकर उसका निर्मल जल जी भरकर पीया। उसके आस-पास देवता, गन्धर्व, अप्सरा और ऋषि रहते थे। उस सरोवर और सौगन्धिक वन को देखकर भीमसेन बड़े प्रसन्न हुए। महाराज कुबेर की ओर से हजारों क्रोधवश नाम के राक्षस तरह-तरह के शस्त्र और पहनावों से सुसज्जित हो इस सथान की रक्षा करते थे। उन्होंने महाबाहु भीम के पास जाकर उनसे पूछा, 'कृपया बताइये आप कौन है ? आपका वेष तो मुनियों का सा है, परन्तु आप हथियार भी लिये हुए हैं। कहिये, यहाँ आप किस उद्देश्य से आये हैं ?' भीमसेन ने कहा---राक्षसों ! मेरा नाम भीमसेन है, मैं धर्मराज युधिष्ठिर से छोटा महाराज पाण्डु का पुत्र हूँ। मैं भाइयों के साथ आकर विशाला में ठहरा हुआ हूँ। यहाँ से वायु से उड़कर एक सुन्दर सौगन्धिक पुष्प हमारे निवासस्थान पर गया था। उसे देखकर द्रौपदी को वैसे ही और फूल लेने की इच्छा हुई। इसी से मैं यहाँ आया हूँ। राक्षसों ने कहा---पुरुषप्रवर ! यह यक्षराज कुबेर का प्रिय क्रीड़ास्थान है। यहाँ मरणधर्मा मनुष्य विहार नहीं कर सकता। यहाँ देवर्षि, यक्ष औरदेवता भी यक्षराज से आज्ञा लेकर ही जलपान और विहारादि कर पाते हैं। फिर आप उनका निरादर करके बलात् कमल क्यों लेना चाहते हैं, और ऐसा अन्याय करने पर भी अपने को धर्मराज का भाई कैसे कहते हैं ? आप महाराज की आज्ञा ले लीजिये। फिर जल भी पी सकेंगे और कमल भी ले जा सकेंगे; नहीं तो आप कमलों की तरफ झाँक भी नहीं सकते। भीमसेन बोले---राक्षसों ! राजालोग माँगा नहीं करते, यही सनातन धर्म है। और मैं किसी भी प्रकार क्षात्रधर्म को छोड़ना नहीं चाहता। यह सुरम्य सरोवर पहाड़ी झरनों से बना है। इसपर कुबेर के समान हीसबका अधिकार है। ऐसे सर्वसाधारण के पदार्थों के लिये कौन किससे याचना करे ? ऐसा कहकर भीमसेन ने उन राक्षसों की उपेक्षा कर स्नान करने के लिये उस सरोवर में उतर पड़े। तब सब राक्षसों ने उन्हें रोका और एक साथ ही शस्त्र उठाकर उनपर टूट पड़े। भीमसेन ने भी अपनी यमदण्ड के समान सुवर्णमण्डिता भारी गदा उठाकर 'ठहरो ! 'ठहरो ! ऐसा चिल्लाते हुए उनपर आक्रमण किया। इससे राक्षसों का रोष और भी बढ़ गया और वे चारों ओर से घेरकर उनपर तोमर और पट्टिश आदि अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करने लगे। महात्मा भीम ने उनके सबवारों को विफल कर दिया और उनके शस्त्रों के खण्ड-खण्ड करके सरोवर के पास ही सैकड़ों वीरों को बिछा दिया।भीमसेन की मार से पीड़ित और अचेत हुए वे क्रोधवश राक्षस रणांगणसे भागे और विमानों पर चढ़कर आकाशमार्ग से कैलाश की चोढियों पर चले गये। उन्होंने यक्षराज कुबेर के पास जाकर बहुत डरते-डरते भीमसेन के बल और पराक्रम का वर्णन किया। इधर भीम सुगंधित रम्य कमलों को बीनने लगे। राक्षसों की बात सुनकर कुबेर बड़े हँसे और बोले, 'मुझे इन सब बातों का पता है; द्रौपदी के लिये भीमसेन को जितने कमल चाहिये उतने ले जायँ।' उधर बद्रीकाश्रम में भीमसेन के युद्ध की सूचना देनेवाला बड़ा वेगवान्, तीखा और धूल बरसानेवाला वायु चलने लगा। वहाँ बार-बार बड़ी गड़गड़ाहट के साथ पृथ्वी पर उल्कापात होने लगा,जो सबके हृदय में बड़ा भय उत्पन्न कर देता था; धूल से ढ़क जाने के कारण सूर्य का तेज मंद पड़ गया, पृथ्वी डगमगाने लगी, दिशाएँ लाल-लाल हो गयीं, मृग और पक्षी चित्कार करने लगे, सब ओर अंधेरा-ही-अंधेरा छा गया, आँखों से कुछ भी नहीं सूझता था। इसके सिवा वहाँ और भी अनेकों भयंकर उत्पात होने लगे। ऐसी विचित्र स्थिति देखकर धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने कहा, 'पांचाली ! भीम कहाँ है ? मालुम होता है वह कहीं कुछ भयंकर कर्म करना चाहता है अथवा कुछ कर बैठा है; क्योंकि ये अकस्मात् होनेवाले उत्पात् किसी महान् युद्ध की सूचना दे रहे हैं।' तब द्रौपदी ने कहा---'राजन् ! वायु से उड़कर जो सौगन्धिक कमल आया था, वह मैने प्रेमपूर्वक भीमसेन को भेंट करके कहा था कि यदि आपको ऐसे बहुत-से फूल मिल जायँ तो आप उन्हें लेकर शीघ्र आ जायँ।' वे महाबाहु मेरा प्रिय करने के लिये उन कमलों की खोज में अवश्य ही पूर्वोत्तर दिशा की ओर गये हैं। द्रौपदी के ऐसा कहने पर महाराज युधिष्ठिर ने नकुल-सहदेव से कहा, 'जिस ओर भीम गया है उसी ओर हम सबको भी शीघ्र ही साथ-साथ चलना चाहिये। राक्षस लोग तो विद्वानों को ले चलें और भैया घतोत्कच ! तुम द्रौपदी को ले चलो। देखो ! भीमसेन ब्रह्मवादी सिद्ध पुरुषों का कोई अपराध करे, उससे पहले ही यदि हम आपलोगों के प्रभाव से पहुँच जायँ तो अच्छा हो।' घतोत्कच इत्यादि सब राक्षस 'जो आज्ञा' ऐसा कहकर पाण्डवों और अनेकों विद्वानों को उठाकर लोमशजी के साथ प्रसन्नचित्त से चल दिये, क्योंकि वे अपने लक्ष्यस्थान कुबेर के सरोवर को जानते थे। उन्होंने शीघ्र ही जाकर एक सुन्दर वन में कमल की गन्ध से सुवासित एक अत्यंत मनोहर सरोवर देखा। उसी के तीर पर उन्हें परम तेजस्वी भीमसेन दिखाई दिये और उनके पास ही अनेकों मरे हुए यक्ष भी दिखे। भीमसेन को देखकर धर्मराज ने बार-बार उनका आलिंगन किया और फिर मीठी वाणी में कहा, 'कुन्तीनन्दन ! तुम यह क्या कर बैठे हो ? यह तो तुम्हारा साहस ही है, इससे देवताओं का भी अप्रिय हुआ ही है। यदि तुम मेरा भला चाहते हो तो ऐसा काम फिर कभी मत करना।' इस प्रकार भीमसेन को समझाकर उन्होंने सौगन्धिक कमल ले लिये और फिर देवताओं के समान उसी सरोवर में क्रीड़ा करने लगे। इतने में ही उस बगीचे के रक्षक विशालकाय यक्ष-राक्षस प्रकट हो गये। उन्होंने धर्मराज, नकुल-सहदेव, महर्षि लोमश तथा दूसरे विद्वानों को देखकर विनय से झुककर प्रणाम किया। धर्मराज के शान्त्वना देने से वे कुबेर के दूत शान्त हुए और कुबेर को भी पाण्डवों के आने की सूचना मिल गयी। फिर अर्जुन के आने की प्रतीक्षा करते हुए उन्होंने कुछ समय तक वहाँ गन्धमादन के शिखर पर ही निवास किया। वहाँ रहते समय एक दिन द्रौपदी और भाइयों के साथ वार्तालाप करते हुए धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा, 'जहाँ पहले देवता और मुनियों ने निवास किया है, ऐसे अनेकों पवित्र और कल्याणकारी तीर्थ और मन को आनन्दित करनेवालों वनों के हमने दर्शन किये हैं। साथ ही जहाँ-तहाँ आश्रमों में अनेकों शुभ कथाएँ सुनते हुए हमने विशेषतः विद्वानों के साथ तीर्थों में स्नान किया है और जल से देवपूजन करते रहे हैं और जैसे कन्द-मूल-फल मल सके हैं उनसे पितरों का भी तर्पण किया है। इस प्रकार महात्मा लोमश ने हमें क्रमशः सभी तीर्थस्थानों के दर्शन करा दिये हैं। अब यह सिद्धों से सेवित कुबेरजी का पवित्र मन्दिर है।इसमें हमारा प्रवेश कैसे होगा ?'  जिस समय धर्मराज इस प्रकार बातचीत कर रहे थे तभी उसी समय उन्हें आकाशवाणी सुनाई दी---'अब तुम यहाँ से आगे नहीं जा सकते, यह मार्ग बहुत दुर्गम है; इसलिये कुबेर के आश्रम से आगे न बढ़कर तुम जिस मार्ग से आये हो, उसी से श्री नर-नारायण के स्थान बदरीकाश्रम लौट जाओ। वहाँ से तुम सिद्ध और चारणों से सेवित वृषपर्वा के आश्रम को जाना, जो बड़ा ही रमणीक और सिद्ध एवं चारणों से सेवित है। फिर उसे पार करके तुम आर्ष्टिषेण के आश्रम में निवास करना। उससे आगे जाने पर तुम्हें कुबेर के मन्दिर के दर्शन होंगे।' इसी समय वहाँ दिव्य गंधमय पवित्र और शीतल वायु बहने लगा तथा पुष्पों की वर्षा होने लगी। उस आश्चर्यमय आकाशवाणी को सुनकर राजा युधिष्ठिर महर्षि धौम्य की बात मानकर वहाँ से लौटकर श्रीनर-नारायण के आश्रम में आ गये।


No comments:

Post a Comment